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दलित दूल्हे घोड़ी पर

घुड़चढ़ी जैसी कुतार्किक परंपरा का भले हिंदू ग्रंथों में कहीं कोई जिक्र नहीं पर इस का जुड़ाव अतीत में सवर्णों से रहा है. आज दलित समाज बराबरी के लिए इस परंपरा को अपना रहा है. इस पर ऊंची जातियों द्वारा लगातार बवाल काटना बताता है कि उन्हें दलितों का सिर उठा कर चलना तक सहन नहीं हो रहा.

श्रीमती रमा अहिरवार (आग्रह पर बदला हुआ नाम) भोपाल के कोलार इलाके के एक अपार्टमैंट में रहती हैं. उन के पति एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क हैं जिन की तनख्वाह अब 55 हजार रुपए महीना है. 48 वर्षीया रमा के 3 बच्चे हैं. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर अच्छी सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है. उस से छोटी 20 साल की बेटी एमए कर रही है और सब से छोटा बेटा एमबीए कर रहा है.

रमा का मायका विदिशा में है. बचपन उन्होंने अपनी पैतृक दलित बस्ती में बड़े अभावों में गुजारा जो शादी के बाद दूर हो गए. उस के मन में एक नहीं, बल्कि कई कसक हैं जिन का गहरा ताल्लुक दलित होने व उस की शादी के पहले की जिंदगी से है. रमा अपनी बस्ती ही नहीं, बल्कि शहर की पहली दलित युवती थी जो कालेज का मुंह देख पाई, लेकिन बीए की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाई क्योंकि मांबाप से पक्की सरकारी नौकरी वाले दामाद का मोह छोड़ा नहीं गया. उस ने कालेज की पढ़ाई बीच में छुड़वा कर बेटे के हाथ पीले कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली थी.

रमा को इस से ज्यादा मलाल इस बात का है कि उस का पति शादी के वक्त घोड़ी नहीं चढ़ पाया था. तब कोई खुला विरोध नहीं था लेकिन हिम्मत उन के पिता व बस्ती वालों की ही नहीं पड़ी थी कि दूल्हे को घोड़ी चढ़ा कर बस्ती तक ला पाएं क्योंकि इस से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि उन की बिरादरी का कोई दूल्हा घोड़ी पर बैठ कर आया हो.

दलित युवतियों का यह सपना विदिशा की उस दलित बस्ती में भी सपना ही रह जाता था कि उन का पति राजकुमार की तरह घोड़ी पर बैठ कर आएगा और उन्हें राजकुमारी की तरह विदा करा कर ले जाएगा. रमा की शादी के वक्त घोड़ी की बात उठी थी लेकिन बिरादरी के बड़ेबूढ़ों ने साफ कह दिया था कि हमारे समाज में ये चोंचले आज तक नहीं हुए. कोई एतराज जताए, न जताए पर हम ब्राह्मणों, कायस्थों और बनियों के महल्लों से होते हुए दूल्हे को घोड़ी पर बैठा कर नहीं ला सकते. आज नहीं तो कल हमें इस दुस्साहस का खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. फिर चाहे वह बस्ती की बिजली कटने की शक्ल में हो या फिर नगरपालिका के नलों में पानी सप्लाई न होने की शक्ल में. हम यह वीरता दिखाने की मूर्खता नहीं कर सकते.

रमा को नहीं मालूम कि दलित दूल्हों को घोड़ी पर न बैठने का रिवाज कहां से शुरू हुआ, लेकिन इतना वह जानती है कि उस की शादी के वक्त यानी अब से कोई 25 वर्षों पहले यह ख्वाव देखना भी किसी गुनाह से कमतर न होता था. रमा अपनी कसक या ख्वाहिश बेटों की शादी में पूरी करेंगी जब वे ठसक से घोड़ी पर बैठ बरात ले जाएंगे और बहुओं को विदा करा कर लाएंगे. दामाद के लिए भी उन की शर्त यही होगी कि वह जब बरात ले कर आए तो घोड़ी पर ही आए.

शिक्षित और जागरूक रमा जानती हैं कि पिछले दिनों देशभर से कई ऐसे मामले उजागर हुए हैं जिन में दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठ कर बरात नहीं निकालने दी गई और इस बाबत दूल्हों को बेइज्ज्त भी किया गया. हिंसा भी की गई और अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल किया गया. लेकिन वे बेफिक्र हैं कि उन के बच्चों की शादी में ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि भोपाल में ऐसा नहीं होता और घोड़ी चढ़े दूल्हे से कोई जाति नहीं पूछता और न ही कोई उस का कौलर पकड़ कर नीचे उतारता है, खासतौर से उस पढ़ेलिखे शहरी तबके में जिस में रहने की वे अब आदी हो गई हैं.

जहांजहां ऐसा हुआ वहां के बारे में रमा के पास कोई स्पष्ट राय नहीं है लेकिन इन और इस तरह की खबरों से उन का दिल दुखता है और खून खौलता है कि ‘हम दलितों के साथ यह दोयम दर्जे का बरताव क्यों, हम क्या इंसान नहीं, क्या हमें खुश रहने और शौक पूरे करने का हक नहीं. दीगर धार्मिक भेदभाव और जातिगत अत्याचार तो आएदिन होते ही रहते हैं लेकिन हमारी बिरादरी के दूल्हे घोड़ी क्यों नहीं चढ़ सकते और जब चढ़ते हैं तो उन्हें प्रताडि़त क्यों किया जाता है, दबंगों के पेट में इस से मरोड़ें क्यों उठती हैं, हम ने किसी का क्या बिगाड़ा है.’

इन सवालों के जवाब मिलना आसान बात नहीं है लेकिन पिछले दिनों हुए इस तरह के हादसों पर नजर डालें तो साफसाफ नजर आता है कि धर्म ने जो गैप सवर्ण व दलितों के बीच पैदा कर रखा है वह कानूनी हक और सुधार की कोशिशों से नहीं भरने वाला. कुछ तो है जो सवर्णों के दिलोदिमाग में खटकता रहता है और कुछ दलितों के दिलोदिमाग में भी है जो वे घोड़ी चढ़ने की जिद नहीं छोड़ते. रमा में यह जिद या कुंठा, कुछ भी कह लें, दूसरे तरीके से आकार ले रही है. इस फर्क को समझा जाना बेहद जरूरी है लेकिन उस से पहले-

कुछ प्रमुख घटनाएं

मध्य प्रदेश के पिछड़े इलाके बुंदेलखंड के छतरपुर जिले में 11 फरवरी को गांव कुंडलिया में एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार हो कर राछ (बरात से मिलतीजुलती एक रस्म) निकालना दबंगों को इस तरह नागवार गुजरा कि उन्होंने उस में बज रहा डीजे बंद कर बरात को गांव के बाहर खदेड़ दिया.

दलित दूल्हा दया चंद अहिरवार पुलिस विभाग में कौंस्टेबल है. उस ने पुलिस में इस घटना की शिकायत की तो दूसरे दिन पुलिस कस्टडी में उस की बरात निकाली गई. पुलिस अधीक्षक सचिन शर्मा के मुताबिक, दयाचंद की बरात को एक गली में रोका गया था जो जाहिर है सवर्णों की थी.

दयाचंद ने शादी के बाद बताया कि हमारे गांव में अभी तक कोई दूल्हा घोड़ी पर नहीं बैठा था. मैं ने इस परिपाटी को तोड़ दिया है.

ठीक इस के 5 दिनों पहले मध्य प्रदेश के ही निमाड़ इलाके के जिले मंदसौर के गुराडिया माता गांव में दलित दूल्हे दीपक मेघवाल की बरात को रोक कर दबंगों ने बरातियों के साथ मारपीट करते जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया था और डीजे चला रहे युवक की भी धुनाई की थी, जिस से वह याद रखे कि किसी दलित दूल्हे की बरात में डीजे नहीं बजाना है, भले ही मुंहमांगे पैसे क्यों न मिल रहे हों.

इस मामले की रिपोर्ट शामगढ़ थाने में दर्ज कराई गई थी. पुलिस ने दीपक के पिता नंदा मेघवाल की शिकायत पर 8 लोगों के खिलाफ एससीएसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया. यहां भी छतरपुर के कुंडलिया गांव की तरह दबंग आरोपियों के नाम पुलिस ने उजागर नहीं किए. मान लिया जाना ही बेहतर है कि उन का दबंग होना या दलित न होना ही मसला समझने को काफी है.

दीपक की बरात भी पुलिस के साए में निकल पाई. यहां दिलचस्प बात यह थी कि कार्रवाई करने से पहले पुलिस ने दोनों पक्षों को समझाइश देने की नाकाम कोशिश की थी जिस में यह स्पष्ट हो गया था कि दबंग लोग नहीं चाहते कि कोई दलित दूल्हा घोड़ी चढ़े.

गौरतलब है कि मंदसौर के ही गांव बदनजी खेड़ा में नवंबर 2020 में खासा बखेड़ा खड़ा हो गया था जब एक दलित दूल्हे की बरात को एक सवर्ण महल्ले में से निकालने की गुस्ताखी पर रोका गया था और दूल्हे को नीचे उतार दिया गया था. दलित समुदाय के लोग घोड़ी पर ही बरात निकालने पर अड़ गए तो पुलिस की दखल से झगड़ा या फसाद बड़े दिलचस्प तरीके से सुलझाया गया कि किसी पक्ष ने रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई थी.

मंदसौर के एक टीवी ऐक्टर और पत्रकार संतोष परसाईं के मुताबिक, निमाड़ मालवा इलाके में इस तरह की घटनाएं अब बेहद आम हो चली हैं. अब दलित दबंगों के दबाव में नहीं आते और सवर्ण अपनी दबंगई से बाज नहीं आते. लिहाजा, फसाद तो होंगे ही. ऐसे ही फसादों में बीती 27 जनवरी को नीमच जिले के एक गांव सरसी में दलित दूल्हा राहुल मेघवाल अपने हाथ में संविधान की प्रति ले कर घोड़ी चढ़ा था. उसे भी दबंगों ने घोड़ी पर बरात न निकालने की धौंस दी थी. राहुल की सुरक्षा और गांव में शांति बनाए रखने को कोई 100 पुलिसकर्मी बरात में शामिल हुए थे.

द्य    मध्य प्रदेश से सटा राज्य भी अपवाद नहीं है बल्कि उदाहरण है. राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के गांव देवलिया में भी दलित दूल्हे नारायण लाल बलाई की बरात बीती 14 फरवरी को पुलिस कस्टडी में निकली थी. इस इलाके में भी दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठने की इजाजत और रस्म दोनों नहीं हैं. आसपास के गांवों में आएदिन दलित दूल्हों को बिना किसी लिहाज या डर के घोड़ी से बेइज्ज्त कर उतारना दबंग अपना पुश्तैनी हक समझते हैं. इसी डर के चलते नारायण ने घोड़ी चढ़ने के पहले पुलिस की मदद ली थी. जब पुलिस की मौजूदगी में बरात निकल गई तो गांव के दलितों ने जश्न मनाया और अपनी इस कामयाबी की तसवीरें जम कर सोशल मीडिया पर वायरल कीं. इन में भी महिलाओं ने बढ़चढ़ कर खुशी जताई.

