‘जब रांची में था. लगता है जैसे यहां किसी गलत सोहबत में है. शादी को राजी नहीं और घर पर भी रहता नहीं,’’ कहती हुई रोने लगी थीं अम्मां और हम तीनों सहयोगी एकदूसरे का मुंह देखते रहे.परेशान अम्मां मेरे कमरे से चली गईं. क्या करते हम. केशव के साथ हमारा रिश्ता सरकारी था और अम्मां के साथ भावनात्मक.
फिर कुछ ऐसा हुआ कि अम्मां ने हमारे पास आना छोड़ दिया. 2-3 दिन तक तो हम ने संयम रखा, लेकिन चौथे दिन खाना बनाने वाली बाई से बात की, ‘‘दीदी, जरा पता करेंगी आप, अम्मां नजर नहीं आतीं. वह तो इस समय रोजाना आती थीं हमारे पास.’’
‘‘वही तो पसंद नहीं आया न अम्मां के सपूत को. बेचारी, भूखीप्यासी पड़ी रहती हैं घर में. सुबह मैं जो खाना बना जाती हूं वह भी वैसा ही पड़ा रहता है. मेरी तो यह समझ में नहीं आता कि अगर बाबू साहब के पास मां के लिए समय नहीं था तो उन्हें लाए क्यों? वहां भरापूरा परिवार है अम्मां का. वहां से उठा कर यहां ला पटका बेचारी को. शुगर की बीमारी है उन्हें, इसी तरह भूखीप्यासी पड़ी रही तो कौन जाने कब कुछ हो जाए,’’ बाई ने कहा.
‘‘लेकिन, हमारे पास अम्मां का आना उन्हें बुरा क्यों लगा?’’‘‘अरे भैयाजी, बुरा तो लगेगा न, जब अम्मां पूछताछ करेंगी. यह बात अलग है कि बाबू साहब की रासलीला बच्चाबच्चा जानता है. उसी रीना के पास रहते हैं न साहब दिनरात. दुनिया जानती है, बस, अम्मां न जान पाएं. डरते होंगे लोगों से कि हिलेगीमिलेगी, पासपड़ोस से जानपहचान होगी तो कच्चाचिट्ठा न खुल जाए.’’
‘‘क्यां अम्मां सब जानती हैं? वह रोती क्यों हैं?’’‘‘हां, भैयाजी, कल झगड़ा हुआ था मांबेटे में. बेशर्म ने इतनी लंबी जबान खोली मां के आगे कि क्या बताऊं. मैं तो काम छोड़ कर जाने वाली थी, पर अम्मां को देख रुक गई. ऐसी औलाद से तो बेऔलाद रहे इनसान. साहब पढ़लिखे हैं न, अरे, उन से तो मेरा अनपढ़ पति अच्छा था, जो कम से कम मां के आगे जबान तो नहीं खोलता था.’’
यह सुन कर हम तीनों सहयोगी सन्न रह गए थे.‘‘भैयाजी, आप के पास अगर साहब के घर का पता हो तो उन के पिता को बुला दीजिए, बहुत उपकार होगा आप का.’’‘‘नहींनहीं, दीदी, हम किसी के घर में दखल नहीं दे सकते. यह तो उन की अपनी समस्या है,’’ मेरे सहयोगी ने इनकार कर दिया.बाई आंखें पोंछ खाना बनाने में लग गई. बेमन से मैं भी दिनचर्या में व्यस्त हो गया.
शाम 7 बजे के करीब बाई आई. चुपचाप खाना बनाती रही. नाराज सी लगी वह, तो पूछ ही बैठा, ‘‘अम्मां कैसी हैं, दीदी?’’‘‘जिंदा हैं अभी. मर जाएंगी तो पता चल ही जाएगा.’’‘‘ऐसा क्यों कहती हो, दीदी?’’‘‘तो और क्या कहें, भैया. अनपढ़ हैं न हम, ऊपर से औरत जात. ऐसी ही भाषा आती है हमें. पढ़ेलिखे अफसर लोगों के तौरतरीके हम जानते जो नहीं.’’
