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Hindi Satire : विवाह करवाने वाले पंडित

Hindi Satire : पंडितजी की जिंदगी में दक्षिणा वो ईंधन है, जो उन के मंत्रों की गाड़ी को चलाता है. अब दक्षिणा का रेट कार्ड भी बड़ा रोचक होता है. इसलिए एक सलाह है-पंडितजी को अगली बार बुलाओ तो पहले दक्षिणा का बजट फिक्स कर लेना वरना जेब हलकी होने में वक्त नहीं लगेगा.

पंडित दो प्रकार के होते हैं. एक पोथी पढ़़े हुए और दूसरे ढाई आखर पढ़े हुए. नाई का काम बाल काटना है और जेबकतरे का काम जेब काटना. वैसे ही पंडित का काम पूजापाठ करना, मंत्रोच्चारण कर विवाह करवाना आदि होता है. इस के लिए उन्हें मजबूरी में दक्षिणा लेनी पड़ती है. घोड़ा घास से यारी करे तो खाए क्या. पंडितजी का धंधा मस्त चल रहा है. आगे भी चलता रहेगा. जन्म, विवाह और मृत्यु हमेशा चलते रहेंगे. और ये तीनों संस्कार पंडितजी के कर कमलों से ही संपन्न होंगे. उन्हें दक्षिणा मिलती रहेगी.

‘बिन फेरे हम तेरे’ भारत में नहीं चलता. हां, भारतीय फिल्मों में यह खूब चलता है. हकीकत में पंडित से फेरे पड़वाना अनिवार्य होता है. पिछले दिनों मुझे एक विवाह कार्यक्रम में शिरकत करनी पड़ी. विवाह मंडप में एनआरआई दूल्हादुलहन बैठे थे. बीच में हवनकुंड था.

पंडितजी ने सब से पहले अपना परिचय दिया, बताया कि वे चार विषयों में एमए और पीएचडी हैं. मतलब वे पोंगा पंडित नहीं, असली पोथी पड़े हुए पंडित हैं. अपनी योग्यता बता कर उन्होंने समारोह में अपनी धाक जमा ली थी.

गेरूआ कलर का कुरता पहन रखा था. वे इस पोशाक में बगुले जैसे लग रहे थे. गेरूआ कलर के परिधान का आतंक उपस्थित लोगों पर खूब पड़ रहा था.

धीरेधीरे सभा में उन का प्रभामंडल स्थापित हो गया था. विवाह की कार्रवाई आगे बढ़ती जा रही थी. जैसाजैसा पंडितजी निर्देशित करते जा रहे थे वैसावैसा दूल्हादुलहन और उन के सहायक कठपुतली की तरह करते जा रहे थे.

कभी कहा जाता कि हाथ में फूल लो और अब सिक्का लो, कंकुम लो, चावल लो, उस में थोड़ा पानी छिड़को आदि. इस प्रक्रिया में बारबार सिक्कों की जरूरत पड़ रही थी. अब कैशलैस डिजिटल के इस दौर में सिक्के कहां मिलते. न पहले आगाह किया गया था. फिर भी कहीं से सिक्कों को जुटा कर मांग की आपूर्ति की जा रही थी.

जहां थोड़ीबहुत चूक होती, वे पश्चिमी संस्कृति पर बरसने लगते. माइक उन के हाथ में था ही. तीनचार दफा उन्होंने पश्चिमी संस्कृति को गरियाने में अपना और उपस्थित जनों का अमूल्य समय नष्ट किया. अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताने के लिए पश्चिमी संस्कृति को गरियाने का आजकल फैशन भी है. जबकि, विश्वगुरु के बच्चों को उसी संस्कृति की शरण में शिक्षा और रोजगार पाने के लिए जाना पड़ता है.

पंडितजी भी निज संस्कृति की लकीर के फकीर थे. बड़ी लकीर को मिटाए बिना इन तोतों का काम नहीं चलता. बड़ी लकीर खींचना कठिन काम है. सरल काम है बड़ी लकीर को मिटाना. हो यह रहा है कि ये न तो बड़ी लकीर मिटा पा रहे हैं और न अपनी लकीर बड़ी कर पा रहे हैं. कुछ देर बाद यह लो, वह लो, यह करो, वह करो और स्वाहास्वाहा होने लगता था.

दूल्हादुलहन, बकौल कबीर के, ढाई आखर प्रेम के पढ़े हुए पंडित थे. लेकिन उन ढाई आखर पढ़े हुओं को सामाजिक मान्यता पोथी वाला पंडित ही देता है. असली पंडित तो पोथी वाले पंडितजी ही थे. ढाई आखर वाले पंडितों पर पोथी वाले पंडितजी भारी पड़ रह थे. इस या उस क्रियाविधि में बारबार सिक्का निकालने को कहा जा रहा था.

पंडितजी जानते थे कि जब लोहा गरम हो तब ही उस पर चोट करना चाहिए. तभी वांछित फल की प्राप्ति होती है. दूल्हादुलहन जब एनआरआई हों तो पंडितजी अधिक दक्षिणा झटकने का सुअवसर पा ही जाते हैं. ऐसे जजमान कम ही हत्थे चढ़ते हैं.

ऐसे अवसर को कोई मूरख ही होगा जो खोना चाहेगा. विवाह में जब लाखों का खर्च हो रहा हो तो कुछ हजार खींच भी लिए तो कोई गैरवाजिब नहीं. जब गंगा बह रही हो तो पंडितजी उस में हाथ क्यों न धोएं. लगभग अंत में लेकिन फेरों के पहले पंडितजी ने मंडप में विधिपूर्वक वर और वधू दोनों पक्षों से लगभग 6 हजार रुपए रखवा लिए.

वे विवाह के नाम पर तीसेक हजार तो पहले ही झटक चुके थे. उन्हें मालूम था कि रुपए की औकात ही क्या है. रुपए को डौलर के अधीन रहना पड़ता है. डौलर की जेब में आज की तारीख में छियासी रुपए आ जाते हैं और डौलर कमजोर होने वाला नहीं.

इस तरह हंसीखुशी विवाह संपन्न हुआ. घरातीबराती और पंडितजी सभी खुश थे. कार्यक्रम की सराहना की गई. सब ने खापी कर अपनीअपनी राह पकड़ी.

लेखक : गोविंद सेन

LoP : राहुल गांधी को सुप्रीम फटकार, क्या था राहुल की तरफ से जवाब

LoP : राहुल गांधी फिलहाल बड़े आक्रामक मूड में हैं. बिहार चुनाव हो या उपराष्ट्रपति का मुद्दा या फिर ट्रंप के टैरिफ पर सरकार को घेरना, वे हर जगह सरकार को कठघरे में खड़ा करने का कोई मुद्दा नहीं छोड़ते हैं.

पर भारतीय सेना पर की गई टिप्पणी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी की इसी आक्रामकता पर लगाम लगा दी है. दरअसल, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान भारतीय सेना के खिलाफ कथित टिप्पणी के मामले में अपने खिलाफ मानहानि को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.

याद रहे कि अपनी वर्ष 2023 की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दावा किया था कि एक पूर्व सेना अधिकारी ने उन्हें बताया था कि चीन ने 2,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है. उन के इस बयान को ले कर सियासी घमासान छिड़ गया था और उन के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया गया था.

याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, ‘आप को कैसे पता चला कि चीन ने 2,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है?’ और इस पर जोर देते हुए कहा, ‘अगर आप सच्चे भारतीय हैं, तो आप ऐसा नहीं कहते.’ कोर्ट ने पूछा कि क्या आप के पास कोई विश्वसनीय जानकारी है? जब सीमा पार कोई विवाद होता है, तो क्या आप यह सब कह सकते हैं? आप संसद में सवाल क्यों नहीं पूछते?

सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को फटकार लगाते हुए कहा कि आप विपक्ष के नेता हैं तो आप ये बातें क्यों कहेंगे? आप ये सवाल संसद में क्यों नहीं पूछते?

इस के जवाब में राहुल गांधी की तरफ से पेश हुए अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि उन्होंने संसद में बोलने की छूट पाने के लिए चुनाव नहीं लड़ा. अनुच्छेद 19(1)(ए) राहुल गांधी को सवाल पूछने की इजाजत देता है.

