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औरत की औकात : प्रौपर्टी में फंसे रिश्तों की कहानी

साथी : अवधेश के दोस्त कैसे थे?

वे 9 थे. 9 के 9 मूक और बधिर. वे न तो सुन सकते थे, न ही बोल सकते थे. पर वे अपनी इस हालत से न तो दुखी थे, न ही परेशान. सभी खुशी और उमंग से भरे हुए थे और खुशहाल जिंदगी गुजार रहे थे. वजह, सब के सब पढ़ेलिखे और रोजगार से लगे हुए थे. अनंत व अनिल रेलवे की नौकरी में थे, तो विकास और विजय बैंक की नौकरी में. प्रभात और प्रभाकर पोस्ट औफिस में थे, तो मुकेश और मुरारी प्राइवेट फर्मों में काम करते थे. 9वां अवधेश था. वह फलों का बड़े पैमाने पर कारोबार करता था.

अवधेश ही सब से उम्रदराज था और अमीर भी. जब उन में से किसी को रुपएपैसों की जरूरत होती थी, तो वे अवधेश के पास ही आते थे. अवधेश भी दिल खोल कर उन की मदद करता था. जरूरत पूरी होने के बाद जैसे ही उन के पास पैसा आता था, वे अवधेश को वापस कर देते थे. वे 9 लोग आपस में गहरे दोस्त थे और चाहे कहीं भी रहते थे, हफ्ते के आखिर में पटना की एक चाय की दुकान पर जरूर मिलते थे. पिछले 5 सालों से यह सिलसिला बदस्तूर चल रहा था.

वे सारे दोस्त शादीशुदा और बालबच्चेदार थे. कमाल की बात यह थी कि उन की पत्नियां भी मूक और बधिर थीं. पर उन के बच्चे ऐसे न थे. वे सामान्य थे और सभी अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे थे. सभी दोस्त शादीसमारोह, पर्वत्योहार में एकदूसरे के घर जाते थे और हर सुखदुख में शामिल होते थे. वक्त की रफ्तार के साथ उन की जिंदगी खुशी से गुजर रही थी कि अचानक उन सब की जिंदगी में एक तूफान उठ खड़ा हुआ. इस बार जब वे लोग उस चाय की दुकान पर इकट्ठा हुए, तो उन में अवधेश नहीं था. उस का न होना उन सभी के लिए चिंता की बात थी. शायद यह पहला मौका था, जब उन का कोईर् दोस्त शामिल नहीं हुआ था. वे कई पल तक हैरानी से एकदूसरे को देखते रहे, फिर अनंत ने इशारोंइशारों में अपने दूसरे दोस्तों से इस की वजह पूछी. पर उन में से किसी को इस की वजह मालूम न थी. वे कुछ देर तक तो खामोश एकदूसरे को देखते रहे, फिर अनिल ने अपनी जेब से पैड और पैंसिल निकाली और उस पर लिखा, ‘यह तो बड़े हैरत की बात है कि आज अवधेश हम लोगों के बीच नहीं है. जरूर उस के साथ कोई अनहोनी हुई है.’ लिखने के बाद उस ने पैड अपने दोस्तों की ओर बढ़ाया. उसे पढ़ने के बाद प्रभात ने अपने पैड पर लिखा,

‘पर क्या?’

‘इस का तो पता लगाना होगा.’

‘पर कैसे?’

‘अवधेश को मैसेज भेजते हैं.’

सब ने रजामंदी में सिर हिलाया. अवधेश को मैसेज भेजा गया. सभी दोस्त मैसेज द्वारा ही एकदूसरे से बात करते थे, जब वे एकदूसरे से दूर होते थे. पर मैसेज भेजने के बाद जब घंटों बीत गए और अवधेश का कोई जवाब न आया, तो सभी घबरा से गए.

सभी ने तय किया कि अवधेश के घर चला जाए. अवधेश का घर वहां से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर था.

अवधेश के आठों दोस्त उस के घर पहुंचे. उन्होंने जब उस के घर का दरवाजा खटखटाया, तो अवधेश की पत्नी आभा ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर अपने पति के सारे दोस्तों को देखते ही आभा की आंखें आंसुओं से भरती चली गईं.

आभा को यों रोते देख उन के मन  में डर के बादल घुमड़ने लगे. उन्होंने इशारोंइशारों में पूछा, ‘अवधेश है घर पर?’

आभा ने सहमति में सिर हिलाया, फिर उन्हें ले कर अपने बैडरूम में आई. बैडरूम में अवधेश चादर ओढ़े आंखें बंद किए लेटा था.

आभा ने उसे झकझोरा. उस ने सभी दोस्तों को अपने कमरे में देखा, तो उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. वह उठ कर बिछावन पर बैठ गया. पर उस की आंखों में उभरे हैरानी के भाव कुछ देर ही रहे, फिर उन में वीरानी झांकने लगी. वह खालीखाली नजरों से अपने दोस्तों को देखने लगा. ऐसा करते हुए उस के चेहरे पर उदासी और निराशा के गहरे भाव छाए हुए थे.

उस के दोस्त कई पल तक बेहाल अवधेश को देखते रहे, फिर विजय ने उस से इशारोंइशारों में पूछा, ‘यह तुम ने अपना क्या हाल बना रखा है? हुआ क्या है? आज तुम हम से मिलने भी नहीं आए?’

अवधेश ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बस खालीखाली नजरों से उन्हें देखता रहा. उस के बाकी दोस्तों ने भी उस की इस बेहाली की वजह पूछी, पर वह खामोश रहा.

अपनी हर कोशिश में नाकाम रहने पर उन्होंने आभा से पूछा, तो उस ने पैड पर लिखा, ‘मुझे भी इन की खामोशी और उदासी की पूरी वजह मालूम नहीं, जो बात मालूम है, उस के मुताबिक इन्हें अपने कारोबार में घाटा हुआ है.’

‘क्या यह पहली बार हुआ है?’ विकास ने अपने पैड पर लिखा.

‘नहीं, ऐसा कई बार हुआ है, पर इस से पहले ये कभी इतना उदास और निराश नहीं हुए.’

‘फिर, इस बार क्या हुआ है?’

‘लगता है, इस बार घाटा बहुत ज्यादा हुआ है.’

‘यही बात है?’ लिख कर विकास ने पैड अवधेश के सामने किया.

पर अवधेश चुप रहा. सच तो यह था कि कारोबार में लगने वाले जबरदस्त घाटे ने उस की कमर तोड़ दी थी

और वह गहरे डिप्रैशन का शिकार हो गया था.

जब सारे दोस्तों ने उस पर मिल कर दबाव डाला, तो अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘घाटा पूरे 20 लाख का है.’

जब अवधेश ने पैड अपने दोस्तों के सामने रखा, तो उन की भी आंखें फटने को हुईं.

‘पर यह हुआ कैसे…?’ अनंत ने अपने पैड पर लिखा.

एक बार जब अवधेश ने खामोशी तोड़ी, तो फिर सबकुछ बताता चला गया. उस ने एक त्योहार पर बाहर से 20 लाख रुपए के फलों की बड़ी खेप मंगवाई थी. पर कश्मीर से आने वाले फलों के ट्रक बर्फ खिसकने के चलते 15 दिनों तक जाम में फंस गए और फल बरबाद हो गए.

‘तो क्या तुम ने इतने बड़े सौदे का इंश्योरैंस नहीं कराया था?’

‘नहीं. चूंकि यह कच्चा सौदा है, सो इंश्योरैंस कंपनियां अकसर ऐसे सौदे का इंश्योरैंस नहीं करतीं.’

‘पर ट्रांसपोर्ट वालों पर तो इस की जिम्मेदारी आती है. क्या वे इस घाटे की भरपाई नहीं करेंगे?’

‘गलती अगर उन की होती, तो उन पर यह जिम्मेदारी जाती, पर कुदरती मार के मामले में ऐसा नहीं होता.’

‘और जिन्होंने यह माल भेजा था?’

‘उन की जिम्मेदारी तो तभी खत्म हो जाती है, जब वे माल ट्रकों में भरवा कर रवाना कर देते है.’

‘और माल की पेमेंट?’

‘पेमेंट तो तभी करनी पड़ती है, जब इस का और्डर दिया जाता है. थोड़ीबहुत पेमेंट बच भी जाती है, तो माल रवाना होते ही उस का चैक भेज दिया जाता है.’

‘पेमेंट कैसे होती है?’

‘ड्राफ्ट से.’

‘क्या तू ने इस माल का पेमेंट कर दिया था?’

‘हां.’

‘ओह…’

‘तू यहां घर पर है. दुकान और गोदाम का क्या हुआ?’

‘बंद हैं.’

‘बंद हैं, पर क्यों?’

‘तो और क्या करता. वहां महाजन पहुंचने लगे थे?’

‘क्या मतलब?’

‘इस सौदे का तकरीबन आधा पैसा महाजनों का ही था.’

‘यानी 10 लाख?’

‘हां.’

इस खबर से सब को सांप सूंघ गया. कमरे में एक तनावभरी खामोशी छा गई. काफी देर बाद अनंत ने यह खामोशी तोड़ी. उस ने पैड पर लिखा, ‘पर इस तरह से दुकान और गोदाम बंद कर देने से क्या तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा?’

‘पर दुकान खोलने पर महाजनों का तकाजा मेरा जीना मुश्किल कर देगा.’

‘ऐसे में वे तकाजा करना छोड़ देंगे क्या?’

‘नहीं, और मेरी चिंता की सब से बड़ी वजह यही है. उन में से कुछ तो घर पर भी पहुंचने लगे हैं. अगर कुछ दिन तक उन का पैसा नहीं दिया गया, तो वे कड़े कदम भी उठा सकते हैं.’

‘जैसे?’

‘वे अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं. मुझे जेल भिजवा सकते हैं.’

मामला सचमुच गंभीर था. बात अगर थोड़े पैसों की होती, तो शायद वे कुछ कर सकते थे, पर मामला 20 लाख रुपयों का था. सो उन का दिमाग काम नहीं कर रहा था. पर इस बड़ी समस्या का कुछ न कुछ हल निकालना ही था, सो अनंत ने लिखा, ‘अवधेश, इस तरह निराश होने से कुछ न होगा. तू ऐसा कर कि महाजनों को अगले रविवार अपने घर बुला ले. हम मिलबैठ कर इस समस्या का कोईर् न कोई हल निकालने की कोशिश करेंगे.’

अगले रविवार को अवधेश के सारे दोस्त उस के ड्राइंगरूम में थे. 4 महाजन भी थे. अवधेश एक तरफ पड़ी कुरसी पर चुपचाप सिर झुकाए बैठा था. उस के पास ही उस की पत्नी आभा व 10 साला बेटा दीपक खड़ा था.

थोड़ी देर पहले आभा ने सब को चाय पिलाई थी. आभा के बहुत कहने पर महाजनों ने चाय को यों पीया था, जैसे जहर पी रहे हों.

थोड़ी देर तक सब खामोश बैठे थे. वे एकदूसरे को देखते रहे, फिर एक महाजन, जिस का नाम महेशीलाल था, बोला, ‘‘अवधेश, तुम ने हमें यहां क्यों बुलाया है और ये लोग कौन हैं?’’

दीपक ने उसकी बात इशारों में अपने पिता को समझाई, तो अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘ये मेरे दोस्त हैं और मैं इन के जरीए आप के पैसों के बारे में बात करना चाहता हूं.’

महाजनों ने बारीबारी से उस की लिखी इबारत पढ़ी, फिर वे चारों उस के दोस्तों की ओर देखने लगे. बदले में अनंत ने लिख कर अपना और दूसरे लोगों का परिचय उन्हें दिया.

उन का परिचय पा कर महाजन हैरान रह गए. एक तो यही बात उन के लिए हैरानी वाली थी कि अवधेश की तरह उस के दोस्त भी मूक और बधिर थे. दूसरे, वे इस बात से हैरान थे कि सब के सब अच्छी नौकरियों में लगे हुए थे.

चारों महाजन कई पल तक हैरानी से उन्हें देखते रहे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हमें यह जान कर खुशी भी हुई और हैरानी भी कि आप अपने दोस्त की मदद करना चाहते हैं. पर हम करोबारी हैं. पैसों के लेनदेन का कारोबार करते हैं. सो, आप के दोस्तों ने कारोबार के लिए हम से जो पैसे लिए थे, वे हमें वापस चाहिए.’

