हिंदी टीवी सीरियल्स की बात की जाए तो आंखों के सामने आता है वह दृश्य जिस में एक बहुत ही आलीशान पैलेस है, एक सास जो या तो अबला है या फिर इतनी बड़ी बिंदी लगाती है कि उस में से वैंप वाली वाइब्स आनी शुरू हो जाती हैं, एक बहू जो ऊपर से नीचे तक जेवरों से लदी हुई है, आंखों से अश्रुधारा बहा रही है और गाय बन कर सब की हां में हां मिला रही है.
इंडियन टीवी सीरियल्स असल में इस से कहीं ज्यादा बनावटी और नकली हैं जिन के बैकग्राउंड म्यूजिक ‘धुम्म ताना…ना…ना…ना’ को भूल पाना लगभग मुश्किल है.
इन सीरियल्स में लोगों की जान डाक्टर के हाथ में न हो कर भगवान के सामने जल रहे उस दीए की लौ में होती है जो औपरेशन के दौरान यदि बुझ जाए तो समझिए व्यक्ति की जान गई. इल्लौजिकल और दकियानूसी बातों से भरे ये टीवी सीरियल्स दर्शकों के मस्तिष्क को विकृत तो करते ही हैं, साथ ही ये ऐसा भ्रमजाल फैलाते हैं जिस की चपेट में अकसर वे लड़कियां आ जाती हैं जिन्हें छोटी उम्र से ही मां के साथ बैठ कर इन सीरियल्स को देखने की आदत लग जाती है.
मेरी उम्र यही कुछ 16 वर्ष थी जब मैं 11वीं कक्षा में पढ़ रही थी. देखा जाए तो 16 वर्ष इतनी छोटी उम्र भी नहीं, जिस में लड़कियों को बच्चा कहा जा सके. साथ ही, इतनी बड़ी उम्र भी नहीं कि उन से अत्यधिक समझदारी की उम्मीदें रखी जाएं. मेरी कुछ सहेलियां मेरे अगलबगल बैठ कर टीवी पर आने वाले एक सीरियल ‘बालिका वधू’ के विषय में चर्चा कर रही थीं. यह सीरियल मेरे घर में भी बड़े चाव से देखा जाता था.
‘‘यार, जगिया ने कितना गलत किया न मुंबई जा कर. उसे किसी दूसरी लड़की से कैसे प्यार हो सकता है?’’ पहली लड़की ने कहा.
‘‘हां यार, बता, ऐसा भी कोई करता है भला. वे दोनों बचपन से साथ थे और अब अचानक बड़े होते ही किसी और से प्यार कैसे हो सकता है उसे,’’ दूसरी ने जवाब दिया.
तीसरी लड़की ने कहा, ‘‘सच में, देखना यह दूसरी लड़की ना जगिया को छोड़ कर चलती बनेगी, उस ने आनंदी का प्यार जो ठुकरा दिया.’’
सीरियल ‘बालिका वधू’ में आनंदी और जगिया यानी जगदीश का बालविवाह हो जाता है. अब इतने वर्षों बाद जब दोनों बड़े हो चुके हैं तो जगिया ने डाक्टर बनने के लिए मुंबई के एक मैडिकल कालेज में दाखिला ले लिया जहां उस की मुलाकात एक दूसरी लड़की से हो जाती है. जगिया इस दूसरी लड़की से प्यार करने लगता है जोकि इस उम्र में स्वाभाविक ही है. एक तरफ वह दूसरी लड़की पढ़ीलिखी और समझदार है तो दूसरी तरफ आनंदी भोली गाय सी है जो सुबह से शाम तक अपनी कोठी की चारदीवारी में ‘दादीसा और मासा’ करती रहती है.