वैसे यह बयान गलत है या नहीं, इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से सफाई देने को नहीं कहा है.

Sadhvi Pragya : मालेगांव में मरे और घायलों का दोषी कोई भी नहीं

Sadhvi Pragya : 17 साल बाद मालेगांव ब्लास्ट केस में साध्वी प्रज्ञा समेत सभी आरोपी बरी हुए. 2008 में हुए धमाके में 6 मरे, 100 से ज्यादा घायल हुए, मगर मगर इतने साल बाद दोषी कोई नहीं साबित हुआ. जांच एजेंसियों के सैकड़ों सबूत, गवाह फेल हो गए. सवाल यह कि पीड़ित परिवारों को इंसाफ कब मिलेगा?

बीते 17 साल से चर्चा में रहे मालेगांव बम ब्लास्ट मामले में मुंबई की विशेष एनआईए अदालत ने भाजपा की पूर्व सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया. यानी ब्लास्ट किस ने करवाया, निर्दोष लोगों की जानें किस ने लीं, 17 साल बाद भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है. कोई दोषी नहीं.

29 सितम्बर 2008 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव में एक खड़ी मोटरसाइकिल पर बम धमाका हुआ. आसपास खड़े 6 लोगों के परखच्चे उड़ गए और 101 लोग बुरी तरह घायल हुए. मामले की एफआईआर मालेगांव आजाद नगर पुलिस थाने पर हुई. जांच लम्बी चली और स्थानीय पुलिस से ले कर देश की बड़ीबड़ी जांच एजेंसियों ने खूब गवाह और सबूत जुटा कर 14 लोगों को गिरफ्तार किया.

अभी तक देश में होने वाली तमाम आतंकी घटनाओं और बम विस्फोटों के दोषी मुसलमान हुआ करते थे, मगर यह पहली बार था कि मुंबई एंटी टैररिस्ट स्क्वाड (एटीएस) ने इस भयानक विस्फोट के पीछे दक्षिणपंथी आतंकियों का हाथ पाया. इस कांड में एक भगवाधारी सन्यासिनी और सेना के कर्नल का नाम सामने आने पर लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली.

21 अक्तूबर को जब स्थानीय पुलिस से महाराष्ट्र की एटीएस ने मामले की जांच अपने हाथ में ली, उस समय हेमंत करकरे एटीएस चीफ थे. हेमंत करकरे एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी थे, जिन्होंने मालेगांव बम धमाकों की जांच में सक्रिय भूमिका निभाई थी. बाद में 26/11 मुंबई आतंकी हमले के दौरान वे शहीद हो गए.

23 अक्तूबर को एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और 3 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया. मालेगांव में जिस मोटरसाइकिल पर बम रखा गया था, वह प्रज्ञा ठाकुर के नाम पंजीकृत थी. नवंबर 2008 में सेना के लैफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित को गिरफ्तार किया गया. आखिर एटीएस को पुख्ता सबूत मिले तभी उस ने सेना पर हाथ डालने की जुर्रत की. मगर इस के बाद 26/11 का भयावह आतंकी हमला हुआ जिस में एटीएस चीफ हेमंत करकरे कथित तौर पर आतंकी की गोलियों का शिकार हो कर शहीद हो गए.

हेमंत करकरे के निधन के बाद मालेगांव बम धमाके की जांच ढीली पड़ गई. 20 जनवरी को एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और लैफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित सहित 11 आरोपियों के खिलाफ विशेष अदालत में आरोप पत्र दाखिल किये. आरोपियों पर मकोका, यूएपीए और आईपीसी की कठोर धाराओं में आरोप लगाए गए थे. दो व्यक्तियों – रामजी उर्फ रामचंद्र कलसांगरा और संदीप डांगे को वांछित अभियुक्त बनाया गया था. अदालत में लम्बी जिरह चली. मगर जुलाई 2009 में विशेष अदालत ने कहा कि इस मामले में मकोका के प्रावधान लागू नहीं होते और अभियुक्तों पर नासिक की अदालत में मुकदमा चलाया जाए.

अगस्त में महाराष्ट्र सरकार ने विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ बम्बई उच्च न्यायालय में अपील दायर की. बम्बई उच्च न्यायालय ने विशेष अदालत का आदेश पलट कर मकोका को फिर लागू कर दिया. तब पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर ने उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का रुख किया.

इस बीच फरवरी 2011 में एटीएस मुंबई ने एक और व्यक्ति प्रवीण मुतालिक को गिरफ्तार किया. इस तरह मामला दक्षिणपंथी चरमवाद की तरफ बढ़ता दिख रहा था और कुछ अन्य की गिरफ्तारियां होने को थीं कि अचानक राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने अप्रैल माह में जांच अपने हाथ में ले ली. एनआईए ने पाया कि विस्फोट की योजना ‘अभिनव भारत’ नामक हिंदू चरमपंथी संगठन से जुड़े सदस्यों ने बनाई थी. जिस से धन सिंह और लोकेश जैसे लोगों के अलावा सेना के कई लोग जुड़े थे, जिस में कर्नल पुरोहित पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे. इस तरह कुल गिरफ्तारियां 14 हो गईं.

गौरतलब है कि एटीएस और एनआईए दोनों ही देश की सर्वोच्च जांच एजेंसियां हैं. एनआईए ने भी इस मामले में खूब सबूत और गवाह जुटाए. एनआईए तो बिना पुख्ता जानकारी के किसी पर हाथ नहीं डालतीं. इस की जांच पर देश की अदालतें भरोसा करती हैं और नागरिकों को न्याय की आस बंधती है. फिर ऐसा क्यों हुआ कि इतनी बड़ीबड़ी जांच एजेंसियां, अपनी लम्बी जांचों, सैकड़ों गवाहों और सबूतों को जुटाने और अदालत में 17 साल मुकदमा लड़ने के बाद किसी को भी सजा तक नहीं पहुंचा पाईं? कैसे 17 साल की जांच पर पानी फिर गया? और क्यों अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया?

यह जांच एजेंसियों की नाकामी है या देश की सरकार का दबाव कि एजेंसियों ने मामले को खुद ही इतना लचर कर दिया कि आरोपियों के खिलाफ मामला अदालत में टिक ही नहीं पाया. जब तमाम सबूत इकट्ठा किए गए थे तो अदालत में सबूतों का अकाल पड़ गया.

गौरतलब है कि जब एनआईए ने विशेष अदालत में अपना आरोप पत्र दाखिल किया तब आरोपियों के ऊपर से मकोका हटा दिया गया था, लिहाजा 7 आरोपियों को तो तुरंत क्लीन चिट मिल गई. 25 अप्रैल 2017 में बम्बई उच्च न्यायालय ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भी जमानत दे दी. 21 सितंबर को कर्नल पुरोहित को उच्चतम न्यायालय से जमानत मिल गई. इन दो मुख्य आरोपियों को जमानत मिलते ही साल का अंत होते होते सभी गिरफ्तार आरोपी जमानत पर बाहर आ गए.

कानूनी दांवपेंच चलते रहे. अक्तूबर 2018 में 7 आरोपियों प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित, रमेश उपाध्याय, समीर कुलकर्णी, अजय राहिरकर, सुधाकर द्विवेदी और सुधाकर चतुर्वेदी के खिलाफ आरोप तय हुए. उन पर आतंकी कृत्य के लिए यूएपीए के तहत और आपराधिक साजिश और हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत मुकदमा चला.

दिसंबर में मामला गवाही पर आया और 3 दिसंबर को मामले के पहले गवाह से पूछताछ के साथ सुनवाई शुरू हुई. अभियोजन पक्ष ने इस मामले में 323 गवाहों को जुटाया था, मगर इन में से 39 गवाह अदालत में अपने बयानों से मुकर गए. मुख्य बात यह रही एटीएस ने प्रमुख गवाहों के जो बयान धारा 164 के तहत एक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज किए थे, उन तमाम बयानों की ओरिजनल कौपियां कोर्ट की फाइलों से गायब हो चुकी थीं. उन की जगह कुछ फोटो स्टेट कौपियां कोर्ट फाइल में थीं, जिन की सत्यता पर कोर्ट भरोसा नहीं कर सकता था. यह बात फैसला देते समय कोर्ट ने भी कही कि अभियोजन पक्ष ने उन मजिस्ट्रेटों से भी पूछताछ नहीं की जिन्होंने उक्त लोगों के बयान दर्ज किए थे.

