मशहूर खगोलविद, गणितज्ञ और दार्शनिक गैलीलियो पर रोमन कैथोलिक चर्च ने एक मुकदमा  दायर किया था जिस का फैसला 1633 में सुनाया गया था. गैलीलियो का दोष था कि उन्होंने ईसाइयों के पवित्र ग्रंथ में वर्णित धार्मिक मान्यता के चीथड़े न केवल उड़ा कर रख दिए थे बल्कि अपने कहे को तथ्यों से साबित भी कर दिखाया था कि सूर्य पृथ्वी के नहीं, बल्कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है. इस गलती या गुस्ताखी पर उन्हें मौत की सजा होना तय थी. लेकिन, गैलीलियो बेवक्त इसलिए नहीं मरना चाहते थे क्योंकि वे अपने वैज्ञानिक शोध जारी रखना चाहते थे.

सो, अपने एक पादरी दोस्त की सलाह पर उन्होंने धार्मिक अदालत से सार्वजनिक रूप से माफी मांग ली थी. इस से वे मृत्युदंड से तो बच गए थे लेकिन उन्हें अपने ही घर में आजीवन नजरबंद रहने की सजा भुगतनी पड़ी थी. उन की सजा में यह भी शामिल था कि वे 3 वर्षों तक हर हफ्ते पश्चात्तापसूचक भजन गाएंगे.

अब से कोई 400-500 वर्षों पहले धार्मिक कट्टरपंथ, पोंगापंथ, रूढि़वादिता और हर हाल में ईश्वर व धर्मग्रंथों को मानने, पालन करने की बाध्यता एक तरह से कानूनी हुआ करती थी. जो इसे नकारता था, तर्क दे कर इन मान्यताओं को खंडित करता था, उस का हश्र धर्म के ठेकेदारों द्वारा गैलीलियो जैसा कर दिया जाता था.

उस धार्मिक दबाव और छटपटाहट की देन थी एक वैज्ञानिक क्रांति जिस के केंद्र में गैलीलियो प्रमुखता से थे. उन्होंने जो खोजें और आविष्कार किए वे आज वैज्ञानिक तथ्यों के रूप में मान्य और स्थापित हैं. दुनिया का हर छात्र प्राथमिक कक्षाओं में ही यह पढ़ लेता है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है. यह, हालांकि, वैज्ञानिक निकोलस कौपरनिकस की थ्योरी थी लेकिन इसे साबित गैलीलियो ने किया था.

फिर लगभग 360 वर्षों बाद 1992 में पोप जौन पौल द्वितीय के समय में वैटिकन के अधिकारियों ने इस फैसले में चर्च की गलती स्वीकार की थी.

इस मामले से साबित यह हुआ था कि अगर कोई भी वैज्ञानिक तर्कों और आविष्कारों के आधार पर भी धार्मिक मान्यताओं या धर्मग्रंथों को गलत साबित करेगा तो धर्म के ठेकेदार उसे बख्शेंगे नहीं. भले ही बोलने वाला सच क्यों न बोल रहा हो. यह रिवाज या मानसिकता आज भी कायम है कि अगर आप धर्म के खिलाफ कुछ भी बोलेंगे तो नास्तिक, अधर्मी करार देते बहिष्कृत कर दिए जाएंगे. इस के बाद भी, जो लोग अंजाम की परवा किए बगैर बोलते हैं, दरअसल, वही विकास, प्रकाश और वास्तविकता से धर्मांध लोगों को परिचित कराते हैं.

ऐसा नहीं होता तो यह दुनिया पूरी तरह धर्म के ठेकेदारों के हाथों की कठपुतली बनी होती. यह स्थिति हालांकि आज भी है पर बहुतकुछ बदला भी है और काफीकुछ बदलना अभी बाकी है. इस के लिए जरूरी शर्त यह है कि लोग वास्तविकता पहचानें और अंधश्रद्धा के सहारे जिंदगी न गुजारें, जिस के चलते दुनियाभर में सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत पिछड़ापन भी है.

