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लेखिका- गायत्री ठाकुर

समधी-समधन के बीच उठे इस विवाद को बढ़ता देख अपनेआप को संयमित करते हुए श्यामसुंदर दास ने बड़े ही शांत भाव से कहा, "मैं आप की बातों से पूर्णतया सहमत हूं समधन जी. मैं आप के विचारों का आदर करता हूं. मैं भी नहीं चाहूंगा कि आप की बेटी विधवा जीवन के कष्टों को भोगते हुए सिर्फ मेरी सेवा के लिए यहां पूरी जिंदगी पड़ी रहे. आप बड़े सम्मान के साथ अपनी बेटी को अपने साथ ले जाएं. उसे अपनी जिंदगी जीने का पूरा हक है."

इतना कहते हुए उन्होंने अपने दोनों हाथ समधीसमधन के आगे जोड़ दिए. और उस के बाद श्यामसुंदर दास अपने बेटे के कमरे में चुपचाप आ कर बैठ गए. सामने बेटे की तसवीर के आगे दीपक जल रहा था और उस दीप के प्रकाश में उन के बेटे का मुसकराता चेहरा मानो उन्हें ही देख रहा था...और कह रहा था... ‘पापा. मैं आप के साथ हूं.’

सारी रात श्यामसुंदर जी बेटे की तसवीर के पास ही बैठे रह गए. वहीं बैठेबैठे जाने कब उन की आंख लग गई. सुबह उन की आंखें खुलीं तो नंदा उन के सामने चाय की प्याली लिए खड़ी थी. उन्होंने अपनी बहू की ओर भीगी पलकों से एक नजरभर देखा और उस के सिर पर बड़े ही प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, "जाओ, जहां भी रहना सदा ही खुश रहना." और उन की आंखें छलक पड़ीं.

तभी उन की बहू के पीछे खड़ी उन की समधन आगे बढ़ कर अपनी बेटी के हाथों से चाय की प्याली ले कर श्यामसुंदर जी को पकड़ाते हुए बोली, "हम मांबाप का क्या है, हम ने तो अपनी जिंदगी जी ली है. हमारे बच्चे खुश रहने चाहिए. आप की पीड़ा मैं अच्छे से समझती हूं. आप ने  तो अपना  जवान बेटा खोया है. परंतु हमारी भी लाचारी है. आखिर, मैं भी तो एक बेटी की मां हूं. मेरे लिए भी उस की खुशी सब से बढ़ कर है. परंतु उस के जीवन निर्वाह में..., मेरा मतलब है उस के भविष्य को संवारने के लिए पैसों की भी तो जरूरत पड़ेगी ही." समधन अपनी धुन में बस अपनी ही कहे जा रही थी, कि अचानक श्यामसुंदर जी गहने और कुछ रुपयों से भरा एक बक्सा तथा एक बैग, जिस में बैंक के कुछ कागजात थे, पकडा़ते हुए उन्होंने  अपनी समधन से  कहा, "यह मेरे बेटे की पूरी कमाई है. अब मेरा बेटा ही नहीं रहा, तो मैं इन सब का क्या करूंगा." और इतना कह कर वे कमरे से बाहर निकल गए.

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