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सलमान खान कि इस एक्ट्रेस का हुआ भयानक एक्सीडेंट

बॉलीवुड एक्ट्रेस रंभा को लेकर एक बुरी खबर आरही है कि उनका कार एक्सीडेंट हो गया है, जिसके बाद से उनके फैंस काफी ज्यादा परेशान नजर आ रहे हैं. बता दें कि उनके कार में उनकी बेटी और नैनी मौजूद थी.

खबर है कि इस एक्सीडेंट के दौरान एक्ट्रेस और उनकी बेटी को काफी गंभीर चोट आई है, जिससे वह दोनों काफी ज्यादा परेशान  हैं. रंभा की बेटी को तुरंत अस्पताल में भर्ती करवाया गया है. इस हादसे की जानकारी एक्ट्रेस ने अपने सोशल मीडिया के जरिए दिया है.

 

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इस खबर के सामने आते ही सभी फैंस काफी ज्यादा परेशान हैं. साथ ही रंभा भी काफी ज्यादा परेशान नजर आ रही हैं. एक्ट्रेस ने इंस्टाग्राम पर फोटो शेयर किया है जिसमें उनकी बेटी अस्पताल में नजर आ रही हैं. इसके साथ ही एक्ट्रेस ने कार की भी तस्वीर शेयर कि है जो कि पूरी तरह से डैमेज हो गई है.

बॉलीवुड एक्ट्रेस रंभा ने सलमान खान के साथ कई सारी हिट फिल्मों में काम किया है. इसके साथ ही वह गोविंदा के साथ भी कई हिट फिल्मों में काम कर चुकी हैं.

खैर अभी रंभा के परिवार को दुआ की जरुरत है कि जल्द उनकी बेटी स्वस्थ होकर वापस घर लौटे.

Bigg Boss 16: अंकित और प्रियंका की दोस्ती टूटी, जानें क्या है कारण

सलमान खान का शो बिग बॉस 16 इन दिनों टीआरपी लिस्ट में सबसे आगे है, शो में अब्दूरोजिक से लेकर प्रियंका चहर चौधरी तक को खूब पसंद किया जा रहा है.

आए दिन बिग बॉस 16 के कंटेस्टेंट ट्विटर पर ट्रेंड किया जा रहा है, वीडियो के प्रीकैप ने लोगों को हैरान करके रख दिया है, अंकित गुप्ता और प्रियंका चहर चौधरी गेम को लेकर काफी ज्यादा बहस कर रहे हैं. अब इन दोनों में बात इतनी ज्यादा बढ़ गई की दोनों बैठकर रोने लगें.

 

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प्रियंका ने अंकित को मुंह पर बोल दिया कि वह उन्हें झेल रही है, इस शो में दिखाया जा रहा है कि प्रियंका और अंकित की लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. अंकित भी प्रियंका को जवाब देने में पीछे नहीं हटते हैं वह कहते हैं कि मत दो मेरा साथ.

बता दें कि वह पहले भी कई बार बिग बॉस 16 में लड़ाई कर चुके हैं, उन्हें परेशान किया जा चुका है.  लेकिन इससे पहले प्रियंका उनका साथ देती नजर आईं थी लेकिन अब बिल्कुल भी साथ नहीं दे रही है. दोनों एकदम से खिलाफ हो गए हैं एक दूसरे के.

बता दें कि प्रियंका और अंकित एक साथ सीरियल उदारिया में काम कर चुके हैं. जिसमें इन दोनों को खूब पसंद किया गया था.

माइनस 20 डिग्री तापमान : भाग 1

‘ जयहिंद, सर. आपकी पोस्ंिटग आ गई है. ’ हैडकर्लक साहब ने जब मुझे बताया तो मेैंने पूछा, ‘ कहां की है ? ’‘‘ पता नहीं, पर, सर आप को चंदीगढ़ ट्रांजिट कैंप में रिपोर्ट करनी है. यह लैटर दिया है. ’’

मैं समझ गया, यह फारवर्ड ऐरिया की छोटी यूनिट है जिसे मुझे कमांड करना है. लैटर में लिखा था, यूनिट फीलड में है और फैमिली क्वार्टर उपलब्ध नहीं हैं. लेह एयरपोर्ट से आपको गाड़ी लेने आएगी. सर्दी काफी रहंेगी. मन के भीतर केवल यह विचार था कि हर सैनिक को चाहे वह किसी भी रैंक का हो, इस ऐरिया में जाना पड़ता है.

मैंने अपनी पत्नी को बताया तो उसने कहा, ‘‘ पोस्ंिटग आनी ही थी. यह अच्छा है, आपकी इंडिपैंटड कमांड होगी. बच्चे पढ़ रहे है. क्वार्टर यही रहेगा. ’’‘ हां, बिल्कुल. अकैडमिक वर्श तक यही क्वार्टर रहेगा.  मैंने सेप्रेटड  फैमिली क्वार्टर के लिए अप्लाई किया है. जल्दी मिल जाएग‘‘ कोई बात नहीं जैसा होगा देखा जाएगा. ’’

मन से मैं चाहता था, क्वार्टर मिल जाए तो मैं उस में सेट करके ही जाऊं. इतनी दूर से बार बार आना मुष्किल होता है. मुझे नई यूनिट में जाने के लिए 1 महीने का समय दिया गया था. मुझे 15 दिन में क्वार्टर मिल गया था. सबकुछ मेनेज करते करते 1 महीना हो ही गया था.

वहां इस समय कमांड कर रहे अफसर से बात हुई तो उन्होंने कहा, ‘‘ सर, चंदीगढ़ ट्रांजिट कैंप के चक्कर में न पड़ें. आप सीधे लेह की फलाइट पकड़ें. अगर वहां ऐयर लिफटिंग के वारंट उपलब्ध नहीं है तो मैं यहां से भेज देता हूं. मैं लेह एयरपार्ट पर गाड़ी भेज दूंगा. स्नोह कलोदिंग की भी वहां उतरते ही जरूरत पड़ेगी, वह भी भेज दूंगा. जो लैटर आपको भेजा है. वह रुटीन लैटर है. सबको भेजा जाता है ’

थैंक्स मेजर सुबरामनियम, ‘ हमारे पास ऐयर लिफटिंग वारंट है. मैं आपको फलाइट बुक करवा कर डेट बताता हूं. ‘‘ ठीक है, मैं उसी के अनुसार गाड़ी भेजूंगा. ’मेरी 5 अक्तूबर की फलाइट बुक हुई थी. मैंने मेजर सुबरामनियम को बता दिया.उसने कहा, ‘‘ सर, टाइम पर गाड़ी भेज दूंगा. ’’

‘ थैंकस. ’मैंने दिल्ली से लेह की फलाइट पकड़ी. 2 घंटे में मैं लेह पहुंच गया था. गाड़ी के साथ 2 जवान थे. ड्राइवर और एक हेल्पर था. मेरे लिए सर्दी के कपड़े लाए थे. सर्दी बहुत थी. मैंने वाषरूम में जा कर स्नोह कलोदिंग पहना. सिर को कैप बलकलावा से ढका. कोटपार्का पहना और गाड़ी में आ कर बैठ गया. मुझे बताया गया था कि आप ने सिर को किसी भी हालत में नंगा नहीं रखना है. सिर को हवा लग गई तो तुरंत बीमार पड़ने का अंदेषा रहेगा. मैंने एक कैप बलकलावा दिल्ली के सदर बाजार से खरीद लिया था. पर वह सिविल ड्रेस में पहनेे के लिए था. सोचा, उतरते ही सिर को हवा लगने से तो बचेंगे. प्लेन में ही घोशणा हो गई थी कि बाहर का तापमान – 8 डिग्री है.

