घुड़चढ़ी जैसी कुतार्किक परंपरा का भले हिंदू ग्रंथों में कहीं कोई जिक्र नहीं पर इस का जुड़ाव अतीत में सवर्णों से रहा है. आज दलित समाज बराबरी के लिए इस परंपरा को अपना रहा है. इस पर ऊंची जातियों द्वारा लगातार बवाल काटना बताता है कि उन्हें दलितों का सिर उठा कर चलना तक सहन नहीं हो रहा.
श्रीमती रमा अहिरवार (आग्रह पर बदला हुआ नाम) भोपाल के कोलार इलाके के एक अपार्टमैंट में रहती हैं. उन के पति एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क हैं जिन की तनख्वाह अब 55 हजार रुपए महीना है. 48 वर्षीया रमा के 3 बच्चे हैं. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर अच्छी सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है. उस से छोटी 20 साल की बेटी एमए कर रही है और सब से छोटा बेटा एमबीए कर रहा है.
रमा का मायका विदिशा में है. बचपन उन्होंने अपनी पैतृक दलित बस्ती में बड़े अभावों में गुजारा जो शादी के बाद दूर हो गए. उस के मन में एक नहीं, बल्कि कई कसक हैं जिन का गहरा ताल्लुक दलित होने व उस की शादी के पहले की जिंदगी से है. रमा अपनी बस्ती ही नहीं, बल्कि शहर की पहली दलित युवती थी जो कालेज का मुंह देख पाई, लेकिन बीए की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाई क्योंकि मांबाप से पक्की सरकारी नौकरी वाले दामाद का मोह छोड़ा नहीं गया. उस ने कालेज की पढ़ाई बीच में छुड़वा कर बेटे के हाथ पीले कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली थी.
रमा को इस से ज्यादा मलाल इस बात का है कि उस का पति शादी के वक्त घोड़ी नहीं चढ़ पाया था. तब कोई खुला विरोध नहीं था लेकिन हिम्मत उन के पिता व बस्ती वालों की ही नहीं पड़ी थी कि दूल्हे को घोड़ी चढ़ा कर बस्ती तक ला पाएं क्योंकि इस से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि उन की बिरादरी का कोई दूल्हा घोड़ी पर बैठ कर आया हो.
दलित युवतियों का यह सपना विदिशा की उस दलित बस्ती में भी सपना ही रह जाता था कि उन का पति राजकुमार की तरह घोड़ी पर बैठ कर आएगा और उन्हें राजकुमारी की तरह विदा करा कर ले जाएगा. रमा की शादी के वक्त घोड़ी की बात उठी थी लेकिन बिरादरी के बड़ेबूढ़ों ने साफ कह दिया था कि हमारे समाज में ये चोंचले आज तक नहीं हुए. कोई एतराज जताए, न जताए पर हम ब्राह्मणों, कायस्थों और बनियों के महल्लों से होते हुए दूल्हे को घोड़ी पर बैठा कर नहीं ला सकते. आज नहीं तो कल हमें इस दुस्साहस का खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. फिर चाहे वह बस्ती की बिजली कटने की शक्ल में हो या फिर नगरपालिका के नलों में पानी सप्लाई न होने की शक्ल में. हम यह वीरता दिखाने की मूर्खता नहीं कर सकते.
रमा को नहीं मालूम कि दलित दूल्हों को घोड़ी पर न बैठने का रिवाज कहां से शुरू हुआ, लेकिन इतना वह जानती है कि उस की शादी के वक्त यानी अब से कोई 25 वर्षों पहले यह ख्वाव देखना भी किसी गुनाह से कमतर न होता था. रमा अपनी कसक या ख्वाहिश बेटों की शादी में पूरी करेंगी जब वे ठसक से घोड़ी पर बैठ बरात ले जाएंगे और बहुओं को विदा करा कर लाएंगे. दामाद के लिए भी उन की शर्त यही होगी कि वह जब बरात ले कर आए तो घोड़ी पर ही आए.
