लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद शिवसेना की उपनेता और पूर्व कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने ट्वीट किया ,” 17 वीं लोकसभा में सब से अधिक 14.4 प्रतिशत महिलाओं का प्रतिनिधित्व होगा. इस चुनाव ने यह मिथक भी तोड़ दिया है कि महिलाओं के जीतने के कम चांस होते हैं. उन के जीतने का स्ट्राइक रेट पुरुषों के मुकाबले ज्यादा है. राजतिलक की करो तैयारी आगे बढ़ रही है महिलाएं हमारी”

दरअसल इस बार लोकसभा में सर्वाधिक 78 महिला सांसदों की मौजूदगी ने एक नया रिकौर्ड बनाया है. इस से पहले 2014 में महिला सांसदों की संख्या 61 थी जो बाद के उपचुनाव के चलते 65 हो गई. जब कि महिला सांसदों की संख्या 2009 में 59 थी 2004 में 45 थी.

सिर्फ राजनीति ही नहीं बल्कि पिछले 50 सालों में हर क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं. चाहे वह लड़ाकू जेट उड़ाने की बात हो, किसी कंपनी के सीईओ होने की बात हो, कारोबार चलना हो या फिर नेता बन कर देश चलाने की बात, महिलाएं आज हर जगह अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रही हैं. वे कैरियर के उस मुकाम को पाने के लिए प्रयत्नशील है जहाँ पहुँच कर ज्यादा आजादी और संतुष्टि महसूस करें.

हालांकि कई बार वे पुरूषों से आगे निकल जाती हैं और कभीकभी उन्हें मात भी दे देती हैं फिर भी उन्हें कार्य से जुड़ी कई समस्याओं और पेशेवर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

महिलाओं द्वारा कार्यस्थल पर सामना किए जाने वाले कुछ मुद्दे

चयन में लिंगभेद

भले ही देश की आबादी सवा सौ करोड़ हो और इस में महिलाओं को आधी आबादी कहा जाता हो पर अफसोस की बात यह है कि महिलाएं अब भी आर्थिक रुतबे और ऊंचे पदों के मामले में काफी पीछे हैं. विश्वबैंक की एक रिपोर्ट पर नजर डालें तो भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या लगातार कम हो रही है. कार्यक्षेत्र में हिस्सेदारी के मामले में भारत की महिलाएं 131 देशों में 121वें स्थान पर हैं

2004-05 में देश में लगभग 43 फीसदी महिलाएं कामकाजी थीं. कुछ ऐसा ही आंकड़ा 1993-94 में भी था. लेकिन आज 2016-17 में जब देश नए कीर्तिमान रच रहा है कामकाजी महिलाओं का आंकड़ा 27 प्रतिशत से भी कम होता जा रहा है. हमारे देश से अच्छी  स्थिति नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों की हैं.

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विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 2011-12 के बीच विभिन्न कारणों से 1.97 करोड़ महिलाओं ने नौकरी छोड़ दी. यह बात अलग है कि जो महिलाएं काम कर रही हैं वे अपनी काबिलियत के झंडे गाढ़ रही हैं. मगर यह संख्या संतोषजनक नहीं है.

ग्लोबल जेंडर 2015-16 की रिपोर्ट के मुताबिक 144 देशों में किए गए सर्वे में भारत 136 वें नंबर पर है. खास तौर पर गांव में कामकाजी महिलाओं की स्थिति दिनबदिन खराब होती जा रही है. भारत में महिला कार्यबल की भागीदारी महज 27 प्रतिशत है, जो वैश्विक औसत के मुकाबले 23 प्रतिशत कम है.

