भाग 1- दुनिया के मुसलमान अपनों के शिकार
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ईसाईयत के बाद इसलाम को मानने वालों की तादाद दुनिया में सब से ज्यादा है. आज मध्यपूर्व दुनिया का वह इलाका है जहां ताकतवर मुसलिम देशों की खेमेबंदी बहुत तगड़ी है, लेकिन यहां रूस और अमेरिका के साथसाथ चीन की सक्रियता और हस्तक्षेप भी बहुत ज्यादा है. ये तीनों ही राष्ट्र नहीं चाहते कि मुसलिम देश कभी भी एकजुट हो कर उन से ज्यादा ताकतवर हो जाएं और पूर्व के तेल के भंडारों पर पश्चिम की पकड़ कमजोर पड़ जाए. इसलिए वे साजिशन इन को आपस में लड़ाए रखते हैं.
सीरिया जैसे अनेक मुसलिम देश जो शियासुन्नी झगड़ों या सत्ता पर वर्चस्व के चलते गृहयुद्ध की स्थितियों से जू झ रहे हैं, चीन, रूस और अमेरिका उन को सैन्य मदद देने के बहाने उकसाने और लड़ानेमरवाने का काम कर रहे हैं.
दक्षिणपश्चिम एशिया इलाके का मुसलिम राष्ट्र सीरिया आज लगभग पूरी तरह बरबाद हो चुका है. बीते 10 वर्षों से सीरिया सिविल वार से जू झ रहा है. राजधानी दमिश्क को छोड़ कर देश के तकरीबन सभी शहर बरबाद हो चुके हैं. वहां नन्हेनन्हे बच्चे गोलियों से भून दिए जाते हैं, मगर कोई मानवाधिकार संगठन उन की बात नहीं करता. विश्व समुदाय सीरिया की हालत पर खामोश है. सीरिया की जंग को रोकने, वहां के हालात पर काबू पाने के लिए कोई ठोस काम नहीं हो रहा है. सीरिया की हालत हमेशा से ऐसी नहीं थी.
यह मुसलिम देश कभी काफी एडवांस और मौडर्न हुआ करता था. यहां कौफी शौप, फास्ट फूड जाएंट्स से ले कर बीच और नाइट क्लब तक थे, जहां लोगों की भरमार देखी जाती थी. वे लोग आधुनिक जीवन जीते थे. गृहयुद्ध शुरू होने के बाद भी राजधानी दमिश्क में लोग काफी समय तक ऐसी ही लाइफ जीते रहे. जबेसा में 1940 में प्राकृतिक गैस के भंडारों का पता लगा. वर्ष 1956 में यहां पैट्रोलियम की खोज हुई थी. इस के सुवायदिया, करत्सुई तथा रुमाइयां में प्रमुख तेल क्षेत्र हैं. ये तेल क्षेत्र इराक के मोसुल तथा किरकुक के पास के तेल क्षेत्रों के प्राकृतिक विस्तार हैं. पैट्रोलियम सीरिया का प्रमुख निर्यात है.
2011 में जब अरब के बाकी देशों में जैस्मिन क्रांति शुरू हुई थी, तभी सीरिया में इस की शुरुआत हुई. बाकी देशों में सत्ता परिवर्तन हो गए और दशकों से सत्ता पर काबिज तानाशाह शासक या तो मारे गए या जेल में डाल दिए गए, लेकिन सीरिया की कहानी एकदम अलग रास्ते पर चली गई.
सीरिया में मार्च 2011 में गृहयुद्ध शुरू होने के बाद से ही वहां अभूतपूर्व और अकल्पनीय तबाही व बरबादी हुई. साथ ही, भारी संख्या में लोग बेघर भी हुए. 50 लाख से ज्यादा सीरियाई लोगों को देश छोड़ कर भागना पड़ा और करीब 60 लाख लोग देश के भीतर ही विस्थापित हुए. आज एक करोड़ 30 लाख से ज्यादा लोगों को जीवित रहने के लिए सहायता की जरूरत है. सीरियाई संघर्ष और युद्ध ने सीरियाई लोगों के लिए असीमित तकलीफों और तबाही के हालात बना दिए, जिन से पुरुष, महिलाएं और बच्चे, कोई अछूते नहीं रहे.
7 वर्षों बाद भी सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल असद की सेना और विद्रोहियों के बीच युद्ध जारी है. 5 लाख से ज्यादा लोग सीरिया में अब तक मारे जा चुके हैं और इस से भी कई गुना शरण लेने के लिए पड़ोस के देशों की ओर पलायन कर चुके हैं. कई शहर खंडहरों में तबदील हो चुके हैं.
आईएसआईएस और विद्रोहियों के साथसाथ खुद सीरिया की सरकार ने ही अपने मुल्क के सीने पर इतने बम गिराए हैं कि कई भरेपूरे शहर खंडहर में तबदील हो चुके हैं. देश का तीसरा सब से बड़ा शहर होम्स विद्रोहियों का केंद्र बना और फिर तबाही का भी. वर्ष 2011 तक इस शहर में 10 लाख लोग बसते थे. शहर के लोग बेहद जिंदादिल और खुलेमिजाज के थे. यहां तक कि औरतें भी बिना हिजाब यानी परदे के मर्दों के साथ बाहर आतीजाती थीं. लेकिन 2011 में सब बदल गया.
सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ विद्रोह हो गया. विद्रोही सेना ने सब से ज्यादा गदर होम्स शहर में मचाया और इस शहर का नाम क्रांति की राजधानी रख दिया. चौतरफा बमों की बारिश ने 95 फीसदी होम्स शहर को खंडहर बना दिया. हजारों लोग मारे गए. बाकी जान बचाने के लिए होम्स छोड़ कर महफूज ठिकाने की तरफ निकल पड़े.
तबाही और उजड़ती जिंदगियों के बीच आज सीरिया जंग का अखाड़ा बन चुका है. दुनिया की तमाम ताकतें बमबारी का केंद्र सीरिया को बनाए हुए हैं. यूएनएससी जैसी संस्थाएं शांति स्थापित करने, युद्ध रोकने और जानमाल की क्षति रोकने में पूरी तरह नाकाम साबित हुई हैं. यहां तक कि रूस के टीवी चैनलों पर तीसरे विश्वयुद्ध का अलर्ट तक आने लगा है. इस में शांति के लिए काम कर रहे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और विश्व नेताओं की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जो संबद्ध पक्षों को वार्त्ता की टेबल तक लाएं. 2 गुटों में बंटती जा रही दुनिया के बीच शांति स्थापित करने के लिए यूएन की ओर से ही पहल कारगर हो सकती है. पर चूंकि यह मुसलिम मुल्क का अपना मामला है, शायद इसीलिए चारों तरफ खामोशी छाई हुई है.
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बंगलादेश, भारत और म्यांमार में आज रोहिंग्या मुसलमान मौत से संघर्ष कर रहे
हैं. म्यांमार के निवासी रोहिंग्याओं को वहां से खदेड़ा जा रहा है. जान बचाने के लिए वे कभी भारत भाग कर आते हैं तो कभी बंगलादेश में सिर छिपाते हैं, मगर मौत उन का पीछा नहीं छोड़ रही है. वे घर में रुकना चाहते हैं तो हिंसा मौत बन कर आ जाती है और जब घर से निकलते हैं तो समुद्र उन को अपनी आगोश में खींच लेता है.
भले ही इंसानियत की आंख का पानी खुश्क हो गया हो, लेकिन शायद समुद्री पानी को उन की हालत पर दया आ रही है, इसीलिए दर्द में छटपटाते और दरदर भटकते इन गरीबों को वह थपकियां दे कर अपनी गहराई में गहरी नींद सुला रहा है. सब खामोश हैं. मानवता की बात करने वाले भी और वे लोग भी जो सहिष्णु होने का दावा करते हैं.
खुद को शांतिप्रिय कहने वाले बुद्धिस्ट उन की मौत का तमाशा देख रहे हैं, खुद उन के कातिल बने जा रहे हैं. इन रोहिंग्या मुसलमानों को भागते हुए सब देख रहे हैं, लेकिन कोई भी उन का हाथ थामने को तैयार नहीं है इसलिए, क्योंकि वे मुसलमान हैं. अमीर मुसलिम देश भी खामोश हैं, क्योंकि गरीब रोहिंग्या मुसलमानों से उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला है. इन मुसलमानों के लिए म्यांमार में इतनी नफरत है कि उन के घरों को जलाया जा रहा है. उन के बच्चों का बेरहमी से कत्ल किया जा रहा है. उन को उन के ही देश से भगाया जा रहा है.
म्यांमार की प्रधानमंत्री आंग सान सू की को लगता है जैसे कुछ पता नहीं. वे बर्मा (आज म्यांमार) के राष्ट्रपिता आंग सान की बेटी हैं, जिन की 1947 में राजनीतिक हत्या कर दी गई थी. यह सच है कि आंग सान सू की ने बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के लिए लंबा संघर्ष किया है, लेकिन सैनिक सरकार का विरोध करने वाली सू की का सत्ता में होने के बाद भी रोहिंग्या के मामले में खामोश रहना हैरान करता है.
आर्कबिशप डेसमंड टूटू से ले कर मलाला यूसुफजई तक – 12 नोबेल पुरस्कार विजेता म्यांमार सेना द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों पर किए जा रहे जुल्मों को रोकने के लिए आंग सान सू की से अपील कर चुके हैं, मगर शांति की तमाम अपीलों को दरकिनार करते हुए पूरे मामले पर सू की ने बड़े ही रहस्यमय ढंग से चुप्पी साध रखी है. इस मामले में वे अपने पिता आंग सान जैसा रवैया ही अपनाती दिख रही हैं, जिन्होंने 1947 में पांगलौंग वार्त्ता में रोहिंग्या प्रतिनिधियों को बुलाना जरूरी नहीं सम झा था. वह सम्मेलन अलगअलग जातीय समूहों को बर्मा के नए संघ में लाने के लिए था.
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कौन हैं रोहिंग्या मुसलिम ?