शिक्षित और जागरूक रमा जानती हैं कि पिछले दिनों देशभर से कई ऐसे मामले उजागर हुए हैं जिन में दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठ कर बरात नहीं निकालने दी गई और इस बाबत दूल्हों को बेइज्ज्त भी किया गया. हिंसा भी की गई और अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल किया गया. लेकिन वे बेफिक्र हैं कि उन के बच्चों की शादी में ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि भोपाल में ऐसा नहीं होता और घोड़ी चढ़े दूल्हे से कोई जाति नहीं पूछता और न ही कोई उस का कौलर पकड़ कर नीचे उतारता है, खासतौर से उस पढ़ेलिखे शहरी तबके में जिस में रहने की वे अब आदी हो गई हैं.
जहांजहां ऐसा हुआ वहां के बारे में रमा के पास कोई स्पष्ट राय नहीं है लेकिन इन और इस तरह की खबरों से उन का दिल दुखता है और खून खौलता है कि ‘हम दलितों के साथ यह दोयम दर्जे का बरताव क्यों, हम क्या इंसान नहीं, क्या हमें खुश रहने और शौक पूरे करने का हक नहीं. दीगर धार्मिक भेदभाव और जातिगत अत्याचार तो आएदिन होते ही रहते हैं लेकिन हमारी बिरादरी के दूल्हे घोड़ी क्यों नहीं चढ़ सकते और जब चढ़ते हैं तो उन्हें प्रताडि़त क्यों किया जाता है, दबंगों के पेट में इस से मरोड़ें क्यों उठती हैं, हम ने किसी का क्या बिगाड़ा है.’
इन सवालों के जवाब मिलना आसान बात नहीं है लेकिन पिछले दिनों हुए इस तरह के हादसों पर नजर डालें तो साफसाफ नजर आता है कि धर्म ने जो गैप सवर्ण व दलितों के बीच पैदा कर रखा है वह कानूनी हक और सुधार की कोशिशों से नहीं भरने वाला. कुछ तो है जो सवर्णों के दिलोदिमाग में खटकता रहता है और कुछ दलितों के दिलोदिमाग में भी है जो वे घोड़ी चढ़ने की जिद नहीं छोड़ते. रमा में यह जिद या कुंठा, कुछ भी कह लें, दूसरे तरीके से आकार ले रही है. इस फर्क को समझा जाना बेहद जरूरी है लेकिन उस से पहले-
कुछ प्रमुख घटनाएं
मध्य प्रदेश के पिछड़े इलाके बुंदेलखंड के छतरपुर जिले में 11 फरवरी को गांव कुंडलिया में एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार हो कर राछ (बरात से मिलतीजुलती एक रस्म) निकालना दबंगों को इस तरह नागवार गुजरा कि उन्होंने उस में बज रहा डीजे बंद कर बरात को गांव के बाहर खदेड़ दिया.
दलित दूल्हा दया चंद अहिरवार पुलिस विभाग में कौंस्टेबल है. उस ने पुलिस में इस घटना की शिकायत की तो दूसरे दिन पुलिस कस्टडी में उस की बरात निकाली गई. पुलिस अधीक्षक सचिन शर्मा के मुताबिक, दयाचंद की बरात को एक गली में रोका गया था जो जाहिर है सवर्णों की थी.
दयाचंद ने शादी के बाद बताया कि हमारे गांव में अभी तक कोई दूल्हा घोड़ी पर नहीं बैठा था. मैं ने इस परिपाटी को तोड़ दिया है.
ठीक इस के 5 दिनों पहले मध्य प्रदेश के ही निमाड़ इलाके के जिले मंदसौर के गुराडिया माता गांव में दलित दूल्हे दीपक मेघवाल की बरात को रोक कर दबंगों ने बरातियों के साथ मारपीट करते जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया था और डीजे चला रहे युवक की भी धुनाई की थी, जिस से वह याद रखे कि किसी दलित दूल्हे की बरात में डीजे नहीं बजाना है, भले ही मुंहमांगे पैसे क्यों न मिल रहे हों.