मेरे लिए टोयटा इनोवा भेजी गई थी. मेरा सामान पहले ही गाड़ी में रख दिया गया था. सुबह के 9 बज चुके थे. मैंने ड्राइवर से पूछा, ‘ हम यूनिट में कितने बजे तक पहुंच जाएंगे ? ‘  ‘‘  सर, हम षाम को 4-5 बजे तक पहुंच जाएंगे. ’’

‘ लंच का कैसे होगा ? ’  ‘‘ सर, हम अपना और आप का लंच साथ लाए हैं. रास्ते में कुछ नहीं मिलेगा . ’’धुरबुक में हमारी यूनिट थी. लेह से धुरबुक की दूरी कोई 113 किलोमीटर थी. वर्ड की सब से ऊंची सड़क चांगला टाॅप क्राॅस करके जाना पड़ेगा. सड़क घुमामदार थी. सिंगल पत्थर के पहाड़ थे. पेड़ पोधे कहीं दूर दूर तक नहीं थे. आॅक्सीजन की कमी थी. सांस लेने में दिक्कत हो रही थी. दो कदम चलते ही सांस फूलने लगती थी.

 

आत्मग्लानि- भाग 1 : मोहिनी को किसकी शक्ल याद नहीं थी?

मधु ने तीसरी बार बेटी को आवाज दी,  ‘‘मोहनी… आ जा बेटी, नाश्ता ठंडा हो गया. तेरे पापा भी नाश्ता कर चुके हैं.’’

‘‘लगता है अभी सो रही है, सोने दो,’’ कह कर अजय औफिस चले गए.

मधु को मोहनी की बड़ी चिंता हो रही थी. वह जानती थी कि मोहनी सो नहीं रही, सिर्फ कमरा बंद कर के शून्य में ताक रही होगी.

‘क्या हो गया मेरी बेटी को? किस की नजर लग गई हमारे घर को?’ सोचते हुए मधु ने फिर से आवाज लगाई. इस बार दरवाजा खुल गया. वही बिखरे बाल, पथराई आंखें. मधु ने प्यार से उस के बालों में हाथ फेरा और कहा, ‘‘चलो, मुंह धो लो… तुम्हारी पसंद का नाश्ता है.’’

‘‘नहीं, मेरा मन नहीं है,’’ मोहनी ने उदासी से कहा.

‘‘ठीक है. जब मन करे खा लेना. अभी जूस ले लो. कब तक ऐसे गुमसुम रहोगी. हाथमुंह धो कर बाहर आओ लौन में बैठेंगे. तुम्हारे लिए ही पापा ने तबादला करवाया ताकि जगह बदलने से मन बदले.’’

‘‘यह इतना आसान नहीं मम्मी. घाव तो सूख भी जाएंगे पर मन पर लगी चोट का क्या करूं? आप नहीं समझेंगी,’’ फिर मोहनी रोने लगी.

‘‘पता है सबकुछ इतनी जल्दी नहीं बदलेगा, पर कोशिश तो कर ही सकते हैं,’’ मधु ने बाहर जाते हुए कहा.

‘‘कैसे भूल जाऊं सब? लाख कोशिश के बाद भी वह काली रात नहीं भूलती जो अमिट छाप छोड़ गई तन और मन पर भी.’’

मोहनी को उन दरिंदों की शक्ल तक याद नहीं, पता नहीं 2 थे या 3. वह अपनी सहेली के घर से आ रही थी. आगे थोड़े सुनसान रास्ते पर किसी ने जान कर स्कूटी रुकवा दी थी. जब तक वह कुछ समझ पाती 2-3 हाथों ने उसे खींच लिया था. मुंह में कपड़ा ठूंस दिया. कपड़े फटते चले गए… चीख दबती गई, शायद जोरजबरदस्ती से बेहोश हो गई थी. आगे उसे याद भी नहीं. उस की इसी अवस्था में कोई गाड़ी में डाल कर घर के आगे फेंक गया और घंटी बजा कर लापता हो गया था. मा ने जब दरवाजा खोला तो चीख पड़ीं. जब तक पापा औफिस से आए, मां कपड़े बदल चुकी थीं. पापा तो गुस्से से आगबबूला हो गए. ‘‘कौन थे वे दरिंदे… पहचान पाओगी? अभी पुलिस में जाता हूं.’’

पर मां ने रोक लिया, ‘‘ये हमारी बेटी की इज्जत का सवाल है. लोग क्या कहेंगे. पुलिस आज तक कुछ कर पाई है क्या? बेकार में हमारी बच्ची को परेशान करेंगे. बेतुके सवाल पूछे जाएंगे.’’ ‘‘तो क्या बुजदिलों की तरह चुप रहें,’’ ‘‘नहीं मैं यह नहीं कह रही पर 3 महीने बाद इस की शादी है,’’ मां ने कहा.

 

 

पश्चात्ताप-भाग 1 : किस बात का अफसोस था डॉक्टर सुभाष को

सफेद चादर से ढकी हुई लाश पड़ी थी. भावशून्य चेहरा लिए वह औरत उस लाश के पास ऐसे बैठी थी जैसे मृत युवक के साथ उस का कोई रिश्ता ही न हो. निस्तेज आंखें, वाकशून्य औरत और वह युवक दोनों ही आपस में अजनबीपन का एहसास करवा रहे थे.

अरे, यह तो अर्जुन की मां है. ओह, तो अर्जुन ही दुर्घटनाग्रस्त हुआ है. उस ड्राइवर के उतावलेपन व जल्दबाजी ने फुटपाथ पर चलते हुए बेचारे युवक को ही कुचल दिया. यह अधेड़ औरत, अर्जुन की विधवा मां है. इस का एकमात्र अवलंब अर्जुन ही था. हमारे पड़ोस में ही रह रही है. दूसरों के घर के कपड़ों की सिलाई का काम कर के जैसेतैसे उस ने अपने इकलौते पुत्र को बड़ा किया था, अपनी ओर से भरसक प्रयत्न कर के पुत्र को एमएससी तक पढ़ाया था और जब उसे बेटे की कमाई का आनंद उठाने का समय आया तो यह दुर्घटना हो गई.

मेरी पड़ोसिन होने के नाते व चूंकि मैं डाक्टर था, लोग जल्दी से मुझे बुला कर घर ले आए. किसी के मुंह से एक शब्द नहीं निकल पा रहा है, न सांत्वना का, न ही कोई अन्य शब्द. कभीकभी ऐसी पीड़ादायक स्थितियां आ जाती हैं कि शब्द निरर्थक प्रतीत होते हैं. इतने गहरे जख्म को सहलाना छोड़, छूने भर का एहसास करवाने को जबान ही साथ नहीं देती.

मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार हो रहा था एक गंभीर रोगी को देखने, पर यहां आना अत्यधिक जरूरी था. जब अस्पताल की गाड़ी उस के लड़के को उस के घर के सामने उतार रही थी, वह उन्हें रोकने आई कि अरे, यह कौन है? इसे यहां क्यों उतार रहे हो? जो लोग उसे ले कर आए थे, जवाब देने की हिम्मत उन में से भी किसी की नहीं हुई. उस ने आगे बढ़ कर उस की चादर हटा कर मुंह देखा और जड़वत रह गई और अभी भी ऐसे ही मूक बनी बैठी है. ये भावशून्य आंखें, ओह, ये आंखें…बिलकुल याद दिला रही हैं 25 वर्ष पहले की उन्हीं आंखों की, बिलकुल ऐसी ही थीं. अतीत एक बार फिर साकार हो उठता है मेरे सामने.

यों तो मैं डाक्टर हूं, अब तक पता नहीं कितनों की मृत्यु के प्रमाणपत्र दे चुका हूं. मौतें होती ही रहती हैं, पर कुछ ऐसी होती हैं जो मस्तिष्क पर सदैव के लिए अंकित हो जाती हैं, अगर आप उन से कहीं न कहीं जुड़े हैं तो. वैसे तो डाक्टर व मरीज का रिश्ता… एक मरीज आया, ठीक हो गया, चला गया. ठीक नहीं हुआ तो 2-3 बार आ गया. फिर वह डाक्टर को भूल गया, डाक्टर भी उसे भूल गया. बहुत से रोगी डाक्टर बदलते रहते हैं. आज इस डाक्टर के पास, कल दूसरे डाक्टर के पास. बहुत से रोगी हमेशा आते रहेंगे. कहेंगे, डाक्टर साहब, किसी और डाक्टर के पास जाने की इच्छा नहीं होती और अगर चला भी जाता हूं तो ठीक नहीं हो पाता.

