पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को नज़रअंदाज़ करके सत्ता की चाशनी चाटना नामुमकिन है. मुस्लिम वोट बैंक यहाँ बड़ा फैक्टर है, जो करीब 100 से 110 सीटों पर नतीजों को प्रभावित करता है. यही वजह है कि हर राजनितिक पार्टी मुसलमानों को लुभाने के लिए चुग्गा डालने में लगी है.
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस बार 42 मुस्लिम कैंडिडेट मैदान में उतारे हैं. वहीँ एआईएमआईएम प्रमुख असद्दुदीन ओवैसी बंगाल की जमीन पर उतरते ही सीधे फुरफरा शरीफ की दरगाह पर सजदा करने पहुंचे क्योंकि चुनाव में फुरफुरा शरीफ की खास भूमिका रहती है.
ये भी पढ़ें- केरल में भाजपा की ट्रेन दौड़ाएंगे मेट्रोमैन
फुरफुरा शरीफ पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के जंगीपारा विकासखंड में स्थित एक गांव का नाम है. इस गांव में स्थित हजरत अबु बकर सिद्दीकी की दरगाह बंगाली मुसलमानों में काफी लोकप्रिय है. कहा जाता है कि मुसलामानों के लिए अजमेर शरीफ के बाद फुरफुरा शरीफ ही दूसरी सबसे पवित्र दरगाह है. यहां पर हजरत अबु बकर सिद्दीकी के साथ ही उनके पांच बेटों की मज़ारें हैं, जहाँ सालाना उर्स में बड़ी संख्या में बंगाली और उर्दू भाषी मुसलमानों की भीड़ जुटती है.
वहीँ फुरफुरा शरीफ दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी निभाने वाले पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी हैं जो इस बार चुनाव मैदान में ममता और ओवैसी दोनों को चुनौती देंगे. अब्बास सिद्दीकी अपने नाम के साथ पीरजादा लगाते हैं. पीरजादा फारसी शब्द है, जिसका मतलब होता है मुस्लिम धर्मगुरु की संतान. अब्बास सिद्दीकी का परिवार फुरफुरा शरीफ स्थित हजरत अबु बकर सिद्दीकी और उनके पांच बेटों की मज़ारों की देखरेख करता आया है और वर्तमान में इसके कर्ता-धर्ता अब्बास सिद्दीकी हैं. पीरजादा अब्बास सिद्दीकी अब तक एक मजहबी शख्सियत थे, ऐसा नहीं था कि उनका राजनीति से वास्ता नहीं था, 34 वर्षीय अब्बास सिद्दीकी की कभी ममता बनर्जी से घनी छनती थी.
ये भी पढ़ें- कांग्रेस का विकल्प बन सकती है आम आदमी पार्टी
जब ममता के संघर्ष के दिन थे और वह सिंगुर और नंदीग्राम में आंदोलन कर रही थीं तब फुरफुरा शरीफ के पीरजादा परिवार ने ममता का खुला समर्थन किया था. तब वहां कई मुसलमान किसानों की भी जमीन सरकारी अधिग्रहण में जा रही थी, जो ममता के आंदोलन के कारण बच सकी थी. जब तक अब्बास सिद्दीकी मौलाना के रोल में रहे तब तक ममता से उनकी खूब पटी और उनके इशारे पर मुस्लिम वोट का खूब फायदा ममता को मिला, मगर अब्बास की राजनितिक इच्छाएं जागृत होते ही ममता से उनकी राहें जुदा हो गयीं. अपनी ऊंची महत्वाकांक्षाओं के चलते अब्बास सिद्दीकी ने ममता का साथ छोड़ कर कांग्रेस और लेफ्ट के साथ याराना गाँठ लिया. अब उनकी पार्टी ‘इंडियन सेक्यूलर फ्रंट’ बंगाल के मुसलामानों को साधने में जी-जान से जुटी है.