‘‘क्या केशव अभी तक लौटे नहीं?’’‘‘लौटे थे न. अम्मां ने चायनाश्ता परोसा था, पर भूख नहीं है, कह कर चले गए उसी चुड़ैल के घर,’’ बड़बड़ाती हुई बाई काम निबटा कर जाने लगी, तब सहसा बोली, ‘‘अम्मां का रोना हम से सहा नहीं जाता, भैयाजी. हम अभी उस चुड़ैल के घर से उन्हें ले आते हैं. अगर कुछ हो जाए तो देखा जाएगा.’’
‘‘सुनो, दीदी… रुको.’’बाई की हिम्मत पर अवाक रह गया मैं. मुझ से तो बाई ही भली, जिस में बुरे को बुरा कहने की हिम्मत तो है. अनुशासन का मारा मैं अपनी सीमारेखा में बंधा एक लाचार औरत की पीड़ा भी नहीं बांट पा रहा था.‘‘आप साथ चलिए, भैयाजी, बाहर ही खड़े रहना. बात मैं ही करूंगी. अगर वह हाथ उठा दें तो ही आप सामने आना.’’
‘‘वह आप पर कैसे हाथ उठा सकता है?’’ सहसा मेरे दोनों सहयोगी भी अंदर आते हुए बोले, ‘‘हमारे परिवार की सदस्या हैं आप, हाथ तोड़ देंगे उस के. हम ने अभीअभी देखा वह रीना के घर ही गया है. हम सभी चलते हैं आप के साथ,”
“चलिए तो…’’असमंजस में पड़ गया मैं. सहसा दोनों सहयोगी भी साथ हो लिए थे.‘‘कोई फसाद तो नहीं हो जाएगा न. अगर उस ने कहा कि यह उस के घर का मामला है, हम कौन होते हैं, तो…’’‘‘उस के घर का मसला तब तक था, जब तक वह उस के घर में था. जब कहानी दीवारें लांघ कर बाहर चली आए तब वह सब का मसला बन जाता है.’’
झटपट हो गया सब. बाई आगे थोड़ी दूरी पर थी और पीछेपीछे हम तीनों भी चल पड़े.अंधेरा घिर आया था. रीना दुकानों के ऊपर बने चौबारे में रहती थी. 20-25 सीढ़ियां चढ़ कर उस के कमरे में आते थे. अंधेरा था सीढ़ियों में.‘‘भैयाजी, आप इधर ही खड़े रहना. मैं बाहर ही बुलाऊंगी उसे,’’ निर्देश सा दे कर बाई ने सीढ़ियों का दरवाजा खटखटा दिया.
‘‘कौन है?’’ रीना का स्वर था.दरवाजे से अंदर झांकते हुए बाई ने पूछा, ‘‘केशव साहब हैं क्या यहां? उन्हें बाहर भेजिए, मुझे बात करनी है.’’‘‘क्या बात करनी है?’’‘‘मैं ने कहा न, मुझे साहब से बात करनी है. तुम साहब को बाहर भेजो, सुना नहीं तुम ने.’’
‘‘तू इस तरह बात करने वाली कौन होती है…?’’‘‘मैं जो भी हूं, हट पीछे. केशव साहब…’’ कहती हुई बाई ने रीना को धक्का दिया, ‘‘हाथ मत लगाना मुझे, समझी न. तेरे पास नहीं आई मैं. 25 साल हो गए मुझे इस गांव में, आज तक मैं ये सीढ़ियां नहीं चढ़ी, समझी न तू. थूकूं भी न ऐसी चौखट पर, जहां तुझ जैसी औरत रहती है,’’ कहती हुई बाई अंदर घुस गई और केशव से बोली, ‘‘केशवजी, आप बाहर आइए. अरे, वाह साहब, धन्य हो आप. वहां मां मर रही हैं. चायनाश्ता परोस कर अपने बच्चे का इंतजार कर रही थीं. भूख नहीं थी वहां और यहां, पूरीभाजी उड़ा रहे हो. शर्म बेच खाई है क्या…? आप बाहर आइए, सुना कि नहीं.’’
