फेसबुक ने लेखन और अभिव्यक्ति को नए आयाम दिए हैं. एक जमाने में नए लेखकों को अपना लिखा हुआ छपा देखने, उसे पाठकों तक पहुंचाने आदि के लिए लिखने से भी कई गुना ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी, फिर भी यह गारंटी नहीं होती थी कि उन का लिखा हुआ छप कर उन की आंखों के सामने पाठकों तक पहुंच ही जाएगा. मुक्तिबोध जैसे मूर्धन्य कवि की कविताएं भी उन के जीतेजी नहीं छपी थीं. जबकि आज सोशल मीडिया ने न सिर्फ मंझे हुए लेखकों को, बल्कि आम नौसिखिया लेखकों को भी यह सुविधा दी है कि वे अपना लिखा हुआ जितना जल्दी चाहें, यहां तक कि लिखतेलिखते हुए भी चाहें तो, अपना लिखा हुआ पाठकों से साझा कर सकते हैं, उन की राय ले सकते हैं.
फेसबुक या तमाम सोशल मीडिया मंचों ने लेखन का एक किस्म का जनतंत्र कायम कर दिया है. इस से जहां नए लेखक खुश हैं, वहीं पुराने लेखकों को लगता है कि सोशल मीडिया ने लेखन का यह जो शौर्टकट और पाठकों की एक वर्चुअल दुनिया पैदा की है, उस से लेखन का स्तर गिरा है. कई पुराने लेखक तो फेसबुक के लेखन को लेखन ही नहीं मानते जबकि नई पीढ़ी इसे पुरानी पीढ़ी की ईर्ष्या और अपनी खत्म हो रही मठाधीशी का खतरा मानती है.
फेसबुक के इस दौर के लेखन और इस दौर की लेखिकाओं के संबंध में मशहूर साहित्यकार चित्रा मुदगल क्या सोचती हैं, आइए जानते हैं उन से बातचीत के जरिए.
जब से आम आदमी को अपनी अभिव्यक्ति के लिए सोशल मीडिया का मंच मिला है, तब से महिला लेखिकाओं की बाढ़ सी आ गई है. आखिर इस का क्या कारण है? क्या महिलाओं को लेखिका बनाने में या महिला लेखिकाओं को सामने लाने में सोशल मीडिया की कोई भूमिका है?
बहुत बड़ी भूमिका है. पहली बात तो वे सोशल मीडिया में अवतरित हुईं, उस तकनीकी को सीखा. उस का इस्तेमाल दूसरे क्षेत्रों की जानकारी हासिल करने के अलावा अपनी सोच की अभिव्यक्ति के लिए भी किया और कर रही हैं. उन की रचनाएं चाहे परिपक्व हों या अपरिपक्व, महत्त्वपूर्ण हैं. वास्तव में हर वह व्यक्ति जिस के मन में भाव उठते हैं या किसी बात को ले कर उस में सहमतिअसमहति होती है या उसे लगता है कि मेरा समाज जिस तरह का है, उस में इनइन बेहतरी की जरूरत है तो उसे वह सोशल मीडिया पर प्रकाशित कर देता है.
इस संबंध में आधी आबादी यानी महिलाओं को ले कर खुलेदिल से सोचने की जरूरत है कि उन का अपना वजूद है. उन का भी अपना अस्तित्व है. उन की अपनी अभिव्यक्ति है. वह सब अब सोशल मीडिया के माध्यम से आसानी से अभिव्यक्त हो रहा है. सोशल मीडिया ऐसा मंच है, जहां कोई कहने वाला नहीं है, कोई रोकटोक नहीं है कि यह कमजोर रचना है, इसे क्यों प्रकाशित कर रही हैं.
उन की रचनाओं के लिए उन्हें पाठक भी मिल रहे हैं. तो एक बात तो लगती है कि रचनाएं चाहे जैसी हों, उन के लिए एक मंच मिला है. यह एक अच्छी बात है. हां, मैं यह जरूर कहूंगी कि इस मंच में आ रही लेखिकाओं को अपने लेखों के प्रति ईमानदार होना जरूरी है. केवल लाइक और डिस्लाइक पर ही न जाएं. अगर उन के लेखों की आलोचना हो रही है, तो उसे स्वीकार कर खुद की कलम को बेहतर बनाने की कोशिश करें. इस के लिए सिर्फ अपनी या अपने परिचितों की किताब ही न खरीदें, बल्कि बड़े लेखकों की किताबें भी पढ़ें. जब वे बड़े लेखकों को पढ़ेंगी तो उन्हें पता चलेगा कि वे किस प्रकार अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं.
