रूस-यूक्रेन युद्ध का एक महीना पूरा हो चुका है. बीते एक महीने में यूक्रेन में हजारों नागरिक, सैनिक और मासूम बच्चे रूसी बम धमाकों में मारे जा चुके हैं और यह सिलसिला लगातार जारी है. युद्ध में रूस के सैनिक भी बड़ी संख्या में हताहत हो रहे हैं मगर रूस दुनिया के तमाम देशों द्वारा बनाए जा रहे दबावों के बावजूद लड़ाई रोकने को तैयार नहीं दिख रहा, उलटे उस ने परमाणु हमले की धमकी भी 2 बार दे डाली है.

इस को ले कर दुनियाभर में हड़कंप की स्थिति है जिस के चलते नाटो को ब्रसेल्स में आपातकालीन बैठक बुलानी पड़ गई. उस में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी उपस्थित रहे. बैठक के बाद रूस पर 65 नए प्रतिबंध और लगा दिए गए हैं. बावजूद इस के, यूक्रेन पर रूसी हमले बदस्तूर जारी हैं.

रूस किसी भी तरह यूक्रेन को नेस्तनाबूद करने के लिए उतावला है. वह नरसंहार पर उतारू है. उस के सैनिक हैवानियत की सारी हदें पार कर नन्हेनन्हे यूक्रेनी बच्चों पर भी गोलियां दाग रहे हैं रूस इस लड़ाई को अब धर्मयुद्ध का नाम दे रहा है. रूस के रूढि़वादी चर्च ने यूक्रेन पर रूसी हमले और नरसंहार की व्याख्या ‘पवित्र युद्ध’ के रूप में की है. यह समस्त मानव जाति के लिए खतरनाक बात है जहां चर्च एक आतंकवादी की भूमिका निभा रहा है.

सत्ता और धर्मगुरुओं का अपवित्र गठबंधन, जो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा यूक्रेन पर थोपे गए युद्ध और लाखों मासूमों की मौत को सही ठहराने में मदद कर रहा है, आने वाले वक्त में दुनिया के अन्य देशों, जहां सत्ता धर्म के ठेकेदारों द्वारा संचालित होती है, द्वारा उदाहरण के तौर पर लिया जाएगा और निर्दोष लोगों की हत्या को ‘पवित्र हत्या’ या ‘ईश्वर की मंशा’ के रूप में प्रचारित किया जाने लगेगा.

उल्लेखनीय है कि रूस में चर्च और सेना साथसाथ चलते हैं. अतीत से चिपके रहना और रूढि़वादिता से रूसी अभी मुक्त नहीं हुए हैं. उन्हें पश्चिम का कल्चर नहीं भाता है. बता दें कि दुनिया में 260 मिलियन (करीब 24 करोड़) और्थोडौक्स ईसाइयों में से लगभग 100 मिलियन रूस में ही हैं और कुछ विदेशों में भी मौस्को के साथ जुड़े हुए हैं. इन पर धार्मिक गुरुओं का बहुत प्रभाव है.

रूसी राष्ट्रपति भी इन धर्मगुरुओं के आगे नतमस्तक रहते हैं. बीते दिनों रूसी रूढि़वादी चर्च के प्रमुख पैट्रिआर्क किरिल ने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण को स्पष्ट रूप से समर्थन दिया. रूढि़वादी चर्च के प्रमुख पैट्रिआर्क किरिल इस बात को प्रचारित कर रहे हैं कि रूस को युद्ध का जिम्मेदार ठहराया जाना गलत है, बल्कि डोनबास क्षेत्र में जो रूस समर्थक लोग हैं और जो रूसी वक्ता हैं, यूक्रेनियन द्वारा उन का नरसंहार किया जा रहा था, इसलिए व्लादिमीर पुतिन द्वारा उन्हें सबक सिखाने के लिए युद्ध का रास्ता अपनाया गया, जो पूरी तरह धर्मसंगत है.

