Download App

GHKKPM: विनायक के लिए चौहान हाउस आएगी सई, शो में आएगा ये ट्विस्ट

स्टार प्लस का मशहूर सीरियल गुम है किसी के प्यार में  के लेटेस्ट  ट्रैक को  दर्शकों खूब पसंद कर रहे हैं. शो में अब तक आपने देखा कि विराट सई  के साथ जगताप को देखकर भड़का जाता है और  उससे इलाज नहीं करवाना चाहता है. औऱ वह वापस आने की तैयारी करने लगता है. शो के अपकमिंग एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते हैं,शो के अपकमिंग एपिसोड में…

शो में आप देखेंगे कि अश्विनी का फोन आता है, वह विनायक से बोलती है कि वह डॉक्टर आंटी और अपनी दोस्त सवि को भी साथ ले आए. विनायक खुश हो जाता है लेकिन विराट उसे मना कर देता है.  घरवाले उसे याद दिलाते हैं कि पत्रलेखा का बर्थडे है.वह पत्रलेखा को बर्थडे विश करता है.

 

सई पाखी-विराट और विनायक को हंसी-खुशी देखकर  कहती है कि उसकी उन लोगों की जिंदगी में कोई जगह नहीं है.सई मौसी से कहती है कि सब लोग पाखी को प्यार करते हैं. वह कहती है कि उस परिवार के लिए परेशानी नहीं बनना चाहती.

 

विराट पत्रलेखा से सॉरी बोलता है और कहता है कि वह बर्थडे भूल गया. पाखी बोलती है कि बर्थडे हर साल आता है, कोई बड़ी बात नहीं है. इस पर विराट बोलता है कि तुम सुलझी हुई हो. वह उसे शुक्रिया भी बोलता है. सई दोनों की बात सुन लेती है.

 

खबरों के अनुसार विराट, पाखी और विनायक घर चले जाएंगे. इस बीच विनायक सीढ़ियों से गिर जाएगा और उसे चोट लग जाएगी. उसे किसी भी डॉक्टर के इलाज का फायदा नहीं होगा. पाखी सई से गिड़गिड़ाएगी कि वह वीनू के इलाज के लिए आ जाए. विनायक के लिए सई चौहान हाउस आने को तैयार हो जाएगी. शो में अब ये देखना होगा कि सई को देखकर विराट के परिवार का क्या रिएक्शन होगा?

दादी और पत्नी की जिम्मेदारी में फंसेगी अनुपमा! परितोष करेगा सुसाइड?

रुपाली गांगुली, सुधांशु पांडे और गौरव खन्ना स्टारर सीरियल ‘अनुपमा’ में लगातार ऐसे ट्विस्ट और टर्न्स आ रहे हैं.  जिससे  टीआरपी लिस्ट में यह शो टॉप पर बना हुआ है.  शो के बीते एपिसोड में दिखाया गया कि किंजल शाह हाउस छोड़कर अनुपमा के घर जाने का फैसला कर लेती है. ऐसे में बा उसे रोकने की कोशिश करती है लेकिन वह शाह हाउस में नहीं रुकती है. वह कहती है कि अगर वो वहां रही तो उसका दिमाग फट जाएगा. शो के अपकमिंग एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते हैं, शो के नये एपिसोड के बारे में…

शो में आप देखेंगे कि किंजल अनुपमा के घर जाने की जिद पर अड़ी रहती है. ऐसे में वनराज और काव्या उसे कपाड़िया हाउस पहुंचाने जाते हैं. वनराज, परी को अनुपमा कौ सौंपते हुए कहता है कि वह किंजल की जिम्मेदारी अनुपमा को देता है. इसके साथ ही वह अनुपमा और अनुज से माफी भी मांगता है. लेकिन  अनुज उसकी जज्बातों को समझते हुए कहता है कि उसका जब मन चाहे वह अपनी बेटी और पोती से मिलने के लिए कपाड़िया हाउस आ सकता है.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Anupama (@anupama_star_plus1)

 

तो दूसरी तरफ समर परितोष को बताता है कि किंजल कुछ दिनों के लिए अनुपमा के घर गई है. यह बात सुनते ही परितोष का पारा चढ़ जाता है और उसे लगता है कि अनुपमा, किंजल को तलाक के लिए उकसाएगी.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Anupama (@anupama_star_plus1)

 

शो के अपकमिंग एपिसोड में यह भी दिखाया जाएगा कि वह किंजल को फोन भी करता है, लेकिन किंजल फोन काट देती है. इसपर परितोष के मन में आत्महत्या जैसे ख्याल आने लगते हैं. खबरों के अनुसार शो में किंजल को मनाने के लिए परितोष  आत्महत्या करेगा.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Anupama (@anupama_star_plus1)

 

शो में आप ये भी देखेंदे कि किंजल की बेटी का रोना बंद नहीं होता है. तो वहीं दूसरी तरफ उसे संभालने के चक्कर में अनुज गिर पड़ता है. ऐसे में अनुपमा कभी भागकर अनुज की तरफ आती है तो कभी किंजल की तरफ जाती है. वह बहुत ज्यादा परेशान हो जाती है.

कांग्रेस गांधी के साथ से, जादूगर के हाथ में…

आखिरकार दो दशकों के बाद अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के “राष्ट्रीय अध्यक्ष” का चुनाव होने जा रहा है. राष्ट्रीय स्तर की महानतम राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष बनने के लिए बमुश्किल दो नाम सामने आए हैं पहला – राजस्थान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, दूसरा- बौद्धिक… इंटेलिजेंट के रूप में स्थापित कांग्रेस के सांसद शशि थरूर का. आज जो परिस्थितियां सामने हैं उसके अनुसार अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस गांधी परिवार से निकलकर अब बहुत जल्द एक “जादूगर” के हाथों में होगी.

आगे 2024 के लोकसभा समर में, जीवन की शुरुआत एक मैजिशियन के रूप शुरू करने वाले अशोक गहलोत पार्टी को क्या सत्ता दिला पाएंगे, यह एक ऐसा प्रश्न है जो भविष्य के गर्भ में है .

दरअसल,आज जब कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव होने जा रहा है कांग्रेस पार्टी को ऐसी रणनीति की आवश्यकता है आने वाले समय में संपूर्ण देश में कांग्रेस को मजबूत बनाने का काम करें और 10 वर्षों से केंद्र के शासन से बाहर रहने के बाद सत्ता में लौटा सके और देश को नई दिशा दे सके, जिसकी आज बहुत आवश्यकता महसूस हो रही है.

लाखों सवालों में एक सवाल यह है कि अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसके इतिहास से दुनिया वाकिफ है जिसने लंबे समय तक देश में शासन किया के पास क्या कोई ऐसा रणनीतिकार ऊर्जा वान शख्सियत है भी कि नहीं जो भारतीय जनता पार्टी जैसे विचारधारा वाली पार्टी से जमीनी स्तर पर लड़ सके और जवाब दे सके.

आज जब चुनाव सामने हैं तो यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी आज जिन हाथों में है वह एक “मास्टर प्लान” बना करके देश में शासन कर रहे हैं, और लक्ष्य है 50 वर्षों का सत्ता नहीं छोड़ने का. विपक्ष को नेस्तनाबूद कर देने का .

इसी रणनीति के तहत भारतीय जनता पार्टी आज विपक्ष को कमजोर करती चली जा रही है गोवा में कांग्रेस को तोड़ दिया गया, पंजाब में अमरिंदर सिंह को उनके सुपुत्र सहित भाजपा में जगह दे दी गई, बिहार हो या झारखंड, दिल्ली हो या पंजाब राज्य में भारतीय जनता पार्टी विपक्ष पर मानो बिजली की तरह टूट पड़ी है. इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद सब कुछ अपनाया जा रहा है. ऐसी जटिल परिस्थितियों में राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस ही एकमात्र राजनीतिक दल है जो जमीनी स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं के और अपनी विचारधारा के बल पर भाजपा को हाशिए पर ला सकती है. मगर उसके लिए एक ही मंत्र है- राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसा हो जो पार्टी को सत्ता में लाने की क्षमता रखता हो, असीम ऊर्जावान हो.

जादूगर अशोक गहलोत

राजनीति में आने से पहले अशोक गहलोत एक जादूगर थे, यह बात आप गर्व के साथ  बताया करते हैं.

अब स्थितियां ऐसी बनती चली जा रही हैं कि आने वाले समय में कांग्रेस अशोक गहलोत के कांधे पर सत्ता की सवारी करने के लिए तैयार है. मगर माना यह जा रहा है कि लगभग 75 साल के अशोक गहलोत इस उम्र में भला कांग्रेस पार्टी को कैसे दिशा दे सकते हैं ऊपर से राजस्थान के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी भी छोड़ने का मोह बना हुआ है .

चुनाव मैदान में आने से पहले अशोक गहलोत के मुताबिक – मै कोच्चि जाकर राहुल गांधी को इस बात के लिए मनाने का प्रयास करूंगा कि वह पार्टी अध्यक्ष का पद संभालें . उनका कहना है राहुल गांधी से बातचीत करने के बाद ही वे तय करेंगे कि आगे क्या करना है. गहलोत के मुताबिक कि मुझे कांग्रेस की सेवा करनी है मैं 50 साल से पार्टी की सेवा कर रहा हूं। जहां भी मेरा उपयोग है, मैं वहां तैयार हूं अगर पार्टी के लोगों लगता है कि मेरी मुख्यमंत्री के रूप में जरूरत है, या अध्यक्ष के रूप में जरूरत है तो मैं मना नहीं करूंगा. अशोक गहलोत कहते हैं अगर मेरा बस चले तो मैं किसी भी पद पर नहीं रहूं. मैं राहुल गांधी के साथ सड़क पर उतरूं और फासीवादी लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दूं .

राहुल गांधी की भूमिका

सच तो यह है कि कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की छाया से बाहर आज भी अपने आप को असहाय पाती है. ऐसे में जब राहुल गांधी ने साफ-साफ कह दिया है कि अध्यक्ष पद किसी भी हालात में नहीं संभाल सकते तो कांग्रेस के सामने संकट और भी गहरा गया है. यही हालात रहे तो 2024 में भी कांग्रेस के हाथ में शून्य ही होगा .

राहुल गांधी अभी ऐतिहासिक भारत जोड़ो यात्रा में निकले हुए हैं और इससे सत्ता में बैठे हुई भाजपा पार्टी को असहज देखा जा रहा है . 23 सितंबर को राहुल गांधी दिल्ली पहुंचेंगे तो अपनी मां सोनिया गांधी से मुलाकात करेंगे.  भारत जोड़ो यात्रा 24 तारीख की सुबह पुनः शुरू होगी और नामांकन पत्र नहीं दाखिल करने का ऐलान राहुल द्वारा किया जा चुका है. इन सब परिस्थितियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि आज अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और देश ऐसे चौराहे पर खड़ा है यहां से एक नई ऐतिहासिक के बाद इबारत लिखी जानी है.