बंगाल के मुसलमानों के बीच युवा अब्बास सिद्दीकी का अपना फैन बेस है. अपने उत्तेजक भाषण, मजहबी तकरीरों की वजह से वह सोशल मीडिया के वर्चुअल स्पेस से लेकर हकीकत के जलसों में भी काफी भीड़ खींचते हैं. उनके कई वीडियो फेसबुक, ट्विटर पर अलग-अलग संदर्भों में खूब वायरल हुए हैं.
पश्चिम बंगाल की राजनीति में मुसलमान बहुत बड़ा फैक्टर है. ऐसा इसलिए क्योंकि राज्य की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 30 फ़ीसद है. सीटों के लिहाज़ से बात करें तो लगभग 70-100 सीटों पर उनका एकतरफ़ा वोट जीत और हार तय कर सकता है. यही वजह है कि पूरे देश में एनआरसी और सीएए का राग अलापने वाली भाजपा भी पश्चिम बंगाल में इस मुद्दे पर चुप मार जाती है, ये जानते हुए भी कि मुसलमान उसके खेमे में झाँकने नहीं आएगा.
ये भी पढ़ें- दूध के दाम दोगुना करेंगे किसान
गौरतलब है कि कांग्रेस और लेफ़्ट का गठबंधन पश्चिम बंगाल में पहले ही हो चुका है. इस बार उनके साथ फ़ुरफ़ुरा शरीफ़ के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीक़ी भी हैं. राजनीति में सीधे तौर पर अब्बास की पहली बार एंट्री हुई है. पिछले सप्ताह तीनों पार्टियों ने संयुक्त रूप से एक रैली की थी, जिसके बाद कांग्रेस में इस गठबंधन के बाद कुछ बग़ावती सुर भी सुनाई दिए थे. रैली में अब्बास सिद्दीक़ी के व्यवहार को देखकर लेफ्ट पार्टी के स्थानीय नेताओं में भी इस गठबंधन को लेकर थोड़ी असहजता देखने को मिली थी. पिछले चुनाव में ममता बैनर्जी का साथ देने वाले अब्बास सिद्दीकी ने असदुद्दीन ओवैसी को नाउम्मीद कर कांग्रेस और लेफ्ट से हाथ तो मिला लिया है लेकिन वो कितना फायदा पहुंचा पाते हैं इसका खुलासा 2 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद ही होगा.
दूसरी तरफ़ ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख असदउद्दीन ओवैसी बिहार में पांच सीटों पर खाता खोलने के बाद बड़ी उम्मीद लेकर बंगाल के चुनावी मैदान में उतरे हैं. राजनितिक जानकारों की मानें तो ओवैसी और सिद्दीक़ी दोनों बिल्कुल अलग भूमिका में हैं. ओवैसी का पश्चिम बंगाल में कोई दख़ल नहीं है. ना तो उनकी भाषा बंगाली मुसलमानों जैसी है और ना ही बंगाल के बारे में उनको ज़्यादा पता है, ना ही वो वहाँ के रहने वाले हैं. ऐसे में सोचने वाली बात है कि बंगाली मुसलमान उनको वोट क्यों देंगे?
जबकि पीरजादा अब्बास सिद्दीकी का मामला अलग है. बंगाली मुसलमान का उन पर विश्वास है लेकिन उनका कुछ दख़ल हुगली ज़िले की सीटों पर ही है, जहाँ से वो ताल्लुक़ रखते हैं. उसके बाहर उनका कोई प्रभुत्व नहीं है. उनकी महत्वाकांक्षा भी बहुत बड़ी हैं. उन्होंने कांग्रेस और लेफ्ट से हाथ तो मिला लिया है मगर सीटों के बंटवारे में वह हिस्सा भी बड़ा ही चाहेंगे.लिहाज़ा आने वाले दिनों में सीटों के बंटवारे को लेकर मामला फंस सकता है. इसलिए ओवैसी और सिद्दीक़ी को एक नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों का प्रभाव का स्तर अलग है. ओवौसी और सिद्दीक़ी के बीच के इस अंतर को कांग्रेस और लेफ़्ट भी समझते हैं और शायद इसलिए उन्होंने फ़ुरफ़ुरा शरीफ़ के अब्बास सिद्दीक़ी के साथ गठबंधन किया है ताकि थोड़े बहुत मुस्लिम वोट उनकी झोली में आ सकें.