इस मामले की रिपोर्ट शामगढ़ थाने में दर्ज कराई गई थी. पुलिस ने दीपक के पिता नंदा मेघवाल की शिकायत पर 8 लोगों के खिलाफ एससीएसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया. यहां भी छतरपुर के कुंडलिया गांव की तरह दबंग आरोपियों के नाम पुलिस ने उजागर नहीं किए. मान लिया जाना ही बेहतर है कि उन का दबंग होना या दलित न होना ही मसला समझने को काफी है.
दीपक की बरात भी पुलिस के साए में निकल पाई. यहां दिलचस्प बात यह थी कि कार्रवाई करने से पहले पुलिस ने दोनों पक्षों को समझाइश देने की नाकाम कोशिश की थी जिस में यह स्पष्ट हो गया था कि दबंग लोग नहीं चाहते कि कोई दलित दूल्हा घोड़ी चढ़े.
गौरतलब है कि मंदसौर के ही गांव बदनजी खेड़ा में नवंबर 2020 में खासा बखेड़ा खड़ा हो गया था जब एक दलित दूल्हे की बरात को एक सवर्ण महल्ले में से निकालने की गुस्ताखी पर रोका गया था और दूल्हे को नीचे उतार दिया गया था. दलित समुदाय के लोग घोड़ी पर ही बरात निकालने पर अड़ गए तो पुलिस की दखल से झगड़ा या फसाद बड़े दिलचस्प तरीके से सुलझाया गया कि किसी पक्ष ने रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई थी.
मंदसौर के एक टीवी ऐक्टर और पत्रकार संतोष परसाईं के मुताबिक, निमाड़ मालवा इलाके में इस तरह की घटनाएं अब बेहद आम हो चली हैं. अब दलित दबंगों के दबाव में नहीं आते और सवर्ण अपनी दबंगई से बाज नहीं आते. लिहाजा, फसाद तो होंगे ही. ऐसे ही फसादों में बीती 27 जनवरी को नीमच जिले के एक गांव सरसी में दलित दूल्हा राहुल मेघवाल अपने हाथ में संविधान की प्रति ले कर घोड़ी चढ़ा था. उसे भी दबंगों ने घोड़ी पर बरात न निकालने की धौंस दी थी. राहुल की सुरक्षा और गांव में शांति बनाए रखने को कोई 100 पुलिसकर्मी बरात में शामिल हुए थे.
द्य मध्य प्रदेश से सटा राज्य भी अपवाद नहीं है बल्कि उदाहरण है. राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के गांव देवलिया में भी दलित दूल्हे नारायण लाल बलाई की बरात बीती 14 फरवरी को पुलिस कस्टडी में निकली थी. इस इलाके में भी दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठने की इजाजत और रस्म दोनों नहीं हैं. आसपास के गांवों में आएदिन दलित दूल्हों को बिना किसी लिहाज या डर के घोड़ी से बेइज्ज्त कर उतारना दबंग अपना पुश्तैनी हक समझते हैं. इसी डर के चलते नारायण ने घोड़ी चढ़ने के पहले पुलिस की मदद ली थी. जब पुलिस की मौजूदगी में बरात निकल गई तो गांव के दलितों ने जश्न मनाया और अपनी इस कामयाबी की तसवीरें जम कर सोशल मीडिया पर वायरल कीं. इन में भी महिलाओं ने बढ़चढ़ कर खुशी जताई.
