असहमति स्वाभाविक व मौलिक मानवीय गुण है और इसी से मानव का विकास संभव हुआ है. अब लोकतंत्रों के विकास के इस दौर में असहमत लोगों की आवाज बंद करने की सत्ताधारियों की कोशिश बताती है कि राजनीति और धर्म के पैरोकार तरक्की नहीं, कुछ और चाहते हैं.
एक चर्चित मगर विवादित लेखक सलमान रुश्दी का गुनाह बहुत संगीन है कि एक तो वे नास्तिक और दूसरे, मुसलमानों के पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में गुस्ताखी करते रहते हैं. लेकिन यह सब हवाहवाई नहीं है बल्कि इस के पीछे उन के अपने तर्क हैं. कट्टर से कट्टरवादी भी सलमान के तर्कों से असहमत नहीं हो सकता बशर्ते वह उन के उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेस’ यानी शैतानी आयतों को बिना किसी पूर्वाग्रह के दिलोदिमाग की खिड़कियां खोल कर पढ़ ले. इस उपन्यास का सार और एक बहुत बड़ा सच उसी में लिखे एक वाक्य से स्पष्ट हो जाता है कि शुरुआत से ही आदमी ने गलत को सही ठहराने के लिए ईश्वर का इस्तेमाल किया.
खुद को सही और इसलाम व पैगंबर से असहमति जताने के जुर्म की सजा देने की कोशिश में अमेरिका के पश्चिमी न्यूयौर्क के चौटाउक्का इंस्टिट्यूशन में
2 अगस्त को एक नौजवान ने सलमान रुश्दी पर जानलेवा हमला कर दिया. हमला इतना खतरनाक और नफरत व प्रतिशोध से भरा हुआ था कि महज 20 सैकंड में उन के गले और पेट पर दर्जन से भी ज्यादा प्रहार किए गए. हमलावर का नाम है हादी मतार जो न्यूजर्सी में रहता है. सलमान को पुलिस सुरक्षा में तुरंत हवाई जहाज से अस्पताल ले जाया गया और उन की जान बच गई.
न्यूयौर्क पुलिस की निगाह में हादी मतार के हमले की वजह भले ही स्पष्ट नहीं हो लेकिन किसी को यह बताने की जरूरत नहीं पड़ी कि यह उस फतवे का दीर्घकालिक असर है जो अब से 33 साल पहले 1989 में ईरान के सर्वोच्च धर्मगुरु, जाहिर है कट्टर, अयातुल्लाह खुमैनी ने जारी किया था कि सलमान रुश्दी को मारने वाले को 30 लाख डौलर का इनाम दिया जाएगा क्योंकि उन्होंने अपने उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेस’ में पैगंबर मोहम्मद के प्रति बेअदबी की है. यह सोचना बेमानी है कि हादी मतार ने सिर्फ इस रकम के लालच में हमला किया बल्कि उस की मंशा इसलाम के उसूलों की हिफाजत करना ज्यादा थी.
दरअसल, हादी मतार जैसे युवा एक द्वंद्व से घिरे होते हैं कि जो धार्मिक किताबों में लिखा है वह सच है या सच वह है जो सलमान रुश्दी जैसे लेखक वक्तवक्त पर लिखते रहते हैं. जब वे आस्था और तर्क के बीच में फंस जाते हैं तो परेशानी से छुटकारा पाने को दूसरे सच के पैरोकारों की आवाज घोंटने के लिए हिंसा का सहारा लेने से नहीं चूकते. यह सिलसिला आदिम था, है और रहेगा कि हर गलत बात के लिए ईश्वर नाम की कल्पना का सहारा लिया जाना ही धर्म है. कट्टरवादियों का ऊपर वाले में भरोसा शक से घिरा रहता है और वह इतना कमजोर होता है कि लोग खुद न्याय करने पर उतारू हो आते हैं.