अकेलापन व सफल महिलाएं

स्टार्टअप इंडस्ट्री भौचक्की रह गई जिस दिन पता चला कि पंखुड़ी और ग्रैबहाउस कंपनियों की मालकिन 32 वर्षीया पंखुड़ी श्रीवास्तव ने आत्महत्या कर ली. वर्ष 2019 में पंखुड़ी ने 32 लाख डौलर की पूंजी एक कंपनी को अपने काम से प्रभावित कर के अपनी कंपनी में लगवाई थी. उस जैसी सफल युवती की कहानी का पूरा पता इंटरनैट पर तो नहीं मिलेगा क्योंकि जो भी असली बात होगी, छिपा दी जाएगी पर आर्थिक संकटों के चलते उस ने आत्महत्या की, ऐसा लगता नहीं.

वर्षों पहले जानीमानी मौडल विवेका बाबाजी की आत्महत्या की घटना के पीछे बेशक कोई किसी रहस्य के छिपे होने की बात करे पर उस की जिंदगी में   झांकने के बाद यह साफ हो गया था कि उस जैसी सफल और ग्लैमर की दुनिया की चहेती मौडल ने अकेलेपन से घबरा कर ऐसा कदम उठाया था.

अभिनेत्री परवीन बौबी भी एक दिन अपने घर में मृत पाई गई थीं. मशहूर गायिका आशा भोंसले की बेटी वर्षा भोंसले ने अपने अकेलेपन की वजह से उपजे अवसाद के कारण आत्महत्या कर ली. सबकुछ हासिल करने के बाद भी अनुराधा बाली को आत्महत्या करनी पड़ी. ये तो कुछ नाम हैं पर ऐसी अनगिनत सफल औरतें हैं जिन्होंने सफलता की ऊंचाइयां तो छू ली थीं पर महत्त्वाकांक्षा की अपनी दौड़ में इतने तेज कदमों से भागीं कि बाकी सारे रिश्तेनाते उन की पकड़ से छूट गए. आखिरकार उन के हाथ आया भारी अकेलापन और पीछे छूट गया जिंदगी का पछतावा, जिस की वजह से या तो उन्होंने खुद को समाज से काट कर गुमनामी का रास्ता चुना या फिर आत्हत्या कर ली.

जरूरत होती है प्यार की

सवाल उठता है कि आखिर क्यों इतनी भारी संख्या में सफल, सुंदर और काबिल औरतें कमजोर व अकेलापन महसूस करती हैं? वे सफलता के शीर्ष पर पहुंचने के बावजूद क्यों अपनेआप को इतना असहाय सम  झती हैं कि डिप्रैशन का शिकार हो जाती हैं और अकसर मौत को अपनी नियति मान स्वीकार कर लेती हैं? आखिर क्या वजह है कि उन की बाहरी और आंतरिक दुनिया में एक बड़ा फासला होता है और यह फासला ग्लैमर की दुनिया से जुड़ी औरतों के जीवन में कुछ ज्यादा ही लगता है.

समाजशास्त्री मानते हैं कि समाज में उन औरतों के प्रति व्यवहार कुछ अलग तरह का होता है. समाज ऐसी सफल औरतों को तो अलग ढंग से देखता ही है, साथ ही वे औरतें भी खुद को अलग ढंग से आंकती हैं. उन के अंदर एक सुपरिऔरिटी कौंप्लैक्स होता है जिस के चलते वक्त गुजरने के साथसाथ वे अपने को रिश्तों से काटती जाती हैं जो उन के अकेलेपन को और बढ़ाता जाता है. ये सफल औरतें उन सफल औरतों से हर माने में भिन्न होती हैं जिन्होंने वक्त रहते अपने जीवन की सैल्फ लाइफ खत्म होने से पहले ही शादी व परिवार की अहमियत को सम  झ उसे अपना लिया था और अकेलेपन का शिकार होने से बच गई थीं.

सच तो यह है कि कोई भी औरत चाहे कितना ही कामयाबी के शिखरों को ही क्यों न छू ले, उसे भी आखिरकार प्यार की जरूरत होती है. वह भी किसी का साथ चाहती है. हर औरत निराशा के भंवर में फंस जाए, उस से पहले वह भी हाउसवाइफ बनने की कामना रखती है. लेकिन कैरियर कभीकभी उन के सामने इस तरह की चुनौतियां रख देता है कि उन्हें विवाह को नजरअंदाज कर अकेले ही राह पकड़नी पड़ती है. जिस समय उन का कैरियर बन रहा होता है, उस समय तो बंधनहीन जीवन उन्हें लुभाता है पर एक वक्त ऐसा आता है जब सबकुछ होने के बावजूद उन्हें लगता है कि उन के जीवन में कोई भारी कमी है. उन के पास सुखदुख बांटने वाला कोई नहीं है. एक वक्त पर आ कर उन्हें लगने लगता है कि उन की अचीवमैंट सिर्फ अकेलापन ही है.

अपेक्षाएं देती हैं दर्द

वर्ष 1900 के आसपास एक मशहूर गायिका थीं गौहर जान. वे पहली ऐसी महिला थीं जिन के गाने रिकौर्ड हुए थे और जो मुंहमांगी कीमत मांगती थीं. यहां तक कि एक बार तो उन की यात्रा के लिए पूरी एक ट्रेन बुक की गई थी पर उन का अंत क्यों बुरा हुआ?

उन का कैरियर तो दांव पर लगा ही, साथ ही वे जिन से प्यार करती थीं, उन के साथ धोखा किया. मीना कुमारी ने खुद को शराब में डुबो कर खत्म कर दिया, मधुबाला की मौत भी रहस्य बनी रही. सुरैया ने अपने को खुश रखने के लिए हैवी मेकअप और ज्वैलरी का सहारा लिया.

सैक्स औब्जैक्ट की तरह सम  झे जाने वाली ये औरतें बेशक बाहर से जताती हैं कि उन्हें किसी की परवा नहीं, लेकिन भीतर से वे चाहती हैं कि कोई उन्हें प्यार करे, उन्हें सम  झे. अनुराधा बाली भी इसी आस में अपनी जान गंवा बैठीं. ऐसी औरतों में सबकुछ खो जाने का डर और समाज की अवहेलना सर्वोपरि होती है. समाज में सफल ये औरतें प्यार से अछूती होती हैं.

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि सफलता प्राप्त करने वाली इन औरतों की महत्त्वाकांक्षा उन्हें कुछ अलग बना देती है और उपेक्षाएं आसमान छूने लगती हैं. इस वजह से वे पुरुष भी कुछ अलग ही किस्म का चाहती हैं जो उन की भावनाओं को सम  झे और उन्हें सहयोग दे. अपनी तेज उड़ान और मुट्ठी में बंद ऐशोआराम की जिंदगी उन्हें सम  झौता करना सीखने नहीं देती. लेकिन जब जरूरत होती है तब उन्हें ऐसा पुरुष नहीं मिल पाता और फिर वे अकेलेपन को ही साथी बना लेती हैं.

द्य इसी साल 14 अप्रैल को दिल्ली के अक्षरधाम मैट्रो स्टेशन से कूद कर एक लड़की ने आत्महत्या कर ली. वह शायद डैफ एंड डंब थी. उस के पंजाब में रहने वाले परिवार ऐसा कह रहे थे. वह गुड़गांव की एक कंपनी में काम कर रही थी. अगर शारीरिक कमी थी भी तो वह असफल नहीं थी. फिर भी हताशा में उस ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया.

कंप्रोमाइज नहीं कर पातीं

असल में हमारे समाज का ढांचा ऐसा है कि अकसर सफल पत्नी हो तो पुरुष का ईगो आहत होता है और दूसरी ओर सफल औरतें सम  झौता नहीं कर पातीं या उन्हें ऐसा करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती. वे अपनी शर्तों पर जीना चाहती हैं. अगर वे विवाह कर भी लेती हैं तो भी जल्दी ही उन का सेपरेशन हो जाता है. कोरियोग्राफर लुबना एडम्स जिन का विवाह एक मौडल से हुआ था और फिर जल्दी वे अलग हो गए थे, कहती हैं, ‘‘सफल साथी होना ऐसे आदमियों को असुरक्षित बना देता है जिन में आत्मविश्वास की कमी होती है. उन्हें हमेशा यही डर सताता रहता है कि वे उस की अपेक्षाओं पर खरे उतर भी पाएंगे कि नहीं. अकसर पुरुष ऐसी औरतों से विवाह करने से भी घबराते हैं जो सफल, सुंदर और योग्य होती हैं. वे यह जानते हैं कि ऐसी औरतें किसी का डोमिनैंस स्वीकार नहीं कर पाती हैं और सम  झौता न कर पाने के कारण अकसर ऐसे रिश्तों का अंत तलाक होता है.

‘‘ये औरतें अपने काम में इतना डूब जाती हैं कि जब तक उन के अंदर किसी साथी की चाह पैदा होती है, उन की उम्र बहुत हो चुकी होती है. उस समय किसी पुरुष का उन की ओर आकर्षित होना असंभव ही होता है क्योंकि इस बात को   झुठलाया नहीं जा सकता है कि पुरुष सुंदर और युवा महिलाओं को ज्यादा पसंद करते हैं. जब तक किसी से जुड़ने का खयाल उन के मन में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और फिर अकेलापन उन पर हावी होने लगता है. कई तो जल्दबाजी में नाजायज संबंधों में उल  झ जाती हैं लेकिन उस में जीवनभर साथ देने की गारंटी नहीं मिलती.’’

अत्यधिक शिक्षित, अत्यधिक सफल और समाज में एक हैसियत व स्तर रखने वाली औरतें निजी तौर पर बहुत अपूर्ण होती हैं. एक मुकाम पर पहुंचने के बाद साथी की कमी उन्हें खलती है और तब किसी का हाथ थामना तो उन का गलत निर्णय साबित होता है या संबंधों में उन्हें धोखा मिलता है. लेखिका क्लारिसा पिंकोला अपनी किताब ‘इन वूमेन हू रन विद द वूल्फ्स’ में कहती हैं कि ऐसी सफल औरतें कभी समाज के ढांचे और कभी मनचाहा सपोर्ट न मिलने के कारण हमेशा अकेलेपन से घिरी रहती हैं.

ऐसा भी कर सकती हैं

पौजिटिव आउटलुक : अकेलेपन को हावी होने देने के बजाय जीवन के प्रति एक पौजिटिव आउटलुक रखें. किसी रोमांटिक रिलेशनशिप से जुड़ना सफलता की निशानी नहीं है. न ही विवाह एक कंपलीट व्यक्ति होने का जरिया है. खुश रहने के लिए आप का कोई बौयफ्रैंड हो, ऐसा जरूरी नहीं और वैसे भी अगर आप किसी को भी अपनी जिंदगी में शामिल करने के लिए तैयार नहीं हो पा रही हैं तो अपने पर विश्वास रखते हुए खुश रहें.