गुजरात के बनासकांठा के मोटा गांव का तो नजारा ही बीती 9 फरवरी को जुदा था. दूल्हे का भाई सुरेश शेखालिया फौज में है, जिसे मालूम था कि ऊंची जाति वाले लोग दलित दूल्हे का घोड़ी पर बैठना बरदाश्त नहीं करेंगे. इस बाबत उसे एडवांस में धमकी भी मिल गई थी, इसलिए उस ने पहले ही पुलिस को इत्तला दे दे थी. पुलिस गांव पहुंच भी गई थी पर इस से ऊंची जाति वालों को कोई फर्क नहीं पड़ा. किसी फसाद की आशंका के चलते पुलिस की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच शांति वार्ताएं आयोजित हुईं. शेखालिया परिवार दबंगों का लिहाज करते इस बात पर राजी हो गया कि दूल्हा सूरज घोड़ी पर बैठ कर कोई नया रिवाज कायम नहीं करेगा, यानी पुराना सामंती रिवाज नहीं तोड़ेगा.

यह बात दबंगों के मन की थी, इसलिए वे अपनी जीत पर खुश होते रहे, लेकिन फसाद उस वक्त खड़ा हो गया जब दलित बरातियों ने सिर पर साफे बांध लिए. बस, इतना देखना था कि दबंगों ने बरातियों पर पथराव शुरू कर दिया जिस से बरातियों को चोटें आईं जिन में महिलाएं भी शामिल थीं और पुलिस लाचार देखती रही. हल्ला ज्यादा मचा और बात व माहौल बिगड़ने लगा तो पुलिस ने सरपंच भरत सिंह राजपूत सहित 28 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया. दलितों के साफा बांधने पर एतराज का यह नया मामला था जिस के अपने अलग माने, मंशा और मकसद हैं.

मंशा, माने और मकसद

मंशा यह है कि दलित किसी भी स्तर पर सवर्णों की बराबरी न करने लगें, इसलिए उन्हें हर स्तर पर नीचा दिखाने का कोई मौका न छोड़ा जाए. इस ज्यादती और अत्याचार का परंपरागत बहाना या आड़ धर्म और धार्मिक ग्रंथ हैं, जिन में दलितों को दीनहीन, नीच, पशुवत, पैदाइशी पापी और जाने क्याक्या बताया गया है. सनातनियों के संविधान ‘मनु स्मृति’ में उन्हें ऊंची जाति वालों का सेवक बताया गया है.

शिक्षा और जागरूकता का यह वह दौर है जिस में दलित अपने संवैधानिक अधिकार समझने लगा है और मांगने के बजाय छीनने में ज्यादा भरोसा करने लगा है. दलित दूल्हों की घोड़ी पर बैठ कर ही बरात निकालने की जिद इन्हीं में से एक है. यह मनुवादियों के बनाए उन नएनए रिवाजों में से एक है जिस का किसी धर्मग्रंथ में वर्णन नहीं है. इसी बिना पर दलित युवकों ने मान लिया कि शादी में घोड़ी पर चढ़ कर बरात निकालना उन का हक है.

इस के पीछे उन का मकसद सवर्णों की बराबरी का वहम पाल लेना भी है, उलट इस के, दबंगों का मकसद उन से भी ज्यादा साफ है कि दलित ऐसा कोई काम न करें जिस से वे उन की बराबरी करते दिखें, यानी उन्हें खुशी मनाने व अपने पैसों से खुशी हासिल करने का भी हक नहीं. सदियों से मानसिकता तो यही है कि दलित हर काम में सवर्णों से पिछड़े रहें और कभी किसी कर्म से अगड़ा बनने की कोशिश करें तो उन्हें लतियाओ और इतना हताश कर दो कि वे सिर उठा कर चलने की हिम्मत ही न करें.

गांवदेहात तक सिमटा कहर

इस में शक नहीं कि दलित दूल्हों को घोड़ी पर न चढ़ने देने के सौ फीसदी मामले गांवों से ही देखने में आते हैं. शहरों में न के बराबर ऐसा होता है. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि दलितों को संविधान में वर्णित समानता का अधिकार मिल गया है. दरअसल शहरों का माहौल अलग है जहां कोई किसी से मतलब नहीं रखता. व्यस्त होती जिंदगी में किसी के पास इतनी फुरसत भी नहीं कि वह दूल्हों का सेहरा उठाते उन की जातपांत पूछे. लेकिन यह भी सच है कि शहरों में भी गांवों की तरह दलितों की बस्तियां अलग हैं और आमतौर पर दलित शहरों की कालोनियों और अपार्टमैंटों में खुद को सहज नहीं महसूस करते हैं.

रमा अहिरवार इस की बेहतर मिसाल हैं जिन के पति को सरकारी मुलाजिम होने की वजह से भोपाल के रिहायशी इलाके में सुकून से रहने दिया जा रहा है लेकिन होलीदीवाली जैसे तीजत्योहारों पर पड़ोसी उन के यहां न तो पकवान के थाल लाते हैं और न ही रमा उन के घर भेज पाती हैं. यानी हिंदू धर्म के इन 2 किनारों के बीच की दूरी पर बढ़ते शहरीकरण का इतना भर फर्क पड़ा है कि लहरों में कोई तूफान नहीं आएगा और उन के बीच की दूरी यथावत रहेगी.

यह सहूलियत उन सभी दलितों को मिली हुई है जो सरकारी नौकरियों में आ कर पैसे वाले छोटेबड़े साहब बन गए हैं. भोपाल के ही एक सरकारी कालेज के एक दलित प्रोफैसर के मुताबिक, ऐसे दलितों की संख्या उन की आबादी का आधा फीसदी भी नहीं है. इन दिनों सवर्ण बड़े जोश के साथ यह गिनाने से नहीं चूकते कि अब छुआछूत और जातिगत अत्याचार व प्रताड़ना बंद हो गए हैं. एक फैलाई गई खुशफहमी में जी रहे इन लोगों को दलित दूल्हों की दुर्दशा देख कर सोचना चाहिए कि फिर यह क्या है. बीते 20 वर्षों में हजारों दलित दूल्हों को बेइज्जती कर घोड़ी से खींच कर उतारना कौन सी समरसता है.

नए दौर के दबंग पिछड़े

गांवदेहातों से ऊंची जाति वाले, वजहें कुछ भी हों, पलायन कर चुके हैं. हर गांव में एकाध घर ही उन का दिखता है लेकिन पिछड़े वहां बड़ी तादाद में अभी भी बसे हुए हैं जो सवर्णों की गैरमौजूदगी में खुद को खुदा समझने लगे हैं. ये पिछड़े वही हैं जिन की गिनती धर्म के लिहाज से अछूत नहीं, बल्कि सछूत शूद्रों में होती है. खेतीकिसानी के अलावा ये पिछड़े छोटेबड़े कारोबार भी करते हैं. एक तरह से ये गांवों के माईबाप बन चुके हैं.

दलित दूल्हों पर जुल्मोसितम और कहर ढाने के 85 फीसदी मामलों में आरोपी यही होते हैं. इस तबके ने भी पीढि़यों तक ऊंची जाति वालों की अनदेखी और ज्यादती भुगती है, पर गांव की सत्ता हाथ में आते ही इन्होंने अपना रंग गिरगिट की तरह बदला और इफरात से भागवत और अखंड रामायण जैसे महंगे धार्मिक आयोजन गांवों में कराने लगे. ब्राह्मण धर्मगुरुओं ने इन से दक्षिणा डकार कर इन्हें ‘ज्ञान’ देना शुरू किया तो उस का एक कहर दलित दूल्हों पर भी टूटा.

पिछड़ों के पास दलितों से कहीं ज्यादा पैसा है और वे शिक्षित भी ज्यादा हैं लेकिन सामाजिक पहचान के लिए इस वर्ग ने सवर्णों वाला रास्ता चुना कि दलितों को शान से रहने और सिर उठा कर जीने का कोई हक नहीं और अब यह जिम्मेदारी उन की है कि वे यह ‘अधर्म’ न होने दें. लिहाजा, उन्होंने उन्हीं तरीकों से दलितों को सताना शुरू कर दिया जिन से कल तक सवर्ण सताया करते थे. यह गोरखधंधा शहरी लोगों को बिना गांवों में कुछ दिन बिताए समझ आ जाएगा, यह कहने की कोई वजह नहीं.

मध्य प्रदेश कांग्रेस के महासचिव युवा नेता जसवीर सिंह गुर्जर दलित दूल्हों की दुर्दशा का जिम्मेदार मनुवादी व्यवस्था को ठहराते कहते हैं. यह असल में राजनीति और धर्म का घालमेल है और इस बाबत पिछड़ों को सवर्णों की शह मिली हुई है कि वे गांवदेहातों से उन की छोड़ी सत्ता पर दबंगई के बूते पर काबिज हो जाएं.

जसवीर के मुताबिक, अब दलित भी जागरूक हो रहे हैं. घुड़चढ़ी के फसाद इसी की देन हैं. ज्यादा नहीं, अब से 25 वर्षों पहले जब गांवों में सवर्णों की तूती ब्राह्मणबनिया गठजोड़ के चलते बोलती थी तब दलित युवा घोड़ी पर बैठ कर बरात निकालने की सोचता भी नहीं था लेकिन अब बड़े पैमाने पर सोचने लगा है. सो पिछड़ों को अपनी बादशाहत डगमगाती नजर आने लगी है और वे दलितों के प्रति ज्यादा आक्रामक होने लगे हैं. कोई भी दलित दूल्हों से उन का यह हक छीन नहीं सकता.

आईपीएस दूल्हा भी डरा

जसवीर मानते हैं कि ऐसा कांग्रेस शासित राज्यों में भी होता है लेकिन वहां सख्ती ज्यादा है. राजस्थान सरकार ने प्रशासन को निर्देश दिए हैं कि ऐसे मामलों पर कोई नरमी न बरती जाए लेकिन उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश और गुजरात की भाजपा सरकारों ने ऐसी कोई पहल नहीं की है जिस से सभी मामले सामने ही नहीं आ पाते. भगवा राज में दबंगों के हौसले बुलंद हो जाते हैं.

साफ दिख रहा है कि वे अपनी पार्टी का बचाव करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं क्योंकि 16 फरवरी को ही राजस्थान का एक और गांव पुलिस छावनी में तबदील हो गया था. इस बार दूल्हा कोई ऐरागैरा नहीं, बल्कि एक आईपीएस अधिकारी सुनील कुमार धनवंता थे, जिन की बरात जयपुर के गांव जयसिंहपुरा से सूरजपुरा गांव गई थी.

सुनील कुमार को पुलिस के बड़े अधिकारी होने के बाद भी डर था कि दबंग बिंदोरी रस्म, जिस में दूल्हा अपने गांव में निकलता है, के लिए उन्हें घोड़ी पर नहीं बैठने देंगे, लिहाजा उन्होंने भी प्रशासन से पहले ही सुरक्षा मांग ली थी जोकि उन्हें मिली और बरात में पुलिस वाले व अधिकारी ज्यादा थे.

क्या गलत हैं दलित दूल्हे

एक पुराना और चलताऊ शेर है कि- फलक को जिद है जहां बिजलियां गिराने की, हमें भी जिद है वहीं आशियां बनाने की.

यह शेर दलित दूल्हों पर एकदम फिट बैठता है जो कम से कम घुड़चढ़ी के मामले में तो सवर्णों के सामने झुकना नहीं चाहते फिर भले ही उन्हें पुलिस के साए में बरात निकालनी पड़े. क्या इस से वे सवर्ण हो जाएंगे या उन्हें इज्जत मिलने लगेगी, इस पर गंभीरता से सोचा जाना जरूरी है. निष्कर्ष यही निकलेगा कि ऐसा कुछ नहीं होगा और उन का दलितपना यानी सामाजिक हैसियत ज्यों की त्यों रहेगी.

