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रणवीर सिंह के न्यूड फोटो: आखिर इतना हंगामा क्यों है बरपा ?

2010 में ‘यशराज फिल्मस’’ की फिल्म ‘‘बैंड बाजा बारात’’ से अभिनय कैरियर की शुरूआत करने वाले रणवीर सिंह फिल्मी परदे पर ही नहीं बल्कि निजी जीवन में भी हरफन मौला व मस्तमौला ही नजर आते हैं. मैं अपने 40 वर्ष के फिल्म पत्रकारिता के कैरियर में रणवीर सिंह जैसा सुलझे और विनम्र इंसान कलाकार से नहीं मिला. मुझे अच्छी तरह से याद है, जब एक बार फिल्म के पी आर ओ की गलती के लिए भी रणवीर सिंह ने खुद मुझसे माफी मांगी थी. वह हमेशा अपनेपन के भाव से मिलते रहे हैं.लेकिन कोविड के बाद ‘83’ और ‘जयेशभाई जोरदार’ के बाक्स आफिस पर बुरी तरह से पिटने के बाद रणवीर सिंह इन दिनों एक सिंगापुर की पत्रिका के लिए ‘न्यूड फोटो’/नग्न तस्वीरें खिंचवाने को लेकर सूर्खियों में है. मीडिया के अनुसार सिंगापुर की पत्रिका के लिए फोटोग्राफर आशीष शाह ने रणवीर सिंह की नग्न तस्वीरे मुंबई के महबूब स्टूडियो में महज तीन घंटे के अंदर खींची और इस बात का पूरा ख्याल रखा कि यह सभी तस्वीरें कलात्मक हों.

मगर कुछ लोगों की राय में अब रणवीर सिंह अपनी असफलता को पचा नहीं पा रहे हैं. तो कुछ लोग मानते हैं कि अपनी असफलता से हर किसी का, खासकर अपने प्रशंसकों का ध्यान हटाने के लिए एक नया शगूफा रचते हुए रणवीर सिंह ने ‘न्यूड फोटो सेशन’ करवाकर उसकी फोटो सोषल मीडिया पर वायरल कर दी. जबकि रणवीर सिंह कैंप ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि यह रणवीर सिंह जैसा साहसी कलाकार ही कर सकता है.मतलब यह कि बौलीवुड के कई कलाकार और टीवी इंडस्ट्री से जुड़े कई कलाकार आगे बढ़कर रणवीर सिंह की प्रशंसा मे कसीदें पढ़ते नजर आ रहे हैं.

मतलब बौलीवुड में जितने कैंप उतने तरह की बातें हो रही हैं.तो वहीं धर्म आदि को लेकर असहि-ुनवजयणु हो रहे भारत में रणवीर सिंह के इस कृत्य को कुछ अलग नजरिए से देखा जा रहा है. इसी वजह से मुंबई की एक एनजीओ से जुड़े भाजपा नेता अखिलेश चौबे ने रणवीर सिंह के इस कृत्य के खिलाफ आईपीसी की धाराओं 292,293, 509 व आईटीएक्ट 67 ए के तहत एफआई आर दर्ज करा दी है. तो वहीं मुजफ्फरपुर,बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता एम राजू नैय्यर ने स्थानीय कोर्ट में रणवीर के खिलाफ भावनाओं को ठेस पहुंचाने और महिलाओं की मर्यादा के अपमान करने की शिकायत दर्ज करवाई. सूत्रों की माने तो राजू के वकील मनोज कुमार ने बताया कि अदालत पांच अगस्त को इस मामले पर सुनवाई करेगी.

मगर अहम सवाल है कि रणवीर सिंह के इस कृत्य से किसे नुकसान हुआ?अभिनेता रणवीर सिंह ने अपने कपड़े उतारें हैं.किसी को पैसे या धमकी देकर उसके कपड़े नहीं उतरवाए हैं.यदि रणवीर सिंह की इन ‘नग्न तस्वीरे’ पर गौर फरमाया जाए तो इसमें न अश्लीलता है और न ही यह असामाजिक. कृत्य है. रणवीर सिंह के न्यूड फोटो में उनके गुप्तांग व अति नाजुक अंग छिपे हुए हैं.जिन अंगों को सेक्स क प्रतीक माना जाता है, वह किसी भी तस्वीर में नजर नही आते. जब कुंभ मेले या कुंभ स्नान में सभी नागा साधु पूरी तरह से नग्न और अपने ‘गुप्तांगो’ का प्रदर्शन करते हुए सड़क पर आम लोगों के बीच से गुजरते हैं,तब तो उन पर अश्लीलता फैलाने या महिलाओं की भावनाएं आहत करने का आरोप नहीं लगता.,

क्या रणवीर सिंह ने अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर या इंटरनेट पर किसी भी इंसान से कपड़े उतारने का आव्हान किया है? क्या उन्होंने इन तस्वीरों को बीस व-साल से छोटे बच्चों को अपनी यह तस्वीरें बेची हैं? ऐसा कुछ भी नहीं है.रणवीर की इन नग्न तस्वीरों में किसी भी कोण से कामुकता नही उभरती,जिससे लोगों की सेक्स भावना भड़के.रणवीर सिंह ने पुरूष या महिला किसी से उनका कोई हक भी नही छीना. यदि इस कृत्य से रणवीर सिंह को सिंगापुरकी पत्रिका से धनराशि मिली है, तो वह भी गुनाह नही है. हमारा संविधान हर इंसान को अपनी सोच, समझ, ज्ञान व ताकत के अनुसार काम कर धन कमाने का हक देता है.

क्या हम इस बात से इंकार कर सकते हैं कि भारत जैसे देश में हर फैशन शो में हिस्सा लेने वाला मॉडल,फिर चाहे व पुरूष हो या महिलाए, सभी अति कामुक प्रदर्शन करते नजर आते है और वहां मौजूद हर शख्स तालियां बजाता है. तो यह दोहरा मापदंड नही है?जबकि रणवीर सिंह की तस्वीरों में कामुकता नही है.

इन नग्न तस्वीरों में रणवीर सिंह को एक कालीन और गुलाब की पंखुड़ियों के बिस्तर पर लेटे हुए देखा गया है. कुछ श्वेतृश्याम तस्वीरों में रणवीर सिंह काले रंग की पोशाक पहने हुए मूर्तियों की मुद्रा में प्रहार करते नजर आते हैं, जैसे कि प्राचीन भारतीय मूर्तिकला से प्रेरणा ले रहे हों. मगर हर तस्वीर कलात्मक है और वह अंग छिपे हुए हैं, जिन्हें छिपाने के लिए ही मूलतः लोग कपड़े पहनते हैं.तभी तो उनकी इन तस्वीरों को उनके इंस्टाग्राम पेज पर 25 लाख से भी अधिक बार पसंद किया जा चुका है.

हकीकत में इन नग्न तस्वीरों में भी रणवीर सिंह को गहन मनोदशा में दिखाया गया है. यह उसी तरह से है, जैसे उसने कुछ कलात्मक बनाने के विचार के लिए खुद का आत्मसमर्पण कर दिया हो. वास्तव में रावीर सिंह ने इस कृत्य से अमरीकी सेक्स सिंबल बर्ट रेनॉल्ड्स के रिकार्ड को तोड़ते हुए इस धारणा को भी तोड़ा है कि सिर्फ पुरूष वर्ग महिलाओं की नगन तस्वीरे देखने का इच्छुक होता है. इतना ही नही रणवीर सिहं के ‘न्यूड फोटो सेशन’/नग्न तस्वीर खिंचवाने के घटनाक्रम को सम-हजयने के लिए लोगो को रणवीर सिंह व उनके व्यक्तित्व को भी समझना होगा.

न्यूड मूज और न्यूड मॉडल का रहा है चलन

भारत ही नहीं पूरे विश्व में ‘न्यूड मूज’ का चलन रहा है.लगभग हर बड़े पेंटर ने न्यूड फोटो पेंटिंग्स बनायी हैं और यह पेंटर तस्वीरों को कागज पर उतारते समय अपने सामने नग्न महिला या नग्न पुरूष को बैठाते रहे हैं,जिन्हे ‘न्यूड म्यूज’ की ‘न्यूड मंडल’ की संज्ञा दी जाती रही हैं. उन पर कभी अश्लीलता का आरोप नहीं लगा. क्योंकि इसे ‘कला’ का एक फार्म माना जाता है.इसी तरह कुछ फोटोग्राफर भी न्यूड माडल को सामने बैठाकर न्यूड फोटो खींचते हैं

नग्न तस्वीरों के पीछे की सोच

2010 में फिल्म ‘बैंड बाजा बारात’’ से बौलीवुड में कदम रखने वाले अभिनेता रणवीर सिंह कभी भी प्रयोग करने से नहीं कतराते. वह अपने किरदार के पहनावे से लेकर फिल्मो से जुड़े विविध कार्यक्रमों का हिस्सा बनते समय भी अक्सर अजीबो गरीब पोषाक पहनते रहे हैं. हालिया प्रदर्षित असफल फिल्म ‘‘जयेशभाई जोरदार’’ के ट्रेलर लांच फंक्शन में वह अजीबो गरीब तरह का पायजमा व कुर्ता पहनकर पहुंचे थे.पायजामा का नाड़ा लटकता नजर आ रहा था.

तो वहीं फिल्म ‘‘लाइगर’’ के ट्रेलर लांच के अवसर पर स्पेशल मेहमान की

हैसियत से रणवीर सिंह जिस तरह की पोषाक पहनकर पहुंचे और स्टेज पर जिस तरह की हरकतें की,वह हर कलाकार के वष की बात नहीं है. मगर रणवीर सिंह खुद को हरफनमौला व मस्त मौला इंसान व कलाकार मानते हैं.

आत्मविश्वासी रणवीर सिंह अपनी कामुकता को लेकर सदैव सहज रहे हैं.अपनी -रु39याादी के दौरान वह एक खूबसूरत अनारकली पोषाक में खु-रु39याी से -हजयूम उठे थे,उसमें उनकी खूबसूरत दुल्हन व अभिनेत्री दीपिका पादुकोण भी दिखीं थीं.तो वहीं ‘कॉफी विद करण’ के नए सीजन के शुरूआती एपिसोड में उन्होंने सह कलाकार आलिया भट्ट के साथ जिस तरह से चंचल व नाटकीय नजर आए थे, उसे देखकर भी कुछ लोगो ने कहा था कि वह तेजी से ब-सजय़ते असहि-ुनवजयणु भारतीय समाज की हैकिंग कर रहे हैं.

नग्न तस्वीरें खिंचवाना किसी भी इंसान के लिए कभी भी सहज कार्य नहीं हो सकता. हर इंसान अपने षरीर को लेकर काफी चैकन्ना रहता है.दूसरों के सामने अपने शरीर को सुडौल बनाए रखने के लिए वह कई तरह के कर्म करता है.

अपने शरीर की कमियों को छिपाने वाली पोषाकें पहनना पसंद करता है.कोई भी इंसान अपने शरीर के कपड़े परिवार के सदस्यों के सामने भी निकालने में हिचकिचाता है.ऐसे में पूर्ण नग्न होकर तस्वीरें खिंचवाना कभी भी सहज या आसान काम नही माना जा सकता.इतना ही नही धर्म जनित सोच के कारण भेड़चाल में चलना कोई अद्भुत बात नहीं है. अद्भुत तो अलग रास्ता अपनाना है. और अभिनेता रणवीर सिंह ने उस अद्भुत राह को अपनाने के साथ ही समाज को चुनौती देने का साहस भी दिखाया है.और उनके इस साहस की खुले मन से सराहा जाना चाहिए.

सिंगापुर की पत्रिका के लिए अभिनेता रणवीर सिंह की इन नग्न /न्यूड तस्वीरें खींचने वाले फोटोग्राफर आ-रु39याी-ुनवजया -रु39यााह ने फोटो-रु39याूट करने का अपना अनुभव कुछ अंग्रेजी के अखबारों के साथ साझा किया है. उन्होंने खुलासा किया कि रणवीर सिंह के ही कहने पर उन्होंने यह लगभग तीन घंटे के अंदर खींचे थे. और वह -रु39याुरू से ही एक-ंउचयदूसरे के साथ सहज थे. आषी-ुनवजया षाह ने कहा है-ंउचय“रणवीर -रु39यार्मीले नहीं हैं.हमारे बीच एक दूसरे के लिए बड़ा और स्वस्थ आपसी सम्मान था.मु-हजये लगता है कि वह मेरे काम से परिचित थे.

ईमानदारी से कहूं तो मैं किसी सेलेब्रिटी को तब तक शूट करना पसंद नहीं करता,जब तक कि हम दोनों एक-दूसरे के बारे में सुनिश्ति न हों.रणवीर अपनीबॉडी को लेकर काफी कंफर्टेबल थे.यह बहुत अच्छा था कि रणवीर जैसा बहुमुखी अभिनेता मुझे अपनी दृ-िुनवजयट के अनुरूप -रु39याूटिंग करने की अनुमति दे रहा था.जब सेलिब्रिटी की बात आती है,तो अक्सर यह सब सेलिब्रिटी के बारे में होता है.जब आप उनके आस-पास होते हैं तो एक निशिचत तरीका होता है कि आपको होना चाहिए.लेकिन जब मैं रणवीर के साथ था तो ऐसा नहीं था.हमने वास्तव में रणवीर सिंह के साथ उनके द्वारा अभिनीत फिल्मों के बारे में भी बातकी.हमने जो भी किया,उसमें कहीं कोई अष्लीलता नही है.मगर हमारे देष का

एक वर्ग हमेशा हर बात पर उंगली उठाता ही है.’’