व्यस्त रहें : आप कैरियर वूमेन हैं, सफल हैं तो जाहिर है कि बिजी भी होंगी. फिर भी अकेलापन लगे तो अपने मित्रों के साथ वक्त गुजारें, कोई हौबी डैवलप करें, क्लब जौइन कर लें जिस में वक्त बिताना आरंभ करें. पढ़ने की आदत डालें ताकि मन भी लगा रहे और जानकारियां भी मिलें.

मित्र बनाएं : आप ने किसी पुरुष को अपनी जिंदगी में पति के रूप में शामिल नहीं किया है, इस का अर्थ यह नहीं कि आप अपने पुरुष मित्रों से भी दूरी बना कर रखें. अपने मित्र चाहे वे पुरुष हों या महिलाएं, दोस्ती बना कर रखें. यह जरूरी नहीं कि आप ऐसा करते हुए अपने पुरुष मित्र के साथ इमोशनली अटैच्ड हो जाएं या उन्हें आप का फायदा उठाने का मौका दें. फ्रैंड जीवन में किसी अमूल्य धरोहर से कम नहीं होते, उन्हें संभाल कर रखें.

अपने को पैम्पर करें : अकेले होने का मतलब यह नहीं कि आप को अपनी हसरतों को पूरा करने का हक नहीं. आप अकेले भी घूमने जा सकती हैं, किसी रैस्तरां में बैठ कर खाना खा सकती हैं. फिल्म देखने जा सकती हैं. पार्लर में जा कर अपना पूरा ट्रीटमैंट करवाएं. सैर पर निकल जाएं या फिर स्पा का आनंद उठाएं. चांदनी रात में तारों को निहारें, म्यूजिक सुनें या फिर अपनी मनपसंद धुन पर नाच उठें. सोचें आप जो करना चाहती हैं, उसे करने से रोकने वाला कोई नहीं है यानी अपनी आजादी को बिना किसी गिल्ट या हिचक के एंजौय करें.

पछताएं नहीं : अकेले रहने का फैसला आप का है. जीवनभर पछताने के बजाय अपने लिए ऐसी राहें तलाशें जो आप की पर्सनैलिटी को और निखारें. आप को बहुत सारे काम अपनेआप करने होंगे, जिंदगी के अहम निर्णय भी अपनेआप करने पड़ेंगे. इस के लिए अपने को तैयार रखें. इस के लिए आप का मैंटली व फिजिकली फिट रहना भी आवश्यक है, इसलिए अपनी हैल्थ पर बराबर ध्यान दें. परेशान रहेंगी तो हैल्थ पर भी असर पड़ेगा और आप की मैंटल स्टैबिलिटी पर भी.

आगे की सोचें : यह न भूलें कि आप की आत्महत्या से समस्याओं का अंत हो जाएगा. आप के परिवार, घनिष्ठ मित्रों, किसी पति या प्रेमी पर जीवनभर एक धब्बा लगा रहेगा. अगर आर्थिक कारण हैं तो देनदारी बनी रहेगी और उसे कोई और चुकाएगा. असली सफलता वह है जिस में आप समाज, परिवार व शासन के नियमों से लड़ सकें. इन में हार हो तो भी आत्महत्या कोई अंतिम उपाय नहीं है.

असहमति पर दुर्गति

असहमति स्वाभाविक व मौलिक मानवीय गुण है और इसी से मानव का विकास संभव हुआ है. अब लोकतंत्रों के विकास के इस दौर में असहमत लोगों की आवाज बंद करने की सत्ताधारियों की कोशिश बताती है कि राजनीति और धर्म के पैरोकार तरक्की नहीं, कुछ और चाहते हैं.

एक चर्चित मगर विवादित लेखक सलमान रुश्दी का गुनाह बहुत संगीन है कि एक तो वे नास्तिक और दूसरे, मुसलमानों के पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में गुस्ताखी करते रहते हैं. लेकिन यह सब हवाहवाई नहीं है बल्कि इस के पीछे उन के अपने तर्क हैं. कट्टर से कट्टरवादी भी सलमान के तर्कों से असहमत नहीं हो सकता बशर्ते वह उन के उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेस’ यानी शैतानी आयतों को बिना किसी पूर्वाग्रह के दिलोदिमाग की खिड़कियां खोल कर पढ़ ले. इस उपन्यास का सार और एक बहुत बड़ा सच उसी में लिखे एक वाक्य से स्पष्ट हो जाता है कि शुरुआत से ही आदमी ने गलत को सही ठहराने के लिए ईश्वर का इस्तेमाल किया.

खुद को सही और इसलाम व पैगंबर से असहमति जताने के जुर्म की सजा देने की कोशिश में अमेरिका के पश्चिमी न्यूयौर्क के चौटाउक्का इंस्टिट्यूशन में

2 अगस्त को एक नौजवान ने सलमान रुश्दी पर जानलेवा हमला कर दिया. हमला इतना खतरनाक और नफरत व प्रतिशोध से भरा हुआ था कि महज 20 सैकंड में उन के गले और पेट पर दर्जन से भी ज्यादा प्रहार किए गए. हमलावर का नाम है हादी मतार जो न्यूजर्सी में रहता है. सलमान को पुलिस सुरक्षा में तुरंत हवाई जहाज से अस्पताल ले जाया गया और उन की जान बच गई.

न्यूयौर्क पुलिस की निगाह में हादी मतार के हमले की वजह भले ही स्पष्ट नहीं हो लेकिन किसी को यह बताने की जरूरत नहीं पड़ी कि यह उस फतवे का दीर्घकालिक असर है जो अब से 33 साल पहले 1989 में ईरान के सर्वोच्च धर्मगुरु, जाहिर है कट्टर, अयातुल्लाह खुमैनी ने जारी किया था कि सलमान रुश्दी को मारने वाले को 30 लाख डौलर का इनाम दिया जाएगा क्योंकि उन्होंने अपने उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेस’ में पैगंबर मोहम्मद के प्रति बेअदबी की है. यह सोचना बेमानी है कि हादी मतार ने सिर्फ इस रकम के लालच में हमला किया बल्कि उस की मंशा इसलाम के उसूलों की हिफाजत करना ज्यादा थी.

दरअसल, हादी मतार जैसे युवा एक द्वंद्व से घिरे होते हैं कि जो धार्मिक किताबों में लिखा है वह सच है या सच वह है जो सलमान रुश्दी जैसे लेखक वक्तवक्त पर लिखते रहते हैं. जब वे आस्था और तर्क के बीच में फंस जाते हैं तो परेशानी से छुटकारा पाने को दूसरे सच के पैरोकारों की आवाज घोंटने के लिए हिंसा का सहारा लेने से नहीं चूकते. यह सिलसिला आदिम था, है और रहेगा कि हर गलत बात के लिए ईश्वर नाम की कल्पना का सहारा लिया जाना ही धर्म है. कट्टरवादियों का ऊपर वाले में भरोसा शक से घिरा रहता है और वह इतना कमजोर होता है कि लोग खुद न्याय करने पर उतारू हो आते हैं.

हर उस लेखक पर जानलेवा हमले, फतवे, मुकदमे, धरनेप्रदर्शन वगैरह होते रहे हैं जिन्होंने ईश्वर व धर्म से असहमति जताने की जुर्रत की है. धर्म की सत्ता से असहमत इन लेखकों में एक बड़ा दूसरा नाम तसलीमा नसरीन का है जो सलमान रुश्दी की ही तरह जिंदगीभर भागतीदौड़ती निर्वासित जिंदगी जीती रहीं. रुश्दी पर हमले के बाद अब वे भी भयभीत और चिंतित नजर आईं.

बकौल तसलीमा, ‘‘हमले का खतरा मु?ा पर भी मंडरा रहा है क्योंकि कट्टर विचारधारा बढ़ रही है. अब नए फतवे भले ही जारी न हो रहे हों लेकिन नएनए कट्टरपंथी पैदा हो रहे हैं. जब तक कट्टरपंथ खत्म नहीं होगा, इसलामी समाज धर्मनिरपेक्ष नहीं बनेगा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, इसलाम में सुधार नहीं किया जाएगा तब तक ऐसा खतरा बना रहेगा.’’

असहमति से डर क्यों

कट्टरपंथ के बढ़ने की वजहों को ले कर तसलीमा कहती हैं, ‘‘कट्टरपंथ लोगों के दिमाग में है. उन का ब्रेनवाश कर के उन के दिमाग में यह विचार डाला गया है कि इसलाम के आलोचकों को मार दिया जाना चाहिए. असली समस्या यही है.’’

तसलीमा की बातों को केवल इसलाम में समेट कर देखा जाना उन की मंशा के साथ ज्यादती होगी. वे भारत में शरणार्थी हैं, इसलिए खुल कर यहां के कट्टर होते माहौल पर नहीं बोल सकतीं पर इस खतरे को सम?ा जाना जरूरी है.

असहमति की शाब्दिक परिभाषा बहुत ज्यादा माने नहीं रखती जिस से सिर्फ यह पता चलता है कि यह दो विचारों या विचारधाराओं का टकराव है. सिर्फ ऐसा होता तो कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि फिर न दुनियाभर में युद्ध होते, न हिंसा होती और न ही कोई बैर होता.

दरअसल, असहमति का विचार बहुत व्यापक है जो जिद, अव्यावहारिक मान्यताओं व धारणाओं के अलावा धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और पारिवारिक व व्यक्तिगत अहं और भ्रम को भी तोड़ता है. दुनियाभर में जो तरक्की हुई है, आधुनिकता आई है, जिंदगी आसान हुई है तो उस की वजह सिर्फ असहमति है, सो इसे एक दुश्मनी सम?ा लेना भारी भूल है.

दुनियाभर के ज्यादातर देशों में लोकतंत्र है जिस की बुनियाद ही इस बात पर टिकी है कि आप किसी भी बात से असहमत होने का अधिकार न केवल रखते हैं बल्कि उसे व्यक्त भी कर सकते हैं. यह और बात है कि अधिकतर देशों में यह कहनेभर की बात है, वरना बोलबाला अभी कट्टरवादियों, धर्मांधों, बहुसंख्यवादियों और नव सामंतों व पूंजीपतियों का है.

यहां 16वीं शताब्दी के इतालवी वैज्ञानिक गैलेलियो का जिक्र बहुत मौजूं होगा जिन्होंने चर्च से असहमत होते हुए यह साबित कर दिया था कि पृथ्वी गोल है और वह सूर्य की परिक्रमा करती है. गैलेलियो की यह थ्योरी रोमन चर्च और पादरियों को बेहद नागवार गुजरी क्योंकि उन की पवित्र बाइबिल में तो लिखा था कि पृथ्वी ही अंतरिक्ष का केंद्र है और सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है.

यह वह दौर था जब विज्ञान के कोई माने नहीं थे. सच वही माना जाता था जो धर्मग्रंथों में लिखा है. राजा शासन करते थे और भेड़ों सी जीती जनता कोई तर्ककुतर्क नहीं करती थी. गैलेलियो को तबीयत से प्रताडि़त किया गया.

आज भी बहुतकुछ बदला नहीं है, बस, असहमत लोगों को परेशान करने के तौरतरीके बदल गए हैं.