‘आप अवधेश के साथ कितने दिनों से यह कारोबार कर रहे हैं?’ अनंत ने लिखा.

‘3 साल से.’

‘क्या अवधेश ने इस से पहले कभी पैसे लौटाने में आनाकानी की? कभी इतनी देर लगाई?’

‘नहीं.’

‘तो फिर इस बार क्यों? इस का जवाब आप भी जानते हैं और हम भी. अवधेश का माल जाम में फंस कर बरबाद हो गया और इसे 20 लाख रुपए का घाटा हुआ. आप लोगों के साथ यह कई साल से साफसुथरा कारोबार करता रहा है. अगर इस ने आप लोगों की मदद से लाखों रुपए कमाए हैं, तो आप ने भी इस के जरीए अच्छा पैसा बनाया है. अब जबकि इस पर मुसीबत आई है, तब क्या आप का यह फर्ज नहीं बनता कि आप लोग इस मुसीबत से उबरने में इस की मदद करें? इसे थोड़ी मुहलत और माली मदद दें, ताकि यह इस मुसीबत से बाहर आ सके?’

यह लिखा देख चारों महाजन एकदूसरे का मुंह देखने लगे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हम कारोबारी हैं और कारोबार भावनाओं पर नहीं, बल्कि लेनदेन पर चलता है. अवधेश को घाटा हुआ है तो यह उस का सिरदर्द है, हमें तो अपना पैसा चाहिए.’

‘कारोबार भावनाओं पर ही चलता है, यह गलत है. हम भी अपने बैंक से लोगों को कर्ज देते हैं. अगर किसानों की फसल किसी वजह से बरबाद हो जाती है, तो हम कर्ज वसूली के लिए उन्हें कुछ समय देते हैं या फिर हालात काफी बुरे होने पर कर्जमाफी जैसा कदम भी उठाते हैं.

‘आप अगर चाहें, तो अवधेश के खिलाफ केस कर सकते हैं, उसे जेल भिजवा सकते हैं. पर इस से आप को आप का पैसा तो नहीं मिलेगा. दूसरी हालत में हम आप से वादा करते हैं कि आप का पैसा डूबेगा नहीं. हां, उस को चुकाने में कुछ वक्त लग सकता है.’

कमरे का माहौल अचानक तनाव से भर उठा. चारों महाजन कई पल तक एकदूसरे से रायमशवरा करते रहे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हम अवधेश को माली मदद तो नहीं, पर थोड़ा समय जरूर दे सकते हैं.’

‘थैंक्यू.’

थोड़ी देर बाद जब महाजन चले गए, तो दोस्तों ने अवधेश की ओर देखा और पैड पर लिखा, ‘अब तू क्या कहता है?’

अवधेश ने जो कहा, उस के अंदर की निराशा को ही झलकाता था. उस का कहना था कि समय मिल जाने से क्या होगा? उन महाजनों का पैसा कैसे लौटाया जाएगा? उस का कारोबार तो चौपट हो गया है. उसे जमाने के लिए पैसे चाहिए और पैसे उस के पास हैं नहीं.

‘हम तुम्हारी मदद करेंगे.’

‘पर कितनी, 5 हजार… 10 हजार. ज्यादा से ज्यादा 50 हजार, पर इस से बात नहीं बनती.’

इस के बाद भी अवधेश के दोस्तों ने उसे काफी समझाया. उसे उस की पत्नी और बच्चों के भविष्य का वास्ता दिया, पर निराशा उस के अंदर यों घर कर गई थी कि वह कुछ करने को तैयार न था.

आखिर में दोस्तों ने अवधेश की पत्नी आभा से बात की. उसे इस बात के लिए तैयार किया कि वह कारोबार संभाले. उन्होंने ऐसे में उसे हर तरह की मदद करने का वादा किया. कोई और रास्ता न देख कर आभा ने हां कर दी.

बैठ चुके कारोबार को खड़ा करना कितना मुश्किल है, यह बात आभा को तब मालूम हुई, जब वह ऐसा करने को तैयार हुई. वह कई बार हताश हुई, कई बार निराश हुई, पर हर बार उस के पति के दोस्तों ने उसे हिम्मत बंधाई.

उन से हिम्मत पा कर आभा दिनरात अपने कारोबार को संभालने में लग गई. फिर पर्वत्योहार के दिन आए. आभा ने फलों की एक बड़ी डील की. उस की मेहनत रंग लाई और उसे 50 हजार रुपए का मुनाफा हुआ.

इस मुनाफे ने अवधेश के निराश मन में भी उम्मीद की किरण जगा दी और वह भी पूरे जोश से कारोबार में लग गया. किस्तों में महाजनों का कर्ज उतारा जाने लगा और फिर वह दिन भी आ गया, जब उन की आखिरी किस्त उतारी जानी थी.

इस मौके पर अवधेश के सारे दोस्त इकट्ठा थे. जगह वही थी, लोग वही

थे, पर माहौल बदला हुआ था. पहले अवधेश और आभा के मन में निराशा का अंधेरा छाया हुआ था, पर आज उन के मन में आशा और उमंग की ज्योति थी.

महाजन अपनी आखिरी किस्त ले कर ड्राइंगरूम से निकल गए, तो आभा अवधेश के दोस्तों के सामने आई और उन के आगे हाथ जोड़ दिए. ऐसा करते हुए उस की आंखों में खुशी के आंसू थे.

अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘दोस्तो, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप लोगों का यह एहसान कैसे उतारूंगा.’

उस के दोस्त कई पल तक उसे देखते रहे, फिर अनंत ने लिखा, ‘कैसी बातें करता है तू? दोस्त दोस्त पर एहसान नहीं करते, सिर्फ  दोस्ती निभाते हैं और हम ने भी यही किया है.’

थोड़ी देर वहां रह कर वे सारे दोस्त कमरे से निकल गए. आभा कई पल तक दरवाजे की ओर देखती रही, फिर अपने पति के सीने से लग गई.

रैगिंग: ममता को किस पर तरस आ रहा था?

पीरियड खत्म होने की घंटी बजी तो क्लास में सभी बच्चे इधरउधर चले गए कोई मैदान में टहलने, कोई लाइब्रेरी में पढ़ने तो कोई कैटीन में खानेपीने, क्योंकि उन का अगला पीरियड खाली था. ममता भी अगला पीरियड खाली देख कर अपनी सहेली सरिता के साथ कैंटीन की ओर चल पड़ी. वहां कुछ लड़केलड़कियां गाबजा रहे थे. एक लड़का गा रहा था और उस के साथी कैंटीन की बैंच बजा रहे थे.

ममता ने सोचा कि शायद यहां कोईर् पार्टी चल रही है. जब उस ने वहां खड़ी एक लड़की से पूछा तो उस ने बताया, ‘‘जब यहां राजेश आता है तो ऐसा ही माहौल होता है.’’

अब ममता ने यह पूछने की जरूरत नहीं समझी कि राजेश कौन है क्योंकि वह जान गई थी कि जो लड़का गा रहा है, वही राजेश होगा. सभी में वही खास जो बना हुआ था. राजेश उसे देखने में अच्छा लगा. उस से प्रभावित तो वह पहले से ही थी.

ममता और सरिता जल्दीजल्दी चाय पी कर बाहर चली गईं. ममता बीए द्वितीय वर्ष में पढ़ती थी. उस दिन उस का यह कालेज में पहला दिन था. अगले दिन जब वह लाइब्रेरी में गई तो वहां राजेश बैठा था. उस ने जब ममता को देखा तो उसे देखते ही बोला, ‘‘तुम ममता हो न?’’

‘‘हां,’’ उस ने कहा, ‘‘लेकिन तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘मुझे किस ने बताना है. मैं तो खुद ही बहुत होशियार हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा.

ममता मुसकराई. पूछा, ‘‘फिर भी?’’

‘‘अरे, तुम हमारी ही कक्षा में तो आई हो और अपनी कक्षा के बारे में इतना तो पता होना ही चाहिए कि कौन नया आया है और कौन गया.’’

‘‘तुम्हारी कक्षा में? लेकिन मैं ने तो तुम्हें देखा नहीं?’’

‘‘अरे, पहले दिन भी भला कोई कक्षा में जाता है. हम सब तो पहला दिन सैलिब्रेट करते हैं.’’

ममता को राजेश का इस तरह बातें करना बहुत अजीब लगा. उसे लगा कि वह जानबूझ कर चेप होने की कोशिश कर रहा है. तभी घंटी बजी.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं, फिर मिलते हैं,’’ कह ममता ने उस से छुटकारा पाया.

लेकिन यह कौन सी एक दिन की बात थी. इस के बाद वह रोज किसी न किसी बहाने आ कर फुजूल की बातें करता रहता. ममता उस से बचने की लाख कोशिश करती लेकिन वह उस के पास आ ही जाता. ऐसे ही धीरेधीरे वह उस का अनचाहा दोस्त बन गया.

एक दिन राजेश ममता के पास आ कर बुदबुदाने लगा, ‘‘ऐसे भाईर् से तो कोई भाई न होना ही अच्छा था.’’

ममता ने उसे परेशान, बुदबुदाते देख पूछा, ‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘आज मेरा जन्मदिन था. मैं ने दोस्तों को पार्टी देने के लिए अपने बड़े भाई से 500 रुपए मांगे तो कहने लगे कि पैसे पेड़ पर नहीं लगते. आज अगर पापा होते तो मुझे यह दिन न देखना पड़ता. बचपन में ही मुझे मम्मीपापा छोड़ कर चले गए. इसीलिए मुझे अपने मनहूस भाई का मुंह देखना पड़ रहा है.

‘‘यह सिर्फ आज की बात नहीं है वे हमेशा ही ऐसा करते हैं. अब मुझ से यह रोजरोज की बेइज्जती सहन नहीं होती. अब तो मेरा मर जाना ही ठीक है. मैं आज घर से तय कर के आया हूं कि अब मेरी लाश ही घर आएगी. मैं तुम से आखिरी बार मिलने आया था.’’

राजेश को देख कर लगता था कि वह सचमुच ही मरने जा रहा है. ममता को उस पर तरस आ गया. वह उसे समझाने लगी, ‘‘देखो, आत्महत्या कर लेना किसी समस्या का हल नहीं है. तुम कोईर् काम कर सकते हो. तुम्हारी आज की जरूरत के लिए मेरे पास 300 रुपए हैं. इन्हें रख लो.’’

‘‘नहीं, मैं तुम से यह रुपए नहीं ले सकता.’’

‘‘ क्यों नहीं ले सकते, मैं तुम्हारी दोस्त नहीं हूं, क्या. अब रख भी लो,’’ कहते हुए ममता ने राजेश के हाथ में जबरन पैसे रख दिए.

‘‘अच्छा, इतना कहती हो तो रख लेता हूं, लेकिन मैं तुम्हें जल्दी लौटा दूंगा,’’ कहते हुए राजेश ने रुपए जेब में डाल लिए.

ममता ने तरस खा कर उसे रुपए दे तो दिए, मगर उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वह उसे रुपए लौटाएगा. वह अब पछता रही थी. उस के बाद सारा दिन उस का मूड औफ रहा. फिर ममता ने यह सोच कर अपनेआप को तसल्ली दी कि जो हो गया सो हो गया, आगे से ऐसा नहीं होगा.

राजेश अब हर 8-10 दिन बाद ममता के पास आ कर रोने लगता कि मैं अब जिंदा नहीं रहूंगा अभी आत्महत्या कर लूंगा. ममता न चाहते हुए भी उसे रुपए दे देती, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि राजेश उस के कारण मरे. पर मन ही मन पछताती रहती कि उस के पास कौन सी टकसाल लगी है, जो उसे घर से जेबखर्च मिलता है राजेश उसे ठग ले जाता है.

‘‘ममता मुझे 5 हजार रुपए चाहिए,’’ एक दिन राजेश ने मिन्नत करते हुए कहा.

ममता ने कुछ नहीं पूछा कि क्यों, क्या करना है लेकिन वह खुद ही शुरू हो गया, ‘‘सभी दोस्त ट्रिप पर शिमला जा रहे थे. मुझे भी जिद कर के साथ ले गए. रास्ते में मुझ से कहने लगे तुम गाड़ी चलाओ. मुझे कौन सा इतना तजरबा था. फिर भी चलाने लगा. रास्ते में एक साइकिल वाले को बचातेबचाते गाड़ी एक खंभे में जा लगी. आगे से सारी गाड़ी पिचक गई और आगे वाला शीशा भी टूट गया.

