लेखिका- छाया श्रीवास्तव
इधर गीता से भूख सही नहीं जा रही थी. वह एक सिपाही से गिड़गिड़ा कर बोली, ‘‘भैया, मैं कई दिन की भूखी हूं. मु?ो दंड देने को दरिंदों ने भरपेट भोजन नहीं दिया. कहीं से 2 रोटी मिल जातीं तो…’’ कहतेकहते वह रो पड़ी.
‘‘देखो, मैं थानेदार साहब से बात करता हूं,’’ इतना कह कर वह चला गया.
आधे घंटे बाद जब वह लौटा तो गीता को उस के हाथों में दोने देख कर लगा कि वह तुरंत छीन कर पेट भर ले.
‘‘लो, बहन, इधरउधर से पैसे इकट्ठे कर के दुकान से ले कर आया हूं, पर तुम 10 जनों का पेट तो नहीं भर सकता.’’
‘‘हम सब तो खापी चुके हैं. गीता ही नहीं खा पाई. आप उसे ही दे दो,’’ सारी लड़कियां एकसाथ बोलीं.
फिर गीता जैसे खाने पर टूट पड़ी. जब पेट भर गया तब बाकी बचा भोजन उस ने उन सब में बांट दिया और सब खापी कर एकदूसरे से सट कर लेट गईं. इधर दलाल और पेशा कराने वाली औरत तथा अन्य आदमी लौकअप में बंद कर दिए गए.
दूसरे दिन उन सब लड़कियों की पेशी हुई. थानेदार ने एकएक लड़की की व्यथा सुनी. गीता ने भी अपनी शर्मनाक और दर्दभरी कहानी सुना डाली.
उन लड़कियों में सर्वाधिक वही पढ़ीलिखी थी, फिर भी वह जवानी के जोश में भूल कर बैठी. आयु थी कुल 18 वर्ष. इंटर में पढ़ती थी. सह शिक्षा थी लड़केलड़कियों की. उसी में छोटी बहन मीता तथा उस से छोटा भाई मयंक 10वीं और 8वीं में पढ़ रहे थे. मातापिता अपने तीनों बच्चों को उच्च शिक्षा देने को कृतसंकल्प थे.
गीता के साथ ही पढ़ता था अतुल. दोनों एकदूसरे को नोट्स तथा पुस्तकों के आदानप्रदान में इतने करीब आ गए कि प्रेमपत्रों की भाषा पढ़ने लग गए.
एक दिन छोटी बहन मीता के हाथ अतुल का प्रेमपत्र लग गया, जो उस ने अपनी मां के सुपुर्द कर दिया. उसी दिन से घर में जैसे तूफान आ गया. मांबाप की सख्त प्रताड़ना, मारपीट के बाद गीता पर प्रतिबंध लग गए. प्राइवेट पढ़ाने का प्रबंध किया गया, परंतु प्रेमांध पढ़ता कौन. सो दोनों के मन में द्वंद्व मचा था और एक दिन न जाने कब, कैसे, उन दोनों ने मुक्ति का प्रबंध कर लिया और वे पलायन कर गए.
धीरेधीरे 15 दिन निकल गए. होटलों में मौजमस्ती मना कर एक दिन अतुल आगे की समस्या से मुंह मोड़ कर उसे अकेली, निराश्रय छोड़ भाग खड़ा हुआ. कई दिनों की प्रतीक्षा के बाद वह भी एक दिन मौका देख कर निकल भागी और किसी तरह स्टेशन पहुंच कर जो ट्रेन दिखी, उसी में बैठ गई क्योंकि उसे भय था कि कहीं होटल वाले उसे पकड़ न लें.
कई स्टेशन आराम से निकल गए. तभी उसे टीटीई आता दिख गया तो उस की जान सूख गई. सामान के नाम पर उस के पास केवल एक थैला था जिसे ले कर वह शौचालय में जा घुसी. फिर कई स्टेशन निकल गए. एक घंटे के सफर के बाद ट्रेन रुकी तो वह चुपचाप नीचे उतर गई, क्योंकि वह कोई बड़ा नगर था, मगर ट्रेन में ही एक महिला की दृष्टि उस पर पड़ गई थी जो अपने शिकार के लिए ऐसे ही सफर करती. बहलाफुसला कर उसे बेटी बना कर वह अपने घर ले गई. कई दिन खातिर कर, सब्जबाग दिखा कर वह उसे दलालों के हाथ बेच गई, जहां वह पलपल लुट व मर रही थी.
