लेखिका- अमृता पांडे
सुरेश मास्साब स्कूल से घर की ओर लौट रहे थे. अनायास ही उन्हें ध्यान आया कि शाम के लिए कुछ सब्जियां वगैरह ले कर चला जाए. घर के रास्ते से तकरीबन आधा किलोमीटर दूर दूसरी दिशा को शाम के समय सब्जी की दुकानें लगती थीं. वह मुड़ गए उस दिशा को. सब्जियों के भाव पता किए तो बहुत ज्यादा थे. यों भी बरसात में सब्जियां की आवक कम होने की वजह से भाव अकसर बढ़ ही जाते हैं. भाव ज्यादा हो या कम, सब्जी तो खानी ही है. हां, थोड़ा कम से काम चला लेंगे. यह सोच कर वह अपनी रोज की दुकान में पहुंच गए.
मध्यवर्गीय परिवार की यही तो व्यथा है. सच में, महंगाई के बोझ तले सब से अधिक यही वर्ग दबता है, क्योंकि अमीरों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता. गरीब अपनी आवश्यकता के हिसाब से जरूरतें पूरी कर लेता है. थोड़ीबहुत सरकारी सहायता भी राशन के माध्यम से मिल जाती है, लेकिन मध्यम वर्ग को पूछने वाला कौन है? कोई नहीं.
सब्जी का थैला हाथ में लिए मास्साब यही सोच रहे थे कि तभी सब्जी वाला बोला, “मास्साब, क्या दूं?”मास्साब ने रेट पता किए और जो सब्जियां थोड़ा मीडियम रेंज वाली थीं, वे खरीद लीं.”अरे सुरेश बाबू, कैसे हो? बहुत कम सब्जी ले जा रहे हो?”तभी उन के कानों में एक आवाज टकराई. मुड़ कर देखा तो पड़ोस वाले लालाजी थे.
“जी हां, ज्यादा सब्जियां सड़ जाती हैं, बासी हो जाती हैं, इसलिए थोड़ीथोड़ी ही ले जाता हूं, ताकि ताजगी बनी रहे. मैं तो रोज ही इधर से गुजरता हूं,” कह कर मास्साब अपने रास्ते चलने लगे और मन ही मन सोचने लगे कि लोगों को भी दूसरों के मामलों में कितनी अधिक दिलचस्पी होती है, कौन कितनी सब्जी ले जा रहा है, क्या कर रहा है, इस से किसी को क्या मतलब?
समय कुछ ज्यादा हो गया था. मास्साब तेज कदमों से घर की ओर चलने लगे. यों तो पिछले कुछ सालों से इस इलाके में भी ईरिकशा चलने लगे थे, लेकिन सुबहशाम पैदल चल कर वह 20 रुपए बचा लेते और साथ ही साथ सैर भी हो जाती.
यों तो किसी की बात का मास्साब पर बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन सब्जी मंडी में लालाजी की कही हुई बात उन के कानों में गूंज रही थी. वह सोच रहे थे. क्या हालत हो गई है आज के समय में. मध्यम वर्ग का समाज बच्चों की इच्छा की सब्जी भी नहीं ले सकता. घर पहुंचे तो पत्नी साहिबा थोड़ा उदास सी बैठी थीं.
मास्साब ने पूछा, “क्या बात है जया. सबकुछ ठीकठाक है. तुम्हारी तबीयत ठीक है?” संक्षिप्त सा ही बोलते थे वह.”हां, मेरी तबीयत ठीक है. आप हाथपैर धो लो. मैं पानी ले कर आती हूं.”बहुत ही समझदार और सुलझी हुई महिला थी जया. पति के घर आतेआते कभी भी किसी तरह की शिकायत नहीं करती, लेकिन आज तो मन उन का भी खराब था. सुरेश बाबू के लिए चाय बना कर लाई और साथ में बैठ कर खुद भी पीने लगी. तभी सुरेश बाबू की नजर दीवार की ओर गई, “अरे, यह कैसे टूट गया? प्लास्टर भी उखड़ गया है.”
