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अब तो अनुजा का नित्य का क्रम बन गया था. जब तक वह स्कूल से आ कर उस बच्चे के साथ घंटाआधघंटा बिता न लेती, उस का खाना ही हजम न होता था. एक दिन वह उस के साथ खेल रही थी कि अचानक सविता मेम आ गईं.  वह उन्हें देख कर डर गई. अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि वे संजीदा स्वर में बोलीं, ‘अच्छा, तो वह तुम ही हो जिस के साथ खेल कर मेरा बेटा विपुल इतना खुश रहता है. यहां तक कि छोटेछोटे वाक्य भी बोलने लगा है.’

कहां तो अनुजा सोच रही थी कि उन की आज्ञा के बिना उन के घर घुसने तथा उन के बच्चे के साथ खेलने के लिए उसे खरीखोटी सुननी पड़ेगी पर उन्होंने न केवल उस से प्यार से बातें कीं बल्कि उसे सराहा भी. उन का सराहनाभर  स्वर सुन कर वह भी उत्साह के स्वर में बोली, “मेम, मुझे बच्चों के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है, घर में कोई छोटा बच्चा नहीं है, सो इस के साथ खेलने आ जाती हूं.’ बहुत ही प्यारी बच्ची हो तुम. बस, आगे यह ध्यान रखना कि जो काम अच्छा लगता है उसे छिप कर करने के बजाय सब के सामने करो, जिस से ग्लानि का एहसास नहीं होगा,’ कहते हुए उन्होंने उस की पढ़ाई के बारे में जानकारी ली. 

मां को जब अपने इस वार्त्तालाप के विषय में बताया तो वह बोली, ‘क्यों व्यर्थ अपना समय बरबाद कर रही है. आज उसे तेरी आवश्यकता है तो मीठामीठा बोल रही है, कल जब आवश्यकता नहीं रहेगी तो वह तुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकेगी. आखिर ऐसे लोगों की यही फितदरत होती है. वैसे भी, जो अपनों का न हो सका वह भला दूसरों का क्या होगा?’

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