अतुल से बदला लेने के लिए गीता कैसे भी उस गंदगी से भागना चाहती थी. धंधा न करने की जिद पर वह इतनी मार सह चुकी थी कि पोरपोर हर क्षण टीसता रहता था. कई दिनों से उसे भरपेट अन्न नहीं मिला था और मिला भी तो सिर्फ इतना कि वह मर न सके, तो भी धंधे में अधमरी सी ?ांकी जाती रही. साथ की लड़कियां उसे सम?ातीं कि चुपचाप नियति स्वीकार कर ले, इस के सिवा कोई उपाय नहीं है. पर वह किसी प्रकार सम?ाता नहीं कर पा रही थी.
यह सब थानेदार के सामने दोहराती, वह फूटफूट कर रोई थी. उस से पता पूछ कर उस के तथा सब लड़कियों के मांबाप और नातेरिश्तेदारों को सूचना भेजी गई थी. कुछ के अभिभावक आए और ले गए परंतु कुछ के ?ांकने भी नहीं आए. उन में गीता के मांबाप भी थे. वे तो नहीं आए परंतु घृणाभरा उन का पत्र अवश्य आया कि वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें दूसरी बेटी मीता की शादी करनी है. वह कुलकलंकिनी तो हमारे लिए मर गई. उसे यहां न भेजें.
बची सभी लड़कियों की कुछ ऐसी ही कहानी थी. नारी संरक्षण गृह में वे सब अनुशासन की कठोरता में जकड़ती गई थीं. गीता का तो रोरो कर बुरा हाल था. वह सोचती, काश, उस ने नादानी न की होती और अतुल की चिकनीचुपड़ी बातों में न आई होती तो उस के सुख का संसार तो न उजड़ता. ठाट से बीए की तैयारी कर रही होती और आगे जा कर किसी अच्छे घर की बहू होती. मातापिता की अत्यंत दुलारी बेटी आज उन के लिए सब से अधिक घृणा की पात्र हो गई थी. मांबाप, प्यारे भाईबहन छूटे, सर्वस्व लुटा… क्यों जीवित है वह?
नारी संरक्षण गृह में भी क्या वह सुरक्षित है? वहां का माहौल देख कर उसे लगा कि एक गंदगी छोड़ कर शायद वह दूसरी गंदगी में आ गई है.
एक कुंआरी लड़की उस दिन प्रसव वेदना से तड़प रही थी, जो उसी गृह के अत्याचार की कहानी थी. अस्पताल कौन ले जाए, इसीलिए वह वहीं तड़पतीचिल्लाती रही. फिर भोर तक ठंडी पड़ गई क्योंकि पेट में ही बच्चा मर गया था.
लड़की को हैजा हो गया था, इस से वह मर गई. पुलिस और डाक्टर की एक सी रिपोर्टें थीं. मामला खत्म हो गया था और उस का दाहसंस्कार कर दिया गया था. यह देख गीता का हृदय घृणा और विद्रोह से भर उठा कि इस से तो मर जाना ही अच्छा है.
तभी एक दिन उसे चक्कर और उलटी आई जिसे वह सब की नजरों से छिपा गई. वह सम?ा गई कि यह पूरे लक्षण गर्भवती होने के हैं. अवश्य यह अतुल का पाप है या फिर उन दरिंदों का.
अपार घृणा से तन सुलग उठा. क्या सोचा था, क्या वादे किए थे अतुल ने. शादी का सब्जबाग दिखलाया था और आज उसे इस गंदगी में ?ांक कर भाग खड़ा हुआ था. उस रोज उस ने अन्न का दाना भी न खाया. रातभर वह पड़ीपड़ी सोचती रही कि इस जीवन और इस दूसरी गंदगी से कैसे छुटकारा मिले?
उस के साथ की आई लड़कियों ने उस से बारबार पूछा कि वह अब क्यों इतनी निराश है? अब जब गंदगी में आ ही पड़ी है तब रोना क्या और हंसना क्या? वहां भुगता अब यहां भोगना है. परंतु उस ने किसी के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया.
2 दिन ऐसे ही निकल गए. निरीक्षिका आई और चली गई. वह पेट के दर्द का बहाना किए पड़ी रही.
तीसरे दिन वह 20 फुट ऊंची छत से कूद गई. सब गहरी नींद सोए थे. कोई जान नहीं पाया कि वह कब ऊपर गई और कब नीचे कूदी. सुबह जब गेट खुले तब खून से लथपथ देख कर सब चीखे, ‘‘शायद मर गई.’’
पुलिस आई. जांच हुई तो पता चला कि वह मरी नहीं है, जख्मी हुई है. अस्पताल ले जाई गई. जांच हुई तो पता लगा कि पैर की हड्डी टूट गई है, गर्भाशय में चोट के कारण रक्तस्राव होने लगा है. महीने के केवल 10 दिन ही खिसके थे, इस से सारी सफाई स्वत: हो गई.