हालांकि मध्य प्रदेश के भूतपूर्व दलित वरिष्ठ विधायक फूल सिंह बरैया कहते

हैं, ‘‘दलितों को कतई मंदिर में नहीं जाना चाहिए और कर्मकांडों से भी दूर रहना चाहिए क्योंकि इस से उन का कोई भला नहीं होने वाला. लेकिन दलित दूल्हों के घोड़ी चढ़ने पर यह बात लागू नहीं होती. वजह, यह एक गैरधार्मिक मसला है. मंदिर जाते वक्त कोई दलित पुलिस प्रशासन से गुहार नहीं लगाता कि हमें सुरक्षा दो, लेकिन यह एक पुरानी रस्म है जो सवर्णों में ही होती थी.’’

‘‘बात नकल की नहीं है,’’ वे कहते हैं, ‘‘क्योंकि अब कुछ दलित भी इसे अफोर्ड कर सकते हैं.’’ पहले दलितों की बरात बड़ी सिंपल होती थी. वे मीलों पैदल चलते थे और रास्ते में बना व खा लेते थे. अब अगर कुछ दलितों को घोड़ी रास आने लगी है, वे महंगे होटलों और रिसोर्टों में शादी करने लगे हैं, रेमंड्स का सूट, डैनिम की टाई और रैड चीफ के जूते पहनने लगे हैं, सिर पर साफा बांधने लगे हैं तो हर्ज और एतराज किस बात का. कल को अगर ये दबंग उन के अच्छे कपड़ों, कारों और एसी, फ्रिज लैपटौप वगैरह पर भी मनुवादी कायदेकानून, भारतीय कानून तोड़ते हुए, थोपने लगेंगे तब क्या कहा जाएगा. क्या यह कि, नहीं, दलितों को ऐसा नहीं करना चाहिए.

‘‘क्या कोई दलित औरतों, खासतौर से दुलहन, के ब्यूटीपार्लर जा कर मेकअप करवाने पर उन्हें जलील करेगा? तब भी क्या यही कहा जाएगा कि दलित दुलहनों को सजनासंवरना नहीं चाहिए क्योंकि इस से ऊंची जाति वालों को तकलीफ होती है, उन की तौहीन होती है.’’

तल्खी से फूल सिंह अपनी बात को आगे बढ़ाते कहते हैं, ‘‘मेरी राय में तो दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठ कर बरात निकालनी चाहिए क्योंकि इस में पंडे और मंत्रोच्चारण वगैरह की जरूरत नहीं पड़ती. हां, दलितों को कुरीतियों व अंधविश्वासों से परहेज करना चाहिए, किसी ऐसी रस्म या रिवाज से नहीं जिस में धर्म और ब्राह्मण का कोई रोल न हो.’’

नए साल में 15 फरवरी तक कोई दर्जनभर मामले दलित दूल्हों की घुड़चढ़ी पर फसाद पैदा होने के उजागर हो चुके थे. ऐसे मामलों की तादाद तय है सैकड़ोंहजारों में होगी जिन में रिपोर्ट दर्ज ही नहीं हुई या दलितों की हिम्मत ही दबंगों के डर के चलते दूल्हे को घोड़ी पर बैठाने की नहीं पड़ी होगी.

उजागर मामलों में सभी दूल्हे शिक्षित और जागरूक थे और हर जगह दलित समुदाय एकजुट था. इस से लगता है कि दलित दूल्हों को रोका नहीं जा सकता. लेकिन यह भी तय है कि तभी तक जब तक पुलिस उन का साथ दे रही है और जब पुलिस प्रशासन मुंह फेर लेगा, उस दिन कोई भगवान भी दलित दूल्हों व उन की घोड़ी के लिए कुछ नहीं कर सकेगा.

भारत भूमि युगे युगे: कद पर कवायद

बिहार के मुख्यमंत्री सहित कई दूसरे अहम पदों पर रहते जीतन राम मांझी ने कोई एक काम दलितों के भले का ऐसा नहीं किया जिसे गिनाते वे फख्र से सिर ऊंचा कर सकें. उन के मामले में तो हो उलटा रहा है कि बढ़ती उम्र में उन की जबान अकसर फिसलने लगी है. उन की नई मांग यह है कि पुलिस में भरती के लिए आरक्षित वर्ग की महिलाओं को कद में छूट मिलनी चाहिए क्योंकि सामान्य वर्ग के मुकाबले उन्हें कम पौष्टिक आहार मिलता है इसलिए उन का कद बढ़ नहीं पाता.

बात में दम होता अगर जीतन राम कद और पौष्टिक भोजन संबंधी कुछ आंकड़े पेश कर पाते और दलील यह देते कि पुलिस भरती में आरक्षित पुरुषों को क्यों कद में डिस्काउंट मिलता है और अच्छा तो यह होता अगर वे यह मांग करते कि सामान्य वर्ग की महिलाओं का न्यूनतम कद दोचार इंच बढ़ा दिया जाए, इस से कथित समस्या ही हल हो जाती.

पार्किंग में सैमिनार

कृष्ण को रोमियो कहने की हिम्मत करने वाले नामी वकील प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के जजों को भ्रष्ट भी करार दिया था. कोर्ट की अवमानना के आरोप में महज एक रुपए के जुर्माने की सजा हुई थी. इस के बाद से वे सुर्खियों से और सुर्खियां उन से परहेज करने लगी थीं. यही प्रशांत भूषण दिल्ली विश्वविद्यालय के एक सैमिनार में बीती 26 मार्च को बतौर मुख्य वक्ता आमंत्रित थे लेकिन लौ फैकल्टी की डीन उषा टंडन ने बचकाने बहाने बना कर आयोजन रद्द कर दिया.

उत्साहित छात्र और अनुभवी प्रशांत भूषण कहां मानने वाले थे. उन्होंने पार्किंग में ही संगोष्ठी शुरू कर दी. यहां से भी उन्हें खदेड़ा गया तो वे कैंपस के बाहर जा कर सैमिनार करने लगे जहां उन्होंने कहा, ‘‘भाषण की स्वतंत्रता नहीं है. डीयू का कानून विभाग क्यों और किस के इशारे पर उन के बोलने से डरा, यह तो राम जाने, लेकिन सैमिनार का विषय ‘भारतीय संविधान को चुनौतियां’ कम गंभीर नहीं था.

तार दिया प्रभुओं ने कभीकभी भगवान को भी भक्तों से काम पड़े, जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े.

अनूप जलोटा के गाए इस भजन का मर्म तो योगी आदित्यनाथ को साल 2018 में ही समझ आ गया था जब उन की परमानैंट लोकसभा सीट गोरखपुर से उपचुनाव में निषाद पार्टी के संस्थापक डाक्टर संजय निषाद के इंजीनियर बेटे प्रवीण निषाद ने भाजपा के ब्राह्मण उम्मीदवार उपेंद्र शुक्ला को सपा के सहयोग से पटखनी दे दी थी.

तब सकते में आ गए दिल्ली और नागपुर में बैठे विश्वामित्रों और वशिष्ठों को त्रेता युग की याद हो आई जब राज्याभिषेक के वक्त केवट राम के नजदीक बैठा था. देखते ही देखते निषाद पार्टी का भाजपा से गठजोड़ हो गया. प्रवीण 2019 में संत कबीर नगर से भाजपा के टिकट से जीत कर संसद पहुंच गए और तरहतरह की कारें चलाने लगे. इस त्रेतायुगी जुगाड़ से पूर्वांचल की समस्या सीटों की सौदेबाजी से सुलझा ली गई. अब निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद उत्तर प्रदेश कैबिनेट में हैं. निषाद कुनबे के छोटे युवराज सरवन भी भाजपा विधायक हैं. किस ने किस को तारा, कह पाना मुश्किल है लेकिन भगवा गैंग तो अब यह भजन गा रहा है-

नाथ आज मैं कह न पावा.

मिटे दोष दुख दरिद्र दावा…

गुलाम भी आजाद भी

जम्मूकश्मीर के सीएम रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद जज्बाती हो कर संन्यास की बात करने लगे हैं. इस से ज्यादा हैरत की बात उन का भगवा गैंग की तरह यह कहना रहा था कि 600 साल पहले मुसलमानों के पूर्वज भी कश्मीरी पंडित थे. ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के रिलीज होने के बाद उन्हें अपनी वंशावली किस पंडित से मिली, यह तो वे बताने से रहे लेकिन यह ज्ञान पद्मभूषण मिलने के बाद ही क्यों बिखरा, यह कतई हैरत की बात नहीं क्योंकि आजकल खैरात और बख्शीश में फर्क कर पाना बड़ा मुश्किल है.

गुलाम नबी आजाद और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री वामपंथी बुद्धदेव भट्टाचार्य में फर्क तो इस बहाने साफ हुआ.

Summer Special: इस मौसम में पिएं औरेंज लेमोनेेड ड्रिंक

गर्मियों में लोग ज्‍यादातर लिक्विड डाइट लेना ज्‍यादा पसंद करते हैं क्योंकि इस मौसम में लिक्विड की ज्यादा जरूरत होती है. तो आज आपको एक ऐसे पेय की रेसिपी बता रहे है जिसमें विटामिन और सभी जरुरी मिनरल्‍स होते है. जो काफी आपके लिए हेल्दी है.

सामग्री

तीन चौथाई कप ठंडा तैयार संतरे का रस

तीन चौथाई कप ठंडा तैयार अनानास का रस

एक और आधा कप ठंडा लेमोनेड

बनाने की विधि 

एक गहरे बाउल में सभी सामग्री को डालकर अच्छी तरह से मिलाइए.

जूस को बराबर 3 हिस्सो में अलग-अलग गिलास में डालिए.

चाहे तो इसमें थोड़ा सा पुदीना मिलाएं और अब इसे सर्व करें.

Video: फिर से मां बनना चाहती हैं Bharti Singh, रखी ये शर्त

मशहूर कॉमेडियन भारती सिंह (Bharti Singh) और हर्ष लिंबाचिया हाल ही में पेरेंट्स बने हैं. भारती ने एक बेटे को जन्म दिया है. लेकिन अब एक वीडियो सामने आया है, जिसमें वह इमोशनल नजर आ रही हैं. आइए बताते है, क्या है पूरा मामला.

भारती सिंह कुछ दिनों पहले ही मां बनी हैं. उन्होंने बेटे को जन्म दिया है. दरअसल उन्होंने प्रेग्नेंसी के दौरान बताया था कि उन्हें बेटा नहीं बल्कि बेटी चाहिए. अब उन्होंने कैमरे के सामने एक बार फिर अपनी इच्छा जाहिर की है.

 

सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें भारती कहती हुई नजर आ रही हैं कि उन्हें बेटी चाहिए. वीडियो में भारती कहती हैं, मुझे बेटी चाहिए. लोग कहते हैं कि एक कर लो बेबी. मैं करने के लिए तैयार हूं, लेकिन कोई ये गारंटी दे दें कि बेटी ही होगी.

 

भारती आगे कहती हैं, मैंने बेटी के लिए बहुत सपने संजोए थे. छोटी सी फ्रॉक पहनाऊंगी, हेयर बैंड और क्लिप्स लगाऊंगी’. ये कहते-कहते वह मायूस हो जाती हैं. इंटरनेट पर ये वीडियो जमकर वायरल हो रहा है. इस वीडियो के कैप्शन में लिखा है, ‘एक और हो जाए’?