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भिन्न नहीं यह फैसला

9 नवंबर, 2019 को देश की सर्वोच्च अदालत ने अयोध्या मामले पर जो फैसला सुनाया वह गैलीलियो के मामले से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं है. गैलीलियो के मामले में फैसला सुनाने वाली अदालत में 8 धार्मिक जज थे जबकि अयोध्या के मामले में फैसला करने में 5 लोकतांत्रिक जज थे. इन की और उन की आस्था में केवल शब्दों का अंतर है. चूंकि मुकदमे के स्वभाव अलग हैं, इसलिए भिन्नता दिखती है, वरना फैसले का आधार तो दोनों में यह आस्था ही है कि चूंकि रामायण में लिखा है और बहुसंख्यक हिंदू मानते हैं कि राम का जन्म अयोध्या में ही हुआ था और वहां बाद में मुगल शासक बाबर के काल में मसजिद बनाई गई थी, इसलिए मुसलिम पक्ष की दलीलों को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला कर दिया कि हिंदू पक्ष सही कह रहा है.

बात आस्था के मसले तक सिमटी नहीं रही, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया है कि वह 3 महीने के भीतर एक ट्रस्ट बना कर मंदिर निर्माण कराए.

निश्चितरूप से अपनी गरिमा बनाए रखने की कोशिश या गरज ही इसे कहा जाएगा कि सुप्रीम कोर्ट ने यह जोर दे कर कहा कि उस ने यह फैसला आस्था के नहीं, बल्कि सुबूतों के आधार पर लिया है. क्या यह कहना ही अदालत की ग्लानि या अपराधबोध को नहीं दर्शाता है? सुप्रीम कोर्ट का अपराधबोध तो इस बात से भी  झलकता है कि उस ने आदेश दिया कि अवैध रूप से मसजिद को गिराए जाने के मुआवजे के रूप में सरकार मसजिद निर्माण के लिए मुसलमानों को अयोध्या में ही 5 एकड़ जमीन भी दे.

गैलीलियो को कैथोलिक चर्च ने मौत की सजा से इसलिए भी बख्श दिया था कि वे एक कैथोलिक ईसाई थे और उन्होंने पवित्र ग्रंथ की गलत थ्योरी अपनी किताब ‘गैलीलियो गैलिलो का संवाद’ में स्वीकार ली थी जिसे बाद में चर्च ने प्रतिबंधित कर दिया था.

अयोध्या मामले में विवाद या  झगड़ा सूर्य और पृथ्वी की परिक्रमा का नहीं, बल्कि अयोध्या की 2.77 एकड़ जमीन पर आधिपत्य का था, जिसे ले कर दोनों पक्षों ने तरहतरह के तर्क रखे, धर्मग्रंथों का हवाला दिया और गवाह भी पेश किए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उस के फैसले का आधार पुरातात्विक प्रमाण और विदेशियों के यात्रा वृत्तांत हैं.

चूंकि यह विवाद या मुकदमा सालों से लंबित था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को कोई न कोई फैसला सुनाना ही था, वह भी इस तरीके से कि उस पर पक्षपात, किसी धर्मविशेष के प्रति पूर्वाग्रह या आस्था का आरोप न लगे. सो, उस ने फैसला सुना दिया.

फैसला वैसा ही आया जिस की उम्मीद बहुसंख्यक हिंदू कर रहे थे और कह भी रहे थे कि फैसला हिंदुओं के पक्ष में ही आएगा. 5 अक्तूबर को गोरखपुर में आयोजित एक रामकथा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो साफतौर पर कह भी दिया था कि जल्द ही खुशखबरी मिलेगी. यही बात समयसमय पर कई हिंदूवादी नेताओं ने कही थी.