‘‘एक तो मैं पहले ही मरने से बालबाल बचा, ऊपर से उन सब ने मेरी पिटाई कर दी. अब उन्होंने कहा है कि अगर मैं ने उन को 5 हजार रुपए ला कर नहीं दिए तो वे मुझे मार डालेंगे. वे मुझे मारें इस से अच्छा है कि मैं ही आत्महत्या कर लूं. अब तुम ही मुझे बचा सकती हो. नहीं तो… ’’ वह चुप कर गया.

‘‘लेकिन इतने रुपए मैं कहां से लाऊंगी?’’

‘‘कोई बात नहीं धीरेधीरे 2-3 दिन में इंतजाम कर देना. तुम्हारा बहुत एहसान होगा. मैं जल्दी ही लौटा दूंगा.’’

‘जैसे पहले लौटाए हैं,’ ममता ने मन ही मन सोचा. फिर उस ने राजेश से कहा, ‘‘अच्छा सोचती हूं.’’

ममता अब फिर दुविधा में थी कि क्या करे और क्या न करे, लेकिन इतने रुपए वह लाएगी कहां से. 20-25 रुपए की बात होती, तो वह अपने जेबखर्च में से दे देती. मगर इतने रुपए के बारे में घर वालों को क्या कहेगी. फिर उस ने तय किया कि कल इस बारे में सरिता से सलाह करेगी.

अगले दिन कालेज में ममता ने सरिता को शुरू से ले कर कल तक की सारी कहानी सुना दी.

सारी बात सुन कर सरिता बोली, ‘‘तू तो एकदम भोली है. तुझे तो उसे पहली बार में ही फटकार देना चाहिए था. तुझे नहीं मालूम कि वह एक नंबर का नशेड़ी है. अगर तेरे पास इतने ही ज्यादा पैसे थे तो मुझे दे देती. उस की यह बात तो सही है कि उस के मांबाप बचपन में ही मर गए थे, लेकिन उस का भाई पता है उसे पैसे क्यों नहीं देता क्योंकि वह जानता है कि वह सारे पैसों का नशा कर लेगा. इसीलिए उस की फीस भी वह खुद भर कर जाता है. वह चाहता है कि राजेश पढ़लिख जाए.’’

तभी उधर से राजेश को आता देख कर सरिता बोली, ‘‘अब राजेश इधर ही आ रहा है. तुम उसे साफसाफ जवाब दे देना कि मरना है तो मरो, मगर मेरे पीछे न पड़ो. मैं यहां तुम्हारे पास खड़ी हूं.’’

तभी वहां राजेश अपना उदास सा मुंह बनाए आ गया. सरिता ममता को उस को इनकार करने का इशारा कर के चली गई.

राजेश ने पूछा, ‘‘पैसों का इंतजाम हो गया?’’

ममता ने कहा, ‘‘नहीं, और अब होगा भी नहीं,’’ राजेश समझ गया कि आज वह गुस्से में है.

उस ने कहा, ‘‘चलो भई, अब तो मैं मरने के लिए तैयार हो जाऊं, दूसरों के मारने से अच्छा है खुद ही मर जाऊं. अब यही रास्ता बचा है.’’

‘‘राजेश, मुझे 6 महीने हो गए यह सुनतेसुनते… तुम मरे तो हो नहीं… अब जल्दी मरो और मेरा पीछा छोड़ो.’’

‘‘अच्छा. अब मैं मरने जा रहा हूं. मुझे रोकना नहीं,’’ यह कहतेकहते वह कालेज के मेन गेट से बाहर हो गया.

ममता ने उसे जवाब दे तो दिया था मगर मन ही मन डर भी रही थी कि कहीं वह सचमुच ही आत्महत्या न कर ले. तभी वहां सरिता आ गई. ममता ने अपना डर उस के आगे जाहिर किया तो उस ने बेफिक्री से जवाब दिया, ‘‘यह पक्की हड्डी मरने वाली नहीं है. मैं इसे कई साल से जानती हूं.’’

सरिता की बात सुन कर भी ममता को चैन नहीं आया. वह सोच रही थी कि अगर वह मर गया तो सारी उम्र अपनेआप को माफ नहीं कर पाएगी. सारा दिन वह यही सोच कर घबराती रही. रात को भी चैन से सो नहीं पाई.

अगले दिन ममता मन में डर ले कर कालेज पहुंची तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा, क्योंकि वह देख रही थी कि राजेश जिंदा है. उस ने सरिता से कहा, ‘‘मुझे लग रहा है जैसे मेरी एक लंबी रैगिंग हुई हो.’’

उधर राजेश अपने नए शिकार को ठग रहा था, ‘‘मेरे मांबाप बचपन में गुजर गए. मेरा भाई…’’

 

जेल के वे दिन : रवींद्र किसके किस्से सुनाता था

कई दिनों से सुन रहे हैं कि हमें अब जेल से रिहा किया जाएगा. रोज नईनई खबरें आतीं. एक बार टूटी आस फिर जागने लगती. रात कल के सपने बनने में बीत जाती है, फिर अगले दिन के सपनों के लिए मन यादों में भटकने लगता है.

हम 5 दोस्त बांगरमऊ से अहमदाबाद जा रहे थे. रवींद्र कई बार वहां जा चुका था. उसी ने बताया कि वहां बहुत काम है. यहां तो कानपुर और लखनऊ में कोई काम नहीं मिल पा रहा था.

रवींद्र अहमदाबाद के किस्से सुनाया करता था. वहां  नईनई कंपनियां खुल रही थीं. लोग हजारों रुपए कमा रहे थे.

हम पांचों दोस्त भी रवींद्र के साथ जाने को तैयार हो गए. वह जानकार था. कई सालों से वहीं पर काम कर रहा था. अच्छी गुजरबसर हो रही थी. परिवार भी खुश था.

अहमदाबाद पहुंच कर रवींद्र ने हमें तेल की एक फैक्टरी के ठेकेदार से मिलवाया. हमें दूसरे दिन से ही काम पर रख लिया गया. सुबह के 8 बजे से ले कर शाम के 7 बजे तक मुश्किल भरा काम होता था. बड़ीबड़ी मशीनें लगी थीं. बड़ा काम था.

हम पांचों ने वहीं फैक्टरी के पास ही एक झोंपड़ी बना ली थी, साथ ही बनातेखाते थे. कभीकभी हम समुद्र की ओर भी निकल जाते थे. तैरती हुई नावों को देखते.

नाविक समुद्र में बड़ा सा जाल डालते थे. मछलियां पकड़ते और नाव भरभर कर मछलियां ले कर जाते. कभीकभी उन नाविकों से बातें भी होती थीं.

3 महीने बाद ठेकेदार ने हमारी एक महीने की छुट्टी कर दी कि कहीं हम परमानैंट न हो जाएं. अब हमारे पास कमानेखाने का कोई साधन न था. रोज ही दूसरी फैक्टरियों के भी चक्कर लगाते, पर कुछ काम नहीं बन पा रहा था.

रवींद्र के फोन पर खबर आई कि मेरे बड़े भाई की शादी है. मां ने बुलाया है. रवींद्र से कुछ पैसे उधार ले कर हम चारों ने घर जाने का प्रोग्राम बनाया. पर पैसों की कमी के चलते घर वालों के लिए कुछ नहीं ले जा पाए.

बाबूराम, सुधीर, श्यामू और मैं चारों ने 8 दिन का प्रोग्राम बनाया. शादी की गहमागहमी में भी मैं खोयाखोया सा रहता था.

मां ने मेरी शादी के लिए भी भाभी की बहन को चुन लिया था. मैं ने उन्हें तकरीबन 6 महीने बाद ही आने का वादा किया.

अहमदाबाद में शाम को समुद्र के किनारे घूमते हुए हमें भुदई ठेकेदार मिल गया. वह हम से बात करने पर बोला कि वह नाव देता है और मछली पकड़ कर लाने पर हाथोंहाथ पैसा भी देते हैं.

दूसरे दिन सुबहसवेरे हम चारों वहां पहुंच गए. नाव व जाल भुदई ठेकेदार से मिल गए. हम चारों शाम ढले वापस आए. भुदई ठेकेदार की और नावों के साथ गए थे. खूब सारी मछलियां मिल गई थीं. अब हम रोज जाने लगे थे.

एक दिन हम और ज्यादा मछलियों के लालच में सब नावों से आगे निकल गए. तेज हवा चल रही थी. अंधेरा भी बढ़ रहा था.

हम ने पीछे मुड़ कर देखा, तो बाकी नावें काफी पीछे रह गई थीं. हमारी नाव नहीं संभल रही थी. हम ने तय किया और नाव किनारे लगा ली. सोचा, सवेरेसवेरे वापस हो लेंगे और नाव में ही सो गए.

रात को पता नहीं क्याक्या खयाल आ रहे थे. पिताजी कितना समझाते थे कि सवेरे उन के साथ खेतों पर जाऊं और स्कूल भी जाऊं, पर मुझे तो श्यामू के साथ खेतों में बनी मेड़ों को पैरों से तोड़ने में बड़ा मजा आता था. फिर आम के पेड़ से पत्थर मारमार कर आम तोड़ना और माली को परेशान करने में बहुत मजा आता था. कुम्हार के घर के सामने के मैदान में गुल्लीडंडा खेलने में अच्छा लगता. कुम्हार काका खूब चिल्लाते, पर हम उन की पकड़ से दूर भागते रात गए घर पहुंचते.

आज पिताजी की बातें याद आ रही थीं. घूम कर देखा तो तीनों सो रहे थे. मैं ने सोने की कोशिश की, पर नींद नहीं आ रही थी. अंगोछे से सिरमुंह ढक लिए. आंखें कस कर बंद कर लीं.

पता नहीं, कब आंख लगी. सवेरे पंछियों की आवाज सुन कर आंख खुली तो देखा कि रेत के ऊपर बहुत से लोग पड़े थे. पास ही श्यामू, बाबूराम व सुधीर भी थे. न नाव, न जाल. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है.

हरी वरदी पहने कुछ सिपाही सब को हड़का रहे थे और एक ओर चलने को कह रहे थे. बहुत सारे लोगों को एक

कमरे में बंद कर दिया गया. प्यास से गला सूख रहा था. जरा भी जगह, हिलने भर को नहीं.

मैं धीरेधीरे खिसक कर श्यामू व बाबूराम के पास पहुंचा. फिर देखा तो सुधीर बिलकुल दरवाजे के पास था.

श्यामू ने बताया कि हमें बंदी बना कर ये लोग पाकिस्तान ले आए हैं. अब तो बहुत घबराहट हो रही थी. शाम को कुछ लोगों को एक दूसरे कमरे में भेज दिया गया. अब तकरीबन 17-18 लोग होंगे वहां. फिर उन्होंने पूछताछ शुरू की. नाम वगैरह पूछने लगे. उन्हें शक था कि हम हिंदुस्तानी लोग जासूसी करने आए थे और कुछ बता नहीं रहे थे.

थोड़ी देर बाद कुछ दूसरे लोग आए और वे अपने ही तरीके से पूछताछ करने लगे. उन लोगों के जाने के बाद हम लोग दीवार का सहारा ले कर आड़ेतिरछे से लेट गए.

सवेरे हमें एक और मोटे से आदमी के सामने ले जाया गया. एकएक कर फिर वही पूछताछ का सिलसिला. मारपीट व जुल्म ढाने का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला.

जब वह मारपीट कर के थक गया, तो हम तीनों को एक कमरे में, जो जेल का बैरक था, छोड़ दिया गया. आंतें कुलबुला रही थीं. मांपिताजी सब बहुत याद आ रहे थे. इतने में एक सिपाही खाने की थालियां सलाखों के नीचे से खिसकाते हुए जोर से चिल्लाया. एक गंदी सी गाली उस के मुंह से निकली और उस ने नफरत से वहीं जमीन पर थूक दिया.

हम लोगों को पता चला कि हमारे साथसाथ 27 मछुआरों को पाकिस्तान की नौसेना ने जखऊ बंदरगाह से मछुआरों की नौकाओं समेत पकड़ लिया है.

सभी मछुआरों को कराची के मलोर लांघी जेल में रखा गया था. हमारे साथ जो चौथा आदमी था ननकू, वह मोहम्मदपुर का बाशिंदा था. गांव में 2 बेटियां व पत्नी हैं. उस के बिना पता नहीं उन पर क्या बीत रही होगी.