एक मरीज व डाक्टर का रिश्ता कायम रहता है और डाक्टर अपने मरीज के बारे में सबकुछ पता रखता है. पर कभीकभी ऐसा भी होता है कि एक मरीज एक बार ही आया है आप के पास लेकिन फिर भी वह अपनेआप को आप की स्मृति से ओझल नहीं होने देता. आप के लिए एक अकुलाहट व एक अजीब व्याकुलता छोड़ जाता है. काश, मैं उस के लिए यह कर पाता, आप को पश्चात्ताप की अग्नि में जलाता है. आप सोचते हैं कि यदि मुझ से यह गलती न होती तो वह बच जाता और ऐसा ये भावशून्य आंखें मुझे आज से 25 वर्ष पूर्व के अतीत की याद दिला रही हैं, बहुत साम्यता है इन आंखों व उन आंखों में.

मैं ने तब अपनी एमडी की डिगरी ले कर दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में नियुक्ति ली थी कैजुअल्टी औफिसर के पद पर. दिल्ली के इतने बड़े अस्पताल में नियुक्ति होने की बहुत प्रसन्नता थी मुझे, पर यह खुशी अधिक दिनों तक टिकी न रह सकी.

शेष शर्त- भाग 3 : अमित के मामाजी क्यों गुस्साएं?

अमित मामाजी का एकलौता बेटा था. घर में धनदौलत की कोई कमी न थी, तिस पर उस ने इंजीनियरिंग की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी. देखने में भी वह लंबाचौड़ा आकर्षक युवक था. इन तमाम विशेषताओं के कारण लड़की वालों की भीड़ उस के पीछे हाथ धो कर पड़ी थी. किंतु मामाजी भी बड़े जीवट आदमी थे. उन्होंने तय कर लिया था कि लड़की वाले चाहे जितना जोर लगा लें, पर अमित का विवाह तो वे अपनी शर्तों पर ही करेंगे. जिन दिनों अमित के रिश्ते की बात चल रही थी, मैं ने भी मामाजी को एक मित्रपरिवार की लड़की के विषय में लिखा था. लड़की मध्यवर्गीय परिवार की थी. अर्थशास्त्र में एमए कर रही थी. देखने में भली थी. मेरे विचार में एक अच्छी लड़की में जो गुण होने चाहिए, वे सब उस में थे.

मामाजी ने पत्रोत्तर जल्दी ही दिया था. उन्होंने लिखा था… ‘बेटी, तुम अमित के लिए जो रिश्ता देखोगी, वह अच्छा ही होगा, इस का मुझे पूरा विश्वास है. पर अमित को विज्ञान स्नातक लड़की चाहिए. दहेज मुझे नहीं चाहिए, लेकिन तुम तो जानती हो, रिश्तेदारी बराबरी में ही भली. जहां तक हो सके, लड़की नौकरी वाली देखो. अमित भी नौकरी वाली लड़की चाहता है.’ मामाजी का पत्र पढ़ कर मैं हैरान रह गई. मामाजी उस युग के आदमी थे जिस में कुलीनता ही लड़की की सब से बड़ी विशेषता मानी जाती थी. लड़की थोड़ीबहुत पढ़ीलिखी और सुंदर हो तो सोने पर सुहागा. जमाने के हिसाब से विचारों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है. लेकिन लगता था कि वे बिना यह सोचेविचारे कि उन के अपने परिवार के लिए कैसी लड़की उपयुक्त रहेगी, जमाने के साथ नहीं बल्कि उस से आगे चल रहे थे.

संयोग से दूसरे ही सप्ताह मुझे नागपुर जाने का अवसर मिला. मामाजी से मिलने गई तो देखा, वे बैठक में किसी महिला से बातें कर रहे हैं. वे उस महिला को समझा रहे थे कि अमित के लिए उन्हें कैसी लड़की चाहिए. उन्होंने दीवार पर 5 फुट से 5 फुट 5 इंच तक के निशान बना रखे थे और उस महिला को समझा रहे थे, ‘‘अपना अमित 5 फुट 10 इंच लंबा है. उस के लिए लड़की कम से कम 5 फुट 3 इंच ऊंची चाहिए. यह देखो, यह हुआ 5 फुट, यह 5 फुट 1 इंच, 2 इंच, 3 इंच. 5 फुट 4 इंच हो तो भी चलेगी. लड़की गोरी चाहिए. लड़की के मामापिता, भाईबहनों के बारे में सारी बातें एक कागज पर लिख कर ले आना. लड़की हमें साइंस ग्रेजुएट चाहिए. अगर गणित वाली हो या पोस्टग्रेजुएट हो तो और भी अच्छा है.’’

सामने बैठी महिला को भलीभांति समझा कर वे मेरी ओर मुखातिब हुए, ‘बेटे, आजकल आर्ट वालों को कोई नहीं पूछता, उन्हें नौकरी मुश्किल से मिलती है. खैर, बीए में कौन सी डिवीजन थी लड़की की? फर्स्ट डिवीजन का कैरियर हो तो सोचा जा सकता है. एमए के प्रथम वर्ष में कितने प्रतिशत अंक हैं?’ मैं समझ गई कि अमित के लिए रिश्ता तय करवाना मेरे बूते के बाहर की बात है. मामाजी के विचारों के साथ अमित की कितनी सहमति थी, इसे तो वही जाने, पर इस झंझट में पड़ने से मैं ने तौबा कर ली.

लगभग 2-3 वर्षों की खोजबीन- जांचपरख के बाद अमित के लिए विभा का चयन किया गया था. वह गोरी, ऊंची, छरहरे बदन की सुंदर देह की धनी थी. उस की शिक्षा कौनवैंट स्कूल में हुई थी. वह फर्राटे से अंगरेजी बोल सकती थी. उस ने राजनीतिशास्त्र में एमए किया था. बंबई से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद वह नागपुर के एक प्रसिद्ध दैनिक समाचारपत्र में कार्यरत थी. इस विवाह संबंध से मामाजी, मामी और अमित सभी बहुत प्रसन्न थे. खुद मामाजी विभा की प्रशंसा करते नहीं थकते थे. लेकिन विवाह के 3-4 महीने बाद ही स्थिति बदलने लगी. विभा के नौकरी पर जाते ही यथार्थ जीवन की समस्याएं उन के सामने थीं. मामाजी हिसाबी आदमी थे, वे यह सोच कर क्षुब्ध थे कि आखिर बहू के आने से लाभ क्या हुआ? अमित के तबादले ने इस मामले को गंभीर मोड़ पर पहुंचा दिया था.

इस के  बाद नागपुर जाने के अवसर को मैं ने जानबूझ कर टाल दिया था. किंतु लगभग सालभर बाद मुझे एक बीमार रिश्तेदार को देखने नागपुर जाना ही पड़ा. वहीं मामाजी से भेंट हो गई. अमित और विभा के विषय में पूछा तो बोले, ‘‘घर चलो, वहीं सब बातें होंगी.’’ हम लोग घर पहुंचे तो वहां सन्नाटा छाया हुआ था. मामी खिचड़ी बना कर अभीअभी लेटी थीं, उन की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. मुझे देखा तो उठ बैठीं और शिकायत करने लगीं कि मैं ने उन लोगों को भुला दिया है.