युवाओं की एक फौज स्कूलकालेजों से ही तैयार की जा रही है. भारत में यह काम बेहद धूर्तता से शिक्षा नीति और परीक्षा पद्धति में बदलाव कर भी किया जा रहा है. कोशिश यह है कि कम उम्र में ही तर्कक्षमता खत्म कर दी जाए तो युवा कोई विद्रोह या सवाल नहीं करेंगे. बोलबाला इन दिनों हिंदुत्व का है जिसे बनाए रखने व बढ़ाने के लिए रोबोट जैसे युवा निर्मित किए जा रहे हैं जो सत्ताधीशों और धर्म गुरुओं के इशारों पर नाचें और जो मिले उसे भगवान का प्रसाद सम?ा संतुष्ट हो जाएं. यानी, किसी भी कीमत पर वे असहमत न होने पाएं. इंदिरा गांधी ने 1965 के बाद समाजवाद के नाम पर ऐसी जमात तैयार की थी.

रोबोट बन रहे नौनिहाल

असहमत वही होगा जो तर्क करना जानता हो, सवाल पूछना जानता हो. लेकिन नई शिक्षा नीति और परीक्षा प्रणाली नई पीढ़ी को कैसे दिमागी तौर पर अपाहिज बना दे रही है, इस के लिए नर्सरी और प्राइमरी से ले कर विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं के प्रश्नपत्र उठा कर देखे जाएं तो हैरानी होती है. हैरानी इस बात की कि हरेक प्रश्नपत्र में 50 फीसदी से ज्यादा सवाल वस्तुनिष्ठ यानी औब्जैक्टिव टाइप होते हैं. परीक्षार्थी को 4 वैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर पर टिक लगाना होता है. सिर्फ टिक, कोई अपनी अलग राय नहीं दे सकता कि प्रश्न का 5वां उत्तर भी हो सकता है.

यह बड़ा आसान काम है जिस में पढ़ाईलिखाई में सिर खपाने की जरूरत ही नहीं होती. उम्मीदवार को विषय की गहराई का ज्ञान होना कतई जरूरी नहीं. ये सवाल अकसर सूचनात्मक होते हैं जिन का मकसद छात्रों को अगली कक्षा में प्रमोट करना होता है. उन के दिमाग, बुद्धि और तर्कक्षमता से इन सवालों का कोई वास्ता नहीं होता. छात्रों की उम्र जिज्ञासा और बहस की होती है क्योंकि वे दुनिया को अपनी निगाह से देखना शुरू कर देते हैं.

अब इसी उम्र में सरकार उन्हें अपनी निगाह से देखने का आदी बना रही है, ऐसे में कोई क्या कर लेगा? एक तो वैसे ही स्मार्टफोन ने बच्चों की बुद्धि पर ग्रहण लगा रहा है, ऊपर से स्कूलकालेजों में हम उन्हें नया कुछ नहीं सिखा पा रहे हैं. उलटे, बहस या तर्क के मौके छीन कर उन्हें रोबोट बनाने के इंतजाम कर रहे हैं. रोबोट केवल सिर हिलाना और आज्ञा का पालन करना जानता है. उस की प्रोग्रामिंग में कोई मौलिक और नई बात होती ही नहीं. वह प्रोग्रामर के हाथ में होती है. लौजिक का इस्तेमाल वह करता है.

गांधीजी ने असहयोग या भारत छोड़ो आंदोलन किस साल किया था, इस सवाल के 4 उत्तरों में से एक सही पर निशान लगा कर उम्मीदवार को इस बौद्धिक व तार्किक फील्ड में दाखिल होने ही नहीं दिया जाता कि क्या ये आंदोलन जरूरी थे और क्या इन्हें आजादी के आंदोलन में योगदान के तौर पर देखा जाना अनिवार्य है? यदि हां, तो क्यों और अगर नहीं, तो क्यों? जितने शब्दों में चाहें उत्तर दें. हजार में से एक बच्चा भी सौदौसौ शब्द लिख पाए तो बात बहुत अहम व उपलब्धि की होगी.

दूसरी बड़ी दिक्कत देशभर में पौराणिक किए जा रहे पाठ्यक्रमों की है. रामायण, महाभारत, वेद, पुराण और गीता पढ़ा कर उन्हें तार्किक कम, आस्थावान ज्यादा बनाया जा रहा है. ऐसे में

15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान’ के साथ जय अनुसंधान जोड़ना एक हास्यास्पद बात नहीं तो और क्या है. विरासत और अनुसंधान एकसाथ चल ही नहीं सकते. बेहतर तो यह होगा कि बच्चों को यह पूछने का मौका दिया जाए कि क्या जुए में हारे हुए पांडवों को द्रौपदी को दांव पर लगाने का अधिकार था? बजाय इस के कि कृष्ण ने जादू के जोर से द्रौपदी का चीर बड़ा कर उस की इज्जत बचाई थी.

इस हकीकत को 2 मौजूदा कवियों की रचनाओं से सम?ा जा सकता है जिन में से पहले कुमार विश्वास हैं जो एक शैक्षणिक संस्था के ब्रैंड अंबेसडर हो कर देशभर में रामकथा बांचा करते हैं, रिश्तेनातों का बखान किया करते हैं. दूसरे कवि संपत सरल हैं जो प्रधानमंत्री और उन की सरकार की पौराणिक मानसिकता का तार्किक मजाक उड़ा कर कविता व साहित्य के सही माने सम?ा देते हैं.

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के भारत आगमन पर जब नरेंद्र मोदी उन्हें वाराणसी ले गए थे और कोई ढाई घंटे नाव में बैठा कर उन से गंगा आरती करवाई थी, तब संपत सरल ने करारा व्यंग्य करते हुए कहा था कि शिंजो आबे ने नरेंद्र मोदी से कहा था कि जब आप के पास पूजापाठ और आरती करने के लिए ढाई घंटे का वक्त है तो आप को मैट्रो ट्रेन की जरूरत क्या?

हैरानी यह जान कर होती है कि कुमार विश्वास की फैन फौलोइंग और फीस संपत सरल से कहीं ज्यादा है क्योंकि लोग तर्क और सच कहना तो दूर की बात है, सुनना भी नहीं चाहते. यह तो ईशनिंदा हो गई है. प्रसंगवश यह जान लेना अहम है कि कुमार विश्वास आम आदमी पार्टी में हुआ करते थे लेकिन अरविंद केजरीवाल ने उन्हें पार्टी से निकाल कर जता दिया था कि पंडा व पुरोहितवाद कम से कम वे ‘आप’ के मंच से तो नहीं फैलनेपसरने देंगे.

जब असहमत होने, तर्क करने, बहस करने के लिए स्कूलकालेज लेवल से मौके नहीं दिए जाएंगे तो यकीनन हम ऐसी ‘मशीनें’ ही तैयार कर रहे हैं जिन का शरीर ही आदमियों जैसा है, दिमाग से तो वे पैदल हैं और उन में जो प्रोग्रामिंग फीड की जा रही है वह उन्हें हादी मतार के छोटे संस्करण जैसा ही कुछ बनाएगी. वे हिटलर की जरमनी की नाजी और स्टालिन के रूस के कम्युनिस्टों की तरह होंगी. मुमकिन है यह अतिशयोक्ति कुछ लोगों को लगे लेकिन नतीजे सामने आने लगे हैं जो पिछले दिनों देशभर में सभी ने इफरात व खामोशी से देखे.

राष्ट्रभक्ति बनाम धर्म

आजादी के अमृत महोत्सव पर 15 अगस्त को ‘घरघर तिरंगा’ फहराने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील आंशिक रूप से ही कारगर हुई, केवल उन से सहमत लोगों ने ही घरों में तिरंगा फहराया. लेकिन इस आयोजन पर जगहजगह, छोटेछोटे से ही सही, बवाल और विवाद हुए. मोदीभक्त चाहते थे कि सभी लोग तिरंगा फहरा कर राष्ट्रभक्ति का सुबूत दें. तिरंगा फहराने से ही कोई राष्ट्रभक्त हो जाता है, यह बात ही बेतुकी है लेकिन महल्ले, कालोनियों और अपार्टमैंटों में उन लोगों को राष्ट्रद्रोही की सी निगाह से देखा गया जिन्होंने तिरंगा नहीं फहराया.

कइयों ने अपने को तिरंगा इंस्पैक्टर घोषित कर दिया और अपार्टमैंट या कालोनी के हर घर के फोटो खींच डाले कि सब को पता चल सके कि कौन तिरंगाप्रेमी यानी देशभक्त हैं या नहीं.

यह निहायत ही व्यक्तिगत बात थी लेकिन लोगों में फूट डाल गई. इस से भी बड़ा ?ां?ाट उस वक्त खड़ा हुआ जब आयोजनों में तिरंगे के साथ भगवा भी लहराया गया और धार्मिक प्रतीकों का पूजापाठ किया गया. यह एक ताजी बानगी भर थी, नहीं तो पिछले 8 सालों में धर्म और देश में फर्क खत्म करने की कोशिश ने लोगों को दो हिस्सों में बांट दिया है.

सहमति के अर्थ हमेशा से ही बहुत संकुचित रहे हैं कि आप मठाधीशों और सत्ताधीशों का अनुसरण करो नहीं तो तिरस्कृत और बहिष्कृत होने को तैयार रहो.

यह अभियान धर्म और बहुसंख्यवाद की बलि कैसे चढ़ा, इसे सम?ाने को 2 उदाहरण काफी उपयुक्त हैं. कई मंदिरों में स्वतंत्रता दिवस ढोलधमाकों से हिंदूवादी तरीके से मनाया गया और मजाक यह कि 15 अगस्त को नहीं, बल्कि 27 जुलाई को मना लिया गया. इस दिन उज्जैन के प्रसिद्ध महाकाल मंदिर से हजारों भक्त ?ां?ा, मं?ारे, डमरू, शंख और घंटेघडि़याल बजाते तिरंगे को ले कर बड़े गणेश मंदिर पहुंचे और वहां तिरंगे के साथ गणेश पूजन किया गया. यहां तर्क यह दिया गया था कि 15 अगस्त, 1947 को श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी थी और हम स्वतंत्रता दिवस को हिंदू पंचांग के हिसाब से मनाते हैं.

यही हाल 27 जुलाई को मध्य प्रदेश के मंदसौर के पशुपतिनाथ मंदिर का भी था. वहां भी हिंदू तिथि का हवाला देते शंकर का विशेष शृंगार किया गया था. मानो यह स्वतंत्रता दिवस नहीं बल्कि शिवरात्रि हो. आजादी सिर्फ हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान टाइप की ही दिखे, इस बाबत वैदिक मंत्रोच्चार के साथ खूब ‘हर हर भोले’ के नारे लगे. इस से वे लोग असहमत नजर आए जिन की आस्था इन कर्मकांडों और धार्मिक उन्माद में नहीं है.

