हमारे देश में बीमारियों की भरमार है. सरकारी हों या प्राइवेट अस्पताल सब रोगियों से भरे पड़े हैं. तमाम दावों और योजनाओं के बाद भी सरकार मरीजों को सुव्यवस्थित और सस्ता इलाज नहीं दे पा रही है. पैसे वाले तो निजी अस्पतालों में अपना इलाज करा लेते हैं, पर गरीब जनता सरकारी अस्पतालों में एक अदद बिस्तर के लिए तरस जाती है.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का बहुत ही मशहूर अस्पताल लखनऊ मैडिकल कालेज के नाम से जाना जाता है. केवल लखनऊ ही नहीं, पूरे उत्तर प्रदेश से मरीज यहां आते हैं. मरीज को बेहतर इलाज मिले, इस के लिए यहां पर ट्रौमा सैंटर भी है. यहां इमरजैंसी में मरीजों को भरती कराने के लिए लाया जाता है. कुशीनगर के रहने वाले प्रभु राजभर अपने बेटे बडे़लाल को ले कर आए थे. प्रभु राजभर पिछड़ी जाति के किसान थे. बेटे के इलाज में काफी पैसा पहले ही खर्च हो चुका था.
बडे़लाल का 3 महीने पहले ऐक्सिडैंट हुआ था. उसे ट्रौमा सैंटर में भरती कराया गया था. न्यूरो सर्जरी विभाग में उस का इलाज चला. 3 महीने से वह कोमा में है. ट्रौमा सैंटर में औपरेशन करने के बाद डाक्टरों ने उस की छुट्टी कर दी. डाक्टरों ने कहा कि धीरेधीरे उस को होश आएगा. घरवाले उसे ले कर वापस चले गए. घर पहुंचने के बाद बडे़लाल की तबीयत सुधरने के बजाय बिगड़ने लगी. तब घरवाले उसे वापस ले कर मैडिकल कालेज के ट्रौमा सैंटर में आ गए.
रविवार, 16 जून की दोपहर करीब 2 बजे का समय था. प्रभु राजभर अपने बेटे को कंधे का सहारा दे कर भरीदोपहरी में किसी तरह से ट्रौमासैंटर के गेट तक पहुंचे. गेट पर उन को रोक दिया गया. वहां मौजूद जूनियर डाक्टर ने कहा, ‘‘यहां आज मरीज नहीं देखे जा रहे. कल ओपीडी खुलेगी, उस में दिखाना.’’ प्रभु राजभर डाक्टर के सामने हाथ जोड़ कर रोनेगिड़गिड़ाने लगे.
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