हर उस लेखक पर जानलेवा हमले, फतवे, मुकदमे, धरनेप्रदर्शन वगैरह होते रहे हैं जिन्होंने ईश्वर व धर्म से असहमति जताने की जुर्रत की है. धर्म की सत्ता से असहमत इन लेखकों में एक बड़ा दूसरा नाम तसलीमा नसरीन का है जो सलमान रुश्दी की ही तरह जिंदगीभर भागतीदौड़ती निर्वासित जिंदगी जीती रहीं. रुश्दी पर हमले के बाद अब वे भी भयभीत और चिंतित नजर आईं.
बकौल तसलीमा, ‘‘हमले का खतरा मु?ा पर भी मंडरा रहा है क्योंकि कट्टर विचारधारा बढ़ रही है. अब नए फतवे भले ही जारी न हो रहे हों लेकिन नएनए कट्टरपंथी पैदा हो रहे हैं. जब तक कट्टरपंथ खत्म नहीं होगा, इसलामी समाज धर्मनिरपेक्ष नहीं बनेगा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, इसलाम में सुधार नहीं किया जाएगा तब तक ऐसा खतरा बना रहेगा.’’
असहमति से डर क्यों
कट्टरपंथ के बढ़ने की वजहों को ले कर तसलीमा कहती हैं, ‘‘कट्टरपंथ लोगों के दिमाग में है. उन का ब्रेनवाश कर के उन के दिमाग में यह विचार डाला गया है कि इसलाम के आलोचकों को मार दिया जाना चाहिए. असली समस्या यही है.’’
तसलीमा की बातों को केवल इसलाम में समेट कर देखा जाना उन की मंशा के साथ ज्यादती होगी. वे भारत में शरणार्थी हैं, इसलिए खुल कर यहां के कट्टर होते माहौल पर नहीं बोल सकतीं पर इस खतरे को सम?ा जाना जरूरी है.
असहमति की शाब्दिक परिभाषा बहुत ज्यादा माने नहीं रखती जिस से सिर्फ यह पता चलता है कि यह दो विचारों या विचारधाराओं का टकराव है. सिर्फ ऐसा होता तो कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि फिर न दुनियाभर में युद्ध होते, न हिंसा होती और न ही कोई बैर होता.
दरअसल, असहमति का विचार बहुत व्यापक है जो जिद, अव्यावहारिक मान्यताओं व धारणाओं के अलावा धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और पारिवारिक व व्यक्तिगत अहं और भ्रम को भी तोड़ता है. दुनियाभर में जो तरक्की हुई है, आधुनिकता आई है, जिंदगी आसान हुई है तो उस की वजह सिर्फ असहमति है, सो इसे एक दुश्मनी सम?ा लेना भारी भूल है.
दुनियाभर के ज्यादातर देशों में लोकतंत्र है जिस की बुनियाद ही इस बात पर टिकी है कि आप किसी भी बात से असहमत होने का अधिकार न केवल रखते हैं बल्कि उसे व्यक्त भी कर सकते हैं. यह और बात है कि अधिकतर देशों में यह कहनेभर की बात है, वरना बोलबाला अभी कट्टरवादियों, धर्मांधों, बहुसंख्यवादियों और नव सामंतों व पूंजीपतियों का है.
यहां 16वीं शताब्दी के इतालवी वैज्ञानिक गैलेलियो का जिक्र बहुत मौजूं होगा जिन्होंने चर्च से असहमत होते हुए यह साबित कर दिया था कि पृथ्वी गोल है और वह सूर्य की परिक्रमा करती है. गैलेलियो की यह थ्योरी रोमन चर्च और पादरियों को बेहद नागवार गुजरी क्योंकि उन की पवित्र बाइबिल में तो लिखा था कि पृथ्वी ही अंतरिक्ष का केंद्र है और सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है.
यह वह दौर था जब विज्ञान के कोई माने नहीं थे. सच वही माना जाता था जो धर्मग्रंथों में लिखा है. राजा शासन करते थे और भेड़ों सी जीती जनता कोई तर्ककुतर्क नहीं करती थी. गैलेलियो को तबीयत से प्रताडि़त किया गया.
आज भी बहुतकुछ बदला नहीं है, बस, असहमत लोगों को परेशान करने के तौरतरीके बदल गए हैं.