क्या है विवाद और क्या है फैसला और क्या होंगे इस के तात्कालिक व दीर्घकालिक प्रभाव, ये बातें अब फैसले से ज्यादा अहम हो चली हैं. फैसले से हिंदुओं का धार्मिक अहं तो तुष्ट हुआ है लेकिन इस से या इस के एवज में उन्हें व्यावहारिक तौर पर मिल क्या रहा है और छिन क्याक्या रहा है, इन बातों पर हालफिलहाल कोई गौर नहीं कर रहा. दरअसल, धर्म और आस्था की यही खासीयत होती है कि वह अपनी मान्यताओं की बाबत सहमति चाह कर ही संतुष्ट होता है.

यकीन मानें, अगर देश आजाद हुआ होता पर संविधान न बना होता और लोकतंत्र की स्थापना न हुई होती तो फैसला सुप्रीम कोर्ट के जज नहीं, बल्कि पादरियों की तर्ज पर मठाधीश, चारों पीठों के शंकराचार्य कर रहे होते और वे भी वही कहते जो अदालत ने कहा. ऐसा ईरान में हो भी रहा है. फेरबदल और फर्क सिर्फ भाषा का होता, वरना तो भाव आस्था के ही होते.

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आस्था पर विरोधाभास

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेहद बारीकी से देखने के बाद यह आभास होता है कि आस्था को ले कर वह खुद विरोधाभास का शिकार है, इसे उस के ही फैसले के कई बिंदुओं से सम झा जा सकता है. कुछ बिंदु ये हैं-

१.     ढहाए गए ढांचे के नीचे एक मंदिर था, इस तथ्य की पुष्टि आर्कियोलौजिकल सर्वे औफ इंडिया यानी एएसआई कर चुका है. पुरातात्विक प्रमाणों को महज ओपिनियन करार देना एएसआई का अपमान होगा. हालांकि, एएसआई ने यह तथ्य स्थापित नहीं किया है कि मंदिर को गिरा कर मसजिद बनाई गई.

२.     एएसआई के साक्ष्य प्रमाणित करते हैं कि मसजिद को खाली जगह पर नहीं, किसी दूसरे निर्माण की जगह बनाया गया था. मसजिद के नीचे जो ढांचा था वह इसलामिक नहीं था.

३.     हिंदू विवादित स्थान को भगवान राम का जन्मस्थान मानते हैं, यहां तक कि मुसलिम भी विवादित जगह के बारे में यही कहते हैं.

४.     सुबूत मिले हैं कि अंगरेजों के शासनकाल से पहले राम चबूतरा और सीता रसोई पर हिंदू पूजा करते थे.

५.     प्राचीन यात्रियों द्वारा लिखी गई किताबें और प्राचीन ग्रंथ इस बात को दर्शाते हैं कि अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि रही है. इतिहास से भी संकेत मिलते हैं कि हिंदुओं की आस्था में अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि रही है.

६.     जमीन पर विराजमान रामलला का अधिकार है, लेकिन जमीन सरकार को दी जाएगी. वह 3 महीने में एक ट्रस्ट बनाए और फिर मंदिर बनवाए.

इन बिंदुओं को छोड़ कर अदालती फैसले में कहीं कोई शंका या  झं झट नहीं है, मसलन शिया वक्फ बोर्ड यह साबित नहीं कर पाया कि जमीन पर उस का मालिकाना हक था और निर्माेही अखाड़ा भी मालिकाना हक की बाबत पुख्ता सुबूत नहीं दे पाया.

बिंदु क्रमांक 2 और 3 में तो अदालत पुरातात्विक साक्ष्यों की बात कह रही है लेकिन 3, 4 और 5 में सिर्फ आस्था की बात कर रही है. फिर फैसले का आधार आस्था नहीं, सुबूत को बता रही है. ऐसे में शक होना स्वाभाविक है कि क्यों उसे बारबार आस्था का जिक्र करना पड़ा.

