‘सूटबूट’ वाली केन्द्र सरकार‘ शुरू से ही मजदूर और गरीब विरोधी रही है. नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक जितने भी फैसले हुये वह सब मजदूर विरोधी थे. नोटबंदी और जीएसटी से प्रभावित हुये कारोबार का सबसे अधिक प्रभाव मजदूरों पर ही पड़ा. कारोबार के धीमे होने से मजदूरों को ही सबसे पहले अपनी रोजीरोटी से हाथ धोना पड़ा.

नोटबंदी और जीएसटी के बाद लॉकडाउन ताबूत की इस कड़ी की अखिरी कील साबित हुई. जिसने मजदूरो की रोजीरोटी लेने के के साथ ही साथ जानमाल का नुकसान भी किया है. असल में केन्द्र वाली मोदी सरकार शुरू से ही मजदूर विरोधी और उद्योगपतियों की समर्थक रही है.

केन्द्र सरकार ने अपनी नीतियों से मजदूरो के रोजीरोजगार छीनकर कमजोर किया. जिससे सरकार के उद्योगपति मित्र मजदूरों का मनचाहा शोषण कर सके.

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मोदी सरकार के कार्यकाल में देश में बेरोजगारी की दर सबसे अधिक थी. सरकार की गलत नीतियों की वजह से बेरोजगारी की दर बढी थी. 2004 के यूपीए की सरकार ने गांव से मजदूरों का पलायन रोकने के लिये नरेगा यानि राष्ट्रीय रोजगार गांरटी कानून बनाकर हर गरीब को काम का अधिकार दिया. मोदी सरकार ने इस योजना को भ्रष्टाचार से जोडा और इसके बजट में कटौती शुरू कर दी. धीरे धीरे इस योजना को कागज पर डाल दिया गया. 2014 से 2020 के बीच यह योजना बंद कर दी गई.

नरेगा जिसका नाम बदल कर 2009 में मनरेगा कर दिया गया था उसके बंद होने के बाद मजदूरों और गरीबो का गांव से शहर की तरफ पलायन बढ गया.

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