नग्न तस्वीर खिंचवाने का निर्णय आनन फानन में किया गया कृत्य नहीं

रणवीर सिंह की आलोचना कर रहे लोगों को पता होना चाहिए कि रणवीर सिंह के लिए इस कदम को उठाना आसान कदापि नही रहा होगा.इसकी कई वजहें हैं.पहली बात तो उन्हे पता है कि यदि यह ‘अष्लील’ हुआ,तो उन्हे ही सबसे अधिक आर्थिक नुकसान होगा. उनके पास जितने ब्रांड हैं,जिनसे उन्हे हर वर्ष कई करोड़ की कमायी होती है, वह सारे ब्रांड उनके हाथ से छिन जाएंगे.

कटु सत्य यह है कि कोई भी इंसान कभी भी आर्थिक नुकसान नहीं उठाना चाहता. इसके अलावा रणवीर सिंह ‘यषराज फिल्मस’ के टैलेंट मनेजमेंट का हिस्सा हैं.ऐसे में उन्हें अपने इस कदम को लेकर ‘यशराज फिल्मस’ के टैलेंट मैनेजमेंट से जुड़े लोगों व ‘यशराज फिल्मस’ के कर्ताधर्ता आदित्य चोपड़ा को भी विश्वास में लेना पड़ा होगा. कहने का अर्थ यह कि ‘नग्न’ फोटो खिंचवाने से यदि किसी को नुकसान होना है,तो सिर्फ अकेले रणवीर सिंह को ही होना है.मगर उन्होने इस चुनौती को स्वीकार किया.रणवीर सिंह को भी इस बात का अहसास रहा होगा कि इस वक्त दो का मूड़ जिस तरह का है,उसके चलते कई लोग उनके खिलाफ खड़े हो जाएंगे.इसके बावजूद रणवीर सिंह ने समाज को चुनौती दी.जब हम यह मानते हैं कि हर इंसान को अपनी पसंद की पोषाक पहनने का हक है तो हर इंसान का यह अपना निजी मसला है कि वह अपने शरीर के कपड़े उतारे या न उतारे. महज शरीर के कपड़े उतारने में कोई अष्लीलता नही है. एक इंसान उपर से नीचे कपड़ों से सजयंका रहकर भी अपनी हरकतों से अष्लीलता को परोस सकता है.

नग्न तस्वीरें: रणवीर ने तोड़ा पचास साल पहले का अमरीकी सेक्स सिम्बॉल बर्ट रेनॉल्ड्स का रिकार्ड

सिंगापुर की पत्रिका के लिए नग्न तस्वीरें खिंचवाकर रणवीर सिंह ने कुछ भी नया नहीं किया है. बल्कि उन्होंने अमरीकी सेक्स सिम्बॉल बर्ट रेनॉल्ड्स के रिकार्ड को तोड़ा है. जी हां! लगभग आधी सदी पहले कॉस्मोपॉलिटन पत्रिका के अप्रैल 1972 के अंक के अंदर मध्य पृ-ुनवजयठ के लिए अमरीकी सेक्स सिंबल बर्ट रेनॉल्ड्स ने नग्न तस्वीर खिंचवाई थी. उस वक्त पत्रिका के तत्कालीन संपादक हेलेन गुरली ब्राउन ने बर्ट रेनॉल्ड्स की नग्न तस्वीरों को पत्रिका के अंदर के मध्य पृ-ुनवजयठों /सेंट्ल स्पे्रड में छापने का निर्णय इस प्रचलित धारणा को तोड़ने के लिए लिया था कि केवल पुरु-ुनवजया, महिलाओं के नग्न -रु39यारीर की तस्वीरें देखना चाहते हैं.इस तरह की धारणा ने महिलाओं की इच्छा को दरकिनार कर दिया और पुरु-ुनवजयावादी दृ-िुनवजयट से परे नहीं गई. उन्होंने संदेश दिया था कि महिलाएं भी पुरूष के नग्न षरीर को देखना पसंद करती हैं. अमरीकी सेक्स सिंबल बर्ट रेनॉल्ड्स ने तो पत्रिका के अंदर के पृष्ठ के लिए ‘नग्न’ तस्वीर खिंचवायी थी,मगर रणवीर सिंह ने पत्रिका के कवर पेज/मुख्य पृष्ठ के लिए खिंचवा कर अदम्य साहस का पचिय दिया है.

रणवीर सिंह का विरोध करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि नग्नता हमारी कलात्मक अभिव्यक्ति और नवीनता का केंद्र रही है, जैसा कि सदियों से मंदिर की वास्तुकला में देखा गया है. फिर चाहे वह खजुराहों की गुफाओं में मौजूद शिल्प हो अथवा अजंटा एलोरा की गुफाओं मौजूद शिल्प हो. कला को ‘नग्नता’ की सीमाओं में कैद कर देखने की भारतीय परंपरा कभी नहीं रही है.

नग्न तस्वीरों को लेकर हंगामा उठनाः कुछ भी अनूठा नहीं

बौलीवुड से जुड़ी कुछ हस्तियों ने रण्वीर सिंह के ‘न्यूड फोटो सेशन’ को ‘‘साहसी‘‘ और ‘‘हॉट‘‘ की संज्ञा दी है.जबकि रणवीर सिंह ने कोई अभूतपूर्व कदम पनही उठाया है. क्या हम इस बात को भूल गए कि भारतीय पुरुष हस्तियों ने दशकों से कैमरे के लिए कपड़े उतारे हैं. मिलिंद सोमन ने 1990 में एक जूता ब्रांड की बिक्री बढ़ाने के लिए ऐसा किया था,जिसके लिए उन पर अदालती काररवाही पर अंततः अदालत ने उन्हे सारे आरोपों से बरी कर दिया था.

नवंबर 2020 में अपना 55 वां जन्मदिन मनाने के लिए मॉडल व अभिनेता मिलिंद सोमण ने गोवा के एक समुद्र तट पर नग्न दौड़े और उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल की थी.लोकप्रिय अभिनेता जैकी श्रॉफ और अनिल कपूर को उनके जन्मदिन के सूट में फोटो खिंचवाया गया, हालांकि उनके निजी अंगों को क्रमश एक सर्फिंग बोर्ड और एक अखबार से -सजयंका गया था. 2014 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘पीके’’ एलियन की भूमिका में आमिर खान बिना कपड़ों के धरती पर उतरते हैं और अपने गुप्त अंगों को सजयंकने के लिए एक ट्रांजिस्टर -सजयूं-सजयते हैं.उनकी इस नग्न तस्वीर को फिल्म के प्रचार पोस्टर का हिस्सा बनाया गया था,तब किसी को तकलीफ नही हुई थी.

फिल्म‘डर्टी पिक्चर्स’ में सिल्क स्मिता के किरदार को निभाने पर विद्या बालन के खिलाफ एफआई आर दर्ज हुई थी.इसका क्या हुआ कुछ पता नही. 2007 में नव वर्ष के जश्न में अष्लील परफार्मेंस के लिए मल्लिका शेरावत पर मुकदमा दर्ज हुआ था. 2011 मंे सेषन कोर्ट ने उन्हे बरी कर दिया था.2006 में एक पत्रिका में छपी तस्वीरों को लेकर शिल्पा षेट्टी पर मदुराई में मुकदमा हुआ था,पर अदालत ने 2008 में उन्हे बरी कर दिया था.फिल्म ‘रोग’ के कुछ दृष्यों को लेकर पूजा भट्ट पर जुलाई 2005 में मुकदमा दर्ज हुआ था,अदालत ने नवंबर 2012 में उन्हे बरी कर दिया था.

बौलीवुड कलाकार उतरे समर्थन में

रणवीर सिंह के साथ फिल्म ‘‘गली ब्वॉय’’ में अभिनय कर चुकी तथा करण जोहर निर्देशित फिल्म ‘‘रौकी और रानी की प्रेम कहानी’’ में अभिनय कर रही आलिया भट्ट ने रणवीर सिंह के न्यूड फोटो पर कहा-ंउचय‘‘इसमें कुछ भी नकारात्मकता नही है.’’तो वहीं फिल्मकार राम गोपाल वर्मा ने सवाल उठाया-

‘‘यदि लड़कियां /औरतें वस्त्र उतार सकती हैं,तो रणवीर सिंह क्यों नहीं?’

अर्जुन कपूर भी रणवीर सिंह के समर्थन में बयानबाजी कर रहे हैं.विज्ञापन फिल्म बनाने वाले प्रह्लाद कक्कड़ के अनुसार रणवीर सिंह ने विदेषी पत्रिका के लिए फोटो शूट करवाया है, इसलिए भी कोई मामला नही बनता.

फिल्मकार ओनीर का मानना है कि सिर्फ भारत ही नही पूरे विश्व में नग्न शरीर की सुंदरता का जश्न मनाया जाता रहा है,तो फिर रणवीर सिंह के न्यूड फोटो को लेकर इतना हंगामा क्यों?

बहरहाल,रणवीर सिंह के नग्न/न्यूड फोटो को लेकर जबरदस्त हंगामा मचा हुआ है.मामला पुलिस से अदालत तक भी पहुंच रहा है.अब इस अदालत क्या निर्णय लेती है,यह तो वक्त बताएगा.मगर इस सच से इंकार नही किया जा सकता कि रणवीर सिंह की इन नग्न तस्वीरों में कामुकता की बजाय ‘कला’ का एक फार्म है.और अब तक कला को नग्नता के चष्मे से नही देख गया.इसके अलावा रणवीर सिंह ने इन तस्वीरों को बीस वर्ष से कम उम्र के बच्चे को बेचा भी नही है.वह किसी से जबरन इन तस्वीरों को देखने के लिए नही कह रहे हैं.बल्कि रधवीर सिंह ने विपरीत धारा में बहने का साहस जरुर दिखाया है.

क्या है अश्लीलता कानून

भारतीय दंड संहिता की धारा 292 में अश्लीलता को परिभाषित किया गया है. जिसमें अश्लीलता उस कृत्य को माना गया है जिसके जरिए लोगों की सेक्स को लेकर भावना भड़क जाए. अश्लीलता किसी किताब में, किसी अखबार में, किसी आकार में, किसी कैनवास पर, या किसी फोटो में किसी वीडियो में हो सकती है. इसके अलावा अश्लीलता शब्दों में भी हो सकती है.यहां तक कि वाट्स ऐप चैट के जरिए ऐसे कंटेट भेजना अशलीलता के दायरे में आ सकता है. हालांकि अगर कोई ऐसा काम किसी धर्म से जुड़ा है, किसी विज्ञान से जुड़ा है और किसी कला से जुड़ा है,तो उसे अश्लील नहीं माना जाएगा.

धारा 293 के तहत 20 वर्ष से कम आयु के किसी युवा व्यक्ति को अश्लील वस्तुओं को विक्रय करना भारतीय दंड सहिंता की धारा 293 के अंतर्गत दंडनीय अपराध है.

धारा 509 में महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने के इरादे से -रु39याब्द कहना, इ-रु39याारा करना या किसी कृत्य को अंजाम देने के आधार पर कार्रवाई की जाती है.

इसी तरह सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67 (ए) के तहत अ-रु39यलील सामग्री को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने पर कार्रवाई की जाती है.

बाक्स आयटमःदो

कितनी सजा का प्रावधान

अलग-अलग धाराओं के लिए आरोप सिद्ध होने पर अलग-अलग सजा का प्रावधान है.धारा 292 के तहत पहली बार यह अपराध करने पर दो साल तक की सजा हो सकती है फिर दूसरी बार फिर अपराध करने पर पांच साल तक की सजा सुनाई जा सकती है और पांच हजार का जुर्माना भी लगाया जा सकता है.

धारा 509 का उल्लंघन करने पर तीन साल तक सजा हो सकती है. जबकि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67 (ए) के तहत अपराध सिद्ध होने पर 7 साल की सजा और 10 लाख तक का जुर्माना हो सकता है.

बाक्स आइटमः तीन ‘‘समाज को रोजाना महिलाओं की न्यूड तस्वीरें खिलाई जाती हैं और…

-स्वाती मालीवाल,अध्यक्ष, दिल्ली महिला आयोग

दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने अभिनेता रणवीर सिंह के न्यूड फोटोशूट का समर्थन करते हुए ट्वीट किया है-  ‘‘समाज में हर दिन महिलाओं की नग्न तस्वीरें दिखाई जाती हैं और किसी को कोई आपत्ति नहीं होती है. एक अभिनेता, जो खुद को सबसे अच्छी तरह से जानता है, नग्न होने का फैसला करता है और प्राइम टाइम बहस का विषय बन जाता है.क्या हम वहाँ हैं, जहां देश में कोई वास्तविक मुद्दा नहीं है?‘‘

बाक्स आइटमः चार

रणवीर सिंह: मानसिक कचरा

धर्म जनित सोच व असहि-ुनवजयणुता की ओर ब-सजय़ते समाज के नजारे के चलते रणवीर सिंह के न्यूड फोटो का विरोध सोषल मीडिया से अब सड़कों के साथ ही पुलिस स्टेशन तक पहॅंच गया है. मध्य प्रदेश के इंदौर षहर में जरुरत मर्दों को कपड़े व अन्य चीजें मुहैया कराने वाली सामाजिक संस्था ‘‘नेकी की दीवार’’ ने इंदौर के आदर्ष रोड पर एक कचरे का बड़ा डिब्बा रखा है.इस डिब्बे को नाम दिया गया है-ंउचय ‘‘मानसिक कचरा.’’ और इस डिब्बे के चारों तरफ रणवीर सिंह द्वारा वायरल की गयी उनकी न्यूड फोटो लगायी गयी हैं. और लिखा  मेरे स्वच्छ इंदौर ने ठाना है देश से मानसिक कचरा भी हटाना है.’’