‘‘अमित अमरावती में है, उसे वहां बढि़या फ्लैट मिला है पर खानेपीने की कोई व्यवस्था नहीं है. कभी होटल में खा लेता है, कभी नौकर से बनवा लेता है. तुम्हारी मामी बीचबीच में जाती रहती है, इस का भी बुढ़ापा है. यह यहां मुझे देखे या उसे वहां देखे. मेरी तबीयत भी अब पहले जैसी नहीं रही. यहां का कारोबार देखना भी जरूरी है, नहीं तो सब अमरावती में ही रहते. विभा ने नौकरी छोड़ कर अमित के साथ जाने से इनकार कर दिया. सालभर से मायके में है,’’ मामाजी ने बताया. अमित के विषय में बातें करते हुए दोनों की आंखों में आंसू भर आए. मैं ने ध्यान से देखा तो दीवार पर 5 फुट की ऊंचाई पर लगा निशान अब भी नजर आ रहा था.

मन तो हुआ, उन से कहूं, ‘आप की समस्या इतनी विकट नहीं है, जिस का समाधान न हो सके. ऐसे बहुत से परिवार हैं जहां नौकरी या बच्चों की पढ़ाई के कारण पतिपत्नी को अलगअलग शहरों में रहना पड़ता है. विभा और अमित भी छुट्टियां ले कर कभी नागपुर और कभी अमरावती में साथ रह सकते हैं, ’ पर चाह कर भी कह न सकी. दूसरे दिन सुबह हमसब नाश्ता कर रहे थे कि किसी ने घंटी बजाई. मामाजी ने द्वार खोला तो सामने एक बुजुर्ग सज्जन खड़े थे. मामी ने धीरे से परिचय दिया, ‘‘दीनानाथजी, विभा के पिता.’’

पता चला कि विभा और अमित के मतभेदों के बावजूद वे बीचबीच में मामाजी से मिलने आते रहते हैं. मामी अंदर जा कर उन के लिए भी नाश्ता ले आईं. दीनानाथ सकुचाते से बोले, ‘‘बहनजी, आप क्यों तकलीफ कर रही हैं, मैं घर से खापी कर ही निकला हूं.’’ फिर क्षणभर रुक कर बोले, ‘‘क्या करें भई, हम तो हजार बार विभा को समझा चुके कि अमित इतने ऊंचे पद पर है, पूर्वजों का जो कुछ है, वह सब भी तुम्हारे ही लिए है, नौकरी छोड़ कर ठाट से रहे. पर वह कहती है कि ‘मैं सिर्फ पैसा कमाने के लिए नौकरी नहीं कर रही हूं. इस काम का संबंध मेरे दिलोदिमाग से है. मैं ने अपना कैरियर बनाने के लिए रातरातभर पढ़ाई की है. नौकरी के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा से गुजरी हूं. अब इस नौकरी को छोड़ देने में क्या सार्थकता है?’ ऐसे में आप ही बताइए,’’ उन्होंने बात अधूरी ही छोड़ दी.

मामाजी ने अखबार पढ़ने का बहाना कर के उन की बात को अनसुना कर दिया. परंतु मामी चुप न रह सकीं, ‘‘भाईसाहब, लड़की तो लड़की ही है, लेकिन हम बड़े लोगों को तो उसे यही शिक्षा देनी चाहिए कि वह अपनी घरगृहस्थी देखते हुए नौकरी कर सके तो जरूर करे. नौकरी के लिए घरपरिवार छोड़ दे, पति को छोड़ दे और मायके में जा बैठे, यह तो ठीक नहीं है.’’

य-पि मामी ने अपनी बात बड़ी सरलता और सहजता से कही थी परंतु उन का सीधा आक्षेप दीनानाथजी पर था. कुछ क्षण चुप रह कर वे बोले, ‘‘बहनजी, एक समय था जब लड़कियों को सुसंस्कृत बनाने के लिए ही शिक्षा दी जाती थी. लड़की या बहू से नौकरी करवाना लोग अपमान की बात समझते थे. पर अब तो सब नौकरी वाली, कैरियर वाली लड़की को ही बहू बनाना चाहते हैं. इस कारण लड़कियों के पालनपोषण का ढंग ही बदल गया है. अब वे किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हैं कि जब हम चाहें, तब नौकरी करने लगें और जब हम चाहें, तब नौकरी छोड़ दें.’’

कुछ देर सन्नाटा सा रहा. उन की बात का उत्तर किसी के पास नहीं था. इधरउधर की कुछ बातें कर के दीनानाथ उठ खड़े हुए. मामाजी उन्हें द्वार तक विदा कर के लौटे और बोले, ‘‘देखा बेटी, बुड्ढा कितना चालाक है. गलती मुझ से ही हो गई. शादी के पहले ही मुझे यह शर्त रख देनी थी कि हमारी मरजी होगी, तब तक लड़की से नौकरी करवाएंगे, मरजी नहीं होगी तो नहीं करवाएंगे.’’उन की इस शेष शर्त को सुन कर मैं अवाक रह गई.

मां, ब्रेकअप क्यों न करा -भाग 4 : डायरी पढ़ छलका बेटी का दर्द

“मुझ से अब और नहीं सहा जाता. अब तो इन का साथ भी नहीं सुहा रहा है. मन करता है कि कुछ खा कर सदा के लिए सो जाऊं. भाभीभैया को बहाना बना कर मैं ने अपने घर में आने से रोका है. आप समझ सकती हो कि इस वक्त मेरे दिल पर क्या गुजर रही होगी. छोटा भाई तिलतिल कर मर रहा है. चाहती थी, जब तक है मेरी आंखों के सामने रहे. मगर पत्थरदिल शर्माजी ने एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी है. फैसला मुझे लेना है. मेरे लिए शर्म से डूब मरने की बात है कि मेरे शहर में रहते हुए भी, मेरा कैंसर से जूझ रहा भाई अजनबियों की तरह आ कर असुविधाजनक स्थितियों में रहे. किराए का कमरा ढूंढ़े. अपने बूढ़े मांबाप के पास मुझे हिम्मत बढ़ाने के लिए खड़ा होना था. शर्माजी के इस व्यवहार के बाद अगर मैंं वहां जाने का कड़ा निर्णय लेती हूं, तो बूढ़े मातापिता के लिए अपनी बेटी के परिवार टूटने का दुख भी एक छोटा दुख नहीं होता. उन की बूढ़ी आंखें बिना कहे ही मेरी तकलीफ को पहचान लेंगी.

“परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी हैं कि जो भी निर्णय लूंगी, उसे दुनिया गलत ही कहेगी, मगर अब जो भी हो. शर्माजी का साथ और उन की सेवा करना. न जाने क्यों मेरा मन कतई गवारा नहीं कर रहा है.

“आप कहती थीं न दीदी. सुमन, आजकल तुम्हें इस डायरी से बहुत प्यार हो गया है. मैं ने अपना सारा दर्द इस डायरी में उड़ेल दिया है. डायरी भर चुकी है न. इसलिए आप के सामने छलक पड़ा,’’ गला रुंध गया था सुमन का.

मैं क्या कहती. बहुतकुछ बातें एक दिन पहले ही अनजाने में सुन चुकी थी. और उस दिन सुमनजी ने बयां कर दी थी.

‘‘सब ठीक हो जाएगा. आप भाई साहब की बातों पर इतनी परेशान न हो. पुरुषों को तनाव और बहुत सी परेशानियां होती हैं. तनाव के उन्हीं क्षणों में उन्होंने इस तरह का व्यवहार किया होगा. उन्हें खुद अपनी गलती का एहसास होगा. जेंट्स इस तरह की आधिपत्य की बातें कर के अकसर भूल जाते हैं. आप भी भूल जाओ सुमनजी.’’

‘‘भ्भूूल तो तोशी के पापा गए हैं. सासू मां, 5 साल तक लकवा के कारण बिस्तर पर रहीं, क्या मैं ने उन की शारीरिक विकृति से कोई घृणा की थी तब… और मैं ने पूरे समर्पण के साथ उन की सेवा की.