ऐसा नहीं है कि इस फैसले का तार्किक विरोध न हो रहा हो. जानेमाने इतिहासकार डी एन  झा फैसले को निराशाजनक बताते कहते हैं कि फैसले में हिंदुओं की आस्था को अहमियत दी गई है और फैसले का आधार ‘दोषपूर्ण पुरातत्व विज्ञान’ को बनाया गया है. डी एन  झा का कहना इसलिए भी माने रखता है कि वे उन 4 इतिहासकारों की टीम में से एक हैं जिन्होंने ‘रामजन्म भूमि बाबरी मसजिद ए हिस्टौरियंस रिपोर्ट टू द नेशन’ को तैयार कर सरकार को सौंपा था. उस रिपोर्ट में साफतौर पर उस मान्यता को खारिज कर दिया गया था जिस के तहत यह कहा जाता है कि बाबरी मसजिद के नीचे एक हिंदू मंदिर था.

लेकिन साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी मान लिया है कि यह कोर्ट संवैधानिक आधार पर आधारित है और इसे धार्मिक अवधारणाओं की व्याख्या या उन पर प्रश्नचिह्न उठाने के लिए प्रेरित करना धर्मावलंबियों की आस्थाओं पर सवाल उठाना होगा जो अनुच्छेद 25 के विरुद्ध होगा.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धार्मिक आस्थाएं धर्म को मानने वाले के व्यक्तिगत क्षेत्र में आती हैं और सुप्रीम कोर्ट का धर्मविवेचना में पड़ना गलत होगा, यानी, आस्था को अब सुप्रीम कोर्ट की पूरी स्वीकृति मिल गई है. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि अदालतें एक व्यक्ति के (अंध) विश्वास का परीक्षण नहीं कर सकतीं.

रिमोट से संचालित होते लोग

मुकदमे की सुनवाई खत्म होने से पहले ही हिंदूवादी नेताओं और धर्मगुरुओं ने आम लोगों  से यह अपील करनी शुरू कर दी थी कि फैसला जो भी आए वे शांति, सद्भाव और भाईचारा बनाए रखें और सोशल मीडिया पर द्वेष फैलाने वाली पोस्ट न तो डालें और न ही वायरल करें. 7 नवंबर को जब यह तय सा हो गया कि फैसला 9 नवंबर को आएगा तो इन अपीलों की तादाद बढ़ गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसी आशय की अपील की.

इस अपील का चमत्कारिक असर हुआ और लोग खुद सोशल मीडिया पर एकदूसरे को सम झाते नजर आए कि किसी की जीतहार नहीं होनी है, हमें सांप्रदायिक सद्भाव, भाईचारा बनाए रखना है. इकलौती सुखद बात यह रही कि वाकई कोई अप्रिय घटना नहीं हुई. देश के चप्पेचप्पे पर खासतौर से उत्तर प्रदेश और अयोध्या में पुलिस तैनात रही.

लोगों ने अपनी तरफ से सब्र दिखाते ऐसा कुछ नहीं किया तो सहज लगा कि जनता अब रिमोट से कंट्रोल होने लगी है. कहने का मतलब यह नहीं कि कोई उपद्रव होना ही चाहिए था, बल्कि यह है कि लोगों ने खासतौर से नरेंद्र मोदी की बात उसी तरह मानी जैसे 15वीं सदी में इटली और यूरोप में पोप की बात ईश्वरीय आदेश मानी जाती थी. ऐसा ही नोटबंदी के दौरान हुआ था कि नरेंद्र मोदी को सार्वजनिक मंच से रोते देख लोगों ने विरोध छोड़ कर बैंकों की लाइन में लग कर नोट बदलने का फैसला लिया था. जीएसटी लागू होने के बाद व्यापारियों ने भी उम्मीद के मुताबिक विरोध नहीं किया, फिर भले ही आज तक वे जीएसटी को रोते झींकते रहते हैं.