युवाओं की एक फौज स्कूलकालेजों से ही तैयार की जा रही है. भारत में यह काम बेहद धूर्तता से शिक्षा नीति और परीक्षा पद्धति में बदलाव कर भी किया जा रहा है. कोशिश यह है कि कम उम्र में ही तर्कक्षमता खत्म कर दी जाए तो युवा कोई विद्रोह या सवाल नहीं करेंगे. बोलबाला इन दिनों हिंदुत्व का है जिसे बनाए रखने व बढ़ाने के लिए रोबोट जैसे युवा निर्मित किए जा रहे हैं जो सत्ताधीशों और धर्म गुरुओं के इशारों पर नाचें और जो मिले उसे भगवान का प्रसाद सम?ा संतुष्ट हो जाएं. यानी, किसी भी कीमत पर वे असहमत न होने पाएं. इंदिरा गांधी ने 1965 के बाद समाजवाद के नाम पर ऐसी जमात तैयार की थी.
रोबोट बन रहे नौनिहाल
असहमत वही होगा जो तर्क करना जानता हो, सवाल पूछना जानता हो. लेकिन नई शिक्षा नीति और परीक्षा प्रणाली नई पीढ़ी को कैसे दिमागी तौर पर अपाहिज बना दे रही है, इस के लिए नर्सरी और प्राइमरी से ले कर विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं के प्रश्नपत्र उठा कर देखे जाएं तो हैरानी होती है. हैरानी इस बात की कि हरेक प्रश्नपत्र में 50 फीसदी से ज्यादा सवाल वस्तुनिष्ठ यानी औब्जैक्टिव टाइप होते हैं. परीक्षार्थी को 4 वैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर पर टिक लगाना होता है. सिर्फ टिक, कोई अपनी अलग राय नहीं दे सकता कि प्रश्न का 5वां उत्तर भी हो सकता है.
यह बड़ा आसान काम है जिस में पढ़ाईलिखाई में सिर खपाने की जरूरत ही नहीं होती. उम्मीदवार को विषय की गहराई का ज्ञान होना कतई जरूरी नहीं. ये सवाल अकसर सूचनात्मक होते हैं जिन का मकसद छात्रों को अगली कक्षा में प्रमोट करना होता है. उन के दिमाग, बुद्धि और तर्कक्षमता से इन सवालों का कोई वास्ता नहीं होता. छात्रों की उम्र जिज्ञासा और बहस की होती है क्योंकि वे दुनिया को अपनी निगाह से देखना शुरू कर देते हैं.
अब इसी उम्र में सरकार उन्हें अपनी निगाह से देखने का आदी बना रही है, ऐसे में कोई क्या कर लेगा? एक तो वैसे ही स्मार्टफोन ने बच्चों की बुद्धि पर ग्रहण लगा रहा है, ऊपर से स्कूलकालेजों में हम उन्हें नया कुछ नहीं सिखा पा रहे हैं. उलटे, बहस या तर्क के मौके छीन कर उन्हें रोबोट बनाने के इंतजाम कर रहे हैं. रोबोट केवल सिर हिलाना और आज्ञा का पालन करना जानता है. उस की प्रोग्रामिंग में कोई मौलिक और नई बात होती ही नहीं. वह प्रोग्रामर के हाथ में होती है. लौजिक का इस्तेमाल वह करता है.
गांधीजी ने असहयोग या भारत छोड़ो आंदोलन किस साल किया था, इस सवाल के 4 उत्तरों में से एक सही पर निशान लगा कर उम्मीदवार को इस बौद्धिक व तार्किक फील्ड में दाखिल होने ही नहीं दिया जाता कि क्या ये आंदोलन जरूरी थे और क्या इन्हें आजादी के आंदोलन में योगदान के तौर पर देखा जाना अनिवार्य है? यदि हां, तो क्यों और अगर नहीं, तो क्यों? जितने शब्दों में चाहें उत्तर दें. हजार में से एक बच्चा भी सौदौसौ शब्द लिख पाए तो बात बहुत अहम व उपलब्धि की होगी.