कुछ दिनों बाद हम लोगों को जेल में काम मिलने लगा. हमें मोती मिलते थे, जिन से हम तरहतरह की मालाएं बनाते थे. रोज के 50 रुपए मिलते थे. जेल में टैलीविजन लगा था. सरहद के हाल देख कर आस टूटने लगती थी. ननकू काका तो कुछ बोलते ही नहीं थे. उन के मोबाइल फोन छीन लिए गए थे.

जो रोज खाना देने आते थे, उन का नाम अजहर मियां था. उन से पता चला कि दोनों सरकारों के बीच बात चल रही है. कुछकुछ लोगों के समूह छोड़े जा रहे हैं. जल्दी ही हमारा भी नंबर आएगा.

वहां रहते हुए सालभर से ऊपर का समय हो गया था. इसी बैरक में रहते हुए होलीदीवाली भी निकल गई थीं.

जब अजहर मियां खाना देने आते, तो उन के मुंह पर निगाहें टिक जातीं. पानी में अपनी सूरत देख कर ही हम डर जाते थे.

ननकू काका दीवार पर रोज ही एक लकीर बना देते. फिर गिनते. बारबार गिनते और सिर झुका कर बैठ जाते.

आज अजहर मियां ने बताया कि कल कुछ और लोगों को छोड़ा जाएगा. हम चारों को उम्मीद सी बंधने लगी. एकदूसरे की गलबहियां डालने लगे.

अजहर मियां से कहा कि देख कर बताएं हमारा नाम है कि नहीं… दूसरे दिन पता चला कि हम चारों को भी 220 मछुआरों के साथ छोड़ा जाएगा.

हम वहां से निकल कर उन के पास पहुंचे, तो धक्कामुक्की हो रही थी कि लाइन में आगे पहुंच जाएं. पीछे वाला कहीं रह न जाए.

सोमवार देर शाम अटारी बौर्डर से अमृतसर लाया गया. जेल से बाहर आने पर लगा, मानो जान ही नहीं थी. अभीअभी सांस ली है. अपनेआप को छू कर देख रहे थे. एकदूसरे को चिकोटी काटी कि कहीं यह सपना तो नहीं है. अब तो आंखों ने नए सपने देखने शुरू किए हैं.

हमें पाकिस्तानी जेल से निकलने पर हमारा मेहनताना व 3-3 हजार रुपए व कपड़े मिले थे. वहां पर एकएक पल भी एकएक साल के बराबर बीता है.

14 महीने अपने वतन से बाहर रहे, पर अब कुछ घंटे रहना भी दूभर लग

रहा है.

श्यामू ने पीसीओ वाले से अपनी मां को फोन लगाया कि हम अमृतसर पहुंच गए हैं. जल्दी ही गांव पहुंचेंगे. बाबूराम, सुधीर व मैं साथ ही हैं. पड़ोस के गांव के ननकू काका भी थे.

श्यामू फफकफफक कर रो पड़ा. कितने समय बाद मां की आवाज सुनी थी. दिव्यांग पिता बद्रीप्रसाद का चेहरा भी आंखों से नहीं हट पा रहा था. हम लोग कितनी देर पैदल चलते रहे, फिर बस मिल गई. मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था.

आज खेतों में फूली सरसों भी पीली नहीं लग रही थी. ठंडी हवा गरम लू सी लग रही थी. बस एक जगह ढाबे पर रुकी, तो हम ने कुछ खा कर चाय पीने की सोची, पर हम से कुछ खाया नहीं गया. बस फिर चल पड़ी.

घर आ कर पता चला कि हमारे आने की खबर सुन कर गांव वाले भी आ गए हैं. किसी के घर लड्डू तो किसी के घर में हमारी पसंद की लौकी की बरफी बनाई गई.

मेरी मां ने मेरी पसंद की सब्जीरोटी व खीर बनाई थी, पर मुझ से तो खाया ही नहीं जा रहा था. बस, मां का हाथ अपने हाथ में ले कर बैठा रहा और अपनेआप को यकीन दिला रहा था कि मैं मां के पास हूं.

मां, मैं अब कभी तुझे दुख नहीं दूंगा. यहीं गांव में परिवार के साथ रहूंगा. जो कुम्हार बचपन में लाठी ले कर हड़काता था, उस की भी आंखें आंसुओं से भरी थीं.

राधा मौसी, रामप्यारी काकी व उन की बकरियां सभी थीं. मैं यादों में ही उन सब को कितना ढूंढ़ा करता था. हम सब देर रात तक बैठे बातें करते रहे.

मैं ने उन्हें बताया कि वहां हमें सताया नहीं जाता था. अपनी बनाई मालाएं दिखाईं. पर सरकार से नाराजगी थी कि उन को हमारी गैरहाजिरी में घर में साढ़े 4 हजार रुपए हर महीने देने थे, जो उन्होंने नहीं दिए.

अगले ही दिन तमाम अखबार वाले व ग्राम पंचायत वाले हमारे आने पर हम से पूछने लगे कि वहां हमारे साथ कैसा सुलूक किया गया था. मेरे तो होंठ ही नहीं हिल रहे थे. श्यामू व बाबूराम ने कुछकुछ बताया.

अगले दिन अखबार में सब छपा. सरकार में भी बात पहुंची. वहां से खबर आई कि निरीक्षण के लिए सरकारी अधिकारी आएंगे. फिर पूछताछ का सिलसिला हुआ और जल्दी ही हमें हमारा हक मिल गया. हम तीनों को नौकरी भी मिल गई. नईनई स्कीमों के तहत हमें घर के लिए लोन भी मिला.

– उमा भाटिया

स्कूल के समय में हो बदलाव

बहुत सारे वर्किंग मातापिता की चिंता होती है कि नौकरी के साथ बच्चों के स्कूल की टाइमिंग को कैसे संभालेंगे. जब बच्चे छोटे होते हैं तो यह दिक्कत ज्यादा होती है. इस के कारण कई बच्चे देर से स्कूल जाते हैं तो कई बार मां को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है. जो महिलाएं प्राइवेट सैक्टर में हैं शादी के बाद उन पर यह दबाव रहता है कि नौकरी छोड़ दें. आज लड़कियों की शिक्षा में भी अच्छाखासा पैसा खर्च होता है. इस के बाद शादी कर के वे हाउस वाइफ बन कर रह जाएं तो वह शिक्षा बेकार हो जाती है.

महिला सशक्तिकरण के लिए जरूरी है कि महिलाएं अपनी क्षमता भर काम करें, ऐसे में देश और समाज को भी ऐसे वातावरण के लिए तैयार करना चाहिए. जिस से घर, परिवार, बच्चों के साथ महिलाएं अपना कैरियर भी देख सकें. स्कूल की टाइमिंग में बदलाव इस दिशा में एक क्रांतिकारी बदलाव होगा. अगर स्कूल के समय और औफिस वर्किंग आवर्स में समानता हो तो महिलाओं के लिए काम के साथ बच्चों को स्कूल छोड़ने में दिक्कत नहीं होगी. जो स्कूल की टाइमिंग सुबह 10 बज कर 30 मिनट से शुरू हो और 5 बजे बंद हो. यही समय औफिस का भी हो, जिस से कोई भी वर्किंग महिला अपने साथ बच्चे को ले जा कर स्कूल छोड़ सके और जब औफिस से आए तो स्कूल से वापस घर ला सके.

ऐसे में महिलाओं को औफिस जाते समय यह चिंता नहीं होगी कि वे नहीं रहेंगी तो बच्चे की देखभाल कैसे होगी. आज के समय में बच्चों का स्कूल सुबह 7 बज कर 30 मिनट से होता है. 1 से 2 बजे के बीच बच्चों की छुट्टी हो जाती है. बच्चे घर आते हैं. अगर घर में कोई देखभाल करने वाला नहीं है तो मातापिता को इस बात की चिंता होती है कि बच्चा घर में अकेले कैसे रह रहा होगा. कुछ मातापिता बच्चों को क्रैच हाउस में छोड़ते हैं. कई स्कूलों में यह व्यवस्था होती है कि स्कूल के बाद भी कुछ बच्चे जब तक मातापिता लेने न आएं स्कूल में रुके रहते हैं. यह व्यवस्था स्थायी और अच्छी नहीं है. इन समस्याओं का एक ही हल है कि बच्चों के स्कूल का समय बदला दिया जाए. स्कूल और औफिस का समय एकसाथ कर दिया जाए जिस से औफिस जाते समय मातापिता बच्चों को स्कूल जा कर छोड़ दें और जब औफिस से घर जाएं तो बच्चे को स्कूल से साथ लेते हुए घर जाएं. इस के दो लाभ होंगे. एक तो बच्चे को रोकने के लिए कोई पैसा खर्च नहीं होगा उस के साथ ही साथ औफिस में काम कर रहे मातापिता इस चिंता से मुक्त रहेंगे कि सही तरह से औफिस में काम कर सकेंगे.

बिग बॉस ने गौतम विज से छीनी कैप्टेंसी, सौदर्या बनी कारण

सलमान खान का पसंदीदा शो बिग बॉस 16 इन दिनों टीवी पर छाया हुआ है. शो के कंटेस्टेंट में अपने अपने टॉस्क को लेकर खूब लड़ाइयां चल रही है. बीते सप्ताह कैप्टन गौतम विज बने हुए थें.

उनके कैप्टन बनने पर साजिद खान और अर्चना गौतम काफी ज्यादा नाराज हुए थें. लेकिन हैरानी कि बात यह है कि वह 4 दिन भी कैप्टन की गद्दी पर टिक नहीं पाएं थें. और बिग बॉस ने उन्हें फॉयर कर दिया है, इस शो से.

 

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वहीं खबर ये भी आ रही है कि सौदर्या शर्मा की वजह से उन्हें कैप्टेंसी की गद्दी से हटाया गया है. सौदर्या शर्मा लगातार गौतम विज से अंग्रेजी में बात करती रही हैं. गौतम ने उन्हें इस बात के लिए एकदम से नहीं टोका. ऐसे में बिग बॉस ने गौतम को कैप्टेंसी से हटाने का सोचा.

यूं देखा जाए तो गौतम के कैप्टन बनने से सभी लोग नाराज थें, जिसमें खासतौर पर नाराजगी देखने को मिली वो थें शिव ठाकरें, साजिद खान, अर्चना गौतम, टीना दत्ता.

ऐसे में देखा जा रहा है कि गौतम को कैप्टन के पद से हटने पर ज्यादा खुशी इन्हीं लोगों को हुई. अब देखते हैं कि अगला कैप्टन इस घर में कौन बनेगा. फैंस को भी इस दिन का इंतजार है.

अनुपमा और अनुज से नाराज होगी बरखा, अधिक तोड़ेगा पाखी का दिल!

टीवी एक्ट्रेस रूपाली गांगुली इन दिनों अनुपमा को लेकर काफी ज्यादा चर्चा में बनी हुई हैं. उनके इस सीरियल को खूब पसंद किया जा रहा है. इस सीरियल में आए दिन कुछ न कुछ नया ड्रामा देखऩे को मिलते रहता है.

अनुपमा में कई दिनों से पाखी और अधिक का ड्रामा चालू है अब तो दोनों ने भागकर शादी भी कर ली है. जिससे दर्शकों का एक्साइटमेंट सातवें आसमान पर है. वनराज पाखी की जिम्मेदारी अनुज को सौप देता है. वहीं अनुज और अनुपमा दोनों को कपाड़िया मेंशऩ ले जाता है.

 

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लेकिन अनुपमा में होने वाले ड्रामे खत्म नहीं होते हैं. आगे इस सीरियल में दिखाया जाएगा कि अनुज और अनुपमा कपाड़िया मेंशन आ जाते हैं. पाखी सबके सामने अनुज की धज्जियां उड़ाती हैं कि जो सगा भआई मेरा नहीं हुआ वो किसीका भी नहीं होगा.

जिसे मैंने बच्चे से ज्यादा माना उसने मुझे धोखा दिया, वह तुम्हारा क्या होगा. आगे गुस्से में कहती है कि मेरे शब्द लिख लो कि ये शादी ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी.

आगे के एपिसोड में दिखाया जाएगा कि पाखी और अधिक सबका आशीर्वाद लेते हैं. और जब बरखा के पास जाते हैं तो बरखा उसे आशीर्वाद देने से मना कर देती है. बरखा कहती है कि ये शादी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाएगी जल्द ही अधिक का असली चेहरा तुम्हें नजर आएगा.

