कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

सुरेश बाबू को काटो तो खून नहीं. इतने सरल स्वभाव के थे कि समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे परिस्थिति के साथ पलक झपकते ही इनसान भी बदल जाता है. उन का तो सोचना था कि वर्षों से जिस गुप्ता के यहां से वे सामान ले रहे हैं, वह उन की इस बात में कुछ तो मदद करेगा और यह वकील भी उस का ही सुझाया हुआ था. परंतु धीरेधीरे सुरेश बाबू के सारे यकीन धराशायी होते जा रहे थे.

इस केस को चलतेचलते लगभग 2 साल बीत गए थे.सारी आशा अब निराशा में बदल गई थी. अचानक देर शाम अग्रवाल वकील का फोन आया. सुरेश बाबू लपक कर फोन की ओर बढ़े. उधर से किसी आवाज की प्रतीक्षा करने से पहले ही बोल उठे, "नमस्कार वकील साहब, कैसे हैं. मुझ नाचीज को कैसे याद किया?"

"हां सुरेश बाबू, ऐसा है कि तुम्हारे म्यूटेशन के कागज तैयार हो रहे हैं. सैमुअल के बेटों का केस सुलझ गया है. अब दाखिलखारिज थोड़ा आसान हो जाएगी. तुम कल सुबह ठीक 9 बजे मेरे केबिन में आ कर मिलना. हां, फीस के 15,000 रुपए ले कर आना."

फोन रख कर सुरेश बाबू वहीं सिर पकड़ कर बैठ गए. वकील साहब से कुछ पूछने का साहस तो उन में था नहीं कि आधा काम तो पुराने वकील ने किया हुआ था और इन्हें भी अच्छीखासी रकम 2-3 बार दे चुके हैं. अब यह 15,000 रुपए किस बात के...?

वे बिस्तर में जा कर लेट गए. उन्हें लगा कि उन का शरीर बेजान हो चुका है और वह घर पर नहीं, बल्कि अस्पताल के किसी बेड में लेटे हैं, जहां पर  कोई निर्णय डाक्टर उन के तरहतरह के आपरेशन कर अपने अनुभवों में वृद्धि करना चाह रहा हो और फीस का बजट बढ़ाता ही जा रहा हो.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...