 

फैंस इस वीडियो पर लगातार कमेंट कर रहे हैं. हाल ही में भारती सिंह ने बताया कि लोग उन्हें ताने मारे रहे हैं कि वह छोटे से बच्चे को घर पर छोड़कर काम करने में बिजी हैं जबकि उन्हें बच्चे का ख्याल रखना चाहिए. एक रिपोर्ट के मुताबिक भारती ने कहा कि  लोग मुझे जज कर रहे हैं. लोग कहते हैं कि अरे इतना छोटा बच्चा है और काम पर आ गई है. पैसों की इतनी भी क्या जरूरत है.

 

भारती सिंह ने आगे कहा कि मुझे पैसों की जरूरत नहीं है. बात पैसों की है ही नहीं, बल्कि वर्क कमिटमेंट की है. आपके काम से हजार 12 सौ लोग जुड़े होते हैं. कई लोग मेरे पीछे ऐसी बातें करते हैं, तो कई लोगों ने मुझे सपोर्ट भी किया है.

Anupamaa: शादी की पहली रस्म में नाराज होगा अनुज? बा और वनराज होंगे खुश!

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में  शादी का ट्रैक दिखाया जा रहा है. अनुपमा (Rupali Ganguly)-अनुज कपाड़िया (Gaurav Khanna) की शादी की पहली रस्म शुरू हो चुकी है. शो में अब तक आपने देखा कि अनुपमा की शादी की पहली रस्म पूरा करने के लिए चार लोगों की जरूरत पड़ती है. और तोषु भी इस रस्म को पूरा करने के लिए खुद से शामिल हो जाता है. रस्म के दौरान अनुपमा वीडियो कॉल पर ही होती है और वह अनुज का फुल सपोर्ट करती है. शो के अपकमिंग एपिसोड में बड़ा धमाल होने वाला है. आइए बताते हैं शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो के अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि रस्म पूरा कर शाह फैमिली घर आएगी. और सभी उदास नजर आएंगे. घरवालों का लटका हुआ मुंह देखकर अनुपमा को अहसास होगा कि शादी की पहली रस्म में ही कुछ गड़बड़ हुई है. ऐसे में समर बताएगा कि खाना खाने के समय अनुज काफी नाराज था.

 

तो वहीं बापूजी कहेंगे कि अनुज ने कुछ ऐसा कहा है जो उसे कहना नहीं चाहिए था. ये सुनकर अनुपमा परेशान हो जाएगी. दूसरी तरफ बा और वनराज खूब खुश होंगे. तभी मामाजी हंसते हुए पोल खोल देंगे और कहेंगे कि सबने मिलकर अनुपमा का उल्लू बनाया है.

 

शो में आप ये भी देखेंगे कि बापूजी अनुपमा से कहेंगे कि अनुज रात में उसे लेने आएगा. अनुज शाह हाउस से अनुपमा को एक सीक्रेट जगह पर ले जाएगा. अनुपमा की आंखों पर पट्टी बंधी रहेगी. जैसे ही अनुपमा पट्टी खोलेगी तो वह खुद को एक ज्वेलरी शॉप में पाएगी. अनुज अनुपमा के लिए हीरे की अंगूठी पसंद करेगा, यह देखकर अनुपमा काफी इमोशनल हो जाएगी. शो में अनुज-अनुपमा का रोमांटिक केमिस्ट्री देखना काफी दिलचस्प होगा.

 

शिक्षा का भाषाई माध्यम

सरकारी स्कूलों के भाषाई माध्यम के पढ़े बच्चों को आमतौर पर किसी न किसी बहाने से ऊंची शिक्षा हासिल करने से रोक लिया जाता है. अगर उन्होंने ज्यादा अंक पा लिए हों तो भी कई शर्तें रख दी जाती हैं जिन में होस्टल फीस, स्पोर्ट्स फीस जैसे बहाने शामिल कर ऊंची शिक्षा मंहगी कर दी जाती है. तर्क यह होता है कि हिंदी माध्यम से आने वाले गरीब घरों के बच्चों को ऊंची इंग्लिश शिक्षा देने में मुश्किल होती है और वे लगातार फिसलते रहते हैं.

असल वजह यह है कि देश का संपन्न ऊंची जातियों वाला समाज अब किसी तरह फिर से पौराणिकवाद लाना चाहता है जिस में केवल ऊंची जातियों वाले पुरुषों का बोलबाला हो. वे औरतों को भी स्थान नहीं देना चाहते जो चाहे ऊंची जातियों की ही क्यों न हों. विधानसभाओं और संसद तक में औरतों को सजावटी गुडिय़ाओं की तरह रखा जाता है जबकि इंदिरा गांधी खुद प्रधानमंत्री रह चुकी हैं और तमिलनाडु में जयललिता व पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी यह दिखा चुकी हैं कि वे किसी भी पुरुष से कम नहीं हैं. वहीं हिंदी माध्यम वाले छात्र भी दिखा देते हैं जब वे ऊंची शिक्षा में हर बाधा पार कर लेते हैं.

तमिलनाडु ने मैडिकल कालेजों में 7.5 फीसदी सीटें तमिल माध्यम के सरकारी स्कूलों से आने वाले व नीट परीक्षा क्वालीफाई करने वालों के लिए एक कानून बना कर आरक्षित की थीं. इस में केवल 1 फीसदी सरकारी स्कूल के छात्र मैडिकल कालेजों में नीट के बावजूद एडमीशन पा रहे थे. अब मद्रास हाईकोर्ट ने इस कदम को संवैधानिक मान लिया है. आमतौर पर न्यायालय भी इंग्लिश पढ़ेलिखों का साथ देता है और इसलिए यह फैसला सुखद है. सुप्रीम कोर्ट अब क्या कहता है, देखना है.

सरकारी स्कूलों की जरूरत एक बार फिर समझी जा रही है क्योंकि निजी इंग्लिश मीडियम स्कूल वर्णवाद और जातिवाद दोनों के बीज बुरी तरह बो रहे हैं. अमीर घरों से आए ये बच्चे पैसे का दुरुपयोग कर के हर ऊंची पोस्ट पर जमने लगे हैं और देश का नैरेटिव फिर बदल गया है और पूजापाठ, जाति, जैंडर भेदभाव, धर्म के नाम पर अलगाव फैशनेबल बता डाला गया है. जो उत्पादन नहीं करते उन्हें हर अवसर मिल रहा है और जो उत्पादन कर रहे हैं, वे सामाजिक षड्यंत्र का हिस्सा बन कर 1941 में मिली आजादी का लाभ हर रोज खो रहे हैं.

अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा: रूस-यूक्रेन धर्मयुद्ध में नरसंहार

रूस-यूक्रेन युद्ध का एक महीना पूरा हो चुका है. बीते एक महीने में यूक्रेन में हजारों नागरिक, सैनिक और मासूम बच्चे रूसी बम धमाकों में मारे जा चुके हैं और यह सिलसिला लगातार जारी है. युद्ध में रूस के सैनिक भी बड़ी संख्या में हताहत हो रहे हैं मगर रूस दुनिया के तमाम देशों द्वारा बनाए जा रहे दबावों के बावजूद लड़ाई रोकने को तैयार नहीं दिख रहा, उलटे उस ने परमाणु हमले की धमकी भी 2 बार दे डाली है.

इस को ले कर दुनियाभर में हड़कंप की स्थिति है जिस के चलते नाटो को ब्रसेल्स में आपातकालीन बैठक बुलानी पड़ गई. उस में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी उपस्थित रहे. बैठक के बाद रूस पर 65 नए प्रतिबंध और लगा दिए गए हैं. बावजूद इस के, यूक्रेन पर रूसी हमले बदस्तूर जारी हैं.

रूस किसी भी तरह यूक्रेन को नेस्तनाबूद करने के लिए उतावला है. वह नरसंहार पर उतारू है. उस के सैनिक हैवानियत की सारी हदें पार कर नन्हेनन्हे यूक्रेनी बच्चों पर भी गोलियां दाग रहे हैं रूस इस लड़ाई को अब धर्मयुद्ध का नाम दे रहा है. रूस के रूढि़वादी चर्च ने यूक्रेन पर रूसी हमले और नरसंहार की व्याख्या ‘पवित्र युद्ध’ के रूप में की है. यह समस्त मानव जाति के लिए खतरनाक बात है जहां चर्च एक आतंकवादी की भूमिका निभा रहा है.

सत्ता और धर्मगुरुओं का अपवित्र गठबंधन, जो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा यूक्रेन पर थोपे गए युद्ध और लाखों मासूमों की मौत को सही ठहराने में मदद कर रहा है, आने वाले वक्त में दुनिया के अन्य देशों, जहां सत्ता धर्म के ठेकेदारों द्वारा संचालित होती है, द्वारा उदाहरण के तौर पर लिया जाएगा और निर्दोष लोगों की हत्या को ‘पवित्र हत्या’ या ‘ईश्वर की मंशा’ के रूप में प्रचारित किया जाने लगेगा.

उल्लेखनीय है कि रूस में चर्च और सेना साथसाथ चलते हैं. अतीत से चिपके रहना और रूढि़वादिता से रूसी अभी मुक्त नहीं हुए हैं. उन्हें पश्चिम का कल्चर नहीं भाता है. बता दें कि दुनिया में 260 मिलियन (करीब 24 करोड़) और्थोडौक्स ईसाइयों में से लगभग 100 मिलियन रूस में ही हैं और कुछ विदेशों में भी मौस्को के साथ जुड़े हुए हैं. इन पर धार्मिक गुरुओं का बहुत प्रभाव है.

रूसी राष्ट्रपति भी इन धर्मगुरुओं के आगे नतमस्तक रहते हैं. बीते दिनों रूसी रूढि़वादी चर्च के प्रमुख पैट्रिआर्क किरिल ने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण को स्पष्ट रूप से समर्थन दिया. रूढि़वादी चर्च के प्रमुख पैट्रिआर्क किरिल इस बात को प्रचारित कर रहे हैं कि रूस को युद्ध का जिम्मेदार ठहराया जाना गलत है, बल्कि डोनबास क्षेत्र में जो रूस समर्थक लोग हैं और जो रूसी वक्ता हैं, यूक्रेनियन द्वारा उन का नरसंहार किया जा रहा था, इसलिए व्लादिमीर पुतिन द्वारा उन्हें सबक सिखाने के लिए युद्ध का रास्ता अपनाया गया, जो पूरी तरह धर्मसंगत है.

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के करीबी सहयोगी 75 वर्षीय पैट्रिआर्क किरिल यूक्रेन से जारी युद्ध को पश्चिम के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में भी देखते हैं. वे इसे एक धर्मयुद्ध मानते हैं. पुतिन की दृष्टि के समर्थक किरिल यूक्रेन को अपने रूसी चर्च के एक अभिन्न, ऐतिहासिक हिस्से के रूप में भी देखते हैं. इस के साथ ही, पैट्रिआर्क किरिल समलैंगिक संबंधों के घोर विरोधी हैं. वे इसे ईश्वर के नियमों में एक बाधा बताते हैं. उन के समक्ष यह एक घृणित कृत्य है. वे इसे ‘बुरी ताकतों’ के उदय के रूप में मानते हैं और उन का संहार करना ही धर्म सम?ाते हैं. जबकि आधुनिक यूक्रेन समलैंगिक संबंधों को उदार और मानवीय दृष्टि से देखता है और उसे गलत नहीं सम?ाता. वहां समलैंगिक गौरव परेड का आयोजन होता है जो रूढि़वादी चर्चों को नागवार गुजरता है.