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के करीबी सहयोगी 75 वर्षीय पैट्रिआर्क किरिल यूक्रेन से जारी युद्ध को पश्चिम के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में भी देखते हैं. वे इसे एक धर्मयुद्ध मानते हैं. पुतिन की दृष्टि के समर्थक किरिल यूक्रेन को अपने रूसी चर्च के एक अभिन्न, ऐतिहासिक हिस्से के रूप में भी देखते हैं. इस के साथ ही, पैट्रिआर्क किरिल समलैंगिक संबंधों के घोर विरोधी हैं. वे इसे ईश्वर के नियमों में एक बाधा बताते हैं. उन के समक्ष यह एक घृणित कृत्य है. वे इसे ‘बुरी ताकतों’ के उदय के रूप में मानते हैं और उन का संहार करना ही धर्म सम?ाते हैं. जबकि आधुनिक यूक्रेन समलैंगिक संबंधों को उदार और मानवीय दृष्टि से देखता है और उसे गलत नहीं सम?ाता. वहां समलैंगिक गौरव परेड का आयोजन होता है जो रूढि़वादी चर्चों को नागवार गुजरता है.

समलैंगिक संबंधों पर किरिल का कहना है कि यह ईश्वर के कानून का उल्लंघन है. हम उन लोगों के साथ कभी नहीं रहेंगे जो इस कानून को नष्ट करते हैं, पवित्रता और पाप के बीच की रेखा को धुंधला करते हैं, पाप को बढ़ावा देते हैं.

किरिल रूसी लोगों के दिलदिमाग में पश्चिमी उदार मूल्यों की घुसपैठ की भी घोर निंदा करते हैं. किरिल ने यूक्रेन युद्ध को ‘आध्यात्मिक महत्त्व का संघर्ष’ कह कर इसे नैतिक वैधता प्रदान की है जो उन के अनुसार ईश्वर के कानून को स्थापित रखने के लिए जरूरी है.

गौरतलब है कि इस्ट यूक्रेन के डोनबास क्षेत्र में रहने वाले अधिकतर निवासी रूस के समर्थक हैं और उन्होंने लगभग 8 वर्षों तक संघर्ष करने के बाद जीत हासिल की थी. पुतिन का कहना है कि यूक्रेन के खिलाफ स्पैशल औपरेशन चलाना आसान फैसला नहीं था. यूक्रेन के सैनिक डोनबास के बाशिंदों को प्रताडि़त करते हैं क्योंकि वे ईश्वर के नियमों पर चलने वाले लोग हैं.

पुतिन कहते हैं, ‘‘डोनबास के लोग केवल ‘आवारा कुत्ते’ नहीं हैं कि यूक्रेन की सरकार यहां के लोगों पर अत्याचार करती रहे. वहां 13-14 हजार लोग मार दिए गए. 500 से अधिक बच्चे मारे गए या अपंग हो गए. सब से ज्यादा असहनीय यह है कि तथाकथित ‘सभ्य’ पश्चिम ने उन 8 वर्षों के दौरान इसे नोटिस भी नहीं किया. पश्चिम इस नरसंहार पर चुप रहा. वहां एक के बाद एक ऐसी कई घटनाएं हुईं जिन के चलते यूक्रेन को सबक सिखाना जरूरी हो गया.’’ पुतिन के इस तर्क को रूढि़वादी चर्च का समर्थन मिल रहा है और वह और ज्यादा उकसाने का काम भी कर रहा है. ऐसे में पुतिन कहां जा कर ठहरेंगे, यह कहना मुश्किल है.

गौरतलब है कि सामंतवादी युग में रूस के विभिन्न नगरों में अनेक दुर्ग बनाए गए थे, जिन्हें क्रेमलिन कहा जाता है. क्रेमलिन मध्यकाल में रूसी नागरिकों के धार्मिक और प्रशासनिक केंद्र थे. लिहाजा, उन के भीतर ही राजप्रासाद, गिरिजाघर, सरकारी भवन और बाजार बने थे. गिरिजाघरों का प्रभाव सब

पर था. उन में प्रमुख दुर्ग मास्को, नोवगोरोड, काजान और प्सकोव, अस्त्राखान और रोस्टोव में हैं. ये दुर्ग लकड़ी और पत्थर की दीवारों से निर्मित हैं और रक्षा के निमित्त इन के ऊपर बुर्जियां बनी हैं. आजकल क्रेमलिन का नाम प्रमुख रूप से मौस्को स्थित दुर्ग के लिए लिया जाता है. यहीं से तमाम सैन्य गतिविधियां नियंत्रित की जाती हैं और रूढि़वादी गिरिजाघरों का पूरा समर्थन और सलाहमशवरा उन्हें मिलता है.

