घुड़चढ़ी जैसी कुतार्किक परंपरा का भले हिंदू ग्रंथों में कहीं कोई जिक्र नहीं पर इस का जुड़ाव अतीत में सवर्णों से रहा है. आज दलित समाज बराबरी के लिए इस परंपरा को अपना रहा है. इस पर ऊंची जातियों द्वारा लगातार बवाल काटना बताता है कि उन्हें दलितों का सिर उठा कर चलना तक सहन नहीं हो रहा.

श्रीमती रमा अहिरवार (आग्रह पर बदला हुआ नाम) भोपाल के कोलार इलाके के एक अपार्टमैंट में रहती हैं. उन के पति एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क हैं जिन की तनख्वाह अब 55 हजार रुपए महीना है. 48 वर्षीया रमा के 3 बच्चे हैं. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर अच्छी सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है. उस से छोटी 20 साल की बेटी एमए कर रही है और सब से छोटा बेटा एमबीए कर रहा है.

रमा का मायका विदिशा में है. बचपन उन्होंने अपनी पैतृक दलित बस्ती में बड़े अभावों में गुजारा जो शादी के बाद दूर हो गए. उस के मन में एक नहीं, बल्कि कई कसक हैं जिन का गहरा ताल्लुक दलित होने व उस की शादी के पहले की जिंदगी से है. रमा अपनी बस्ती ही नहीं, बल्कि शहर की पहली दलित युवती थी जो कालेज का मुंह देख पाई, लेकिन बीए की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाई क्योंकि मांबाप से पक्की सरकारी नौकरी वाले दामाद का मोह छोड़ा नहीं गया. उस ने कालेज की पढ़ाई बीच में छुड़वा कर बेटे के हाथ पीले कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली थी.

रमा को इस से ज्यादा मलाल इस बात का है कि उस का पति शादी के वक्त घोड़ी नहीं चढ़ पाया था. तब कोई खुला विरोध नहीं था लेकिन हिम्मत उन के पिता व बस्ती वालों की ही नहीं पड़ी थी कि दूल्हे को घोड़ी चढ़ा कर बस्ती तक ला पाएं क्योंकि इस से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि उन की बिरादरी का कोई दूल्हा घोड़ी पर बैठ कर आया हो.

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