दूसरी बड़ी दिक्कत देशभर में पौराणिक किए जा रहे पाठ्यक्रमों की है. रामायण, महाभारत, वेद, पुराण और गीता पढ़ा कर उन्हें तार्किक कम, आस्थावान ज्यादा बनाया जा रहा है. ऐसे में
15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान’ के साथ जय अनुसंधान जोड़ना एक हास्यास्पद बात नहीं तो और क्या है. विरासत और अनुसंधान एकसाथ चल ही नहीं सकते. बेहतर तो यह होगा कि बच्चों को यह पूछने का मौका दिया जाए कि क्या जुए में हारे हुए पांडवों को द्रौपदी को दांव पर लगाने का अधिकार था? बजाय इस के कि कृष्ण ने जादू के जोर से द्रौपदी का चीर बड़ा कर उस की इज्जत बचाई थी.
इस हकीकत को 2 मौजूदा कवियों की रचनाओं से सम?ा जा सकता है जिन में से पहले कुमार विश्वास हैं जो एक शैक्षणिक संस्था के ब्रैंड अंबेसडर हो कर देशभर में रामकथा बांचा करते हैं, रिश्तेनातों का बखान किया करते हैं. दूसरे कवि संपत सरल हैं जो प्रधानमंत्री और उन की सरकार की पौराणिक मानसिकता का तार्किक मजाक उड़ा कर कविता व साहित्य के सही माने सम?ा देते हैं.
जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के भारत आगमन पर जब नरेंद्र मोदी उन्हें वाराणसी ले गए थे और कोई ढाई घंटे नाव में बैठा कर उन से गंगा आरती करवाई थी, तब संपत सरल ने करारा व्यंग्य करते हुए कहा था कि शिंजो आबे ने नरेंद्र मोदी से कहा था कि जब आप के पास पूजापाठ और आरती करने के लिए ढाई घंटे का वक्त है तो आप को मैट्रो ट्रेन की जरूरत क्या?
हैरानी यह जान कर होती है कि कुमार विश्वास की फैन फौलोइंग और फीस संपत सरल से कहीं ज्यादा है क्योंकि लोग तर्क और सच कहना तो दूर की बात है, सुनना भी नहीं चाहते. यह तो ईशनिंदा हो गई है. प्रसंगवश यह जान लेना अहम है कि कुमार विश्वास आम आदमी पार्टी में हुआ करते थे लेकिन अरविंद केजरीवाल ने उन्हें पार्टी से निकाल कर जता दिया था कि पंडा व पुरोहितवाद कम से कम वे ‘आप’ के मंच से तो नहीं फैलनेपसरने देंगे.
जब असहमत होने, तर्क करने, बहस करने के लिए स्कूलकालेज लेवल से मौके नहीं दिए जाएंगे तो यकीनन हम ऐसी ‘मशीनें’ ही तैयार कर रहे हैं जिन का शरीर ही आदमियों जैसा है, दिमाग से तो वे पैदल हैं और उन में जो प्रोग्रामिंग फीड की जा रही है वह उन्हें हादी मतार के छोटे संस्करण जैसा ही कुछ बनाएगी. वे हिटलर की जरमनी की नाजी और स्टालिन के रूस के कम्युनिस्टों की तरह होंगी. मुमकिन है यह अतिशयोक्ति कुछ लोगों को लगे लेकिन नतीजे सामने आने लगे हैं जो पिछले दिनों देशभर में सभी ने इफरात व खामोशी से देखे.
राष्ट्रभक्ति बनाम धर्म
आजादी के अमृत महोत्सव पर 15 अगस्त को ‘घरघर तिरंगा’ फहराने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील आंशिक रूप से ही कारगर हुई, केवल उन से सहमत लोगों ने ही घरों में तिरंगा फहराया. लेकिन इस आयोजन पर जगहजगह, छोटेछोटे से ही सही, बवाल और विवाद हुए. मोदीभक्त चाहते थे कि सभी लोग तिरंगा फहरा कर राष्ट्रभक्ति का सुबूत दें. तिरंगा फहराने से ही कोई राष्ट्रभक्त हो जाता है, यह बात ही बेतुकी है लेकिन महल्ले, कालोनियों और अपार्टमैंटों में उन लोगों को राष्ट्रद्रोही की सी निगाह से देखा गया जिन्होंने तिरंगा नहीं फहराया.