आने वालों सालों में यह एक बड़े विवाद की बुआई है क्योंकि अब तक धर्मस्थलों में तिरंगा फहराने का रिवाज नहीं था पर अब बड़े पैमाने पर हो रहा है. इंदौर के एक गुरुद्वारे इमली साहिब में किसी के तिरंगा फहराने पर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने एतराज जताया था. कमेटी के अध्यक्ष हरजिंदर सिंह धामी के मुताबिक, यह सिखों की शान में गुस्ताखी है. गुरुद्वारे में सिर्फ खालसा निशान ही फहराया जा सकता है.

मुसलमानों, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों ने इस राष्ट्रीय कम धार्मिक ज्यादा अनुष्ठान में दिलचस्पी ही नहीं ली क्योंकि यह उन की प्राथमिकता न पहले कभी थी, न आज है. इस का यह मतलब नहीं कि वे गद्दार हैं बल्कि यह है कि वे अनपढ़ होते हुए भी ज्यादा व्यावहारिक, सम?ादार हैं भले ही आर्थिक रूप से कमजोर हों.

लोकतंत्र से सहमति तो असहमति किस से लोकतंत्र, आजादी जैसा ही विचित्र और विरोधाभासी शब्द है जो है भी और नहीं भी. हां, इतना जरूर है कि इस से असहमति जताई जा सकती है बशर्ते आप गिरफ्तार होने, प्रताडि़त होने और सलमान रुश्दी की तरह जान देने तक का माद्दा रखते हों.

आजादी के 30 साल बाद ही 1975 में आपातकाल लागू कर इस नेक खयाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चिथड़े उड़ा दिए थे कि देश में कोई संविधान और लोकतंत्र है. तब उन से असहमत लोग जेल की शोभा बढ़ाते नजर आते थे. उस वक्त पहली बार प्रसिद्ध दार्शनिक प्लूटो का यह कहना सच होता दिखाई दिया था कि लोकतंत्र से ही तानाशाही जन्म लेती है.

अब देश में यह नए तरीके से हो रहा है. नरेंद्र मोदी और भगवा गैंग से असहमत लोग जेलों और सीबीआई, ईडी, एनआईए जैसी एजेंसियों की शान बन रहे हैं. कैसे? इस के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि लोकतंत्र असहमति से है, असहमति लोकतंत्र से नहीं होती.

मशहूर दार्शनिकों ने लोकतंत्र में असहमति पर कई अहम बातें कही हैं. वे पुरानी होते हुए भी प्रासंगिक हैं लेकिन दिलचस्प बात न्यायाधीशों का इस पर लगातार कुछ न कुछ बोलते रहना है जो संविधान की याद दिला जाता है.

हम भारत के लोग भारत को एक (संपूर्ण प्रभुत्व: संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उस के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और (राष्ट्र की एकता व अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प हो कर संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं.

क्या सचमुच हम भारत के लोग अपने गौरवशाली संविधान के सब से पहले पन्ने पर लिखे इन शब्दों पर अमल करते हैं? इस सवाल का जवाब अगर हां में होता तो यकीन मानें, देश में कोई विवाद या फसाद होता ही नहीं. इन दिनों कथित रूप से मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करने वाला वर्ग, जिसे वर्ण कहना ज्यादा सटीक होगा, अपने से असहमत लोगों को कतई बरदाश्त नहीं कर रहा है. उलटे वह तो उस संविधान को बदल देने का ही हिमायती है जो असहमत आवाजों की अनदेखी करने की इजाजत नहीं देता.

इस मानसिकता को ले कर हर किसी की चिंता स्वाभाविक है लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज हर कभी संविधान की उद्दयेशिका का इशारों में हवाला देने को मजबूर हो जाएं तो सहज सम?ा जा सकता है कि दाल में काला नहीं है बल्कि पूरी दाल ही काली हो चली है.

केवल 74 दिनों के लिए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बनने जा रहे जस्टिस उदय उमेश ललित ने अपनी शपथ के पहले ही कहा था कि बहस, तर्क और आलोचना आदि तो किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र की खूबसूरती है लेकिन हर चीज की मर्यादा होती है. यहां मर्यादा से उन की मंशा फैसलों से परे जा कर न्यायपालिका की आलोचना से थी.

तर्क के लिहाज से तो हालांकि यह बात भी विरोधाभासी है कि बहस, तर्क और आलोचना को आप मर्यादा के नाम पर किन जंजीरों से बांधना चाहते हैं लेकिन उन की मंशा असहमत लोगों का मुंह बंद कर देने की होगी, ऐसा लगता नहीं. आम जिंदगी और व्यवहार में भी मर्यादा होनी चाहिए, इसीलिए अदालतें हैं जो यह तय करती हैं कि असहमति भी कहीं सहमति की तरह उद्दंडता का पर्याय न बन जाएं.

इस से बहुत ज्यादा साफ शब्दों में मुद्दे की बात सुप्रीम कोर्ट के ही जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने फरवरी 2020 में अहमदाबाद के एक आयोजन में यह कही थी कि असहमति को एक सिरे से राष्ट्रविरोधी और लोकतंत्रविरोधी बता देना संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण एवं विचारविमर्श करने वाले लोकतंत्र को बढ़ावा देने के प्रति देश की प्रतिबद्धता के मूल विचार पर चोट करता है.

उन्होंने अपनी बात और स्पष्ट करते हुए कहा कि असहमति पर अंकुश लगाने के लिए सरकारी तंत्र का इस्तेमाल डर की भावना पैदा करता है जो कानून के शासन का उल्लंघन है और बहुलतावादी समाज को संवैधानिक दृष्टि से भटकाता है. सवाल करने की गुंजाइश को खत्म करना और असहमति को दबाना सभी तरह की प्रगति, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक बुनियाद को नष्ट करता है. इस माने में असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वौल्व है. कोई भी व्यक्ति या संस्था भारत की परिकल्पना पर एकाधिकार करने का दावा नहीं कर सकता.

उन का सेफ्टी वौल्व वाला वक्तव्य काफी चर्चित हुआ था जिस का इस्तेमाल उन्होंने साल 2018 में चर्चित भीमा कोरेगांव मामले में आरोपी सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के वक्त भी किया था कि असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वौल्व है. यदि आप सेफ्टी वौल्व की इजाजत नहीं देंगे तो यह फट जाएगा. तब उन के साथ खंडपीठ में तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा और जस्टिस ए एम खानविलकर भी थे जिन्होंने कई फैसले सरकार के समर्थन में दिए और नागरिकों को फटकारा.

अहमदाबाद के आयोजन में ही जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा था कि सवाल करना, चुनौती देना, सत्यापित करना, सरकार से जवाबदेही मांगना संविधान के तहत हर नागरिक का अधिकार है. इन अधिकारों को कभी नहीं छीना जाना चाहिए अन्यथा हम एक निर्विवाद मरणासन्न समाज बन जाएंगे जो आगे विकसित नहीं हो पाएगा.

विद्वान जजों ने यह सब बोला तो सोचा यह जाना चाहिए कि उन्हें यह सब बोलने की जरूरत क्यों महसूस हुई. यहां एक बड़ा फर्क शब्दों के चयन का था, नहीं तो भाव तो सरकार से असहमत नेताओं, कलाकारों, पत्रकारों, लेखकों और दूसरे बुद्धिजीवियों के भी यही रहते हैं कि असहमति का गला घोंटने को सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल न किया जाए. लेकिन इफरात से किया जाता है

अगर किसी नादान बच्चे से भी ईडी के बारे में पूछा जाए तो वह ?ाट से बता देगा कि हां, यह कुछ है जिस का काम विरोधी नेताओं और दूसरे लोगों के घरों पर छापे मारना होता है. फिर बड़ों की बात क्या जो पिछले कुछ सालों से हर कभी प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक छापे मारते देखने के आदी हो गए हैं.

ये छापे भगवा गैंग विरोधी नेताओं के यहां ही ज्यादा क्यों पड़ते हैं, यह कोई हैरत की बात नहीं रह गई है कि वे सरकार और हिंदू राष्ट्र थोपने की मुखालफत करते हैं.

लिस्ट बहुत लंबी है और ईडी के छापों की दहशत का आलम यह है कि पिछले दिनों जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भगवा पार्टी से मुक्त हो कर राजद और कांग्रेस के साथ सरकार बनाने का फैसला लिया तो उन के शुरुआती बयानों में से एक यह भी था कि मैं सीबीआई या ईडी से नहीं डरता. बहुत कम शब्दों में नीतीश कुमार ने जता दिया कि वे नरेंद्र मोदी, अमित शाह और पूरी भगवा गैंग से असहमत होने की सजा भुगतने के लिए दिमागीतौर पर तैयार हैं.

इनकम टैक्स, ईडी और सीबीआई के छापे पहले भी पड़ते थे लेकिन उन में असहमति बहुत बड़ा फैक्टर थी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं पर इस में भी कोई शक नहीं कि कांग्रेस भी इन केंद्रीय एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल कभीकभार करती थी.

भाजपा ने इसे रिवाज बना लिया है. ये छापे एक तयशुदा एजेंडे के तहत डाले जाते हैं जिन का मकसद विरोधियों की हिम्मत तोड़ना होता है. खास बात यह भी है कि ज्यदातर छापे राज्यों के चुनाव के पहले पड़वाए जाते हैं जिस से विरोधियों की छवि खराब हो और वे परेशान भी हों.

पिछले 8 साल में भाजपा की अगुआई वाली सरकार ने 600 से भी ज्यादा छापे डलवाए हैं जिन में से कोई 450 विरोधियों पर पड़े हैं. इन में से कांग्रेस नेताओं के खिलाफ लगभग 90, टीएमसी नेताओं के खिलाफ 40, आम आदमी पार्टी के नेताओं के खिलाफ 20, पीडीपी के 15, एनसीपी के 10, आरजेडी के 9, बीएसपी के 8 और जनता दल एस के 7 नेताओं के खिलाफ छापे पड़े हैं. कुछ दूसरे छोटे दल भी असहमति की सजा के शिकार हुए हैं. बसपा प्रमुख मायावती चूंकि भगवा गैंग से सहमत हो गई हैं, इसलिए बाद में उन्हें छापों से मुक्ति दे दी गई.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान सपा प्रमुख अखिलेश यादव के करीबियों के यहां छापे पड़े थे. इसी तर्ज पर पश्चिम बंगाल चुनाव के पहले

14 टीएमसी नेताओं और तमिलनाडु में मतदान के 4 दिनों पहले एम के स्टालिन और उन की बहन के यहां छापे पड़े थे. साल 2020 में राजस्थान में चुनाव के ठीक पहले 6 कांग्रेस नेताओं के यहां छापे पड़े थे जिन में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नजदीकी रिश्तेदार भी शामिल थे. ऐसा अमूमन चुनाव के पहले हर राज्य में होना बताता है कि छापों का भी सीजन होता है.