राष्ट्रपति पुतिन जिस रूसी गणराज्य के लिए आज यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदोमीर जेलेंस्की से टकरा रहे हैं, जमीन के उस टुकड़े पर राजारानियों के राज का इतिहास लगभग 1,200 साल पुराना है. इस विशाल भूभाग को कभी कीवियन रूस कहा जाता था.

वर्तमान से ऐतिहासिक कीवियन रूस का एक और नाता है जो एक दिलचस्प दस्तावेज भी है. कीव पर भले ही रूरिक वंश के ओलेग का कब्जा 879 में हुआ, लेकिन शहर का स्वर्ण युग आया 10वीं और 11वीं सदी में, जब ओलेग का वंशज व्लादिमीर द ग्रेट (980-1015) और प्रिंस यारोस्लाव का राज वहां कायम हुआ.

इस के बाद आए द वाइज (1019-1054) के शासनकाल में कीव राजनीतिक और सांस्कृतिक समृद्धि के चरम पर जा पहुंचा. वहां से जानवरों के फर, मधु और दासों का व्यापार बहुत बड़े पैमाने पर होने लगा. इतिहास की इस से बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि व्लादिमीर द ग्रेट के शासन में जो कीव अपनी समृद्धि पर इतराता था, लगभग 1,000 साल बाद उसी व्लादिमीर का हमनाम व्यक्ति इस नगर को खंडहर बनाने पर तुला हुआ है. इस की वजह कितनी जायज है, यह तो वर्तमान का प्रश्न है, मगर इतिहास अपनी जगह पर स्थिर है.

जो कीव आज रूसी बमों के प्रहार से हांफ रहा है वह कीव तब ‘कीवियन रूस’ की सत्ता का केंद्र था. राजा ओलेग तो कीव को ‘मदर औफ रूस सिटीज’ के नाम से बुलाता था. पुतिन और जेलेंस्की का इस शहर से नौस्टेलिया यों ही नहीं है. बेलारूस, रूस और यूक्रेन सभी कीवियन रूस को ही अपना सांस्कृतिक पूर्वज मानते हैं और इस सत्ता से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं. बेलारूस और रूस ने तो कीवियन रूस से ही अपना आधुनिक नाम हासिल किया है.

पिछले 1,000 सालों का इतिहास खंगालें तो रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले की अनेक वजहें और राष्ट्रपति पुतिन और रूढि़वादी चर्चों सहित रूसियों की सोच, आस्था और लक्ष्य की ?ालक मिल जाती है.

कीव में सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था. वहां व्यापार अपनी उन्नत स्थिति में था. लोग समृद्ध थे. हर तरफ खुशहाली थी मगर 13वीं सदी के मध्य में कीव पर मंगोल आक्रमण हुए. वर्ष 1240 में बाकू खान के नेतृत्व में हुए हमले ने कीव को तहसनहस कर दिया. सैंट्रल एशिया से पूर्वी यूरोप आए मंगोलों के आक्रमण ने कीव की नींव को खोखला कर दिया. इस चोट से कीव भरभरा कर गिर पड़ा. कीवियन रूस के पतन के बाद इस क्षेत्र में जो सत्ता पनपी, उस का केंद्र मौस्को था. इसे ग्रैंड डची औफ मौस्को के नाम से जाना जाता है. रशियन और्थोडौक्स चर्च की मदद से इस राज्य ने मंगोलों को हराया.

यूएसएसआर का उदय

17वीं से 19वीं सदी के मध्य में रूसी साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार हुआ. यह प्रशांत महासागर से ले कर बाल्टिक सागर और मध्य एशिया तक फैल गया. 1917 में बोल्शेविक क्रांति हुई और इस क्रांति ने सर्वहारा के नायक व्लोदोमीर लेनिन को उभारा, जिस ने मजदूरों-किसानों की ताकत के दम पर एक राजा से सत्ता छीन कर सर्वहारा वर्ग का राज स्थापित किया. सर्वहारा यानी समाज का निचला वर्ग जो मेहनत और पसीना बहा कर शारीरिक श्रम के जरिए धन का अर्जन करता है और अपनी जिंदगी चलाता है. लेनिन ने रूस की जनता को समतामूलक समाज का सपना दिखाया और बहुत हद तक उसे स्थापित करने में कामयाब रहा.