कइयों ने अपने को तिरंगा इंस्पैक्टर घोषित कर दिया और अपार्टमैंट या कालोनी के हर घर के फोटो खींच डाले कि सब को पता चल सके कि कौन तिरंगाप्रेमी यानी देशभक्त हैं या नहीं.
यह निहायत ही व्यक्तिगत बात थी लेकिन लोगों में फूट डाल गई. इस से भी बड़ा ?ां?ाट उस वक्त खड़ा हुआ जब आयोजनों में तिरंगे के साथ भगवा भी लहराया गया और धार्मिक प्रतीकों का पूजापाठ किया गया. यह एक ताजी बानगी भर थी, नहीं तो पिछले 8 सालों में धर्म और देश में फर्क खत्म करने की कोशिश ने लोगों को दो हिस्सों में बांट दिया है.
सहमति के अर्थ हमेशा से ही बहुत संकुचित रहे हैं कि आप मठाधीशों और सत्ताधीशों का अनुसरण करो नहीं तो तिरस्कृत और बहिष्कृत होने को तैयार रहो.
यह अभियान धर्म और बहुसंख्यवाद की बलि कैसे चढ़ा, इसे सम?ाने को 2 उदाहरण काफी उपयुक्त हैं. कई मंदिरों में स्वतंत्रता दिवस ढोलधमाकों से हिंदूवादी तरीके से मनाया गया और मजाक यह कि 15 अगस्त को नहीं, बल्कि 27 जुलाई को मना लिया गया. इस दिन उज्जैन के प्रसिद्ध महाकाल मंदिर से हजारों भक्त ?ां?ा, मं?ारे, डमरू, शंख और घंटेघडि़याल बजाते तिरंगे को ले कर बड़े गणेश मंदिर पहुंचे और वहां तिरंगे के साथ गणेश पूजन किया गया. यहां तर्क यह दिया गया था कि 15 अगस्त, 1947 को श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी थी और हम स्वतंत्रता दिवस को हिंदू पंचांग के हिसाब से मनाते हैं.
यही हाल 27 जुलाई को मध्य प्रदेश के मंदसौर के पशुपतिनाथ मंदिर का भी था. वहां भी हिंदू तिथि का हवाला देते शंकर का विशेष शृंगार किया गया था. मानो यह स्वतंत्रता दिवस नहीं बल्कि शिवरात्रि हो. आजादी सिर्फ हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान टाइप की ही दिखे, इस बाबत वैदिक मंत्रोच्चार के साथ खूब ‘हर हर भोले’ के नारे लगे. इस से वे लोग असहमत नजर आए जिन की आस्था इन कर्मकांडों और धार्मिक उन्माद में नहीं है.
आने वालों सालों में यह एक बड़े विवाद की बुआई है क्योंकि अब तक धर्मस्थलों में तिरंगा फहराने का रिवाज नहीं था पर अब बड़े पैमाने पर हो रहा है. इंदौर के एक गुरुद्वारे इमली साहिब में किसी के तिरंगा फहराने पर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने एतराज जताया था. कमेटी के अध्यक्ष हरजिंदर सिंह धामी के मुताबिक, यह सिखों की शान में गुस्ताखी है. गुरुद्वारे में सिर्फ खालसा निशान ही फहराया जा सकता है.
मुसलमानों, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों ने इस राष्ट्रीय कम धार्मिक ज्यादा अनुष्ठान में दिलचस्पी ही नहीं ली क्योंकि यह उन की प्राथमिकता न पहले कभी थी, न आज है. इस का यह मतलब नहीं कि वे गद्दार हैं बल्कि यह है कि वे अनपढ़ होते हुए भी ज्यादा व्यावहारिक, सम?ादार हैं भले ही आर्थिक रूप से कमजोर हों.