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शो के क्रिएटर्स को जहां एक मैच्योर कंटैंट के तहत बजाय यह दिखाने के कि छोटी उम्र की शादियों में बच्चों का किसी दूसरे से प्यार में पड़ना स्वाभाविक है, उन्होंने दिखाया कि बड़े हो कर जगदीश का किसी और से प्यार में पड़ना गलत था और चाहे उसे आनंदी से प्यार नहीं लेकिन जीवन उसे उसी के साथ काटना चाहिए था क्योंकि प्यार आज नहीं तो कल, हो ही जाता.
अब जब इस तथ्य के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि काश, उस समय ही मैं उन से यह कह देती कि यह सीरियल कोई आदर्श सीरियल नहीं जिस में जो कुछ भी दिखाया जाए, सही ही हो, बल्कि यह तो एक झूठ और कल्पना है जिसे हमारे मस्तिष्क पर थोपा जा रहा है.
अच्छे होने की पहचान
टीवी सीरियल्स के मुताबिक अच्छे होने की पहचान है कि आप के साथ कुछ भी बुरा हो तो उसे आंख बंद कर के सहते जाइए. वह लड़की जो सिर से पैर तक ढके कपड़े पहनती है, बोली साधारण है, गुस्सा तो उस के स्वभाव में है ही नहीं और लड़कों से तो इतना दूर रहती है कि उन का साया भी उस पर नहीं पड़ता, टीवी सीरियल्स के मुताबिक अच्छी है. वह लड़की जिस के शरीर पर घुटने से ऊपर तक की ड्रैस है और पैरों में हाई हील्स हैं, जिस की जबान कैंची की तरह चलती है वह या तो सीरियल में वैंप है या फिर सोकौल्ड बिगड़ी हुई नवाबजादी. ऐसी लड़की, सीरियल्स के मुताबिक, खराब है.
सीरियल की गोपी बहू, अक्षरा और संध्या जैसे कैरेक्टर्स को देखदेख कर इन का मुझ पर इतना गहरा असर पड़ा था कि मुझे लगता था हमेशा लोगों का अच्छा करो, चाहे वे सीधेमुंह बात न करें. इस सीख को मैं ने इतनी बुरी तरह अपना लिया कि मेरा स्वभाव ही गूंगी गाय जैसा हो गया. हकीकत से सामना तो तब हुआ जब मेरी अच्छाई का लोगों ने फायदा उठाना शुरू किया और जब तक मैं ने विरोध नहीं किया तब तक ऐसा चलता रहा.
वन मैन वूमन
सीरियल्स में वन मैन वूमन वाली जो धारणा दिखाई जाती है उस से मुझे खासी चिढ़ है. आखिर हो भी क्यों न, इन के द्वारा औरतों और लड़कियों के दिमाग में जो ये अजीबोगरीब बातें बैठाई जा रही हैं वे सही हैं तो हैं कहां से. पति अपनी पत्नी के अलावा दूसरी औरत से शादी कर के आ गया है और बीवी दरवाजे के परदे से लिपट कर रोए जा रही है, भला यह कौन सी समझदारी का प्रदर्शन हुआ? शादी निभाने का कारण क्या है? उन का पतिव्रता होना. आखिर पति कुछ भी करे, है तो पति ही, लड़कियों में छोटी उम्र से ही यह सोच डालने का श्रेय इन सीरियलों को देना तो बनता है.
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अमीर बनने का शौर्टकट
गरीब से सीधा अमीर बनने का क्या तरीका है? दिनरात की मेहनत? नहीं. लौटरी लग जाना? नहीं. किसी स्टार्टअप का हिट हो जाना? नहीं. इन सीरियल्स के मुताबिक एक ही रात में गरीब से सीधा अमीर बनने का तरीका है शादी, प्यार, मुहब्बत. जी हां, किसी बड़ी कंपनी में नौकरी करो, बौस को तुम से और तुम्हें बौस से प्यार होना स्वाभाविक है बिलकुल वैसे ही जैसे ‘इस प्यार को क्या नाम दूं’ में खुशी कुमारी गुप्ता को अर्नव से, ‘कस्तूरी’ में कस्तूरी को रोनी से, ‘कितनी मुहब्बत है’ में आरोही को अर्जुन से हुआ था. मुझे सीरियल्स का यह लौजिक आज तक समझ नहीं आया.