अपने आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जन्मस्थली को कानूनी मान्यता मिलने के बाद भी हिंदुओं ने जश्न नहीं मनाया, आतिशबाजी नहीं छुड़ाई और न ही मुसलमानों पर कटाक्ष किए. तो साफ है कि लोगों की चेतना एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह हो गई है. कल्पना ही की जा सकती है कि अगर फैसला हिंदुओं के पक्ष में नहीं आता, तो वे क्या करते? क्या खामोशी से इसे स्वीकार लेते या फिर से सड़कों पर हाहाकार करते नजर आते?

दिख यह भी रहा है कि लोग अपने विवेक से कुछ नहीं सोच पा रहे हैं. बातबात पर तर्क करने वाले कट्टरपंथी हिंदुओं की हिम्मत यह पूछने की नहीं हुई कि हम क्यों जश्न न मनाएं और जरूरी नहीं कि जश्न के माने दंगे या हिंसा ही होते हों. निश्चितरूप से हिंदुओं को यह संदेशा दिया गया था कि फैसला तो हमारे ही हक में है, जिस का जश्न मनाने के लिए तो जिंदगी पड़ी है. इसलिए यह आरोप अपने पर न लिया जाए कि यह धर्म की जीत है, आस्था का सम्मान है और हिंदू राष्ट्र निर्माण की छत पर पहुंचने की एक और सीढ़ी है.

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शांति, भाईचारे और सद्भाव की शाकाहारी अपीलों से मुसलमान जरूर दहशत में आ गए और यही हिंदूवादियों की जिद भी थी कि वे कुछ न बोलें. इस के बाद भी व्हाट्सऐप पर कुछेक पोस्ट इस आशय से वायरल हुईं जो आज नहीं तो कल बड़े फसाद की वजह बन सकती हैं.

बड़ी संख्या में लोग अगर अपनेआप को जब्त किए रहे तो यह नरेंद्र मोदी के आदेश का पालन ही था जिस की मियाद खत्म होते ही कट्टर हिंदूवादी ऐसी पोस्टें इफरात से डालेंगे. नरेंद्र मोदी का डर या लिहाज, कुछ भी कह लें, उन्हें ज्यादा दिनों तक चुप नहीं रख पाएगा.

चिंता की दूसरी बात नरेंद्र मोदी का वह सम्मोहन है जो लोगों को बोलने से रोकता है. यह एक नए किस्म की इमरजैंसी है जिस में लोग वही बोलते और करते हैं जैसा कि उन का शासक चाहता है और इस के अपने अलग माने भी होते हैं. यह सिनैरियो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से तो मेल खाता कतई नहीं लगता.

अयोध्या फैसले पर शांति और चुप्पी स्वागतयोग्य है, लेकिन इस शर्त और सूरत पर कि आगे कभी धार्मिक हिंसा का दोहराव न हो. लेकिन हिंदू ऐसा कर पाएंगे, इस में शक है. क्योंकि बात आखिरकार धर्म की है, जो खामोश रहने को कम कहता है, चिल्लाने और मारकाट के लिए ज्यादा उकसाता है.

क्या बौखलाई हुई है भाजपा

इत्तफाक से यह वह वक्त था जब महाराष्ट्र में सरकार के गठन पर भाजपा और शिवसेना में घमासान मचा हुआ था. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे न तो भाजपा का लिहाज कर रहे थे और न ही मोदीशाह की जोड़ी का. रामलक्ष्मण का हनुमान रूठ कर दूसरे पाले में जा बैठा था.

हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में भाजपा को उम्मीद के मुताबिक सीटें नहीं मिली थीं जबकि माना यह जा रहा था कि मई के लोकसभा वाले नतीजों का दोहराव इन राज्यों में होगा. कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को बेहद कमजोर कर दिए जाने का फायदा इन राज्यों मेें मिलने की उम्मीद भाजपा को स्वभाविक रूप से थी, जो नहीं मिली.