लोकतंत्र से सहमति तो असहमति किस से लोकतंत्र, आजादी जैसा ही विचित्र और विरोधाभासी शब्द है जो है भी और नहीं भी. हां, इतना जरूर है कि इस से असहमति जताई जा सकती है बशर्ते आप गिरफ्तार होने, प्रताडि़त होने और सलमान रुश्दी की तरह जान देने तक का माद्दा रखते हों.
आजादी के 30 साल बाद ही 1975 में आपातकाल लागू कर इस नेक खयाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चिथड़े उड़ा दिए थे कि देश में कोई संविधान और लोकतंत्र है. तब उन से असहमत लोग जेल की शोभा बढ़ाते नजर आते थे. उस वक्त पहली बार प्रसिद्ध दार्शनिक प्लूटो का यह कहना सच होता दिखाई दिया था कि लोकतंत्र से ही तानाशाही जन्म लेती है.
अब देश में यह नए तरीके से हो रहा है. नरेंद्र मोदी और भगवा गैंग से असहमत लोग जेलों और सीबीआई, ईडी, एनआईए जैसी एजेंसियों की शान बन रहे हैं. कैसे? इस के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि लोकतंत्र असहमति से है, असहमति लोकतंत्र से नहीं होती.
मशहूर दार्शनिकों ने लोकतंत्र में असहमति पर कई अहम बातें कही हैं. वे पुरानी होते हुए भी प्रासंगिक हैं लेकिन दिलचस्प बात न्यायाधीशों का इस पर लगातार कुछ न कुछ बोलते रहना है जो संविधान की याद दिला जाता है.
हम भारत के लोग भारत को एक (संपूर्ण प्रभुत्व: संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उस के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और (राष्ट्र की एकता व अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प हो कर संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं.
क्या सचमुच हम भारत के लोग अपने गौरवशाली संविधान के सब से पहले पन्ने पर लिखे इन शब्दों पर अमल करते हैं? इस सवाल का जवाब अगर हां में होता तो यकीन मानें, देश में कोई विवाद या फसाद होता ही नहीं. इन दिनों कथित रूप से मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करने वाला वर्ग, जिसे वर्ण कहना ज्यादा सटीक होगा, अपने से असहमत लोगों को कतई बरदाश्त नहीं कर रहा है. उलटे वह तो उस संविधान को बदल देने का ही हिमायती है जो असहमत आवाजों की अनदेखी करने की इजाजत नहीं देता.
इस मानसिकता को ले कर हर किसी की चिंता स्वाभाविक है लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज हर कभी संविधान की उद्दयेशिका का इशारों में हवाला देने को मजबूर हो जाएं तो सहज सम?ा जा सकता है कि दाल में काला नहीं है बल्कि पूरी दाल ही काली हो चली है.
केवल 74 दिनों के लिए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बनने जा रहे जस्टिस उदय उमेश ललित ने अपनी शपथ के पहले ही कहा था कि बहस, तर्क और आलोचना आदि तो किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र की खूबसूरती है लेकिन हर चीज की मर्यादा होती है. यहां मर्यादा से उन की मंशा फैसलों से परे जा कर न्यायपालिका की आलोचना से थी.
तर्क के लिहाज से तो हालांकि यह बात भी विरोधाभासी है कि बहस, तर्क और आलोचना को आप मर्यादा के नाम पर किन जंजीरों से बांधना चाहते हैं लेकिन उन की मंशा असहमत लोगों का मुंह बंद कर देने की होगी, ऐसा लगता नहीं. आम जिंदगी और व्यवहार में भी मर्यादा होनी चाहिए, इसीलिए अदालतें हैं जो यह तय करती हैं कि असहमति भी कहीं सहमति की तरह उद्दंडता का पर्याय न बन जाएं.
इस से बहुत ज्यादा साफ शब्दों में मुद्दे की बात सुप्रीम कोर्ट के ही जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने फरवरी 2020 में अहमदाबाद के एक आयोजन में यह कही थी कि असहमति को एक सिरे से राष्ट्रविरोधी और लोकतंत्रविरोधी बता देना संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण एवं विचारविमर्श करने वाले लोकतंत्र को बढ़ावा देने के प्रति देश की प्रतिबद्धता के मूल विचार पर चोट करता है.