गुजरात के बनासकांठा के मोटा गांव का तो नजारा ही बीती 9 फरवरी को जुदा था. दूल्हे का भाई सुरेश शेखालिया फौज में है, जिसे मालूम था कि ऊंची जाति वाले लोग दलित दूल्हे का घोड़ी पर बैठना बरदाश्त नहीं करेंगे. इस बाबत उसे एडवांस में धमकी भी मिल गई थी, इसलिए उस ने पहले ही पुलिस को इत्तला दे दे थी. पुलिस गांव पहुंच भी गई थी पर इस से ऊंची जाति वालों को कोई फर्क नहीं पड़ा. किसी फसाद की आशंका के चलते पुलिस की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच शांति वार्ताएं आयोजित हुईं. शेखालिया परिवार दबंगों का लिहाज करते इस बात पर राजी हो गया कि दूल्हा सूरज घोड़ी पर बैठ कर कोई नया रिवाज कायम नहीं करेगा, यानी पुराना सामंती रिवाज नहीं तोड़ेगा.
यह बात दबंगों के मन की थी, इसलिए वे अपनी जीत पर खुश होते रहे, लेकिन फसाद उस वक्त खड़ा हो गया जब दलित बरातियों ने सिर पर साफे बांध लिए. बस, इतना देखना था कि दबंगों ने बरातियों पर पथराव शुरू कर दिया जिस से बरातियों को चोटें आईं जिन में महिलाएं भी शामिल थीं और पुलिस लाचार देखती रही. हल्ला ज्यादा मचा और बात व माहौल बिगड़ने लगा तो पुलिस ने सरपंच भरत सिंह राजपूत सहित 28 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया. दलितों के साफा बांधने पर एतराज का यह नया मामला था जिस के अपने अलग माने, मंशा और मकसद हैं.
मंशा, माने और मकसद
मंशा यह है कि दलित किसी भी स्तर पर सवर्णों की बराबरी न करने लगें, इसलिए उन्हें हर स्तर पर नीचा दिखाने का कोई मौका न छोड़ा जाए. इस ज्यादती और अत्याचार का परंपरागत बहाना या आड़ धर्म और धार्मिक ग्रंथ हैं, जिन में दलितों को दीनहीन, नीच, पशुवत, पैदाइशी पापी और जाने क्याक्या बताया गया है. सनातनियों के संविधान ‘मनु स्मृति’ में उन्हें ऊंची जाति वालों का सेवक बताया गया है.
शिक्षा और जागरूकता का यह वह दौर है जिस में दलित अपने संवैधानिक अधिकार समझने लगा है और मांगने के बजाय छीनने में ज्यादा भरोसा करने लगा है. दलित दूल्हों की घोड़ी पर बैठ कर ही बरात निकालने की जिद इन्हीं में से एक है. यह मनुवादियों के बनाए उन नएनए रिवाजों में से एक है जिस का किसी धर्मग्रंथ में वर्णन नहीं है. इसी बिना पर दलित युवकों ने मान लिया कि शादी में घोड़ी पर चढ़ कर बरात निकालना उन का हक है.
इस के पीछे उन का मकसद सवर्णों की बराबरी का वहम पाल लेना भी है, उलट इस के, दबंगों का मकसद उन से भी ज्यादा साफ है कि दलित ऐसा कोई काम न करें जिस से वे उन की बराबरी करते दिखें, यानी उन्हें खुशी मनाने व अपने पैसों से खुशी हासिल करने का भी हक नहीं. सदियों से मानसिकता तो यही है कि दलित हर काम में सवर्णों से पिछड़े रहें और कभी किसी कर्म से अगड़ा बनने की कोशिश करें तो उन्हें लतियाओ और इतना हताश कर दो कि वे सिर उठा कर चलने की हिम्मत ही न करें.
