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लेखिका- छाया श्रीवास्तव

जब उसे होश आया तो कई दिन बीत चुके थे. दोनों पैरों में प्लास्टर चढ़ा था. दर्द से वह चिल्लाचिल्ला कर रोई. मौत भी उसे परे धकेल गई थी. नर्सों से ज्ञात हो गया था कि ऊपर से गिरने से चोट के कारण बहुत रक्तस्राव हुआ परंतु वह मरने से बालबाल बच गई है.

‘अस्पताल में उसे लंबे समय तक रहना पड़ेगा,’ सुन कर उस ने माथा पीट लिया. रातदिन वह इसी चिंता में घुल रही थी कि ठीक होने पर वह फिर उसी यातनागृह में ?ांक दी जाएगी और अब की बार वह किसी प्रकार शोषण से नहीं बच पाएगी. यदि स्वस्थ होने पर वह यहां से निकल भागे तो ट्यूशन आदि कर के आगे पढ़ सकती है.

धीरेधीरे एक माह गुजर गया. प्लास्टर 3 माह का चढ़ा था, परंतु अब उस की अवहेलना होने लगी थी. जो हमदर्दी पहले उसे मिली थी वह कम होती चली गई. आज एक उपेक्षित मरीज थी वह, परंतु जाती कहां? यदि अपना कोई होता तो वह सह लेती और जबतब आ कर जांच करा लेती. परंतु बुरे दिनों का कालचक्र तो उस के साथसाथ चल रहा है. तभी एक दिन एक युवक अपने मित्र के साथ पूछताखोजता उस के पास आ खड़ा हुआ.

‘‘अरे बहन, तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ? उस दिन तो मैं तुम्हारा नाम पूछना ही भूल गया था. गीता नाम है तुम्हारा, यह अब ज्ञात हुआ. थानेदार साहब से पता लगा कि तुम नारी संरक्षण गृह से कूदी थीं, शायद आत्महत्या के इरादे से, परंतु बच गईं और अपनी दोनों टांगें तुड़वा कर अस्पताल में पड़ी हो. बहन, तुम ने ऐसा क्यों किया?’’

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