रोहिंग्या मुसलिम म्यांमार के रहाइन स्टेट में रहने वाले अल्पसंख्यक हैं, जो सुन्नी इसलाम को मानते हैं. ये रोहिंग्या भाषा बोलते हैं. प्रतिबंध होने की वजह से ये पढ़ेलिखे नहीं हैं. ये सिर्फ बुनियादी इसलामी तालीम ही हासिल कर पाते हैं. म्यांमार में रोहिंग्या सदियों से रह रहे हैं. वर्ष 1400 के आसपास ये रहाइन में आ कर बसे थे. 1430 में ये रहाइन पर राज करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला के दरबार में नौकर थे.
राजा ने मुसलिम एडवाइजरों और दरबारियों को अपनी राजधानी में जगह दी थी. रहाइन स्टेट म्यांमार का पश्चिमी बौर्डर है, जो बंगलादेश के बौर्डर के पास है. यहां के शासकों ने अपनी सेना में मुसलिम पदाधिकारियों को रखा और इस तरह मुसलिम कम्युनिटी वहां पनपती गई.
साल 1785 में बौद्धों का अटैक हुआ, जिस के बाद उन्होंने रहाइन पर कब्जा कर लिया. वह म्यांमार में पहला मौका था जब मुसलिमों को मारा गया. जो बाकी बचे, उन्हें वहां से खदेड़ दिया गया. इस दौरान करीब 35 हजार लोग बंगाल चले गए. वर्ष 1824 से 1826 तक एंग्लो बर्मीज जंग हुई. 1826 में रहाइन अंगरेजों के कब्जे में आ गया.
अंगरेजों ने बंगालियों को बुलाया और रहाइन इलाके में बसने को कहा. इसी दौरान रोहिंग्या मूल के मुसलमानों को भी वापस लौटने और वहां रहने के लिए प्रोत्साहित किया गया. बड़ी तादाद में बंगाल और भारत से प्रवासी वहां पहुंचे. मगर रहाइन के बौद्धों में एंटीमुसलिम फीलिंग पनपने लगी और बीते कई सालों से यही जातीय तनाव अब बड़ा रूप ले रहा है.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान का इस इलाके में दबदबा बढ़ा. अंगरेज रहाइन छोड़ कर चले गए, लेकिन म्यांमार में मुसलिम और बौद्ध एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए और वहां कत्लेआम मच गया. रोहिंग्या मुसलिमों को लगने लगा कि अंगरेजों के संरक्षण के बिना उन का जीवित और सुरक्षित रहना मुश्किल है तो उन्होंने अंगरेजों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी करनी शुरू कर दी.
जापानियों को इस बात का पता चला तो मुसलिमों पर उन के जुल्म और बढ़ गए. बड़ी संख्या में उन का कत्ल किया गया, उन की औरतों और बच्चियों के बलात्कार किए गए. डर के मारे लाखों रोहिंग्या मुसलिम फिर बंगाल और भारत की ओर भागे.
1962 में जनरल नेविन की लीडरशिप में म्यांमार में तख्तापलट हुआ. रोहिंग्या मुसलिमों ने रहाइन में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग की. मगर सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को सिटिजनशिप देने से ही इनकार कर दिया. तब से रोहिंग्या मुसलमान बिना देश वाले लोग बन कर रह रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्ट्स में जिक्र हुआ कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे मुसलिम हैं जिन का सब से ज्यादा दमन हुआ.
बर्मा के सैनिक शासन ने 1982 में उन के सभी राइट्स छीन लिए. तब से आज तक उन का उत्पीड़न रुका नहीं है. वे जहां भी बसने की कोशिश करते हैं, उन की बस्तियों को आग के हवाले कर दिया जाता है, उन की जमीनें हड़प ली जाती हैं, घर और मसजिदें तोड़ दी जाती हैं और उन्हें उन की जगह से खदेड़ दिया जाता है. म्यांमार में उन्हें स्कूल, मकान, दुकानें और मसजिदें बनाने की इजाजत नहीं है. आज हर तरफ से खदेड़े जा रहे रोहिंग्या मुसलमान समुद्र की लहरों में अपनी इहलीला समाप्त करने के लिए मजबूर हैं.
18 साल से युद्ध की आग में जल रहे अफगानिस्तान की 2 एकदम विपरीत तसवीरें दिखाई देती हैं. एक तरफ जहां तालिबान के साथ अमेरिका शांतिवार्त्ता करतेकरते रुक गया है, वहीं दूसरी ओर कुंदूज-हेलमंड जैसे उत्तरी क्षेत्रों में अफगान सुरक्षाबलों और तालिबान लड़ाकों के बीच घातक संघर्ष छिड़ा हुआ है.
एक तरफ अफगानियों और तालिबानियों के बीच वर्चस्व की जंग के बीच अमेरिका अफगानिस्तानी सेना की मदद का ढोंग कर के अपना उल्लू सीधा करने में लगा है तो दूसरी ओर 9/11 की 18वीं बरसी पर अफगानिस्तान में अमेरिकी दूतावास पर जबरदस्त हमले के बाद अलकायदा सरगना ने मुसलमानों से अमेरिका, रूस, यूरोप और इसराईल को तबाह कर देने का आह्वान किया है.