इन बयानों में दो अहम गवाह भी शामिल थे, जिन्होंने गायब बयानों में कथित तौर पर मजिस्ट्रेट को बताया था कि उन्होंने आरोपियों को मुसलमानों पर बदला लेने की योजना बनाने और एक अलग संविधान व झंडे के साथ एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने की ज़रूरत पर चर्चा करते सुना था. वे भी इस मामले के 39 मुकर गए गवाहों में शामिल थे.

आखिरकार अभियोजन पक्ष ने गवाही बंद करने का फैसला किया. जुलाई 2024 तक बचाव पक्ष के आठ गवाहों से किसी तरह जिरह पूरी हुई. 12 अगस्त 2024 को विशेष अदालत ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत अभियुक्तों के अंतिम बयान दर्ज किए. 31 जुलाई 2025 को विशेष एनआईए न्यायाधीश एके लाहोटी ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित सहित सभी 7 आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि दोषसिद्धि के लिए कोई ‘ठोस और विश्वसनीय’ सबूत नहीं हैं. अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है.

यह हास्यास्पद है कि इतनी बड़ीबड़ी जांच एजेंसियां, अपनी लम्बीलम्बी जांचों, सैकड़ों गवाहों और सबूतों को जुटाने और अदालत में 17 साल मुकदमा लड़ने के बाद किसी को भी सजा तक नहीं पहुंचा पाईं. 17 साल की जांच पर पानी फिर गया. अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया. क्या यह जांच एजेंसियों की नाकामी है या देश की सरकार का दबाव कि एजेंसियों ने मामले को इतना लचर कर दिया कि आरोपियों के खिलाफ मामला अदालत में टिक ही नहीं पाया. आखिर जब तमाम सबूत इकट्ठा होने के बाद गिरफ्तारियों हुई थीं, तो अदालत में सबूतों का अकाल कैसे पड़ गया?

अदालत के फैसले के बाद दक्षिणपंथी खेमा सीना चौड़ा कर के दहाड़ रहा है कि 17 साल बाद न्याय हुआ. सनातन की जीत हुई. हिंदू कभी आतंकी नहीं हो सकता, आदिआदि. मगर जो बम धमाके में मर गए, जो घायल हुए, जिन के अंगभंग हो गए, उन का क्या होगा? क्या उन्हें न्याय मिला?

Shibu Soren : सही मायनों में ‘अर्बन नक्सली’ थे शिबू सोरेन, झारखंड को दिखाया नया रास्ता

Shibu Soren : अर्बन नक्सली दक्षिणपंथियों द्वारा गढ़ा गया शब्द है जिसे वे शिक्षित अहिंसक बुद्धिजीवियों को बदनाम करने और उन के प्रति अपनी पौराणिक घृणा प्रदर्शित करने के लिए इस्तेमाल किया करते हैं. शिबू सोरेन इस लिहाज से अर्बन नक्सली ही कहे जाएंगे जिन्होंने महाजनी और सामंती चंगुल से आदिवासियों को मुक्त कराने के लिए जिंदगी भर लड़ाई लड़ी और जीते भी. 8 बार दुमका से सांसद रहे गुरुजी के नाम से मशहूर झारखंड के संस्थापक शिबू सोरेन 3 बार झारखंड के मुख्यमंत्री भी रहे थे.

शिबू सोरेन की जिंदगी हिंदी फिल्मों के नायकों सरीखी ही थी जिन के गांधीवादी पिता सोबरन मांझी की हत्या 1957 में सूदखोर महाजनों ने करवा दी थी. तब 13 साला इस किशोर ने बदला लेने की ठान ली लेकिन बदला व्यक्तियों से नहीं बल्कि व्यवस्था से लिया क्योंकि सवाल एक सोबरन की मौत का नहीं बल्कि लाखों शोषित आदिवासियों का था. इस हादसे से उन्हें समझ आ गया था कि हथियार और व्यक्तिगत हिंसा इस रोग का इलाज नहीं, बल्कि इलाज है लोगों को एकजुट कर सिस्टम को बदलना, जिस में अंतत वे सफल भी रहे.

साल 1970 में संगठित धनकटनी आंदोलन इस की शुरुआत था जिस ने सूदखोरों और महाजनों को हिला कर रख दिया था. हिंदी फिल्म मदर इंडिया के सुक्खी लाला की तर्ज पर सूदखोर महाजन आदिवासियों की उपज का बड़ा हिस्सा हड़प लेते थे और उन्हें भारी ब्याज पर कर्ज दे कर लूटते रहते थे. अनपढ़ अशिक्षत आदिवासी जहां महाजन चाहे वहां अंगूठा लगाने मजबूर को रहते थे. शिबू सोरेन का यह आंदोलन एक नहीं कई बिरजू पैदा करने वाला साबित हुआ था.

1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन करने का शिबू सोरेन का मकसद आदिवासियों की ताकत का राजनीतिकरण करना था. उन के लम्बे आंदोलन और लड़ाई के चलते 2000 में झारखंड को पृथक राज्य का दर्जा मिला और वे मार्च 2005 मुख्यमंत्री बने. अब तक झारखंड के आदिवासी अपनी ताकत और अधिकार दोनों से वाकिफ हो चुके थे. खुद शिबू सोरेन एक सधे हुए सियासी खिलाड़ी की तरह दोनों गठबंधनों का हिस्सा रहे. इस दौरान हालांकि उन पर कई आरोप भी लगे और कुछ दिन जेल की हवा भी उन्होंने खाई.

4 अगस्त को दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में आखिरी सांस लेने वाले इस दिशोम गुरु के मन में कोई मलाल रहा होगा ऐसा लगता नहीं क्योंकि वाकई में वे झारखंड और आदिवासियों को एक नया रास्ता तो दिखा गए हैं जिस पर इन दिनों उन के मुख्यमंत्री पुत्र हेमंत सोरेन चल रहे हैं जिन की भी लड़ाई भगवा गैंग से ही है जो उन के पिता शिबू सोरेन जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों को अर्बन नक्सली के ख़िताब से नवाजा करती है.

Slow Travel : स्पौट घूमने से अधिक उन्हें महसूस करें

Slow Travel : बड़े पर्यटन स्थलों की भीड़भाड़ में ट्रैवल को सही से महसूस नहीं किया जा सकता. इस के लिए स्लो ट्रैवल नया ट्रैंड बन गया है, जिस में जगह घूमने से अधिक महसूस की जाती है.

एक समय जब लोग उत्तराखंड में पहाड़ पर घूमने जाते थे तो मसूरी उन की सब से पसंदीदा जगह होती थी. वहां माल रोड, क्लौक टावर पर बहुत सारे होटल हैं, उन में ही वे रुकते थे. वहां से लाल टिब्बा और लैंडोर जैसी जगहें नजदीक थीं. अब माल रोड और क्लौक टावर जैसी जगहों पर भीड़भाड़ बढ़ गई है. पर्यटक उन जगहों पर रुकना नहीं चाहते. पर्यटकों के बदलते रुझान ने इस तरह की जगहों को विकसित करना शुरू कर दिया है जो शहर से दूर हैं.

इसी तरह की एक जगह झड़ीपानी है. वहां मसूरी कौटेज हैं. ये डुप्लैक्स बने कौटेज जैसे घर हैं जिन में अपना किचन, लौन है. 28 कौटेजों के समूह को कमल कौटेज के नाम से जाना जाता है. कभी यह नेपाल के राजा का महल होता था. इस के बाद अंगरेजों के समय में मिस ए फेयर नामक महिला ने इस को पहले लौन के रूप में विकसित किया. इस क्षेत्र को फेयर लौन के नाम से भी जाना जाता है.