‘‘यह क्या बदतमीजी है, बाई?’’ कहता हुआ दनदनाता केशव दरवाजे के पास चला आया था.‘‘अब तो बदतमीजी ही होगी, साहब. आप को पता है कि आप की मां भूखी पड़ी रहती हैं. सुबह का खाना दोपहर को और दोपहर का रात को फेंकती हूं. शुगर की बीमारी है न उन को. अगर अंदर पड़ी मर गईं वह तो क्या कर लोगे, साहब. क्या जवाब दोगे अपने बाप को? इलाज कराने लाए थे न, यही इलाज हो रहा है.’’
‘‘केशव, इस बाई की इतनी हिम्मत…?’’ रीना का स्वर फूटा, जिस पर बाई का अंदर से उत्तर सुनाई दिया, ‘‘हाथ मत लगाना मुझे. सुना नहीं तुम ने, घाटघाट का पानी पीने वाली, तेरी इतनी औकात नहीं, जो मुझ से मुंह लगाए. तेरी तरह इज्जत नहीं बेच खाई मैं ने, 45 साल उम्र है मेरी. मेरे सामने तू इस बच्चे का सर्वनाश कर रही है. मैं ने कुछ नहीं कहा. यह दूधपीता बच्चा नहीं है न इसलिए, लेकिन इस की मां का रोना मैं नहीं देख सकती. अभी घर चलो साहब, मेरे साथ, अपनी मां को संभालो.’’
‘‘केशव, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं…?’’ रीना तिलमिला गई.रीना का तिलमिलाना हम साफ समझ रहे थे. मेरी जिंदगी का यह पहला अवसर था, जब मैं ऐसी स्थिति का सामना कर रहा था.‘‘साहब, सीधेसीधे मेरे साथ चलो, वरना मैं घसीट कर ले जाऊंगी. इनसानियत के नाते ही उस औरत को खाना खिलाओ, वरना वह मर जाएगी. तुम्हारी मां है वह. अरे, अगर यह लड़की इतनी ही प्यारी है तो ब्याह कर घर क्यों नहीं ले जाते इसे? क्यों पढ़लिख कर बैंक में अफसर बन कर भी खुद को इतना नीचे गिरा रहे हो? अपनी इज्जत संभालो, साहब, अपना सर्वनाश मत करो. घर चलो, साहब.’’
तभी हमें धक्के जैसा आभास हुआ. क्या केशव ने बाई को धक्का दिया? सोचते हम तीनों झट से सीढ़ियां चढ़ गए, मगर दृश्य कुछ और ही था. शायद रीना बाई पर झपटी थी, जिस पर बाई ने ही उसे धक्का दे दिया था.‘‘हाथ मत लगाना, मैं ने कहा था न कलमुंही. अरी, तू नौकरी छोड़ कर कोठे पर क्यों नहीं जा बैठती. 6 साल से तुझे देख रही हूं. हर 2 साल बाद एक नया लड़का फंसा लेती है. औरत है या…’’ भद्दी सी गाली दी थी उसे बाई ने.
केशव और रीना हम तीनों को सामने देख सन्न रह गए थे. शायद उन्हें पता था, उन की कथा कोई नहीं जानता. जो भाषा बार्ई ने बोली, वह हम तो नहीं बोल सकते थे, मगर यह भी सच था कि वे दोनों ऐसी ही भाषा सुनने लायक थे.
रीना नीचे फर्श पर पड़ी रही और केशव गरदन झुकाए सीढ़ियां उतर गया. बाई हंस पड़ी. फिर बोली, ‘‘औरत बनी है तो औरत होने का हक भी अदा कर, रीना. अरी क्या मजबूरी है तुझे. अच्छीखासी नौकरी है, फिर क्यों वेश्या की तरह इज्जत बेचती है? यह कैसा शौक है भई, हमारी तो समझ से भी परे है.’’