यह एक चौंका देने वाली बात भगवा खेमे के लिहाज से है कि क्यों कश्मीर का दांव अपना असर नहीं दिखा पाया. दरअसल, लोग अब सरकार के धार्मिक फैसलों से चुनावी इत्तफाक कम रख रहे हैं यानी उन्हें अपनी समस्याएं और नरेंद्र मोदी के किए दूसरे वादे याद आने लगे हैं. इस लिहाज से भाजपा को  झारखंड और दिल्ली विधानसभा के चुनावों में भी अयोध्या फैसले का फायदा मिलने की उम्मीद नहीं दिख रही. इस फैसले के आने के बाद भी शिवसेना के उद्धव ठाकरे के भाजपा के प्रति नाराजगीभरे तेवर कम नहीं हुए.

लोगों ने नरेंद्र मोदी के कहने पर कोर्ट के फैसले पर तो चुप्पी रखी लेकिन जिस तरह हरियाणा और महाराष्ट्र में अपील के मुताबिक वोट और सीटें नहीं दीं, यही ट्रैंड अगर आगे भी कायम रहा तो भाजपा को लेने के देने पड़ जाएंगे.

7 नवंबर को नरेंद्र मोदी सिखों के लिए पाकिस्तान द्वारा खोले गए करतारपुर कौरिडोर का उद्घाटन कर रहे थे और 9 नवंबर को अयोध्या फैसले पर अपनी खुशी जाहिर कर रहे थे. ये दोनों ही धर्म से जुड़े काम हैं.

पर अधिसंख्य लोग धर्मकर्म की राजनीति से ऊबने लगे हैं. उन्हें न तो तीन तलाक और अनुच्छेद 370 से ज्यादा सरोकार रह गया है और न ही अयोध्या फैसले से है. जाहिर है इस की वजह लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी और लोगों की दीगर समस्याएं हैं जिन्हें सुल झाने की जिम्मेदारी उन्होंने सरकार को दी है. यह और बात है कि लोगों को इस का एहसास 6 साल बाद हो रहा है.

ताबड़तोड़ तरीके से धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन करना भाजपा की घबराहट को ही दर्शाता है. इसलिए वह बारबार फिर धर्म में इस का हल ढूंढ़ने की गलती दोहरा रही है. ठीक वैसे ही जैसे वैदिक काल में राजेमहाराजे राज्य पर कोई संकट आते ही ऋषिमुनियों की शरण में भागते थे कि महाराज, कुछ करो.

वे ऋषिमुनि तब के राजा को हिम्मत बंधाते थे कि वत्स फलां यज्ञ कर डालो, इस के प्रताप से तुम्हारा और राज्य का संकट दूर हो जाएगा. होता यह था कि राजा पूरे ताम झाम और  झांकी के साथ यज्ञहवन कर लेता था और प्रजा भी उस में आहुतियां डालने के लिए शामिल हो जाती थी. इस से संकट दूर नहीं होता था, मगर लोग संकट को भूल जरूर जाते थे.

अब ऐसा नहीं हो पा रहा. तो सरकार घबराई है कि क्या करे. जिस करिश्माई तरीके से अयोध्या का फैसला आया है वह भी लोगों को कायल नहीं कर सका कि इस का फायदा भाजपा 2024 के चुनाव में उठा पाएगी या फिर उस के हिंदूवादी एजेंडे में कुछ और भी है. अगर नहीं है तो तय है कि 2024 के आम चुनाव हरियाणा और महाराष्ट्र की तर्ज पर होंगे जिन में मूल्यांकन सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर होगा और इस बाबत सरकार के पास ऐसा कुछ नहीं है जिसे गिना कर वह फिर सत्ता में वापसी कर सके.