वर्ल्ड इकोनौमिक फोरम द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर पांच में से चार कंपनियों में 10 प्रतिशत से भी कम महिला कर्मचारियों की भागीदारी है. भारत की ज्यादातर कंपनियां महिलाओं की तुलना में पुरुष कर्मचारियों को भर्ती करना पसंद करती है. रिपोर्ट के मुताबिक लिंगभेद को ध्यान में रखकर नौकरी देनेवाले कंपनी की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. रिपोर्ट पर अगर गौर करें, तो बैंकिंग सेक्टर में 61 प्रतिशत महिला कर्मचारी, टेक्सटाइल सेक्टर में 64 प्रतिशत महिला कर्मचारी अपना योगदान दे पाती हैं. वहीं रिटेल सेक्टर में 79 प्रतिशत कंपनियों में 10 प्रतिशत महिला कर्मचारी, ट्रांसपोर्ट एवं लौजिस्टिक्स सेक्टर की 77 प्रतिशत कंपनियों में 10 प्रतिशत महिला कर्मचारी हैं.

चयन में लिंगभेद की वजह से नौकरियों का लाभ महिलाओं से अधिक पुरुषों को मिलता है. रिपोर्ट में बताया गया है कि तीन में से एक कंपनी पुरुष कर्मचारियों को प्राथमिकता देती हैं. 10 में से एक कंपनी महिला कर्मचारियों को प्राथमिकता देती हैं.  770 भारतीय कंपनियों पर किये गए इस सर्वे के मुताबिक़ 770 में से उन कंपनियों की संख्या जहां 50 प्रतिशत या अधिक महिला कर्मचारी हैं, मात्र 10 है. 546 वे कंपनियां हैं जहां 10 प्रतिशत से भी कम महिला कर्मचारी हैं. इस के साथ ही 172 कंपनियों में 5 फीसद महिला कर्मचारी काम करती हैं. 164 कंपनियों में कोई महिला कर्मचारी काम ही नहीं करती हैं.

यौन उत्पीड़न

महिलाओं द्वारा सामना किये जाने वाले सब से निराशाजनक मुद्दो में से एक यौन उत्पीड़न है. यह मौखिक भी हो सकता है और शारीरिक भी. इस में जरूरी नहीं है कि शरीर के किसी अंग या अंगो को छूआ गया हो. पर इस में आपत्तिजनक टिप्पणी करना, वेतन बढ़ोतरी या पदोन्नति के लिए सेक्सुअल फेवर मांगना , मारपीट करना, सीटी बजाना और अश्लील चुटकुले सुनाना आदि भी इस में शामिल है. किसी भी प्रकार का यौन उत्पीड़न एक महिला के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाल सकता है.

गर्भावस्था के दौरान भेदभाव

प्रसव को एक महिला के जीवन का सब से सुंदर समय माना जाता है. पर अफ़सोस कार्यस्थल पर महिलाओं द्वारा इस वजह से अक्सर भेदभाव किया जाता है. वैसे महिलाओं को नौकरी पर रखने, पद से हटाने, महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स में शामिल न करने या उन की कोख में पल रहे बच्चे के आधार पर उन से लिंगजनित भेदभाव नहीं किया जा सकता. पर बहुत कम कंपनियों में ही इस बात पर अमल किया जाता है.

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लैंगिक वेतन असमानता यानी काम ज्यादा दाम कम

समान योग्यता और ज्ञान रखने वाले एक पुरुष और महिला के बीच पारिश्रमिक का अंतर बहुत बड़ा होता है. महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है.

वर्ल्ड इकनोमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के मुताबिक़ महिलाएं पुरुषों के मुकाबले रोजाना 50 मिनट ज्यादा काम करती हैं. जिन कामो के बदले महिलाओं को कोई पैसा नहीं मिलता है, उन की सूची बढ़ रही है. महिला और पुरुष के बीच असामनता दूर करने के लिए जिस रफ्तार से कोशिश हो रही है, उस से इस काम में 170 साल लग सकते हैं.

देश में महिलाओं और पुरुषों के बीच सैलरी के मामले में भेदभाव काफी ज्यादा है. लेटेस्ट मॉनस्टर सैलरी इंडेक्स (MSI) के मुताबिक, देश में मौजूदा जेंडर पे गैप यानी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को 19 फीसदी कम वेतन मिलता है. पुरुष महिलाओं की तुलना में हर घंटे 46 रुपये 19 पैसे ज्यादा पाते हैं.