‘‘बस कीजिए, दीदी. आइए, चलिए.’’शर्म आ रही थी मुझे, कैसे बैंक जा कर रीना और केशव से आंखें मिला पाऊंगा. अनैतिक जीवन ये दोनों जी रहे थे, शरमा मैं रहा था.‘‘दीदी, आइए,’’ मैं ने पुन: पुकारा.‘‘देखा न तू ने, कैसे छोड़ गया तुझे केशव? जरा सोच, वह तेरा आदमी या सगा होता तो यों मेरे हाथ उठाते भी चुप रहता. क्या लगता है वह तेरा. कुछ भी तो नहीं. छोड़ दे उसे और अपना घर बसा. पढ़लिख कर भी क्यों गंदगी में पड़ी है तू.’’‘‘दीदी, अब आप चलिए न,’’
इस बार मैं ने बाई का हाथ ही पकड़ लिया. स्वर भीग गया था मेरा. हम तीनों बाई को उस के घर तक छोड़ आए. पहली बार मैं ने बाई का घर देखा. साफसुथरा घर था उस का.‘‘आ जाओ, बेटा, अंदर आ जाओ,’’ बार्ई ने बहुत ही आदर से कहा.तब वह मां जैसी ही लगी मुझे. वह अकेली थी, पति नहीं था और संतान हुई नहीं. बस, अपना पेट पालने को वह 3-4 घरों में खाना बनाने का काम करती थी.
बाई ने हमें अपने हाथ के लड्डू खिला कर विदा किया. काफी शांत हो चुकी थी तब तक वह.‘‘अभी रुक जाना, बेटा, साहब के गांव पत्र मत लिखना. क्या पता, सुधर ही जाएं. अगर आंखों में रत्तीभर भी शर्म होती तो इतनी बेइज्जती काफी है. भैया, इतनी कड़वी जबान मैं ने आज तक नहीं बोली,’’ आतेआते पत्र लिखने से रोक दिया मुझे बाई ने. समय देना चाहती थी वह केशव को और हम भी चाहते थे सब सुलझ जाए और बात उस के घर तक न पहुंचे.
घर पहुंच कर हम तीनों की नजर केशव के आंगन में पड़ी. बत्ती जल रही थी और अंदर सब शांत था.‘‘चलो, देख कर आएं, केशव घर आया भी है या कहीं और चला गया. जहां इतनी बेशरमी सह ली, वहां थोड़ी और सही. कहीं ऐसा न हो, अम्मां अभी भी अकेली हों,’’ मेरा सहयोगी बोला और उसी क्षण हम दबे पांव सामने घर में चल गए.सामने ही रसोई में केशव दिख गया. शायद खाना गरम कर रहा था, उलटे पैरों लौट आए हम. संतोष हुआ यह जान कर कि कहानी का यह मोड़ सुखद रहा.
भारी मन से खाना खाया हम ने. मेरे दोनों सहयोगी तो सो गए, लेकिन मैं नहीं सो पाया. सोचने लगा, संसार कितना विचित्र है न. कैसेकैसे जीव हैं हमारे आसपास. मनुष्य बन कर भी कई जानवर से जीते हैं. पढ़लिख कर भी जिन में संस्कार नहीं पनपे और बाई जैसे अनपढ़ इनसान भी हैं, जो सही को सही दिशा में ले जाने से डरते नहीं.
केशव अगर सही मानता था स्वयं को तो क्यों गरदन झुकाए चुपचाप घर चला आया. कुछ अनैतिक स्वीकार किया होगा तभी तो शर्म का मारा चुप रहा. जब इतनी समझ है मनुष्य में तो क्यों ऐसा जीवन जीता है वह, जिस में उसे अपने मानसम्मान की बलि देनी पड़े. और बलि भी ऐसी कि घर में काम करने वाली एक बाई ही आईना दिखा दे, सोचतेसोचते आंखें भारी हो गई मेरी.
सुबह जब बैंक जाऊंगा तब केशव और रीना का सामना होगा. शायद वह अपने आचरण पर लज्जित हों, ऐसी इच्छा जागी मन में और इसी आस में मेरी आंखें मुंद गईं.सुबहसुबह केशव हमारे पास आया, बैंक में छुट्टी की अर्जी देने. अम्मां को जालंधर ले जा रहा था डाक्टर को दिखाने. चुपचाप चला गया वह. मैं सोचने लगा, कल अगर बाई हिम्मत न करती तो शायद केशव कभी न लौटता. क्या अपने जीवन में मैं भी जुटा पाऊंगा सही को सही कहने की हिम्मत. सही को सही दिशा दे पाने की हिम्मत.