एक अनुमान के मुताबिक, अफगानिस्तान पर नियंत्रण के लिए 18 साल से जारी संघर्ष में विदेशी फौजों के अलावा 3,50,000 अफगान सैनिक और पुलिसकर्मी मोरचे पर डटे हैं. जबकि दूसरी ओर तालिबान की ओर से 40 हजार के करीब लड़ाके युद्ध कर रहे हैं. देश के 58 फीसदी हिस्से पर अफगान सुरक्षाबलों का, जबकि 19 फीसदी इलाके पर तालिबान का कब्जा है. शेष 22 फीसदी इलाके पर नियंत्रण के लिए संघर्ष जारी है. आएदिन बम धमाकों से गूंजने वाले इस देश में आम मुसलमान बड़ी संख्या में हताहत हो रहे हैं.
अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए अमेरिका ने अपनी बहुत बड़ी फौज लगा रखी है. कथिततौर पर वह तालिबान पर जल्द सम झौते का दबाव भी बना रहा है और कह रहा है कि ऐसा होने पर वह अपनी सेना वहां से हटा लेगा. हालांकि, उस की मंशा कतई साफ नहीं है. अमेरिका अपने सैनिकों को वहां से पूरी तरह हटाने का इच्छुक नहीं है. अभी अफगानिस्तान में नाटो और सहयोगी देशों के 30 हजार से अधिक सैनिक हैं, जिन में से 14,500 अमेरिकी सैनिक हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इन में से अधिकांश सैनिकों को वापस बुलाना चाहते हैं, लेकिन 8,600 सैनिकों को स्थायीतौर पर निगरानी के लिए वे वहां रखने की मंशा भी रखते हैं. तालिबान इस के लिए कतई राजी नहीं है.
कतर में अमेरिका और तालिबान के बीच 9 दौर की शांतिवार्त्ताएं हो चुकी हैं. तालिबान की शर्त है कि अमेरिकी सुरक्षा बल पूरी तरह अफगानिस्तान से बाहर निकल जाएं. दूसरी ओर अमेरिका तालिबान से यह गारंटी चाहता है कि उस के सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान की जमीन आईएसआईएस और अलकायदा जैसे अमेरिका विरोधी या ईसाईयत विरोधी आतंकी संगठनों की शरणस्थली नहीं बनेगी. जबकि तालिबान ऐसी कोई गारंटी देने को तैयार नहीं है. लिहाजा, शांतिवार्त्ताओं का सिर्फ नाटक भर चल रहा है और इस की आड़ में आम मुसलमान का सफाया हो रहा है.
सवाल ये हैं कि अगर अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से चले जाते हैं तो तालिबान की अफगानिस्तान की सत्ता में कितनी और कैसी हिस्सेदारी होगी? तालिबान के कट्टर राज का पुराना अनुभव देखते हुए क्या अफगान समाज शासन में तालिबान की भागीदारी को सहन करने के लिए तैयार होगा? सरकार का सैटअप कैसा होगा? सिविल सोसाइटी और अन्य सामाजिक संगठनों के लिए तालिबान को सत्ता में स्वीकार करना क्या आसान होगा? इन सवालों के जवाब मिले बगैर इस इलाके में न कभी शांति आएगी और न आम नागरिक चैन से जीवन बसर कर पाएगा.
पाकिस्तान, पाकिस्तान समर्थित तालिबान और चीन की क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाएं अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता को बनाए रखना चाहती हैं और आगे भी उन की साजिशें चलती रहेंगी. वहीं, तेल भंडारों पर गिद्ध नजर जमाए अमेरिका भी इस क्षेत्र को छोड़ने की मंशा नहीं रखता है. वह तो बस अफगानियों और तालिबानियों के बीच आग में घी झोंकने का काम ही करता रहा है.
यूनाइटेड नेशन के अनुसार, पिछले एक साल में अफगानिस्तान के संघर्ष में लगभग 5 हजार नागरिकों की जानें जा चुकी हैं, जिन में 900 बच्चे शामिल थे. जबकि 7 हजार से अधिक लोग घायल हुए हैं. लड़ाई थम नहीं रही, बल्कि तेज हो रही है.
अफगान लोकल मीडिया के अनुसार, कुंदूज, तकहार, बदक्शन, बल्ख, फराह और हेरात में नियंत्रण के लिए तालिबान और अफगान सेनाओं में घमासान संघर्ष छिड़ा हुआ है. इस लड़ाई के कारण काबुलबाघलान और बाघलानकुंदूज हाईवे भी ब्लौक हैं. पूरा का पूरा उत्तरी अफगानिस्तान वार जोन में तबदील हो चुका है. अगस्त माह के आखिरी दिन और सितंबर महीने के शुरुआती दिनों में हुए हिंसक संघर्ष अफगानिस्तान के वार जोन बनने की कहानी कह रहे हैं.
