एक पौराणिक पात्र है अष्टावक्र  जिस के बारे में लोग आमतौर पर इतना ही जानते हैं कि वह अपने अहंकारी वेदपाठी पिता कहो के श्राप के चलते 8 भुजाओं वाला हो कर कुरूप दिखने लगा था जिस का हर कोई उस का मजाक बनाता था लेकिन अष्टावक्र ‘हाथी अपने रास्ते चलता है तो कुत्ते भूंका करते हैं’ वाली कहावत पर अमल करता था. ब्राह्मण होते हुए भी उस का आचरण नास्तिकों जैसा था और ज्ञानियों व श्रेष्ठियों की बातों का तार्किक खंडन करता रहता था. जो लोग अष्टावक्र के बारे में और थोड़ाबहुत जानते हैं वह यह है कि उस ने अपने सहज तर्कों से राजा जनक की सभा में बंदी उर्फ वन्दिनी नाम के तत्कालीन प्रकांड पंडित की बोलती बंद कर दी थी.

दरअसल, अष्टावक्र पहला आदमी था जिस ने सत्य को जैसा महसूस किया वैसा ही कहा. ऋषिमुनियों द्वारा परोसे सच को उस ने कभी स्वीकारा नहीं. उस का कहना था कि सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा है, शास्त्रों में तो शब्दों के संग्रह सहित नियम और सिद्धांत हैं. सत्य और ज्ञान तो आदमी के अंदर होता है. वह मूलतया धर्म के विरुद्ध भी नहीं था बल्कि उस ने सत्य और धर्म के मर्म को अपने तरीके से जाना और उसे व्यक्त भी किया. अष्टावक्र ने कोई गुनाह नहीं किया था बल्कि अपने विचार व्यक्त किए थे जो कट्टरवादियों और परंपरावादियों को आज भी हजम नहीं होते.

अष्टावक्र के प्रसंग से दूसरी कई बातों के साथ एक बात यह भी साबित होती है कि त्रेता और द्वापर युग में हरेक विद्वान का ब्राह्मण होना एक अनिवार्यता थी लेकिन हरेक ब्राह्मण के विद्वान होने की कोई बाध्यता नहीं थी. इस तरह ब्राह्मण और ब्राह्मणत्व 2 अलगअलग शब्द व परिभाषाएं सिद्ध होती हैं ठीक वैसे ही जैसे इन दिनों एक जोरदार बहस हिंदू और हिंदुत्ववादी शब्दों को ले कर छिड़ी हुई है. यह बहस बहुत रोमांचक और दिलचस्प है क्योंकि अधिकतर हिंदू इस गफलत में पड़ गए हैं कि वे हिंदू हैं या फिर हिंदुत्ववादी हैं.

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