30 दिसंबर, 1922 को यूएसएसआर (यूनियन औफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स) की स्थापना हुई. सोवियत संघ में 15 गणतांत्रिक राज्य थे. ये देश थे: रूस, जौर्जिया, यूक्रेन, माल्दोवा, बेलारूस, आर्मीनिया, अजरबैजान, कजाखिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किरगिस्तान, ताजिकिस्तान, एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया. जब तक यूएसएसआर वजूद में रहा, वह दुनिया का सब से बड़ा देश था. उस की चौहद्दी बाल्टिक और काला सागर से ले कर प्रशांत महासागर तक फैली थी.

इस की सीमाओं में 100 से ज्यादा राष्ट्रीयता के लोग रहते थे. लेकिन इस के नागरिकों में पूर्व स्लाव यानी रशियन, बेलारूसियन और यूक्रेनियन की संख्या 80 फीसदी थी. यूएसएसआर भारत से 7 गुना ज्यादा बड़ा था. अगर पूर्व से पश्चिम यूएसएसआर की दूरी मापें तो यह दूरी 10,900 किलोमीटर थी. यूएसएसआर में भले ही 15 राज्य शामिल थे, लेकिन देश के प्रशासन और अर्थव्यवस्था पर मौस्को के नेतृत्व में केंद्रीय सरकार का कड़ा नियंत्रण रहा. लिहाजा, इन 15 गणराज्यों का व्यापक पैमाने पर रूसीकरण हुआ.

राज्य के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग वस्तुओं के वृहद उत्पादन में शामिल हो गया. सोवियत रूस कार से ले कर पिन तक खुद बनाने लगा. राज्य ने सभी नागरिकों के लिए एक न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित कर दिया. इस तरह रूस गिरतासंभलता आगे बढ़ ही रहा था कि 21 जनवरी, 1924 को लेनिन दुनिया छोड़ गए.

लेनिन की मृत्यु के बाद रूस की सत्ता जोसेफ स्टालिन ने संभाली. स्टालिन तानाशाही प्रवृत्ति का था. उस की पैदाइश जौर्जिया में बेहद गरीब परिवार में हुई थी. बचपन में स्टालिन कमजोर था. उस के पिता मोची थे और मां कपड़े धोती थी. जब स्टालिन 7 साल का था तो उसे चेचक हुआ. इस से उस का चेहरा खराब हो गया. स्टालिन की मां उस से धार्मिक किताबें पढ़ने को कहती, पादरी बनने के लिए प्रेरित करती, लेकिन स्टालिन चुपकेचुपके मार्क्स की किताबें पढ़ता.

युवा होतेहोते स्टालिन ने रूस की कम्युनिस्ट पार्टी में अपनी जगह बना ली. लेनिन उस पर भरोसा करते थे. लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन ने खुद को उन के वारिस के तौर पर पेश कर के सत्ता हथिया ली. स्टालिन ने एक संसद बनाई जिसे सुप्रीम सोवियत कहा जाता था. भले ही यह एक संसद थी लेकिन सारे फैसले कम्युनिस्ट पार्टी करती थी. इस पार्टी में भी केंद्रीयकरण होने लगा था. सारे फैसले पार्टी की एक छोटी सी समिति करती थी, जिसे पोलितब्यूरो कहा जाता था.

स्टालिन ने अपने तरीके से देश चलाना शुरू किया और फिर शुरू हुआ उस के द्वारा प्रायोजित नृशंस हत्याओं का दौर. इस तानाशाह ने राष्ट्रवादी मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार शुरू कर दिया. बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण हुआ. किसानों से उन की जमीनें छीन ली गईं. जमीनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और सामूहिक कृषि की व्यवस्था शुरू हुई. जिस ने भी विरोध किया, सरकार के हाथों मारा गया. फैक्ट्रियों को टारगेट दिया गया जो पूरा नहीं करता उसे देश का दुश्मन कह कर जेल भेज दिया जाता. रूस ने तेल, स्टील, कोयले का उत्पादन कई गुना बढ़ाया लेकिन राज्य में घोर अशांति व्याप्त हो गई. स्टालिन ने 1928 में पंचवर्षीय योजनाओं का सिस्टम अपनाया और लंबी अवधि के विकास कार्य शुरू किए. उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद भारत ने भी इसी सिस्टम को अपनाया.