बात अकेले राजनेताओं और पार्टियों की नहीं है बल्कि उन मीडिया संस्थानों को भी बख्शा नहीं गया जो सरकार से असहमत हैं. आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि बड़े पैमाने पर मीडिया घरानों पर मीडिया एजेंसियों पर राष्ट्रद्रोह के कानून के तहत निशाना साधा गया क्योंकि वे लगातार सरकारी फैसलों व नीतियों से न केवल असहमति जता रहे थे बल्कि उन की पोल भी खोल रहे थे.

अब तक 90 फीसदी मीडिया को गोदी मीडिया होना आंका जाता है जो दरअसल खुद पाखंडों और हिंदू राष्ट्र का हिमायती है. जो निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं गाज उन पर गिरी है. ‘द वायर’, ‘न्यूज क्लिक’, ‘भारत समाचार’ और ‘न्यूज लौंड्री’ ऐसे ही मीडिया संस्थान हैं जो सरकार से असहमत हैं, इसलिए इन के यहां ईडी के छापे पड़े.

असहमतों की लिस्ट बहुत बड़ी तो नहीं फिर भी है. उन के पास तर्क हैं, तथ्य हैं और आंकड़े भी हैं. लेकिन उन की सुनने वाले मुट्ठीभर लोग ही हैं जिन्हें भगवा गैंग आएदिन देशद्रोही, नास्तिक, वामपंथी और पाकिस्तानी वगैरह के खिताब से नवाज कर बदनाम करने की कोशिश करती रही है.

इस खेल के मद्देनजर अहमदाबाद में जस्टिस दीपक गुप्ता के कहे ये शब्द एक चेतावनी के तौर पर लिए जाने चाहिए-

एक स्वतंत्र देश वह है जहां कानून के शासन द्वारा अभिव्यक्ति और शासन की स्वतंत्रता हो. जहां सत्ता का बंटवारा नहीं होता, कानून का शासन नहीं होता, कोई जवाबदेही नहीं होती तो वहां दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार, अधीनता और आक्रोश होता है. जब कानून का शासन गायब हो जाता है तो हम पर कुछ लोगों की मूर्खता और सनक का शासन होता है.

और प्रतिभा नहीं रही- भाग 2: प्रतिभा अस्पताल में अकेली क्यों थी

प्रतिभा ने घर पहुंच कर फोन लगा कर बता दिया था कि वह आ गई है,‘‘मुझे तो अभी भी बहुत घबराहट हो रही है…आप अपना ध्यान रखना…’’‘‘हां मैं ठीक हूं…डाक्टर ने बोला है कि 2-3 दिनों में मैं पूर्ण स्वस्थ्य हो जाऊंगा। तुम चिंता मत करो,’’ मुझे उसे समझाना था ताकि उस की घबराहट कम हो सके। हालांकि मैं जानता था कि मेरे ऐसा झूठ बोल देने के बाद भी उस की चिंता कम नहीं

होगी।‘‘आप रोली को बुलवा ही लो…कोई तो आप के साथ रहना चाहिए…’’‘‘अरे नहीं…वह आएगी तो ऐसे ही परेशान होगी…यहां रुकने की कोई व्यवस्था तो है नहीं।” वह कुछ नहीं बोली।

शाम को भैया ने फोन कर बताया था कि प्रतिभा स्वस्थ महसूस नहीं कर रही है। उसे घबराहट हो रही है। मुझे समझ में आ गया था कि प्रतिभा

मेरी चिंता के कारण परेशान है। वह रातभर बैचेन रही। दूसरे दिन भैया ने बोला था कि मैं प्रतिभा को ले कर वहीं आ रहा हूंउस की तबियत ठीक नहीं है। वे रात को ऐंबुलैंस ले कर आ गए थे। रोली भी भोपाल से कैब में बैठ कर अस्पताल पहुंच गई थी। इस बार रोली ने मुझ से आने का पूछा नहीं था। उसे अपनी मां के चलते घबराहट में आना पड़ा। देर रात को प्रतिभा को अस्पताल में भर्ती कर लिया। तब तक मैं इंजैक्शन के प्रभाव में आ कर सो चुका था।

 

सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं ने प्रतिभा को अपने बाजू वाले पलंग पर कराहते हुए देखा,”क्या हुआ…’’ मैं ने उस के माथे को सहलाया।

 

‘‘कुछ नहीं…अच्छा महसूस नहीं कर रहीं हूं…’’

 

‘‘नर्स को बुलाऊं क्या?’’

 

‘‘नहीं…आप कैसे हैं?’’

 

उस ने निगाह भर मुझे देखा। ऐसा उस ने रात को भी किया था पर तब मैं नींद में था।

 

‘‘मैं अब बेहतर महसूस कर रहा हूं…’’

वह कुछ नहीं बोली केवल मुझे देखती रही। 2 दिन बाद सुबहसुबह उस ने बताया,”सुनो…मुझे सांस लेने में दिक्कत हो रही है…’’ कहते हुए वह हांफने लगी।

 

मैं घबरा गया। मैं ने तत्काल नर्स को आवाज दी। उस ने औक्सीमीटर से औक्सीजन लेवल नापा,”औक्सीजन लेवल तो कम आ रहा है…अभी बड़े डाक्टर साहब रांउड पर आने वाले हैं…हम उन से बात करेंगे…’’

 

मेरी चिंता बढ़ गई। मैं बेसब्री के साथ डाक्टर के आने की राह देखने लगा। डाक्टर ने नर्स की रिपोर्ट को चैक कर बता दिया था कि यदि औक्सीजन लेवल कम नहीं हुआ तो वैंटिलेटर पर ले जाना पड़ेगा साथ ही यह भी बता दिया था कि यहां वैंटिलेटर खाली नहीं हैआप मरीज को कहीं और ले जाएं.

 

त्यौहार 2022: जानें प्याज परांठा बनाने कि विधि

जैसे ही गर्मी से सर्दी की तरफ मौसम बदलना शुरू होता है खाने में सभी भारतीय घरों में परांठे बनने शुरू हो जाते हैं. ऐसे आज हम आपको बताने जा रहे हैं प्याज परांठा.

सामग्री−

गेंहू का आटा

नमक

दो से तीन प्याज

दो हरी मिर्च

ताजा हरा धनिया

लाल मिर्च पाउडर

जीरा

घी या ऑयल परांठे सेंकने के लिए

विधि−

परांठे बनाने के लिए आपको सबसे पहले आटा लगाना होगा. इसके लिए आप गेंहू का आटा लेकर उसमें थोड़ा नमक मिलाएं. इसके बाद पानी की मदद से आटा गूंथ लें. अब एक नम कपड़ा लेकर आटे को ढक लें और कुछ देर के लिए रेस्ट करने दें.

अब आप प्याज लें और इसे बेहद ही बारीक−बारीक काट लें. अब आप एक बाउल में प्याज लेकर उसमें बारीक कटी हरी मिर्च और हरा धनिया लेकर मिक्स करें. इसके बाद दूसरे बाउल में नमक, मिर्च और जीरा डालकर मिक्स करें.

अब आप थोड़ा आटा लेकर उसकी लोई बनाएं. इसके बाद आप आटे को थोड़ा बेलें और उस पर घी लगाएं. इसके बाद उस पर प्याज रखें और फिर उसमें नमक, मिर्च का मसाला छिड़कें. अब आप इसके ऊपर थोड़ा सा सूखा आटा स्प्रिंकलर करें और फिर लोई को हाथों की मदद से बंद करके उस पर सूखा आटा लगाएं.

अब आप इसे नरम हाथ से बेलें. इसके बाद आप तवा गर्म करें और उस पर परांठा डालकर घी की मदद से सेंके. आपका गरमा−गरम प्याज का परांठा तैयार है. आप इसे दही व चटनी के साथ सर्व करें.

इस विधि से प्याज का परांठा बनाने वालों का कहना है कि इस तरह प्याज परांठा बनाना बेहद आसान होता है, लेकिन इसका टेस्ट उतना ही लाजवाब होता है.

कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव का 58 साल की उम्र में निधन, पढ़ें खबर

कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव का निधन हो गया है. कॉमेडियन की मौत के खबर सामने आने के बाद पूरे देश में शोक की लहर छा गई है. हर किसी की आंखें नम है. सबको हंसाने वाला आज खुद ही शांत हो गया. बीते कई दिनों से राजू श्रीवास्तव जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ रहे थे. अब उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया.

10 अगस्त को जिम में वर्कआउट के दौरान राजू श्रीवास्तव को दिल का दौरा पड़ा था. रिपोर्ट के अनुसार राजू के दिल में कई ब्लॉकेज थी. दिल्ली एम्स के डॉक्टर्स की टीम ने राजू की एंजियोग्राफी करने का निर्णय लिया. हाल ही में खबर मिली थी कि उनकी हालत में ज्यादा सुधार देखने को नहीं मिला रहा है.

 

खबरों के अनुसार राजू श्रीवास्तव के दिमाग के एक हिस्से में सूजन की शिकायत मिली थी. बीते दिनों से वेंटिलेटर पर मौत से जंग लड़ रहे राजू श्रीवास्तव ने आज अपने प्राण त्याग दिए. हर कोई नम आंखों से राजू को श्रद्धांजलि दे रहा है.

 

बता दें कि अमिताभ बच्चन ने बीते दिनों राजू श्रीवास्तव के लिए खास ऑडियो संदेश भेजा था. इसमें अमिताभ ने राजू से कहा था कि राजू उठो, बस बहुत हुआ, अभी बहुत काम करना है. अब उठ जाओ. हम सबको हंसना सिखाते रहो.

 

सात समंदर पार पहुंची अनोखी लव स्टोरी

भारतीय लड़की अंजलि की पाकिस्तानी लड़की सूफी से इंस्टाग्राम के जरिए जानपहचान हुई. जल्द ही उन के मन में मिलन की जिज्ञासा जागी और फिर वे एकदूजे के हो गए. पढि़ए, कैसे हुआ उन का मिलन, इन 2 लेस्बियन लड़कियों की खूबसूरत लव स्टोरी में.

भारत की अंजलि उन दिनों पढ़ाई के सिलसिले में अमेरिकी राज्य कैलिफोर्निया के महानगर लास एंजेलस में फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही थी. हर वक्त वह नए डिजाइन की तलाश में रहती थी.

इंटरनेट पर वेबसाइटों और सोशल मीडिया को खंगालती हुई एक दिन अचानक अंजलि की नजर एक लड़की के वीडियो पर टिक गई. उस की ड्रेस उसे भा गई थी. वह मन ही मन खुश हो गई. क्योंकि जिस तरह के ट्रेडिशनल डिजाइन की उसे तलाश थी, वह उसे मिल गया था.

वीडियो में लड़की की जरीदार ड्रेस गजब ढा रही थी. उस की कशीदाकारी लुभावनी थी. वह पंजाबी और पाकिस्तानी कल्चर को दर्शा रही थी. उस में बेजोड़ कशीदाकारी में काफी बारीक काम किए गए थे. अंजलि फटाफट वीडियो वाली लड़की का सोशल मीडिया प्रोफाइल चैक करने लगी.