गांवदेहात तक सिमटा कहर
इस में शक नहीं कि दलित दूल्हों को घोड़ी पर न चढ़ने देने के सौ फीसदी मामले गांवों से ही देखने में आते हैं. शहरों में न के बराबर ऐसा होता है. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि दलितों को संविधान में वर्णित समानता का अधिकार मिल गया है. दरअसल शहरों का माहौल अलग है जहां कोई किसी से मतलब नहीं रखता. व्यस्त होती जिंदगी में किसी के पास इतनी फुरसत भी नहीं कि वह दूल्हों का सेहरा उठाते उन की जातपांत पूछे. लेकिन यह भी सच है कि शहरों में भी गांवों की तरह दलितों की बस्तियां अलग हैं और आमतौर पर दलित शहरों की कालोनियों और अपार्टमैंटों में खुद को सहज नहीं महसूस करते हैं.
रमा अहिरवार इस की बेहतर मिसाल हैं जिन के पति को सरकारी मुलाजिम होने की वजह से भोपाल के रिहायशी इलाके में सुकून से रहने दिया जा रहा है लेकिन होलीदीवाली जैसे तीजत्योहारों पर पड़ोसी उन के यहां न तो पकवान के थाल लाते हैं और न ही रमा उन के घर भेज पाती हैं. यानी हिंदू धर्म के इन 2 किनारों के बीच की दूरी पर बढ़ते शहरीकरण का इतना भर फर्क पड़ा है कि लहरों में कोई तूफान नहीं आएगा और उन के बीच की दूरी यथावत रहेगी.
यह सहूलियत उन सभी दलितों को मिली हुई है जो सरकारी नौकरियों में आ कर पैसे वाले छोटेबड़े साहब बन गए हैं. भोपाल के ही एक सरकारी कालेज के एक दलित प्रोफैसर के मुताबिक, ऐसे दलितों की संख्या उन की आबादी का आधा फीसदी भी नहीं है. इन दिनों सवर्ण बड़े जोश के साथ यह गिनाने से नहीं चूकते कि अब छुआछूत और जातिगत अत्याचार व प्रताड़ना बंद हो गए हैं. एक फैलाई गई खुशफहमी में जी रहे इन लोगों को दलित दूल्हों की दुर्दशा देख कर सोचना चाहिए कि फिर यह क्या है. बीते 20 वर्षों में हजारों दलित दूल्हों को बेइज्जती कर घोड़ी से खींच कर उतारना कौन सी समरसता है.
नए दौर के दबंग पिछड़े
गांवदेहातों से ऊंची जाति वाले, वजहें कुछ भी हों, पलायन कर चुके हैं. हर गांव में एकाध घर ही उन का दिखता है लेकिन पिछड़े वहां बड़ी तादाद में अभी भी बसे हुए हैं जो सवर्णों की गैरमौजूदगी में खुद को खुदा समझने लगे हैं. ये पिछड़े वही हैं जिन की गिनती धर्म के लिहाज से अछूत नहीं, बल्कि सछूत शूद्रों में होती है. खेतीकिसानी के अलावा ये पिछड़े छोटेबड़े कारोबार भी करते हैं. एक तरह से ये गांवों के माईबाप बन चुके हैं.
दलित दूल्हों पर जुल्मोसितम और कहर ढाने के 85 फीसदी मामलों में आरोपी यही होते हैं. इस तबके ने भी पीढि़यों तक ऊंची जाति वालों की अनदेखी और ज्यादती भुगती है, पर गांव की सत्ता हाथ में आते ही इन्होंने अपना रंग गिरगिट की तरह बदला और इफरात से भागवत और अखंड रामायण जैसे महंगे धार्मिक आयोजन गांवों में कराने लगे. ब्राह्मण धर्मगुरुओं ने इन से दक्षिणा डकार कर इन्हें ‘ज्ञान’ देना शुरू किया तो उस का एक कहर दलित दूल्हों पर भी टूटा.