मैं तुम्हें कभी मांफ नहीं करुंगी, जो तुमलोगों को करना था वो कर लिया तुमने. इसके साथ ही अनुज के साथ भी नाराजगी जाहिर करती है. कहती है कि बापू जी के कहने पर आप यहां तो ले आएं लेकिन अब मैं इन्हें मांफ नहीं करुंगी.

मुझे न पुकारना

बस में बहुत भीड़ थी, दम घुटा जा रहा था. मैं ने खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर 2-3 गहरीगहरी सांसें लीं. चंद लमहे धूप की तपिश बरदाश्त की, फिर सिर को अंदर कर लिया. छोटे बच्चे ने फिर ‘पानीपानी’ की रट लगा दी. थर्मस में पानी कब का खत्म हो चुका था और इस भीड़ से गुजर कर बाहर जा कर पानी लाना बहुत मुश्किल काम था. मैं ने उस को बहुत बहलाया, डराया, धमकाया, तंग आ कर उस के फूल से गाल पर चुटकी भी ली, मगर वह न माना.

मैं ने बेबसी से इधरउधर देखा. मेरी निगाह सामने की सीट पर बैठी हुई एक अधेड़ उम्र की औरत पर पड़ी और जैसे जम कर ही रह गई, ‘इसे कहीं देखा है, कहां देखा है, कब देखा है?’

मैं अपने दिमाग पर जोर दे रही थी. उसी वक्त उस औरत ने भी मेरी तरफ देखा और उस की आंखों में जो चमक उभरी, वह साफ बता गई कि उस ने मुझे पहचान लिया है. लेकिन दूसरे ही पल वह चमक बुझ गई. औरत ने अजीब बेरुखी से अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया और हाथ उठा कर अपना आंचल ठीक करने लगी. ऐसा करते हुए उस के हाथ में पड़ी हुई सोने की मोटीमोटी चूडि़यां आपस में टकराईं और उन से जो झंकार निकली, उस ने गोया मेरे दिमाग के पट खोल दिए.

उन खुले पटों से चांदी की चूडि़यां टकरा रही थीं…सलीमन बूआ…सलीमन बूआ…हां, वे सलीमन बूआ ही थीं. बरसों बाद उन्हें देखा था, लेकिन फिर भी पहचान लिया था. वे बहुत बदल चुकी थीं. अगर मैं ने उन को बहुत करीब से न देखा होता तो कभी न पहचान पाती.

दुबलीपतली, काली सलीमन बूआ चिकने स्याह गोश्त का ढेर बन गई थीं. मिस्कीन चेहरे पर ऐसा रोबदार इतमीनान और घमंड झलक रहा था जो बेहद पैसे वालों के चेहरों पर हुआ करता है. अपने ऊपर वह हजारों का सोना लादे हुए थीं. कान, हाथ, नाक कुछ भी तो खाली नहीं था. साड़ी भी बड़ी कीमती थी और वह पर्स भी, जो उन की गोद में रखा हुआ था. मेरा बच्चा रो रहा था और मैं उस को थपकते हुए कहीं दूर, बहुत दूर, बरसों पीछे भागी चली जा रही थी. मैं जब बच्ची थी तो यही सलीमन बूआ सिर्फ मेरी देखभाल के लिए रखी गई थीं. उन दिनों वे बहुत दुखी थीं. उन के तीसरे मियां ने उन को तलाक दे दिया था और लड़के को भी उन से छीन लिया था. सलीमन बूआ ने अपनी सारी ममता मुझ पर निछावर कर दी. मैं अपनी मां की ममता इसलिए कम पा रही थी क्योंकि मुझ से छोटे 2 और बच्चे भी थे.

अम्मा बेचारी क्या करतीं, मुझे संभालतीं या मेरे नन्हे भाइयों को देखतीं. सलीमन बूआ की मैं ऐसी आशिक हुई कि रात को भी उन के पास रहती. अब्बाजान सोते में मुझे अपने बिस्तर पर उठा ले जाते, लेकिन रात को जब भी मेरी आंख खुलती, फिर भाग कर सलीमन बूआ के पास पहुंच जाती. वे जाग कर, हंस कर मुझे चिपटा लेतीं, ‘आ गई मेरी बिटिया रानी…’ और फिर अपनी बारीक आवाज में वे लोरी गाने लगतीं, जिस को सुन कर मैं फौरन सो जाती. मुझे नहलाना, मेरे कपड़े बदलना, कंघी करना, काजल लगाना, खिलानापिलाना, सुलाना, कहानियां सुनाना, बाहर टहलाने ले जाना, यह सब बूआ के जिम्मे था. अम्मा मेरी तरफ से बेफिक्र हो कर दूसरे बच्चों में लग गई थीं.

बड़े भाई और आपा मुझे चिढ़ाते, ‘देखो, परवीन की बूआ क्या काली डरावनी सी है. अंधेरे में देखो तो डर जाओ. अरे, भैंस है पूरी, शैतान की खाला.’ मैं रोरो मरती, दोनों को काटने दौड़ती, चप्पल खींचखींच मारती. सलीमन बूआ यह सब सुन कर बस मुसकरा दिया करतीं और मुझ से दोगुना लाड़ करने लगतीं. मैं काफी बड़ी हो गई थी, लेकिन फिर भी उन की गोद में लदी रहती. मुहर्रम में मातम या 7 तारीख का कुदरती आलम देखने के लिए मैं इतनी दूर से खुरदपुरा और सय्यदवाड़ा महल्लों में उन की गोद में ही लद कर जाया करती. वह हांफ जातीं, थक कर चूर हो जातीं, मगर न मैं उन की गोद से उतरती न वे उतारतीं.

कोई औरत टोकती, ‘ऐ सलीमन बूआ, इस मोटी को लादे घूम रही हो, फेफड़ा फट जाएगा.’

तब वे बहुत बुरा मानतीं, ‘फटने दो मेरा फेफड़ा, तुम काहे को फिक्र करती हो, बड़ी आई मेरी बिटिया को नजर लगाने वाली.’ घर आ कर वे मेरी नजर उतारतीं तो मैं बड़े घमंड से गरदन अकड़ाअकड़ा कर बड़े भाई और आपा को देखती. तब वे दोनों जलभुन कर रह जाते. सचमुच मुझे अपनी काली डरावनी सी सलीमन बूआ से कितना प्यार था. बचपन छूटा, जवानी ने गले लगाया, फिर भी सलीमन बूआ मेरे उतने ही करीब रहीं. मैं अकसर उन के साथ ही सोती. तब मुझे कभी रात में नींद न आती तो वे मुझे लोरी सुनाने लगतीं, ‘चंदन का है पालना, रेशम की है डोर…जीवे मेरी रानी बिटिया…’

मैं हंस देती, ‘बूआ, अब तो लोरी न सुनाया करो, मैं बड़ी हो गई हूं.’

‘लाख बड़ी हो जाओ, मेरे लिए तो वही छटांक भर की हो.’

सलीमन बूआ ने 3 शादियां की थीं, 2 से कोई बच्चा नहीं हुआ तो तलाक हो गया कि वे बांझ हैं.

मगर तीसरी शादी हुई तो 9वें महीने ही बूआ की गोद भर गई. यह शादी 5 साल चली. लेकिन यहां भी दुखों ने बूआ का पीछा न छोड़ा. उन के मियां का दूसरी औरत से दिल लग गया. बूआ यह बरदाश्त न कर सकीं. झगड़ा बढ़ा तो मर्द ने तलाक दे दिया और घर से निकाल दिया. साथ ही उस ने बच्चा भी छीन लिया. हारी, दुत्कारी सलीमन बूआ घरघर का कामकाज कर के पेट की आग बुझा रही थीं कि चाचा ने उन को अम्मा के पास पहुंचा दिया और उन्होंने उन को मेरे लिए रख लिया. खाना, कपड़ा, तनख्वाह, पान, दवा, बिछौना, बस और क्या चाहिए था उन्हें. बूआ हमारे घर में जम कर पूरे 16 बरस रहीं. बच्चे बड़े हो गए. बड़े अधेड़ हो गए, बूआ हमारे घर का एक जरूरी पुरजा बन गई थीं.

मगर एक दिन 21 बरस का ऊंचा, तगड़ा, गहरा सांवला नौजवान हमारे दरवाजे पर आ कर खड़ा हुआ. उस ने पुकारा, ‘अम्मा.’

बूआ, जो मेरे लिए उबटन पीस रही थीं, आवाज को सुनते ही दरवाजे की तरफ देखने लगीं. उन का हाथ रुका तो चांदी की चूडि़यों का खनकना बंद हो गया.

‘कौन है?’ बड़े भाई ने डपट कर पूछा, क्योंकि वह नौजवान सीधा अंदर घुसा आ रहा था. नीली पैंट, सफेद कमीज, हाथ में शानदार बैग, चमकते जूते और कलाई में सोने की घड़ी देख सब ठिठक कर रह गए.

‘मैं हूं…कलीम…अम्मा को लेने आया हूं,’ उस ने कहा.

बूआ ने 21 बरस के उस नौजवान में अपने 5 साल के कल्लू को बिलबिलाता देख लिया था. वे चीख मार कर दौड़ीं, ‘कलुवा.’

‘अम्मा,’ और दोनों एकदूसरे से लिपट गए.

उफ, बेमुरव्वत, बेवफा सलीमन बूआ एकदम सब कुछ भूल गईं. अपनी जिंदगी के 16 बरस उन्होंने एक पल में झटक कर दूर फेंक दिए. उन्होंने तो उस बिखरे उबटन को भी न उठाया, जो चक्की के इर्दगिर्द पड़ा था और जिस को पीसते हुए वे लहकलहक कर गा रही थीं, ‘गंगाजमनी तेरी ससुराल से आया सेहरा… अब्बा मियां ने खड़े हो के बंधाया सेहरा…’

मैं सन्न बैठी रह गई, अचानक पत्थर की मूरत बन गई. बस, टुकुरटुकुर बूआ को देखती रह गई. यह बड़ी खुशी की बात थी कि उन का बेटा उन को लेने आया था. रोता, बिलखता कलुवा अब हंसतामुसकराता कलीम अहमद बन गया था. उस का बाप मर गया था और अपने पीछे ढेर सी दौलत छोड़ गया था, जिस का कलीम अकेला वारिस था क्योंकि उस की सौतेली मां बहुत बरस पहले ही उस के बाप को छोड़ कर भाग गई थी. बाप की बेड़ी कटी तो वह अपनी मां का पता लगातेलगाते हमारे यहां आ पहुंचा और 2 घंटे के बाद ही बूआ को ले कर चलता बना. 2 घंटों में बूआ सिर्फ एक बार मेरे पास आई थीं, वह भी जाते वक्त, ‘जा रही हूं बीबी…हमेशा सुखी रहो…’ मैं ने सोचा था कि बूआ बिलख उठेंगी, मुझे किसी नन्ही बच्ची की तरह गोद में भर लेंगी, कलीम से लड़ेंगी, कहेंगी, ‘वाह, मैं क्यों जाऊं अपनी बेटी को छोड़ कर…’

मगर नहीं, बूआ की तो बाछें खिल उठी थीं. कालाकलूटा चेहरा, जो मुझ को सलोना नजर आता था, खुशी के मारे और खून की तमतमाहट से और स्याह हो गया था. ‘जा रही हो बूआ?’ मेरी आवाज थरथरा गई.

‘हां, बेटी…मेरा कलुवा अब बहुत बड़ा आदमी बन गया है. कह रहा है, मेरी बड़ी बेइज्जती होती है, तुम क्यों दूसरों के दर पर पड़ी हो? ठीक भी है…ऐसे कब तक जिंदगी गुजारती. अच्छा, चलता हूं…’

यह कह कर उन्होंने मेरा सिर थपका और बगल में दबी हुई अपने कपड़ों की पोटली ठीक करने लगीं. फिर यह जा, वह जा. फिर उड़तीपड़ती खबरें मैं सुनती रही कि बूआ कलकत्ता में हैं, बड़े मजे कर रही हैं. कलीम की एक नहीं, कई दुकानें खुल गई हैं. कार भी खरीद ली है और मकान भी बन गया है. आज बरसों बाद मैं सलीमन बूआ को फिर देख रही थी. नजर थी कि उन पर से हटने का नाम नहीं ले रही थी. बच्चा मेरी गोद में रोतेरोते निढाल हो चुका था और अब सिसकियां भर रहा था. मैं सोचने लगी कि बूआ कितनी बेवफा और संगदिल निकलीं. कभी किस चाव से कहा करती थीं, ‘इतनी उम्र यहां गुजरी, अब जो रह गई है, वह भी रानी बिटिया के साथ इस के ससुराल में गुजर जाएगी. बिटिया को पाला है, इस के बच्चे भी पालूंगी, आंखों के तारे बना कर रखूंगी…’

लेकिन इस वक्त मैं भी सामने थी और मेरे दोनों बच्चे भी मेरे साथ थे. मेरा छोटा बच्चा प्यास के मारे रो रहा था. और सलीमन बूआ ने चंद मिनट पहले ही किस मजे से अपने खूबसूरत थर्मस से पानी पिया था. फिर बड़ी नफासत से रूमाल से मुंह पोंछा, थर्मस बंद कर के बराबर में रखी हुई टोकरी के अंदर रखते हुए भी उन्होंने मेरी या मेरे बच्चों की तरफ नहीं देखा.