उन्होंने अपनी बात और स्पष्ट करते हुए कहा कि असहमति पर अंकुश लगाने के लिए सरकारी तंत्र का इस्तेमाल डर की भावना पैदा करता है जो कानून के शासन का उल्लंघन है और बहुलतावादी समाज को संवैधानिक दृष्टि से भटकाता है. सवाल करने की गुंजाइश को खत्म करना और असहमति को दबाना सभी तरह की प्रगति, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक बुनियाद को नष्ट करता है. इस माने में असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वौल्व है. कोई भी व्यक्ति या संस्था भारत की परिकल्पना पर एकाधिकार करने का दावा नहीं कर सकता.
उन का सेफ्टी वौल्व वाला वक्तव्य काफी चर्चित हुआ था जिस का इस्तेमाल उन्होंने साल 2018 में चर्चित भीमा कोरेगांव मामले में आरोपी सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के वक्त भी किया था कि असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वौल्व है. यदि आप सेफ्टी वौल्व की इजाजत नहीं देंगे तो यह फट जाएगा. तब उन के साथ खंडपीठ में तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा और जस्टिस ए एम खानविलकर भी थे जिन्होंने कई फैसले सरकार के समर्थन में दिए और नागरिकों को फटकारा.
अहमदाबाद के आयोजन में ही जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा था कि सवाल करना, चुनौती देना, सत्यापित करना, सरकार से जवाबदेही मांगना संविधान के तहत हर नागरिक का अधिकार है. इन अधिकारों को कभी नहीं छीना जाना चाहिए अन्यथा हम एक निर्विवाद मरणासन्न समाज बन जाएंगे जो आगे विकसित नहीं हो पाएगा.
विद्वान जजों ने यह सब बोला तो सोचा यह जाना चाहिए कि उन्हें यह सब बोलने की जरूरत क्यों महसूस हुई. यहां एक बड़ा फर्क शब्दों के चयन का था, नहीं तो भाव तो सरकार से असहमत नेताओं, कलाकारों, पत्रकारों, लेखकों और दूसरे बुद्धिजीवियों के भी यही रहते हैं कि असहमति का गला घोंटने को सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल न किया जाए. लेकिन इफरात से किया जाता है
अगर किसी नादान बच्चे से भी ईडी के बारे में पूछा जाए तो वह ?ाट से बता देगा कि हां, यह कुछ है जिस का काम विरोधी नेताओं और दूसरे लोगों के घरों पर छापे मारना होता है. फिर बड़ों की बात क्या जो पिछले कुछ सालों से हर कभी प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक छापे मारते देखने के आदी हो गए हैं.
ये छापे भगवा गैंग विरोधी नेताओं के यहां ही ज्यादा क्यों पड़ते हैं, यह कोई हैरत की बात नहीं रह गई है कि वे सरकार और हिंदू राष्ट्र थोपने की मुखालफत करते हैं.
लिस्ट बहुत लंबी है और ईडी के छापों की दहशत का आलम यह है कि पिछले दिनों जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भगवा पार्टी से मुक्त हो कर राजद और कांग्रेस के साथ सरकार बनाने का फैसला लिया तो उन के शुरुआती बयानों में से एक यह भी था कि मैं सीबीआई या ईडी से नहीं डरता. बहुत कम शब्दों में नीतीश कुमार ने जता दिया कि वे नरेंद्र मोदी, अमित शाह और पूरी भगवा गैंग से असहमत होने की सजा भुगतने के लिए दिमागीतौर पर तैयार हैं.
इनकम टैक्स, ईडी और सीबीआई के छापे पहले भी पड़ते थे लेकिन उन में असहमति बहुत बड़ा फैक्टर थी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं पर इस में भी कोई शक नहीं कि कांग्रेस भी इन केंद्रीय एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल कभीकभार करती थी.