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आमतौर पर सोशल मीडिया का दौर आने से पहले ही स्थापित हो चुके लेखक सोशल मीडिया के दौर के लेखकों को कमतर कर के आंकते हैं, वे सोशल मीडिया में पाठकों के बीच ऐसे लेखकों की लोकप्रियता को बहुत तवज्जुह नहीं देते. इस के पीछे पुराने लेखकों का क्या तर्क हो सकता है?
पहली बात तो यह है कि आप स्थापित लेखक या लेखिकाओं पर इस तरह का अधकचरा आरोप नहीं लगा सकतीं. अगर सोशल मीडिया से जुड़ी हुई लेखिकाएं यह सोचती हैं कि उन का लिखा हुआ शब्द आखिरी शब्द है, तो यह उन की सब से बड़ी भूल है. दूसरी चीज, अगर स्थापित लेखिकाएं उन से उम्मीद करती हैं कि परिपक्व रचना करें, सृजन करें, तो यह गलत नहीं है. तीसरी बात यह है कि लेखन को, कोई भी लिखने वाले, अभिव्यक्त करने वाले को यह मान कर चलना चाहिए कि अगर आप रचनात्मक लेखन में पैर रख रही हैं तो यह आप के जीवन की एक गंभीर बात है. जब तक नए दौर की लेखिकाएं सृजनात्मक लेखन, उस की अहमियत को, सामाजिक सरोकारों के महत्त्व को नहीं समझेंगी, तब तक उन्हें यही लगेगा कि उन्होंने जो कुछ लिखा है, वही बहुत ऊंची चीज है. यह बात उन के लेखन के लिए ठीक नहीं है.
एक और बात जो बहुत महत्त्वपूर्ण है, वह है कि सृजन बहुत बड़ी साधना है, तप है. तप कर के ही आप सृजन कर सकती हैं. जिस का लेखन तप कर के निकलता है, वह मील का पत्थर बन सकता है. उन्हें खुद अपना मूल्यांकन करने की जरूरत है. पढ़ने वाले अगर मूल्यांकन करते हैं, तो इस में गलत क्या है? स्थापित लेखिकाएं कभी भी सोशल मीडिया की लेखिकाओं पर नकारात्मक आरोप नहीं लगा सकतीं, क्योंकि वे जानती हैं वे भी शुरुआत में यों ही कच्चीपक्की रचनाएं लिख कर ही आगे आई हैं. लेकिन अब उन्हें लिखतेलिखते 40-50 वर्ष हो गए हैं. यह भी जरूरी नहीं है कि जिसे लिखतेलिखते 20 वर्ष हो गए हैं, वह अपने सृजनात्मक में इतने गहरे उतर चुका है कि वह समाज के तलछट को छू सकता है. यह अच्छा संकेत नहीं है.
सोशल मीडिया विशेषकर फेसबुक में लोकप्रिय लेखकों या लेखिकाओं को पुराने लेखक या लेखिकाएं यह कह कर के भी बहुत वजन नहीं देते कि ये लोग संपादकों की सचेत नजर से निखर कर सामने नहीं आए हैं, इसलिए इन में वह लेखकीय निष्ठा और परिपक्वता नहीं है जो पुराने जमाने के दौर में काफी संघर्ष के बाद स्थापित होने वाले नए लेखकों में होती थी, आखिर यह तर्क कितना सही है?
सब से पहले तो आप यह समझें कि स्थानीय लेखिकाएं किसी से ईर्ष्या करने के लिए स्थापित लेखिकाएं नहीं हुई है. उन्हें लिफाफे में अपनी रचनाओं के साथसाथ एक वापसी का लिफाफा भी भेजना पड़ता था. सोशल मीडिया में ऐसा नहीं है. लेकिन जो स्थापित लेखिकाएं तप कर लेखिका बनी हैं, उन के लिफाफे जब लौट आते थे, तो वे इसे चुनौती मानती थीं और बेहतर लिखने की कोशिश करती थीं.