“डाक्टर कहते हैं कि मन्नू की बीमारी लास्ट स्टेज पर है. मेरा तो दिल बैठा जाता है. और ऐसे में इन्होंने भी अपनी असलियत बता दी. सच कहूं तो अब मेरा इन के साथ रहने का दिल बिलकुल नहीं कर रहा. दिल कर रहा है कि मन्नू से पहले मैं दुनिया के उस पार पहुंच जाऊं, जहां मन्नू के आने पर उस का स्वागत करूं. और फिर उस के साथ रहने से मुझे कोई न रोक सके,’’ कहतेकहते सुमन का गला भर आया था.

‘‘इस तरह हिम्मत मत हारो. मन्नू को आप की जरूरत है,’’ यह कह कर उन्हें खूब सारी दिलासा दे कर मैं अपने घर वापस चली गई थी. सुमनजी, उस दिन इतनी विचलित थीं कि अपने औफिस भी नहीं गई थीं. शाम को जब शर्माजी वापस आए तो हो सकता है उन दोनों के बीच, मन्नू भैया को ले कर फिर कोई बातचीत हुई हो. उस के बाद मेरी मुलाकात उन से नहीं हुई. रात , तकरीबन 10 बजे भाई साहब बेचैन हो कर हड़बड़ाते हुए हमारे घर का दरवाजा बजा रहे थे.
‘‘जल्दी चलिए, देखिए न, सुमन को न जाने क्या हो गया है. वह शाम से सो कर ही नहीं उठी है. उस के मुंह से झाग आ रहा है.’’

हम पहुंचे थे. डाक्टर को फोन कर के बुलाया था. आते ही उस ने हमारी आशंका को सही बतला दिया था. ‘‘आई एम सौरी. शी इज नो मोर… संभव है कि यह ब्रेन हेमरेज का केस है,’’ डाक्टर ने कहा था.’’

‘‘हां, हो सकता है. कुछ दिनों से वह अपने बेटे के तलाक के केस की वजह से तनावग्रस्त थीं और इन का ब्लड प्रेशर भी हाई रहता था. दवाएं ले रही थीं. लेकिन फिर भी हम से दूर चली गईं,’’ भाई साहब ने खुद को संभालते हुए कहा था.

जब यह दुखद सूचना परिजनों के साथ ही साथ सुधा को दी गई, तो वह आश्चर्य से बोली, ‘‘तो क्या दीदी ग्वालियर में ही थीं. दीदी ने हमें तो बताया था कि वे केरल जा रही हैं.’’

‘‘हां, हम जाने वाले थे. लेकिन, इन की तबीयत नासाज होने की वजह से हमें अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा था,’’ भाई साहब ने बहाना बना दिया था.

‘‘तोशी बेटा, तुम और तुम्हारे परिवार के अन्य सदस्य यही जानते और मानते होंगे कि उस दिन सुमनजी को ब्रेन हेमरेज ही हुआ था. लेकिन, मुझे लगता है कि उन की मृत्यु सामान्य मृत्यु नहीं थी. वह इतनी कमजोर पड़ जाएंगी, मैं ने कभी नहीं सोचा था. लगता था कि उन्होंने अपना सबकुछ गिलाशिकवा मुझ से कह कर अपना मन हलका कर लिया है. लेकिन, उस दिन मैं गलत थी. उन के दिल पर चोट बहुत गहरी थी. उन के लिए यह घाव का भरना मुश्किल हो रहा होगा. और नीताजा उन्होंने कोई प्राणघातक वस्तु का सेवन किया था. उन के शरीर का रंग अजीब सा नीला पड़ गया था.

“तोशी, उन्होंने मुझ से तो सिर्फ एक बार ही कहा था. कुछ अनकहा भी रहा होगा, जो उन्होंने अपनी डायरी में जरूर दर्ज किया होगा. तुम उस डायरी को उन की अलमारी में ढूंढ़ना. तुम्हें यह सब जान कर तकलीफ तो हुई होगी, लेकिन मां की तकलीफ को जानना और उसे महसूस करना एक बिटिया के लिए बहुत ही जरूरी है. इसलिए आज मैं ने तुम्हारे सामने वह सच रख दिया, जो सब आज तक छुपा हुआ था.’’

यह सुन कर तोशी स्तब्ध थी. सुमित्रा ने एक बार उस के कंधों को हिला कर कहा, ‘‘तोशी, तुम सुन तो रही हो ना…?’’

झकझोरने से जैसे वह चेतना में आई. जब पलकें झपकाईं तो आंखों से आंसुओं का समंदर बह निकला. वह दहाड़े मारमार कर रोना चाहती थी, लेकिन शब्द और आवाज कहीं घुट रहे थे, वह समझ नहीं पा रही थी.

‘‘अपनेआप को संभालो बेटा. और हां, इस बात का जिक्र अपनी ससुराल में और अपने पति से कतई मत करना, वरना उन की नजरों में तुम्हारे पापा का सम्मान कम हो जाएगा. अब तो उन्हें भी उन के साथ ही तो रहना है न. आगे तुम समझदार हो. जो होना था वह तो हो चुका. अब अतीत को याद कर अपना आज और भविष्य मत बरबाद करो,’’ सुमित्राजी ने एक व्यावहारिक सलाह दी थी उसे.

‘‘उफ्फ, परिवार के लिए समर्पित मेरी मम्मी को इतनी बड़ी अवहेलना सहनी पड़ी. भैया का तलाक हो रहा है, तो मैं पूरी तरह से भैया के साथ जुड़ी हुई हूं. समयसमय पर बात करती हूं. अपने सुझाव देती हूं और दिलासा भी देती हूं. सच कहूं तो भैया का तनाव मुझे अपने हिस्से की जिंदगी की खुशियों को भी जीने नहीं दे रहा है. यह भाईबहन के रिश्ते इतने मजबूत होते हैं कि दूर रह कर भी जरा सी देर का सलाहमशवरा भी एक बहुत बड़ा संबल बन जाता है. मुझे अगर भैया से बात करने से भी रोका जाए तो मैं क्या कर लूंगी, यह सोचना भी मेेेरे लिए मुश्किल है, क्योंकि मैं ने ससुराल में हर रिश्ते को पूरा मानसम्मान दिया है. और अगर मुझ से एक रिश्ता छीना जाता है तो ऐसे छीनने वाले बेरुखे रिश्तों की मेरे लिए कोई अहमियत नहीं.’’

‘‘बेटा, क्रोध में कोई निर्णय मत लेना. मम्मी नहीं हैं. तुम्हारे मन्नू मामा भी कुछ महीने पहले ही दुनिया छोड़ गए हैं. अब पापा का खयाल रखना. इस गुजरे एक साल में भाई साहब ने बहुत अकेलापन झेला है. मम्मी ने तात्कालिक परिस्थितियों के आक्रोश में अपने जीवन को खत्म कर लिया. भाई साहब के अकेलेपन से तुम्हारी मम्मी की आत्मा भी ऊपर सुकून से ना होगी. अच्छा चलती हूं, समय मिले तो घर आना,’’ कह कर सुमित्राजी ने विदाई ली.

 

शर्मिंदगी -भाग 3: जब उस औरत ने मुझे शर्मिंदा कर दिया

उस समय मेरे साथ पत्नी नहीं थी, इसलिए मैं ने औरत को गौर से देखा. सचमुच वह बहुत सुंदर थी. मैं कुछ कहता, उस के पहले ही उस ने झुक कर मेरे पैर पकड़ लिए.

‘‘क्या बात है भई, तुम बताती क्यों नहीं?’’ मैं ने उसे बांहों से पकड़ कर खड़ा करने की कोशिश करते हुए कहा. उस की बांहें बहुत कोमल थीं. मुझे सिहरन सी हुई. मैं ने कहा, ‘‘मैं औफिस जा रहा हूं, जो कुछ भी कहना है, जल्दी कहो.’’