2014 में नरेंद्र मोदी ने लोगों से वादा किया था कि हरेक के खाते में 15-15 लाख रुपए आएंगे. हर साल 2 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार की व्यवस्था की जाएगी और किसानों को उन की उपज का वाजिब दाम मिलेगा और राममंदिर का निर्माण भी होगा.

मंदिरनिर्माण का वादा तो फैसले के साथ पूरा हो गया जिस से किसी को कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं हो रहा है. अब लोग सोच और पूछ रहे हैं कि रोजगार के मुद्दे पर क्या, खेतीकिसानी को मुनाफे का धंधा बनाने के वादे का क्या…

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इन सवालों, जो तेजी से बड़े पैमाने पर पूछे जाने वाले हैं, से नरेंद्र मोदी की घबराहट अयोध्या के फैसले के बाद भी व्यक्त हुई थी कि अब राष्ट्रनिर्माण होगा. यानी, क्या 6 साल धर्मनिर्माण होता रहा? उसे ले कर संतुष्ट होना तो दूर की बात है, लोग सरकार की नीतियांरीतियां देखते कतई आश्वस्त नहीं हैं कि रोजरोज पूजापाठ, गंगा आरती, खर्चीली मूर्तियों की स्थापना, गौपूजा और दूसरे धार्मिक कार्यों से यह संभव हो पाएगा.

और जो कुछ लोग यानी भक्तगण नरेंद्र मोदी से खुश हैं उन की संख्या नाराज लोगों के मुकाबले इतनी नहीं है. दूसरी बार गद्दी पर बैठने की बड़ी वजह बालाकोट एयरस्ट्राइक और मायावती के प्रधानमंत्री बन जाने की संभावना थी. लेकिन, काठ की हांडी तो हर बार कांग्रेस की भी नहीं चढ़ी थी, तो भाजपा की चढ़ेगी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं.

अनिष्ट करती आस्था

हकीकत तो यह है कि देश का माहौल ही आस्थामय हो रहा है. हर कहीं भजनकीर्तन, पूजापाठ, यज्ञहवन और तरहतरह के कर्मकांड होते दिखना रोजमर्रा की बात है. इस प्रभाव से न तो विदेशी यात्री अछूते रहे थे और न ही कोई अदालत रह सकती थी और इस में उस की गलती भी नहीं क्योंकि आस्था नाम की यह चीज औक्सीजन जैसी हो गई है.

यही आस्था जब धार्मिक होती है तो अनुयायियों की जिंदगी तरहतरह से दुश्वार कर देती है. लोग  झूठ को सच मानते गले से लगाए रहते हैं. पीढ़ीदरपीढ़ी यह आस्था स्थानांतरित होती रहती है और जब टूटती है तो लोग सकपका उठते हैं कि अब क्या करें. हम जिसे मुद्दत से सच मान रहे थे वह तो  झूठ निकला. नतीजतन, अधिकतर लोग तो उसी  झूठ यानी धार्मिक फरेब में जीना पसंद करते हैं.

यही लोग, दरअसल, खुलेपन और खुलेदिमाग से घबराते हैं. इस से सब से बड़ा नुकसान यह होता है कि कुछ विशेष जाति के लोग धर्म के नाम पर दुकान चला रहे हैं. इन की रोजीरोटी यही सामूहिक अंधआस्था है और राम का जन्म अयोध्या में ही हुआ था, यह जिद इसी के दायरे में आती है.

अगर राम का जन्म कानूनीतौर से अयोध्या में हुआ माना गया तो धर्मग्रंथों से जुड़ी हर बात अपनेआप

ही स्वीकार्य हो जाएगी, मसलन वर्णव्यवस्था, पिछले जन्म के पाप, पुण्य, भूत, प्रेत, पिशाच, गंधर्व और जाने क्याक्या जिन्हें बेहूदी, बकवास, आज के वैज्ञानिक युग में, कहने से कोई परहेज या लिहाज किए जाने की कोई वजह सम झ नहीं आती.