अब यहीं पर खूबसूरत कौटेज बन गए हैं, जहां पर्यटक आराम से रहते हैं. इस के एक तरफ मसूरी है तो दूसरी तरफ देहरादून दिखता है. यहां क्लब हाउस भी है. वहां पर बिलियर्ड्स, स्नूकर, टेबल टैनिस, कैरम और कार्ड खेलने के साथ किचन की भी सुविधा है. जो लोग खाना बनाना नहीं चाहते वे खाना मंगवा कर खा सकते हैं. यहां रह कर मसूरी और आसपास घूमा जा सकता है.

यहां आने वाले ज्यादातर पर्यटक झड़ीपानी झरना देखने जाते हैं. वहां पैदल जाना पड़ता है. जो लोग पहाड़ पर ट्रेकिंग या हाईकिंग करने के शौकीन हैं उन को यह जगह खास पसंद आने वाली है. वहां रह कर उस जगह को महसूस किया जा सकता है. इस से दिल को सुकून मिलता है.

क्या है स्लो ट्रैवल

एक जगह पर ज्यादा समय बिताना, लोकल फूड, मार्केट और कल्चर को ठीक से समझने को स्लो ट्रैवल कहते हैं. आज के दौर में बहुत सारे ऐसे माध्यम हैं जिन के जरिए बिना कहीं जाए पर्यटन और इतिहास को जानासमझा जा सकता है. अगर आप लखनऊ घूमने के लिए आते हैं तो पुराने पर्यटक स्थल- इमामबाड़ा, रैजीडैंसी और घंटाघर आदि जैसे स्थानों को देखने में रुचि कम हो गई होगी. पर्यटक कोई ऐसी जगह जाना चाहता है जहां के बारे में लोगों को कम पता हो. यह जगह कोई खाने की चीज मिलने का केंद्र हो सकता है, कोई बाजार हो सकता है, कोई घूमने की जगह भी हो सकती है.

स्लो ट्रैवल लोकल जगह को गहराई से देखने और यात्रा के अनुभव को अधिक से अधिक तरह से शेयर करने का होता है. यह आज की भागदौड़भरी जिंदगी में से सुकून के पलों को तलाशने जैसा होता है. लोग बड़े होटल और महंगी जगह पर रुकने के बजाय भीड़भाड़ से अलग थोड़ा शांत जगह पर रहना पसंद करते हैं. पहले जब लोग पहाड़ पर रुकने जाते थे तो उन की चाहत होती थी कि मुख्य बाजार जैसे माल रोड के होटल में रुकें. अब माल रोड वाली जगहों पर भीड़भाड़ बढ़ गई है. ऐेसे में पर्यटक बड़े शहर से दूर शांत जगह पर रहना चाहते हैं. ऐसे में बड़े रिजौर्ट कई बार काफी महंगे होते हैं. अब छोटेछोटे घर, जो कौटेज टाइप के बने होते हैं, उपलब्ध रहते हैं. ये सस्ते और सकूनभरे होते हैं.

लोगों ने अपने घरों को तमाम जगहों पर होटल बना दिया है. सरकार के पर्यटन विभाग से इस को अनुमति मिली हुई है. एयर बीएनबी नाम के औनलाइन प्लेटफौर्म के जरिए इस तरह के घरों को किसी भी शहर में तलाश किया जा सकता है. यहां हफ्तों या महीनों तक रुका जा सकता है. इस से उस शहर को पूरी तरह से महसूस कर सकते हैं. इस से भीड़भाड़ वाले पर्यटन स्थलों से हट कर लोकल लोगों के साथ घुलनेमिलने, लोकल भोजन का आनंद लेने और वहां की संस्कृति के बारे में जानने का मौका मिलता है. इस से यात्रा को सिर्फ एक जगह से दूसरी जगह जाने के बजाय उस स्थान को पूरी तरह से अनुभव करने का मौका मिलता है.

स्लो ट्रैवल का एक लाभ यह भी होता है कि जब आप किसी जगह पर ज्यादा समय बिताते हैं तो आप उस जगह को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं और वहां के लोगों से गहरे संबंध बना पाते हैं. भागदौड़ कम होने के कारण यात्रा का तनाव कम होता है. इस में लोकल बाजार के लोगों की आर्थिक मदद हो सकती है. वहां बिना किसी बड़ी योजना को बनाए घूमने का मौका मिलता है, जिस से सुकून महसूस होता है. इस तरह की यात्रा में बजट कम होने से घूमने का ज्यादा से ज्यादा आनंद लिया जा सकता है.

लाइफस्टाइल बनता जा रहा है स्लो ट्रैवल

स्लो ट्रैवल में एकसाथ 10 जगहों को नहीं घूमते, बल्कि कम जगहों को चुनते हैं. वहां ज्यादा समय बिताते हैं. इस में न तो दौड़भाग, न ही सोशल मीडिया के लिए फटाफट रील्स बनाते हैं. स्लो ट्रैवल में सफर को गहराई से महसूस करने पर जोर है. इसी वजह से ही कि यह सिर्फ एक ट्रैंड नहीं बल्कि लाइफस्टाइल बनता जा रहा है. इस में जिस जगह घूमने जाते हैं वहां की सिंपल लाइफ को महसूस करने लगते हैं फिर चाहे किसी गांव के परिवार संग खाना बनाना हो या समुद्र के किनारे किसी लाइब्रेरी में किताब पढ़ना. इस में जीवन को महसूस करने का भरपूर समय मिलता है.

अब लोगों की सोच बदल गई है. छुट्टियों में घूमने का मतलब सुकून पाना हो गया है. पार्टी क्लब में जो महसूस नहीं किया जा सकता वह यहां महसूस होता है. स्लो ट्रैवल मैंटली रिलैक्स रखता है. होटल के बजाय लोकल होमस्टे से लोकल लोगों की इनकम बढ़ती है. लंबे समय तक सफर से लोकल चीजों के प्रति ज्यादा समझ बनती है.

वर्क फ्रौम होम करने वाले प्रोफैशनल्स इस को बहुत पसंद करते हैं. फैमिली या कपल्स, जो भीड़ से दूर सुकून चाहते हैं, वे भी इस को पंसद करते हैं. ऐसे लोग जो सिर्फ टूरिज्म को महसूस करना चाहते हैं.

स्लो ट्रैवल को पसंद करने की खास वजह यह होती है कि कोई बड़ा खर्च या तैयारी करने की जरूरत नहीं होती, सिर्फ थोड़ी सोच बदलनी होती है. एक ही डैस्टिनेशन चुनें और वहां 7 से 10 दिन स्टे करें. रहने के लिए होटल की जगह होमस्टे चुनें. पैदल घूमें या साइकिल की सवारी करें. लोकल लोगों से बात करें. नई चीजें सीखें, खाना बनाना, लोकल भाषा, कोई कला आदि तो बेहतर अनुभव करेंगे. स्लो ट्रैवल घूमने से अधिक महसूस करने की जगह है. इस को सही से तभी समझ पाएंगे, जब इसे महसूस करेंगे.

Bollywood : बजट के बोझ तले दम तोड़ती फिल्में

Bollywood : पोस्ट कोविड बौलीवुड संकट में है. बड़े बजट वाली स्टारर फिल्में लगातार फ्लौप हो रही हैं, ‘हाउसफुल 5’, ‘सिकंदर’ और ‘मैट्रो इन दिनों’ जैसी फिल्में अपनी लागत भी नहीं कमा पा रहीं. कारण? कौर्पोरेटाइजेशन के बाद फिल्में सिर्फ बैलेंसशीट और स्टारपावर पर बन रही हैं, उन में कंटैंट नहीं. एमबीए वाले सीईओ कलाकारों की फीस और शेयर मार्केट को प्राथमिकता देते हैं, दर्शकों की पसंद नहीं. नतीजा, बजट बढ़ा, कहानी गायब. सो, इंडस्ट्री संकट में है.