‘‘साहब, हम कई दिनों से आप के औफिस के चक्कर लगा रहे हैं.’’ औरत के बजाए उस के साथ खड़े लड़के ने कहा, ‘‘लेकिन आप का चपरासी…’’

‘‘बात क्या है, बताओ. चपरासी की छोड़ो.’’ मैं ने लड़के की बात काटते हुए कहा. लेकिन मेरी नजरें औरत के चेहरे पर ही जमी थीं.

‘‘इन के पति…’’ लड़के ने कहा, ‘‘जो रिश्ते में मेरे मामा लगते हैं.’’

‘‘तुम रिश्ते की बात छोड़ो, काम की बात करो.’’ मैं ने डांटने वाले अंदाज में कहा.

‘‘जी, इन के पति यानी मेरे मामा को पुलिस ने बिना किसी अपराध के पकड़ लिया है. उन्हीं को छुड़ाने के लिए यह कई दिनों से आप के पास आ रही हैं.’’ लड़के ने जल्दी से कहा, ‘‘आप इन के पति को छुड़वा दीजिए साहब, इन का और कोई नहीं है. मेरा मामा बहुत ही सीधासादा आदमी है. आज तक उस ने कोई गलत काम नहीं किया. जहां हंगामा हुआ था, वहां वह शरबत का ठेला लगाता था. हंगामा करने वाले तो भाग गए, पुलिस मेरे मामा को पकड़ ले गई. अब वे मामा को छोड़ने के लिए 5 हजार रुपए मांग रहे हैं. हमारे पास इतने रुपए नहीं हैं.’’

‘‘लेकिन इस में मैं क्या कर सकता हूं? पुलिस का मामला है, जो कुछ करना होगा, वही करेगी.’’

‘‘आप बहुत कुछ कर सकते हैं साहब.’’ लड़के ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

औरत आगे बढ़ी और मेरे पैरों की ओर झुकी, तभी मैं पीछे हट कर बोला, ‘‘इस तरह बारबार मेरे पैरों को मत पकड़ो. यह ठीक नहीं है. रही बात तुम्हारे पति की तो वह निर्दोष होगा तो अदालत से छूट जाएगा.’’

‘‘साहब, पता नहीं अदालत कब छोड़ेगी. अगर आप चाहें तो 5 मिनट में छुड़वा सकते हैं.’’ लड़के ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘हमारे ऊपर दया करें साहब, हमारा और कोई नहीं है.’’

वह औरत इस लायक थी कि उसे औफिस बुलाया जा सकता था, वहां उस से इत्मीनान से बात भी की जा सकती थी. मैं ने अपना विजिटिंग कार्ड लड़के को देते हुए कहा, ‘‘यह मेरा कार्ड है. तुम इन्हें ले कर मेरे औफिस आ जाओ. शायद मैं तुम्हारा काम करा सकूं.’’

इस के बाद मैं औफिस चला गया. लेकिन उस दिन मेरा मन काम में नहीं लग रह था. फाइलों को देखते हुए मुझे बारबार उस औरत की याद आ रही थी. मुझे लग रहा था कि वह आती ही होगी. लेकिन उस दिन वह नहीं आई. घर आते हुए मैं उसी के ख्यालों में डूबा रहा. यही सोचता रहा कि पता नहीं वह क्यों नहीं आई.

अगले दिन मैं औफिस पहुंचा तो वह औरत और लड़का मुझे औफिस के गेट के सामने खड़े दिखाई दे गए. मैं जैसे ही कार से उतरा, दोनों मेरे पास आ गए. मैं ने उन्हें सवालिया नजरों से घूरते हुए कहा, ‘‘तुम्हें तो कल ही आना चाहिए था?’’

‘‘हम कल आए तो थे साहब, लेकिन आप के चपरासी ने कहा कि साहब बहुत व्यस्त हैं, इसलिए वह किसी से नहीं मिल सकते.’’ लड़के ने कहा.

‘‘तुम ने उसे मेरा कार्ड नहीं दिखाया?’’

‘‘दिखाया था साहब,’’ लड़के ने कहा, ‘‘चपरासी ने कार्ड देखा ही नहीं. कहा कि इसे जेब में रखो, फिर कभी आ जाना.’’

‘‘ठीक है, 10 मिनट बाद मेरी केबिन के सामने आओ, मैं तुम्हें बुलवाता हूं.’’ मैं ने औरत को नजर भर कर देखते हुए कहा.

10 मिनट बाद दोनों मेरे सामने बैठे थे. लड़के ने फिर वही कहानी दोहराई. मैं ने उस की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. जो हंगामा हुआ था, उस का मुझे पता था. यह भी पता था कि उस मामले में कोई असली अपराधी नहीं पकड़ा गया था.

मैं ने हंगामा होने वाले इलाके के थानाप्रभारी को फोन किया. जब उस ने बताया कि अभी महिला के पति के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज नहीं है तो मैं ने कहा, ‘‘जब तक मैं दोबारा फोन न करूं, उस के खिलाफ कोई काररवाई मत करना.’’

इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया. वह औरत और लड़का मेरी तरफ ताक रहे थे. मेरे फोन रखते ही लड़के ने कहा, ‘‘साहब, उस ने कुछ नहीं किया.’’

‘‘तुम ने बाहर स्टेशनरी वाली दुकान देखी है?’’ मैं ने लड़के से पूछा.

‘‘जी, वह किताबों वाली दुकान.’’ लड़के ने कहा.

‘‘हां, तुम ऐसा करो,’’ मैं ने उसे 10 रुपए का नोट देते हुए कहा, ‘‘उस दुकान से एक दस्ता कागज ले आओ. उस के बाद बताऊंगा कि तुम्हें क्या करना है.’’

लड़का 10 रुपए का नोट लेने के बजाए बोला, ‘‘मेरे पास पैसे हैं साहब. मैं ले आता हूं कागज.’’

लड़का चला गया तो मैं ने औरत को चाहतभरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा काम तो हो जाएगा, लेकिन तुम्हें भी मेरा एक काम करना होगा.’’

मेरी इस बात का मतलब वह तुरंत समझ गई. मैं ने उस के चेहरे के बदलते रंग से इस बात का अंदाजा लगा लिया था. फिर औरतें तो नजरों से ही अंदाजा लगा लेती हैं कि मर्द क्या चाहता है. मैं ने अपनी इच्छा को शब्दों का रूप दे दिया. मैं ने कहा, ‘‘अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो तुम्हारा पति कम से कम 3 सालों के लिए जेल चला जाएगा. पुलिस ने उसे हंगामे के मुकदमे में नामजद किया है.’’

यह कहते हुए मेरी नजरें औरत के चेहरे पर जमी रहीं और मैं उसे पढ़ने की कोशिश कर रहा था. मैं ने आगे कहा, ‘‘अगर तुम चाहती हो कि तुम्हारा पति घर आ जाए तो तुम आज 4 बजे अमर कालोनी के स्टौप पर मुझे मिल जाना. स्टौप से थोड़ा हट कर खड़ी होना, जिस से मैं तुम्हें आसानी से पहचान सकूं. अगर तुम नहीं आईं तो मैं यही समझूंगा कि तुम अपने शौहर की रिहाई नहीं कराना चाहती.’’

औरत सिर झुकाए बैठी रही. उस के होंठ कांप रहे थे. लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे. मैं उस के जवाब की प्रतीक्षा करता रहा. जब उस ने कोई जवाब नहीं दिया तो मैं समझ गया कि चुप का मतलब रजामंदी है. मैं ने कहा, ‘‘तुम वहां अकेली ही आना. अगर कोई साथ होगा तो फिर तुम्हारा काम नहीं होगा.’’

उस ने सहमति में सिर हिला कर गर्दन झुका ली. लड़के के आने तक मैं उसे तसल्ली देता हुआ उस की खूबसूरती की तारीफें करता रहा. लेकिन उस ने मेरी तरफ देख कर जरा भी खुशी प्रकट नहीं की. वह मूर्ति की तरह बैठी मेरी बातें सुनती रही. लड़के के आने के बाद मैं ने उसे विदा करते हुए कहा, ‘‘मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हारा पति कल तक छूट जाए.’’