पिछड़ों के पास दलितों से कहीं ज्यादा पैसा है और वे शिक्षित भी ज्यादा हैं लेकिन सामाजिक पहचान के लिए इस वर्ग ने सवर्णों वाला रास्ता चुना कि दलितों को शान से रहने और सिर उठा कर जीने का कोई हक नहीं और अब यह जिम्मेदारी उन की है कि वे यह ‘अधर्म’ न होने दें. लिहाजा, उन्होंने उन्हीं तरीकों से दलितों को सताना शुरू कर दिया जिन से कल तक सवर्ण सताया करते थे. यह गोरखधंधा शहरी लोगों को बिना गांवों में कुछ दिन बिताए समझ आ जाएगा, यह कहने की कोई वजह नहीं.
मध्य प्रदेश कांग्रेस के महासचिव युवा नेता जसवीर सिंह गुर्जर दलित दूल्हों की दुर्दशा का जिम्मेदार मनुवादी व्यवस्था को ठहराते कहते हैं. यह असल में राजनीति और धर्म का घालमेल है और इस बाबत पिछड़ों को सवर्णों की शह मिली हुई है कि वे गांवदेहातों से उन की छोड़ी सत्ता पर दबंगई के बूते पर काबिज हो जाएं.
जसवीर के मुताबिक, अब दलित भी जागरूक हो रहे हैं. घुड़चढ़ी के फसाद इसी की देन हैं. ज्यादा नहीं, अब से 25 वर्षों पहले जब गांवों में सवर्णों की तूती ब्राह्मणबनिया गठजोड़ के चलते बोलती थी तब दलित युवा घोड़ी पर बैठ कर बरात निकालने की सोचता भी नहीं था लेकिन अब बड़े पैमाने पर सोचने लगा है. सो पिछड़ों को अपनी बादशाहत डगमगाती नजर आने लगी है और वे दलितों के प्रति ज्यादा आक्रामक होने लगे हैं. कोई भी दलित दूल्हों से उन का यह हक छीन नहीं सकता.
आईपीएस दूल्हा भी डरा
जसवीर मानते हैं कि ऐसा कांग्रेस शासित राज्यों में भी होता है लेकिन वहां सख्ती ज्यादा है. राजस्थान सरकार ने प्रशासन को निर्देश दिए हैं कि ऐसे मामलों पर कोई नरमी न बरती जाए लेकिन उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश और गुजरात की भाजपा सरकारों ने ऐसी कोई पहल नहीं की है जिस से सभी मामले सामने ही नहीं आ पाते. भगवा राज में दबंगों के हौसले बुलंद हो जाते हैं.
साफ दिख रहा है कि वे अपनी पार्टी का बचाव करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं क्योंकि 16 फरवरी को ही राजस्थान का एक और गांव पुलिस छावनी में तबदील हो गया था. इस बार दूल्हा कोई ऐरागैरा नहीं, बल्कि एक आईपीएस अधिकारी सुनील कुमार धनवंता थे, जिन की बरात जयपुर के गांव जयसिंहपुरा से सूरजपुरा गांव गई थी.
सुनील कुमार को पुलिस के बड़े अधिकारी होने के बाद भी डर था कि दबंग बिंदोरी रस्म, जिस में दूल्हा अपने गांव में निकलता है, के लिए उन्हें घोड़ी पर नहीं बैठने देंगे, लिहाजा उन्होंने भी प्रशासन से पहले ही सुरक्षा मांग ली थी जोकि उन्हें मिली और बरात में पुलिस वाले व अधिकारी ज्यादा थे.
क्या गलत हैं दलित दूल्हे
एक पुराना और चलताऊ शेर है कि- फलक को जिद है जहां बिजलियां गिराने की, हमें भी जिद है वहीं आशियां बनाने की.
यह शेर दलित दूल्हों पर एकदम फिट बैठता है जो कम से कम घुड़चढ़ी के मामले में तो सवर्णों के सामने झुकना नहीं चाहते फिर भले ही उन्हें पुलिस के साए में बरात निकालनी पड़े. क्या इस से वे सवर्ण हो जाएंगे या उन्हें इज्जत मिलने लगेगी, इस पर गंभीरता से सोचा जाना जरूरी है. निष्कर्ष यही निकलेगा कि ऐसा कुछ नहीं होगा और उन का दलितपना यानी सामाजिक हैसियत ज्यों की त्यों रहेगी.