मान यह भी लेना चाहिए कि ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी’ वाला दोहा भी सच है. हिंदुओं को इसे फिर से जीवन में चरितार्थ करना चाहिए (हालांकि यह अभी भी बहुतायत से होता है, इस बाबत आस्थावान लोग किसी अदालत के मुहताज नहीं हैं).

जानेअनजाने सुप्रीम कोर्ट या कानून, कुछ भी कह लें, इन कामों में भागीदार बन गया है, वरना सुप्रीम कोर्ट के पास फैसले की बाबत और भी विकल्प थे. मसलन, वह यह कहते भी मुकदमे का फैसला दे सकता था कि विवादित स्थल हिंदुओं का ही है, मुसलमानों का नहीं.

निश्चितरूप से इस से भी मंदिरमसजिद विवाद खत्म हो जाता जो हिंसा और फसाद की असल वजह और जड़ रहा है. यह बात सोची जानी जरूरी है कि क्या लोकतंत्र में अदालतों को धर्मस्थल बनाने का निर्देश या आदेश सरकार को देना चाहिए? क्या सरकार के पास करने को कुछ और नहीं?

पूजापाठ को बढ़ावा

कोई शक नहीं है कि आजादी के बाद तमाम सरकारों ने जम कर पूजापाठ किया है. लेकिन भाजपा राज में यह बेतहाशा बढ़ा है. सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण कांग्रेस युग में हुआ था. सरकार की पंडापुरोहितवाद को बढ़ाने की मंशा किसी सुबूत की मुहताज नहीं. उलटे, यह तो उस की पहचान बन चुकी है.

अब शायद कुछ लोगों को एहसास हो रहा है कि सरकार और हालात गलत दिशा में जा रहे हैं. मुमकिन है कि कल को और भी लोगों को यह लगे. लेकिन तब तक देश का काफी नुकसान हो चुका होगा.

राष्ट्रनिर्माण अगर देवीदेवताओं, मूर्तियों, जन्मभूमि, मंदिरों से होता तो हिंदू हजारों साल गुलामी ढोने को मजबूर नहीं होते. कड़वा सच तो यह है कि हिंदुओं की सब से बड़ी कमजोरी उस में पसरी वर्णव्यवस्था है जो लोगों को आपस में बांटती रही है. संविधान निर्माण के समय इस को किनारे करने की कोशिश की गई थी लेकिन अब वैदिककालीन व्यवस्थाएं फिर सिर उठाती दिख रही हैं. लगता है कि एक ज्वालामुखी फिर से धधकना शुरू हो गया है, जो जिस दिन फटेगा तो न जाने क्या होगा.

अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अयोध्या में भव्य राममंदिर बनेगा, लेकिन यह मंदिर अघोषित तौर पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए होगा. वैश्य समुदाय के संपन्न लोगों को भी यहां आने दिया जाएगा क्योंकि वे भारीभरकम चढ़ावा चढ़ा सकते हैं.

ऐसा बड़े षड््यंत्रपूर्वक तरीके से किया जाएगा कि निरुत्साहित दलित, पिछड़े अपनी बदहाली को नियति मानते उन देवीदेवताओं की जयजयकार करते रहें जो जाति की श्रेष्ठता के मुताबिक उन के हाथ में पकड़ा दिए गए हैं. तिरुपति बालाजी का मंदिर ट्रस्ट बेवजह अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए एक करोड़ रुपए नहीं दे

रहा है, बल्कि यह वैष्णव संप्रदाय के प्रचारप्रसार के लिए है जो राममंदिर से ही संभव है. तिरुपति के मंदिर में दलित, पिछड़े न के बराबर जाते हैं क्योंकि उन की हिम्मत ही इस ओर, इस तरह के भव्य मंदिरों में जाने की नहीं होती. जहां दर्शन करने के लिए मोटा शुल्क देना पड़ता है.

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