दोनों के जाने के बाद मैं औफिस के कामों को निपटाने लगा, लेकिन मन में जो लड्डू फूट रहे थे, वे मुझे उलझाए हुए थे. ठीक 4 बजे मैं अपनी कार से अमर कालोनी के बसस्टौप पर पहुंच गया. दरवाजा खोल कर मैं बाहर निकलने ही वाला था कि उस औरत को अपनी ओर आते देखा. जालिम की चाल दिल में उतर जाने वाली थी.

थोड़ी देर में उस सुंदर चीज को पहलू में लिए मैं उस फ्लैट की ओर जा रहा था, जो मैं ने अपनी अय्याशियों के लिए ले रखा था. मेरी कार हवा से बातें कर रही थी. पूरे रास्ते न तो उस औरत ने होंठ खोले और न ही मैं ने कुछ कहा.

फ्लैट में पहुंच कर पहले मैं ने अपना हलक गीला किया, जिस से मजा दोगुना हो सके. जब अंदर का शैतान पूरी तरह से जाग उठा तो मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मुझे कतई विश्वास नहीं था कि तुम इतनी आसानी से मान जाओगी, मेरा ख्याल है कि तुम्हें अपने पति से बहुत ज्यादा प्यार है. तुम अपने प्यार को जेल जाते नहीं देख सकती थी.’’

मैं अपनी बातें कह रहा था और वह किसी पत्थर की मूर्ति की भांति निश्चल बैठी फर्श को ताके जा रही थी. मैं ने उस के कंधे पर हाथ रख कर अपनी ओर खींचा तो वह एकदम से बिस्तर पर गिर गई. गिरते ही उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. मुझे उस का यह अंदाज काफी पसंद आया.

अगले दिन शाम को 7 बजे के करीब जब मैं घर पहुंचा तो यह देख कर दंग रह गया कि वह औरत, एक आदमी और मेरी पत्नी लौन में बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देखते ही वह आदमी उठ खड़ा हुआ और मेरे पास आ कर मेरे पैर छू लिए. मैं ने एक नजर औरत पर डाली. वह नजरें झुकाए खामोश बैठी थी.

मैं ने उस आदमी की ओर देखा तो उस की आंखों में मेरे प्रति आभार के भाव थे. वह मुझे बारबार धन्यवाद दे रहा था. वह कह रहा था, ‘‘साहब, आप बहुत बड़े आदमी हैं. यह एहसान मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा.’’

अब मेरे अंदर उस का सामना करने का साहस नहीं रह गया था. मैं उस से पीछा छुड़ा कर घर में जाना चाहता था. लेकिन पत्नी ने पीछे से कहा, ‘‘कहां जा रहे हैं, जरा इधर तो आइए. यह बेचारी कितनी देर से आप का इंतजार कर रही है. आप ने इस का काम करा कर बडे़ पुण्य का काम किया है. आप की वजह से मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया है. मैं बहुत खुश हूं.’’

मैं ने पलट कर एक नजर पत्नी की ओर देखा. वह सचमुच बहुत खुश दिख रही थी. मैं ने कहा, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं.’’ कह कर मैं तेजी से दरवाजे में घुस गया.

बैडरूम में पहुंच कर मैं बिस्तर पर ढेर हो गया. कुछ देर बाद पत्नी मेरे कमरे में आई और बैड पर बैठ कर मेरे बालों में अंगुलियां फेरते हुए बोली, ‘‘तुम्हें कुछ पता है, वह बेचारी गूंगी थी, इसीलिए वह हमें नहीं बता पा रही थी कि उस पर क्या जुल्म हुआ था. इसीलिए आभार व्यक्त करने के लिए वह पति को साथ लाई थी. वह कह रहा था कि अगर उसे जेल हो जाती तो यह बेचारी कहीं की नहीं रह जाती. कोई उसे सहारा देने वाला नहीं था.’’

अब मुझ में इस से अधिक सुनने की ताकत नहीं रह गई थी. मैं अपनी शर्मिंदगी छिपाने के लिए तेजी से उठा और बाथरूम में घुस गया.

दुनियादारी- भाग 2: किसके दोगलेपन से परेशान थी सुधा

‘चाहे कुछ भी हो मुझे जाना ही चाहिए. वे मेरे पिता जैसे हैं, मेरा भी कुछ दायित्व है. स्कूल के प्रति कोईर् फर्ज नहीं? बच्चों के भविष्य के प्रति कोई दायित्व नहीं? बीमार व्यक्ति के प्रति दायित्व अधिक होता है और यदि वह ससुर हो तो और भी. वरना लोग कहेंगे कि पराया खून तो पराया ही होता है,’ सुधा का विवेक आखिरकार सुधा के सामाजिकदायित्व के आगे नतमस्तक हो गया.

अगले दिन सुधा सीधे अस्पताल पहुंची, ‘‘नमस्ते जीजी,’’ सुधा ने जीजी के पैर छूते हुए कहा.

‘‘खुश रहो, अच्छा किया आ गईं, बीमार आदमी का क्या भरोसा, कब हालत बिगड़ जाए. कुछ हो जाता तो मन में अफसोस ही रह जाता.’’

‘‘अच्छाअच्छा बोलो जीजी, ऐसे क्यों कह रही हो,’’ जीजी की बात सुन कर सुधा अंदर तक कांप उठी. उस का भावुक मन इस सचाई को स्वीकार नहीं कर पाता था कि इंसान का अंत निश्चित है और जीजी जितने सहज भाव से यह कह रही थीं, उस की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

‘‘थक गई होगी, थोड़ा आराम कर लो. फिर कुछ खापी लेना.’’

‘‘पहले एक नजर बाबूजी को देख लेती.’’

‘‘देख लेना. वे कुछ बोल तो सकते नहीं. वैंटिलेटर पर हैं. तुम पहले नहाधो लो,’’ फिर समीर को आवाज लगा कर बोली, ‘‘जा, कुछ नाश्ता ले आ हमारे लिए. आज कचौड़ी खाने का मन हो रहा है, पास में ही गरमागरम कचौडि़यां उतर रही हैं.

5-7 कचौडि़यां और मसाले वाली चाय मंगा ले, बड़ी जोरों की भूख लगी है,’’ कह कर जीजी वहीं पालथी मार कर बैठ गईं.

सुधा हतप्रभ हो कर जीजी को देखने लगी. उसे अस्पताल में ऐसे वातावरण की उम्मीद न थी. जिस तरह जीजी फोन पर उसे नसीहत दे रही थीं उस से तो यह प्रतीत हो रहा था कि मामला बड़ा गंभीर है और वातावरण बोझिल होगा. यहां तो उलटी गंगा बह रही थी. खैर, भूख तो उसे भी लग रही थी और कचौडि़यां उसे भी पसंद थीं.

‘‘सुधा अब जरा पल्लू सिर पर डाल कर रखना. सब मिलनेजुलने वाले आएंगे. यही समय होता है अपने घर की इज्जत रखने का.’’ नाश्ता करते ही जीजी ने सुधा को सचेत कर दिया जिस से सुधा को वातावरण की गंभीरता का एहसास फिर से होने लगा.

अस्पातल में मिलनेजुलने वालों का सिलसिला चल पड़ा. मौसीमौसाजी, छोटे दादाजी, मामाजी, उन के साले, बेटेबहू और न जाने कौनकौन मिलने आते रहे और जीजी सिसकसिसक कर उन से बतियाती रहीं. सुधा का काम था सब के पैर छूना और चायकौफी के लिए पूछना. वैसे भी, उस की कम बोलने की आदत ऐसे वातावरण में कारगर सिद्ध हो रही थी.

