संजीव के घर के दरवाजे पर पहुंच कर निकहत ने धड़कते दिल से कौलबेल पर उंगली रखी. थोड़ी देर में एक नौकर ने दरवाजा खोला.
‘जी... मेमसाहब...?’ उसने निकहत को प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा.
‘मुझे संजीव से मिलना है....’ निकहत ने जवाब दिया.
‘जी, वो तो अपनी नयी वाली कोठी में हैं...’ नौकर ने कहा.
‘नयी वाली कोठी में...?’ निकहत ने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या तुम वहां का पता बता सकते हो...?’
‘जी हां... तिलक रोड पर तीसरे नम्बर की सफेद रंग की कोठी है...’ वह बोला.
‘ठीक है...’ संक्षिप्त सा उत्तर देकर वह पलट पड़ी.
टैक्सीवाले को उसने तिलक रोड चलने के लिए कहा. तिलक रोड पर स्थित तीसरे नम्बर की कोठी बहुत शानदार थी. गेट पर खड़े गार्ड ने जब निकहत को गेट की तरफ आते देखा तो सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया.
‘किससे मिलना है मेमसाहब...?’ उसने पूछा.
‘क्या संजीव यहीं रहते हैं...?’ निकहत ने हिचकिचाते हुए पूछा.
‘जी हां... संजीव साहब का ही बंगला है...’ उसने गर्दन अकड़ाकर जवाब दिया.
‘मुझे उनसे मिलना है...’ निकहत ने कहा.
‘आप अपना विजिटिंग कार्ड दे दीजिए... मैं अन्दर पहुंचाये देता हूं....’
‘नहीं, कार्ड तो नहीं है... तुम उनको बता दो कि निकहत मिलना चाहती है... वह समझ जाएंगे....’ निकहत ने गार्ड से कहा.
‘जी, आप यहीं ठहरें, मैं अन्दर पूछता हूं...’ कह कर गार्ड अन्दर की तरफ चला गया.
निकहत बेचैनी से गेट के पास ही इधर-उधर टहलने लगी. उसके ऊपर हर लम्हा जैसे भारी होता जा रहा था. आंखों में बार-बार आंसू उमड़ रहे थे. जो कुछ हो चुका था उस पर विश्वास कर पाना उसके लिए असम्भव हो रहा था.
‘काश कि यह मेरा संजीव न हो...’ वह अपने मन को फरेब देने लगी. चंद मिनटों बाद उसने दूर से गार्ड को अपनी तरफ आते देखा.