समलैंगिक संबंधों पर किरिल का कहना है कि यह ईश्वर के कानून का उल्लंघन है. हम उन लोगों के साथ कभी नहीं रहेंगे जो इस कानून को नष्ट करते हैं, पवित्रता और पाप के बीच की रेखा को धुंधला करते हैं, पाप को बढ़ावा देते हैं.

किरिल रूसी लोगों के दिलदिमाग में पश्चिमी उदार मूल्यों की घुसपैठ की भी घोर निंदा करते हैं. किरिल ने यूक्रेन युद्ध को ‘आध्यात्मिक महत्त्व का संघर्ष’ कह कर इसे नैतिक वैधता प्रदान की है जो उन के अनुसार ईश्वर के कानून को स्थापित रखने के लिए जरूरी है.

गौरतलब है कि इस्ट यूक्रेन के डोनबास क्षेत्र में रहने वाले अधिकतर निवासी रूस के समर्थक हैं और उन्होंने लगभग 8 वर्षों तक संघर्ष करने के बाद जीत हासिल की थी. पुतिन का कहना है कि यूक्रेन के खिलाफ स्पैशल औपरेशन चलाना आसान फैसला नहीं था. यूक्रेन के सैनिक डोनबास के बाशिंदों को प्रताडि़त करते हैं क्योंकि वे ईश्वर के नियमों पर चलने वाले लोग हैं.

पुतिन कहते हैं, ‘‘डोनबास के लोग केवल ‘आवारा कुत्ते’ नहीं हैं कि यूक्रेन की सरकार यहां के लोगों पर अत्याचार करती रहे. वहां 13-14 हजार लोग मार दिए गए. 500 से अधिक बच्चे मारे गए या अपंग हो गए. सब से ज्यादा असहनीय यह है कि तथाकथित ‘सभ्य’ पश्चिम ने उन 8 वर्षों के दौरान इसे नोटिस भी नहीं किया. पश्चिम इस नरसंहार पर चुप रहा. वहां एक के बाद एक ऐसी कई घटनाएं हुईं जिन के चलते यूक्रेन को सबक सिखाना जरूरी हो गया.’’ पुतिन के इस तर्क को रूढि़वादी चर्च का समर्थन मिल रहा है और वह और ज्यादा उकसाने का काम भी कर रहा है. ऐसे में पुतिन कहां जा कर ठहरेंगे, यह कहना मुश्किल है.

गौरतलब है कि सामंतवादी युग में रूस के विभिन्न नगरों में अनेक दुर्ग बनाए गए थे, जिन्हें क्रेमलिन कहा जाता है. क्रेमलिन मध्यकाल में रूसी नागरिकों के धार्मिक और प्रशासनिक केंद्र थे. लिहाजा, उन के भीतर ही राजप्रासाद, गिरिजाघर, सरकारी भवन और बाजार बने थे. गिरिजाघरों का प्रभाव सब

पर था. उन में प्रमुख दुर्ग मास्को, नोवगोरोड, काजान और प्सकोव, अस्त्राखान और रोस्टोव में हैं. ये दुर्ग लकड़ी और पत्थर की दीवारों से निर्मित हैं और रक्षा के निमित्त इन के ऊपर बुर्जियां बनी हैं. आजकल क्रेमलिन का नाम प्रमुख रूप से मौस्को स्थित दुर्ग के लिए लिया जाता है. यहीं से तमाम सैन्य गतिविधियां नियंत्रित की जाती हैं और रूढि़वादी गिरिजाघरों का पूरा समर्थन और सलाहमशवरा उन्हें मिलता है.

राष्ट्रपति पुतिन जिस रूसी गणराज्य के लिए आज यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदोमीर जेलेंस्की से टकरा रहे हैं, जमीन के उस टुकड़े पर राजारानियों के राज का इतिहास लगभग 1,200 साल पुराना है. इस विशाल भूभाग को कभी कीवियन रूस कहा जाता था.

वर्तमान से ऐतिहासिक कीवियन रूस का एक और नाता है जो एक दिलचस्प दस्तावेज भी है. कीव पर भले ही रूरिक वंश के ओलेग का कब्जा 879 में हुआ, लेकिन शहर का स्वर्ण युग आया 10वीं और 11वीं सदी में, जब ओलेग का वंशज व्लादिमीर द ग्रेट (980-1015) और प्रिंस यारोस्लाव का राज वहां कायम हुआ.

इस के बाद आए द वाइज (1019-1054) के शासनकाल में कीव राजनीतिक और सांस्कृतिक समृद्धि के चरम पर जा पहुंचा. वहां से जानवरों के फर, मधु और दासों का व्यापार बहुत बड़े पैमाने पर होने लगा. इतिहास की इस से बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि व्लादिमीर द ग्रेट के शासन में जो कीव अपनी समृद्धि पर इतराता था, लगभग 1,000 साल बाद उसी व्लादिमीर का हमनाम व्यक्ति इस नगर को खंडहर बनाने पर तुला हुआ है. इस की वजह कितनी जायज है, यह तो वर्तमान का प्रश्न है, मगर इतिहास अपनी जगह पर स्थिर है.

जो कीव आज रूसी बमों के प्रहार से हांफ रहा है वह कीव तब ‘कीवियन रूस’ की सत्ता का केंद्र था. राजा ओलेग तो कीव को ‘मदर औफ रूस सिटीज’ के नाम से बुलाता था. पुतिन और जेलेंस्की का इस शहर से नौस्टेलिया यों ही नहीं है. बेलारूस, रूस और यूक्रेन सभी कीवियन रूस को ही अपना सांस्कृतिक पूर्वज मानते हैं और इस सत्ता से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं. बेलारूस और रूस ने तो कीवियन रूस से ही अपना आधुनिक नाम हासिल किया है.

पिछले 1,000 सालों का इतिहास खंगालें तो रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले की अनेक वजहें और राष्ट्रपति पुतिन और रूढि़वादी चर्चों सहित रूसियों की सोच, आस्था और लक्ष्य की ?ालक मिल जाती है.

कीव में सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था. वहां व्यापार अपनी उन्नत स्थिति में था. लोग समृद्ध थे. हर तरफ खुशहाली थी मगर 13वीं सदी के मध्य में कीव पर मंगोल आक्रमण हुए. वर्ष 1240 में बाकू खान के नेतृत्व में हुए हमले ने कीव को तहसनहस कर दिया. सैंट्रल एशिया से पूर्वी यूरोप आए मंगोलों के आक्रमण ने कीव की नींव को खोखला कर दिया. इस चोट से कीव भरभरा कर गिर पड़ा. कीवियन रूस के पतन के बाद इस क्षेत्र में जो सत्ता पनपी, उस का केंद्र मौस्को था. इसे ग्रैंड डची औफ मौस्को के नाम से जाना जाता है. रशियन और्थोडौक्स चर्च की मदद से इस राज्य ने मंगोलों को हराया.

यूएसएसआर का उदय

17वीं से 19वीं सदी के मध्य में रूसी साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार हुआ. यह प्रशांत महासागर से ले कर बाल्टिक सागर और मध्य एशिया तक फैल गया. 1917 में बोल्शेविक क्रांति हुई और इस क्रांति ने सर्वहारा के नायक व्लोदोमीर लेनिन को उभारा, जिस ने मजदूरों-किसानों की ताकत के दम पर एक राजा से सत्ता छीन कर सर्वहारा वर्ग का राज स्थापित किया. सर्वहारा यानी समाज का निचला वर्ग जो मेहनत और पसीना बहा कर शारीरिक श्रम के जरिए धन का अर्जन करता है और अपनी जिंदगी चलाता है. लेनिन ने रूस की जनता को समतामूलक समाज का सपना दिखाया और बहुत हद तक उसे स्थापित करने में कामयाब रहा.

30 दिसंबर, 1922 को यूएसएसआर (यूनियन औफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स) की स्थापना हुई. सोवियत संघ में 15 गणतांत्रिक राज्य थे. ये देश थे: रूस, जौर्जिया, यूक्रेन, माल्दोवा, बेलारूस, आर्मीनिया, अजरबैजान, कजाखिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किरगिस्तान, ताजिकिस्तान, एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया. जब तक यूएसएसआर वजूद में रहा, वह दुनिया का सब से बड़ा देश था. उस की चौहद्दी बाल्टिक और काला सागर से ले कर प्रशांत महासागर तक फैली थी.

इस की सीमाओं में 100 से ज्यादा राष्ट्रीयता के लोग रहते थे. लेकिन इस के नागरिकों में पूर्व स्लाव यानी रशियन, बेलारूसियन और यूक्रेनियन की संख्या 80 फीसदी थी. यूएसएसआर भारत से 7 गुना ज्यादा बड़ा था. अगर पूर्व से पश्चिम यूएसएसआर की दूरी मापें तो यह दूरी 10,900 किलोमीटर थी. यूएसएसआर में भले ही 15 राज्य शामिल थे, लेकिन देश के प्रशासन और अर्थव्यवस्था पर मौस्को के नेतृत्व में केंद्रीय सरकार का कड़ा नियंत्रण रहा. लिहाजा, इन 15 गणराज्यों का व्यापक पैमाने पर रूसीकरण हुआ.

राज्य के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग वस्तुओं के वृहद उत्पादन में शामिल हो गया. सोवियत रूस कार से ले कर पिन तक खुद बनाने लगा. राज्य ने सभी नागरिकों के लिए एक न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित कर दिया. इस तरह रूस गिरतासंभलता आगे बढ़ ही रहा था कि 21 जनवरी, 1924 को लेनिन दुनिया छोड़ गए.

लेनिन की मृत्यु के बाद रूस की सत्ता जोसेफ स्टालिन ने संभाली. स्टालिन तानाशाही प्रवृत्ति का था. उस की पैदाइश जौर्जिया में बेहद गरीब परिवार में हुई थी. बचपन में स्टालिन कमजोर था. उस के पिता मोची थे और मां कपड़े धोती थी. जब स्टालिन 7 साल का था तो उसे चेचक हुआ. इस से उस का चेहरा खराब हो गया. स्टालिन की मां उस से धार्मिक किताबें पढ़ने को कहती, पादरी बनने के लिए प्रेरित करती, लेकिन स्टालिन चुपकेचुपके मार्क्स की किताबें पढ़ता.

युवा होतेहोते स्टालिन ने रूस की कम्युनिस्ट पार्टी में अपनी जगह बना ली. लेनिन उस पर भरोसा करते थे. लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन ने खुद को उन के वारिस के तौर पर पेश कर के सत्ता हथिया ली. स्टालिन ने एक संसद बनाई जिसे सुप्रीम सोवियत कहा जाता था. भले ही यह एक संसद थी लेकिन सारे फैसले कम्युनिस्ट पार्टी करती थी. इस पार्टी में भी केंद्रीयकरण होने लगा था. सारे फैसले पार्टी की एक छोटी सी समिति करती थी, जिसे पोलितब्यूरो कहा जाता था.

स्टालिन ने अपने तरीके से देश चलाना शुरू किया और फिर शुरू हुआ उस के द्वारा प्रायोजित नृशंस हत्याओं का दौर. इस तानाशाह ने राष्ट्रवादी मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार शुरू कर दिया. बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण हुआ. किसानों से उन की जमीनें छीन ली गईं. जमीनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और सामूहिक कृषि की व्यवस्था शुरू हुई. जिस ने भी विरोध किया, सरकार के हाथों मारा गया. फैक्ट्रियों को टारगेट दिया गया जो पूरा नहीं करता उसे देश का दुश्मन कह कर जेल भेज दिया जाता. रूस ने तेल, स्टील, कोयले का उत्पादन कई गुना बढ़ाया लेकिन राज्य में घोर अशांति व्याप्त हो गई. स्टालिन ने 1928 में पंचवर्षीय योजनाओं का सिस्टम अपनाया और लंबी अवधि के विकास कार्य शुरू किए. उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद भारत ने भी इसी सिस्टम को अपनाया.