इतना ही नहीं इस संस्था ने लोगों से आव्हान किया है कि लोग अपने नए पुराने कपड़े रणवीर सिंह तक पहुंचाने के लिए दान करें.

बाक्स आयटम. पांच

क्या कहते है कानून के जानकार

कानून के जानकारों की माने तो रणवीर सिंह ने कोई अपराध नहीं किया है.पत्रिका/ मीडिया ने रणवीर सिंह की नग्न तस्वीरें खीची हैं.जिन्हे रणवीर सिंह ने मुफ्त में सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है.जहां इन तस्वीरों को देखना किसी की भी बाध्यता /अनिवार्यता नहीं है.

बाक्स अयाटम: छह

‘‘हमें भी अपनी आंखें सेंकने दें..’’

-विद्या बालन

रणवीर सिंह के नग्न तस्वीरो के मसले पर एक कार्यक्रम में पत्रकारों से बातें करते हुए विद्या बालन ने कहा- ‘‘अरे क्या प्रॉब्लम है? पहली बार कोई आदमी ऐसा कर रहा है, ह म लोगो को भी आंखें सेंकने दीजिए ना (क्या समस्या है. एक आदमी इसे पहली बार कर रहा है, आइए हम भी इसका आनंद लें.)‘‘

रणवीर के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के बारे में पूछे जाने पर विद्या ने कहा- ‘‘ अगर किसी को तस्वीरों से ठेस पहुंची है, तो उन्हें इन तस्वीरों को नहीं देखना चाहिए.हो सकता है कि उनके (एफआईआर दर्ज करने वाले लोगों) के पास करने के लिए ज्यादा काम नहीं है, इसलिए वह इन चीजों पर अपना समय बर्बाद कर रहे हैं. अगर आपको यह पसंद नहीं है, तो पेपर बंद करें या इसे फेंक दें,जो आप चाहते हैं वह करें एफआईआर में क्यों पड़ते हैं?”

‘अनुपमा’ के सेट पर पारस कलनावत हुए पॉलिटिक्स के शिकार, पढ़ें खबर

टीवी शो ‘अनुपमा’ से पारस कलनावत की छुट्टी हो गई है. ये खबर फैंस के लिए कॉफी शॉकिंग  है. बताया जा रहा है कि अनुपमा के सेट पर पारस कलनावत  के साथ साजिश चल रही थी. आइए बताते हैं, क्या है पूरा मामला…

पारस कलनावत जल्द ही रियलिटी टीवी शो ‘झलक दिखला जा’ सीजन 10 में बतौर कंटेस्टेंट नजर आएंगे. एक इंटरव्यू के अनुसार पारस कलानवत ने बताया है कि सेट पर उनके साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता था, जो वह कैमरे के सामने बता भी नहीं सकते हैं.

 

सोशल मीडिया पर एक वीडियो सामने आया है, जिसमें पारस कलनावत ने बताया, पूरी कास्ट में मैं इकलौता ऐसा इंसान था जिसके फॉलोअर्स 1 मिलियन से भी ज्यादा हो गए थे. ये सब कास्ट में बहुत सहजता से नहीं लिया गया. उन्होंने आगे कहा कि कई सारे लोगों को ये बहुत ऑफेंसिव लगा कि हम इतने सालों से काम कर रहे हैं और ये 24 साल की उम्र में 10 लाख फॉलोअर्स सेलिब्रेट कर रहा है.

 

सेट पर पारस कलानवत के साथ एक अलग ही तरह का पॉलिटिक्स किया जाता था. एक्टर ने कहा कि मैं किसी के बारे में बुरा या गलत नहीं बोलना चाहता. क्योंकि हर किसी की अपनी जिंदगी, अपना तरीका होता है. उन्होंने ये भी बताया कि सीरियल में मेरे सीन्स भी कम किए गए थे.

 

महाराष्ट्र में उठा सियासी तूफान

रोहित

बीते दिनों महाराष्ट्र में सियासी घमासान मचने से उद्धव ठाकरे की राकांपा और कांग्रेस के साथ बनी महा विकास अघाड़ी सरकार गिर गई. सरकार गिराने का कंधा भले बागी शिंदे गुट का रहा पर बंदूक बेशक भाजपा की रही. इस सियासी उठापटक का अंत जरूर हो गया पर नई उठापटक शुरू हो गई है.

30 जून, गुरुवार का दिन, वह घड़ी जब महाराष्ट्र के सियासी बादल लगभग छंट गए. उद्धव ठाकरे ने एक दिन पहले ही अपने 31 महीने के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल से इस्तीफा दे दिया था. न्यूज चैनलों ने शाम के प्राइम टाइम में अपने कार्यक्रम की तयशुदा स्क्रिप्ट तैयार कर रखी थी, जिस में बागी विधायकों का एकनाथ गुट भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस के साथ मिल कर सा?ा सरकार बनाता दिख रहा था.

उसी शाम भाजपा और शिंदे मिल कर प्रैस कौन्फ्रैंस करते हैं. माथे पर लाल टीका, हमेशा की तरह उजले सफेद कमीज में शिंदे गंभीर और आत्मविश्वासी दिख रहे थे. कौन्फ्रैंस टेबल पर न्यूज चैनलों के दर्जनों माइक थे. काले माइक पर पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बोलना शुरू किया.

बोलते हुए उन्होंने महा विकास अघाड़ी सरकार, जिस में एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना का गठबंधन था, के बारे में कुछ पुरानी बातें कहीं और फिर ऐलान किया, ‘‘एकनाथ शिंदे होंगे महाराष्ट्र के अगले मुख्यमंत्री. भाजपा सरकार में उन का समर्थन करेगी पर मैं सरकार में नहीं रहूंगा.’’ फडणवीस के इस बयान से सब हैरान हो गए. इस बयान में 2 बातें अहम थीं, एक, पत्रकारों और आम दर्शकों के लिए शिंदे का सीएम पद का चौंकाने वाला ऐलान. दूसरी, फडणवीस का सरकार में न होने का उन का व्यक्तिगत फैसला.

खैर, वजह जो भी हो, महाराष्ट्र में 106 विधानसभा सीटों वाली भाजपा के सब से बड़े नेता देवेंद्र फडणवीस का यह निजी फैसला नाराजगीभरा था, जो उन्होंने व्यक्त भी किया. उस के तुरंत बाद भाजपा अध्यक्ष ने उन्हें सम?ाते हुए शांत किया कि बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व ने देवेंद्र फडणवीस से अनुरोध किया है कि वे सरकार का हिस्सा हों और राज्य के डिप्टी सीएम बनें, जिस के बाद गृह मंत्री अमित शाह ने भी ट्वीट किया, ‘‘फडणवीस सरकार में शामिल होने के लिए मान गए हैं.’’ अब डिप्टी सीएम के पद पर फडणवीस खुद को कितना संतुष्ट महसूस कर पा रहे हैं, यह तो पता नहीं पर इस से भाजपा ने एक तीर से कई शिकार एकसाथ कर दिए, जिन की चर्चा आगे की जाएगी.

11-दिन का सियासी संग्राम

महाराष्ट्र के सियासी ड्रामे पर बात करनी जरूरी है जिस पर कई अटकलों, संभावनाओं और पूर्वअनुमानों के 11वें दिन बाद आखिरकार एक दिन पूर्णविराम लग गया.

इस कहानी का यह क्लाइमैक्स जितना रोमांचभरा रहा, उतना ही रोमांच बीते 11 दिनों में देखने को मिला. इस प्रकरण में यह जरूर फिर से साबित हुआ कि भारतीय प्रतिनिधिक लोकतंत्र में जनता और नेता एकदूसरे से बिलकुल जुदा रहते हैं. इस ने यह भी बताया कि अगर ‘मनी, मसल और मैनुपुलेशन’ की ताकत आप के पास हो तो आप सबकुछ ताक पर रख कर कुछ भी कर सकते हैं.

इस की शुरुआत 20 जून को हुई जब शिवसेना के विधायक एकनाथ शिंदे 25 अन्य विधायकों के साथ गुजरात के सूरत पहुंचे, जिस के बाद उन्होंने उद्धव ठाकरे पर हिंदुत्व की विचारधारा से सम?ाता करने और एनसीपी व कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के प्रति नाराजगी जताई.

22 जून को शिंदे के साथ 40 विधायक असम के गुवाहाटी पहुंचे. हर साल बाढ़ में डूबने वाले असम का समय पहली बार अच्छा इसलिए रहा कि बाढ़ के मौके पर मीडिया की नजर बाढ़ पर नहीं बल्कि इन बागी विधायकों पर टिकी थी.

जवाब में उद्धव सरकार को शिवसेना की तरफ से 16 विधायकों को अयोग्य घोषित करने की मांग हुई. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. कोर्ट ने सुनवाई 11 जुलाई के लिए टाल दी पर पेंच राज्यपाल के फ्लोर टैस्ट कराने के बाद और फंसता चला गया.

1 जुलाई का शपथ ग्रहण समारोह यह बताने के लिए काफी था कि सूरत से ले कर गुवाहाटी, गोवा के पांचसितारा होटलों का पैसा और चार्टर्ड प्लेनों का फ्यूल कहां से आ रहा था?

‘बे’मेल गठबंधन

क्या वजह बनी

बात नवंबर 2019 की, जब शिवसेना को ठाकरे परिवार से पहला सीएम उद्धव ठाकरे के रूप में मिला था. उद्धव ठाकरे तीसरे शिव सैनिक थे जो मनोहर जोशी और नारायण राणे के बाद सीएम पद पर बैठे थे पर इस पद पर बैठने के लिए उन्हें 35 साल पुरानी अपनी सहयोगी पार्टी भाजपा से आखिरकार नाता तोड़ना पड़ा.

भाजपा से नाता तोड़ने के बाद हिंदुत्व के रास्ते पर चलने वाली शिवसेना ने नया गठबंधन बनाया. उस ने अपने से अलग विचारधारा रखने वाली कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) से गठबंधन किया.

यह पहली बार था कि कट्टर हिंदुत्व की छवि वाली शिवसेना ने ऐसी 2 पार्टियों के साथ गठजोड़ कर सरकार बनाई जिन के सैकुलर विचारों के खिलाफ शिवसेना संस्थापक बाला साहेब ठाकरे के विचार थे. अब मसला यह कि सरकार के टूटने में जिस तरह की उठापटक वाले घटनाक्रम से महाराष्ट्र को इस समय गुजरना पड़ा, ऐसी ही उठापटक के साथ महा विकास अघाड़ी सरकार की शुरुआत भी हुई थी.

2019 के विधानसभा चुनावों में कुल 288 विधानसभा सीटों वाले महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना ने गठजोड़ कर चुनाव लड़ा था, जिस में भाजपा 106 सीटें जीती व शिवसेना 56 सीटें जीत पाई. इस से पहले 2014 में दोनों ने अलगअलग चुनाव लड़ा जिस में भाजपा 122 और शिवसेना 63 सीटें जीती. वहीं 19 के विधानसभा चुनावों में राकांपा

54 और कांग्रेस 44 सीटें जीतीं.

मुख्यमंत्री की दावेदारी पर पेंच फंसने से भाजपा-शिवसेना का न सिर्फ गठबंधन टूटा बल्कि भाजपा को सत्ता से भी दूर रहना पड़ा. उस दौरान यह सवाल चर्चा में था कि सरकार में तारतम्य कैसे बैठ पाएगा? आज 31 महीने बाद एमवीए की सरकार गिरने के बाद इस का जवाब सब को मिल तो गया. अब आगे क्या होगा?

भाजपा-शिवसेना गठबंधन

बीजेपी-शिवसेना का पहली बार गठबंधन 1989 में हुआ था. तब भाजपा नेता प्रमोद महाजन के प्रस्ताव पर कहते हैं बाल ठाकरे ने मुंह से कुछ न बोल कर एक कागज पर लिख दिया, ‘शिवसेना 200 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और जो सीटें बचती हैं, उन पर बीजेपी लड़ ले.’ आधे घंटे से भी कम समय में फाइनल हुए इस गठबंधन में बात इस नोट पर खत्म हुई कि 1990 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना 183 और बीजेपी 104 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. इस चुनाव व आने वाले चुनावों में भले शिवसेना की सीटें भाजपा के मुकाबले ज्यादा आईं पर जीतने के प्रतिशत में वह भाजपा से लगातार पिछड़ती ही रही.

यह वह समय था जब महाराष्ट्र में बीजेपी शिवसेना की जूनियर पार्टी थी. आगे आने वाले कई चुनावों में, 2009 तक, भाजपा जूनियर ही रही.

कुल मिला कर पिछले 33 सालों में भाजपा न्यूनतम 42 से 106 सीटों पर पहुंच गई, जबकि शिवसेना अधिकतम 73 से घट कर 56 सीटों पर आ गई.

आगे की राह मुश्किल

महाराष्ट्र के इस पूरे सियासी प्रकरण में कांग्रेस और राकांपा की भी सत्ता से बेदखली हुई. देश का फाइनैंशियल पावरहाउस कहे जाने वाले महाराष्ट्र से इन दोनों पार्टियों का कंट्रोल खत्म हुआ पर जिस पार्टी को सब से ज्यादा हानि हुई वह शिवसेना है. ठाकरे सत्ता से बेदखल हुए, पार्टी में भारी टूटफूट मची और पार्टी अध्यक्ष ठाकरे का रुतबा शिव सैनिकों के बीच कमजोर होने के साथ शिवसेना पर उन की पकड़ ढीली हो गई.