मेरा जी चाह रहा था कि पुकारूं, ‘सलीमन बूआ’, मगर उन की ठंडीठंडी बेरुखी ने मेरे होंठ सीं दिए.

‘‘लो बहन, बच्चे को पानी पिला दो,’’ एक औरत भीड़ को चीर कर बड़ी मुश्किल से मेरे पास पहुंची तो मेरी जान में जान आ गई.

‘‘बहन, बहुतबहुत शुक्रिया,’’ मैं इतना ही कह पाई.

‘‘शुक्रिया कैसा बहनजी, बच्चा जान दिए दे रहा था…मैं ने नरेश के पिता से पानी मंगवाया, कोई साथ में नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं, मेरे पति मुझे स्टेशन पर मिल जाएंगे. मैं अपने मायके से आ रही हूं.’’

यह बात मैं ने सिर्फ सलीमन बूआ को सुनाने के लिए जरा ऊंची आवाज में कही. मगर वे उसी तरह ठस बनी बैठी खिड़की से बाहर देखती रहीं. बच्चे ने जी भर पानी पिया और मेरी ओर देख कर हंसने लगा.

इतने में ड्राइवर आ गया और उस ने हौर्न बजाया. खुश हो कर बच्चे ने पूछा, ‘‘अम्मा, अब बस चलेगी?’’

‘‘हां, बेटा…अब चलने ही वाली है.’’

‘‘आहा…बस चल रही है,’’ उस ने अपने नन्हेमुन्ने हाथों से ताली बजाई. 2-3 आदमी उस की मासूम खुशी देख कर हंसने लगे. मैं ने बड़ी उम्मीद से सलीमन बूआ की तरफ देखा कि शायद वे भी देखें, शायद उन के चेहरे पर भी मुसकराहट उभरे और शायद वे अपनी बेमुरव्वती अब न निभा सकें. मगर बूआ का चेहरा सपाट था, चिकना स्याह पत्थर, जिस पर हलकीहलकी झुर्रियों का जाल सा बंधा हुआ था. मैं ने सोचा, शायद बराबर में बैठा हुआ 8-9 बरस का लड़का उन का पोता होगा. वे उस से बातें कर रही थीं. वही आवाज, वही अंदाज, वही होंठों का खास खिंचाव…

मेरा नन्हा बाबी ऊंघने लगा था. मैं ने उस को गोद में लिटा लिया और उस के नर्म बालों में उंगलियां फेरते हुए बिना इरादा ही गुनगुनाने लगी, ‘‘चंदन का है पालना, रेशम की डोर, जीवे मेरा राजा बेटा…’’

एकाएक एक अजीब, बहुत अजीब सी बात हुई. सलीमन बूआ के चेहरे पर एक चमक सी आई, उन की नजरें मेरे चेहरे से होती हुई बाबी पर जम गईं. मेरा दिल जोरजोर से धड़क उठा, लव कांप रहे थे. मैं ने सोचा, अब सलीमन बूआ उठीं और अब उन्होंने मेरी गोद से बाबी को ले कर कलेजे से लगाया और अपनी उसी मीठी, सुरीली आवाज में गुनगुनाने लगीं, ‘चंदन का है पालना…’

वह उठीं और बीच की सीट पर मेरी तरफ पीठ किए बैठे आदमी से कहने लगीं, ‘‘ओ बच्चे, तू इधर मेरी सीट पर बैठ जा, मैं उधर बैठ जाऊंगी.’’ वह जरा कसमसाया, मगर सोने की चूडि़यों की चमक और खनक के रोब में आ गया. वह उठ कर बूआ की जगह जा बैठा और बूआ अपना भारी जिस्म समेट कर उस की जगह पर धंस गईं. अब मेरी तरफ उन की पीठ थी.

सबकुछ बदल गया था, मगर उन का जूड़ा नहीं बदला था. वही पहाड़ी आलू जैसा उजड़ा, सूखा जूड़ा और उस के गिर्द लाल फीता. मेरे दिल में गुदगुदी सी उठी, मैं सब कुछ भूल गई. मैं तो बस वही शोख और खिलंदरी परवीन बन गई थी जो दिन में कम से कम 15 बार बूआ का जूड़ा हिला कर ढीला कर दिया करती थी. तब बूआ मुहब्बत भरी झिड़कियां दे कर अपनी नन्ही सी चोटी खोल कर लाल फीता दांतों में दबाए नए सिरे से जूड़ा बनाने लगती थीं. मैं ने हाथ बढ़ा कर उन का नन्हा सा जूड़ा छू लिया तो उन के बदन में बिजली सी दौड़ गई. वे मुड़ीं और घूर कर मेरी तरफ देखा. मैं मुसकराई, फिर हंस पड़ी, ‘‘बूआ…’’ मैं ने आगे कुछ कहना चाहा, लेकिन बड़ी सर्द आवाज में और बड़ी नागवारी से उन्होंने तेज सरगोशी की, ‘‘मुझे बूआ न पुकारना… इस तरह तो मेरी बेइज्जती होगी, कहना हो तो आंटीजी कहो.’’ सहसा मेरे होंठों पर आई हंसी एक खिंचाव की सूरत में जम कर रह गई.

मां, ब्रेकअप क्यों न करा -भाग 2 : डायरी पढ़ छलका बेटी का दर्द

“सच कहूं, तो वह डायरी सुमनजी की मुझ से ज्यादा जिगरी सखी नजर आने लगी थी. 1-2 बार तो ऐसा भी हुआ कि मैं तुम्हारे घर आई, तो मैं ने सुमनजी को डायरी थामे देखा. इसलिए मैं खुद ही जल्दी वापस घर जाने का बहाना ढूंढ़ लेती थी. मैं उन के इन तनाव के दिनों में उन का अधिक से अधिक साथ देना चाहती थी. लेकिन, वो मुझे डायरी, हम दोनों के बीच एक अनजानी सी दूरी बढ़ा रही थी और दूरी केवल हम दोनों सखियों के बीच ही नहीं बढ़ रही थी. मैं देख रही थी कि पतिपत्नी के बीच में भी कुछ तनाव था, जबकि मेरे हिसाब से उन्हें तुम्हारे पापा के सहयोग और संवेदनाओं की जरूरत थी.

“तुम्हारे पापा सुमनजी से बहुत ही झिझड़ कर बात करते थे और मम्मी शांति बनाए रहती थी. ऐसा लगता था जैसे तुम्हारे पापा कोई जिद मनवाना चाह रहे हों. और उस में सुमनजी की सहमति नहीं रही हो. नतीजा तुम्हारी मम्मी को अपमान और अवहेलना के रूप में झेलना पड़ रहा है.

“जब तुम्हारे मामा इलाज के लिए मामी के साथ कीमोथैरेपी के लिए ग्वालियर आते थे, तो पापा की चिड़चिड़ाहट और भी अधिक बढ़ जाती थी. सुमनजी घर के माहौल को शालीन बनाए रखने के लिए न जाने क्या कुछ, कितना कुछ बरदाश्त कर रही थीं, यह मैं समझ तो रही थी, लेकिन उन्होंने कभी अपने मुंह से इस बारे में कोई जिक्र नहीं किया.’’

‘‘हां आंटी, मैं भी उन की बढ़ती हुई खामोशी को महसूस कर रही थी, खूब समझाती भी थी. लेकिन यह जानती थी कि अपने लाड़ले भाई की इस गंभीर अवस्था को देख कर उन का इस तरह विचलित होना स्वाभाविक ही है. पापा के असहयोग और तिरस्कार को उन्होंने मुझे कभी महसूस ही नहीं होने दिया.

“आंटी, याद कीजिए, उन्होंने कुछ न कुछ तो बताया होगा आप को कभी. केवल मामा की बीमारी उन्हें इतना कमजोर नहीं कर सकती थी. वे तो स्वयं उन्हें यहां बुला कर उन का बेहतर इलाज करा रही थीं. मुश्किल समय में पूरी हिम्मत के साथ जुटते हुए मैं ने उन्हें देखा है. फिर मामा के लिए वह इतना कमजोर कैसे हो गई. मुझे इस बात पर यकीन ही नहीं हो रहा कि मम्मी मामा की बीमारी की वजह से कितनी मायूस थीं. मुझ से जब फोन पर बात करती थीं तो बहुत ही औपचारिक सी बातें होती थीं, ऐसा लगता था जैसे बहुतकुछ छुपा कर वह बहुत थोड़ा सा मुझे बताना चाह रही हैं.

“आंटी, आप तो उन की बहुत नजदीकी सहेली थीं. ऐसा संभव ही नहीं कि उन्होंने आप से अपने मन की बात छुपाई है. अब तो मम्मी चली गई हैं. बताइए न आंटी, क्या हो रहा था यहां पर?’’

‘‘तुम सही कह रही हो तोशी. तुम्हारी मम्मी मुझ से बहुत अधिक दिनों तक सबकुछ छुपा कर नहींं रख सकी थीं. पता नहीं, मुझे तुम्हें बतलाना चाहिए या नहीं. लेकिन यह जानती हूं कि तुम उन की बिटिया हो, तुम्हें यह सब जरूर जानना चाहिए.

“तोशी, जिंदगी हमेशा एकजैसी कहां चलती है. सुमनजी अमेरिका में बेटे अमन के तलाक से बहुत ही तनावग्रस्त रहती थीं. बेटा विदेश में अकेला पत्नी से हो रहे अलगाव को सह रहा था.

“हां, तुम्हारे लिए वे संतुष्ट थीं कि उन की लाड़ली बेटी को आत्मीय और संस्कारी परिवार मिल गया है कि तभी मन्नू भैया के गले के कैंसर के बारे में पता चला. सुमनजी के तो पैरों तले ही जमीन खिसक गई थी. मातापिता बहुत बुजुर्ग हैं. भैयाभाभी उन्हीं की सेवा कर रहे थे कि अब यह परेशान आन पड़ी थी. सुमन उन सभी की सहायता करना चाहती थी, लेकिन तुम्हारे पापा को छोड़ कर जाना और लंबे समय तक शिवपुरी में रहना संभव न होता, इसलिए उन्होंने भैयाभाभी को मुंबई जा कर इलाज कराने की जगह ग्वालियर के कैंसर अस्पताल में इलाज कराने की सलाह दी थी.

मुन्ने भैया के साथ शुरू में भाभी आती थीं और लगातार साथ में रहती थीं, लेकिन शिवपुरी में पापा मम्मी को बहुत समय अकेला न छोड़ना पड़े, इसलिए कई बार मन्नू भैया यहां अकेले रह जाते थे और भाभी, पापामम्मी के पास शिवपुरी पहुंच जाती थी. सुमन अपने मन्नू भैया का भरपूर खयाल रखती थी. समय पर दवाई, उन की सेवा सबकुछ वह अपनी नौकरी के साथ और कभी छुट्टी ले कर मैनेज कर रही थीं. लेकिन, मैं देख रही थी कि तुम्हारे पापा को मन्नू भैया का यहां रहना पसंद नहीं आ रहा था. उन के यहां रहने पर वह बहुत चिढ़चिढ़े से नजर आते थे. माहौल न बिगड़े, इसलिए सुमन झूठी मुसकान लिए काम करती रहती थी. हालांकि पड़ोसी दंपती की बातचीत सुनना अच्छी बात नहीं है. लेकिन, एक बार जब मैं सुमन से मिलने आ रही थी, तो दरवाजा आधा खुला हुआ था. अंदर से तुम्हारे पापामम्मी की तीखी बहस मुझे सुनाई दी. मैं तो यह समझ कर बिना बैल बजाए आ रही थी कि इस वक्त तुम्हारे पापा घर पर नहीं होंगे और यही वक्त होता था जब हम दोनों सखियां अपने मन की बातें किया करते थे.