क्रूरता में हिटलर से आगे निकला स्टालिन

तानाशाह स्टालिन की क्रूरता की कहानियां दिल कंपा देने वाली हैं. उस ने लाखों लोगों को मरवा दिया. लाखों लोग अकाल से मर गए. लेकिन स्टालिन रूसी राष्ट्रवाद की दुहाई दे कर अपनी नीतियों पर अमल करता रहा. जिस बदलाव और क्रांति का सुनहरा स्वप्न लोगों ने देखा, वे स्टालिन के बनाए गुलग में दम तोड़ रहे थे. साम्यवादी नीतियों का विरोध करना महापाप था. ऐसे लोगों को गुलग में जिंदगी गुजारनी पड़ती थी.

गुलग स्टालिन के समकालीन हिटलर के यातना शिविरों जैसा ही था. यहां स्टालिन के विरोधियों से दिनरात काम कराया जाता और फिर वे एक दिन दम तोड़ देते थे. स्टालिन की नीतियों का विरोध करने वाले 30 लाख लोगों को प्रचंड ठंड वाले साइबेरिया के गुलग में रहने के लिए भेज दिया गया था. कई इतिहासकार कहते हैं कि इस तानाशाह ने विरोधियों से नफरत करने में हिटलर को भी मात दे दी थी. हालांकि स्टालिन ने अपने नेतृत्व में दूसरे विश्वयुद्ध में रूस को जीत दिला कर प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग भी तैयार कर लिया था.

1953 में स्टालिन की मौत हो गई. स्टालिन की मौत के बाद अनेक राष्ट्रपति हुए और यूएसएसआर कमोबेश स्टालिन की नीतियों पर ही चला. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1945 में कोल्ड वार शुरू हो गया. यूएसएसआर और अमेरिका के बीच इकोनौमी, साइंस, मिलिट्री पावर, स्पेस, स्पोर्ट्स में आगे निकलने की होड़ शुरू हो गई.

पूरी दुनिया 2 धुव्रों में बंट गई. 20वीं सदी दुनिया में बेतहाशा बरबादी लेकर आई. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटेन का अंत हो गया और दुनिया के नक्शे पर कई छोटेबड़े व म?ाले नए देशों का उदय हुआ. इसी कालखंड में 1985 में मिखाइल गोर्बाचेव यूएसएसआर के राष्ट्रपति बने. गोर्बाचेव को पूर्ववर्ती राष्ट्रपति से एक चौपट अर्थव्यवस्था और लुंजपुंज राजनीतिक ढांचा विरासत में मिला था.

मिखाइल गोर्बाचेव ने देखा कि पश्चिमी दुनिया में सूचना और प्रौद्योगिकी क्रांति हो रही है. इस की बराबरी के लिए सोवियत रूस में भी आमूलचूल बदलाव जरूरी हो गया. गोर्बाचेव ने आर्थिक और राजनीतिक सुधारों की प्रक्रिया शुरू की और वे देश को लोकतंत्र की राह पर ले जाने लगे. गोर्बाचेव ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लासनोस्त’ नाम की 2 नीतियां ले कर आए.

पेरेस्त्रोइका का अर्थ था कि लोगों को कामकाज करने की आजादी मिलने वाली थी, जबकि ग्लासनोस्त का अर्थ था कि राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में खुलापन आएगा और लोगों को सरकार की आलोचना करने की आजादी होगी.

स्टालिन का दमन देख चुके रूसियों के लिए यह हैरान करने वाला फैसला था. मगर धीरेधीरे लोग उस डर से निकल कर सरकार को अपनी राय देने लगे और सरकार की आलोचना भी करने लगे. उन्हें अब गुलग का भय नहीं सताता था. गोर्बाचेव के समय अनेक राजनीतिक कैदी रिहा हुए.