भाजपा और शिंदे गुट ने जिस तरह इन 11 दिनों में हिंदुत्व के मोरचे पर ठाकरे सरकार को घेरा, उस ने पार्टी कैडरों के बीच असमंजस की स्थिति ला खड़ी कर दी है. इस में कोई शक नहीं कि भाजपा इस पूरे घटनाक्रम की बड़ी मास्टरमाइंड साबित हुई. उस ने एक तीर से कई निशाने साधे. बड़ा दिल दिखाते उस ने मुख्यमंत्री पद शिंदे को सौंपा. इस से उस की दूरदर्शी सोच ?ालक गई.

भाजपा ने यह भी साफ किया है कि वह शिंदे का समर्थन हिंदुत्व के मुद्दे के चलते कर रही है. यानी शिवसैनिकों को यह साफ मैसेज देने की कोशिश की गई कि शिंदे ही हिंदुत्व के मुद्दे को आगे बढ़ा रहे हैं और ठाकरे भटक गए हैं.

लोकतंत्र का मजाक

इन 11 दिनों में शिवसेना के अलावा जिसे सब से ज्यादा चोट पहुंची वह भारत का लोकतंत्र रहा. यह हौर्स ट्रेडिंग ‘लोकतंत्र ट्रेडिंग’ है.

शर्मनाक यह कि एक समय पर जब इस तरह की ट्रेडिंग हुआ करती थी, तब इसे लोकतंत्र पर घात माना जाता था, हौर्स ट्रेडिंग करने वाली पार्टी की फजीहत होती थी. लेकिन इस तरह की घटिया राजनीति को औपरेशन का नाम दे कर महिमामंडन किया जा रहा है. द्य

महाराष्ट्र के नए सीएम एकनाथ शिंदे

महाराष्ट्र की राजनीति में इस समय जिन नेता का नाम सब से ज्यादा लिया जा रहा है वे एकनाथ शिंदे हैं, जो 58 वर्ष के हैं. शिवसेना में उथलपुथल मचाने और 11 दिनों की अफरातफरी में ये नेता केंद्र में रहे हैं. सवाल यह कि शिवसेना, जिसे कट्टर कार्यकर्ताओं का दल कहा जाता है, में एकनाथ कैसे इतनी बड़ी ताकत बन गए कि दोतिहाई से अधिक शिवसेना विधायकों को अपने नियंत्रण में कर लिया और पार्टी अध्यक्ष व सीएम उद्धव ठाकरे को कानोंकान खबर न लगी.

महाराष्ट्र के सातारा में जन्मे एकनाथ शिंदे का परिवार 1970 में ठाणे पहुंचा जहां शिंदे ने अपनी पढ़ाई की. घर की आर्थिक तंगी के चलते पढ़ाई बीच में छोड़ वे औटो चलाने लगे. 1980 में वे शिवसेना के बालासाहेब ठाकरे से प्रभावित हुए थे, जिस के चलते वे शिवसेना पार्टी में शामिल हो गए. वे ठाणे-पालघर क्षेत्र में एक प्रमुख सेना नेता के रूप में उभरे और अपने आक्रामक दृष्टिकोण के लिए जाने गए. यही कारण है कि आगे जा कर उन्हें ठाणे का ठाकरे कह कर पुकारा गया. एकनाथ ने कई आंदोलनों में भाग लिया, जैसे कि बेलगौवी की स्थिति को ले कर महाराष्ट्र-कर्नाटक आंदोलन, जिस के लिए वे जेल में भी डाले गए.

कभी औटोचालक के रूप में काम करने वाले एकनाथ शिंदे ने 1997 में ठाणे नगरनिगम का पहला चुनाव लड़ा था और उन्हें जीत हासिल हुई. उस समय ठाणे पार्टी के अध्यक्ष आनंद दीघे थे जिन के एकनाथ शिंदे काफी करीबी माने जाते थे. उस बीच, 26 अगस्त, 2001 को शिंदे के राजनीतिक गुरु व सहारादाता आनंद दीघे का एक हादसे में निधन हो गया था. उन की मौत को आज भी कई लोग हत्या मानते हैं. कहा जाता है कि दीघे के निधन से शिवसेना के लिए ठाणे में खालीपन आ गया था और पार्टी का वर्चस्व कम होने लगा था. फिर समय रहते शिवसेना ने एकनाथ शिंदे को मौका दिया, उन्हें वहां की कमान सौंप दी और एकनाथ ने पार्टी से मिली जिम्मेदारी से ठाणे में शिवसेना का परचम लहराया. एकनाथ पर ठाणे की जनता ने भरोसा भी जताया और वे 2004, 2009, 2014 और 2019 के लिए लगातार 4 बार महाराष्ट्र विधानसभा के लिए चुने गए.

वर्ष 2014 के चुनावों के बाद उन्हें शिवसेना के विधायक दल के नेता और बाद में महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में चुना गया. एक महीने के भीतर जैसे ही शिवसेना ने राज्य सरकार में शामिल होने का फैसला किया, उन्होंने लोक निर्माण विभाग (सार्वजनिक उपक्रम) के मंत्री के रूप में शपथ ली और जनवरी 2019 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की अतिरिक्त जिम्मेदारी संभाली.

इस समय वे राज्य के मुख्यमंत्री हैं. एकनाथ शिंदे खुद को सच्चा बालासाहेब का विचारक मानते हैं. इस समय उन के कारण शिवसेना अगरमगर की स्थिति में आ खड़ी हुई है. भविष्य में शिवसेना किस रूप में रहेगी, इस पर संशय है. वह बचेगी या खत्म होगी, बचेगी तो किस के हाथ रहेगी और रहेगी तो किस के दबाव में, यह सवाल खड़ा है.

कौन से हिंदुत्व के लिए

एकनाथ शिंदे के मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद भगवा खेमे से यह ताबड़तोड़ प्रचार शुरू हो गया था कि उन्होंने हिंदुत्व की खातिर यह यानी तोड़फोड़ वाला कदम उठाया. दोयम दर्जे के भाजपा नेताओं ने तो बहुत स्पष्ट कहा कि यह हनुमान चालीसा न पढ़ने देने की सजा है. कहा यह भी गया कि हनुमानजी ने अपना हिसाबकिताब चुकता कर लिया.

त्रेता युग के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि हनुमान को एक साधारण मानव से बदला लेने के लिए सैकड़ों लोगों की बुद्धि हरनी पड़ी. देवीदेवताओं का काम एक राज्य की सत्ताहरण तक सिमटा देने वाले ये लोग दरअसल कह यह भी रहे हैं कि एकनाथ सरकार को महाराष्ट्र के विकास से कोई लेनादेना नहीं है, लिहाजा आम महाराष्ट्रियन को उस से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. वे तो सुग्रीव की तरह हैं जो जिंदगीभर राम की गुलामी ढोता रहेगा. रामराज्य की स्थापना और हिंदू राष्ट्र निर्माण के लिए बाली अर्थात उद्धव को आज भी छल से मारने को मजबूर होना पड़ा. असली राम तो नागपुर और दिल्ली में बैठे हैं जिन के इशारे पर सत्ताहरण की यह लीला रची गई क्योंकि उद्धव वर्णव्यवस्था को बहाल करने और दलित  मुसलमानों को प्रताडि़त करने की मुहिम में उन का साथ नहीं दे रहे थे.

भला उस का हिंदुत्व मेरे हिंदुत्व से ज्यादा धारदार और विध्वंसक कैसे, यह सोचने के लिए उद्धव ठाकरे के पास वक्त ही वक्त है लेकिन इस के भी पहले उन्हें ईडी और आईटी जैसी सरकारी एजेंसियों के जरिए घेरा व परेशान किया जा सकता है. यह देशभर के विपक्षी नेताओं के साथ महाराष्ट्र में भी शरद पवार और संजय राउत जैसे दर्जनों नेताओं के उदाहरण से साबित होता रहा है. भगवा गैंग इन लोगों से डरता है क्योंकि इस किस्म के नेता सनातनी एजेंडे के नुकसान जानतेसम?ाते हैं कि ये तो उस सवर्ण के हित के भी नहीं जो दिनरात इन की माला जपता रहता है. आज नहीं तो कल वह शुभ दिन जरूर आएगा जब शूद्र यानी दलित पहले से हमारी गुलामी ढो रहा होगा और मुसलमान हम से रहम की भीख मांग रहा होगा.

एकनाथ का इकलौता काम अब राम दरबार के ऋषिमुनियों से मिले हुक्मों की तामील करना रह जाएगा. इस सत्ताहरण का न तो नगरनिगम चुनावों से कोई संबंध है और न ही 2024 के लोकसभा चुनावों पर इस का कोई असर पड़ने वाला. जरूरी यह भी नहीं कि भाजपा को दूसरे राज्यों की तरह इस गैरजरूरी तोड़फोड़ से कोई फायदा हो, उलटे, नुकसान अगर हुआ तो उस की भरपाई जरूर मुश्किल हो जाएगी क्योंकि शिंदे सैनिक भी, जो जमीन से जुड़े हैं, कभी वर्णव्यवस्था से सहमत नहीं होंगे. इन में से अधिकांश दलित, पिछड़े आदिवासी ही हैं.

बाल ठाकरे की बादशाहत इन्हीं गरीब और आम लोगों ने खड़ी की थी जिसे एक अलग संभ्रांत किस्म का नक्सलवाद कहा जा सकता है. इस में कोई हिंसा नहीं थी. बस, निचले तबके के लोगों ने एकजुट हो कर शिवसेना जौइन की थी. यह तबका कतई नास्तिक या अनास्थावादी नहीं है लेकिन ऊंची जातियों की गुलामी लोकतंत्र में ढोने से सख्ती से इनकार करता है. महाराष्ट्र तो अंबेडकरवादियों का गढ़ है जहां खासतौर से विदर्भ इलाके में भगवा गमछे वाले कम,  नीली टोपी वाले युवा ज्यादा नजर आते हैं. ऐसे में भाजपा नव मुट्ठीभर शिंदे सैनिकों के दम पर अपनी जमीन बना पाएगी, इस में शक है.

अपने कदम को सही ठहराने के लिए भगवा गैंग यह प्रचार भी कर रहा है कि उद्धव ठाकरे अपनी विचारधारा से कट गए थे, इसलिए दुर्गति का शिकार हुए. ये लोग बाल ठाकरे के कुछ बयानों का हवाला दे रहे हैं, मसलन यह कि अगर अमरनाथ यात्रा में अड़ंगा डाला गया तो याद रखना, हज की उड़ानें मुंबई हो कर ही जाती हैं. इस में कोई शक नहीं कि बाल ठाकरे इसलामिक आतंकवाद के खिलाफ थे लेकिन इस से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि वे इसलाम के भी खिलाफ थे. उन्होंने कभी किसी पैगंबर पर अभद्र बात नहीं कही और न ही कभी इसलाम पर उंगली उठाई. उद्धव भी अपने पिता की तरह संतोंमहंतों के चरणों में लोट नहीं लगाते और न ही दूसरे कर्मकांड ज्यादा करते हैं. वे कभी मनु स्मृति के मुताबिक बात नहीं करते, इसलिए उन का हिंदुत्व भगवा गैंग के हिंदुत्व से तो अलग है. हिंदू इतिहास तो ऐसे प्रसंगों से भरा पड़ा है. इसलिए उन्होंने मुगलों और अंगरेजों की गुलामी भी भुगती. अब पहले की तरह ब्राह्मणों की गुलामी कर रहे हैं तो हिंदुत्व पर हायहाय क्यों?

धार्मिक अंधता, जलता लोकतंत्र

उदयपुर में 2 युवाओं द्वारा एक दर्जी की खुलेआम, दिनदहाड़े हत्या कर देना और फिर हत्या का वीडियो सोशल मीडिया पर डाल देना यह साबित करता है कि धर्म इस तरह पागल बना देता है कि लोग न आगापीछा देखते हैं, न परिणामों की चिंता करते हैं.

नूपुर शर्मा के बयानों का समर्थन करने वाले इस दर्जी को मार डालने के लिए ये 2 युवा किसी बड़ी संस्था द्वारा भेजे गए हों, कोईर् बड़ी योजना बनाई गई हो, ऐसा भी नहीं है. दर्जी का काम करने वाले इस कट्टरपंथी ने नूपुर शर्मा का समर्थन किया तो हिंदू धर्म के बहकावे में और जवाब में उस की हत्या कर दी गई तो वह दूसरे इसलाम धर्म के बहकावे की वजह से.

घरों, शहरों और देशों को उजाड़ने में, समाज को तोड़ने में, लोगों के बीच बेबात की दुश्मनी खड़ी करने में जो भूमिका धर्म की है वह जर, जमीन, जोरू की भी नहीं. लोग स्वभाववश एकदूसरे का सहयोग चाहते हैं और एकदूसरे को सहयोग करते भी हैं. लेकिन यह धर्म ही है जो कहता है कि अपने धर्म वाला हो या विधर्मी, दुश्मन हो सकता है.

हर धर्म कहता है कि पूजा करो, दान दो, कुरबानी करो. जो यह नहीं करता वह दुश्मन है. इस दर्जी ने कट्टर कथावाचकों की मुरीद नूपुर शर्मा का समर्थन किया क्यों? क्योंकि उसे सिखाया गया है कि दूसरे धर्म का हर जना दुश्मन है.