अगर आज की सोशल मीडिया के दौर की लेखिकाएं किसी तरह की प्रतिकूल प्रतिक्रिया को सह नहीं सकती हैं तो मुझे दुख है इस बात का. मुझे यह जान कर दुख हो रहा है कि उन्हें इतनी हड़बड़ी क्यों है? सिर्फ इसलिए कि स्थापित लेखिकाएं उन्हें महान समझने लगें, तो यह सही नहीं है. स्थापित लेखिकाओं को उन्हें सोशल मीडिया में उन के लेखों को पढ़ कर उन की कमजोरियां निकालनी चाहिए और सोशल मीडिया की नई लेखिकाओं में अपनी आलोचना सुनने की कूवत भी होनी चाहिए.
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आप के मुताबिक, सोशल मीडिया के पाठकों व पुराने पाठकों में क्या खास फर्क होता है या होता था? और वे क्या तर्क हैं जिन के चलते सोशल मीडिया के पाठकों को गैरसोशल मीडिया वाले पाठकों से कमतर माना जाए?
इसलिए कमतर माना गया है कि मैं ने सुना है, सोशल मीडिया में एक खेमा बना लिया जाता है. जो लेखक है, उस को उस के जानने वाले ही पढ़ते हैं और वाहवाही करते हैं. जबकि पहले जब पत्रपत्रिकाओं में कहानियां छपती थीं, तो वे किसी समूह का अंग नहीं होती थीं. हां, वे किसी विचारधारा का अंग तो होती रही होंगी. जब पाठकों की अदालत में किसी लेखक की रचना जाती थी तो उस का पाठक कोई भी हो सकता था. वह किसी भी विचारधारा का हो सकता था और हर तरह की विचारधारा के कैद से मुक्त हो, ऐसा भी हो सकता था.
सोशल मीडिया का पाठक, मैं इस के बारे में ठीक से नहीं कह सकती हूं लेकिन एक अनुभवी होने के नाते, मैं इतना कह सकती हूं कि एक लेखक को आत्महंता होना चाहिए. सोशल मीडिया में प्रकाशित करने से पहले अपने लेखन को बारबार पढ़ना चाहिए. साथ ही, अपने बुजुर्गों के अनुभवियों को जरूर पढ़ाना चाहिए, चाहे बात आधी आबादी की ही क्यों न हो. उस समय के अनुभवी लेखिकाओं को पढ़ें, तो आप पाएंगी कि वे अपने मन की हर बात को कितने प्रभावशाली ढंग से रखती थीं.
अगर सोशल मीडिया की लेखिकाएं खुद को स्थापित लेखिकाओं की शत्रु की तरह पेश करेंगी, तो यह बचपना ही लगेगा. हम स्वागत करते हैं सोशल मीडिया का और नई पीढ़ी का भी क्योंकि सोशल मीडिया ने ऐसा मंच दिया है कि मन में कोई बात आई नहीं, कि उसे सैकंड्स में स्क्रीन पर उतारा जा सकता है. यह उस का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बिंदु हैं.
अगर स्थापित लेखिकाएं नकारात्मक भाव रख कर उन की आलोचना करती हैं, तो गलत है. नकारात्मक भाव मन के भीतर न रख कर बड़े लेखकों के लेखों को पढ़ना चाहिए और जो उन की सलाह है, नई लेखिकाओं को उस पर जरूर ध्यान देना चाहिए. मैं यह कहना चाहती हूं कि सोशल मीडिया बहुत बड़ा माध्यम है, जबकि स्थापित लेखक या लेखिकाओं को यह सुविधा पहले उपलब्ध नहीं थी. आज के लेखकों के लिए यह माध्यम उपलब्ध है.
हम ने देश को, समाज को, लोगों के मन को साहित्य के जरिए ही जाना है. इस वजह से तब देर लगती थी लोगों को जाननेसमझने में. लेकिन अब ऐसा नहीं है.
कहने का अर्थ यह है कि सहीगलत की समझ का विवेक हम में होना चाहिए, साथ ही, एक आलोचक भी अपने मन में रखना चाहिए. इस से नए लेखकों की ही बेहतरी होगी.