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लेखिका- गायत्री ठाकुर

‘पापा, मुझे अपने कंधे पल बिठा लो न. अब औल नहीं चला जाता…’ ‘अरे, थोड़ी देर और चल लो न, आगे की सड़क पार करते ही टैक्सी मिल जाएगी. क्यों पापा को तंग कर रहे हो?’ ‘नहीं, मुझे पापा के कंधे पल बैठना है.’

‘अरे जाने दो, सच में इस के पैर थक गए होंगे. आ जा, मैं अपने राजा बेटा को कंधे पर बिठा लेता हूं.’‘हाहाहा पापा, मम्मी समझतीं ही नहीं. देखो, मेरे पांव कितने छोटे हैं… पापा, आप के  कंधे पल बहुत मजा आता है, हाहाहा.’”श्यामसुंदर जी, श्यामसुंदर जी, अब और कितनी देर तक अर्थी ऐसे ही पड़ी रहेगी? मोह का त्याग करिए. चलिए उठिए, अर्थी को कंधा दीजिए.”

जवान बेटे के मृतशरीर के सामने बुत बने बैठे श्यामसुंदर जी अपने बेटे के मृतशरीर को पथराई आंखों से देखे जा रहे थे.  उन की आंखों के सामने उन के बेटे का बचपन, उस की शरारतें, उस का हंसना, उस की तोतली बोली, उस का उन के कंधे पर बैठने की जिद… सभी कुछ किसी सिनेमा के परदे के समान चल रहा था.

वह दुख की असीम अवस्था में मृतप्राय से अपने बेटे के चेहरे को बस देखे जा रहे थे. तभी किसी ने उन के कंधे को हाथों से हिलाते हुए यह बात कही-“क..क..कंधा..,” उन की जबान  कांप सी गई. “अ..अर्थी..” ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें किसी गहरी नींद से जगा दिया गया हो. वे इन्हीं शब्दों को कांपती हुई आवाज में दोहराए जा रहे थे.

” हां, हां अर्थी, आप का बेटा इस दुनिया में नहीं रहा. अब मोह का त्याग कीजिए. मृतशरीर को ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता. इस की अंतिमयात्रा के लिए आप को कंधा तो देना ही होगा,” शास्त्रीजी ने समझाते हुए कहा.

अपने जवान इकलौते बेटे की मौत के दुख ने श्यामसुंदर जी को इस कदर तोड़ दिया था कि खड़े होने की कोशिश में वे लड़खड़ा से गए.उन के पैर कांप रहे थे. पर अभी तो उन्हें खुद को मजबूत करना था. मृत बेटे की अर्थी को कंधा देना था. वह कंधा, जिस पर नन्हा कदम थक जाने पर  उस की सवारी के लिए  मनुहार  करता था. वह कंधा, जिस पर चढ़ कर वह खुशी से  मचलने लगता था. उसे पूरी दुनिया में अपने पापा की कंधे की सवारी भाती थी. मंदिर की घंटी छूनी हो तो पापा का कंधा, मम्मी की छिपाई चीजें उतारनी हों तो पापा का कंधा. और आज अंतिमयात्रा भी पापा के कंधे पर.  बेटे को कंधा देने के लिए श्यामसुंदर जी को खुद को मजबूत करना ही था. श्यामसुंदर जी पूरी ताकत के साथ अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालते हुए बेटे की अर्थी को कंधा देने के लिए उठ खड़े होते हैं.

प्रवीण, उन का बेटा. उस की उम्र ही अभी क्या थी. मात्र 29 वर्ष की ही तो थी. पिछले साल ही तो उस की शादी हुई थी. विवाहित जीवन का साल भी पूरा नहीं हुआ और उस की हार्टअटैक से मृत्यु हो गई. अच्छा पढ़ालिखा नौजवान था. अच्छी नौकरी थी. जिंदगी अच्छे से कट रही थी. परंतु अपनी मां की मृत्यु के बाद से ही प्रवीण चुपचाप रहने लगा था.  श्यामसुंदर जी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपने बेटे प्रवीण की शादी करा दी थी. उन्हें लगा कि बेटे की शादी करा देने से घर की खोई हुई रौनक वापस लौट आएगी.

बेटे की शादी की बात शास्त्रीजी ने ही उठाई थी और उन्होंने ही रिश्ता तय करवाया था. श्यामसुंदर जी के घर में शास्त्रीजी का अकसर आनाजाना होता था. श्यामसुंदर जी के घर से हो कर जो रास्ता निकलता था, उस से थोड़ी सी ही दूरी पर  जा कर एक गली थी.  वहीं पर एक बड़ा सा धर्मशाला स्थित है. वही धर्मशाला शास्त्रीजी  का स्थाई निवासस्थान है.”हाय रे,, समय का लेखा. देखो,  नियति ने कैसा खेल रचा है. कहां तो बेटा बाप को कंधा देता, बाप को ही बेटे को कंधा देना पड़ रहा है,” भीड़ में से किसी ने धीमे स्वर में यह बात कही.तो किसी दूसरे ने कहा, “हां, सच में सब समय का लिखा है.”

तो किसी तीसरे ने कहा, “अरे, प्रकृति को ले ही जाना था तो इस बूढ़े  बेचारे  बाप को ले जाती. इस के जवान बेटे को ले जा कर उस ने किस तरह का न्याय किया.वहां पर एकत्रित भीड़ ने अपने अपने तरीके से अपनी संवेदनाएं प्रकट कीं. उन में से कुछ श्मशान घाट  की तरफ अर्थी के पीछेपीछे चल दिए और कुछ ने अपने घर का रास्ता नापा.बेटे का दाहसंस्कार करने के बाद देरशाम जब श्यामसुंदर जी घर वापस पहुंचे तो घर की दहलीज पर पैर रखते ही  उन के कानों में अपनी समधन की बातें सुनाई पड़ीं. वह अपनी  बेटी से कह रही थी, “तुम्हारी पूरी जिंदगी अभी पड़ी है. तुम इसे  अकेली कैसे काटोगी? जो होना था वह तो हो गया. अब तुम हमारे साथ वापस चलोगी. मैं तुम्हें यहां अकेली सिर्फ तुम्हारे ससुर की सेवा करने के लिए तो नहीं छोड़ सकती. अब तुम्हें केवल अपने भविष्य के विषय में सोचना चाहिए.”

“कैसी बातें कर रही हो, नंदा की मां? यह वक्त है ऐसी बातें करने का.. अभी तो उस के पति की चिता की अग्नि शांत भी नहीं हुई और तुम…”, समधी जी ने अपनी पत्नी को झिड़कते हुए कहा.”तो क्या, अपनी बेटी को जिंदगीभर यहां रोने के लिए तो नहीं छोड़ सकती. उस की पूरी जिंदगी पडी़ है. वह किस के सहारे यहां रहेगी. यहां लोगों ने तो अपनी जिंदगी जी ली है. अब यह  सिर्फ यहां किसी की सेवा के लिए तो नहीं पडी़ रहेगी,” समधन ने बड़ी ही कठोरता से ये बातें कहीं.

“ये सारी बातें तुम्हें अभी ही करनी हैं,” समधीजी क्रोधित होते हुए बोले. “हां तो, हमें कभी न कभी  यह निर्णय तो लेना ही है,” श्यामसुंदर दास जी के समधन ने अपने पति की बातों पर चिढ़ते हुए कहा.

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