यह सोचने की बात है कि आखिर दाढ़ी बढ़ाए ये 2 युवक जब दर्जी की दुकान में घुसे तो उन्होंने कहा, कपड़े सिलाने हैं और दर्जी ने सुन ली. उन के विधर्मी होने पर कोई एतराज नहीं किया क्योंकि वे ग्राहक थे. जब तक संबंध ग्राहक और दुकानदार का था, ठीक रहा, लेकिन बीच में दोनों के दो धर्म घुस गए जिन्होंने एक तरफ दर्जी का दिमाग खराब कर रखा था तो दूसरी तरफ इन 2 युवकों का.

इस हत्या के लिए जिम्मेदार दोनों धर्म हैं और दोनों धर्मों के वे हजारों प्रचारक जो ऊंचे मंदिरोंमसजिदों में बैठ कर प्रवचन करते हैं, अपनेअपने धर्मभक्तों को उकसाते हैं कि जो धर्म का आदेश न माने, मार डालो चाहे वह शंबूक हो, एकलव्य हो या उदयपुर का कन्हैयालाल तेली हो.

ओसामा बिन लादेन ने पहले अफगानिस्तान की गुफाओं में छिप कर अमेरिका पर हमला कराया, फिर पाकिस्तान में छिप कर रहने लगा. उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह सामने रह कर जिसे दुश्मन मान रहा है, उस से लड़ सके. उस ने लाखों घरों को बरबाद करा दिया, अफगानिस्तान को तहसनहस करा दिया. उस ने जो बीज बोए उस से सीरिया से लाखों शरणार्थी मारेमारे फिर रहे हैं पर उस का धर्म वहीं का वहीं है.

भारत में धर्म के शीरे में सत्ता की गरमागरम जलेबी मिलती रहे, इसलिए शीरे के नीचे आग को सुलगाए रखा जा रहा है.

नूपुर शर्मा भी, कन्हैयालाल तेली भी और ये 2 युवक भी जो हत्या की मात्र आग और लकडि़यां हैं, खुद को जला कर धर्म के शीरे को खौला कर रखती हैं.

पकती जलेबी का रसपान कर धर्मों के पंडे, पादरी, मुल्ला, ग्रंथी मौज मनाते हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी. इन लकडि़यों से मकान बन सकते हैं, घरों के चूल्हे जल सकते हैं, दवाएं बन सकती हैं मगर धर्म के नाम पर सब स्वाह हो रहा है. आज नूपुर शर्मा जैसी ने हिंदूमुसलिम विवाद को उस मोड़ पर ला खड़ा किया है जिस का अंत भीषण वैमनस्य में हो सकता है.

15 August Special: ऐतिहासिक धरोहरों का संगम बिहार

बिहार का मतलब ही भ्रमण करना है. ऐसे में इस राज्य में घुमक्कड़ों के लिए कई मनोहारी पर्यटन स्थल हैं जहां आ कर सैलानी सुंदरता की दुनिया में खो जाते हैं. आधुनिकता के तमाम विकल्पों के साथसाथ इतिहास के अमूल्य तोहफों से वाकिफ कराते बिहार की खूबियां जरा आप भी जानिए.
भारत के पर्यटन मानचित्र में बिहार का अहम मुकाम है. यहां सालभर देशविदेश से पर्यटक आते रहते हैं. गंगा नदी के किनारे और सोन एवं गंडक नदी के संगम पर लंबी पट्टी के रूप में बसा हुआ है बिहार. बिहार की राजधानी पटना है. आजादी के बाद इसे बिहार की राजधानी बनाया गया. तब और अब के पटना में काफी बदलाव आ चुका है. पहले पटना के लोगों को ‘पटनिया’ कहा जाता था, पर बदलते जमाने के पटनावासी अब खुद को ‘पटनाइट्स’ कहलाने पर फख्र महसूस करते हैं.
बुद्घ स्मृति पार्क 
यह पटना का नवीनतम दर्शनीय स्थल है. पटना रेलवे स्टेशन के मुख्य निकासद्वार से बाहर निकलते ही जिस विशाल और चमचमाते स्तूप पर नजर टिक जाती है वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बना नया पर्यटन स्थल बुद्ध स्मृति पार्क है. उस जगह पर बांकीपुर जेल के नाम से पटना का सैंट्रल जेल हुआ करता था. 22 एकड़ जमीन पर 125 करोड़ रुपए की लागत से बने इस पार्क में बना शांति स्तूप 200 फुट ऊंचा है. पार्क का 80 फीसदी हिस्सा खुला छोड़ा गया है जहां रंगबिरंगे फौआरों और स्पैशल लाइटिंग का मनोहारी इंतजाम है. यहां बांकीपुर जेल के वाच टावर और दीवार के एक हिस्से को ऐतिहासिक धरोहर के रूप में संजो कर रखा गया है. इस में ट्रैडिशनल और मौडर्न शिल्प का संगम देखने को मिलता है. पार्क को बनाने में बोधगया महाबोधि के अलावा जापान, थाईलैंड, म्यांमार, दक्षिण कोरिया और तिब्बत के महाविहारों की भी भागीदारी रही है. बुद्ध स्मृति पार्क में बौद्ध स्तूप, मैडिटेशन सैंटर, पार्क औफ मैमोरी, म्यूजियम और बांकीपुर जेल अवशेष के अलगअलग खंड बनाए गए हैं.
बौद्ध स्तूप
200 फुट ऊंचा स्तूप बौद्ध वास्तुशिल्प का नायाब नमूना है. स्तूप की बाहरी और भीतरी दीवारों पर की गई नक्काशी इतिहास को नए अंदाज में करीब से देखने का मौका देती है. इस स्तूप की सब से बड़ी खासीयत यह है कि पर्यटक इस के भीतर जा सकते हैं, जबकि दूसरी जगहों पर बने स्तूपों में अंदर जाने की व्यवस्था नहीं होती है. इस के अंदर एक बुलेटप्रूफ शीशे का कमरा बनाया गया है, जिस में कई देशों से मंगाए गए बौद्ध अवशेषों को सहेज कर रखा गया है.
म्यूजियम
पार्क के भीतर बनाया गया बुद्ध म्यूजियम सहसा राजगीर के बराबर की गुफाओं की याद दिला देता है. इसे बड़ी ही खूबसूरती से गुफानुमा बनाया गया है जिस में बुद्ध और बौद्ध धर्म से जुड़ी चीजें प्रदर्शन के लिए रखी गई हैं. इसे सिंगापुर के म्यूजियम की तर्ज पर विकसित किया गया है. बुद्ध और बौद्ध धर्म से जुड़ी चीजों को औडियोवीडियो के जरिए प्रदर्शित किया जाता है.
पार्क औफ मैमोरी
यह बुद्ध पार्क का सब से महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इस के जरिए पर्यटक यह आसानी से जान सकेंगे कि किस तरह से बुद्धिज्म बिहार में पनपा और कब व किस तरह से चीन, जापान, कोरिया, थाईलैंड, श्रीलंका समेत कई देशों में फैला. इस के लिए जगहजगह पर चीनी, कोरियाई, थाईलैंडी नाम वाले पगोडा बनाए गए हैं, जहां पर बैठ कर ध्यान लगाया जा सकता है.
मैडिटेशन सैंटर
यहां बौद्धकालीन इमारतों की याद दिलाता मैडिटेशन सैंटर बनाया गया है. यह प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय से प्रेरित है. इस में कुल 5 ब्लौक और 60 कमरे हैं. सभी कमरों के सामने के हिस्सों में पारदर्शी शीशे लगाए गए हैं ताकि ध्यान लगाने वाले सामने बौद्ध स्तूप को देख कर ध्यान लगा सकें.
पटना दियारा
पटना और हाजीपुर के बीच गंगा नदी के 2 धाराओं में बंट जाने से गंगा के बीच करीब 4 वर्ग किलोमीटर का दियारा इलाका टापू की शक्ल ले चुका है. इस इलाके में रेत और पानी के बीच समुद्र तट के जैसा नजारा और मजा मिलता है. दियारा को पर्यटन स्पौट के रूप में विकसित कर दियारा पर्यटन का नाम दिया गया है.
पटना के इंजीनियरिंग कालेज घाट (काली घाट) से नाव और स्टीमर के जरिए 5 से 10 मिनट में दियारा तक पहुंचा जा सकता है. नाव से जाने पर प्रति सवारी 10 रुपए और एमवी-गंगा स्टीमर से जाने पर प्रति सवारी 75 रुपए किराया लगता है. स्टीमर से जाने पर आधे घंटे तक गंगा भ्रमण और डौल्फिन देखने का आनंद लिया जा सकता है. रोजाना 2 से 3 हजार लोग दियारा पर्यटन पर मौजमस्ती के लिए पहुंचते हैं. टापू पर बांस और फूस की 5 कलात्मक झोंपडि़यां बनाई गई हैं, जिन में पर्यटकों के बैठने व सुस्ताने का पूरा इंतजाम है. इतना ही नहीं, चाइनीज और साउथ इंडियन फूड के साथसाथ देसी व्यंजन लिट्टीचोखा, चाट, गोलगप्पे का भी मजा ले सकते हैं.
इस के लिए एक फूड प्लाजा भी खोला गया है, जिस के मेन्यू कार्ड में 60 तरह के आइटम हैं. इस के अलावा धमाचौकड़ी मचाने और खेलनेकूदने का भी मुकम्मल इंतजाम है. पर्यटक वौलीबौल, फ्लाइंग डिस्क और रिंग जैसे खेल का आनंद उठा सकते हैं. मकर संक्रांति के मौके पर दियारा में पतंगबाजी के मुकाबले का भी आयोजन किया जाता है.
ईको पार्क
पटना के लोगों और पर्यटकों की तफरीह के लिए बने नएनवेले ईको पार्क में हरियाली और कला का अनोखा संगम देखने को मिलता है. पटना के दर्शनीय स्थलों में नया नगीना है ईको पार्क. पटना की बेली रोड पर पुनाईचक इलाके में अक्तूबर 2011 में ईको पार्क को पर्यटकों के लिए खोला गया. इसे राजधानी वाटिका भी कहा जाता है.
पार्क में बनी झील में नौकाविहार का आनंद लिया जा सकता है. इस में बच्चों के खेलने और मनोरंजन करने का खासा इंतजाम किया गया है, वहीं बड़ों के लिए आधुनिक मशीनों से लैस जिम भी बनाया गया है. 9.18 हेक्टेअर क्षेत्र में फैले इस पार्क में 1,191 मीटर का जौगिंग ट्रैक भी है. पार्क में गुलाब, कमल, डहेलिया, गेंदा, रजनीगंधा आदि फूल पार्क को कलरफुल लुक देते हैं.
सुबह 8 बजे से 10 बजे तक इस में प्रवेश के लिए कोई शुल्क नहीं है क्योंकि इस दौरान मौर्निंग वाकर्स और जौगर्स पार्क में आते हैं.
10 बजे दिन के बाद से पार्क में प्रवेश के लिए 5 रुपए का टिकट लगता है. याद रहे गुरुवार को पार्क बंद रहता है.
पटना म्यूजियम
पटना म्यूजियम देशविदेश के पर्यटकों को हमेशा ही लुभाता रहा है. इतिहास से रूबरू होने के साथ इस के पार्क में बैठने का आनंद लिया जा सकता है. पटना रेलवे स्टेशन से आधा किलोमीटर दूर बुद्ध मार्ग पर बने इस म्यूजियम ने प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को संजो कर रखा है.
प्राकृतिक कक्ष में जीवजंतुओं के पुतलों को रखा गया है जबकि वास्तुकला कक्ष में खुदाई में मिली मूर्तियों को रखा गया है, जिन में विश्वप्रसिद्ध यक्षिणी की मूर्ति भी शामिल है. इस के अलावा सिक्का कक्ष, टेराकोटा कक्ष, अष्टधातु कक्ष, आर्ट एवं पेंटिंग कक्ष, आदिवासी कक्ष और डा. राजेंद्र प्रसाद कक्ष भी दुर्लभ ऐतिहासिक चीजों से भरे हुए हैं.
जैविक उद्यान
पटना का यह चिडि़याघर शहर वालों का पसंदीदा पिकनिक स्पौट है. रेलवे स्टेशन से 4 किलोमीटर और एअरपोर्ट से 2 किलोमीटर की दूरी पर बने चिडि़याघर में विभिन्न प्रजातियों के पशु, पक्षी और औषधीय पौधे हैं जो इस की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं. बच्चों की रेलगाड़ी में सैर करने का लुत्फ बच्चे, बूढ़े और जवान सभी उठाते हैं. उद्यान में विकसित झील में नौकाविहार का भी आनंद लिया जा सकता है. सांपघर और मछलीघर भी पर्यटकों को लुभाते हैं.
कुम्हरार
प्राचीन पटना का भग्नावशेष यहीं मिला था. पटना जंक्शन से 5 किलोमीटर पूरब में पुरानी बाईपास रोड पर स्थित कुम्हरार प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल है. यह पिकनिक स्पौट और लवर्स पौइंट के रूप में मशहूर हो चुका है. यहां मौर्यकालीन सभाभवन के अवशेषों के बीच खूबसूरत पार्क बनाया गया है. शहर की भीड़भाड़ से दूर छुट्टियों के दिन, पटना वालों को यहां गुजारना काफी रास आता है.
गोलघर
गंगा नदी के किनारे बना गोलघर ऐतिहासिक और स्थापत्यकला का उत्कृष्ट नमूना है. 1770 के भीषण अकाल के बाद 1786 में अंगरेजों ने इसे अनाज रखने के लिए बनाया था. 29 मीटर ऊंचे इस गोलाकार भवन के ऊपर चढ़ने के लिए 100 से ज्यादा सीढि़यां हैं. इस के शिखर से पटना शहर के खूबसूरत नजारों का लुत्फ उठाया जा सकता है.
इन सब के अलावा जलान म्यूजियम, अगमकुआं, मनेर का मकबरा, सदाकत आश्रम, बिहार विद्यापीठ, गांधी संग्रहालय, तख्त हरमंदिर, शहीद स्मारक, गांधी मैदान तारामंडल, पटनदेवी, पत्थर की मसजिद, पादरी की हवेली आदि भी पटना के नामचीन पर्यटन स्थल हैं.
5वीं सदी ईसापूर्व से ले कर गुप्तकाल और फिर मौर्यकाल तक वैशाली, नालंदा और राजगीर देश की मुख्य गतिविधियों का केंद्र रहे और इस दौरान वहां स्थापत्यकला खूब फलीफूली. बड़े पैमाने पर इमारतें और स्मारक बने जिन की कलात्मकता का डंका आज भी दुनियाभर में बज रहा है. कहा जाता है कि भारतीय कला का इतिहास बिहार से ही शुरू होता है. ईसापूर्व छठी सदी से ही स्थापत्यकला के बेजोड़ नमूने बनने शुरू हो गए थे और इस तरह की गतिविधियों का केंद्र राजगीर रहा.
राजगीर
यहां वेणुवन, मनियार, मठ, पिप्पल नामक पत्थर का महल है, जिसे पहरा देने का भवन या मचान भी कहते हैं. वैभारगिरी पहाड़ी के दक्षिणी छोर पर सोनभद्र गुफा, जरासंध का बैठकखाना, स्वर्ण भंडार, बिंबिसार का कारागार, जीवक आम्रवन और पत्थरों की उम्दा कारीगरी से बनाई गई सप्तपर्णी गुफा की कलात्मकता देखते ही बनती है.
पटना से 109 किलोमीटर दक्षिणपूर्व में और नालंदा से 19 किलोमीटर की दूरी पर स्थित राजगीर हिंदू, बौद्ध और जैनियों का महत्त्वपूर्ण व ऐतिहासिक स्थल है. पहाड़ पर बने विश्व शांति स्तूप स्थापत्यकला के बेहतरीन नमूनों में से एक है. रोप वे (रज्जू मार्ग) के जरिए पर्यटक वहां आसानी से पहुंच सकते हैं.
वायुमार्ग से : पटना एअरपोर्ट से 102 किलोमीटर और गया एअरपोर्ट से 60 किलोमीटर की दूरी पर है.
रेलमार्ग से : हावड़ापटना मुख्य रेलमार्ग पर स्थित बख्तियारपुर रेलवे स्टेशन सब से नजदीकी स्टेशन है.
सड़क मार्ग से : पटना के मीठापुर बस अड्डे से हरेक घंटे पर गया के लिए बस चलती है.
नालंदा
शिक्षा और ज्ञानविज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के रूप में नालंदा मशहूर था. नालंदा महाविहार या विश्वविद्यालय में दुनिया भर से छात्र पढ़ने आते थे. सम्राट अशोक ने यहां मठ की स्थापना की थी. जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर ने यहां काफी समय गुजारा. प्रसिद्ध बौद्ध सारिपुत्र का जन्म यहीं हुआ था. महाविहार के सामने विशाल स्तूप आज भी मौजूद है. यहां बुद्ध काल की बनी हुई धातु, पत्थर और मिट्टी की मूर्तियां मिली हैं.
नालंदा में 14 हेक्टेअर क्षेत्र में हुई खुदाई में विशाल सीढि़यां, धातु गलाने का बरतन, बुद्ध की अभयमुद्रा वाली मूर्ति, मठ, आश्रम, लैक्चर हौल, होस्टल, सभाकक्ष, प्राचीन बौद्ध पांडुलिपियां, चीनी यात्री ह्वेनसांग की खोपड़ी भी मिली है.
सड़क मार्ग से : नालंदा पटना से 90 किलोमीटर की दूरी पर है. पटना के मीठापुर बस अड्डे से हर समय नालंदा के लिए बस मिल जाती है.
वायुमार्ग से : पटना का जयप्रकाशनारायण इंटरनैशनल एअरपोर्ट सब से नजदीक है.
रेलमार्ग से : हावड़ापटना मुख्य रेलमार्ग पर स्थित बख्तियारपुर रेलवे स्टेशन सब से नजदीकी स्टेशन है.
बोधगया
ईसा से 500 साल पहले बोधगया में ही गौतम बुद्ध को पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था. गया शहर से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोधगया निरंजन नदी के किनारे बसा हुआ है.  इस के आसपास कई तिब्बती मठ हैं. जापान, चीन, श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड द्वारा यहां बनाए गए विशाल बौद्ध स्तूप पर्यटकों को लुभाते हैं.
बिहार में सब से ज्यादा विदेशी पर्यटक बोधगया ही आते हैं. गया शहर में भी कई पर्यटन स्थल हैं. पटना से 94 किलोमीटर की दूरी पर गया फल्गु नदी के किनारे बसा हुआ है. बराबर की गुफाओं में मौर्यकालीन स्थापत्यकला का बेहतरीन नमूना देखने को मिलता है.
सड़क मार्ग से : बोधगया पटना एअरपोर्ट से 109 किलोमीटर की दूरी पर है. गया एअरपोर्ट से इस की दूरी
8 किलोमीटर है.  दिल्लीहावड़ा रेलमार्ग पर गया रेलवे स्टेशन नजदीकी रेलवे स्टेशन है.
वैशाली
इस को विश्व का सब से पुराना गणतंत्र होने का गौरव प्राप्त है. प्राचीन वैशाली के अवशेष वैशाली जिला के बसाढ़ नामक गांव में पाए गए हैं.
यहां कई ऐतिहासिक और कलात्मक इमारतें हैं. राजा विशाल का किला, अशोक स्तंभ, बौद्ध स्तूप समेत कई इमारतें अपने बुलंद दिनों की गवाह बनी आज भी सीना ताने खड़ी हैं. वैशाली के कोल्हुआ गांव में स्थित अशोक स्तंभ को स्थानीय लोग ‘भीमसेन की लाठी’ भी कहते हैं. स्तंभ के ऊपर उत्तर की ओर मुंह किए हुए समूचे सिंह की मूर्ति बनी हुई है. यह अशोक स्तंभ आज भी भारतीय लोकतंत्र का प्रतीक चिह्न बना हुआ है.
स्तंभ से 50 फुट की दूरी पर एक तालाब है जिस के पास गोलाकार बौद्ध स्तूप बना हुआ है, जिस के ऊपर के भवन में बुद्ध की मूर्ति है. वैशाली की कला काफी उच्चकोटि की थी और विश्वविख्यात नर्तकी आम्रपाली ने यहीं अपनी कला का जौहर दिखा कर दुनियाभर के कलाप्रेमियों को मंत्रमुग्ध कर दिया था.
सड़क मार्ग से : वैशाली से पटना एअरपोर्ट से 60 किलोमीटर और पटना रेलवे स्टेशन से 54 किलोमीटर की दूरी पर है.
नजदीकी रेलवे स्टेशन हाजीपुर और मुजफ्फरपुर हैं.
गया एअरपोर्ट सेवैशाली की दूरी तकरीबन169 किलोमीटर है.