“भाई साहब कह रहे थे, ‘‘नहीं, मैं ने कह दिया न, अब और नहीं. भारत के सारे कैंसर मरीज मुंबई पहुंचते हैं. तुम ने इन्हें ग्वालियर की राह क्यों दिखाई? तुम सारा दिन उन्हीं की सेवा में लगी रहती हो. पैसा खर्च हो रहा है, सो अलग. अब दवाएं, टेस्ट और स्पेशल डाइट के लिए उन से पैसे तो मांगने से रहा. कीमो और बड़ी जांचों के वह पैसे दे देते हैं तो क्या.

“और सच कहूं न, तो मुझे उन का विकृत चेहरा बिलकुल बरदाश्त नहीं है. मैं ढंग से खापी रहा हूं न, ढंग से रह पा रहा हूं. डाक्टर कहे या न कहे, मुझे तो लगता है कि यह कैंसर भी छूत की बीमारी है. बस बहुत हो गई सेवा. अब इन से कह देना कि जब भी ग्वालियर आएं, सीधे अस्पताल जाएं. और अगर रुकना है तो होटल में कोई कमरा किराए पर लिया करें.’’

‘‘आप कैसी बातें कर रहे हैं? वह मेरा दूर का रिश्तेदार नहीं सगा भाई है. आप को अधिक समय अकेला न रहना पड़े, इसलिए मैं स्वयं शिवपुरी न जा कर उन्हें यहां रख कर अपने मन को तसल्ली दे रही हूं. मेरे रहते वह भला किराए का कमरा क्यों लेगा. मैं ने आप के मातापिता की भी भरपूर सेवा की है.

“आप के पिताजी की गंभीर बीमारी में तो कभी आप ने संक्रमण की चिंता जाहिर नहीं की. जरूरत पड़ने पर हमारे खूने के रिश्ते भला किसी और के मोहताज क्यों हो? क्या मेरी तकलीफ, मेरा दुख आप का अपना नहीं है? मुझे आप के इस तरह के व्यवहार ने बहुत निराश किया है.”

न्याय में देरी

न्याय लोकतंत्र का अहम आधार है जो तेजी से पंगु होता जा रहा है. न्याय मिलने में देरी से आम आदमी का न्यायिक प्रक्रिया पर से विश्वास उठता जा रहा है और लोग इस व्यवस्था से अब चिढ़ने लगे हैं. आखिर क्यों न्याय आम आदमी से दूर होता जा रहा है? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में 4 दशक पहले दायर की गई एक अपील पर फैसला देते हुए सजायाफ्ता राजकुमार को सभी आरोपों से बरी कर दिया. यह अपराध 1981 में किया गया था.

सैशन कोर्ट का फैसला 1982 में आया और अपील का निबटारा 2022 में आ कर हुआ. राजकुमार इतने सालों तक जेल में रहे. दोषी वे अकेले नहीं थे बल्कि 3 और लोग थे जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. जरा अजीब नहीं लगता कि एक इंसान को सजा दी गई और उस की अपील पर फैसला 40 साल बाद आता है और फिर उसे बरी कर दिया जाता है. लेकिन इतने सालों तक उस की तकलीफभरी जिंदगी का क्या? कौन लौटाएगा उन के इतने साल? यह पहला ऐसा मामला नहीं है जिस में न्याय देने में जरूरत से ज्यादा देरी हुई हो. कुख्यात बेहमई कांड, जिस में फूलनदेवी और उन के साथियों ने 20 से अधिक लोगों को गोलियों से भून दिया था, 40 साल बाद भी न्याय के लिए प्रतीक्षारत है.

इस मामले के ज्यादातर अभियुक्त, गवाह और यहां तक कि पीडि़त भी न्याय की प्रतीक्षा करतेकरते गुजर चुके. ऐसे मामले इतने अधिक हैं कि उन्हें अपवाद भी नहीं कहा जा सकता. वास्तव में जो अपवाद होना चाहिए उसी ने नियम का रूप ले लिया है क्योंकि अधिकतर मामलों में 15-20 साल की देरी होना आम हो गया है. देरी उन मामलों में होती है जिन्हें संगीन माना जाता है. उन्नाव में गैंगरेप के बाद इंसाफ के लिए दरदर भटक रही पीडि़ता को गैंगरेप के ही आरोपी ने कोर्ट जाते वक्त जिंदा जला दिया. आरोपी कुछ दिनों पहले ही जमानत पर रिहा हो कर आया था. ढीले सिस्टम की वजह से एक साल से इंसाफ से लिए भटकती पीडि़ता को आखिरकार अपनी जान गंवानी पड़ी. लगातार मिलती धमकियों के बाद भी यूपी की लचर पुलिसिंग व्यवस्था पीडि़ता को सुरक्षा नहीं दे पाई और न ही कोर्ट उसे इंसाफ दिला पाया. लेकिन गुनहगारों को जमानत मिल गई, कैसे? यह सिर्फ यूपी की बात नहीं है, बल्कि पूरे देश में ऐसा हो रहा है.

देश को ?ा?ाकोर कर रख देने वाले निर्भया कांड में भी क्या हुआ. 18 दिनों बाद चार्जशीट फाइल करने के बाद इंसाफ मिलने में 7 साल लग गए. यानी 2,566 दिन. निर्भया के मातापिता को हाईकोर्ट से सुप्रीमकोर्ट में 2 साल सिर्फ तारीख मिलने में लग गए थे. कानून बदले, सख्ती बढ़ी लेकिन बदल नहीं पा रहा तो वह है देश का सिस्टम. कहने को तो वह पहला सामूहिक बलात्कार और हत्या का मामला था मगर फिर भी न्याय की रफ्तार धीमी ही चलती रही. रेप पीडि़ता को इंसाफ क्या राजनेताओं के जमावड़े, कैंडल जलाने, आंसू बहाने या फिर धरने पर बैठने से मिलेगा? खासकर यूपी में आएदिन महिलाओं और लड़कियों के साथ ऐसी घटनाएं हो रही हैं. यहां भी महिलाएं और लड़कियां ही दोषी हैं क्योंकि उन्हें अकेले घर से नहीं निकलना चाहिए था, उसे ऐसेवैसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए थे, सजधज कर बाहर नहीं निकलना चाहिए.

जब देश के बड़े नेतागण ही ऐसे ब्यानबाजी करें कि जवानी में गलतियां हो जाती हैं तो फिर सोचिए, अपराधियों के मन में भय कहां से आएगा? आजादी के 75 साल बाद भी अगर आदमी को इंसाफ के लिए दरदर भटकना पड़ रहा हो, इंसाफ के बदले केवल उसे तारीख पे तारीख मिल रही हो तो यह बड़े अफसोस की बात है. दरअसल, हमारे देश का सिस्टम ढीलतंत्र है. आतंकी घटनाओं, सामूहिक हत्याओं, बड़े पैमाने पर हिंसा, बलात्कार, दुष्कर्म, कत्ल, दंगे सरीखे जघन्य अपराधों में भी ऐसा होता है. देश की अदालतों पर मुकदमों का बो?ा, जजों के खाली पद, नई अदालतें बनाने के वादे, सब मुंहबाए सरकार से उम्मीद लगाए देख रहे हैं. 2014 के फरवरी में जारी किए गए बीजेपी के घोषणापत्र में कहा गया था कि अगर वह सरकार में आई तो अदालतों की संख्या ही नहीं, बल्कि जजों की संख्या भी तेजी से बढ़ाई जाएगी, ताकि लंबित मुकदमों का बो?ा हटाया जा सके.

लेकिन अगर ऐसा होता तो भारतीय न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति को ले कर सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच टकराव न बढ़ता. बड़ी संख्या में लंबित मामलों के निबटान के लिए सुप्रीम कोर्ट लगातार जजों की संख्या को बढ़ाने की बात कह रहा है पर ऐसा किया नहीं जा रहा है. जजों की संख्या बढ़ाने की जरूरत क्यों है वर्तमान में देशभर में लंबित मामलों की संख्या साढ़े 4 करोड़ से ज्यादा है जिन की जल्दी सुनवाई के लिए जजों की संख्या को बढ़ाया जाना जरूरी है. पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक, देशभर के न्यायालयों में 15 सितंबर, 2021 तक लंबित मामलों की संख्या 4.5 करोड़ से ज्यादा थी. अध्ययन के मुताबिक, देश में 2010 और 2020 के बीच लंबित मामलों की संख्या 2.8 फीसदी की दर से सालाना वृद्धि हुई. आंकड़ों के मुताबिक, अगर इस के बाद कोई नया मामला दर्ज नहीं होता तो भी सुप्रीम कोर्ट को सभी बचे मामलों को निबटाने में 1.3 वर्ष का समय लगता. वहीं हाईकोर्ट और सबऔर्डिनेट कोर्ट को लंबित मामलों को खत्म करने में 3.3 वर्ष का समय लगता.

लौकडाउन में पारिवारिक विवादों का आंकड़ा बढ़ा तो तलाक का मामला कोर्ट तक जा पहुंचा जबकि 6,347 प्रकरण पहले से लंबित हैं. कानूनी विषय के जानकार कहते हैं कि क्रिमिनल अपील में देरी और बैकलौग का बो?ा एक बड़ा मसला है. ‘जल्दी’ (जस्टिस, एक्सेस एंड लोवरिंग डिलेस इन इंडिया) पहल की प्रमुख दीपिका किन्हल का कहना है कि 1958 में पहले विधि आयोग ने पाया था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के पास 3,727 अपीलें पैंडिंग थीं. लेकिन आज यह आंकड़ा बढ़ कर 16,276 अपीलें हो चुका है. देश के लगभग सभी हाईकोर्ट्स की ऐसी ही स्थिति है. मध्य प्रदेश में 87,617 अपीलें पैंडिंग हैं, पंजाब और हरियाणा में 68,956 और राजस्थान में 49 हजार से ज्यादा व पटना में 36,818 केस पैंडिंग हैं. इस से यह पता चलता है कि फैसले को ले कर कितनी बड़ी परेशानी है.

इस तरह से देश के सभी हाईकोर्ट्स में 10 साल से 2.5 लाख केस पैंडिंग चल रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट सालाना औसतन 6,000 मामलों पर फैसला देता है. अगर सुप्रीम कोर्ट इन सभी क्रिमिनल अपीलों का निबटारा करने की सोचे तो कोई दूसरा काम किए बगैर उसे 40 साल से ज्यादा समय लगेगा. मथुरा, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल का कहना है कि देर से न्याय मिलना अकसर निरर्थक साबित होता है. एक घटना याद करते हुए उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति ने अपने बेटे की सड़क दुर्घटना में मौत हो जाने के 25 साल बाद मुआवजा लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि, ‘‘जज साहब, कृपया यह रकम आप अपने पास ही रख लीजिए.

25 साल पहले एक सड़क दुर्घटना में मेरे बेटे की मौत हो जाने के बाद मु?ो अपने पोतों की परवरिश और शिक्षा के लिए इन रुपयों की काफी जरूरत थी. लेकिन अब मु?ो ये रुपए नहीं चाहिए क्योंकि वे सभी अपनी जिंदगी में आगे बढ़ चुके हैं.’’ ‘डिलेड इन जस्टिस डिनाइड.’ यह एक इंग्लिश कहावत है. हमारे देश में न्याय इतना विलंब से मिल पाता है कि वह अन्याय के बराबर ही होता है. छोटेछोटे जमीन के टुकड़ों को ले कर 50-50 साल मुकदमे में निकल जाते हैं. फौजदारी के मामलों में तो स्थिति और भी गंभीर है. अपराध में मिलने वाली सजा से ज्यादा तो लोग फैसला आने के पहले ही काट चुके होते हैं. यह सब केवल इसलिए क्योंकि मुकदमे की सुनवाई और फैसले की गति बहुत सुस्त है. रूल औफ लौ इंडैक्स रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में प्रशासनिक एजेंसियां बेहतर प्रदर्शन नहीं करतीं और न्यायिक प्रणाली की गति बहुत धीमी है. इस की मुख्य वजह अदालतों में मामलों की बेतहाशा बढ़ती संख्या और कार्यवाही में होने वाली देरी है.