2018 में देश में पुरुषों की औसत सैलरी हर घंटे 242.49 रुपये थी वहीं महिलाओं को हर घंटे सिर्फ 196.3 रुपये ही मिल रहे हैं. सर्वे के मुताबिक बहुत सी महत्वपूर्ण इंडस्ट्रीज में यह भेदभाव काफी ज्यादा है. आई टी सर्विसेज में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को 26 फीसदी कम वेतन जबकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में महिलाओं को 24 फीसदी कम वेतन मिल रहा है.

चौंकाने वाली बात है कि सर्वे के मुताबिक, हेल्थकेयर, केयरिंग सर्विसेज और सोशल वर्क जैसे सेक्टरों में भी पुरुष, महिलाओं से 21 फीसदी ज्यादा वेतन पा रहे हैं. बता दें कि इन सेक्टरों में आमतौर पर महिलाओं का दबदबा माना जाता है. 2017 में महिला और पुरुष में सैलरी के भेदभाव का यह अंतर 20 प्रतिशत था जब कि 2018 में यह अंतर 1 प्रतिशत ही कम हुआ.

हाल ही में आईसीआईसीआई लोम्बार्ड के द्वारा 22 से 55 साल की महिलाओं पर किये गए सर्वेक्षण पाया गया कि करीब 62 फीसदी युवतियों का मानना है कि उन के पास जो नौकरी है और उन्होंने जिस नौकरी की कल्पना की थी उस में कोई समानता नहीं है. जब कार्य स्थल पर पुरुषों के समान वेतन की बात होती है तो इस में भी लैंगिक भेदभाव की बात सामने आती है. इस से महिलाओं में हताशा का भाव आता है और उन का प्रदर्शन प्रभावित होता है.

53 फीसदी महिलाएं मानती हैं कि उन का कार्यस्थल अभी भी पुरुष प्रधान है. 22 से 33 साल की युवतियां और 33 से 44 वर्ष की महिलाएं मानती हैं कि पुरुष प्रधान कार्यस्थल में उनकी पदोन्नति का अवसर भी प्रभावित होता है.

इन मुद्दों से निपटने और मानसिक रूप से फिट होने के लिए एमपावर – द फाउंडेशन की मनोवैज्ञानिक और आउटरीच एसोसिएट मानसी ठक्कर के अनुसार ;

  1. वास्तविकता को स्वीकार करें और अपनाएं:

वास्तविकता स्वीकारना जरुरी है पर यहाँ स्वीकृति का मतलब असहाय होना नहीं है. हम में से कोई भी इन में से किसी भी समस्या से नहीं गुजरना चाहता है. पर हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि वे निश्चित रूप से हो सकते हैं.

ट्रैफिक में फंसे होने की कल्पना करें. कोई वाहन चालक अपने आप को यह कह कर गुस्सा कर सकता है कि ‘‘यह तो बिल्कुल भी ठीक नहीं है. ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है?’’ ऐसे में वह और भी ज्यादा क्रोधित हो कर सड़क पर दूसरे वाहन चालकों से गालीगलौच कर सकता है.

मगर दूसरी तरफ उसी ट्रैफिक जाम की परिस्थिति में एक अन्य वाहन चालक शांत रह सकता है और कह सकता है कि ‘‘यह तो ट्रैफिक है. हर किसी के साथ लगभग रोज ही ऐसा होता है. भला परेशान हो कर मुझे क्या मिलेगा?’ ऐसे में वह चुपचाप कार में बैठ कर गानों का आनंद ले सकता है और कोई दूसरा रास्ता भी निकाल सकता  है . समस्याओं को स्वीकार करने से आप तर्कसंगत तरीके से सोचते हैं और समस्याओं का समाधान निकालने के लिए उचित कदम उठा पाते हैं.