कोविड के बाद से अब तक बौलीवुड में लगभग सूखा पड़ा हुआ है. सभी ए लिस्टर यानी कि स्टार कलाकारों की बड़ेबड़े बजट की फिल्में बौक्स औफिस पर धराशायी हो चुकी हैं. हालिया प्रदर्शित साजिद नाडियाडवाला की फिल्म ‘हाउसफुल 5’ की कमाई बौक्स औफिस पर 217 करोड़ रुपए बताया जा रहा है. फिर भी इसे सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस का बजट 375 करोड़ रुपए है. तो वहीं टीसीरीज की मल्टीस्टारर फिल्म ‘मेट्रो इन दिनों’ 50 करोड़ ही कमा पाई. ये सभी फिल्में डिजास्टर ही हैं.

नियमतया जब फिल्म ‘हाउसफुल 5’ बौक्स औफिस पर कम से कम 800 करोड़ रुपए कमाए, तब यह फिल्म ‘नो लौस नो प्रौफिट’ में पहुंचेगी जबकि ‘हाउसफुल 5’ में अक्षय कुमार, जैकी श्रौफ, रंजीत, फरदीन खान, रितेश देशमुख, जैकलीन फर्नांडिस, बौबी देओल सहित 20 स्टार कलाकार हैं.

इस से पहले 30 मार्च, 2025 को सलमान खान की फिल्म ‘सिकंदर’ रिलीज हुई थी, निर्माता ने ब्लौक बुकिंग, फेक बुकिंग वगैरह कर अपनी जेब से करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा कर दावा किया कि फिल्म ने 145 करोड़ कमा लिए, जबकि पूरा बौलीवुड ही नहीं दर्शक भी जानते हैं कि फिल्म बिलकुल नहीं चली. निर्माता ने झुठे आंकड़े पेश किए, फिर भी वे अपनी फिल्म को सफल नहीं करा सके क्योंकि फिल्म का बजट 250 करोड़ रुपए है.

गत वर्ष 11 अप्रैल, 2024 को अक्षय कुमार, टाइगर श्रौफ, पृथ्वीराज सुकुमारन, मानुषी छिल्लर व सोनाक्षी सिन्हा की फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ रिलीज हुई थी. इस का बजट 350 करोड़ रुपए था पर निर्माता के अनुसार इस ने बौक्स औफिस पर 100 करोड़ रुपए एकत्र किए. इस फिल्म की असफलता के बाद से निर्माता वासु भगनानी लंदन में हैं. फिल्म से जुडे़ कई कलाकारों व तकनीशियनों के पैसे अभी तक नहीं दिए गए. ये चंद उदाहरण हैं.

सच्चाई यह है कि 50 करोड़ रुपए से 130 करोड़ रुपए तक की फीस लेने वाले किसी भी स्टार कलाकार की फिल्में अपने निर्माता को कमा कर नहीं दे रही हैं.

पिछले 4 वर्षों के दौरान अक्षय कुमार की लगातार 18 फिल्में बौक्स औफिस पर अपनी लागत वसूल नहीं कर पाईं. इन बड़ी फिल्मों की असफलता के ही चलते केवल पीवीआर आयनौक्स मल्टीप्लैक्स के शेयर के दाम एक साल के अंदर 1,800 रुपए से गिर कर 14 जुलाई को 979 रुपए पर आ गए.

बढ़ता कौर्पोरेट कल्चर

बड़े बजट और बड़े स्टार की फिल्में लगातार असफल हो रही हैं. इस की मूल वजह यह है कि अब फिल्में कागज पर यानी कि बैलेंसशीट पर बनती हैं. 2001 के बाद जिस तरह से बौलीवुड का कौर्पोरेटाइजेशन हुआ है, उस के तहत हर स्टूडियो और हर बडे़ प्रोडक्शन हाउस में एमबीए पास कर आए लोग बैठे हुए हैं जिन्हें इंग्लिश भाषा में एमबीए की पढ़ाई के दौरान साबुन, तेल, कार, स्टील आदि बेचना सिखाया जाता है. ये ठीक से न हिंदी पढ़ सकते हैं और न ही हिंदी में बातचीत कर सकते हैं. इन एमबीए के नुमाइंदों को हिंदी साहित्य का एबीसीडी भी नहीं पता होता.

एमबीए की शिक्षा में सिनेमा की कोई चर्चा ही नहीं होती, जिस की वजह से न इन्हें सिनेमा बेचना आता है और न ही इन्हें सिनेमा या कहानी आदि की कोई समझ है पर अब ये सभी खुद को सिनेमा के उद्धारकर्ता के रूप में पेश करते हुए फिल्म इंडस्ट्री को डुबाने पर आमादा हैं. इन्हें एमबीए में जो कुछ पढ़ाया गया, उसी के कदमों पर चलते हुए ये सभी अपनी कंपनी की बैलेंसशीट को संभालने के जुगाड़ में लगे रहते हैं. इन की मूल जिम्मेदारी होती है कि कंपनी की बैलेंसशीट ऐसी हो जिस से कंपनी के शेयर के दाम न गिरें और शेयर बाजार से जो कमाई हो रही है, वह लगातार जारी रहे.

अब ऐसा करने के लिए तो शेयरधारकों को धोखे में रखना ही पड़ता है. इसलिए सभी कंपनी के सीईओ और उन के साथ काम कर रहे एमबीए डिग्रीधारी लोग फिल्म की कहानी की गुणवत्ता या निर्देशक की काबिलीयत पर गौर करने के बजाय निर्देशक के सामने एक ही शर्त रखते हैं कि वह किस स्टार कलाकार को ला सकता है.

इस के बाद वे कहते हैं कि, ‘स्टार कलाकारों के सहमतिपत्र के साथ फिल्म की कहानी की सिनौप्सिस इंग्लिश में ईमेल कर दें.’ इन एमबीए डिग्रीधारकों की सोच व समझ सिर्फ यह कहती है कि अगर उन की फिल्म में स्टार कलाकार होगा तो वे इंग्लिश में फिल्म की सिनौप्सिस के साथ पेपरवर्क तैयार करेंगे और उन की कंपनी की बैलेंसशीट गड़बड़ नहीं होगी व शेयर के दाम नहीं गिरेंगे.

कहानी पर कम ध्यान

एक बार हम ने एक बहुत बड़े कौर्पोरेट स्टूडियो के सीईओ से जब पूछा था कि आप फिल्में बना रहे हैं लेकिन आप के स्टूडियो की बड़े बजट की फिल्में लगातार फ्लौप हो रही हैं तो उन्होंने जो जवाब दिया था उस के माने मेरी समझ से परे थे. उन्होंने कहा था, ‘हर कौर्पोरेट स्टूडियो के लिए जरूरी है कि उस का कैटलौग मजबूत हो.’

‘हम अपनी फिल्म की कहानी की बात ही नहीं करते. ज्यादा से ज्यादा फिल्म के जौनर की चर्चा करते हैं कि यह कौमेडी या ऐक्शन है या अन्य जौनर की फिल्म है. फिल्म के प्रमोशन के लिए हम उन शहरों में अपनी फिल्म के कलाकारों को ले जा कर डांस वगैरह के इवैंट करते हैं जहां हमारी कंपनी के शेयरधारक ज्यादा हैं.

हम कभीकभी अपनी कंपनी के कुछ चुनिंदा बड़े शेयरधारक को फिल्म के प्रीमियर में बुला कर उन्हें फिल्म इंडस्ट्री की चकाचौंध से अचंभित कर देते हैं. इस से हमारी कंपनी का ‘कैटलौग’ और बैलेंसशीट दोनों मजबूत बनी रहती हैं. ‘देखिए अब यह युग डिजिटल मार्केटिंग और सोशल मीडिया का है. लोग यह जान कर खुश होते हैं कि उन का पसंदीदा कलाकार अब कितनी अधिक फीस ले रहा है.’

जी हां, यही कटु सत्य है. इन्हें इस बात का एहसास ही नहीं है कि फिल्म की सफलता के लिए पहली जरूरत कंटैंट यानी कि कहानी होती है. यदि कहानी व पटकथा अच्छी हो तो फिर ऐसे काबिल निर्देशक की जरूरत पड़ती है जो कागज पर लिखी कहानी व पटकथा को कलाकारों के माध्यम से सैल्यूलाइड के परदे पर ज्यों का त्यों उतार सके. उस के बाद उस बेहतरीन कहानी पर बनी बेहतरीन फिल्म को मार्केट करना चाहिए.