3-4 दिनों बाद बाबूजी की अचानक हालत बिगड़ने लगी. डाक्टर ने सलाह दी, ‘‘अब आप लोग इन्हें घर ले जाइए और सेवा कीजिए. इन की जितनी सांसें बची हैं, वे ये घर पर ही लें तो अच्छा है.’’

डाक्टर की बात सुनते ही सुधा बिलखबिलख कर रोने लगी पर जीजी सब बड़े शांतमन से सुनती रहीं और फिर शुरू हो गए निर्देशों के सिलसिले.

‘‘समीर, भाभी से कहना गंगाजल, तुलसीपत्र, आदि का इंतजाम कर लें. जाते समय रास्ते से धोती जोड़ा, गमछा, नारियल लेने हैं,’’ आदि जाने कितनी बातें जीजी को मुंहजबानी याद थीं. वे कहती जा रही थीं और सब सुनते जा रहे थे.

 

घर लाने के 3-4 घंटे बाद ही बाबूजी इस संसार से विदा हो गए. सुधा को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस समय बाबूजी के मृत्युशोक में निशब्द हो जाए या जीजी की तरह आगे होने वाले आडंबरों के लिए कमर कस ले.

सब काम जीजी के निर्देशानुसार होने लगे. आनेजाने वालों का तांता सा बंध गया. सुबह होते ही घर के सभी पुरुष नहाधो कर सफेदझक कुरता पायजामा पहन कर बैठक में बैठ जाते. बहू होने के नाते सुधा व उस की जेठानी भी बारीबारी स्त्रियों की बैठक में उपस्थित रहती थीं.

‘‘सुधा देख तो इस साड़ी के साथ कौन सी शौल मैच करेगी,’’ रोज सुबह जीजी का यही प्रश्न होता था और इसी प्रश्न के साथ वे अपना सूटकेस खोल कर बैठ जाती थीं.

सूटकेस है या साडि़यों व शौलों का शोरूम और वह भी ऐसे समय. सुधा अभी यह विचार कर ही रही थी कि जीजी बोलीं, ‘‘ऐसे समय में अपनेपरायों सब का आनाजाना लगा रहता है, ढंग से ही रहना चाहिए. यही मौका होता है अपनी हैसियत दिखाने का.’’

जीजी ने सुधा को समझाते हुए कहा तो उस का भावुक मन असमंजस में पड़ गया. वह तो बाबूजी की बीमारी की बात सुन कर 2-4 घरेलू साडि़यां व 1-2 शौल ही ले कर आई थी. उस ने सोचा था, ऐसे समय में किसे सजधज दिखानी है, माहौल गमगीन रहेगा. पर यहां तो मामला अलग ही था. जीजी तो थीं ही सेठानी, घर की अन्य स्त्रियों के भी यही ठाट थे. नहाधो कर बढि़या साडि़यां पहन कर बतियाने में ही सारा दिन बीतता था. घरेलू काम के लिए गंगाबाई और खाना बनाने के लिए सीताबाई जो थीं.

‘‘जीजी, आज खाने में क्या बनेगा?’ सीताबाई ने पूछा तो जीजी ने सोचने की मुद्रा बनाई और बोलीं, ‘‘बाबूजी को गुलाबजामुन बहुत पसंद थे, गट्टे की सब्जी और मिस्सी रोटी भी बना लो. दही, सब्जी, चावल तो रहेंगे ही. सलाद भी काट लेना. हां, जरा ढंग से ही बनाना. जाने वाला तो चला गया पर ये जीभ निगोड़ी न माने. ऐसीवैसी चीज न भाएगी किसी को.’’

मिसफिट पर्सन-भाग 1: जब एक नवयौवना ने थामा नरोत्तम का हाथ

‘‘आप के सामान में ड्यूटी योग्य घोषित करने का कुछ है?’’ कस्टम अधिकारी नरोत्तम शर्मा ने अपने आव्रजन काउंटर के सामने वाली चुस्त जींस व स्कीवी पहने खड़ी खूबसूरत बौबकट बालों वाली नवयौवना से पूछा.

नवयौवना, जिस का नाम ज्योत्सना था, ने मुसकरा कर इनकार की मुद्रा में सिर हिलाया. नरोत्तम ने कन्वेयर बैल्ट से उतार कर रखे सामान पर नजर डाली.

3 बड़ेबड़े सूटकेस थे जिन की साइडों में पहिए लगे थे. एक कीमती एअरबैग था. युवती संभ्रांत नजर आती थी.

इतना सारा सामान ले कर वह दुबई से अकेली आई थी. नरोत्तम ने उस के पासपोर्ट पर नजर डाली. पन्नों पर अनेक ऐंट्रियां थीं. इस का मतलब था वह फ्रीक्वैंट ट्रैवलर थी.

एक बार तो उस ने चाहा कि सामान पर ‘ओके’ मार्क लगा कर जाने दे. फिर उसे थोड़ा शक हुआ. उस ने समीप खड़े अटैंडैंट को इशारा किया. एक्सरे मशीन के नीचे वाली लाल बत्तियां जलने लगीं. इस का मतलब था सूटकेसों में धातु से बना कोई सामान था.

‘‘सभी अटैचियों के ताले खोलिए,’’ नरोत्तम ने अधिकारपूर्ण स्वर में कहा.

‘‘इस में ऐसा कुछ नहीं है,’’ प्रतिवाद भरे स्वर में युवती ने कहा.

‘‘मैडम, यह रुटीन चैकिंग है. अगर इस में कुछ नहीं है तब कोई बात नहीं है. आप जल्दी कीजिए. आप के पीछे और भी लोग खड़े हैं,’’ कस्टम अधिकारी ने पीछे खड़े यात्रियों की तरफ इशारा करते हुए कहा.

विवश हो युवती ने बारीबारी से सभी ताले खोल दिए. सभी सूटकेसों में ऊपर तक तरहतरह के परिधान भरे थे. उन को हटाया गया तो नीचे इलैक्ट्रौनिक वस्तुओं के पुरजे भरे थे.

सामान प्रतिबंधित नहीं था मगर आयात कर यानी ड्युटीएबल था.

नरोत्तम ने अपने सहायक को इशारा किया. सारा सामान फर्श पर पलट दिया गया. सूची बनाई गई. कस्टम ड्यूटी का हिसाब लगाया गया.

‘‘मैडम, इस सामान पर डेढ़ लाख रुपए का आयात कर बनता है. आयात कर जमा करवाइए.’’

‘‘मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं हैं,’’ युवती ने कहा.

‘‘ठीक है, सामान मालखाने में जमा कर देते हैं. ड्यूटी अदा कर सामान ले जाइएगा,’’ नरोत्तम के इशारे पर सहायकों ने सारे सामान को सूटकेसों में बंद कर सील कर दिया. बाकी सामान नवयुवती के हवाले कर दिया.

ज्योत्सना ने अपने वैनिटी पर्स से एक च्युंगम का पैकेट निकाला. एक च्युंगम मुंह में डाला, एअरबैग कंधे पर लटकाया और एक सूटकेस को पहियों पर लुढ़काती बड़ी अदा से एअरपोर्ट के बाहर चल दी, जैसे कुछ भी नहीं हुआ था.

सभी यात्री और अन्य स्टाफ उस की अदा से प्रभावित हुए बिना न रह सके. नरोत्तम पहले थोड़ा सकपकाया फिर वह चुपचाप अन्य यात्रियों को हैंडल करने लगा.

नरोत्तम शर्मा चंद माह पहले ही कस्टम विभाग में भरती हुआ था. वह वाणिज्य में स्नातक यानी बीकौम था. कुछ महीने प्रशिक्षण केंद्र में रहा था. फिर बतौर अंडरट्रेनी कस्टम विभाग के अन्य विभागों में रहा था.

उस के अधिकांश उच्चाधिकारी उस को सनकी या मिसफिट पर्सन बताते थे. वह स्वयं को हरिश्चंद्र का आधुनिक अवतार समझता था, न रिश्वत खाता था न खाने देता था.

 

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