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लेखिका- छाया श्रीवास्तव

धीरेधीरे उस का समस्त संकोच टूट गया. भाभी, मां तथा बच्चे उसे ऐसे घेरे रहते जैसे वह अजय की सगी बहन हो. वैसे, अजय की बहन थी भी नहीं. 2 भाई थे. छोटा भाई दिल्ली में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष का छात्र था. अजय के पिता खेतीबाड़ी के कारण अधिकतर गांव में ही रहते थे. मां अवश्य बेटापोते के पास आ जाती थी. यह मकान बहुत पहले का था. जो कमरे किराए पर उठे थे उन्हीं में से एक कमरा गीता को मिल गया था. अब वह अपना सारा काम किसी तरह खुद ही करने लगी थी. पर एक पांव में अब भी दर्द रहता था.

भाभी दोनों समय उसे कमरे में ही खाना दे जातीं. बच्चे उसे घेरे रहते. इस बीच उस ने अजय द्वारा पता लगा लिया था कि वह द्वितीय श्रेणी में पास हो गईर् है. अजय ने प्रमाणपत्र मंगवाने की प्रक्रिया भी आरंभ कर दी थी. तब वह बैठेबैठे अजय के दोनों बेटों को पढ़ाने लगी.

धीरेधीरे और भी बच्चे जुड़ गए. संख्या बढ़ चली तो अजय को आशा की एक किरण दिखी. वह बोला, ‘‘गीता, क्यों न तुम ट्यूशन पढ़ाने लगो. घर बैठे आमदनी की आमदनी होगी और तुम्हारा मन भी लग जाएगा.’’

‘‘हां भैया, मैं भी यही सोच रही थी कि नौकरी तो मिलेगी नहीं और मिलेगी भी तो किसी प्राइवेट स्कूल में, वह भी 500-600 रुपए माह पर. आप के कमरे में बहुत जगह है. मैं भलीभांति यह काम कर लूंगी. आप बच्चे जुटा दें. पहली से 8वीं तक के, मैं पढ़ा लूंगी,’’ वह उत्साह से बोली.

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