80 व 90 के दशकों में ऐसा ही हुआ करता था पर अब इन एमबीएधारी लोगों के पास कहानी के नाम पर एक ही विचार होता है. कहानियां तो सब एक ही होती हैं. पूरे विश्व में 9 कहानियां ही हैं. उन्हीं को घुमाफिरा कर सुनाना है. असली टैलेंट तो यह है कि हम अपनी फिल्म में किस बड़े कलाकार को जोड़ते हैं.

अपने टैलेंट को साबित करने के लिए ये एमबीएधारी अभिनेता को उस की औकात से काफी ज्यादा रकम देते हैं. इस तरह फिल्म का बजट बेहिसाब बढ़ता जाता है. हमें याद है कि 2001 में जब नितिन केणी के नेतृत्व में जी टैली फिल्म्स ने स्टूडियो सिस्टम के तहत फिल्म ‘गदर एक प्रेम कथा’ का निर्माण महज साढ़े 18 करोड़ रुपए में किया था और इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर 133 करोड़ रुपए कमा कर हंगामा बरपा दिया था, उस वक्त पहली बार इस फिल्म के निर्माण से जुड़े हर शख्स को चैक से पेमेंट मिला था.

उस के बाद कुकुरमुत्ते की तरह तमाम कौर्पोरेट कंपनियां उग आई थीं और इन के बीच कलाकार को अपने साथ जोड़ने की होड़ लग गई थी.

वर्ष 2012 तक करीबन 35 कौर्पोरेट कंपनियां सक्रिय थीं और कलाकारों को 10 लाख के बजाय 50 करोड़ रुपए तक फीस दे कर फिल्में बना रहे थे. 2012 से 2015 के बीच तकरीबन 15 कंपनियां धड़ाधड़ बंद हो गईं. यह सिलसिला लगातार चलता रहा. अब गिनती के महज चारपांच स्टूडियो ही बचे हैं. इन स्टूडियो द्वारा बनाई जा रहीं सभी बड़े बजट की फिल्में बौक्स औफिस पर अपनी लागत का आधा हिस्सा भी नहीं जुटा पा रही हैं पर ये कंपनियां अपनी बैलेंसशीट व कैटलौग के मजबूत होने के दावे जरूर कर रही हैं.

अब तो मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अक्षय कुमार को प्रति फिल्म 135 करोड़ रुपए, अल्लू अर्जुन को ‘पुष्पा 2’ के बाद प्रति फिल्म 250 करोड़ रुपए, अजय देवगन 50 करोड़, प्रभास प्रति फिल्म 150 करोड़, शाहरुख खान प्रति फिल्म 90 करोड़ रुपए की फीस ले रहे हैं.

अफसोस की बात यह है कि प्रति फिल्म 135 करोड़ रुपए लेने वाले अक्षय कुमार की लगातार 18 फिल्में बौक्स औफिस पर धूल चाट चुकी हैं. अक्षय कुमार की फिल्में 100 करोड़ रुपए भी नहीं कमा पा रही हैं.

2014 में वासु भगनानी निर्मित फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ रिलीज हुई थी. इस में अक्षय कुमार व टाइगर श्रौफ की जोड़ी थी. साढ़े 300 करोड़ रुपए के बजट में बनी यह फिल्म बौक्स औफिस पर 90 करोड़ रुपए भी एकत्र न कर सकी. ‘बड़े मियां छोटे मियां’ में कहानी नहीं चूंचूं का मुरब्बा था. अगर वासु भगनानी ने एक अच्छी कहानी व पटकथा चुन कर सीमित बजट में फिल्म का निर्माण किया होता तो फिल्म को नुकसान न होता.

एक बार मशहूर फिल्म निर्देशक राज कुमार संतोषी ने हम से कहा था, ‘देखिए, हर कहानी का अपना एक बजट होता है. हर कहानी की डिमांड के अनुरूप कलाकार चुन कर उन्हें उसी हिसाब से फीस दे कर बनाया जाए और उसे सही तरीके से दर्शकों तक पहुंचाया जाए तो नुकसान नहीं हो सकता पर कौर्पोरेट कंपनी में बैठे एमबीए वालों को कुछ पता ही नहीं होता. वे कहानी पढ़ते नहीं हैं, केवल कागजी खानापूर्ति के लिए कहानी को इंग्लिश में मांग कर उसे कौलम में भर देते हैं.

बदला हुआ कल्चर

वास्तव में फिल्म के बजट बढ़ने और फिल्मों की असफलता की एक वजह इन फिल्म प्रोडक्शन कंपनियों व स्टूडियोज में बदला हुआ वर्क कल्चर भी है. औक्सफोर्ड सहित कई विदेशी यूनिवर्सिटीज से एमबीए या ज्यादा से ज्यादा फिल्ममेकिंग का कोर्स कर वापस लौटने के बाद भारत में स्टूडियो या प्रोडक्शन हाउस में सीईओ के पद पर आसीन ये लोग नई फिल्म की प्लानिंग व कहानी सुनने के नाम पर प्रोड्यूसर या डायरैक्टर या ऐक्टर के साथ मीटिंग किसी न किसी फाइवस्टार होटल में बैठ कर हजार रुपए की कौफी की चुस्कियां लगाते हुए करते हैं तो इन्हें उस दर्शक के स्वाद का एहसास कैसे होगा जोकि सिनेमाघर के बाहर पहले 5 रुपए से ले कर 10 रुपए तक की कीमत की कटिंग चाय पीने के बाद सिनेमाघर के अंदर फिल्म देखने के लिए घुसता है.

ये एमबीएधारी वे लोग हैं जिन्हें हिंदी आती नहीं. आम इंसानों से इन का कभी वास्ता नहीं रहा. इसी के चलते इन्हें दर्शक की नब्ज का अतापता ही नहीं होता. हजार रुपए की कौफी पीने वाला यह शख्स कभी भी किसी गरीब के घर जाने का भी साहस नहीं करता. यह तो गिरी हुई हालत में भी स्टारबक्स में बैठ कर 400 रुपए की चाय की चुस्कियां लेते हुए गांव की पगडंडियों व गांव के मकान की कल्पना करता है तो वह कितना अधिक काल्पनिक होता है, वह हम सब फिल्म में देखते ही रहते हैं.

तभी तो अनुराग बसु की हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘मेट्रो इन दिनों’ में मुंबई में रह रहे दंपती मोंटी (पंकज त्रिपाठी) और काजोल (कोंकणा सेन शर्मा) की कहानी देख कर दर्शकों को यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसा कुछ हो सकता है. कहानी के अनुसार, मोंटी व काजोल की 2 टीनएजर बेटियां हैं. मोंटी और काजोल दोनों की जिंदगी में सुकून नहीं है. दोनों नाम बदल कर व्हाटसऐप चैट करते हैं. काजोल, माया बन कर अपने पति को रोमांस के लिए होटल बुलाती है, जहां वह अपनी सहेली की मदद से पति मोंटी को नंगा कर पूरे फाइवस्टार होटल व सड़क पर निर्वस्त्र दौड़ाती है.

मोंटी माफी मांगता है तो काजोल उसे गोवा ले जाती है जहां वह अपनी उम्र से भी आधी उम्र के युवक के साथ रोमांस करती है और होटल के एक कमरे में अपने प्रेमी संग ऐयाशी करती है. अपनी पत्नी की ये सारी हरकतें बेचारा मोंटी देखता रहता है. इस के बावजूद, मोंटी माफी मांगते हुए पत्नी के पैर की उंगलियों को चूसता है.

अंगरेजीदां लोगों की घुसपैठ

दर्शक पूछ रहे हैं कि क्या भारत में इस तरह की आधुनिक मिडिल क्लास पत्नियां हैं? मोंटी की एक टीनएजर बेटी पूछती है कि उसे सैक्स के लिए लड़के को ‘किस’ करना चाहिए या लड़की को ‘किस’ करना चाहिए? अब इस तरह के दृश्यों व कहानी से भारत का मिडिल क्लास दर्शक रिलेट नहीं कर पाया और फिल्म फ्लौप हो गई. 150 करोड़ रुपए की लागत में बनी यह फिल्म लगभग 50 करोड़ रुपए ही एकत्र कर सकी. नो लौस नो प्रौफिट के लिए इस फिल्म को 450 करोड़ रुपए कमाने होंगे, जोकि असंभव है.