अखबारों में सरकार की आलोचना छपने लगी. धीरेधीरे लोग मुखर हुए. अपनी जरूरतों के मुताबिक खरीदारी करने लगे. लोग प्राइवेट बिजनैस भी करने लगे. संपत्ति की भावना जनता में आई. बाजार पर सरकार का नियंत्रण कम हुआ. चीजों की कीमतें बढ़ने लगीं. गोर्बाचेव ने व्यवस्था में ढील दे कर लोगों के बीच उम्मीदों व अपेक्षाओं का ऐसा उफान खड़ा कर दिया जिसे कंट्रोल कर पाना नामुमकिन होता चला गया.

शीतयुद्ध में शामिल हो कर यूएसएसआर ने बेतहाशा खर्चे किए. मूंछों की लड़ाई में उसे अंतरिक्ष में सब से पहले यान भेजना था, दुनिया का सब से पहला अंतरिक्ष यात्री भी रूसी ही था. उस के पास सब से ज्यादा परमाणु हथियार थे. अमेरिका से इस टक्कर में इस देश ने अरबोंखरबों रूबल खर्च कर दिए. अब सोवियत रूस का खजाना कोई कुबेर का भंडार तो था नहीं, लिहाजा धीरेधीरे उस की माली हालत खस्ता होती चली गई.

1980 के दशक में सोवियत संघ की जीडीपी अमेरिका से आधी रह गई. भ्रष्टाचार बढ़ने लगा और आम जनता त्रस्त होने लगी. बिना रिश्वत दिए कोई काम नहीं हो रहा था और जनता की सुनने वाला कोई नहीं था. अंदर ही अंदर एक आग सुलगने लगी थी. जल्दी ही गोर्बाचेव को ले कर जनमत बंटने लगा. बहुत कम लोग उन के साथ अब खड़े थे.

मौस्को और रूसी गणराज्य से

निकली असंतोष की यह चिनगारी सीमांत राज्यों की ओर फैलने लगी. बाल्टिक गणराज्यों (एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया) में राष्ट्रवादी भावनाओं का उभार हुआ. यहां युवाओं ने आजादी की मांग करनी शुरू कर दी. उन्होंने सब से पहले अलग देश की मांग की. ये राज्य खुद को यूरोपीय संस्कृति के नजदीक मानते थे.

इस के अलावा द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले ये देश स्वतंत्र थे. उन्होंने कहा कि यूएसएसआर का कब्जा गैरवाजिब है और हमें आजाद किया जाए. यही वह समय था जब यूक्रेन और जौर्जिया में भी नैशनलिस्ट आंदोलन शुरू हो गए. ये इलाके समृद्ध थे और इन्हें लगता था कि मध्य एशियाई गणराज्यों जैसे तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे गरीब राज्यों को यूएसएसआर में शामिल कर के उन का बो?ा इन राज्यों पर डाल दिया गया है. इस के अलावा मध्य एशियाई रिपब्लिक में इसलाम का बोलबाला था जबकि रूस के पूर्वी प्रदेश स्थित इन राज्यों में और्थोडौक्स क्रिश्चियन चर्च का प्रभाव था. इसलिए भी ये देश अपना स्वतंत्र वजूद चाहते थे.

दरअसल इस के पीछे बहुत बड़ा खेल अमेरिका का भी था, जो सीआईए (केंद्रीय खुफिया एजेंसी) के जरिए इन राज्यों में सरकार विरोधी प्रदर्शनों को हवा दे रहा था. पूंजीवाद की ताकत के आगे साम्यवाद घुटने टेक रहा था. अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की अगुआई में अमेरिकी पूंजीवाद की हुंकार दुनियाभर में सुनाई पड़ रही थी. इस दौरान गोर्बाचेव चाहते तो इन देशों में अपनी आर्मी भेज सकते थे, जैसा कि हाल के दिनों में पुतिन करते आए हैं, लेकिन गोर्बाचेव ने ऐसा नहीं किया. धीरेधीरे प्रदर्शन अजरबैजान, जौर्जिया और आर्मेनिया, माल्डोवा, यूक्रेन में भी फैलने लगा. सब की एक ही इच्छा थी सोवियत रूस से अलग अस्तित्व.