मकसद आखिर शादी ही है
‘एक अभिमान स्वाभिमान’ औरतों के आत्मसमान, ‘मनमर्जियां’ लड़की के कैरियर ओरिएंटिड होने और ‘दिया और बाती हम’ औरत के सपनों को आधार बना कर शुरू किए सीरियल्स थे लेकिन आखिर में स्टोरी के प्लौट में ऐसे बदलाव किए गए कि ये सीरियल्स भी प्यारमुहब्बत, शादी, सासबहू नौटंकी और झगड़ेरोमांस केंद्रित बन गए. ये सीरियल्स आखिर लोगों के दिमाग में यही डालना चाहते हैं कि कुछ भी कर लो, आखिरी डैस्टिनेशन तो ससुराल और घरगृहस्थी ही है.
जितनी दूरी उतना अच्छा
टीवी सीरियल्स से जितनी दूरी रखी जाए, उतना अच्छा है. यहां कोई कभी मक्खी बनता नजर आता है तो कभी नागिन. ये सीरियल्स समाज का आईना नहीं हैं बल्कि स्वप्नदर्पण हैं जिन में जो कुछ दिखाया जाता है न तो सच हो सकता है न होता ही है. हालांकि, कुछ ऐसे सीरियल्स भी हैं जिन्हें देखा जाए तो शायद समाज पर कुछ अच्छा असर पड़े, जैसे आशुतोष गोवारिकर निर्देशित ‘एवरेस्ट’, जो लड़कियों में अपने दम पर कुछ करगुजरने का हौसला भरता है. मांओं को खासकर यह ध्यान रखना चाहिए कि वे कुछ ढंग के सीरियल्स देखें जिस से वे खुद भी एक अच्छी सोच रखें. यदि वे सासबहू ड्रामे देख रही हैं तो कम से कम अपने बच्चों को उन से दूर रखें. हलकेफुलके लगने वाले ये सीरियल्स असल में बच्चों, खासकर लड़कियों, को मानसिक विकृति का शिकार बना रहे हैं.
कोई परेशानी है तो करो आरती
पड़ोस की मेरी एक सहेली थी जिस ने एक बार अपनी मम्मी के गुल्लक से पैसे चुराए थे. उस की मम्मी को यह बात बताने खुद उस का भाई भागाभागा गया था. बजाय इस के कि वह जा कर मम्मी से माफी मांगे या कुछ नहीं तो पिटने के डर से छत पर जा कर छिप जाए, वह घर पर पूजा के कमरे में भगवान की मूर्ति के सामने बैठ गई और हाथ में मोमबती ले कर प्रार्थना करने लगी. मैं ने जब यह दृश्य देखा तो हक्कीबक्की रह गई.
मैं ने जब उस से इस बेवकूफी को करने का कारण पूछा तो उस ने बताया कि उस ने ऐसा एक सीरियल में नायिका को करते देखा था, जो मोमबत्ती हाथ में ले कर बैठी थी तो उस की मनोकामना पूरी हो गई थी.
पर अफसोस कि मेरी दोस्त के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ. उस की मम्मी चोरी के लिए तो उसे पीटने आई ही, साथ ही, उस की यह मोमबत्ती वाली करतूत देख कर इतना तिलमिलाई कि पहले तो वह अपनी मम्मी से पिटी, रात में पापा से भी 2 थप्पड़ पड़े, टीवी देखना बंद हो गया. हम सब ने अगले 2 हफ्तों तक उसे इस हादसे के लिए चिढ़ाया, सो अलग.
टीवी पर दिखाए जाने वाले सीरियल्स कई तरह से समाज को प्रभावित करते हैं. इन में दिखाया जा रहा कंटैंट छोटेछोटे मस्तिष्कों में इतनी मजबूती से अपनी पैठ जमा रहा है कि उन की जिंदगियां, उन की सोच इन के इर्दगिर्द घूमने लगती है.