2 वर्ष सामाजिक अवसाद और तनाव में गुजारने के बाद नए साल को ले कर लोगों के मन में अब आशंकाओं से ज्यादा संभावनाएं हैं, क्योंकि कोरोना वैक्सीन ने जिंदगी के प्रति आश्वस्त कर दिया है. कोरोनाकाल की उपलब्धियों से लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा है लेकिन चुनौतियां अभी भी कम नहीं, जिन से निबटने के लिए व्यक्तिगत से ले कर वैश्विक स्तर तक एकजुटता और परस्पर सहयोग जरूरी है.
साल 2009 में प्रदर्शित रोलैंड एमेरिच द्वारा निर्देशित हौलीवुड की फिल्म ‘एवरीथिंग रौंग विद 2012’ में भी दुनिया के खत्म होने की कल्पना की गई थी. सदियों से यह कल्पना रोमांच, उत्सुकता और जिज्ञासा का विषय रही है. अब तक हजारों बार दुनिया के खत्म हो जाने के दावे कर के तबीयत में दहशत फैलाई जा चुकी है. हर बार ऐसा किसी शरारत या साजिश के तहत हुआ, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. हां, इतना जरूर कहा जा सकता है कि लोग जिस में रहते हैं उस संसार के अस्तित्व को ले कर जरूर डरे और सहमे हुए रहते हैं.
शुद्ध फिलौसफी के नजरिए से देखें तो आदमी अपनी औसत सक्रिय
उम्र 55 साल में से अधिकतर वक्त कमानेखाने में गुजार देता है. व्यस्तता इतनी कि उस के पास दम मारने की भी फुरसत नहीं होती और कभीकभी इतनी फुरसत होती है कि वह सोचतेसोचते घबराने लगता है कि अब क्या होगा. यह फुरसत हर किसी को कोरोना के कहर के वक्त इफरात से मिली थी. उस वक्त लोग खुद के अस्तित्व और दुनिया को ले कर तमाम आशंकाओं से घिरने लगे थे और खुद को सलीके से जिंदा रखने के नएनए बहाने ढूंढ़ रहे थे. मौजूदा पीढि़यों में से किसी ने भी ऐसा भयावह मंजर और नजारा पहले कभी नहीं देखा था.