हालांकि मध्य प्रदेश के भूतपूर्व दलित वरिष्ठ विधायक फूल सिंह बरैया कहते
हैं, ‘‘दलितों को कतई मंदिर में नहीं जाना चाहिए और कर्मकांडों से भी दूर रहना चाहिए क्योंकि इस से उन का कोई भला नहीं होने वाला. लेकिन दलित दूल्हों के घोड़ी चढ़ने पर यह बात लागू नहीं होती. वजह, यह एक गैरधार्मिक मसला है. मंदिर जाते वक्त कोई दलित पुलिस प्रशासन से गुहार नहीं लगाता कि हमें सुरक्षा दो, लेकिन यह एक पुरानी रस्म है जो सवर्णों में ही होती थी.’’
‘‘बात नकल की नहीं है,’’ वे कहते हैं, ‘‘क्योंकि अब कुछ दलित भी इसे अफोर्ड कर सकते हैं.’’ पहले दलितों की बरात बड़ी सिंपल होती थी. वे मीलों पैदल चलते थे और रास्ते में बना व खा लेते थे. अब अगर कुछ दलितों को घोड़ी रास आने लगी है, वे महंगे होटलों और रिसोर्टों में शादी करने लगे हैं, रेमंड्स का सूट, डैनिम की टाई और रैड चीफ के जूते पहनने लगे हैं, सिर पर साफा बांधने लगे हैं तो हर्ज और एतराज किस बात का. कल को अगर ये दबंग उन के अच्छे कपड़ों, कारों और एसी, फ्रिज लैपटौप वगैरह पर भी मनुवादी कायदेकानून, भारतीय कानून तोड़ते हुए, थोपने लगेंगे तब क्या कहा जाएगा. क्या यह कि, नहीं, दलितों को ऐसा नहीं करना चाहिए.
‘‘क्या कोई दलित औरतों, खासतौर से दुलहन, के ब्यूटीपार्लर जा कर मेकअप करवाने पर उन्हें जलील करेगा? तब भी क्या यही कहा जाएगा कि दलित दुलहनों को सजनासंवरना नहीं चाहिए क्योंकि इस से ऊंची जाति वालों को तकलीफ होती है, उन की तौहीन होती है.’’
तल्खी से फूल सिंह अपनी बात को आगे बढ़ाते कहते हैं, ‘‘मेरी राय में तो दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठ कर बरात निकालनी चाहिए क्योंकि इस में पंडे और मंत्रोच्चारण वगैरह की जरूरत नहीं पड़ती. हां, दलितों को कुरीतियों व अंधविश्वासों से परहेज करना चाहिए, किसी ऐसी रस्म या रिवाज से नहीं जिस में धर्म और ब्राह्मण का कोई रोल न हो.’’
नए साल में 15 फरवरी तक कोई दर्जनभर मामले दलित दूल्हों की घुड़चढ़ी पर फसाद पैदा होने के उजागर हो चुके थे. ऐसे मामलों की तादाद तय है सैकड़ोंहजारों में होगी जिन में रिपोर्ट दर्ज ही नहीं हुई या दलितों की हिम्मत ही दबंगों के डर के चलते दूल्हे को घोड़ी पर बैठाने की नहीं पड़ी होगी.
उजागर मामलों में सभी दूल्हे शिक्षित और जागरूक थे और हर जगह दलित समुदाय एकजुट था. इस से लगता है कि दलित दूल्हों को रोका नहीं जा सकता. लेकिन यह भी तय है कि तभी तक जब तक पुलिस उन का साथ दे रही है और जब पुलिस प्रशासन मुंह फेर लेगा, उस दिन कोई भगवान भी दलित दूल्हों व उन की घोड़ी के लिए कुछ नहीं कर सकेगा.