वहीँ ममता बनर्जी कहती हैं कि उनको अपने मुस्लिम मतदाताओं पर पूरा भरोसा है. उन्हें यकीन है कि जो मुस्लिम मतदाता उनके साथ पहले से जुड़े हुए हैं वो उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. इस भरोसे को कायम रखने के लिए ही ममता ने 42 मुस्लिम चेहरे चुनाव मैदान में उतारे हैं. लेकिन अब्बास और ओवैसी कुछ मुस्लिम वोट तो ज़रूर खींच ले जाएंगे. ऐसे में कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोटों पर हक़ जमाने के चलते मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है.
पश्चिम बंगाल की त्रिकोणीय बिसात को देखते हुए जानकार कहते हैं कि बंगाली मानुस ममता में ही ज़्यादा विश्वास रखता है. भाजपा के बवाल से भले तृणमूल कांग्रेस कुछ चुनौती का सामना कर रही है, मगर ममता ने जिस तरह हर तबके को ध्यान में रख कर उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है, वह टीएमसी के लिए काफी आशा जगाती है. शुक्रवार को अपना लकी डे मानने वाली ममता बनर्जी ने फिलहाल जो 291 कैंडिडेट के नाम जारी किए हैं उनमें 50 महिलाएं, 42 मुस्लिम, 79 एससी, 17 एसटी और 103 सामान्य वर्ग के उम्मीदवार हैं. लिस्ट में 100 ऐसे चेहरे हैं, जिन्हें पहली बार मौका दिया जा रहा है. कई सीटों पर फेरबदल किया गया है. ममता बनर्जी का कहना है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस किसी के साथ समझौता नहीं करने वाली है. जमीनी स्तर पर साफ़ छवि और भ्रष्टाचार मुक्त चेहरे को महत्व दिया जा रहा है. लिस्ट में कई स्टार उम्मीदवार भी हैं. कम से कम 100 उम्मीदवार 50 साल से कम उम्र के हैं. इनमें से तीस उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी उम्र 40 साल से भी कम है. 80 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को ममता ने टिकट नहीं दिया है. वहीँ 24 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे गए हैं. नंदीग्राम से खुद ममता बनर्जी टीएमसी छोड़ भाजपा में गए शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ चुनाव में उतरेंगी. नंदीग्राम को शुभेंदु अधिकारी का गढ़ माना जाता है. अगर वो यहाँ से हारे तो भाजपा की काफी छीछालेदर होगी. इस सीट पर मुकाबला काफी रोचक होने वाला है. 9 मार्च को ममता नंदीग्राम जाएंगी और 10 मार्च को हल्दिया में नामांकन दाखिल करेंगी. 7 मार्च को ममता पदयात्रा पर निकलेंगी और उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी रैली के लिए पहुंच रहे हैं.
गौरतलब है कि ममता बनर्जी पिछले 10 साल से बंगाल पर राज कर रहीं हैं, लेकिन यह पहला मौका है जब उन्हें कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. एक तरफ भाजपा है और दूसरी तरफ अपने मुस्लिम मतदाता को साधे रखने की चुनौती उनके सामने है. उन्हें इस बात का बखूबी अंदाज़ा है कि लेफ्ट गठबंधन अब्बास सिद्दीक़ी के सहारे और भाजपा ओवौसी के सहारे टीएमसी के मुसलमान वोटर में सेंधमारी की कोशिश में जुटी है.
पश्चिम बंगाल में इस बार 8 फेज में वोटिंग होगी. 294 सीटों वाली विधानसभा के लिए वोटिंग 27 मार्च (30 सीट), 1 अप्रैल (30 सीट), 6 अप्रैल (31 सीट), 10 अप्रैल (44 सीट), 17 अप्रैल (45 सीट), 22 अप्रैल (43 सीट), 26 अप्रैल (36 सीट), 29 अप्रैल (35 सीट) को होनी है. काउंटिंग 2 मई को की जाएगी.