2. अपनी सोच बदलें

कठिनाइयों का सामना करते समय निराशा, असहजता और अपनी क्षमताओं तथा कार्यों पर संदेह करने जैसी भावनाएं पैदा हो सकती हैं.

यदि आप उन सभी पर विश्वास करना शुरू कर दें तो यह केवल आप की प्रगति में बाधक ही बनेंगे. ऐसे सोचना कि ‘मैं इसे करने में उतना अच्छा नहीं हूँ’, ‘मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता जिससे जो हो रहा है वो बदल जाएगा’, ये सभी केवल आपको आपके लक्ष्यों तक पहुंचने से रोकेंगे.

किसी हितैषी या ऐसे व्यक्ति से बात करें जिस पर आप भरोसा करती हों, जो आप को चीजों को देखने के लिए एक यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रदान करता हो और आप को अपनी चुनौतियों से निपटने की ताकत देता हो.

3. उच्चाधिकारियों से बात करें

अपने साथ हो रहे अन्याय को सुलझाने की कोशिश करना बहुत ही जरूरी है. आप को भेदभाव करने वाले का सामना करने का मन बनाना होगा. अपने उपर के अधिकारी या सब से शीर्ष अधिकारी से संपर्क करें और अपने साथ हो रहे भेदभाव के बारे में उन्हें बताएं. लगातार उन चीजों को पाने का प्रयास करती रहें जिन की आप हकदार हैं.

4. निडर रहें और बातचीत करें

बात करें. कई शोधों से पता चलता है कि लैंगिक वेतन असमानता का सब से बड़ा कारण यह है कि जब बात वेतन और पदोन्नति/वेतन बढ़ोतरी की आती है तो महिलाएं बात करने में विफल रहती हैं. उस समर्पण और कड़ी मेहनत के लिए बातचीत करना हमेशा याद रखें जो आप अपने कार्य में लगाती हैं.

5. याद रखें कि आप खास हैं

याद रखें कि अन्य आप के मूल्य का निर्धारण दूसरे नहीं कर सकते हैं. आप का मूल्य पूरी तरह से आप के खुद पर निर्भर है. दूसरों को खुद पर संदेह न करने दें. आप मूल्यवान हैं और उन सभी चीज़ों के लिए लड़ें जो आप के लिए सब से ज्यादा मायने रखती है.

न तो स्त्रियां काम के मामले में पीछे रहती हैं और न ही मानसिक नजरिये से ही वे किसी भी तरह कम हैं. वे पुरुषों के देखे कही ज्यादा ध्यान एकाग्र कर बेहतर काम कर सकती हैं. हाल ही में हुए एक ताजा अध्ययन में यह बात सामने आई है कि महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा अधिक दिमाग पाया जाता है. महिलाओं का दिमाग ज्यादा सक्रिय होता है. पुरुषों और महिलाओं के मस्तिष्क की आपसी तुलना के बाद यह बात सामने आई है कि महिलाओं में पुरुषों की तुलना में सहानुभूति, सहयोग, आत्मनिर्भरता, चीजों को कंट्रोल करना, मुसीबत में धैर्य रखना जैसे गुण पुरुषों की अपेक्षा अधिक होते हैं. इस विषय पर यह अब तक की सब से बड़ी स्टडी मानी जा रही है. यह सारा परीक्षण स्पेक्ट तकनीक से किया गया. रिसर्च में 46,034 मस्तिष्कों का अध्ययन किया गया.  जर्नल आफ अल्जाइमर डिजीज में प्रकाशित इस अध्ययन के लेखक डेनियल जी अमेन हैं.

समय आ गया है जब हम पुरानी सोच और मान्यताओं से परे अपनी स्वतंत्र सोच विकसित करें और रूढ़ियों और परम्पराओं के पीछे लीक पीटते रहने के बजाय महिलाओं को भी एक खुला आसमान दें. नई पीढ़ी को स्त्रीपुरुष विभेद के बजाये सामान अधिकार का पाठ पढ़ाएं.

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