“हां, बिट्टू ने अपनी नई जींस टांगने की कोशिश की तो यह निकल गया और मैं ने फिर से ठोंक कर अटकाने की कोशिश की, तो यह प्लास्टर निकल गया,” वह आगे बोली, “ठोंकने की आवाज सुन कर अम्माजी भी ऊपर आ गईं और आज तो वे बड़ी नाराज थीं.””हां, उन्होंने तो मकान में किसी भी तरह की छेड़छाड़ करने से पहले ही रोका था. तुम ने उसे दोबारा नहीं ठोंकना था.”
“तो कपड़े कहां टांगे जाते? आप ही बताइए. अभी 3-4 दिन पहले भी उन्होंने किसी बात को ले कर एतराज जताया था.”फिर कुछ पल रुक कर वह बोलीं, “सुनिए, हम कब तक इस तरह दूसरों की बातें सुनते रहेंगे, क्या सब की तरह हमारा भी एक छोटा सा घर नहीं हो सकता? अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. उन का भी मन करता है कि कहीं अपना घर होता.”
“तुम बात सही कह रही हो. मैं मानता हूं कि यह तुम्हारा और बच्चों का अरमान होगा. मैं भी यही चाहता हूं, लेकिन इस मास्टरी में खानापीना, बच्चों को पढ़ानालिखाना. इस सब के बाद इतना बचता ही कहां है कि हम मकान बनाने की सोचें?” सुरेश बाबू ने अपने विचार रखे.
“हां, देखो. एकसाथ मकान बनाने की बात तो मैं भी नहीं कर रही हूं , लेकिन हम धीरेधीरे शुरुआत तो कर सकते हैं. आप के स्टाफ के कई लोगों ने इस बीच जमीन खरीद ली है और मकान बना लिए हैं. हम भी कहीं जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा देख लेते हैं ना,” किसी बच्चे की तरह जिद करते हुए पत्नी जया बहुत भोली लग रही थी.
सुरेश मास्साब समझ चुके थे कि आज जया ने बात छेड़ दी है. अब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी.गहरी सोच में पड़ गए थे वे. यों तो शिक्षा विभाग में भी अच्छीखासी वेतन वृद्धि इस बार हुई थी, लेकिन मास्साब को जो कुछ भी करना था, वह इसी तनख्वाह में करना था. कोई पुश्तैनी जमीनजायदाद या रुपयापैसा उन के पास था नहीं. आज के जमाने में बच्चों को पढ़ानालिखाना कितना महंगा है. यों भी मास्साब के दोनों बच्चे पढ़ने में अच्छे थे, तो उच्च शिक्षा में अच्छाखासा खर्चा आना तय था. बच्चों की जरूरतें पूरी ना हो पाएं तो बाद में वे भी तो सुनाते हैं कि आप ने क्या किया हमारे लिए.
पत्नी ने तो अपने मन की बात कह दी थी और थोड़ी देर में फिर वह सामान्य हो गई, लेकिन सुरेश बाबू के लिए तो आज की रात बहुत लंबी हो गई थी.अगले दिन सुबह उन्होंने अपने फंड का हिसाब लगाया. लोन के बारे में भी पता करने का दिमाग बनाया. बात भी सच है कि पूरी जिंदगी किराए के मकान में कैसे काटते.
उन्होंने महसूस किया था कि जब भी पत्नी के साथ कहीं जाते तो लोग पूछते, “अपना मकान है या किराए का?”मास्साब तो किराए का बोल कर साइड हो लेते, लेकिन पत्नी का मुंह थोड़ा मुरझा सा जाता.खैर, मास्साब ने उस दिशा में सोचना शुरू कर दिया. उन के ही किसी साथ के टीचर ने उन्हें जमीन बिकने के बारे में बात बताई.