मेरे एक दोस्त ने 10 साल पहले पढ़ाई छोड़ दी थी, अब उस के पास क्या स्कोप है?

सवाल

मेरे एक दोस्त को 10 साल पहले अपनी फैमिली प्रौब्लम की वजह से 12वीं की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी. मेरे फ्रैंड की स्ट्रीम कौमर्स थी. वह अभी नौकरी कर के अपनी फैमिली की मदद करता है. अब अगर उसे अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू करनी हो तो उस के पास क्या स्कोप है जिस से कि वह पढ़ाई भी कर सके और अपनी फैमिली को फाइनैंशियली सपोर्ट भी करता रहे?

जवाब

10 साल के बाद अगर आप का फ्रैंड अपनी पढ़ाई पुन: शुरू करने का इच्छुक है तो यह खुशी की बात है. आप का मित्र जहां रहता है, उस क्षेत्र की डिस्टैंस ऐजुकेशन प्रोवाइड करवाने वाली यूनिवर्सिटी से सारी औपचारिकताएं हासिल करें. अच्छी शिक्षा से जहां अच्छी नौकरी मिलने के चांसेज बढ़ते हैं वहीं अच्छी नौकरी से व्यक्ति स्वयं भी फाइनैंशियली स्ट्रौंग बनता है और परिवार के सदस्यों का अच्छे से पालन पोषण भी कर सकता है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

‘ए होली कांसीपरेंसी’: इंसानी सोच कटघरे में’

रेटिंग: तीन स्टार

निर्माताः इंडो अमेरिकन प्रोडक्शन ,वालजेन

मीडिया ओर एएमसी मीडिया

निर्देशक: सैबल मित्रा

कलाकारः नसिरूद्दीन शाह, सौमित्र

चटर्जी,कौशिक सेन,अमृता चट्टोपाध्याय,श्रमण चटर्जी

अवधि: दो घंटे 23 मिनट

कहां देखेंः नजदीकी सिनेमाघरों में 29 जुलाई से

सिनेमा समाज का दर्पण होता है. सिनेमा का काम है लोगों का मनोरंजन करते हुए सामाजिक मुद्दों को पूरी मुखरता के साथ उठाना. अफसोस इस कसौटी पर बौलीवुड का कमर्शियल सिनेमा पूरी तरह से असफल है और शायद यही वजह है कि अब धीरे धीरे बौलीवुड सिनेमा से लोग दूर भागने लगे हैं.इन दिनों देश व समाज में जिस तरह से धार्मिक कट्टरता को बल मिल रहा है,जिस तरह से अपरोक्ष रूप से ही सही पर इंसानी सोच व उसके बोलने पर बंदिशे लग रही हैं, उस दौर में लेखक व निर्देशक सैबल मित्रा बंगला भाषा में फिल्म ‘ए होली कांसीपरेंसी’ लेकर आए हैं. यह फिल्म बंगला भाषा में है, मगर इसके कुछ संवाद हिंदी व अंग्रेजी भाषा में भी हैं और फिल्म में अंग्रेजी भाषा में भी सब टाइटल्स दिए गए हैं. इस फिल्म को कलकत्ता स्थित फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने पारित किया है. फिल्म ‘‘ए होली कांसीपरेंसी’ देखते वक्त अगर दर्शक को ‘ भीमा कोरेगांव’ जैसे कई मामले बरबस याद आ जाएं, तो कुछ भी गलत नहीं होगा.

यूं तो सैबल मित्रा की फिल्म ‘‘ए होली ’’ एक अमरीकन नाटक ‘‘‘इनहेरिट द विंड’’’ और अमरीकन फिल्म ‘‘ पर आधारित है. 1925 में अमेरीका में एक -िरु39याक्षक को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था, क्योंकि वह जीवन की उत्पत्ति और क्रमिक विकास के बारे में प-सजय़ा रहा था. उसके  बाद मामला अदालत में चला था.लंबी बहस हुई थी. इसे ‘मंकी ट्रायल’ की संज्ञा दी गयी थी. लेकिन जीवन के विकास सबंधी वैज्ञानिक सिद्धांत और मान्यताओं के बीच जो बहस एक सदी से ज्यादा पुरानी हो गई, आज भी जारी है.

यह मुकदमा उन दिनों दुनियाभर में खूब चर्चित हुआ था. इसी वि-ुनवजयाय पर अमेरिका का चर्चित नाटक ‘इनहेरिट द विंड’ लिखा गया. मगर वर्तमान परिस्थितियों में यह फिल्म आवष्यक हो गयी थी. इस फिल्म में नसिरूद्दीन शाह के साथ बंगला कलाकार सौमित्र चटर्जी की भी समानांतर भूमिका है, जिनकी 2020 में कोविड के दौरान मृत्यू हो गयी थी. पर इस फिल्म के प्रदर्शन में दो वर्षों से अधिक का समय लग गया, जिसकी वजह पता नहीं चली फिल्म में स्थानीय आदिवासियों पर सवर्ण हिंदुओं के उत्पीड़न से लेकर धार्मिक नेताओं को बहुसंख्यकवादी ताकतों द्वारा मजबूर किए जाने सहित कई मुद्दे उठाए गए हैं. इसलिए फिल्म देखते समय हर इंसान को पूरी संवेदनशील होने की जरुरत है.

कहानीः

फिल्म की कहानी बंगाल में हिलोलगंज गांव की है, जहां संथाल जनजाति के लोगों की बहुतायत है, जो ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए हैं. फिल्म की कहानी के केंद्र में स्थानीय चर्च द्वारा वित्त पो-िुनवजयात हिलोलगंज क्रिष्चियन हाई स्कूल के षिक्षक मूलतः संथाल आदिवासी कुणाल जोसेफ बस्के हैं.

जिनके पिता ने आर्थिक व अन्य सहूलियतें पाने के लिए क्रिश्चियन धर्म अपना लिया था. कुणाल की शिक्षा भी क्रिश्चियन स्कूल में ही हुई. पर कुणाल (श्रमण चटर्जी ) सोच विचार करने वाला शिक्षक है.वह धार्मिक कट्टरता से परे है.