इसलाम और ईसाईयत की जंग के बीच अब बौद्ध भी कूद पड़े हैं. बहती गंगा में सभी हाथ धोना चाहते हैं. पाकिस्तानी मुसलमानों का हिमायती बना चीन खुद अपने देश में मुसलमानों का उत्पीड़न करने पर आमादा है. पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में चीन ने मुसलमानों के लिए बाकायदा नजरबंदी बस्तियां बना रखी हैं, जिस में लाखों मुसलमानों को नजरबंद कर के रखा गया है. चीन ने पिछले कुछ सालों में ऐसी तमाम जेल सरीखी इमारतें शिनजियांग सूबे में खड़ी की हैं.
अमेरिकी सरकार का आकलन है कि अप्रैल 2017 से चीनी अधिकारियों ने उइगर, कजाक और अन्य मुसलिम अल्पसंख्यक समुदायों के कम से कम 20 लाख लोगों को अपने नजरबंदी शिविरों में अनिश्चितकाल के लिए बंद कर रखा है. सूचनाओं के अनुसार, हिरासत में रखे गए ज्यादातर लोगों के खिलाफ कोई आरोप नहीं लगाया गया है और उन के परिजनों को उन के ठिकानों के बारे में बेहद कम या कोई जानकारी नहीं है.
पिछले दिनों चीन के शिनजियांग प्रांत में मुसलिम व्यापारियों में तब हड़कंप मच गया जब वहां 200 से अधिक मुसलिम व्यापारियों की पत्नियां लापता हो गईं. मुसलिम व्यापारियों की पत्नियां कहां हैं, इस विषय में किसी के पास कोई जानकारी नहीं है. जब इस गंभीर मामले की शिकायत चीनी अधिकारियों से की गई तो उन्हें बस इतना कह कर रवाना कर दिया गया कि उन की पत्नियों को शैक्षणिक केंद्र ले जाया गया है. पत्नियों के यों अचानक गायब होने से शिनजियांग प्रांत के उइगर मुसलामानों के मन में डर बैठ गया है.
दिलचस्प बात यह है कि पहले तो चीन ने इस तरह की किसी भी हरकत से साफ इनकार कर दिया था, मगर जब उस पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव पड़ा तब उस ने माना कि उस ने ऐसे कैंप बना रखे हैं जहां लोगों को जबरन रखा जाता है. चीन के अनुसार, ये व्यावसायिक शिक्षा केंद्र हैं जहां उइगर मुसलमानों को रखा गया है. कैदी मुसलमानों पर उन के धर्म और संस्कृति की रवायतों को छोड़ कर बौद्ध रवायतों को सीखने और उन्हें कुबूल करने का दबाव इन केंद्रों में बनाया जाता है और इस जबरदस्ती को छिपाने के लिए चीन तालीम का परदा तान कर बैठ गया है.
चीन द्वारा निर्मित ये शैक्षिक केंद्र कैसे हैं, यदि इसे सम झना हो तो उन लोगों की बातें जरूर सुननी चाहिए जो इन कैंपों से सुरक्षित बाहर निकले हैं. इन लोगों के अनुसार, कैंप के हालात बहुत खराब हैं. उन शिविरों में नमाज सहित अन्य धार्मिक रीतियों पर प्रतिबंध है. साथ ही, कैंपों में रहने वाले लोगों को बाध्य किया जाता है कि वे ऐसा कोई भी काम न करें जो कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा के विपरीत हो.
दिलचस्प है कि चीन में उइगर या वीगर मुसलमानों के खिलाफ जारी क्रूरता पर तमाम मुसलिम देशों में खामोशी छाई हुई है. दुनियाभर के मानवाधिकार संस्थान इस मामले में चुप्पी साधे हैं. पहली बार तुर्की ने
10 फरवरी को चीन के खिलाफ आवाज उठाई थी और उन शिविरों को बंद करने की मांग की थी. तुर्की के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हामी अक्सोय ने कहा था कि चीन का यह कदम मानवता के खिलाफ है. मगर तुर्की के अलावा दुनिया के किसी भी मुसलिम देश या अन्य देशों ने चीन के इस रुख के खिलाफ एक लफ्ज नहीं बोला.
हाल ही में सऊदी अरब के क्राउन पिं्रस मोहम्मद बिन सलमान ने पाकिस्तान, भारत और चीन का दौरा किया. जब प्रिंस सलमान से चीन में उइगर मुसलमानों को नजरबंदी शिविरों में रखे जाने पर सवाल पूछे गए तो उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से चीन का बचाव ही किया. सलमान ने कहा, ‘चीन को आतंकवाद के खिलाफ और अपने राष्ट्र की सुरक्षा में कोई भी कदम उठाने का पूरा अधिकार है.’ प्रिंस सलमान ने इसे आतंकवाद और अतिवाद के खिलाफ लड़ाई करार दिया.
हैरत की बात है कि चीन में बेहद कठिन परिस्थितियों में जीवन जीने वाले इन गरीब उइगर मुसलमानों को रहनेखाने तक के लाले पड़े हुए हैं. वे अपनी औरतोंबच्चों की सुरक्षा नहीं कर पा रहे हैं. उसी मुसलिम कौम से ताल्लुक रखने वाले प्रिंस सलमान अपने स्वार्थवश उन पर आतंकवादी या अतिवादी होने का लांछन लगा रहे हैं.