सब से बड़ी समस्या यह है कि इतने बड़े बजट की फिल्म बनाने वाले फिल्म के फ्लौप होने पर दशकों की अक्ल पर सवाल उठाते हैं. अक्षय कुमार के अभिनय से सजी फिल्म ‘खेल खेल में’ बौक्स औफिस पर केवल 20 करोड़ रुपए कमा कर डिजास्टर हो गई तब फिल्म के निर्देशक मुदस्सर अजीज ने कहा, ‘इस तरह की बेहतरीन फिल्म के समझने का आईक्यू लैवल हमारे देश के लोगों में नहीं है.’ इसी तरह फिल्म ‘फाइटर’ के डिजास्टर होने पर फिल्म के निर्देशक सिद्धार्थ आनंद ने कहा, ‘हमारे देश में 3 प्रतिशत लोगों ने एयरपोर्ट ही नहीं देखा, तो फिर हमारी फिल्म उन की समझ में कैसे आएगी.’

कहने का अर्थ यह कि इन अंगरेजीदां लोगों ने अपना रहनसहन ही बदल लिया है और इन लोगों ने अब देश में नया कास्ट सिस्टम बना दिया है. अंगरेजीदां लोग हजार रुपए की शर्ट पहन कर खुद को एलीट क्लास बताते हुए गुमान करते हैं और हिंदीभाषी लोगों को ‘पिछड़ा वर्ग’ बताते हैं. इन की नजर में पिछड़ा वर्ग अनपढ़, गंवार है, जिस की समझ में सिनेमा आ ही नहीं सकता. ऐसे में कई सवाल उठते हैं. वे करोड़ों रुपए खर्च कर सिनेमा बनाते ही क्यों हैं?

सवाल यह भी कि वे इस तरह समाज के अंदर ही तोड़फोड़ कर क्या हासिल करना चाहते हैं या देश को कहां ले जाना चाहते हैं? और यदि सिर्फ सिनेमा की असली सम?ा सिर्फ इन्हें है तो फिर इन का सिनेमा बौक्स औफिस पर दम क्यों तोड़ रहा है. क्या ये लोग ‘क्रिमिनल वेस्टेज औफ मनी’ का काम नहीं कर रहे?

पूरे हालात पर गौर करने के बाद यह बात साफतौर पर उभर कर आती है कि भारतीय सिनेमा का विकास तभी संभव है जब हर प्रोडक्शन कंपनी से इन अंगरेजीदां लोगों को हटा कर बाहर किया जाए, हर कलाकार को उस की अभिनय क्षमता और बौक्स औफिस पर एकत्र कर सकने वाली रकम के अनुपात में ही फीस दी जाए और कम से कम बजट में बेहतरीन कहानी वाली फिल्में बनाई जाएं ऐसी कि जिन से आम भारतीय दर्शक रिलेट कर सके.

Bihar Assembly Election : क्या है तेजस्वी की राजनीति खत्म करने की साजिश ?

Bihar Assembly Election : बिहार विधानसभा की चुनावी लड़ाई मतदान से पहले ही शुरू हो गई है. बिहार में विपक्ष का चेहरा राजद नेता तेजस्वी यादव हैं. वह बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री हैं. जनाधार वाले नेता हैं. उन के कारण भाजपा बिहार में अपने बल पर खड़ी नहीं हो पा रही है. बिहार में तेजस्वी यादव के चुनाव लड़ने में बाधा खड़ी हो गई है. सवाल उठ रहा है कि क्या तेजस्वी यादव को दो वोटर आईडी रखने के आरोप में चुनाव लड़ने से रोकने की साजिश हो रही है.

तेजस्वी यादव कहते है उन्होंने पिछले साल के लोकसभा चुनाव में इपिक नंबर आरएबी 2916120 वोटर आई कार्ड से मतदान किया था, जो अब ड्राफ्ट रोल से गायब है. इस के बजाय चुनाव आयोग की नई वोटर लिस्ट में तेजस्वी का नाम इपिक नंबर आरएबी 0456228 दर्ज है. अब इसे ले कर ही तेजस्वी की मुश्किलें बढ़ गई हैं, क्योंकि उन के पास दोदो वोटर आई कार्ड हैं. चुनाव आयोग ने चिट्ठी लिख कर तेजस्वी यादव से मतदाता पहचान पत्र नंबर का ब्यौरा देने को कहा है.

तेजस्वी यादव बिहार की दीघा विधानसभा सीट के वोटर हैं, लेकिन राज्य विधानसभा में विधायक के तौर पर वह राघोपुर विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं. दीघा निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचक निबंधन पदाधिकारी (ईआरओ) ने आरजेडी नेता को चिट्ठी लिख कर कहा कि जांच में पता चला कि आप का नाम मतदान केंद्र संख्या 204 के सीरियल नंबर 416 पर दर्ज है, जिस का इपिक नंबर आरएबी 0456228 है.

तेजस्वी ने चुनाव आयोग पर बीजेपी के लिए काम करने का आरोप लगाया है. दूसरी तरफ विपक्षी दलों के नेताओं ने चुनाव आयोग से तेजस्वी यादव के दो वोटर कार्ड का संज्ञान लेने और उन के खिलाफ मामला दर्ज करने का अपील की है. बीजेपी और बिहार में उस के सभी सहयोगी दलों के नेताओं का साफ कहना है कि तेजस्वी के पास दो वोटर कार्ड कहां से आए, किसी भी व्यक्ति के पास दो मतदाता पहचान पत्र होना अपराध है.

भारत में एक व्यक्ति के पास दो वोटर कार्ड होना कानूनन अपराध है. यह जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत एक गंभीर उल्लंघन माना जाता है. दो वोटर आईडी कार्ड रखने पर किसी व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है, जिस में जुर्माना, जेल या दोनों शामिल हो सकते हैं. इस के अलावा यह तेजस्वी यादव जैसे किसी नेता के चुनाव लड़ने की योग्यता को भी प्रभावित कर सकता है. दो वोटर आईडी कार्ड रखना वोटर लिस्ट में डुप्लीकेट एंट्री माना जाता है, जो गैरकानूनी है.

धारा 31 के तहत, अगर कोई व्यक्ति वोटर लिस्ट में गलत जानकारी देता है या फर्जी दस्तावेज पेश करता है, तो यह अपराध माना जाता है. अगर दूसरा वोटर आईडी कार्ड फर्जी दस्तावेज दे कर बनवाया गया है, तो कानूनी तौर पर जेल या जुर्माना लगाया जा सकता है.

जिस तरह से राहुल गांधी के खिलाफ साजिश कर के उन की सदस्यता खत्म कराने का काम किया गया, उसी तरह से बिहार के प्रमुख नेता तेजस्वी यादव को भी वोटर लिस्ट विवाद में खींच कर चुनाव के पहले ही विपक्ष को खत्म करने की साजिश रची जा रही है. वोटर लिस्ट विवाद में अगर तेजस्वी का दोष साबित होता है तो वह गहरे संकट में फंस सकते हैं. इस तरह से विपक्ष को खत्म करने की साजिश रची जा रही है.

Vice Presidential Election : राजनीतिक छीछालेदर के बाद रायता समेटना

Vice Presidential Election : उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का अप्रत्याशित इस्तीफा भगवा खेमे की छीछलेदार जम कर करा गया. जिन हालातों में खराब सेहत का बहाना बनाते उन्होंने देश का दूसरा बड़ा संवैधानिक पद छोड़ा उस से हर कोई हैरत में है. विपक्ष ने तो सवालिया निशान खड़े किए ही लेकिन आम लोगों को भी समझ आ गया कि यह दोनों जिल्लेलाहियों के हुक्मो और इच्छाओं की नाफरमानी की सजा है. वैसे भी समाजवादी संस्कारों में पलेबढ़े धनखड़ खुद सही गलत को ले कर उहापोह का शिकार थे सो यह तो होना ही था.