क्रूरता में हिटलर से आगे निकला स्टालिन

तानाशाह स्टालिन की क्रूरता की कहानियां दिल कंपा देने वाली हैं. उस ने लाखों लोगों को मरवा दिया. लाखों लोग अकाल से मर गए. लेकिन स्टालिन रूसी राष्ट्रवाद की दुहाई दे कर अपनी नीतियों पर अमल करता रहा. जिस बदलाव और क्रांति का सुनहरा स्वप्न लोगों ने देखा, वे स्टालिन के बनाए गुलग में दम तोड़ रहे थे. साम्यवादी नीतियों का विरोध करना महापाप था. ऐसे लोगों को गुलग में जिंदगी गुजारनी पड़ती थी.

गुलग स्टालिन के समकालीन हिटलर के यातना शिविरों जैसा ही था. यहां स्टालिन के विरोधियों से दिनरात काम कराया जाता और फिर वे एक दिन दम तोड़ देते थे. स्टालिन की नीतियों का विरोध करने वाले 30 लाख लोगों को प्रचंड ठंड वाले साइबेरिया के गुलग में रहने के लिए भेज दिया गया था. कई इतिहासकार कहते हैं कि इस तानाशाह ने विरोधियों से नफरत करने में हिटलर को भी मात दे दी थी. हालांकि स्टालिन ने अपने नेतृत्व में दूसरे विश्वयुद्ध में रूस को जीत दिला कर प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग भी तैयार कर लिया था.

1953 में स्टालिन की मौत हो गई. स्टालिन की मौत के बाद अनेक राष्ट्रपति हुए और यूएसएसआर कमोबेश स्टालिन की नीतियों पर ही चला. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1945 में कोल्ड वार शुरू हो गया. यूएसएसआर और अमेरिका के बीच इकोनौमी, साइंस, मिलिट्री पावर, स्पेस, स्पोर्ट्स में आगे निकलने की होड़ शुरू हो गई.

पूरी दुनिया 2 धुव्रों में बंट गई. 20वीं सदी दुनिया में बेतहाशा बरबादी लेकर आई. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटेन का अंत हो गया और दुनिया के नक्शे पर कई छोटेबड़े व म?ाले नए देशों का उदय हुआ. इसी कालखंड में 1985 में मिखाइल गोर्बाचेव यूएसएसआर के राष्ट्रपति बने. गोर्बाचेव को पूर्ववर्ती राष्ट्रपति से एक चौपट अर्थव्यवस्था और लुंजपुंज राजनीतिक ढांचा विरासत में मिला था.

मिखाइल गोर्बाचेव ने देखा कि पश्चिमी दुनिया में सूचना और प्रौद्योगिकी क्रांति हो रही है. इस की बराबरी के लिए सोवियत रूस में भी आमूलचूल बदलाव जरूरी हो गया. गोर्बाचेव ने आर्थिक और राजनीतिक सुधारों की प्रक्रिया शुरू की और वे देश को लोकतंत्र की राह पर ले जाने लगे. गोर्बाचेव ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लासनोस्त’ नाम की 2 नीतियां ले कर आए.

पेरेस्त्रोइका का अर्थ था कि लोगों को कामकाज करने की आजादी मिलने वाली थी, जबकि ग्लासनोस्त का अर्थ था कि राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में खुलापन आएगा और लोगों को सरकार की आलोचना करने की आजादी होगी.

स्टालिन का दमन देख चुके रूसियों के लिए यह हैरान करने वाला फैसला था. मगर धीरेधीरे लोग उस डर से निकल कर सरकार को अपनी राय देने लगे और सरकार की आलोचना भी करने लगे. उन्हें अब गुलग का भय नहीं सताता था. गोर्बाचेव के समय अनेक राजनीतिक कैदी रिहा हुए.

अखबारों में सरकार की आलोचना छपने लगी. धीरेधीरे लोग मुखर हुए. अपनी जरूरतों के मुताबिक खरीदारी करने लगे. लोग प्राइवेट बिजनैस भी करने लगे. संपत्ति की भावना जनता में आई. बाजार पर सरकार का नियंत्रण कम हुआ. चीजों की कीमतें बढ़ने लगीं. गोर्बाचेव ने व्यवस्था में ढील दे कर लोगों के बीच उम्मीदों व अपेक्षाओं का ऐसा उफान खड़ा कर दिया जिसे कंट्रोल कर पाना नामुमकिन होता चला गया.

शीतयुद्ध में शामिल हो कर यूएसएसआर ने बेतहाशा खर्चे किए. मूंछों की लड़ाई में उसे अंतरिक्ष में सब से पहले यान भेजना था, दुनिया का सब से पहला अंतरिक्ष यात्री भी रूसी ही था. उस के पास सब से ज्यादा परमाणु हथियार थे. अमेरिका से इस टक्कर में इस देश ने अरबोंखरबों रूबल खर्च कर दिए. अब सोवियत रूस का खजाना कोई कुबेर का भंडार तो था नहीं, लिहाजा धीरेधीरे उस की माली हालत खस्ता होती चली गई.

1980 के दशक में सोवियत संघ की जीडीपी अमेरिका से आधी रह गई. भ्रष्टाचार बढ़ने लगा और आम जनता त्रस्त होने लगी. बिना रिश्वत दिए कोई काम नहीं हो रहा था और जनता की सुनने वाला कोई नहीं था. अंदर ही अंदर एक आग सुलगने लगी थी. जल्दी ही गोर्बाचेव को ले कर जनमत बंटने लगा. बहुत कम लोग उन के साथ अब खड़े थे.

मौस्को और रूसी गणराज्य से

निकली असंतोष की यह चिनगारी सीमांत राज्यों की ओर फैलने लगी. बाल्टिक गणराज्यों (एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया) में राष्ट्रवादी भावनाओं का उभार हुआ. यहां युवाओं ने आजादी की मांग करनी शुरू कर दी. उन्होंने सब से पहले अलग देश की मांग की. ये राज्य खुद को यूरोपीय संस्कृति के नजदीक मानते थे.

इस के अलावा द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले ये देश स्वतंत्र थे. उन्होंने कहा कि यूएसएसआर का कब्जा गैरवाजिब है और हमें आजाद किया जाए. यही वह समय था जब यूक्रेन और जौर्जिया में भी नैशनलिस्ट आंदोलन शुरू हो गए. ये इलाके समृद्ध थे और इन्हें लगता था कि मध्य एशियाई गणराज्यों जैसे तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे गरीब राज्यों को यूएसएसआर में शामिल कर के उन का बो?ा इन राज्यों पर डाल दिया गया है. इस के अलावा मध्य एशियाई रिपब्लिक में इसलाम का बोलबाला था जबकि रूस के पूर्वी प्रदेश स्थित इन राज्यों में और्थोडौक्स क्रिश्चियन चर्च का प्रभाव था. इसलिए भी ये देश अपना स्वतंत्र वजूद चाहते थे.

दरअसल इस के पीछे बहुत बड़ा खेल अमेरिका का भी था, जो सीआईए (केंद्रीय खुफिया एजेंसी) के जरिए इन राज्यों में सरकार विरोधी प्रदर्शनों को हवा दे रहा था. पूंजीवाद की ताकत के आगे साम्यवाद घुटने टेक रहा था. अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की अगुआई में अमेरिकी पूंजीवाद की हुंकार दुनियाभर में सुनाई पड़ रही थी. इस दौरान गोर्बाचेव चाहते तो इन देशों में अपनी आर्मी भेज सकते थे, जैसा कि हाल के दिनों में पुतिन करते आए हैं, लेकिन गोर्बाचेव ने ऐसा नहीं किया. धीरेधीरे प्रदर्शन अजरबैजान, जौर्जिया और आर्मेनिया, माल्डोवा, यूक्रेन में भी फैलने लगा. सब की एक ही इच्छा थी सोवियत रूस से अलग अस्तित्व.

विरासत पाने की मंशा

21 जनवरी, 1990 को 3 लाख यूक्रेनियनों ने राजधानी कीव से लीव तक एक मानव शृंखला बनाई और स्वाधीनता को ले कर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी.

24 अगस्त, 1991 को यूक्रेन ने आधिकारिक रूप से स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया. यूक्रेन में 1 दिसंबर, 1991 को जनमत संग्रह हुआ. लोगों को यूएसएसआर से अलग होने पर अपनी राय देनी थी. 90 फीसदी लोगों ने स्वतंत्र यूक्रेन के पक्ष में जनादेश दिया. यूक्रेन के नेता क्रावचुक को राष्ट्रपति चुन लिया गया.

25 अगस्त को बेलारूस ने अपनी आजादी घोषित कर दी. 27 अगस्त को माल्डोवा आजाद हो गया. माल्डोवा ने आजादी की घोषणा के बाद संघ से अलग होने की प्रक्रिया शुरू कर दी. अब जौर्जिया, आर्मेनिया, कजाखिस्तान, किर्गिस्तान भी अपनी राहें चुनने के लिए स्वतंत्र थे. लगभग 70 साल तक अमेरिका से रेस लगाने वाला यूएसएसआर अब इतिहास बनने के कगार पर था. 8 दिसंबर, 1991 को रूस, यूक्रेन और बेलारूस के बीच एक सम?ाता हुआ. इन तीनों देशों ने इस सम?ाते पर हस्ताक्षर किए और तीनों अलग हो गए. इस पर रूस की ओर से राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने हस्ताक्षर किए थे. अब बारी मिखाइल गोर्बाचेव की थी. उन्होंने 21 दिसंबर को यूएसएसआर से आजाद हुए सभी देशों के राष्ट्रपतियों को बुलाया और अल्मा अता घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर सभी देशों को औपचारिक स्वतंत्रता दे दी.

25 दिसंबर, 1991 को क्रिसमस की रात मौस्को की फिजाओं से जश्न की धुन गायब थी. कुछ इस घड़ी को मनहूस बता रहे थे तो कुछेक नए अध्याय की शुरुआत. स्थानीय समयानुसार रात के 7.35 बजे गोर्बाचेव नैशनल टैलीविजन पर आए और क्रेमलिन से सोवियत संघ के ध्वज को उतारा गया. यही वह मौका था जब सोवियत संघ (यूएसएसआर) के राष्ट्रीय गान की धुनें आखिरी बार बजाई गईं. शाम 7.45 बजे क्रेमलिन पर रूसी ?ांडा फहराया गया.

जब यूएसएसआर का विघटन हुआ तब रूस के मौजूदा राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन 39 साल के थे. वे तब केजीबी राज्य सुरक्षा समिति में एक जासूस थे. उन्हें क्रेमलिन से सोवियत ध्वज का उतरना अच्छा नहीं लगा था. यूएसएसआर के विभाजन के बाद पैदा हुई अराजकता में पुतिन की जिंदगी भी बुरी तरह से प्रभावित हुई थी. जिस पुतिन के हर फैसले पर आज दुनिया की नजरें टिकी हैं, उस व्यक्ति को 1991 में अपनी जिंदगी चलाने के लिए कैब ड्राइवर तक बनना पड़ा था. एक इंटरव्यू के दौरान रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि यह सोवियत संघ के नाम पर ‘ऐतिहासिक रूस’ का विघटन था. हम एक पूरी तरह से अलग देश में बदल गए थे और 1,000 वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो बनाया था वह सब बिखर गया था.