उसे यह जान कर बेहद खुशी हुई कि वह उस के पड़ोसी देश पाकिस्तान में करांची की मूल निवासी है. उस ने किसी करीबी के होने का आभास महसूस किया. उस का प्रोफाइल देखते हुए वह चौंक गई. उस में उस ने अपनी व्यक्तिगत जानकारी बड़े बिंदास अंदाज में लिख रखी थी.

वह 24 साल की अविवाहित सूफी थी, लेकिन खुद के बारे में बाइसैक्सुअल होने की बात कही थी. अंजलि बाइसैक्सुअल शब्द पढ़ कर थोड़ी ठहर गई. सोचने लगी… बाइसैक्सुअल मतलब सूफी को लड़के के अलावा लड़की के साथ सैक्स करना भी पसंद है. इस का मतलब वह लेस्बियन है.

यह जान कर अंजलि के मन में उस से संपर्क करने की जिज्ञासा और बढ़ गई. अंजलि न केवल तुरंत उस की फालोअर बन गई, बल्कि उस के प्रोफाइल से कौंटेक्ट करने का मैसेज भी भेज दिया.

उस के बाद दोनों के बीच चैटिंग और टाकिंग शुरू हो गई. परिचय हुआ. जल्द ही उन के बीच दोस्ती हो गई और हंसीमजाक भी होने लगी. कुछ दिनों में ही दोनों चैटिंग करते हुए एकदूसरे के दिल में समा गए. एक दिन अंजलि ने फोन कर पूछा, ‘‘क्या उन की मुलाकात नहीं हो सकती?’’

जवाब में सूफी ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, तुम जब चाहो, मिल लो. मैं न्यूयार्क में हूं.’’

अंजलि ने पूछा, ‘‘कब मिलूं?’’

‘‘संडे को,’’ सूफी बोली.

‘‘संडे आने में तो 4 दिन बाकी हैं,’’ अंजली बोली.

‘‘मिलने की इतनी बेचैनी है…संडे मेरे लिए खास है. उस दिन में अपने बौयफ्रैंड से बे्रकअप करूंगी और तुम्हारे संग फ्रैंडशिप की छोटी सी पर्सनल स्टार्ट पार्टी होगी,’’ सूफी बोली.

‘‘अच्छा तो तुम्हारा बौयफ्रैंड भी है? उस के साथ ब्रेकअप क्यों?’’ अंजलि ने जिज्ञासावश पूछा.

‘‘मिलोगी तब बताऊंगी,’’ सूफी बोली.

‘‘फिर भी कुछ तो बताओ,’’ अंजलि ने जिद की.

‘‘वह गे है. ‘गे’ समझती हो न, पुरुष समलैंगिक. वह एलजीबीटी ग्रुप का मेंबर है. इस का मुझे बाद में पता चला.’’ सूफी बोली, ‘‘उस ने मुझे भी उस का मेंबर बना दिया है.’’ सूफी ने आगे कहा.

‘‘ऐंऽऽ यह बात है!’’ अंजलि चौंकती हुई बोली.

निर्धारित समय पर अंजलि की सूफी से मुलाकात न्यूयार्क के एक रेस्टोरेंट में हुई. सूफी ने अपनी निजी जिंदगी के कई पन्ने अंजलि के सामने खोल कर रख दिए. उस ने बताया कि उसे कितनी मुश्किल से बौयफ्रैंड से छुटकारा मिला.

यह भी बताया कि वह किस तरह से पूरी तरह ‘गे’ बन गया था, उस में लड़की से सैक्स के प्रति रुचि खत्म हो गई थी, उस में उस की दिलचस्पी नहीं रह गई थी. जबकि पहले वह ऐसा नहीं था.

अंजलि को सूफी की बातें गुदगुदा रही थीं. वह बड़े ध्यान से उस की बातें सुनती रही. सूफी ने एक तरह से अपना दिल खोल कर रख दिया था. अंजलि ने महसूस किया कि सूफी एक नेक लड़की है. उस ने अपने दिल की एक भी बात नहीं छिपाई है.

सूफी ने बताया कि उसी वजह से वह भी बाइसैक्सुअल बन चुकी है.

काफी समय तक सूफी की बातें सुनने के बाद अंजलि ने चुप्पी तोड़ी. उस ने जब कहा कि उसे भी उस जैसी ही पार्टनर की तलाश थी, तब सूफी को हैरानी हुई. इस तरह दोनों की पहली मुलाकात उन्हें एकदूसरे के काफी करीब ले आई थी.

अंजलि ने अपने बारे में बताया कि उस का भी बौयफ्रैंड से ब्रेकअप हो चुका है. उस दिन दोनों ने न्यूयार्क शहर में घूमघूम कर साथसाथ अनेक तसवीरें खींचीं, सेल्फी ली और अपनेअपने इंस्टाग्राम पर पोस्ट कर दीं.

हालांकि उन की इन नजदीकियों वाली तसवीरों को जिस ने भी देखा, एक ही अर्थ लेस्बियन का ही निकाला. उन के कई प्रशंसकों ने शादी करने की सलाह दे डाली.

इस के बाद अंजलि ने एक दिन सूफी को प्रपोज कर दिया. वे दोनों एकदूसरे के हो गए. दोनों ने फोटोशूट करवा कर इंस्टाग्राम पर शेयर किया. और फिर इन के प्यार के चर्चे होने लगे.

दोनों सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहने लगीं. उन पर लोगों ने कटाक्ष भी किए और शादी का विरोध भी जताया. विरोध उन के 2 पड़ोसी मुल्कों के होने को ले कर भी हुआ. धार्मिक संगठनों ने उन्हें काफी भलाबुरा कहा.

धर्म के हवाले से घेरते हुए काफी आलोचना की. उन की हरकतों को बेशर्मी की सीमा पार करने वाला बताया. उन के खिलाफ काररवाई करने की भी धमकी दी. फिर भी अंजलि ने बताया कि उन्हें लेस्बियन होने में कोई शर्म नहीं है.

इस के बाद से उन के फालोअर्स और तेजी से बढ़ने लगे. इस तरह से 2 बाइसैक्सुअल के मोहब्बत की दास्तान लेस्बियन की कहानी में बदल गई. उन्होंने न केवल लिंग की दीवार तोड़ी थी, बल्कि मजहब की दीवार भी ढहा दी थी.

सूफी का कहना है कि मोहब्बत दिमाग से नहीं की जाती, बल्कि ये दिल से होती है. वह दिन गए जब लेस्बियन और गे की छिपी प्रेम कहानी को लोग जगजाहिर नहीं करते थे. वैसे रिश्ते को छिपाने के बजाय खुल कर बताने और खुल कर जीने में ही लोगों की भलाई है. उस की तो कई देशों में इस रिश्ते को मान्यता भी मिल चुकी है.

बहरहाल, भारत और पाकिस्तान के नफरत से ऊपर सूफी और अंजलि ने प्यार को चुना है. उन का कहना है कि उन्होंने कड़वाहट में प्यार के फूल खिलाए हैं.

मुखरित मौन – भाग 1 : क्या अवनी अपने ससुराल की जिम्मेदारियां निभा पाई

अवनी आखिर परिमल की हो गई. विदाई का समय आ गया. मम्मीपापा अपनी इकलौती, लाड़ली, नाजों पली गुडि़या सी बेटी को विदा कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. बेटी तो आती रहेगी विवाह के बाद भी, पर बेटी पर यह अधिकारबोध शायद तब न रहेगा.

यह एक प्राचीन मान्यता है. अधिकार तो बेटे पर विवाह के बाद बेटी से भी कम हो जाता है, पर बोध कम नहीं होता शायद. उसी सूत्र को पकड़ कर बेटी के मातापिता की आंखें विदाई के समय आज भी भीग जाती हैं. हृदय आज भी तड़प उठता है, इस आशंका से कि बेटी ससुराल में दुख पाएगी या सुख. हालांकि, आज के समय में यह पता नहीं रहता कि वास्तव में दुख कौन पा सकता है, बेटी या ससुराल वाले. अरमान किस के चूरचूर हो सकते हैं दोनों में से, उम्मीदें किस की ध्वस्त हो सकती हैं.

विदाई के बाद भरीआंखों से अवनी कार में बैठी सड़क पर पीछे छूटती वस्तुओं को देख रही थी. इन वस्तुओं की तरह ही जीवन का एक अध्याय भी पीछे छूट गया था और कल से एक नया अध्याय जुड़ने वाला था जिंदगी की किताब में. जिसे उसे पढ़ना था. लेकिन पता नहीं अध्याय कितना सरल या कठिन हो.

‘मम्मी, मैं परिमल को पसंद करती हूं और उसी से शादी करूंगी,’ घर में उठती रिश्ते की बातों से घबरा कर अवनी ने कुछ घबरातेलरजते शब्दों में मां को सचाई से अवगत कराया.

‘परिमल? पर बेटा वह गैरबिरादरी का लड़का, पूरी तरह शाकाहारी व नौकरीपेशा परिवार है उन का.’

‘उस से क्या फर्क पड़ता है, मम्मी?’

‘लेकिन परिमल की नौकरी भी वहीं पर है. तुझे हमेशा ससुराल में ही रहना पड़ेगा, यह सोचा तूने?’

‘तो क्या हुआ? आप अपने जानने वाले व्यावसायिक घरों में भी मेरा विवाह करोगे तो क्या साथ में नहीं रहना पड़ेगा? वहां भी रह लूंगी. है ही कौन घर पर, मातापिता ही तो हैं. बहन की शादी तो पहले ही हो चुकी है.’

‘व्यावसायिक घर में तेरी शादी होगी तो रुपएपैसे की कमी न होगी. कई समस्याओं का समाधान आर्थिक मजबूती कर देती है,’ मानसी शंका जाहिर करती हुई बोली.

‘ओहो मम्मी, इतना मत सोचो. अकसर हम जितना सोचते हैं, उतना कुछ होता नहीं है. मैं और परिमल दोनों की अच्छी नौकरियां हैं. मुझे खुद पर पूरा भरोसा है. निबट लूंगी सब बातों से. आप तो बस, पापा को मनाओ, क्योंकि मैं परिमल के अलावा किसी दूसरे से विवाह नहीं करूंगी.’

अवनी के तर्कवितर्क से मानसी निरुत्तर हो गई थी. आजकल के बच्चे कुछ कहें तो मातापिता के होंठों पर हां के सिवा कुछ नहीं होना चाहिए. यही आधुनिक जीवनशैली व विचारधारा का पहला दस्तूर है. अवनी के मातापिता ने भी सहर्ष हां बोल दी. दोनों पक्षों की सफल वार्त्ता के बाद अवनी व परिमल विवाह सूत्र में बंध गए थे.

बरात विदा होने से पहले ही बरातियों की एक कार अपने गंतव्य की तरफ चल दी थी, जिन में परिमल की मम्मी भी थीं ताकि वे जल्दी पहुंच कर बहू के स्वागत की तैयारियां कर सकें. बरात देहरादून से वापस दिल्ली जा रही थी.