कुणाल (एक ईसाई होने के बावजूद) अपनी जीवविज्ञान /बायोलौजी की कक्षा में डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से पहले उत्पत्ति की पुस्तक को पढ़ाने से इंकार कर देता है. स्थानीय पादरी के साथ उंच स्थानीय समुदाय इसे कुणाल का ‘ई-रु39यानिंदा‘ वाला कार्य मानता है. कुणाल दावा करते हैं कि वह बाइबल का अपमान नहीं कर रहे थे.एक उग्र पत्रकार हरि (कौ-िरु39याक सेन) कुणाल की तुलना रोहित वेंमुला से करता है, क्योंकि वह अपने गोत्र संथाल के बारे में भी बात करता है.जबकि चर्चा के पादरी की बेटी रेशमी (अमृता चट्टोपाध्याय) कुणाल को स्कूल से निकालने के साथ ही उन पर कई तरह के मनग-सजयंत आरोप लगाकर जेल भेज दिया जाता है. कहानी आगे बढ़ती है,तो पता चलता है हिंदुत्ववादी ताकतों के प्रतीक राजनीतिक नेता बाबू सोरेन के इशारे पर ही स्थानीय पुलिस, चर्च का पादरी, स्कूल के प्रिंसिपल व अदालत के जज काम करते हैं.

कुणाल को बाबू सोरेन के इषारे पर ही यह सजा मिली है.क्योंकि कुणाल ने वैदिक युग की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बारे में स्कूल को भेजी गयी ‘‘सं-रु39याोधित‘‘ पाठ्यपुस्तक को पढ़ाने से इंकार कर दिया था.यह पुस्तक दावा करती है कि 14वीं -रु39याताब्दी में हिंदू संतों ने हवाई जहाज की खोज की थी या कैसे गणे-रु39या प्लास्टिक सर्जरी में पहला प्रयोग किया गया. कुणाल के जेल जाने के बाद उन्हें एक विचाराधीन कैदी के रूप में लंबे समय तक कारावास का सामना करना पड़ता है. अंततः तमाम प्रयासों के बाद अदालत में कुणाल पर लगे आरोपों की सुनवायी शुरू होती हैं. चर्च व स्कूल की तरफ से सांसद व सुप्रीम कोर्ट के मशहूर वकील बसंत कुमार चटर्जी (सौमित्र चटर्जी) तथा कुणाल के बचाव के रूप में सुप्रीम कोर्ट के ही दिग्गज वकील एंटोन डिसूजा (नसीरुद्दीन -रु39यााह) बहस करते हैं.एंटोन डिसूजा का दे-रु39या में ब-सजय़ते धार्मिक ध्रुवीकरण से मोहभंग हो गया है. यूं तो अदालत में बहस का मूल मुद्दा धर्म और विज्ञान है, मगर दोनों वकीलों की आपसी बहस के बीच यह मुद्दा भी आता है कि उंची जाति व धर्म से जुड़े लोग किस तरह नीची जाति वालों को दबाने व खत्म करने का रच रहे हैं. नीची जाति व आदिवासियों की बोलने व सोचने की आजादी भी छीनी जा रही है. सवाल उठाए जाते हैं कि क्या पौराणिक कथा विज्ञान पर हावी है?  क्या आस्था के नाम पर ताकतवर एजेंडें के तहत काम कर रहे हैं..बहस इस बात पर भी होती है कि सोचने का अधिकार परीक्षण पर है अथवा एक इंसान पर मुकदमा चल रहा है?पूरी बहस,जज के रवैए व अदालत में बाबू सोरेन की मौजूदी से दर्शक को लगता है कि अदालत का निर्णय शिक्षक कुणाल के पक्ष में नहीं जाएगा. मगर अदालत कुणाल को निर्दो-ुनवजया करार देती है.

लेखन व निर्देशनः

लेखक व निर्देशक सैबल मित्रा अपने वि-ुनवजयाय की तरह भारी संवादों और भाषाओं के बजाय तथ्यों और वारंटियों परटिके रहते हैं.वह दूसरे को चमकदार बनाने के लिए किसी विचार का उपहास नहीं करते. कटघरे में खड़ा इंसान हर आम इंसान का प्रतिनिधित्व करता है. दर्शक महसूस करता है कि ‘जज’ की कुर्सी पर बैठा इंसान भी -रु39याक्ति षाली लोगों द्वारा उत्पीड़ित है.इसे रेखांकित करना आसान नहीं था. फिल्म इस बात पर जोर देती है कि हर इंसान को सोचने और वि-रु39यवासों का पालन करने का अधिकार है.लेकिन यह सब उस पर थोपा नहीं जाना चाहिए. लेकिन अगर यह बुनियादी कानून जनता की सम-हजय में आ जाए, तो राजनीति नहीं चलेगी,एजेंडा नहीं चलेगा और हमारे बीच सद्भाव होगा जो अब तक सिर्फ एक रु39याब्द है.फिल्मकार ने एक बहुत बड़े मुद्दे का उठा तो लिया, मगर उसे कहा कैसे खत्म किया जाए, यह उन्हें पता नहीं. इसी वजह से कुणाल के निर्दो-ुनवजया साबित होने की बाद भी फिल्म 15 मिनट तक आगे खींची गयी है. इसी तरह फिल्म की शुरूआत भी काफी नीरस व धीमी गति से होती है. फिल्मकार ने सड़कों पर, अदालत के अंदर, अदालत के बाहर भगवान राम की वेषभूषा पहने हुए एक इंसान नजर आता रहता है,पर इस पर फिल्म में कोई टिप्पणी नही है. शायद इस इंसान के माध्यम से फिल्मकार यह कहना चाहते हैं कि ईश्वर ने कभी भी सुरक्षा की मांग नहीं की. कोर्ट रूम ड्रामा वाली यह फिल्म दे-रु39या के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिदृ-रु39यय पर भी कटाक्ष करती है.

फिल्मकार ने बड़ी चतुराई से धर्म की राजनीति के बारे में बात करती है कि जिसके चलते एक निर्दो-ुनवजया व्यक्ति को बिना सुनवाई के महीनों जेल में बिताने के लिए मजबूर किया जा सकता है.

फिल्म को काफी यथार्थपरक -सजयंग से फिल्माया गया है.मसलन-ंउचय जज के बैठने के स्थान पर अदालत की टूटी हुई छत, या आदिवासी लोग अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए चिलचिलाती गर्मी में जेल के बाहर इंतजार कर रहे हैं, जबकि एक उच्च वर्ग का व्यक्ति आसानी से कुछ ही मिनटों में जेल में चला जाता है और अपनी एसी कार में बैठ जाता है. यहां तक कि वह परिदृ-रु39यय जहां हर भगवान को इस तरह दिखाया गया है कि वह जमीन पर अपनी प्राथमिकता साबित करने को कर रहे हैं.

फिल्म भारत के इतिहास को मिटाए जाने और स्कूल की पाठ्यपुस्तकों को एक निश्चित दल की सोच के अनुरूप बदलने पर भी रोशनी डालती है. यह फिल्म महाधर्म बनाम विज्ञान या आधुनिक -िरु39याक्षा बनाम छद्म विज्ञान की कहानी नहीं है, बल्कि किसी व्यक्ति या पूरे समुदाय की आवाज दबाने की भी बात करती है.

फिल्म कहीं न कहीं इस तथ्य को भी स्वीकार करती है कि ईसाई वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, लेकिन इससे गलतियाँ कम नहीं होती हैं.यह फिल्म छद्म हिंदू राजनेताओं के ‘घरवापसी‘ के जुनून और वोट बैंक से इसके सीधे संबंध के बारे में बात करती हैं?कुल मिलाकर फिल्मकार ने बहुत कुछ कहने के अदम्य साहस का परिचय दिया है.

अभिनयः

फिल्म के दोनों मुख्य कलाकारों नसिरूद्दीन षाह व सौमित्र चटर्जी की अभिनय क्षमता पर कोई सवाल नही उठाया जा सकता. दोनों का अभिनय उच्च श्रेणी का है.बाइबल पर अंध भक्ति वाले बसंत चटर्जी का किरदार जिस -सजयंग से उन्होंने निभाया, वह हर कलाकार के वष की बात नही है. पिता के विचारों और प्रेमी कुणाल के विचारों के बीच दुविधा में जी रही रेशमी व प्रेमी को बचाने की बेबसी के किरदार को अमृता चट्टोपाध्याय ने जीवंतता प्रदान की है.

पूरी फिल्म में कुणाल के हिस्से बहुत कम संवाद आए हैं, मगर अपने विचारों की दृ-सजय़ता,न -हजयुकने के इरादे सहित हर भाव को उन्होने अपने चेहरे से व्यक्त कर खुद को बेहतरीन अभिनेता साबित करने में सफल रहे हैं. वह अपने चेहरे के भावों से इस बात को रेखांकित करने में सफल रहते हैं कि वह स्थानीयन राजनेताओं के लिए अपना वोट बैंक भरने के लिए बलि का बकरा है. पत्रकार हरी के किरदार में कौशिक सेन अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

65 साल की उम्र में महाभारत के ‘नंद’ ने ली अंतिम सांस, पढ़ें खबर

टीवी इंडस्ट्री से बुरी खबर सामने आ रही है. दरअसल महाभारत के नंद यानी रसिक दवे (Rasik Dave) का निधन हो गया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक 65 वर्षीय रसिक दवे का किडनी फेलियर की वजह से निधन हो गया.

रसिक दवे टीवी इंडस्ट्री के मशहूर एक्टर थे. उन्होंने कई बड़े शोज में काम किया है. रसिक दवे ‘महाभारत’ में वह ‘नंदा’ के किरदार में नजर आए थे. आखिरी बार  उन्हें ‘एक महल हो सपनों का’ में देखा गया था.

 

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रसिक दवे की पत्नी एक्ट्रेस केतकी दवे टीवी और बॉलीवुड की जानी मानी एक्ट्रेस हैं. केतकी दवे स्टार प्लस के सुपरहिट शो ‘क्योंकि सास भी कभी बहू’ में नजर आ चुके हैं. रसिक ने हिंदी और गुजराती फिल्मों में काम किया.

 

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रसिक अपने पीछे पत्नी केतकी, एक बेटे और एक बेटी को छोड़ गए हैं. साल 2006 में केतकी और रसिक एक साथ रियलिटी टीवी शो ‘नच बलिए’ में नजर आए थे. रसिक के निधन पर फैंस और सेलिब्रिटी  सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं.

 

 

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आधारशिला- भाग 4: किस के साथ सफलता बांटनी चाहती थी श्वेता

श्वेता के संदर्भ में उस चिडि़या का याद आना मुझे बड़ा अजीब लगा. मैं ने स्कूल में पुनीत को फोन किया. मेरी कंपकंपाहटभरी आवाज सुन कर शायद वे मेरी दुश्चिंता भांप गए और बोले, ‘धीरज रखिए, मैं आधे दिन की छुट्टी ले कर आप के घर आऊंगा.’

निश्चित समय पर पुनीत आए. मैं जितनी बेचैन थी, वे उतने ही शांत लग रहे थे.

मैं ने कहा, ‘आप को सुन कर अवश्य आश्चर्य होगा, पर मैं आज कुछ अलग ही तरह की बात कहने जा रही हूं,’ मैं ने अपनेआप को स्थिर कर के कहा, ‘आप श्वेता से शादी कर लीजिए, कहीं वह प्रेम में पागल हो कर आत्महत्या न कर ले.’ यह कहतेकहते फफकफफक कर रो पड़ी.

‘अपनेआप को संभालिए. श्वेता अभी बच्ची है मेरी छोटी बहन के समान. उस की उम्र अभी शादी की नहीं, सुनहरे भविष्य के निर्माण की है, जिस की आधारशिला हमें अपने हाथों से रखनी होगी.’

‘वह तो ठीक है, लेकिन आज उस ने पत्र लिखा है, जिस में…’

‘वह पत्र उस ने मुझे दिया है, आप घबराएं नहीं. जब तक मैं उसे नकारात्मक उत्तर नहीं दूंगा, तब तक कुछ नहीं होगा. अभी तक मैं ने उस के प्रेम को स्वीकारा नहीं है, तो नकारा भी नहीं है.’

‘लेकिन यह स्थिति कब तक कायम रहेगी?’ मैं ने पूछा.

‘अधिक दिन नहीं,’ वे बोले, ‘यह तो हम जान ही चुके हैं कि श्वेता का ऐसी हरकतें करना कुछ तो उस की किशोर उम्र का परिणाम है और कुछ फिल्मों का मायावी संसार उसे यह सबकुछ करने को उकसाता रहा है, क्योंकि वह फिल्में देखने की बहुत शौकीन है.’

‘जी हां, मगर फिल्म और वास्तविकता के बीच का फर्क उसे समझाएं तो कैसे. और समझ में आने पर भी क्या प्यार का भूत उस के सिर से उतर जाएगा?’

पुनीत कहीं और देख रहे थे, जैसे उन्होंने मेरा प्रश्न सुना ही न हो, फिर एकाएक बोल पड़े, ‘अब आप निश्चिंत रहिए. उस का यह फिल्मी तिलिस्म फिल्मी ढंग से ही टूटेगा.’ और वे चले गए.

मेरे मन में आया कि पति से इतनी गंभीर बात छिपा कर मैं कहीं गलती तो नहीं कर रही हूं. मगर जब औफिस से लौटने पर इन का थकाहारा चेहरा देखती तो बस, यही लगता कि इन के सामने ऐसी गंभीर समस्या न ही रखूं. यदि मैं अपने स्तर पर यह समस्या सुलझा सकूं तो बहुत अच्छा होगा और फिर पुनीत का पूरा साथ है ही. दूसरी बात, इन के गुस्से का भी क्या ठिकाना. यदि गुस्से में आ कर इन्होंने कोई कठोर कदम उठाया तो श्वेता न जाने क्या कर बैठे.