आज शायद उसी बिखराव को फिर से समेटने की मंशा ले कर व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन पर बमबारी कर रहे हैं और रूस के धार्मिक नेता पैट्रिआर्क किरिल उन के इस काम को ‘पवित्र धार्मिक कर्म’ का नाम दे कर उन का हौसला बढ़ा रहे हैं. दरअसल पुतिन का वर्तमान अतीत के बो?ा से

कभी मुक्त नहीं हो सका. अतीत का बो?ा पुतिन पर है और वे यूएसएसआर के सपनों की जकड़न से खुद को मुक्त नहीं कर पाते हैं.

राजनीति का DNA: भाग 1- चालबाज रूपमती की कहानी

रूपमती चीखनेचिल्लाने लगी. प्रेमी के ऊपर से हट कर वह अपने कपड़े ले कर अवध की तरफ ऐसे दौड़ी मानो अवध की गैरहाजिरी में उस की पत्नी के साथ जबरदस्ती हो रही थी.

प्रेमी जान बचाने के लिए भागा और अवध अपनी पत्नी के साथ रेप करने वाले को मारने के लिए दौड़ा. जैसा रूपमती साबित करना चाहती थी, अवध को वैसा ही लगा.

जब रूपमती ने देखा कि अवध कुल्हाड़ी उठा कर प्रेमी की तरफ दौड़ने को हुआ है, तो उस के अंदर की प्रेमिका ने प्रेमी को बचाने की सोची.

रूपमती ने अवध को रोकते हुए कहा, ‘‘मत जाओ उस के पीछे. आप की जान को खतरा हो सकता है. उस के पास तमंचा है. आप को कुछ हो गया, तो मेरा क्या होगा?’’

तमंचे का नाम सुन कर अवध रुक गया. वैसे भी वह गुस्से में दौड़ा था. कदकाठी में सामने वाला उस से दोगुना ताकतवर था और उस के पास तमंचा भी था.

रूपमती ने जल्दीजल्दी कपड़े पहने. खुद को उस ने संभाला, फिर अवध से लिपट कर कहने लगी, ‘‘अच्छा हुआ कि आप आ गए. आज अगर आप न आते, तो मैं किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहती.’’

अवध अभी भी गुस्से में था. रूपमती उस के सीने से चिपटी हुई यह जानना चाहती थी कि वह क्या सोच रहा है? कहीं उसे उस पर शक तो नहीं हुआ है?

अवध ने कहा, ‘‘लेकिन, तुम तो उस के ऊपर थीं.’’

रूपमती घबरा गई. उसे इसी बात का डर था. लेकिन औरतें तो फरिश्तों को भी बेवकूफ बना सकती हैं, फिर उसे तो एक मर्द को, वह भी अपने पति को बेवकूफ बनाना था.

सब से पहले रूपमती ने रोना शुरू किया. औरत वही जो बातबात पर आंसू बहा सके, सिसकसिसक कर रो सके. उस के रोने से जो पिघल सके, उसी को पति कहते हैं.

अवध पिघला भी. उस ने कहा, ‘‘देखो, मैं ठीक समय पर आ गया और वह भाग गया. तुम्हारी इज्जत बच गई. अब रोने की क्या बात है?’’

‘‘आप मुझ पर शक तो नहीं कर रहे हैं?’’ रूपमती ने रोते हुए पूछा.

‘‘नहीं, मैं सिर्फ पूछ रहा हूं,’’ अवध ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

रूपमती समझ गई कि सिर पर हाथ फेरने का मतलब है अवध को उस पर यकीन है, लेकिन जो सीन अवध ने अपनी आंखों से देखा है, उसे झुठलाना है.

पहले रूपमती ने सोचा कि कहे, ‘उस आदमी ने मुझे दबोच कर अपनी ताकत से जबरदस्ती करते हुए ऊपर किया, फिर वह मुझे नीचे करने वाला ही था कि आप आ गए.’

लेकिन जल्दी ही रूपमती ने सोचा कि अगर अवध ने ज्यादा पूछताछ की, तो वह कब तक अपने झूठ में पैबंद लगाती रहेगी. कब तक झूठ को झूठ से सिलती रहेगी. लिहाजा, उस ने रोतेसिसकते एक लंबी कहानी सुनानी शुरू की, ‘‘आज से 6 महीने पहले जब आप शहर में फसल बेचने गए थे, तब मैं कुएं से पानी लेने गई थी. दिन ढल चुका था.

‘‘मैं ने सोचा कि अंधेरे में अकेले जाना ठीक नहीं होगा, लेकिन तभी दरवाजा खुला होने से न जाने कैसे एक सूअर अंदर आ गया. मैं ने उसे भगाया और घर साफ करने के लिए घड़े का पानी डाल दिया. अब घर में एक बूंद पानी नहीं था.

‘‘मैं ने सोचा कि रात में पीने के लिए पानी की जरूरत पड़ सकती है. क्यों न एक घड़ा पानी ले आऊं.

‘‘मैं पानी लेने पनघट पहुंची. वहां पर उस समय कोई नहीं था. तभी वह आ धमका. उस ने बताया कि मेरा नाम ठाकुर सूरजभान है और मैं गांव के सरपंच का बेटा हूं.

‘‘वह मेरे साथ जबरदस्ती करने लगा. उस ने मेरी इच्छा के खिलाफ मेरे कपड़े उतार डाले. मैं दौड़ते हुए कुएं के पास पहुंच गई.

‘‘मैं ने रो कर कहा कि अगर मेरे साथ जबरदस्ती की, तो मैं कुएं में कूद कर अपनी जान दे दूंगी. उस ने डर कर कहा कि अरे, तुम तो पतिव्रता औरत हो. आज के जमाने में तुम जैसी सती औरतें भी हैं, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था.

‘‘लेकिन तभी उस ने कैमरा निकाल कर मेरे फोटो खींच लिए और माफी मांग कर चला गया.

‘‘मैं डरी हुई थी. जान और इज्जत तो बच गई, पर फोटो के बारे में याद ही नहीं रहा.

‘‘दूसरे दिन मैं हिम्मत कर के उस के घर पहुंची और कहा कि तुम ने मेरे जो फोटो खींचे हैं, वे वापस कर दो, नहीं तो मैं बड़े ठाकुर और गांव वालों को बता दूंगी. थाने में रिपोर्ट लिखाऊंगी.

‘‘उस ने डरते हुए कहा कि मैं फोटो तुम्हें दे दूंगा, पर अभी तुम जाओ. वैसे भी चीखनेचिल्लाने से तुम्हारी ही बदनामी होगी और सब बिना कपड़ों की तुम्हारे फोटो देखेंगे, तो अच्छा नहीं लगेगा. मैं तुम्हारे पति की गैरहाजिरी में तुम्हें फोटो दे जाऊंगा.

‘‘आप 2 दिन की कह कर गए थे. मैं ने ही उसे खबर पहुंचाई कि मेरे पति घर पर नहीं हैं. फोटो ला कर दो.

‘‘सूरजभान फोटो ले कर आया, लेकिन मुझे अकेला देख उस के अंदर का शैतान जाग उठा. उस ने फिर मेरे कपड़े उतारने की कोशिश की और मुझे नीचे पटका.

‘‘मैं ने पूरी ताकत लगाई. खुद को छुड़ाने के चक्कर में मैं ने उसे धक्का दिया. वह नीचे हुआ और मैं उस के ऊपर आ गई. अभी मैं उठ कर भागने ही वाली थी कि आप आ गए…’’

रूपमती ने अवध की तरफ रोते हुए देखा. उसे लगा कि उस के ऊपर उठने वाले सवाल का जवाब अवध को मिल गया था और उस का निशाना बिलकुल सही था, क्योंकि अवध उस के सिर पर प्यार से दिलासा भरा हाथ फिरा रहा था.

अवध ने कहा, ‘‘मुझे इस बात की खुशी है कि तुम ने पनघट पर अकेले बिना कपड़ों के हो कर भी जान पर खेल कर अपनी इज्जत बचाई और आज मैं आ गया. तुम्हारा दामन दागदार नहीं हुआ.’’

रूपमती ने बनावटी गुस्से से कहा, ‘‘आप क्या सोचते हैं कि मैं उसे कामयाब होने देती? मैं ने नीचे तो गिरा ही दिया था बदमाश को. उस के बाद उठ कर कुल्हाड़ी से उस की गरदन काट देती. और अगर कहीं वह कामयाब हो जाता, तो तुम्हारी रूपमती खुदकुशी कर लेती.’’

‘‘तुम ने मुझे बताया नहीं. अकेले इतना सबकुछ सहती रही…’’ अवध ने रूपमती के माथे को चूमते हुए कहा, ‘‘मैं बड़े ठाकुर, गांव वालों और पुलिस से बात करूंगा. तुम्हें डरने की जरा भी जरूरत नहीं है. जब तुम इतना सब कर सकती हो, तो मैं भी पति होने के नाते सूरजभान को सजा दिला सकता हूं. वे फोटो लाना मेरा काम है,’’ अवध ने कहा.

‘‘नहीं, ऐसा मत करना. मेरी बदनामी होगी. मैं जी नहीं पाऊंगी. आप के कुछ करने से पहले वह मेरे फोटो गांव वालों को दिखा कर मुझे बदनाम कर देगा.

‘‘पुलिस के पास जाने से क्या होगा? वह लेदे कर छूट जाएगा. इस से अच्छा तो यह है कि आप मुझे जहर ला कर दे दें. मैं मर जाऊं, फिर आप जो चाहे करें,’’ रूपमती रोतेरोते अवध के पैरों पर गिर पड़ी.

‘‘तो क्या मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहूं? कुछ न करूं?’’ अवध ने कहा, ‘‘तुम्हारी इज्जत, तुम्हारे फोटो लेने वाले को मैं यों ही छोड़ दूं?’’

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा? लेकिन हमें चालाकी से काम लेना होगा. गुस्से में बात बिगड़ सकती है,’’ रूपमती ने अवध की आंखों में झांक कर कहा.

‘‘तो तुम्हीं कहो कि क्या किया जाए?’’ अवध ने हथियार डालने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘आप सिर्फ अपनी रूपमती पर भरोसा बनाए रखिए. मुझ से उतना ही प्यार कीजिए, जितना करते आए हैं,’’ कह कर रूपमती अवध से लिपट गई. अवध ने भी उसे अपने सीने से लगा लिया.

अगले दिन गांव के बाहर सुनसान हरेभरे खेत में सूरजभान और रूपमती एकदूसरे से लिपटे हुए थे.

सूरजभान ने कहा ‘‘तुम तो पूरी गिरगिट निकलीं.’’

‘‘ऐसी हालत में और क्या करती? वह 2 दिन की कह कर गया था. मुझे क्या पता था कि वह अचानक आ जाएगा. तुम ने अंदर से कुंडी बंद करने का मौका भी नहीं दिया था…’’ रूपमती ने सूरजभान के बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘मुझे कहानी बनानी पड़ी. तुम भागते हुए मेरे कुछ फोटो खींचो. कहानी के हिसाब से मुझे तुम से अपने वे फोटो हासिल करने हैं. तुम से फोटो ले कर मैं उसे दिखा कर फोटो फाड़ दूंगी, तभी मेरी कहानी पूरी होगी.’’