चुनौतियों का अंबार आज न्यायपालिका के समक्ष सब से बड़ी चुनौती अदालतों में मुकदमों के बो?ा को कम करना है और यह तभी संभव हो पाएगा जब न्यायालयों में कार्य अवधि की सीमा बढ़ाई जाएगी. विधि आयोग की सिफारिशों में इस बात पर गौर किया गया कि लंबित मुकदमों के निबटारे के लिए कोर्ट में छुट्टियों के दिनों में कटौती की जानी चाहिए. अमेरिकी विचारक अलेक्जैंडर हैमिल्टन ने कहा था, ‘‘न्यायपालिका राज्य का सब से कमजोर तंत्र होता है क्योंकि उस के पास न तो धन होता है और न ही हथियार. धन के लिए न्यायपालिका को सरकार पर आश्रित रहना पड़ता है और अपने लिए दिए गए फैसलों को लागू कराने के लिए उसे कार्यपालिका पर निर्भर रहना होता है.’’ विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत दुनिया में आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच सब से कम अनुपात वाले देशों में से एक है. अमेरिका और ब्रिटेन में 10 लाख लोगों पर करीब 150 न्यायाधीश हैं जबकि भारत में इतने ही लोगों पर मात्र 10 न्यायाधीश हैं.

राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की रिपोर्ट राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक बीते 3 दशकों में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है. अगर स्थिति ऐसी ही बनी रही तो अगले 30 सालों में देश की विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या 15 करोड़ तक पहुंच जाएगी. साल 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय अदालतों में 3.3 करोड़ से भी अधिक मामले अभी भी विचाराधीन हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि कोर्ट में छुट्टियों के चलते यह आंकड़ा बढ़ता ही जाता है. लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर अदालतों में इतनी छुट्टियां मिलती क्यों हैं और छुट्टियों का नियम आया कहां से? लोगों का कहना है कि अदालतों में गर्मी की छुट्टियों का नियम अंगरेजों के जमाने से चला आ रहा है. गरमी की छुट्टियों में अंगरेज जज किसी पहाड़ी इलाके या फिर इंग्लैंड में छुट्टी बिताने जाया करते थे. वकील और मानवाधिकार असीम सरोड़े का कहना है कि पुराने नियमों और व्यवस्था को ढोते रहने से अच्छा नई व्यवस्था लागू होनी चाहिए. हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि अदालतों में छुट्टियां जरूरी हैं. जस्टिस पारानथमन कहते हैं, ‘‘छुट्टियां कोई मुद्दा नहीं है. अदालतों में लंबित मामले हैं क्योंकि किसी तरह की जवाबदेही नहीं है. हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. निचली अदालतों में अगर कोई फैसला 2 साल में नहीं आता है तो लोग उन से देरी को ले कर सवाल करते हैं.

लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट से यह सवाल पूछने वाला कोई नहीं है. ऐसे में कानूनी मामले 20 साल तक चलते रहते हैं.’’ दिल्ली हाईकोर्ट के सभी केसेज को ले कर की गई एक स्टडी में पता चला कि 70 प्रतिशत देरी के मामलों में वकीलों ने 3 बार से ज्यादा समय मांगा था. इस से साफ है कि जब तक जज ऐसे वकीलों पर सख्त नहीं होते, अपील की पैंडेंसी बनी रहेगी. आज बदलाव के दौर में न्यायपालिका में समय की पाबंदी तय कर के लोगों को इंसाफ देना वक्त की सब से बड़ी जरूरत बन गया है जिस से लोगों का अदालतों पर विश्वास बढ़ेगा तथा कानूनी शिकंजा कसने, सजा की दर बढ़ने से अपराधों में भी अपनेआप नकेल कस जाएगी. निचली अदालतों से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों के ढेर के साथ लोगों को न्याय मिलने में देरी या फिर न्याय न मिलने की अन्य वजहें भी हैं- देश की कम से कम 85 फीसदी से भी ज्यादा आबादी ऐसी है जिस के पास कोर्ट में मुकदमों की पैरोकारी के लिए या तो पर्याप्त धन नहीं है या फिर इस की वजह अज्ञानता या न्यायालयों का दूर होना है. इस के बावजूद उन के विवाद ऐसे हैं जिन में उन्हें न्याय मिलना चाहिए. पेशे से वकील रह चुके राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अदालतों की भाषा को ले कर महत्त्वपूर्ण बात कही थी. 6 मार्च को औल इंडिया स्टेट जुडिशियल अकैडेमीज डायरैक्टर्स, रिट्रीट में राष्ट्रपति ने कहा था,

‘‘भाषाई सीमाओं के कारण कोर्ट में वादी को अपने ही मामलों में लिए गए फैसलों को सम?ाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.’’ उन्होंने सु?ाव देते हुए कहा था, ‘‘सभी उच्च न्यायालय अपनेअपने प्रदेश की लोकल भाषा में जनहित के फैसलों का प्रामाणिक अनुवाद प्रकाशित और उपलब्ध कराएं.’’ इस बात को ले कर अकसर बहस होती है कि पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा हो या नहीं. नई शिक्षा नीति में सिफारिश भी की गई कि 5वीं क्लास तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का मीडियम बनाया जाए लेकिन यह सवाल नहीं उठाया जाता कि अदालती भाषाएं आम आदमी के सम?ाने योग्य क्यों नहीं बनाई जाती हैं? 1950 से ही विधि आयोग की जितनी भी रिपोर्ट्स आईं, उन में जजों की संख्या बढ़ाने पर गौर किया गया था. अदालतों में मुकदमों की फाइलें साल दर साल बढ़ती जा रही हैं जो देश की न्यायिक व्यवस्था के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं. सरकार ने इस ओर ज्यादा ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंकि इस से उस के वोटबैंक पर कोई खास असर नहीं पड़ता. न्याय का शासन जोकि लोकतंत्र का अहम आधार है तेजी से पंगु होता जा रहा है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि समय पर न्याय करने में सिस्टम की अक्षमता के चलते अभियुक्त को कैद में रखना अन्याय है. राजकुमार के केस में यह अन्याय तो और भी बढ़ गया. न्याय मिलने में देरी से आम आदमी का न्यायिक प्रक्रिया पर से विश्वास उठता जा रहा है और लोग इस व्यवस्था से अब चिढ़ने लगे हैं. इस से समाज में आपराधिक मामले बढ़ने लगे हैं और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग छोटा या बड़ा गुनाह करते हुए सजा की परवा नहीं करते. जो पैसे वाले बड़े लोग हैं वे तो कैसे भी कर के बच निकलते हैं. लेकिन आम आदमी, जिस के पास न पावर है और न ही पैसा, उन के मुकदमे की फाइलें कहीं भीड़ में नीचे दब जाती हैं जिस से मुकदमेबाजी में फंसे लोगों में हताशा और निराशा बढ़ रही है. इस का सामाजिक नुकसान बहुत बड़ा है और इस का अनुमान लगाना भी मुश्किल है. इस समस्या के कई पहलू हैं. जजों की संख्या बढ़ाना उन में से एक है लेकिन सिर्फ जजों की संख्या बढ़ाना ही काफी नहीं होगा. न्याय की गुणवत्ता पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है. निचली अदालतों में जितने सक्षम जज होंगे, ऊपरी अदालतों पर उतना ही कम बो?ा पड़ेगा. अधिकतर मुकदमे निम्न और मध्य वर्ग के लोगों के होते हैं और ये मुकदमे लड़े भी निचली अदालतों में जाते हैं.

इन में से कुछ ही फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालतों का रुख करते हैं और इस की वजह है साधनों की कमी. यानी मुकदमों का ढेर मुख्य रूप से निचले स्तर पर है और किसी भी सम?ादार शासक को समाज में शांति, स्थिरता और संतोष बनाए रखने के लिए सब से पहले इस का खयाल रखना चाहिए. इसलिए यह जरूरी है कि न्यायिक व्यवस्था को निचले स्तर पर ताकतवर बनाया जाए और फिर संख्या को ऊपरी स्तर पर उसी अनुपात में बढ़ाया जाए. हमारे देश में न्याय की कई शाखाएं हैं, जैसे अलगअलग टैक्स ट्रिब्यूनल, औद्योगिक अदालतें, कंपनी लौ बोर्ड, उपभोक्ता और सहकारिता अदालतें, राजस्व ट्रिब्यूनल और पारिवारिक अदालतें. इस के अलावा कई मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतें और विशेष अदालतों का भी गठन किया जाता है.

साथ ही, अदालतें लोक अदालतें भी आयोजित करती हैं ताकि दोनों पक्ष परस्पर सहमति से विवाद का हल निकाल सकें. इस के अलावा कई पंचाट भी हैं जो सम?ातों और आपसी सहमति के आधार पर मामले सुल?ाते हैं. लेकिन इन सब के बावजूद मुकदमों की बढ़ती संख्या पर कोई खास असर नहीं है. हालांकि ऐसा नहीं है कि मुकदमे पूरी तरह से खत्म हो जाएंगे. व्यवस्था कैसी भी हो, मुकदमे तो रहेंगे ही. दीवानी और फौजदारी मामलों का कई सालों तक अदालतों में लटके रहना समाज की स्थिरता और उन्नति के लिए नुकसानदेह है. अन्याय और निराशा की भावना निश्चित तौर पर अराजकता को भड़काने का काम करेगी. क्योंकि समाज की उन्नति के लिए जरूरी है कि समाज में स्थिरता और शांति बनी रहे. विदेशों में खुशहाली का कारण समय व नियमानुसार केसों का निबटारा माना जाता है. इसलिए अब भारत को भी उचित कदम उठाने चाहिए.

हमारे देश में हजारों केस सुनवाई के इंतजार में न्यायालयों में लंबित पड़े हैं. लाखों लोग न्याय के लिए राह ताक रहे हैं. अदालतों में लंबित केसों का सब से बड़ा कारण जजों की कमी माना जा रहा है. एडवोकेट पीयूष जैन का कहना है, ‘‘आज की कानून व्यवस्था में अकसर प्रतिवादी को नोटिस के बाद सुनवाई में महीनों लग जाते हैं. जबकि समय निर्धारित प्रक्रिया में अधिकारी की जवाबदेही, नियमों का विधिवत पालन, पेपरलैस प्रक्रिया को मान्यता मिलने से कार्य जल्द निबट सकते हैं. इसी तरह लोअर कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक केस के निबटारे की समयसीमा तथा जजों की अपने फैसलों के प्रति जवाबदेही तय होनी चाहिए.’ उन का यह भी कहना है कि 22वीं सदी में 19वीं सदी के कानूनों, न्यायपालिका में बदलाव की प्रक्रिया अपनाई जाए. इसी तरह वकीलों की बारबार सुनवाई टालने की प्रथा को भी रोकना होगा.

विधि की एक स्टडी में पता चला कि दिल्ली हाईकोर्ट में 70 प्रतिशत देरी के मामलों में वकीलों ने 3 बार से ज्यादा वक्त मांगा था. विधि सैंटर फौर लीगल पौलिसी की दीपिका कहती हैं, ‘‘राजकुमार को संविधान में दिए अधिकार का इस्तेमाल करने में 4 दशक लग गए. जबकि अन्य को मौका ही नहीं मिला. यह मानवधिकार उल्लंघन की श्रेणी में आता है.’’ ‘तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख.’ ‘दामिनी’ फिल्म का यह डायलौग भारत की न्याय व्यवस्था का सच बताने के लिए पर्याप्त है. भले ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश यह कहें कि जब चीजें गलत होती हैं तो लोगों को यह भरोसा होता है कि न्यायपालिका से उन्हें राहत मिलेगी. यह सही नहीं है क्योंकि मुसीबत में पड़े लोग जब न्यायालय के पास जाते हैं तो अकसर उन्हें तारीख पे तारीख के सिलसिले से जू?ाना पड़ता है. लोग अपनी नाक के नीचे ही देर और अंधेर का शिकार हैं. न्याय में देरी से केवल आर्थिक विकास ही प्रभावित नहीं होता, बल्कि सामाजिक विकास पर भी बुरा असर पड़ता है. इस के अलावा लोगों का लोकतंत्र और उस की व्यवस्थाओं पर से भरोसा उठता जाता है. इतना ही नहीं, इस से कानून के शासक को गंभीर चोट पहुंचती है और इस के नतीजे में अराजक तत्त्वों, अपराधियों और देशविरोधी ताकतों को बल मिलता है. ये सब जानते हैं कि सड़कों पर उतर कर अराजकता फैलाने, रास्ते रोकने, पुलिस थानों पर हमला करने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं.

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