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लेखिका- गायत्री ठाकुर

"कुदरत की यह कैसी मरजी है, यह कैसा न्याय है उस का कि इस उम्र में जवान बेटे को मुखाग्नि देने पडे़..." और श्याम सुंदर जी फूटफूट कर रोने लगे."सब अपनाअपना कर्म है. मनुष्य तो कर्म से बंधा है. जाने कौन से कर्म का फल कब भोगना पड़ जाए. पिछले जन्म के कर्मों का फल भी इसी जीवन में  भोगना पड़ता है. मनुष्य तो कर्म से बंधा हुआ है. हमें बस अच्छे कर्म करने चाहिए, बाकी कर्म-फल तो बस कुदरत के हाथ में है," शास्त्रीजी ने उपदेश देते हुए कहा.

"मैं ने तो पूरी जिंदगी किसी के लिए कभी भी कुछ बुरा नहीं किया, फिर यह किस कर्म का फल हमें मिला. अब तो प्रकृति से यही प्रार्थना है कि वह मुझे भी मुक्ति दे दे," श्यामसुंदर दास ने तड़पते हुए कहा."जीवन-मरण अपने हाथ में नहीं है श्यामसुंदर जी. हम सब ऊपर प्रकृति की कठपुतली हैं वह जब जिसे जैसे चाहे नचा दे. और मुक्ति तो, बस, दानपुण्य करने से ही मिलेगी श्यामसुंदर जी. आप से एक अनुरोध है, धर्मशाला के बगल की जो आप की जमीन है उस जमीन को आप धर्मशाला को दान कर दीजिए. अपनी बाकी बची हुई जिंदगी को दानपुण्य जैसे कामों में लगाएं. मरने के बाद कुछ भी साथ नहीं जाने वाला. बुढ़ापा पक्के हुए आम की तरह होता है, कब टपक जाए, पता नहीं. परंतु जब तक सांस चल रही है, दानपुण्य के कार्य में अपनेआप को लगा दीजिए. इसी से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा," उपदेश देने के बाद शास्त्रीजी वहां से चलने के लिए उठ खड़े हुए और कमरे से बाहर जाते हुए एक नज़र श्यामसुंदर जी के चेहरे पर डाली और कुछ टटोलने के अंदाज में उन्हें बड़े गौर से देखा और फिर अपनी बात को दोहराते  हुए कहा, "उम्मीद है आप हमारी कही गई बातों पर अवश्य ही जल्द विचार  करेंगे. दानपुण्य के कार्य में विलंब सही नहीं है."

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