लेकिन अब क्या होगा इस पर सभी की निगाहें हैं. चुनाव आयोग की उपराष्ट्रपति पद के लिए अधिसूचना के मुताबिक चुनाव 9 सितम्बर को होगा. वोटों के लिहाज से एनडीए बेफिक्र है लेकिन उम्मीदवार को ले कर वह छाछ फूंकफूंक कर पी रहा है. उप राष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सदस्य वोट करते हैं. लोकसभा के 542 और राज्यसभा के 240 सदस्यों को मिला कर वोटों की संख्या 782 होती है. इस में से एनडीए के खाते में 422 वोट होते हैं जो बहुमत से 41 ज्यादा हैं.

पिछला चुनाव 6 अगस्त 2022 को हुआ था जिस में धनखड़ को 528 और विपक्ष की उम्मीदवार मार्ग्रेट अल्वा को 182 वोट मिले थे. इस वार विपक्ष की कोशिश इस आंकड़े को पार करने की होगी इस बाबत कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी 7 अगस्त को डिनर पार्टी आयोजित कर रहे हैं. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राष्ट्रपति से मुलाकातों को इसी नजरिए के साथ साथ मंत्रीमंडल की संभावित फेरबदल की अटकलों के साथ भी देखा जा रहा है.

एनडीए की तरफ से दर्जनों नाम चल रहे हैं तो विपक्ष ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं. बिहार में विधानसभा चुनाव के चलते दोनों ही गठबंधन सत्ता के लिए किसी बिहारी पर दांव खेल सकते हैं. सवा दो साल में पहली बार चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की वफ़ादारी का इम्तिहान होगा. क्योंकि अपने अकेले के दम पर भाजपा बहुमत का आंकड़ा नहीं छू पा रही. उपराष्ट्रपति कोई भी हो यह साफ़ दिख रहा है कि वह काबिलियत के दम पर नहीं बल्कि वफादारी के गुण के चलते चुना जाएगा.

Karnataka : प्रज्वल रेवन्ना को मिली उम्रकैद

Karnataka : कर्नाटक की राजनीति को झकझोर देने वाले सैक्स स्कैंडल में आखिरकार अदालत ने ऐतिहासिक फैसला सुना दिया. इस मामले में हासन से पूर्व सांसद और जनता दल (सेक्युलर) के नेता प्रज्वल रेवन्ना को बेंगलुरु की विशेष अदालत ने 2 अगस्त 2025 को उम्रकैद की सजा सुनाई. कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2)(के) और 376(2)(एन) के तहत सजा सुनते हुए प्रज्वल रेवन्ना पर 11 लाख रुपये का जुर्माना और पीड़िता को 7 लाख रुपए का मुआवजा देने का आदेश दिया है.

धमकी और बलात्कार का यह मामला हासन जिले के होलेनारसीपुरा में रेवन्ना परिवार के फार्म हाउस में सहायिका के रूप में काम करने वाली 48 वर्षीय महिला से संबंधित है. साल 2021 में फार्म हाउस और बेंगलुरु में स्थित रेवन्ना के आवास पर इस महिला से दुष्कर्म किया गया. आरोपी ने इस कृत्य को अपने मोबाइल फोन में भी रिकौर्ड किया. पुलिस के आगे केवल प्रज्वल ही नहीं, पीड़िता ने उस के पिता और जेडीएस के वरिष्ठ नेता एचडी रेवन्ना पर भी गंभीर आरोप लगाए. उस ने कहा था कि बापबेटे आदतन अपराधी हैं. इन दोनों ने उस की मां के साथ भी बलात्कार किया. यही नहीं घर में काम करने वाली अन्य महिला कर्मचारियों का भी यौन शोषण होता है. पीड़िता द्वारा किये गए इस खुलासे के बाद 3 नौकरानियां भी गवाह के रूप में सामने आईं.

प्रज्वल रेवन्ना के खिलाफ बलात्कार का मामला मई 2024 में मैसूर की सीआईडी साइबर क्राइम थाने में दर्ज किया गया. मामले की जांच सीआईडी के विशेष जांच दल (एसआईटी) ने की. जांच के दौरान टीम ने कुल 123 सबूत जुटाए और करीब 2,000 पन्नों की चार्जशीट कोर्ट में दाखिल की. 31 दिसंबर 2024 को शुरू हुई सुनवाई के दौरान अदालत ने 23 गवाहों की गवाही दर्ज की. एक महत्वपूर्ण सबूत के रूप में पीड़िता की साड़ी को भी कोर्ट में पेश किया गया. आरोप था कि पूर्व सांसद ने घरेलू सहायिका के साथ एक नहीं बल्कि दो बार बलात्कार किया. पीड़िता के पास वह साड़ी भी मौजूद थी, जिसे उस ने सबूत के तौर पर संभाल कर रखा था. जांच में उस साड़ी पर स्पर्म के निशान पाए गए, जिस से यह मामला और भी मजबूत हो गया. अदालत ने साड़ी को निर्णायक सबूत के रूप में पाया.

इस के अलावा कोर्ट ने वीडियो क्लिप्स की फोरेंसिक रिपोर्ट और घटनास्थल की निरीक्षण रिपोर्टों की भी समीक्षा की. ट्रायल मात्र सात महीनों में पूरा हो गया और दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद विशेष न्यायाधीश संतोष गजानन भट्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.

इस मामले में न्याय प्रणाली की गति और प्रभावशीलता की व्यापक प्रशंसा हो रही है. केवल 14 महीनों में जिस तरह ये केस न्याय तक पहुंचा, इसे एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है कि उच्च प्रभाव वाले मामलों में भी सख्त और समयबद्ध निर्णय हो सकता है. अदालत का यह निर्णय बताता है कि कानून सभी के लिए एक समान है, चाहे व्यक्ति कितनी भी राजनीतिक शक्ति या प्रतिष्ठा रखता हो.

Bihar Elections : एसआईआर पर विपक्ष एकजुट, राहुल की बिहार यात्रा का ऐलान

Bihar Elections : बिहार में वोटर लिस्ट का ड्राफ्ट जारी होने के बीच सियासी संग्राम और तेज हो गया है. इस बीच लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी, कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी समेत इंडिया ब्लौक के बाकी सांसदों ने स्पीकर ओम बिरला से मुलाकात की और उन से संसद के दोनों सदनों में एसआईआर पर चर्चा करने की मांग की. इस से एसआईआर के मुद्दे पर विपक्ष और सरकार के बीच आरपार का सीन बन गया है.

चूंकि बिहार में विधानसभा चुनाव आने वाले हैं, तो एसआईआर मुद्दे पर राहुल गांधी बहुत ज्यादा मुखर हो गए हैं. लिहाजा, जो महागठबंधन बिहार में कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा था, एसआईआर ने उसे नई सांसें दे दी हैं. इसी का नतीजा है कि राहुल गांधी ने राज्यव्यापी यात्रा का प्लान बनाया है. कांग्रेस के राष्ट्रीय मुख्यालय ने 10 अगस्त से राहुल गांधी की यह यात्रा शुरू करने के संकेत दिए हैं, जो 26 अगस्त तक चलेगी.

इस यात्रा में राहुल गांधी प्रदेश के 18 जिलों का दौरा करेंगे, जिन में मुख्य रूप से मगध, पटना और कोसी प्रमंडल के जिले शामिल हैं. 3 चरणों में होने वाली इस पदयात्रा में राहुल गांधी जनता से सीधा संवाद करेंगे, कार्यकर्ताओं में जोश भरेंगे और महागठबंधन के साथ मिल कर विपक्ष की ताकत का प्रदर्शन करेंगे.

इस यात्रा में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव भी राहुल गांधी के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलेंगे और मतदाता सूची में गड़बड़ियों का मुद्दा उठाएंगे. इस के अलावा वे बिहार में बढ़ते अपराध, बेरोजगारी और पलायन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी सरकार को घेरेंगे. वे सरकार की नाकामियों को उजागर करेंगे और अपनी उपलब्धियों और भविष्य की योजनाओं के बारे में जनता को बताएंगे.

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