गनीमत यही थी कि पुनीत बहुत चरित्रवान थे. यदि वे छिछोरे युवकों जैसे होते तो हम कहीं के न रहते.

अगले दिन पुनीत हमारे घर फिर आए. श्वेता हमेशा की तरह बेहद खुश हुई. अब वे अकसर ही हमारे घर आने लगे. शायद श्वेता को इस बात से विश्वास हो चला था कि वे भी उसे चाहते हैं.

जब भी वे आते, अपने बारे में कुछ न कुछ ऊलजलूल बोलते चले जाते.

श्वेता कहती, ‘सर, यह चश्मा आप पर बहुत फबता है,’ तो कहते, ‘जानती हो, इस का नंबर है माइनस फाइव. 35 की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते मैं अंधा हो जाऊंगा.’

श्वेता भी उन की बातों से कुछ ऊबती हुईर् नजर आती.

एक रोज वे घर पर आए. ठीक उसी वक्त फ्यूज उड़ जाने से बिजली चली गई. श्वेता उन से बोली, ‘मैं फ्यूज वायर ला देती हूं, आप जोड़ दीजिए.’

‘मैं और फ्यूज?’ वे इस तरह घबराए, जैसे कोई अनोखी बात सुन ली हो, ‘श्वेता, फ्यूज तो दूर, मैं बिजली का मामूली से मामूली काम भी नहीं जानता. करंट लगने से मैं बेहद डरता हूं.’

श्वेता ने उन की ओर आश्चर्य से देखा, ‘सर, फ्यूज तो मैं भी जोड़ लेती हूं. बस, मीटर बोर्ड कुछ ऊंचा होने के कारण आप से कह रही हूं.’

श्वेता ने मेज पर स्टूल रखा और फ्यूज ठीक कर दिया. पुनीत यह सब खामोशी से देख रहे थे.

रात को खाना खाते समय श्वेता हंसतेहंसते यह घटना अपने पिताजी को सुना रही थी. इतना लंबाचौड़ा युवक और फ्यूज सुधारने जैसा साधारण काम नहीं कर सकता. उस की हीरो वाली छवि को इस घटना से बड़ा धक्का लगा था.

पर उस रोज मैं न हंस पाई. मैं जानती थी कि पुनीत ने जानबूझ कर ऐसी हरकत की थी.

एक रोज उन्होंने एक और मनगढ़ंत घटना सुनाई कि जब वे कालेज में पढ़ते थे, एक चोर घर के अंदर घुस आया. वे चुपचाप सांस रोके लेटे रहे. चोर अलमारी में रखे 5-7 सौ रुपए ले कर भाग गया.

श्वेता उन की ओर अविश्वास से ताकती रही, फिर बोली, ‘कुछ भी हो, आप को उसे पकड़ने की कोशिश तो करनी ही चाहिए थी. आप के साथसाथ समाज का भी कुछ भला हो जाता.’

‘समाज के लिए मरमिटूं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूं,’ वे बोले. फिर कुछ क्षण ठहर कर कहने लगे, ‘समाज हमारे लिए क्या करता है? यों तो लोग दहेज विरोधी बातें भी खूब करते हैं, पर मैं क्यों न लूं दहेज? क्या समाज मेरी बहनों की मुफ्त में शादी करवा देगा?’

श्वेता कुछ नहीं बोली, अपने सपनों के राजकुमार की खंडित प्रतिमा को वह किसी तरह जोड़ नहीं पा रही थी.

उस के कुछ दिन बड़ी मानसिक ऊहापोह में गुजरे. फिर एक रोज उस ने शायद अपने कमजोर मन पर विजय पा ही ली.

एक दिन वह बोली, ‘मां, कुछ लोग ऐसे क्यों होते हैं?’

‘कैसे?’ मैं उस के प्रश्न का रुख समझ रही थी, फिर भी पूछ लिया.

‘देखने में बड़े आदर्शवादी, समाज सुधारक और बड़ीबड़ी बातें करने वाले और अंदर से धोखेबाज, मक्कार और झूठे हैं. जैसे, जैसे पुनीत सर.’ आंसू छिपाती हुई वह अपने कमरे में चली गई. मुझे उस के दिए हुए ये विशेषण बिलकुल अच्छे नहीं लगे. मैं सोच रही थी कि मेरी बेटी को सही राह पर लाने वाला व्यक्ति सिर्फ महान, समझदार और व्यवहारकुशल हो सकता है और कुछ नहीं.

मैं ने उसे समझाया, ‘बेटी, दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं. सभी हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप  नहीं होते. वे जैसे भी होते हैं, अपनी जगह पर सही होते हैं. इसलिए उन्हें बुराभला कहना ठीक नहीं.’

श्वेता ने मुझ से बहस नहीं की, पर धीरेधीरे उस का पुराना रूप लौटने लगा. मैं खुश थी.

एक दिन पुनीत का फोन आया कि श्वेता अब उन्हें पत्र नहीं लिखती, उन से दूसरी छात्राओं की तरह  ही पेश आती है. तब मैं ने उन्हें दिल से धन्यवाद दिया.

जिस तरह नाजुक हाथों से उलझे हुए रेशम को सुलझाया जाता है, उसी तरह नफासत से उन्होंने श्वेता के दिल की गुत्थी को सुलझाया था.

उस वर्ष वह जैसेतैसे द्वितीय श्रेणी ही पा सकी, जोकि स्वाभाविक ही था. लगभग पूरा वर्ष उस ने प्रेमवर्ष के रूप में ही तो मनाया था. पर उस के बाद वह पूरी तरह पढ़ाई में जुट गई. और अब उस का सपना भी पूरा हो गया.

श्वेता के डाक्टर बन जाने की खबर मैं पुनीत को देना चाहती थी, मगर देती कैसे? एक वर्ष पहले ही वे नौकरी छोड़ कर कहीं दूसरी जगह जा चुके थे. शायद महान व्यक्ति ऐसे ही होते हैं, किसी तरह के श्रेय  या जयजयकार की कामना से दूर, खामोशी से हर कहीं सुगंध बिखेरने वाले.

पतझड़ में वसंत- भाग 2: सुषमा और राधा के बनते बिगड़ते हालात

‘मुझे भूल तो न जाएगी?’ सुषमा ने पूछा.

‘नहीं, कभी नहीं. जब जी करे, फोन कर लेना. मैं यहीं हूं, यहीं रहूंगी. यह तेरी सहेली, तेरे वापस आने का इंतजार करेगी,’ राधा ने उसे गले लगाते हुए कहा.

जाने के बाद राधा सोच रही थी, क्यों उस ने सुषमा से कहा, ‘तेरे वापस आने का इंतजार करूंगी. कहीं बुरा न मान गई हो. इस बात को 10 साल हो गए, लगता है सुषमा से मिले सदियां गुजर गईं. क्या उसे आज भी वे पुरानी बातें याद होंगी? आएगी, तो पूछूंगी. वैसे उस की खनकती हंसी और मुसकराती आंखें आज भी उस की उपस्थिति का उसे एहसास कराती हैं.

वक्त कभीकभी कितने सितम ढाता है, कौन जानता है? एक ऐक्सिडैंट में राधा के पति की अचानक मृत्यु हो गई. उस की तो दुनिया ही लुट गई. बच्चों ने एक बार फिर दोहराया, ‘मम्मी, यहां कैसे अकेली रहोगी, हमारे साथ अमेरिका में रहना ठीक होगा.’

‘नहीं, तुम्हारे पापा मुझे यहीं बैठा गए हैं. इस घर में आज भी तुम्हारे पापा हैं, उन के साथ जुड़ी यादें है. मुझे अभी यहीं रहने दो.’

‘बेटे अनिल और सुनील मां के मन की दशा को समझते थे. सो, चुप रहे. हां, एक पुरानी कामवाली व उस के बेटे से कहा, ‘आज से, तुम दोनों हमारे घर में ही रहोगे. कोई तो हो जो मां के साथ हो.’ कामवाली कमला और उस के बेटे बौबी को, अनिल और सुनील अच्छी तरह जानते थे, सो, तसल्ली थी.

ऐसे समय पर राधा को सुषमा की बड़ी याद आई. वक्त से बढ़ कर मरहम भी कोई नहीं है. फिर भी बच्चों ने सलाह दी कि मम्मी को कोई काम पकड़ना चाहिए. काम में व्यस्त रहेंगी तो मन लगा रहेगा.

राधा ने एक एनजीओ जौइन कर लिया. वक्त आसानी से कट जाता. लेकिन कई बार उसे लगता, 5 कमरों के इस दोमंजिले घर का ऊपरी हिस्सा तो बंद ही रहता है. साफसफाई के साथ आएदिन मरम्मत की जरूरत भी मुंहबाए खड़ी रहती है. कई लोगों ने बच्चों को सलाह दी, ‘इस मकान को बेच दो, अच्छे पैसे मिल जाएंगे? बदले में मां को एक छोटा फ्लैट खरीद दो. आधे दाम में एवन सोसायटी में बड़ा अच्छा फ्लैट मिल सकता है.’

‘वक्त की दौड़ में शामिल होना समझदारी हो सकती है. पर मेरे घर को ले कर ऐसा कुछ सोचना, समझदारी न होगी. नहीं, इस घर में हमारा बचपन बीता है, हमारे बचपन की मीठी यादें इस से जुड़ी हैं. यह घर हमारे दादीदादा की धरोहर है. इस का कोई मोल नहीं है.’ बेटों के मुंह से पति की भाषा सुन कर राधा को बड़ी खुशी हुई.

‘क्यों न हम ऊपर की मंजिल को किराए पर चढ़ा दें?’ बेटों ने प्रस्ताव रखा.

‘यह ठीक रहेगा, चहलपहल भी रहेगी और आमदनी भी होगी,’ राधा को बात पसंद आई. ऊपर की मंजिल में एक लाइब्रेरी है जिसे एक ट्रस्ट चलाता है. किराया भी अच्छा मिल जाता है. यह बच्चों की सूझबूझ से हुआ है. इस बीच, आसमान में बदलों के गरजने की जोरदार आवाज आई तो राधा के विचारों का सफर खत्म हुआ.

आज जब राधा को, सुषमा का मेल आया तो वह लाइब्रेरी में ही थी. ट्रस्ट के मैनेजर कई बार उस से कह चुके हैं ‘मैडम, हमें कोई लाइब्रेरियन बताएं. हमारे पास कोई लाइब्रेरियन नहीं है.’ वह सोच रही थी, ‘काश, आज सुषमा होती…’ ईमेल फिर से पढ़ कर सोचने लगी, ‘क्या जवाब दूं?’

‘प्रिय सुषमा

‘तेरी तरह मैं भी तुझे कभी नहीं भूली. यह दिल, घर का यह दरवाजा हमेशा ही तेरे स्वागत में खुला है. यह हिंदुस्तान है, यहां लोग किसी के घर पूछबता कर नहीं आते. फिर तू ने क्यों पूछा? शायद, विदेशी सभ्यता में ढल गई है. आएगी तो कान खींचूंगी, भला अपनी सभ्यता क्यों भूली.

‘तेरी अपनी राधा.’

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे पर सुषमा को देख राधा चौंक पड़ी

‘‘अरे, यह कैसा सुखद संयोग.’’

‘‘लो, तूने ही तो मुझे याद दिलाया था कि यह हिंदुस्तान है. बस, मुंह उठाए चली आई. कोई शक?’’

‘‘नहीं, कोई शक नहीं,’’ राधा ने देखा, दोनों के मिलनसुख में सुषमा के नयन कटोरे छलछला रहे हैं. राधा भी अपने को रोक न सकी. दोनों सहेलियां बहुत देर तक अनकहे दुख से एकदूसरे को भिगोती रहीं. पतियों की बातें, उन की मृत्यु का दुखद आगमन, फिर बच्चे. बच्चों की बात पर सुषमा चुप हो गई. राधा को कुछ अजीब सा लगा.

सो, आगे कुछ भी न बोली. सोचा, थकी है शायद, जैटलैग उतरेगा, तभी सामान्य हो पाएगी. बच्चों की बातें फिर कभी.

सुषमा को आए डेढ़ महीना गुजर गया था. पर चेहरे की उदासी न गई. हंसताखिलखिलाता चेहरा जैसे वह अमेरिका में ही छोड़ आई थी.

‘‘क्या तुझे यहां मेरे घर में कुछ परेशानी है?’’ राधा के मन में कहीं अपराधबोध भी था.

‘‘अरे नहीं, बस यों ही,’’ सुषमा बात को टालना चाहती थी.

एक दिन एनजीओ से लौटी तो देखा सुषमा फूटफूट कर रो रही थी.

उसे रोता देख राधा घबरा गई, ‘‘क्या हुआ? बताती क्यों नहीं. मुझ से तो कहती है, मैं तेरी सहेली हूं. फिर क्यों अंदर ही अंदर घुट रही है?’’

यह सुन कर सुषमा का रोना और तेज हो गया.

राधा ने उसे झकझोर कर कहा, ‘‘मैं जो समझ पा रही हूं वह शायद यह है कि कोई ऐसी बात तो जरूर है जो तू मुझ से छिपा रही है. वैसे, मैं होती कौन हूं यह सब पूछने वाली? मैं तेरी कलीग ही तो हूं. बहुत बदल गईर् है, तू.’’

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