वाशिंगटन पोस्ट अपने एक संपादकीय में लिखता है कि – ‘क्राउन प्रिंस सलमान का चीन का बचाव करना बिलकुल स्वभाविक है. इस बचाव को आसानी से सम झा जा सकता है. चीन ने हाल ही में सऊदी के गोपनीय रूप से एक पत्रकार की हत्या के अधिकार का समर्थन किया था और इसे उस का आंतरिक मामला कहा था. आप का नजरबंदी शिविर आप का आंतरिक मामला है और हत्या के लिए मेरी साजिश मेरा आंतरिक मामला है. कमाल की बात है. हम लोग एकदूसरे को बखूबी सम झते हैं.’
गौरतलब है कि हाल ही में तुर्की में सऊदी मूल के पत्रकार जमाल खागोशी की हत्या हुई थी. यह हत्या सऊदी के दूतावास में हुई थी. इस मामले में सऊदी ने कई झूठ बोले और बाद में उस के सारे झूठ पकड़े भी गए. खागोशी की हत्या के बाद ऐसे कई तथ्य सामने आए जिन से पता चलता है कि सऊदी अरब की सरकार इस हत्याकांड में शामिल थी. मगर चीन ने इसे सऊदी का आंतरिक मामला बता कर खामोशी ओढ़ ली.
उधर, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी चीन में मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार पर असामान्य रूप से खामोश रह जाते हैं. यही नहीं, पाकिस्तान में इसलाम के नाम पर कई चरमपंथी संगठन सक्रिय हैं, लेकिन ये चरमपंथी संगठन भी चीन के खिलाफ कोई बयान नहीं देते हैं. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ सेना के अत्याचार की निंदा तो करते हैं, मगर चीन में मुसलमानों पर जो अत्याचार हो रहे हैं, उस पर खामोश रहते हैं. उन की मजबूरी भी सम झी जा सकती है.
पाकिस्तान और चीन की दोस्ती जगजाहिर है. काफी समय से चीन पाकिस्तान का मददगार बना हुआ है. वह पाकिस्तान में चाइनापाकिस्तान इकोनौमिक कौरिडोर के तहत 60 अरब डौलर का निवेश कर रहा है. दूसरी तरफ पाकिस्तान पर चीन के अरबों डौलर का कर्ज भी है. तीसरी बात यह है कि पाकिस्तान कश्मीर विवाद में चीन को भारत के खिलाफ एक मजबूत पार्टनर के तौर पर देखता है. ऐसे में पाकिस्तान चीन में उइगर मुसलमानों के खिलाफ चुप रहना ही ठीक सम झता है. दुनियाभर के मुसलिमबहुल देश इंडोनेशिया, मलयेशिया, सऊदी और पाकिस्तान चीन में प्रताड़ना शिविरों के अंदर आम मुसलमानों पर हो रहे जुल्मों पर खामोश हैं.
आस्ट्रेलियन यूनिवर्सिटी में चाइना पौलिसी के ऐक्सपर्ट माइकल क्लार्क मुसलिम देशों की इस खामोशी का कारण चीन की आर्थिक शक्ति और पलटवार के डर को मुख्य कारण मानते हैं. क्लार्क का कहना है, ‘‘म्यांमार के खिलाफ मुसलिम देश इसलिए बोल लेते हैं क्योंकि वह कमजोर देश है. उस पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाना आसान है. म्यांमार जैसे देशों की तुलना में चीन की अर्थव्यवस्था 180 गुना बड़ी है. उस को नाराज करना या उस से टकराना उन के बस की बात नहीं है.’’
मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका में चीन 2005 से अब तक 144 अरब डौलर का निवेश कर चुका है. इसी दौरान मलयेशिया और इंडोनेशिया में चीन ने 121.6 अरब डौलर का निवेश किया है. चीन ने सऊदी अरब और इराक की सरकारी तेल कंपनियों में भी भारी निवेश कर रखा है. इस के साथ ही चीन ने अपनी महत्त्वाकांक्षी योजना ‘वन बेल्ट वन रोड’ के तहत एशिया, मध्यपूर्व और अफ्रीका में भारी निवेश का वादा कर रखा है. इसलिए चीन में उइगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार को ले कर मुसलिम देश खामोश रहना ही ठीक सम झते हैं. सऊदी अरब के क्राउन पिं्रस सलमान ने तो चीन का बचाव कर इस खामोशी को मान्यता ही दे दी है.
पश्चिमी शिक्षा का विरोधी बोको हराम
नाइजीरिया
बोको हराम नाइजीरिया का एक आतंकी संगठन है जिस का आतंक उत्तरी अफ्रीका के देशों में फैला हुआ है. इस संगठन को इसलामिक स्टेट्स औफ वैस्ट अफ्रीका प्रौविंस यानी आईएसडब्लूएपी के नाम से भी जाना जाता है. नाइजीरिया में सक्रिय आतंकी संगठन बोको हराम किसी दूसरे आतंकी संगठन की तरह ही एक के बाद एक आतंकी वारदातों को अंजाम देता रहा है.
बोको हराम एक अरबी शब्द है जिस का मतलब है – ‘पश्चिमी शिक्षा हराम.’ इस संगठन का औपचारिक नाम ‘जमात ए अहले सुन्नी लिदावती वल जिहाद’ है. इन अरबी शब्दों का मतलब है कि वे लोग जो पैगंबर मोहम्मद की शिक्षा में और जिहाद फैलाने में यकीन रखते हैं. इस संगठन का केंद्र नाइजीरिया का मेदुगुरी शहर रहा है. वहीं इस का मुख्यालय था. वर्ष 1903 में उत्तरी नाइजीरिया, निजेर और दक्षिणी केमरून के इलाके जब से ब्रिटेन ने अपने नियंत्रण में लिए, तब से वहां पश्चिमी शिक्षा का विरोध जारी है. वर्ष 2002 में बोको हराम का गठन हुआ. इस का संस्थापक नाईजीरियाई मुसलिम नेता मोहम्मद यूसुफ था.
बोको हराम का मकसद बच्चों को पश्चिमी शिक्षा से दूर कर इसलामिक शिक्षा देना है. इस संगठन का राजनीतिक मकसद इसलामिक स्टेट का गठन करना है. अपने उद्देश्यों को पाने के लिए और अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए वर्ष 2009 में बोको हराम ने सरकारी इमारतों पर हमले किए. तब से नाइजीरियाई पुलिस और बोको हराम के बीच विवाद जारी है. सरकारी इमारतों पर हमले के बाद से दोनों के बीच जो जंग शुरू हुई, उसे विराम तब मिला जब पुलिस ने बोको हराम के मुख्यालय पर कब्जा कर उस के संस्थापक मोहम्मद यूसुफ को मार डाला.
वर्ष 2010 में इस संगठन ने फिर अपना सिर उठाया. उस वक्त संगठन से जुड़े कुछ लोगों ने जेल पर हमला कर के अपने साथियों को छुड़वा लिया. इस बार आतंक फैलाना इस संगठन का मकसद था. बोको हराम अब न सिर्फ नाइजीरिया तक सीमित है, बल्कि उस ने विस्तार कर पड़ोसी देशों पर भी हमले शुरू कर दिए हैं.
नाइजीरिया की सेना और पुलिस की ओर से 2009 में इस कट्टरपंथी संगठन के खिलाफ कई औपरेशन चलाए गए. इस दौरान वहां 20 हजार लोग मारे गए और 26 लाख बेघर हुए. लेकिन वर्ष 2014 तक इस संगठन ने अपने हमलों में दोगुनी वृद्धि कर ली. इस की बढ़ती शक्ति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आतंकी घटनाओं में मरने वाले लोगों की संख्या के लिहाज से वर्ष 2013 में नाइजीरिया जहां 5वें स्थान पर था, वहीं वर्ष 2014 में यह दूसरे स्थान पर पहुंच गया. दूसरे आंतकी संगठनों से प्रशिक्षण मिलने के बाद समूह ने विस्फोटकों और बमों का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया. मशीनगनों के इस्तेमाल से सामूहिक कत्लेआम इस आतंकी संगठन की विशिष्ट पहचान रही है.
बोको हराम अब तक सैकड़ों स्कूली बच्चों का अपहरण कर चुका है, लेकिन हाल ही में उस ने 200 लड़कियों को एकसाथ अगवा कर दुनियाभर में दहशत फैला दी थी. आर्म्ड कनफ्लिक्ट लोकेशन ऐंड इवैंट डेटा प्रोजैक्ट के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2014 में बोको हराम के हमलों में 6,347 लोग मारे गए थे. साल 2015 की शुरुआत में ही बोको हराम ने एक ही दिन में 2,000 लोगों की हत्या कर दी थी. यह बोको हराम का अब तक का सब से बड़ा हमला माना जाता है. इंटरनैशनल और्गेनाईजेशन फौर माइग्रेशन के अनुसार, बोको हराम के आतंक से अब तक 10 लाख से भी ज्यादा लोग अपने घर छोड़ कर भाग चुके हैं.
बोको के आत्मघाती हमलावरों ने वर्ष 2018 के फरवरी माह में नाइजीरिया के राज्य बोर्नो के शहर मीदुगुरी के स्थानीय बाजार में लोगों के बीच स्वयं को धमाके से उड़ा लिया था. लगातार 3 आत्मघाती हमलों से यह पूरा क्षेत्र थर्रा उठा था और लोग जान बचाने के लिए चीखपुकार करने लगे थे. इन धमाकों के बाद मार्केट में भगदड़ मच गई, जिस के चलते भी कई लोगों की जानें गईं. यह घटना मीदुगुरी के भीड़भाड़ वाले मछली बाजार में हुई थी, जिस में 22 लोग हताहत हुए और 70 से अधिक घायल, जिन में 3 हमलावर पुरुष भी शामिल थे, जिन्होंने माना कि ये हमले बोको हराम की ओर से किए गए थे.