सूरजभान ने कैमरे से उस के कुछ फोटो लेते हुए कहा, ‘‘लेकिन आज नहीं मिल पाएंगे. 1-2 दिन लगेंगे.’’

‘‘ठीक है, लेकिन सावधान रहना. फोटो मिलने के बाद वह मेरी इज्जत लूटने वाले के खिलाफ कुछ भी कर सकता है,’’ रूपमती ने हिदायत दी.

‘‘तुम चिंता मत करो. मैं निबट लूंगा,’’ सूरजभान ने कहा.

राजनीति का DNA: चालबाज रुपमती की कहानी

सिसकी- भाग 3: रानू और उसका क्या रिश्ता था

वे उस दिन औफिस नहीं गए. उन्होंने अपने साहब को फोन कर औफिस न आ पाने के बारे में बता दिया था. रीना ने बच्चों को उन के पास नहीं जाने दिया. चिंटू दूर से ही पापा से बातें करता रहा. पापा के बगैर उस का मन लगता कहां था. रानू तो दौड़ कर उन के बिस्तर पर चढ़ ही गई. बड़ी मुश्किल से रीना ने उसे उन से अलग किया. सहेंद्र दोतीन दिनों तक ऐसे ही पड़े रहे. इन दोतीन दिनों में रीना ने कई बार उन से डाक्टर से चैक करा लेने को बोला, पर वे टालते रहे.

रीना की घबराहट बढ़ती जा रही थी. रीना ने अपने देवर महेंद्र को फोन कर सहेंद्र की बीमारी के बारे में बता दिया था, पर महेंद्र देखने भी नहीं आया.

उस दिन रीना ने फिर महेंद्र को फोन लगाया, ‘भाईसाहब, इन की तबीयत ज्यादा खराब लग रही है. हमें लगता है कि इन्हें डाक्टर को दिखा देना चाहिए.’

‘अरे, आप चिंता मत करो, वे ठीक हो जाएंगे.’

‘नहीं, आज 5 दिन हो गए, उन का बुखार उतर ही नहीं रहा है. आप आ जाएं तो इन्हें अस्पताल ले जा कर दिखा दें,’ रीना के स्वर में अनुरोध था.

‘अरे, मैं कैसे आ सकता हूं, भाभी. यदि भाई को कोरोना निकल आया तो?’

‘पर मैं अकेली कहां ले कर जाऊंगी. आप आ जाएं भाईसाहब, प्लीज.’

‘नहीं भाभी, मैं रिस्क नहीं ले सकता.’ और महेंद्र ने फोन काट दिया था.

रीना की बेचैनी अब बढ़ गई थी. उस ने खुद ही सहेंद्र को अस्पताल ले जाने का निर्णय कर लिया.

रीना ने सहेंद्र को सहारा दे कर औटो में बिठाया और खुद उसे पकड़ कर बाजू में ही बैठ गई. बड़ी मुश्किल से एक औटो वाला उन्हें अस्पताल ले जाने को तैयार हुआ था, ‘एक हजार रुपए लूंगा बहनजी.’

‘एक हजार, अस्पताल तो पास में ही है. 50 रुपए लगते हैं और आप एक हजार रुपए कह रहे हो?’

‘कोरोना चल रहा है बहनजी और आप मरीज को ले जा रही हैं. यदि मरीज को कोरोना हुआ तो… मैं तो मर ही जाऊंगा न फ्रीफोकट में.’ औटो वाले ने मजबूरी का पूरा फायदा उठाने की ठान ही ली थी.

‘पर भैया, ये तो बहुत ज्यादा होते हैं.’

‘तो ठीक है, आप दूसरा औटो देख लो,’ कह कर औटो स्टार्ट कर लिया. रीना एक तो वैसे ही घबराई हुई थी, बड़ी मुश्किल से औटो मिला था, इसलिए वह एक हजार रुपए देने को तैयार हो गई. उस ने सहेंद्र को सहारा दिया. सहेंद्र 5 दिनों के बुखार में इतने कमजोर हो गए थे कि स्वयं से चल भी नहीं पा रहे थे. रीना के कंधों का सहारा ले कर वे औटो में बैठ पाए. औटो में भी रीना उन्हें जोर से पकड़े रही. बच्चे दूर खड़े हो कर उन्हें अस्पताल जाते देख रहे थे.

सहेंद्र को कोरोना ही निकला. उस की रिपोर्ट पौजिटिव आई. डाक्टरों ने सीटी स्कैन करा लेने की सलाह दी. उस की रिपोर्ट दूसरे दिन मिल पाई. फेफड़ों में इन्फैक्शन पूरी तरह फैल चुका था. सहेंद्र को किसी बड़े अस्पताल में भरती कराना आवश्यक था. रीना बुरी तरह घबरा चुकी थी. वह अकेले दूसरे शहर कैसे ले कर जाएगी. उस ने एक बार फिर महेंद्र से बात की, ‘भाईसाहब, इन्हें कोरोना निकल आया है और सीटी स्कैन में बता रहे हैं कि फेफड़ों में इन्फैक्शन बहुत फैल चुका है, तत्काल बाहर ले जाना पड़ेगा.’

‘तो मैं क्या कर सकता हूं, भाभी?’

‘मैं अकेली कहां ले कर जाऊंगी, आप साथ चलते तो मु?ो मदद मिल जाती.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है, भाभी, कोरोना मरीज के साथ मैं कैसे चल सकता हूं?’

‘मैं बहुत मुसीबत में हूं, भाईसाहब. आप मेरी मदद कीजिए, प्लीज.’

‘देखो भाभी, इन परिस्थितियों में मैं आप की कोई मदद नहीं कर सकता.’

‘ये आप के भाई हैं भाईसाहब, यदि आप ही मुसीबत में मदद नहीं करेंगे तो मैं किस के सामने हाथ फैलाऊंगी.’  रीना रोने लगी थी, पर रीना के रोने का कोई असर महेंद्र पर नहीं हुआ.

‘नहीं भाभी, मैं रिस्क नहीं ले सकता. आप ही ले कर जाएं,’ और महेंद्र ने फोन काट दिया.

हताश रीना बिलख पड़ी. उस की सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

दोतीन अस्पताल में भटकने के बाद आखिर एक अस्पताल में सहेंद्र को भरती कर ही लिया गया. उसे सीधे आईसीयू में ले जाया गया जहां किसी को आने की अनुमति न थी. रीना को एंबुलैंस बहुत मुश्किल से मिल पाई थी. उस ने सहेंद्र के औफिस में फोन लगा कर साहब को बोला था. साहब ने ही एंबुलैंस की व्यस्था कराई थी. हालांकि, एंबुलैंस वाले ने उस से 20 हजार रुपए ले लिए थे. उस ने कोई बहस नहीं की. इस समय उसे पैसों से ज्यादा फिक्र पति की थी. एंबुलैंस में बैठने के पहले उस ने एक बार फिर अपने देवर को फोन लगाया था, ‘इन के साथ मैं जा रही हूं. घर में बच्चे और पिताजी अकेले हैं. आप उन की देखभाल कर लें.’

महेंद्र ने साफ इनकार कर दिया. उस ने अपनी ननद को भी फोन लगाया था. ननद पास के ही शहर में रहती थी, पर ननद ने भी आने से मना कर दिया. रीना अपने साथ बच्चों को ले कर नहीं जा सकती थी और उन्हें ले भी जाती तो पिताजी… उन की देखभाल के लिए भी तो कोई चाहिए. उस ने अपनी कामवाली बाई को फोन लगाया, ‘मुन्नीबाई, मु?ो इन्हें ले कर अस्पताल जाना पड़ रहा है, घर में बच्चे और पिताजी अकेले हैं. तुम उन की देखभाल कर सकती हो?’ रीना के स्वर में दयाभाव थे हालांकि, उसे उम्मीद नहीं थी कि मुन्नी उस का सहयोग करेगी. जब उस के सगे ही मदद नहीं कर रहे हैं तो फिर कामवाली बाई से क्या अपेक्षा की जा सकती है, पर उस के पास कोई और विकल्प था ही नहीं, इसलिए उस ने एक बार मुन्नी से भी अनुरोध कर लेना उचित सम?ा.

‘ज्यादा तबीयत खराब है साहब की?’

‘हां, दूसरे शहर ले कर जाना पड़ रहा है.’

‘अच्छा, आप बिलकुल चिंता मत करो, मैं आ जाती हूं आप के घर.’

मुन्नीबाई ने अपेक्षा से परे जवाब दिया था.

‘सच में तुम आ जाओगी मुन्नीबाई?’ रीना को विश्वास नहीं हो रहा था.

‘हां, मैं अभी आ जाती हूं. आप चिंता न करें,’ मुन्नीबाई के स्वर में दृढ़ता थी.

‘पर मुन्नीबाई, मालूम नहीं मु?ो कब तक अस्पताल में रहना पड़े.’

‘मैं रह जाऊंगी, आप साहब का इलाज करा लें.’

‘मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी, मुन्नीबाई,’ रीना की आवाज में कृतज्ञता थी.

‘इस में एहसान की क्या बात, बाईसाहिबा. हम लोग एकदूसरे की मदद नहीं करेंगे तो हम इंसान कहलाने लायक भी नहीं होंगे,’ मुन्नीबाई के स्वर में अपनत्व ?ालक रहा था.

रीना के निकलने के पहले ही मुन्नीबाई आ गई थी. मुन्नीबाई के आ जाने से उस की एक चिंता तो दूर हो

गई थी.

सहेंद्र को भरती हुए 2 दिन ही हुए थे कि रीना को भी भरती होना पड़ा था. सहेंद्र को भरती करा लेने के बाद उसे तो आईसीयू में जाने नहीं दिया जा रहा था तो वह अस्पताल के परिसर में बैठी रहती थी. उस दिन उसे वहां तेज बुखार से तड़पता देख कर नर्स ने अस्पताल में भरती करा दिया था. पहले तो उसे जनरल वार्ड में रखा गया, पर जब उस की तबीयत और बिगड़ी तो उसे भी आईसीयू में ही ले जाया गया. पतिपत्नी दोनों के पलंग आमनेसामने थे. सहेंद्र ने जैसे ही रीना को आईसीयू वार्ड में देखा तो उस का चेहरा पीला पड़ गया. उस की आंखों से आंसू

बह निकले.

रीना बेहोशी की हालत में थी, इसलिए वह अपने पति को नहीं देख पाई. सहेंद्र बहुत देर तक आंसू बहाते रहे. वे अपनी पत्नी की इस हालत का जिम्मेदार खुद को ही मान रहे थे. रीना की बेहोशी दूसरे दिन दूर हो पाई. उस ने अपने चेहरे पर मास्क लगा पाया जिस से औक्सीजन उस के अंदर जा रही थी. घड़ी की टिकटिक करने जैसी आवाज चारों ओर गूंज रही थी. उस के हाथ में बौटल लगी हुई थी. वह बहुत देर तक हक्काबक्का सी सब देखती रही. उसे सम?ा में आ गया था कि वह भी आईसीयू वार्ड में भरती है. ऐसा सम?ा में आते ही उस की निगाहें अपने पति को ढूंढ़ने लगीं. सामने के बैड पर पति को देखते ही वह बिलख पड़ी. सहेंद्र भी पत्नी को यों ही एकटक देख रहे थे. उन का मन हो रहा था कि वे पलंग से उठ खड़े हों और पत्नी के पास जा कर उसे ढाढ़स बंधाएं पर वे हिल भी नहीं पा रहे थे. पतिपत्नी दोनों आमनेसामने के बैड पर लेटे एकदूसरे को देख रहे थे. दोनों की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे.

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