विरासत पाने की मंशा

21 जनवरी, 1990 को 3 लाख यूक्रेनियनों ने राजधानी कीव से लीव तक एक मानव शृंखला बनाई और स्वाधीनता को ले कर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी.

24 अगस्त, 1991 को यूक्रेन ने आधिकारिक रूप से स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया. यूक्रेन में 1 दिसंबर, 1991 को जनमत संग्रह हुआ. लोगों को यूएसएसआर से अलग होने पर अपनी राय देनी थी. 90 फीसदी लोगों ने स्वतंत्र यूक्रेन के पक्ष में जनादेश दिया. यूक्रेन के नेता क्रावचुक को राष्ट्रपति चुन लिया गया.

25 अगस्त को बेलारूस ने अपनी आजादी घोषित कर दी. 27 अगस्त को माल्डोवा आजाद हो गया. माल्डोवा ने आजादी की घोषणा के बाद संघ से अलग होने की प्रक्रिया शुरू कर दी. अब जौर्जिया, आर्मेनिया, कजाखिस्तान, किर्गिस्तान भी अपनी राहें चुनने के लिए स्वतंत्र थे. लगभग 70 साल तक अमेरिका से रेस लगाने वाला यूएसएसआर अब इतिहास बनने के कगार पर था. 8 दिसंबर, 1991 को रूस, यूक्रेन और बेलारूस के बीच एक सम?ाता हुआ. इन तीनों देशों ने इस सम?ाते पर हस्ताक्षर किए और तीनों अलग हो गए. इस पर रूस की ओर से राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने हस्ताक्षर किए थे. अब बारी मिखाइल गोर्बाचेव की थी. उन्होंने 21 दिसंबर को यूएसएसआर से आजाद हुए सभी देशों के राष्ट्रपतियों को बुलाया और अल्मा अता घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर सभी देशों को औपचारिक स्वतंत्रता दे दी.

25 दिसंबर, 1991 को क्रिसमस की रात मौस्को की फिजाओं से जश्न की धुन गायब थी. कुछ इस घड़ी को मनहूस बता रहे थे तो कुछेक नए अध्याय की शुरुआत. स्थानीय समयानुसार रात के 7.35 बजे गोर्बाचेव नैशनल टैलीविजन पर आए और क्रेमलिन से सोवियत संघ के ध्वज को उतारा गया. यही वह मौका था जब सोवियत संघ (यूएसएसआर) के राष्ट्रीय गान की धुनें आखिरी बार बजाई गईं. शाम 7.45 बजे क्रेमलिन पर रूसी ?ांडा फहराया गया.

जब यूएसएसआर का विघटन हुआ तब रूस के मौजूदा राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन 39 साल के थे. वे तब केजीबी राज्य सुरक्षा समिति में एक जासूस थे. उन्हें क्रेमलिन से सोवियत ध्वज का उतरना अच्छा नहीं लगा था. यूएसएसआर के विभाजन के बाद पैदा हुई अराजकता में पुतिन की जिंदगी भी बुरी तरह से प्रभावित हुई थी. जिस पुतिन के हर फैसले पर आज दुनिया की नजरें टिकी हैं, उस व्यक्ति को 1991 में अपनी जिंदगी चलाने के लिए कैब ड्राइवर तक बनना पड़ा था. एक इंटरव्यू के दौरान रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि यह सोवियत संघ के नाम पर ‘ऐतिहासिक रूस’ का विघटन था. हम एक पूरी तरह से अलग देश में बदल गए थे और 1,000 वर्षों में हमारे पूर्वजों ने जो बनाया था वह सब बिखर गया था.

आज शायद उसी बिखराव को फिर से समेटने की मंशा ले कर व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन पर बमबारी कर रहे हैं और रूस के धार्मिक नेता पैट्रिआर्क किरिल उन के इस काम को ‘पवित्र धार्मिक कर्म’ का नाम दे कर उन का हौसला बढ़ा रहे हैं. दरअसल पुतिन का वर्तमान अतीत के बो?ा से

कभी मुक्त नहीं हो सका. अतीत का बो?ा पुतिन पर है और वे यूएसएसआर के सपनों की जकड़न से खुद को मुक्त नहीं कर पाते हैं.

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