भाजपा ने इसे रिवाज बना लिया है. ये छापे एक तयशुदा एजेंडे के तहत डाले जाते हैं जिन का मकसद विरोधियों की हिम्मत तोड़ना होता है. खास बात यह भी है कि ज्यदातर छापे राज्यों के चुनाव के पहले पड़वाए जाते हैं जिस से विरोधियों की छवि खराब हो और वे परेशान भी हों.
पिछले 8 साल में भाजपा की अगुआई वाली सरकार ने 600 से भी ज्यादा छापे डलवाए हैं जिन में से कोई 450 विरोधियों पर पड़े हैं. इन में से कांग्रेस नेताओं के खिलाफ लगभग 90, टीएमसी नेताओं के खिलाफ 40, आम आदमी पार्टी के नेताओं के खिलाफ 20, पीडीपी के 15, एनसीपी के 10, आरजेडी के 9, बीएसपी के 8 और जनता दल एस के 7 नेताओं के खिलाफ छापे पड़े हैं. कुछ दूसरे छोटे दल भी असहमति की सजा के शिकार हुए हैं. बसपा प्रमुख मायावती चूंकि भगवा गैंग से सहमत हो गई हैं, इसलिए बाद में उन्हें छापों से मुक्ति दे दी गई.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान सपा प्रमुख अखिलेश यादव के करीबियों के यहां छापे पड़े थे. इसी तर्ज पर पश्चिम बंगाल चुनाव के पहले
14 टीएमसी नेताओं और तमिलनाडु में मतदान के 4 दिनों पहले एम के स्टालिन और उन की बहन के यहां छापे पड़े थे. साल 2020 में राजस्थान में चुनाव के ठीक पहले 6 कांग्रेस नेताओं के यहां छापे पड़े थे जिन में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नजदीकी रिश्तेदार भी शामिल थे. ऐसा अमूमन चुनाव के पहले हर राज्य में होना बताता है कि छापों का भी सीजन होता है.
बात अकेले राजनेताओं और पार्टियों की नहीं है बल्कि उन मीडिया संस्थानों को भी बख्शा नहीं गया जो सरकार से असहमत हैं. आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि बड़े पैमाने पर मीडिया घरानों पर मीडिया एजेंसियों पर राष्ट्रद्रोह के कानून के तहत निशाना साधा गया क्योंकि वे लगातार सरकारी फैसलों व नीतियों से न केवल असहमति जता रहे थे बल्कि उन की पोल भी खोल रहे थे.
अब तक 90 फीसदी मीडिया को गोदी मीडिया होना आंका जाता है जो दरअसल खुद पाखंडों और हिंदू राष्ट्र का हिमायती है. जो निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं गाज उन पर गिरी है. ‘द वायर’, ‘न्यूज क्लिक’, ‘भारत समाचार’ और ‘न्यूज लौंड्री’ ऐसे ही मीडिया संस्थान हैं जो सरकार से असहमत हैं, इसलिए इन के यहां ईडी के छापे पड़े.
असहमतों की लिस्ट बहुत बड़ी तो नहीं फिर भी है. उन के पास तर्क हैं, तथ्य हैं और आंकड़े भी हैं. लेकिन उन की सुनने वाले मुट्ठीभर लोग ही हैं जिन्हें भगवा गैंग आएदिन देशद्रोही, नास्तिक, वामपंथी और पाकिस्तानी वगैरह के खिताब से नवाज कर बदनाम करने की कोशिश करती रही है.
इस खेल के मद्देनजर अहमदाबाद में जस्टिस दीपक गुप्ता के कहे ये शब्द एक चेतावनी के तौर पर लिए जाने चाहिए-
एक स्वतंत्र देश वह है जहां कानून के शासन द्वारा अभिव्यक्ति और शासन की स्वतंत्रता हो. जहां सत्ता का बंटवारा नहीं होता, कानून का शासन नहीं होता, कोई जवाबदेही नहीं होती तो वहां दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार, अधीनता और आक्रोश होता है. जब कानून का शासन गायब हो जाता है तो हम पर कुछ लोगों की मूर्खता और सनक का शासन होता है.