नाइजीरिया में बोको हराम जैसे चरमपंथी संगठन को एक तरफ जहां गरीबी और अशिक्षा से ताकत मिल रही है, वहीं, दूसरी तरफ तेल और हथियारों के अवैध कारोबार से यह और मजबूत होता जा रहा है. नाइजीरिया में ईसाइयों का वर्चस्व है, लेकिन वे मोहम्मद बुहारी का समर्थन करते हैं, ताकि वे बोको हराम के खिलाफ कार्रवाई करें तो विरोध न हो. दरअसल, सारी साजिश तेल के कुओं के इर्दगिर्द है. मामला सेना का नहीं, बल्कि गरीबी, अशिक्षा और तेल के भंडार का है. और इसी कारण बोको हराम बना हुआ है.
तेल के खेल में बरबाद पश्चिम एशिया
विश्व राजनीति में पश्चिम एशिया एक ऐसे क्षेत्र के तौर पर कुख्यात हो चुका है जहां केवल आतंक, अशांति और अराजकता का बोलबाला है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से मिडिल ईस्ट या पश्चिम एशिया कई छोटेबड़े युद्ध और अनगिनत हिंसक झगड़े झेल चुका है. फतह और हमास द्वारा फिलिस्तीन के अलगअलग इलाकों पर कब्जा करने के बाद तो पश्चिम एशिया का सामरिक वातावरण और उल झ गया.
आज पूरा पश्चिम एशिया समस्याग्रस्त है और अमेरिकी विदेश नीति के पास इन समस्याओं से जू झने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं है. अगर आतंक के खिलाफ विश्वव्यापी जंग की बात करें, तो वर्तमान हालात यही इशारा कर रहे हैं कि अमेरिका शांति स्थापना के अपने कथित प्रयासों में फेल है. सच तो यह है कि शांति स्थापना की आड़ में पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका, ने अपने स्वार्थ के लिए पश्चिम एशिया के शासकवर्ग को अपने पक्ष में कर रखा है, ताकि वह बिना रोकटोक यहां के खनिज खासकर पैट्रोलियम को अपने देश में आयात कर सके.
पिछले एक दशक में जब से ऊर्जा के मामले में अमेरिका की आत्मनिर्भरता बढ़़ी है, तब से अमेरिकी नीति केवल तेल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के बजाय आपूर्ति के स्रोत पर नियंत्रण की दिशा में काम करने लगी है. अब यह एक सामान्य स्थिति बन गई है, लेकिन इस के साथ ही इस सामान्यता की पुनरावृत्ति भी हो रही है.
पश्चिम एशिया क्षेत्र में बारबार उत्पन्न होने वाला तनाव ईरान-प्रायोजित आतंकवाद पर केंद्रित नहीं है, बल्कि इस का मंतव्य ईरान द्वारा उत्पादित तेल पर नियंत्रण करना है. सुन्नी मुसलिमों के रहनुमा और अगुआ माने जाने वाले सऊदी अरब को अपने प्रभाव में लेने के बाद अमेरिका अब शिया इसलामी विश्व (इराक, ईरान, सीरिया) पर पूर्ण नियंत्रण करने का प्रयास कर रहा है.
पिछले भाग में आप ने पढ़ा
एक ही स्रोत से निकले 3 धर्म – यहूदी, ईसाई और मुसलमान – कैसे दुनिया में अपने वर्चस्व के लिए एकदूसरे के खून के प्यासे बने हुए हैं. तेल के ज्यादातर कुएं चूंकि मुसलिम देशों के पास हैं, इसलिए सदियों से ईसाई और यहूदी समुदाय कहीं परदे के पीछे से, तो कहीं सामने से इस खजाने पर अपना हक जमाने की साजिशें रचने में जुटे हैं. जिस के चलते अधिकांश मुसलिम देश खूनखराबे और आतंकवाद से जू झ रहे हैं.
मुसलिम देशों में दहशतगर्दी फैलाने, उन्हें बरबाद करने और उन पर आतंकवाद का लेबल चस्पा करने में पश्चिमी देशों की साजिशें इसलिए सफल हैं क्योंकि मुसलमान कहीं भी एकजुट नहीं है. कबीलियाई संस्कृति से प्रभावित मुसलमान आपस में बेतरह बंटे हुए हैं, जिस का फायदा पश्चिमी मुल्क खूब उठा रहे हैं.
ईसाई और यहूदी समुदाय मुसलमानों को आपस में लड़वाने और खत्म करने का कोई अवसर नहीं खोते. बेवकूफ मुसलमान नेताओं को आपस में लड़वाने के लिए पश्चिमी देश पहले उन्हें अत्याधुनिक हथियार और गोलाबारूद मुहैया कराते हैं और जब वे आपस में लड़ते हैं, कत्लोगारत मचाते हैं, तबाही फैलाते हैं तो रूस और अमेरिका जैसे ताकतवर देश शांतिदूत बन कर उन का सफाया करने के लिए वहां पहुंच जाते हैं. यह तमाशा लगभग पूरी दुनिया में जारी है.
पूरी दुनिया में मुसलमान हताहत हो रहा है. मुसलमानों को मारनेखदेड़ने और उन से उन की धार्मिक पहचान छीन लेने का यह सिलसिला बढ़तेबढ़ते अब चीन, जापान, अफ्रीका, भारत, म्यांमार तक आ पहुंचा है.