बरात जब घर पहुंची तो नईनवेली बहू के स्वागत में सब के पलकपांवड़े बिछ गए. द्वारचार की थोड़ीबहुत रस्मों के बाद गृहप्रवेश हो गया. पंडितजी भी अपनी दक्षिणा पा कर दुम दबा कर भागे और घर पर इंतजार करते बैंड वाले भी अपना कर्तव्य पालन कर भाग खड़े हुए. बरात के दिल्ली पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज गए थे. खाना तैयार था. अधिकांश बराती तो रास्ते से ही इधरउधर हो लिए थे. करीबी रिश्तेदार, जिन्होंने घर तक आने की जरूरत महसूस की थी, भी खाना खा कर जाने को उद्यत हो गए. परिमल की मां सुजाता ने सब को भेंट वगैरह दे कर रुखसत कर दिया.

घर में अब सुजाता, सरस, बेटीदामाद व दूल्हादुलहन रह गए थे. दामाद की नौकरी तो दूसरे शहर में थी, पर घर स्थानीय था. इसलिए बेटीदामाद भी अपने घर चले गए.

‘‘परिमल, तुम ने भी होटल में कमरा बुक किया हुआ है, तुम भी निकल जाओ. तुम्हारे दोस्त तुम्हें छोड़ देंगे और ड्राइवर तुम्हारे दोस्तों को घर छोड़ता हुआ चला जाएगा. काफी देर हो रही है, आराम करो,’’ सरस बोले.

परिमल बहुत थका हुआ था. इतने थके हुए थे दोनों कि उन का होटल जाने का भी मन नहीं हो रहा था, ‘‘यहीं सो जाते हैं, पापा. मेरा कमरा खाली ही तो है. घर में तो कोई मेहमान भी नहीं है.’’

सुजाता चौंक गईं. मन ही मन सोचा, ‘नई बहू क्या सोचेगी.’ ‘‘नहींनहीं, तुम्हारा कमरा तो बहुत अस्तव्यस्त है. आज तो होटल चले जाओ. कल सबकुछ व्यवस्थित कर दूंगी,’’ सुजाता बोलीं.

परिमल दुविधा में सोफे पर बैठा ही रहा और साथ में अवनी भी. थकान के मारे आंखें मुंद रही थीं. मायके की बात होती तो सारा तामझाम उतार कर, शौर्ट्स और टीशर्ट पहन कर, फुल एसी पंखा खोल कर चित्त सो जाती, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं कर सकती थी. इसलिए चुप बैठी रही.

‘‘जाओ परिमल, ड्राइवर इंतजार कर रहा है.’’

‘‘चलो अवनी,’’ थकेमांदे अवनी व परिमल, थके शरीर को धकेल कर कार में बैठ गए. अवनी का दिल कर रहा था पीछे सिर टिकाए और सो जाए.

शादी से पहले उस के पापा ने उस की मम्मी से कहा था कि अवनी व परिमल का दिल्ली से देहरादून की फ्लाइट का टिकट करवा देते हैं. रोड की 7-8 घंटे की जर्नी इन्हें थका देगी. लेकिन भारतीय संस्कार आड़े आ गए. इसलिए मानसी बोलीं, ‘शादी के बाद अवनी उन की बहू है. वे उसे ट्रेन से ले जाएं, कार से ले जाएं, बैलगाड़ी से ले जाएं या फिर फ्लाइट से, हमें बोलने का कोई हक नहीं.’

सुन कर अवनी मन ही मन मुसकरा दी थी, ‘वाह भई, भारतीय परंपरा… सड़क  मार्ग से यात्रा करने में मेरी तबीयत खराब होती है, इसलिए मुझे उलटी की दवाई खा कर जाना पड़ेगा. लेकिन बेटी को चाहे कितनी भी ऊंची शिक्षा दे दो और वह कितने ही बड़े पद पर कार्यरत क्यों न हो, एक ही रात में उस के मालिकों की अदलाबदली कैसे हो जाती है? उस पर अधिकार कैसे बदल जाते हैं? उस की खुद की भी कोई मरजी है? खुद की भी कोई तकलीफ है? खुद का भी कोई निर्णय है? इस विषय में कोई भी जानना नहीं चाह रहा.’

लेकिन उस की शादी होने जा रही थी. वह बमुश्किल एक महीने की छुट्टी ले पाई थी. 20 दिन विवाह से पहले और

10 दिन बाद के. लेकिन उन 10 दिनों की भी कशमकश थी. उसे ससुराल में शादी के बाद की कुछ जरूरी रस्मों में भी शामिल होना था और हनीमून ट्रिप पर भी जाना था. बहुत टाइट शैड्यूल था. शादी से पहले की छुट्टियां भी जरूरी थीं. उसे शादी की तैयारियों के लिए भी समय नहीं मिल पाया था. ऐसा लग रहा था,

शादी भी औफिस के जरूरी कार्यों की तरह ही निबट रही है. शायद वे दोनों एक महीने के किसी प्रोजैक्ट को पूरा करने आए हैं. ऊपर से मम्मी के उपदेश सुनतेसुनते वह तंग आ गई थी. ‘बहू को ऐसा नहीं करना चाहिए, बहू को वैसा नहीं करना चाहिए, ऐसे रहना, वैसे रहना, चिल्ला कर बात नहीं करना, सुबह उठना, औफिस से आ कर थोड़ी देर सासससुर के पास बैठना, किचन में जितनी बन पाए मदद जरूर करना…’

एक दिन सुनतेसुनते वह भन्ना गई, ‘मम्मी, जब भैया की शादी हुई थी, तब भैया को भी यही सब समझाया था? स्त्रीपुरुष की समानता का जमाना है. भाभी भी नौकरी करती हैं. भैया को भी सबकुछ वही करना चाहिए, जो भाभी करती हैं. मसलन, उन के मातापिता, भाईबहन, रिश्तेदारों से अच्छे संबंध रखना, किचन में मदद करना, भाभी से ऊंचे स्वर में बात न करना, औफिस से आ कर हफ्ते में भाभी के मम्मीपापा से 2-3 बार बात करना और सुबह उठ कर भाभी के साथ मिलजुल कर काम करना आदि…लड़की को ही यह सब क्यों सिखाया जाता है?’

उस के बाद मम्मी के निर्देश कुछ बंद हुए थे. अवनी को मन ही मन मम्मी पर दया आ गई. गलती मम्मी की नहीं, मम्मी की पीढ़ी की है जो नईपुरानी पीढ़ी के बीच झूल रही है. उच्च शिक्षित है लेकिन अधिकतर आत्मनिर्भर नहीं रही. इसलिए कई तरह के अधिकारों से वंचित भी रही. उच्च शिक्षा के कारण गलतसही भले ही समझी हो, नए विचारों को अपनाने का माद्दा भले ही रखती हो, लेकिन गलत को गलत बोलती नहीं है. नए विचारों को अपने आचरण में लाने की हिम्मत नहीं करती.

यहां तक कि मम्मी की पीढ़ी की आत्मनिर्भर महिलाएं भी नईपुरानी विचारधारा के बीच झूलती, नईपुरानी परंपराओं के बीच पिसती रहती हैं. फुल होममेकर्स की शायद आखिरी पीढ़ी है, जो अब समाप्त होने की कगार पर है.

कार होटल पहुंच गई और अवनी व परिमल को कमरे तक पहुंचा कर परिमल के दोस्त चले गए. रात के 12 बज रहे थे. कमरे में पहुंच कर दोनों ने चैन की सांस ली.

2 प्रेमी पिछले 4 सालों से इस रात का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. लेकिन थके शरीर नींद की आगोश में जाना चाहते थे. दोनों इतने थके थे कि बात करने के मूड में भी नहीं थे. शादी की 3 दिनों तक चली परंपरावादी प्रक्रिया ने उन्हें बुरी तरह थका दिया था. ऊपर से देहरादूनदिल्ली का भीड़ के कारण 8-9 घंटे का सफर. दोनों उलटेसीधे कपड़े बदल कर औंधेमुंह सो गए.

सुबह देहरादून व दिल्ली के दोनों घरों में सभी देर से उठे. लेकिन 10 बजतेबजते सभी उठ गए. बेटी को विदा कर बेटी की मां आज भी चैन से कहां रह पाती है, चाहे वह लड़के को बचपन से ही क्यों न जानती हो. 12 बज गए मानसी से रहा न गया. उन्होंने अवनी को फोन मिला दिया. गहरी नींद के सागर में गोते लगा रही अवनी, फोन की घंटी सुन कर बमुश्किल जगी. परिमल भी झुंझला गया. स्क्रीन पर मम्मी का नाम देख कर मोबाइल औन कर कानों से लगा लिया.

‘‘कैसी है मेरी अनी?’’

‘‘सो रही है, मरी नहीं है,’’ अवनी झुंझला कर बोली, ‘‘इतनी सुबह क्यों फोन किया?’’ मम्मी को बुरा तो लगा पर बोली, ‘‘सुबह कहां है, 12 बज रहे हैं, कैसी है?’’

‘‘अरे कैसी है मतलब…कल 12 बजे तो आई हूं देहरादून से. आज 12 बजे तक क्या हो जाएगा मुझे. हमेशा ही तो आती हूं नौकरी पर छुट्टियों के बाद, तब तो आप फोन नहीं करतीं. आज ऐसी क्या खास बात हो गई? कल मैसेज कर तो दिया था पहुंचने का.’’

मानसी निरुत्तर हो, चुप हो गई. ‘‘अभी मैं सो रही हूं, फोन रखो आप. जब उठ जाऊंगी तो खुद ही मिला दूंगी,’’ कह कर अवनी ने फोन रख दिया.

मानसी की आंखें भर आईं. आज की पीढ़ी की बहू की तटस्थता तो दुख देती ही है, पर बेटी की तटस्थता तो दिल चीर कर रख देती है. यह असंवेदनहीन मशीनी पीढ़ी तो किसी से प्यार करना जैसे जानती ही नहीं. जब मां को ऐसे जवाब दे रही है तो सास को कैसे जवाब देगी.

मानसी एक शिक्षित गृहिणी थी और सास सुजाता एक उच्चशिक्षित कामकाजी महिला. वे केंद्रीय विद्यालय में विज्ञान की अध्यापिका थीं. सुबह पौने 8 बजे घर से निकलतीं और साढ़े 4 बजे तक घर पहुंचतीं. सरस रिटायर हो चुके थे. लेकिन सुजाता के रिटायरमैंट में अभी 3 साल बाकी थे. सुजाता आधुनिक जमाने की उच्चशिक्षित सास थीं. कभी कार, कभी स्कूटी चला कर स्कूल जातीं, लैपटौप पर उंगलियां चलातीं. और जब किचन में हर तरह का खाना बनातीं, कामवाली के न आने पर बरतन धोतीं, झाड़ूपोंछा करतीं तो उन के ये सब गुण पता भी न चलते. सरस एक पीढ़ी पहले के पति, पत्नी के कामकाजी होने के बावजूद, गृहकार्य में मदद करने में अपनी हेठी समझते और पत्नी से सबकुछ हाथ में मिल जाने की उम्मीद करते.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें