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Crime Story: जब माया की सास बनीं फांस

8जनवरी, 2020 की बात है. पन्ना, अजयगढ़ में सर्दी का भारी प्रकोप था. पवई थाना क्षेत्र के बधाई गांव
का रहने वाला संजय चौधरी खेतों की रखवाली के लिए रात को खेतों पर ही सोता था, उस के पिता मलुवा चौधरी भी खेत पर ही सोते थे. घर खेत के करीब ही थे.8 जनवरी की रात को दोनों बापबेटे खेत पर सोने गए थे, जबकि घर पर संजय की पत्नी मायाबाई और मां कसुम थी. सुबह को संजय की पत्नी मायाबाई ने उसे फोन पर बताया कि थोड़ी देर पहले वह सो कर उठी तो उस के कमरे का दरवाजा बाहर से बंद मिला. मायाबाई ने उसे आगे बताया कि फोन लगाने से पहले उस ने सासू मां को कई आवाजें दी थीं. लेकिन जब उन की तरफ से कोई उत्तर नहीं मिला, तब उस ने उन्हें फोन लगाया.

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि अम्मा दिशामैदान चली गई हों, तुम इंतजार करो. हो सकता है, थोड़ी देर में आ जाएं.’’ संजय बोला.‘‘मैं काफी देर से उन का इंतजार कर रही हूं, आज तक वह बाहर से दरवाजा बंद कर के कभी नहीं गईं. आप जल्द दरवाजा खोल दो.’’ मायाबाई ने पति से कहा.पत्नी की बात सुन कर संजय घर पहुंच गया. उस ने कमरे का दरवाजा खोला तो माया बहुत घबराई हुई थी. संजय ने उस से पूछा तो उस ने कहा कि पता नहीं किस ने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया था.इस के बाद मियांबीवी दोनों मां के कमरे में गए तो वह कमरे में नहीं थी. कुछ देर तक दोनों ने उस के लौटने का इंतजार किया. काफी देर बाद भी जब वह नहीं लौटी तो संजय ने खेत पर जा कर पिता को यह जानकारी दे दी. मायाबाई भी खेत पर पहुंच गई थी.

पत्नी के गायब होने की बात सुन कर मलुवा चौधरी भी परेशान हो गए. उन के एक खेत में अरहर की फसल खड़ी थी. मायाबाई पति के साथ जब उसी खेत के किनारे से जा रही थी, तभी संजय की नजर अरहर के खेत में पड़ी एक लाश पर गई. वह लाश के नजदीक पहुंचा तो उस की चीख निकल गई. लाश उस की मां कुसुम की थी.उस की गरदन के आसपास कई जगह कुल्हाड़ी के गहरे घाव थे. खून से सनी कुल्हाड़ी भी वहीं पड़ी थी. इस से लग रहा था कि किसी ने उसी कुल्हाड़ी से उस की हत्या की है.

संजय की चीखपुकार पर पास के खेतों में सो रहे किसान कन्हैयालाल और मांगीलाल भी आ गए. कुछ देर बाद संजय ने यह खबर डायल 100 को दे दी. कुछ देर बाद पुलिस घटनास्थल पर पहुंच गई. डायल-100 के एक पुलिसकर्मी ने मामले की जानकारी पवई थाने के टीआई एस.पी. शुक्ला को दे दी.महिला की हत्या की सूचना मिलते ही थानाप्रभारी सिपाही संजय को साथ ले कर घटनास्थल पर पहुंच गए. टीआई ने घटनास्थल का निरीक्षण किया. मृतका कुसुम के शव से बहा खून अभी भी सूखा नहीं था. इस से टीआई समझ गए कि घटना सुबह हुई है. उन्होंने सोचा कि जब कुसुम दिशामैदान के लिए खेत में आई होगी, तभी किसी ने उस की हत्या कर दी. लेकिन शव के पास लोटा वगैरह नहीं था. सवाल यह उठा कि अगर कुसुम शौच के लिए नहीं आई तो खेत पर सुबहसुबह क्यों आई.

हत्या की खबर पा कर एसपी मयंक अवस्थी, डीएसपी (पवई) डी.एस. परिहार भी मौके पर पहुंच गए. उन्होंने भी मौकामुआयना किया. टीआई द्वारा पूछताछ करने पर कुसुम के पति मलुवा और बेटे संजय ने किसी से दुश्मनी होने की बात से इनकार कर दिया. संजय की पत्नी मायाबाई ने भी सारी जानकारी पुलिस को दे दी.इस के बाद पुलिस ने उन के घर का मुआयना किया. पूछताछ करने पर टीआई को कुसुम के किसी परिचित पर ही हत्या का शक था, क्योंकि जिस कमरे में कुसुम सो रही थी, वहां किसी संघर्ष के कोई निशान नहीं मिले थे. इस से लग रहा था कि कुसुम अपनी मरजी से उठ कर ही बाहर आई थी.

मायाबाई के कमरे का दरवाजा बाहर से बंद किए जाने को ले कर टीआई का मानना था कि संभव है, कुसुम के गांव के किसी आदमी से अवैध संबंध हों. उस का आशिक रात में कुसुम से मिलने घर आया होगा. कहीं बहू अपने कमरे से निकल कर सास के कमरे में न आ जाए, इसलिए उस ने ही मायाबाई के कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया होगा. इस के बाद किसी बात को ले कर कुसुम का उस के प्रेमी से विवाद हुआ होगा. इसी के चलते उस व्यक्ति ने कुसुम की हत्या कर दी होगी. लेकिन 56 साल की कुसुम का प्रेम पुलिस के गले नहीं उतर रहा था. फिर भी टीआई ने पुष्टि के लिए गांव में कुसुम के चालचलन की जानकारी जुटानी शुरू की.

इस जांच में कुसुम के बारे में तो नहीं लेकिन उस की बहू मायाबाई के बारे में यह जानकारी निकल कर आई कि गांव में सब से ज्यादा सुंदर मानी जाने वाली मायाबाई का चालचलन संदिग्ध था. आसपास के लोगों ने यह भी बताया कि मायाबाई का चक्कर पड़ोस में रहने वाले एक 19 वर्षीय युवक हलके चौधरी के साथ था.
पुलिस पहले भी संजय की पत्नी मायाबाई से पूछताछ कर चुकी थी, लेकिन उस के बयानों में पुलिस को कुछ भी संदिग्ध नहीं लगा था. सिवाय इस के कि बयान देते समय मायाबाई एक हाथ लंबा घूंघट निकाले रहती थी. इस से टीआई को लगा कि हो सकता है मायाबाई अपने चेहरे के भाव छिपाने के लिए घूंघट का सहारा लेती हो, इसलिए उस के बारे में नई जानकारी मिलने के बाद टीआई शुक्ला ने एक महिला पुलिसकर्मी को मायाबाई से पूछताछ करने को कहा.

महिला पुलिसकर्मी ने उस का घूंघट खुलवा कर उस से घटना वाली रात के बारे में कई सवाल पूछते हुए अचानक से पूछा, ‘‘अच्छा, यह बता कि हलके तेरे पास कितने बजे आया था?’’हलके का नाम सुनते ही मायाबाई का चेहरा बुझ गया. पहले तो वह सकपकाई फिर बोली, ‘‘कौन हलके? वो मेरे पास क्यों आएगा?’’‘‘ज्यादा सयानी मत बन. पुलिस को सारी बात पता चल गई है. उस रात हलके तुझ से मिलने आया था, इसलिए सीधेसीधे बता दे कि हलके ने तेरी सास को क्यों मारा? देख, तू सच बता देगी तो पुलिस तुझे छोड़ देगी वरना तुझे जेल जाने से कोई नहीं रोक सकेगा.’’मायाबाई पुलिस की बातों में आ गई, उस ने स्वीकार कर लिया कि उस रात सास ने उसे उस के प्रेमी हलके के साथ देख लिया था. इस के बाद हालात ऐसे बने कि उस ने प्रेमी के साथ मिल कर सास की हत्या कर दी.पुलिस पूछताछ में बहू के इश्क में सास के कत्ल की कहानी इस प्रकार सामने आई—

कोई 5 साल पहले मायाबाई जब संजय के साथ ब्याह कर गांव में आई, तब उस की उम्र 21 साल थी. पति के साथ कुछ समय तो उस के दिन अच्छे बीते लेकिन बाद में संजय पत्नी के बजाए खेती पर ज्यादा ध्यान देने लगा. पत्नी की भावनाओं को नजरंदाज करते हुए वह घर के बजाए रात को खेतों पर ही सोने लगा.
ऐसे में मायाबाई की नजरें पड़ोस में रहने वाले युवक हलके चौधरी से लड़ गईं. वह मायाबाई से 2 साल छोटा था और उसे भौजी कहता था. गांव में मायाबाई के आते ही उस की सुंदरता के चर्चे होने लगे थे. लेकिन उस वक्त हलके इन सब बातों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता था. धीरेधीरे उस की उम्र बढ़ी तो उस के मन में भी मायाबाई की खूबसूरती गुदगुदी करने लगी.

मायाबाई के कच्चे मकान में कच्चा बाथरूम बाहर आंगन में था, जो हलके के घर से साफ दिखाई देता था. इसलिए 20 साल की उम्र तक आतेआते जब हलके के मन में जवानी की तरंगें उछाल मारने लगीं तो वह मायाबाई को नहाते हुए छिप कर देखने लगा. इसी बीच करीब साल भर पहले एक दिन नहा रही मायाबाई की नजर हलके पर पड़ गई. उस ने उस से कुछ नहीं कहा. वह समझ गई थी कि हलके चौधरी की जवानी अंगड़ाई ले रही है.फिर मायाबाई के मन में भी चुहल करने की बात घर कर गई. अगले दिन से वह चोरीछिपे ताकाझांकी करने वाले हलके को अपने रूप के और भी खुले दर्शन करवाने लगी. मायाबाई ने यह खेल हलके के मन में आग लगाने के लिए खेला था. लेकिन धीरेधीरे उसे न केवल इस खेल में मजा आने लगा, बल्कि हलके के प्रति उस के मन में भी चाहत पैदा हो गई.

हलके का मायाबाई के घर आनाजाना था, इसलिए जब भी हलके मायाबाई के घर आता तो वह उस से हंसीमजाक करती, जिस से कुछ दिनों में हलके की समझ में भी आ गया कि मायाबाई उस के मन की बात समझ चुकी है. इसलिए एक दिन दोपहर में वह उस समय मायाबाई के घर पहुंचा, जब वह घर पर अकेली थी. मायाबाई को भी ऐसे ही मौके का इंतजार था. उस रोज मायाबाई ने बातोंबातों में हलके से पूछ लिया, ‘‘हलके, तुम मुझे यह बताओ कि तुम्हारी कोई प्रेमिका है?’’‘‘नहीं.’’ हलके चौधरी ने जवाब दिया.
‘‘क्यों, अभी तक क्यों नहीं बनाई? तुम्हारा मन तो होता होगा?’’ मायाबाई ने पूछा.
‘‘नहीं.’’ हलके ने झूठ बोला.

‘‘मन नहीं होता तो फिर छिप कर मुझे नहाते क्यों देखते हो? मैं तो समझी थी कि मेरा देवर कई लड़कियों से दोस्ती कर चुका होगा, इसलिए अब मेरे साथ दोस्ती करना चाहता है.’’ मायाबाई मुसकराते हुए बोली.
‘‘वो तो इसलिए कि आप अच्छी लगती हो.’’‘‘कभी मेरी सुंदरता को पास से देखने का मन नहीं करता तुम्हारा?’’ मायाबाई ने पूछा.‘‘करता है, लेकिन डर लगता है कि कहीं आप गुस्सा न हो जाओ.’’ हलके ने बताया.‘‘मैं ने कब कहा कि मैं गुस्सा हो जाऊंगी. अच्छा, एक काम करो अभी तो अम्मा खेत से आने वाली हैं. कल सुबह जल्दी आ जाना फिर देख लेना, अपनी भाभी को एकदम पास से और मन करे तो छू कर भी देखना.’’ इतना कह कर मायाबाई ने नौसिखिया हलके के गाल पर एक पप्पी दे कर उसे उस के घर भेज दिया.

दूसरे दिन हलके चौधरी मायाबाई के घर पहुंच गया. उस समय घर में उन दोनों के अलावा कोई नहीं था. मायाबाई ने इस का फायदा उठाया. उस ने हलके को कामकला का ऐसा पाठ पढ़ाया कि वह उस का मुरीद बन गया. इस के बाद तो दोनों के बीच आए दिन वासना का खेल खेला जाने लगा.

मायाबाई को कम उम्र का प्रेमी मिला तो वह उसे बढ़चढ़ कर वासना के खेल सिखाने लगी. जिस के चलते हलके उस का ऐसा दीवाना हुआ कि हर दिन मायाबाई से अकेले में मिल कर प्यार करने की जिद करने लगा. लेकिन यह रोजरोज कैसे संभव हो पाता. इसलिए मायाबाई ने एक रास्ता निकाला.
रात को जब उस का पति और ससुर खेत की रखवाली करने चले जाते तो सास के सो जाने के बाद आधी रात में वह अपने प्रेमी हलके को कमरे में बुला लेती और फिर पूरी रात उसके संग अय्याशी करने के बाद सुबह होने से पहले वापस भेज देती.

8 जनवरी, 2020 की रात को भी यही हुआ. रात में संजय और उस के पिता मलुवा खेत पर चले गए. फिर सास भी खाना खापी कर गहरी नींद सो गई तो मायाबाई ने हलके को बुला लिया. हलके अब प्यार के खेल में काफी होशियार हो चुका था. वह अपने मोबाइल पर अश्लील फिल्में लगा कर मायाबाई को गुदा मैथुन के लिए मना रहा था लेकिन मायाबाई तैयार नहीं हो रही थी. उस रोज हलके ने जिद की तो मायाबाई गुदा मैथुन के लिए राजी हो गई.

उसी दौरान मायाबाई के मुंह से चीख निकली तो बाहर कमरे में सो रही सास की नींद टूट गई. अनुभवी सास ऐसी चीख का मतलब अच्छी तरह जानती थी, सो उस ने उठ कर चुपचाप बहू के कमरे में झांक कर देखा तो पड़ोसी हलके के साथ बहू को अय्याशी करते देख उस की आंखें फटी रह गईं. सास ने गुस्से में किवाड़ पर लात मार कर दरवाजा खोला और मायाबाई और हलके को खूब खरीखोटी सुनाई. सास बहू की करतूत अपने बेटे को बताने के लिए रात में ही खेत पर जाने लगी.यह देख कर मायाबाई के हाथपैर फूल गए. उस ने पास पड़ी कुल्हाड़ी उठा कर हलके के हाथ में पकड़ाते हुए कहा कि वह सास की कहानी खत्म कर दे वरना उन के प्यार की कहानी खत्म हो जाएगी.

हलके के हाथपैर कांपने लगे. उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह बाहर जा कर कुसुम की हत्या कर सके. लेकिन जब मायाबाई भी साथ हो गई तो दोनों ने पीछे से जा कर खेतों पर पहुंच चुकी कुसुम की गरदन पर कुल्हाड़ी से वार किया, जिस से वह वहीं गिर गई. इस के बाद उस के शरीर पर कुल्हाड़ी से कई वार और किए, जिस से कुसुम की मृत्यु हो गई.कुछ देर बाद मायाबाई के कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर हलके चौधरी अपने घर चला गया. दोनों को भरोसा था कि पुलिस उन तक कभी नहीं पहुंच पाएगी, लेकिन पवई पुलिस ने 4 दिन में ही दोनों को कानून की ताकत का अहसास करवा दिया.

इफ्तार पार्टी में पहुंचीं प्रेग्नेंट सना खान, पर इस वजह से ट्रोल हुए पति अनस मुफ्ती

बॉलीवुड में बीते कुछ दिनों से लगातार इफ्तार पार्टी देखने को मिल रही है, महाराष्ट्र के कांग्रेस लीडर बाबा सिद्दीकी ने भी कुछ दिनों पहले इफ्तार पार्टी रखी थी, जिसमें बॉलीवुड एक्ट्रेस सना अपने पति अनस मुफ्ती के साथ शिरकत करती नजर आईं.

बता दें कि सना खान ब्लैक रंग के बुर्के में नजर आ रही हैं, प्रेग्नेंट सना खान बुर्के में काफी ज्यादा खूूबसूरत लग रही हैं,जिसके बाद कैमरे के पास पोज देती सना खान को पति अनस लेकर जाने लगे तो लोग उनके बर्ताव को देखकर भड़क गए. उन्हें सोशल मीडिया पर जमकर ट्रोल किया जा रहा है.

 

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इफ्तार पार्टी में सना खान बुर्का पहनकर पहुंची जिसमें उनका बेबी बंप साफ नजर आ रहा है, सना खान के इस लुक को लोग खूब पसंद कर रहे हैं, तस्वीर में सना कह रही हैं कि मैं थक गई हूं मुझे बार-बार मत लेकर खींचो जिसे देखकर अनस सुनते नहीं हैं. उनका यह एटीट्यूट लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रहा है.

वीडियो देखकर लोग भड़क गए हैं लगातार उन्हें ट्रोल कर रहे हैं, एक यूजर ने लिखा कि उसे सांस तो लेने दो, दूसरे ने लिखा है कि ये लोग कभी नहीं सुधरेंगे. इस वायरल हो रहे वीडियो को देखकर लोग लगातार अलग-अलग तरह के कमेंट कर रहे हैं.

YRKKH: अभि और अक्षरा के बीच गलतफहमी पैदा करेगी आरोही, अभिनव को भी भड़काएगी

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में इन दिनों लगातार नए ड्रामें देखने को मिल रहे हैं, फैंस अक्षरा और अभिमन्यु के किरदार को खूब ज्यादा पसंद कर रहे हैं, लेकिन कहानी में दोनों की लाइफ में काफी ज्यादा हंगामा मचा हुआ है.

दरअसल, आरोही और कायरव को पता चल गया है कि अबीर किसी और  का नहीं अभि का बच्चा है जिसके बाद से लगातार आरोही अभि और अक्षु के बीच में गलतफहमी पैदा करने की कोशिश कर रही है.

अब अक्षरा और अभिमन्यु को अलग करने के लिए आरोही चाल चलनी शुरू कर दी है, आरोही अभिनव के साथ जाकर अलग से अक्षरा के खिलाफ कुछ बात करती है, इसके साथ ही वह कहती है कि मैंने कहा था न आपको की अभिनव का इलाज यूएस में होना चाहिए वह बेहतर है अभि के इलाज के लिए.

वह कहती है कि आपको और अक्षरा को वहां जाना चाहिए अक्षु आरोही की इस बात को सुन लेती है , हालांकि अभिनव इस बात पर ध्यान नहीं देता है लेकिन अक्षरा को इसकी बात एकदम सही लगती है, ल अक्षरा इस बात पर सोचने लगती है कि क्या सच में हमें यूएस जाना चाहिए.

वह अपने मन में अबीर को यूएस लेकर जाने के बारे में ठान लेती है, वह इस बात पर कायरव से भी बात करती है और वह अपनी बहन का साथ देता है. जिसके बाद से अक्षरा गोयनका हाउस जाकर अबीर के सारे पेपर्स निकलवा लेगी , जिसके बाद से यह बात अभि को पता चल जाएगी और वह अक्षरा से खूब बहस करेगा.

हालांकि अक्षरा किसी की भी नहीं सुनती है वह अबीर को बाहर लेकर जाएगी.

महात्मा गांधी के बाद अब NCERT से हटाया गया पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद का नाम

NCERT की किताबों से इतिहास को हटाने के विवाद के बीच एक बार ये मामला गरमा गया है। पिछले दिनों महात्मा गांधी का नाम हटाने के बाद अब एनसीईआरटी (NCERT) की तरफ से 11वीं क्लास की पॉलिटिकल साइंस की नई किताब में देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद हटा दिया गया है. इससे पहले NCERT ने अपने सिलेबस से गुजरात दंगों, मुगल अदालतों, आपातकाल, शीत युद्ध और नक्सली आंदोलन जैसे विषयों को सिलेबस से हटा दिया था। इसके अलावा महात्मा गांधी और गोडसे से जुड़ी जानकारी को भी किताबों से हटाने की बात सामने आई थी।

NCERT क्या कहता है?
सिलेबस से मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम हटाए जाने को लेकर NCERT ने दावा किया है कि इस साल पाठ्यक्रम में कोई बदलाव और फेरबदल नहीं किए गए है। ये सारे बदलाव पिछले साल जून में ही किए गए थे। परिषद के प्रमुख दिनेश सकलानी ने जानकारी देते हुए कहा, कि पिछले वर्ष पाठ्यपुस्तकों को युक्तिसंगत बनाने की कवायद में कुछ अंशों को हटाने की घोषणा नहीं की गई ।

बता दें की मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम के साथ इसी किताब के दसवें चैप्टर से संविधान का दर्शन’ में जम्मू-कश्मीर का सशर्त विलय उल्लेख को हटा दिया गया है। केंद्र सरकार ने हाल ही में मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप बंद करने का भी ऐलान किया था।

क्या हटाया, क्या छोड़ा?
किताब के पहले चैप्टर में, ‘संविधान – क्यों और कैसे’ टॉपिक से, संविधान सभा समिति की बैठकों से आजाद का नाम हटाकर लिखा गया है “तब आमतौर पर, जवाहरलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल या बीआर अंबेडकर इन समितियों की अध्यक्षता करते थे”.

पहले क्या था?
उसमें लिखा था- संविधान सभा में अलग-अलग विषयों पर आठ प्रमुख समितियां थीं। आमतौर पर, जवाहरलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, मौलाना आजाद या अंबेडकर इन समितियों की अध्यक्षता करते थे। ये ऐसे लोग नहीं थे जो कई बातों पर एक-दूसरे से सहमत हों।

क्या है पूरा मामला
दरअसल, पिछले साल NCERT ने बच्चों के भार को कम करने के लिए सभी विषयों के सिलेबस में बदलाव किया था। NCERT ने दावा किया की सिलेबस कम करने पर बच्चों पर ज्यादा भार नहीं पड़ेगा साथ ही इससे बच्चों को जल्दी सिलेबस कवर करने में मदद मिलेगी। सिलेबस में महाभारत और रामायण के गुणगान के चैप्टर जोड़ने से एनसीआरटी के अनुसार कोई बोझ नहीं बढ़ेगा और बढ़े भी तो चिंता नहीं क्योंकि धर्मप्राण बच्चे ज्यादा दान देंगे, ज्यादा मंदिरों में जाएंगे और पंडितों की आय बढ़ाएंगे.

अमृतपाल और लाचार सिस्टम

इस देश में जो लाखों लोग हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे हैं उन पर भी केस दर्ज होना चाहिए, उन पर भी एनएसए के तहत कार्रवाई होनी चाहिए. अगर उन पर ऐक्शन होगा तो हम भी परिणाम भुगतने को तैयार रहेंगे. वैशाखी के बाद हम अपनी मुहिम को ले कर चर्चा करने वाले हैं. हम देश ही नहीं, पूरी दुनिया को बताएंगे कि हमारे लोगों के साथ कैसा बरताव किया जाता है.’’ 27 मार्च को दिए गए सिखों की सर्वोच्च संस्था अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के इस बयान के माने और मैसेज दोनों बहुत स्पष्ट थे.

उन्होंने अमृतपाल के एजेंडे से किसी भी किस्म की असहमति या सहमति नहीं जताई. हरप्रीत सिंह जिस तख्त पर बैठे हैं उस की अपनी अलग आन, बान और शान होती है. अगर आप सिख हैं तो अकाल तख्त की अवहेलना और अनदेखी का खयाल आप के दिलोदिमाग में आ ही नहीं सकता, जिन के आता है उन के सच्चे सिख होने में शक जताया जा सकता है. इसी दिन तीखे तेवर दिखाते हरप्रीत सिंह ने यह मांग भी की कि पंजाब के जिन भी नौजवानों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है उन्हें तुरंत रिहा किया जाए. अगर पंजाब के नौजवानों को पुलिस ने नहीं छोड़ा तो कोई हिंसक प्रदर्शन तो नहीं होगा लेकिन कूटनीतिक तरीके से उचित जवाब दिया जाएगा. दिलचस्प बात है कि यह न तो धमकी थी और न ही आग्रह था,

जो भी था बेहद तल्ख था जिसे सम झने वाले बिना किसी ज्ञानी के सम झाए सम झ गए और 2 दिनों बाद ही उन 348 सिख नौजवानों को ससम्मान जेल से रिहा कर दिया गया जिन्हें अमृतपाल का साथी यानी खालिस्तानी होने के शक या आरोप में गिरफ्तार किया गया था, मानो पुलिस से कोई भारी भूल हो गई थी जो अब सुधार ली गई है. कुछ को पहले असम शिफ्ट किया जा चुका था. कुछ इसी तरह उन के साथ होता है जो हिंदू राष्ट्र की मांग उठाते हुए बहक कर कुछ अनापशनाप बोल देते हैं. रुख भगवंत मान का इस मांग पर पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान मुंह से तो कुछ नहीं बोले लेकिन राज्य सरकार ने युवकों को रिहा करने के आदेश जारी कर उन की घरवापसी का रास्ता साफ कर दिया.

यह वह वक्त था जब ‘वारिस पंजाब दे’ का मुखिया अमृतपाल पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों के साथ छिपनछिपाई नाम का खेल खेलते उन्हें अपनी उंगलियों पर नचा रहा था. लेकिन इस बहाने भगवंत मान का रुख क्लीयर हुआ कि वे भी खालिस्तान की मांग का खुला विरोध नहीं कर पा रहे हैं. वे इस मांग के समर्थक हैं या नहीं, यह भले ही स्पष्ट न हो पर मान के मन की बात अकाल तख्त के आदेशों से एक मिलीमीटर भी इधरउधर होगी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. ये वही मान हैं जो कुछ दिनों पहले तक हरप्रीत सिंह के बयानों को ले कर उन पर निशाना साध रहे थे. उन्होंने जत्थेदार को राजनीति से दूर रहने की सलाह दी थी और उन पर सिखों को भड़काने का आरोप भी लगाया था जिस के जवाब में उन्हें जो सुनने को मिला उस का सार यह था कि हमें राजनीति मत सिखाओ. फिर एकाएक ही ऐसा क्या हो गया कि भगवंत फुस्स हो गए, इसे सम झना जरूरी है. इसे कुछ ऐतिहासिक व राजनीतिक किस्सों से सम झना आसान रहेगा कि भगवंत का हृदय परिवर्तन क्यों हुआ.

एक वक्त में सन 1802 के आसपास पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह का दिल मुसलिम समुदाय की 13 साल की एक नाचने वाली लड़की पर आ गया था. लड़की का एक नाम मोहरान था. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, उस का एक नाम गुलबहार था जो बड़ी तेजतर्रार व सुंदर थी. वह पेशे से गायिका थी. उस नर्तकी पर रणजीत सिंह बुरी तरह मरमिटे थे. इतिहास इस प्रेम कहानी के दिलचस्प प्रसंगों से भरा पड़ा है. रणजीत सिंह उसे महज प्रेमिका बना कर रखना चाहते थे. इस पर मोहरान बोली कि, ‘मैं मुसलमान हूं, प्रेमिका बन कर नहीं रह सकती. आप चाहें तो मु झ से शादी कर सकते हैं.’ यह मामला करतार सिंह की किताब ‘स्टोरीज फ्रौम सिख हिस्ट्री’ में शामिल है. इश्क के समंदर में गोते लगा रहे अधेड़ रणजीत सिंह को कमसिन मोहरान के आगे कुछ नजर ही नहीं आ रहा था.

सो, वे उस की यह बात भी मान बैठे कि इसलामिक रिवाज के मुताबिक वे ससुराल का चूल्हा भी जलाएंगे. यह सिख धर्म की शान से मेल खाती बात या सौदा नहीं था. कट्टर सिख इस प्यार से नाखुश थे लेकिन दिक्कत यह कि महाराजा रणजीत सिंह को सम झाने की जुर्रत/हिम्मत कौन करे. अकाल तख्त ने यह सब किया और रणजीत सिंह को तलब कर उन्हें 50 कोड़ों की सजा सुनाई. एक तरह से देशभर में फैले सिखों के पांचों तख्त आज भी न्याय ही करते हैं और उसे सभी सिर झुका कर मानते भी हैं. अब बात कुछ प्रभावी सिख नेताओं की जो अकाल तख्त के सामने पेश हुए और सुनाई गई सजा भुगती. कांग्रेस के दिग्गज नेता बूटा सिंह, जो देश के केंद्रीय मंत्री भी रहे थे, को उन के ब्लूस्टार के बाद दोबारा अकाल तख्त बरबादी के कारण 1994 में पांचों तख्तों में एकएक हफ्ते के लिए लंगर में बरतन साफ करने, झाड़ू लगाने और जूते साफ करने की सजा मिली थी, जो उन्होंने पूरी श्रद्धा से भुगती थी. बूटा सिंह से बड़े दिग्गज ज्ञानी जैल सिंह को भी राष्ट्रपति रहते अकाल तख्त के सामने तलब किया गया था.

चूंकि राष्ट्रपति का जाना शोभा नहीं देता, इसलिए उन का प्रतिनिधिमंडल पेश हुआ और उस ने अपना पक्ष रखा. इस के बाद राष्ट्रपति पद से हटने के बाद ज्ञानी जैल सिंह ने अकाल तख्त के सामने पेश हो कर माफी मांगी थी. निष्कर्ष यह निकला कि आप कोई भी हों, किसी भी पद पर हों, अकाल तख्त की सजा से इनकार नहीं कर सकते. जाहिर है, ये चर्चित प्रचलित किस्से भगवंत मान ने भी सुन रखे होंगे, इसलिए उन्होंने 348 सिख नौजवानों को जेल में रखे रहने की गलती नहीं की. पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को भी अकाल तख्त का मान रखना पड़ा. इस से ही सम झ आता है कि वहां या कहीं और खालिस्तान की मांग नीचे कहीं दबी है और जो लोग इस से असहमत हैं, उन का कोई रसूख या वजन नहीं है. लेकिन ये लोग भी हिंदू राष्ट्र की मांग को खालिस्तान के आईने में देखते हैं तो लगता उन्हें भी है कि जब कट्टर हिंदू मांग कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं. फिर सारी पुलिस और केंद्रीय एजेंसियां हमारे पीछे ही क्यों. हिंदुओं को शह और सहायता क्यों. सरकारी और धार्मिक संरक्षण के हकदार हिंदू ही क्यों, हम क्यों नहीं?

अमृत की अभिलाषा इस साल मीडिया में सब से ज्यादा चर्चित लोगों में से एक अमृतपाल आखिर चाहता क्या है, यह सवाल अब किसी जवाब का मुहताज नहीं रह गया है कि वह खालिस्तान चाहता है. करिश्माई तरीके से ‘वारिस पंजाब दे’ का मुखिया बन बैठा यह सिख नौजवान बिलाशक राह भटक चुका है लेकिन वह यह भी कह रहा है कि राह तो वे लोग भी भटके हैं जो हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे हैं और जोरशोर से कर रहे हैं. यह सवाल उस ने गृहमंत्री अमित शाह से पूछा था और उन्हें इंदिरा गांधी के अंजाम की याद भी दिलाई थी. तब ऐसा लगा था कि भगवा खेमे से कोई तार्किक जवाब आएगा.

लेकिन पुलिस और केंद्रीय एजेंसियां 18 मार्च से उस की तलाश में कुछ इस तरह जुटी हैं मानो वह चंबल का दुर्दांत डकैत या बंगाल का खूंखार नक्सली हो और जिस ने दर्जनों हत्याएं कर रखी हों. लगभग सभी न्यूज चैनल अमृतपाल का हौवा 18 मार्च से ही बनाए बैठे हैं. उसे बुजदिल, भगोड़ा और विदेशी एजेंट कहा जा रहा है जो मुमकिन है वह हो भी. लेकिन यह उस के किए सवाल का जवाब नहीं है जिस से जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह भी सहमति जता चुके हैं और भगवंत मान भी, जो सियासी तौर पर इधर खाई तो उधर कुआं वाली पगडंडी से गुजर रहे हैं. लेकिन हरप्रीत सिंह के बयान के बाद तो किसी सर्वे की भी जरूरत नहीं रह जाती कि कितने सिख अलग देश चाहते हैं और न भी चाहते हों तो वे खामोश क्यों हैं. यही खामोशी एक बड़ा खतरा है जो सहमति और असहमति की सीमारेखा पर खड़ी है.

सरकार को, प्रधानमंत्री को और गृहमंत्री को चाहिए कि जितनी फुरती और दिलचस्पी वे अमृतपाल को पकड़ने में दिखा रहे हैं उस से आधी भी सिखों की खामोशी को सम झने और कोई गलतफहमी अगर है तो उसे दूर करने में लगाएं तो न तो कोई जगजीत सिंह पैदा होगा, न कोई भिंडरांवाला होगा और न ही कोई अमृतपाल उन्हें छकाएगा. समस्या कतई राजनीतिक नहीं है, बल्कि खालिस धार्मिक है. जान कर हैरानी होती है कि खालिस्तान की तरह हिंदू राष्ट्र की मांग भी सौ साल पुरानी ही है. लेकिन देश हिंदू राष्ट्र नहीं बन सका. हालांकि यह मांग कर रहे हिंदूवादियों को बहैसियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उम्मीद है कि कभी किसी भी रात 8 बजे वे देश को हिंदू राष्ट्र घोषित कर सकते हैं. ऐसी पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल होती रहती हैं जिन से गैरहिंदुओं को तो छोडि़ए पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों में भी डर फैलता है कि फिर पिछड़ों, औरतों और दलितों की खैर नहीं. मामला यहीं से उल झना शुरू होता है कि हिंदू कौन? और देश हिंदू राष्ट्र क्यों? और बकौल अमृतपाल, खालिस्तान राष्ट्र क्यों नहीं? कहने को तो बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि चूंकि देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं,

इसलिए इसे हिंदू राष्ट्र होना चाहिए लेकिन ये हिंदू हैं कौन, इस बारे में भी ‘सरिता’ के मार्च (द्वितीय) अंक में बताया गया है. डालडाल और पातपात हालफिलहाल तो सारे के सारे लठ ले कर अमृतपाल के पीछे पड़े हैं जो मजे लेले कर पुलिस को छका रहा है. आइए सिलसिलेवार देखें और इस झमेले की तह भी देखें. अमृतपाल पर कुल 3 मामले दर्ज हैं जो बहुत संगीन या खतरनाक नहीं हैं लेकिन उस की तलाशी की मुहिम इतने ड्रामाई अंदाज में हुई कि पूरे देश के लोग सहम गए कि जाने अब क्या होगा. इधर न्यूज चैनल वाले भी राहुल गांधी के लोकसभा से निष्कासन को साइड में रखते अमृतपाल की सनसनी को अपने शब्दों से छोंकबघार रहे थे. अमृतपाल का गांव जल्लुपुर खेड़ा पुलिस ने चारों तरफ से घेर रखा है, गांव में आनेजाने वाले हर व्यक्ति और वाहन की तलाशी ली जा रही है और जल्लुपुर खेड़ा के चारों तरफ सैंट्रल फोर्सेस के जवान तैनात कर दिए गए हैं आदि जैसे दर्जनभर वाक्य एंकरों ने कुछ ऐसे गागा कर बताए मानो कयामत और कहर सामने ही कहीं खड़े हों.

इसी दौरान अमृतपाल के भी कुछ नएपुराने वीडियो बयान सामने आए जिन में वह कह रहा है कि लोग खालिस्तान के साथ हैं. हिंदू राष्ट्र पर डिबेट नहीं तो खालिस्तान पर क्यों और सरकारें सिखों के खून की दुश्मन क्यों? वीडियो जारी करना अमृतपाल की मजबूरी हो गई थी. वह अपने समर्थकों से कहता नजर आया कि उसे ऊपर वाला ही गिरफ्तार कर सकता है. इस से पुलिस और मीडिया के सूत्रों की पोल तो खुली ही, साथ ही, यह भी स्पष्ट हो गया कि अमृतपाल पंजाब का नया भस्मासुर बन चुका है, कभी वह बिना पगड़ी सीसीटीवी फुटेज में किसी को नजर आया तो 21 मार्च को दिल्ली के डीयू की छात्रा के साथ दिखा. 23 मार्च को अमृतपाल उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में नजर आया और फिर उस की लोकेशन पंजाब के होशियारपुर की मिलने लगी. यह पुलिस को शायद किसी आकाशवाणी से पता चला कि अमृतपाल के साथ उस का साथी पप्पल प्रीत सिंह भी है. इसी वक्त में पप्पल प्रीत ने भी अपना वीडियो जारी कर पुलिस की कलई खोल दी. पंजाब में अब तक हर जगह अलर्ट घोषित हो चुका था, कोई 350 डेरों को पुलिस खंगाल रही थी. पुलिस का मजाक क्यों बनता रहता है, यह उस की ही हरकतों से उजागर होता रहा.

आखिरकार 10 अप्रैल को पुलिस ने पप्पल प्रीत को जालंधर से गिरफ्तार कर लिया. अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं सील कर दी गईं लेकिन अमृतपाल लुधियाना, जालंधर, अमृतसर, पीलीभीत, मेरठ और यहांवहां न जाने कहांकहां दिखता रहा. मेरठ में तो एक औटोचालक अजय की शामत ही आ गई क्योंकि अमृतपाल से मिलताजुलता कोई शख्स उस के औटो में बैठा था. जगहजगह अमृतपाल के फोटो चस्पां कर दिए. उस के कई करीबियों व रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया गया. हैरानी की हद अब तक लोग इस खेल से ऊब चले थे और यह हर कोई कहने लगा था कि पुलिस बेकार में मगजमारी कर रही है. वह तो अमृतपाल से मिली हुई है या उस के एनकाउंटर की तैयारी कर रही है. लोगों को हैरानी इस बात की भी रही कि टैक्नोलौजी के इस दौर में किसी का भी 2-3 दिनों से ज्यादा छिपे रहना संभव ही नहीं. गलीमहल्लों में सीसीटीवी लगे हैं. अमृतपाल मोबाइल इस्तेमाल कर रहा है पर पुलिस को नहीं मालूम. वह सरेआम वीडियो वायरल कर रहा है लेकिन पुलिस को इस की हवा तक नहीं लगती. जो खबरें छन कर आ रही थीं उन के सोर्स तक की जानकारी पुलिस को नहीं और अगर है या थी तो अमृतपाल की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो पाई. एक और वायरल वीडियो में अमृतपाल ने सरवत खालसा के आयोजन की मांग कर डाली.

यह मांग असल में एक चैलेंज और सिखों को टटोलने का जरिया भी थी. सरवत खालसा एक तरह की मीटिंग होती है जिस में दुनियाभर के सिखों को आमंत्रित किया जाता है ताकि वे सिख धर्म से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा कर किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचें. सरवत खालसा बुलाने का अधिकार सिर्फ अकाल तख्त साहिब को ही होता है. इन पंक्तियों को लिखे जाने तक यह तय नहीं हो पाया था कि सरवत खालसा का आयोजन होगा या नहीं. अकाल तख्त का एक बड़ा असमंजस यह था कि अगर आयोजन किया तो बवंडर तो मचेगा क्योंकि पुलिस भी किसी न किसी बहाने आयोजन में दखल देगी और नहीं किया तो संदेश यह जाएगा कि मसले को हल करने में उस ने कोई दिलचस्पी नहीं ली और न ही पहल की.

खतरे धार्मिक राष्ट्र के खालिस्तान की मांग कर रहे अमृतपाल की हालत शेर पर बैठे सवार जैसी हो गई है, जो बेचारा भूखप्यास लगने पर खापी भी नहीं सकता और शेर से उतरता है तो उस का भोजन बन जाने का डर भी उसे सताता रहता है. कोई वजह नहीं कि अमृतपाल से किसी तरह का इत्तफाक रखा जाए. इसी तरह कोई वजह नहीं कि हिंदू राष्ट्र की मांग करने वालों से भी सहमत हुआ जाए. अमृतपाल के बाद ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने भी गेंद भगवा खेमे के पाले में डाल दी है कि हिंदू राष्ट्र की मांग हो सकती है तो खालिस्तान की क्यों नहीं. मामूली से लगने वाले इस सवाल का जवाब कोई ज्ञानी/ध्यानी दे पाए तो समस्या सुल झ भी सकती है. यह देखने व सम झने को कोई तैयार नहीं कि सिख, मुसलमान या खुद हिंदू घुटन क्यों महसूस कर रहे हैं और इस की जड़ में कौनकौन है.

रही बात अकाल तख्त की तो हिंदू राष्ट्र की मांग करने वालों से उस का बैर पुराना है. ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने अक्तूबर 2019 में भी कहा था कि आरएसएस पर प्रतिबंध लगना चाहिए क्योंकि वह विभाजन की बात करता है. तब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने देश के हिंदू राष्ट्र होने की बात कही थी. अब शायद ही हरप्रीत सिंह बता पाएं कि क्या खालिस्तान की मांग विभाजनकारी नहीं है और उस का स्पष्ट विरोध क्यों नहीं वे कर पा रहे? एक धार्मिक राष्ट्र के खतरे और नुकसान क्या होते हैं,

यह अफगानिस्तान की हालत देख सहज सम झा जा सकता है जहां आम लोगों का सुकून से जीना दूभर हो गया है, कंगाली पांव पसार रही है, कट्टरवादी हुड़दंग, हिंसा और आतंक मचाए हुए हैं, औरतों को स्कूलकालेज व नौकरी पर नहीं जाने दिया रहा. भारतीय, चाहे वे हिंदू हों या सिख, को इस से सबक सीखना चाहिए. आज जो लोग धार्मिक राष्ट्र के लिए उतावले हुए जा रहे हैं, खमियाजा भी कल को उन्हें ही भुगतना है क्योंकि तब लोकतंत्र और संविधान तो दूर की बातें हैं, कानून भी माने नहीं रखेगा. मुट्ठीभर रसूख वाले कट्टर लोग सब के मालिक बन बैठेंगे. धर्म आधारित राष्ट्र में ऐसा ही होता है.

पर्यटन: विलेज टूरिज्म से स्मार्ट होंगे गांव

टूरिज्म किसी भी देश के लिए आय और नौकरी पैदा करने का बढि़या जरिया होता है. इन दिनों भारत में विलेज टूरिज्म का चलन खूब बढ़ रहा है. अब टूरिस्ट किसी विशेष जगह की संस्कृति, खानपान और रहनसहन को जानने में दिलचस्पी रख रहे हैं. ऐसे में वहां के लोकल लोगों के लिए यह सुनहरे अवसर से कम नहीं. 30 साल मर्चेंट नेवी में नौकरी करने के बाद आलोक कपूर ने उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 60 किलोमीटर दूर सीतापुर जिले के सुजौलियां गांव में 4 एकड़ जमीन पर ‘आलोक फार्म विलेजर रीट्रिट’ नाम से अपना रिसोर्ट खोला है.

लखनऊ-सीतापुर मार्ग से 3 किलोमीटर अंदर सुजौलियां गांव जाना पड़ता है. इस में 8 कौटेजनुमा कमरे बने हैं. इस के साथ ही साथ रिसोर्ट में फलदार पेड़ हैं जो अलगअलग वैराइटी के हैं. इन में काला आम, सफेद जामुन जैसी किस्में हैं. यहां ‘मडबाथ’ के लिए मुलतानी मिट्टी का तालाब बनाया गया है. जिस में ‘मडबाथ’ ले सकते हैं. स्किन के लिए इस को लाभकारी माना जाता है. आने वालों के मनोरंजन और खेल के लिए यहां एक साइकिल ट्रैक है. जिस के लिए साइकिल भी यहां पर मिलती है. यहां खेत से निकले गन्ने का रस पी सकते हैं. इस के लिए खेत से गन्ना तोड़ने, उस को साफ करने और कोल्हू से गन्ने का रस निकालने जैसे मजेदार काम भी कर सकते हैं.

यहां खेतों में कई तरह की और्गेनिक खेती होती है. इस से तैयार पैदावार भी ले सकते हैं. क्रिकेट से ले कर गिल्लीडंडा तक खेलने के साधन हैं. नदीनुमा एक स्विमिंग पूल है, जिस में साफ और क्लोरिनमुक्त पानी होता है. आलोक फार्म में डे पिकनिक के साथ ही साथ घूमने वाले यहां रात में रुक भी सकते हैं. यहां कई तरह से छोटे फंक्शन भी आयोजित होते हैं. डैस्निशन वैडिंग भी यहां पर की जाती है. अलगअलग तरह के पक्षी कलरव करते हैं तो अलग ही आनंद आता है. आलोक कपूर कहते हैं, ‘‘हम इस को आगे बढ़ाना चाहते हैं और गांव के लोगों को रोजगार भी देना चाहते हैं. अभी भी यहीं गांव के लोग काम करते हैं. हम खाने में लोकल फूड और आने वालों की पसंद का खयाल रखते हुए भोजन तैयार कराते हैं. यहां का पैकेज लोगों की सुविधा के अनुसार तय कर लेते हैं.

हम इस के प्रचार के लिए सोशल मीडिया और वैबसाइट का सहारा लेते हैं.’’ उत्तर प्रदेश में विलेज टूरिज्म का चलन अभी नया है. यह तेजी से बढ़ रहा है. हर जिले और आसपास की जगह पर ऐसे विलेज स्पौट मिल जाएंगे जहां पर्यटकों के लिए सुविधाएं दी जा रही हैं. जिन प्रदेशों में पर्यटक अधिक जाते हैं वहां यह कल्चर पहले से ही विकसित है. हमारे देश में अभी तक पहाड़ों पर सब से अधिक घूमने वाले लोग जाते हैं. इस वजह से पहाड़ों पर इस तरह के ‘होम स्टे’ हैं. पहाड़ों में होम स्टे भी विलेज टूरिज्म जैसे होते हैं. बजटफ्रैंडली होता है होम स्टे सिराज टूर्स की डायरैक्टर हिना सिराज कहती हैं, ‘‘होम स्टे उन लोगों के लिए बहुत उपयोगी होता है जो ग्रुप में पर्यटन करने के लिए जाते हैं. विदेशों से आने वाले पर्यटक इस को खासतौर से पसंद करते हैं.

कारण यह होता है कि ये लोग लंबे समय तक रुकना चाहते हैं. इन के लिए होम स्टे बजट के हिसाब से बेहतर होता है.’’ हिमाचल, उत्तराखंड, कश्मीर, राजस्थान और गोवा में ऐसे होम स्टे बहुत हैं. ये शहर से दूर होते हैं. कई लोगों ने अपने घर के कुछ हिस्से को होम स्टे बनाया है तो कुछ लोगों ने अपने पूरे के पूरे घर को ही होम स्टे बना दिया है.’’ हिना बताती हैं, ‘‘मसूरी, कौसानी, औली, कुफरी, कूल्लू, मनाली, रोहतांग, नैनीताल, अल्मोड़ा जैसे पहाड़ी इलाकों के साथ ही गोवा में भी यह काफी मशहूर है. रशियन पर्यटकों के बीच यह बहुत फेमस है. गोवा में अपार्टमैंट से ले कर विला तक होम स्टे के लिए उपलब्ध हैं. पणजी के आसपास ऐसे होम स्टे बहुत हैं.

इन का प्रयोग वे लोग ज्यादा करते हैं जो लंबे समय तक इन इलाकों में रहना चाहते हैं और बजट को देखते हैं. शहर से बाहर होने के कारण यहां शांत माहौल रहता है. जो लोगो को पसंद आता है. वे शहर की भीड़भाड़ से दूर घूमने का आंनद लेते हैं.’’ मिलता है लोकल माहौल बढ़ते शहरीकरण के चलते लोगों का क्रेज गांव को देखने व सम?ाने का होने लगा है. इस के चलते ही ग्रामीण टूरिज्म बढ़ने लगा है. अब लोग घूमने वाली जगहों पर जाते हैं तो मुख्य स्थल पर न रुक कर आसपास के गांवों में बने रिसोर्ट या होटलों में रहते हैं. इस के कई लाभ हैं. एक तो यहां शहरों जैसी भीड़ नहीं होती, दूसरे, यहां का हराभरा प्राकृतिक माहौल पंसद आता है, ताजा और स्वादिष्ठ खाना मिलता है. आसपास गांव जैसा माहौल मिलता है जो मन को सुकून देता है. सब से बड़ी बात शहरों के मुकाबले यहां कम खर्च होता है. ऐसे में फैमिली और दोस्तों के साथ यहां घूमना मजेदार होता है.

जब शहर या बड़े होटल में रुकते हैं तो वहां का खानपान और बाकी माहौल शहरी सुविधाओं वाला होता है. इस कारण होटल को छोड़ लोग रिसोर्ट में रुकने लगे. समय के साथ ही रिसोर्ट भी काफी बदल गए हैं. वे भी फाइवस्टार होटल जैसे हो गए हैं. यहां आप को लोकल माहौल देखने को नहीं मिलता है. ऐसे में अब होम स्टे का चलन बढ़ गया है. यह सस्ता होने के साथ ही आसपास के माहौल को सम?ाने का मौका भी देता है. ज्यादातर विदेशी पर्यटक लंबे समय और शहर, गांव या पर्यटक स्थल को सही से सम?ाना चाहते हैं, इसलिए वे होम स्टे को ज्यादा पसंद करते हैं.

जो लोग ग्रुप में घूमने जाते हैं वे भी इन्हीं जगहों को पसंद करते हैं. लखनऊ की गोमती नदी के किनारे गांव की तरफ ड्रीमवैली पार्क बना है. जो पूरी तरह से प्राकृतिक माहौल में है. यहां भी पर्यटक आते हैं. नैचुरोपैथी का यह सैंटर विकसित हो रहा है. इस के डायरैक्टर राजेश राय कहते हैं, ‘‘हमारा प्रयास है कि अगर पर्यटक यहां आता है तो उसे प्राकृतिक माहौल का आनंद मिलना चाहिए. यहां गाय हैं. दूसरे पशुपक्षी हैं. इस से छोटे चिडि़याघर का एहसास होता है. नाव, बैलगाड़ी और ऊंट की सवारी का भी आनंद लिया जा सकता है. किसान पथ के पास गोमती नदी के ऊपर से शारदा नहर निकलती है, जिस से यहां का नजारा और भी अधिक खूबसूरत हो जाता है. बढ़ रहा होम स्टे का दायरा हिना सिराज कहती हैं, ‘‘अधिकतर लोग शांत माहौल में छुटिट्यां गुजारने के लिए आते हैं.

गरमी की बात करें या सर्दी की, हर मौसम में अच्छे पर्यटक स्थलों पर इतनी भीड़ होती है कि वहां होटल मिलना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में हम पर्यटकों को आसपास की ऐसी जगहों की जानकारी देते हैं जहां अच्छा होम स्टे मिल जाता है. वहां का माहौल भी शांत रहता है. घूमने वाले को कम बजट में यह मिल जाता है.’’ ‘‘इस से होम स्टे चलाने वाले परिवारों को अतिरिक्त आमदनी हो जाती है. होम स्टे चलाने वाले लोग पर्यटक की अच्छी मेहमाननवाजी करते हैं. अब होम स्टे को ले कर घूमने वाले खुद ही जानकार हो गए हैं. वे पहले से ही इस को सोच कर चलते हैं.’’ पहले जो होम स्टे चलाने का काम पहाड़ पर लोग करते थे वही काम अब मैदानी इलाकों में भी होने लगा है. अब यहां लोगों ने अपने फार्महाउस को ही रिसोर्ट बनाना शुरू कर दिया है. वहीं सरकार ने इस को बढ़ावा देने के लिए विलेज टूरिज्म का नाम दे दिया है. उत्तर प्रदेश की सरकार ने इस को अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है. सरकार से अलग कई लोगों ने अपने लैवल पर इस कारोबार को बढ़ाना शुरू कर दिया है.

राजस्थान में वहां के महल और हवेलियों को पर्यटकों के लिए खोला गया. अब उत्तर प्रदेश भी इस प्रयोग को दोहराना चाहता है. हर प्रदेश इस तरह के प्रयोग अपनेअपने स्तर पर कर रहा है. जैसेजैसे आनेजाने के साधन और सड़कें अच्छी होने लगी हैं, एक जगह से दूसरी जगह की दूरी कम होने लगी है, पर्यटन एक नए कारोबार की तरह से बढ़ने लगा है. ऐसे में अब प्रदेश इस कारोबार से जुड़ कर अपनी आमदनी को बढ़ाना चाहता है. होम स्टे या विलेज टूरिज्म इस का मुख्य आधार बनने लगा है. इस से गांव के लोगों की आमदनी भी बढ़ेगी जो गांवों को स्मार्ट विलेज बनाएगी. द्य बड़ा इमामबाड़ा और भूलभुलैया लखनऊ की सब से प्रसिद्ध घूमने वाली जगह बड़ा इमामबाड़ा है. इस बिल्ंिडग के एक हिस्से को भूलभुलैया के नाम से जाना जाता है. इस भूलभुलैया में प्रवेश करने के लिए 1,024 द्वार हैं लेकिन बाहर वापस निकलने के लिए सिर्फ 2 रास्ते हैं. यह इसलाम धर्म के अनुयायियों के लिए प्रसिद्ध स्थल है जहां हर साल मोहर्रम के दिनों में बड़ी संख्या में लोग इमाम हुसैन की शहादत का शोक मनाने के लिए आते हैं.

आज भले ही इस के ज्यादातर हिस्से खंडहर में तबदील हो चुके हैं परंतु इस ऐतिहासिक स्थल का भ्रमण करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यह मुगल वास्तुकला इंजीनियरिंग का एक जीताजागता उदाहरण है. इस की संरचना किसी धातु या लकड़ी के बिना की गई. इतिहास को सम?ाने वाले इस खूबसूरत भवन को जरूर देखते हैं. इस का निर्माण 1754 में मजदूरों को रोजगार देने के उद्देश्य से नवाब आसफुद्दौला द्वारा करवाया गया था. इसे बनाने में 14 साल का समय लग गया था. लखनऊ के बड़ा इमामबाड़ा के साथ ही साथ रूमी दरवाजा, बावली, गार्डन, भूलभुलैया, घंटाघर और पिक्चर गैलरी भी देख सकते हैं. द्य गोवा के समुद्री तट भारत में अगर समुद्री तटों का कहीं दिल खोल कर मजा लिया जा सकता है तो वह है गोवा, जहां के बीचेस की खूबसूरती देखते ही बनती है.

वहां छोटेबड़े मिला कर कुल 40 बीच हैं. यह ऐसा राज्य है जहां सब से अधिक विदेशी पर्यटक घूमने जाते हैं. इन बीचेस में खूब सारी एक्टिविटीज हैं जो सिर्फ समुद्री तटों पर एंजौय कर सकते हैं, जैसे सनबाथ, जेटस्की, पैरासेलिंग आदि. गोवा क्षेत्रफल में भारत का सब से छोटा और जनसंख्या में चौथा सब से छोटा राज्य है. पूरी दुनिया में गोवा अपने समुद्र के किनारों के लिए जाना जाता है. गोवा पहले पुर्तगाल का एक उपनिवेश था. पुर्तगालियों ने गोवा पर लगभग 450 सालों तक शासन किया और 19 दिसंबर, 1961 में इसे भारतीय प्रशासन को सौंपा गया.

भारत को औस्कर, इमोशन का उत्सव

तमिलनाडु के मुदुमलै नैशनल पार्क में 5 साल तक फिल्माई गई कार्तिकी गोंजाल्विस की फिल्म ‘द एलिफैंट व्हिस्परर्स’ ने औस्कर अवार्ड जीत कर इतिहास रचा है. इस की कहानी अकेले छोड़ दिए गए हाथी और उस की देखभाल करने वालों के बीच अटूट बंधन है. 13 मार्च, 2023 भारत के लिए गर्व का क्षण था जब नैटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हुई फिल्म ‘आरआरआर’ के गाने ‘नाटू नाटू’ को औस्कर अवार्ड से सम्मानित किया गया.

इतना ही नहीं, नैटफ्लिक्स पर ही 8 दिसंबर, 2022 से स्ट्रीम हुई कार्तिकी गोंजाल्विस निर्देशित डौक्यूमैंट्री फिल्म ‘द एलिफैंट व्हिस्परर्स’ ने 95वें औस्कर में ‘डौक्यूमैंट्री शौर्ट फिल्म’ श्रेणी में अकादमी पुरस्कार जीतने वाली भारत की पहली फिल्म बन कर इतिहास रच दिया. यह हर भारतीय के लिए गौरव की बात है. क्या है डौक्यूमैंट्री ‘द एलिफैंट व्हिसपरर्स’ डौक्यूमैंट्री ‘द एलिफैंट व्हिसपरर्स’ की कहानी इस की निर्देशक कार्तिकी गोंजाल्विस की मां प्रेसिला ने लिखी है. 40 मिनट की अवधि वाली यह डौक्यूमैंट्री तमिल भाषा में है और इंग्लिश भाषा में सब टाइटल्स हैं. इस फिल्म का विश्व प्रीमियर 9 नवंबर, 2022 को संयुक्त राज्य अमेरिका के वृत्तचित्र फिल्म समारोह ‘डाक एनवाईसी फिल्म फैस्टिवल’ में हुआ था. बाद में 8 दिसंबर, 2022 से यह फिल्म नैटफ्लिक्स पर एकसाथ 190 देशों में स्ट्रीम होने लगी. इस की कहानी तमिलनाडु में मुदुमलाई नैशनल पार्क से सटे गांव थेपाथलई की है जहां कट्टुनायकर आदिवासी जनजाति के लोग रहते हैं. इसी गांव में बोमन और बेली रहती हैं.

बेली के पति की मौत हो चुकी है. बोमन व बेली के बीच दोस्ती है. फौरेस्ट औफिसर एक दिन बोमन व बेली को अनाथ हाथी रघु को उस की देखभाल करने के लिए सौंपते हैं. रघु की मां की बिजली का करंट लगने के बाद एक गांव में उस के झुंड द्वारा छोड़ दिया गया था. बोमन व बेली हाथी रघु को अपने बेटे की तरह पालते हैं. बाद में बेली और बोमन ने 3 माह की अनाथ हथिनी अम्मू को गोद ले लिया था. बोमन उन के माथे को सुंदर रंगीन डिजाइनों से सजाते हैं, शायद पहचान चिह्न के रूप में उन्हें अन्य 150 विषम हाथियों से अलग करने के लिए जो हरे जंगलों में रहते हैं.

बाघ बारबार झाडि़यों के पीछे से झांकते हैं. रघु व अम्मू की परवरिश करतेकरते बोमन व बेली एकदूसरे के इतने करीब आ जाते हैं कि दोनों अधेड़ उम्र में शादी कर लेते हैं. अमूमन हर डौक्यूमैंट्री फिल्म में वौइसओवर ज्यादा होता है. मगर कार्तिकी गोंजाल्विस निर्देशित डौक्यूमैंट्री फिल्म ‘द एलिफैंट व्हिसपरर्स’ में वौइसओवर नहीं है. हम जब इसे देखते हैं तो यह एक पारिवारिक ड्रामा वाली इमोशनल फिल्म लगती है. फिल्म में हाथी की बुद्धिमत्ता, भावना और उस की संजीदगी भी उभर कर आती है. एक दृश्य है जब बोमन और बेली को रघु व अम्मू का साथ छोड़ना पड़ता है.

तब रघु यानी कि हाथी की आंखों से भी आंसू बहते हैं. पूरी फिल्म में आदिवासी संस्कृति और जंगल वगैरह सबकुछ बहुत सजीवता से उभर कर आता है. इसी के साथ यह डौक्यूमैंट्री प्रकृति के साथ सद्भाव व जनजातीय लोगों के जीवन की पड़ताल करती है. यह फिल्म पर्यावरण संरक्षण की भारतीय संस्कृति और परंपरा को भी प्रदर्शित करती है. जश्न का हिस्सा बने बोमन और बेली हाल ही में नैटफ्लिक्स ने औस्कर अवार्ड का जश्न मनाने के लिए तमिलनाडु के गांव से बोमन व बेली को मुंबई बुलाया.

तब हमारी भी उन से मुलाकात हुई. डौक्यूमैंट्री के मुख्य नायक बोमन ने औस्कर अवार्ड की ट्रौफी अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘मु झे गर्व है कि हमारे बच्चों (हाथी के बच्चे रघु व अम्मू) व हमारी कहानी को पूरे विश्व के सामने रखा गया. मु झे तो 2 हाथियों का पिता होने पर गर्व है.’’ लेकिन बेली ने एकदम अलग बात कह दी. उस ने कहा, ‘‘मु झे किसी से डर नहीं लगता. मैं तो जंगल में रहती हूं. आप लोगों को लगता है कि औस्कर अवार्ड बहुत बड़ी बात है पर मेरे लिए आप लोग महत्त्व रखते हैं, आप लोगों का प्यार माने रखता है जिन्होंने हमें इज्जत बख्शी है. मु झे इस बात की खुशी है कि मु झे मुंबई जैसे बड़े शहर में आने का अवसर मिला.’’ मां की ममता जब आप ने 6 वर्ष तक ‘रघु’ और ढाई वर्ष तक ‘अम्मू’ की परवरिश की, उस के बाद फौरेस्ट औफिसर ने उन्हें आप लोगों से अलग कर दूसरों को दे दिया तब आप को कैसा लगा के सवाल पर बेली ने कहा,

‘‘एक मां के रूप में हम हमेशा अपने बच्चों को बड़ा करते हैं पर कई बार बच्चे हमें छोड़ कर दूर किसी दूसरे शहर में चले जाते हैं. हम उन्हें रोक नहीं पाते. जब मु झ से रघु और अम्मू को वापस ले लिया गया तब मु झे दूसरे बच्चे को पालने के लिए मन में हिचक थी लेकिन कुछ समय बाद जब फौरेस्ट औफिसर नए बच्चे धर्मम को ले कर आए और बताया कि यह दुर्लभ प्रजाति के हाथी का बच्चा है. इस की मां की मौत हो चुकी है और इस के 3 भाईबहन गायब हैं. ऐसे में भला एक मां होने के नाते इस की परवरिश करने से मैं कैसे मना कर सकती थी. हम ने धर्मम को भी ले लिया और इन दिनों हम उसी की परवरिश कर रहे हैं.’’

निर्देशक की 5 साल की मेहनत लेकिन डौक्यूमैंट्री ‘द एलिफैंट व्हिसपरर्स’ कार्तिकी गोंजाल्विस की 5 साल की मेहनत का परिणाम है. कार्तिकी गोंजाल्विस कहती हैं, ‘‘हमारी डौक्यूमैंट्री ‘द एलिफैंट व्हिस्परर्स’ मनुष्य और प्रकृति के बीच पवित्र बंधन की एक बहुत ही खास फिल्म है. मेरी परवरिश इस अभयारण्य से महज 30 मिनट की दूरी पर हुई है. इसलिए मैं चाहती थी कि दुनिया इस लुभावने परिदृश्य की असीम सुंदरता को देखे और अनुभव करे. ‘‘मैं अपने गुरु डगलस ब्लश, बोमन और बेली, मेरे मातापिता, स्वेन फाल्कनर, करण, कृष, आनंद, मेरे फिल्म क्रू, सोनी इंडिया, तमिलनाडु फौरेस्ट विभाग, सिख्या इंटरटेनमैंट और नैटफ्लिक्स की सा झेदारी के लिए बहुत आभारी हूं. मु झे उम्मीद है कि यह जीत वृत्तचित्र फिल्म निर्माताओं की एक नई पीढ़ी को अपनी कहानियों व हमारे देश की सुंदरता को सा झा करने के लिए प्रोत्साहित करेगी.’’

क्या निर्देशक कार्तिकी गोंजाल्विस को पता था कि यह डौक्यूमैंट्री उन्हें औस्कर दिला देगी? इस पर कार्तिकी ने कहा, ‘‘हम ने ईमानदारी से यह फिल्म बनाई है. औस्कर अवार्ड की बात मेरे दिमाग में ही नहीं थी. नैटफ्लिक्स पर दिसंबर 2022 से जब यह डौक्यूमैंट्री स्ट्रीम होने लगी तब भी मेरे मन में औस्कर अवार्ड की बात नहीं थी. मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि हम अपनी फिल्म को औस्कर भेजेंगे और यह फिल्म औस्कर जीत जाएगी. नैटफ्लिक्स ने इसे औस्कर अवार्ड के लिए भेजा. उस वक्त मैं अपनी शादी की तैयारी कर रही थी. अर्जेंट में पासपोर्ट बनवा कर मैं वहां पहुंची थी तब मेरे दिमाग में तो सिर्फ दर्शकों की प्रतिक्रिया देखने की चाहत थी. सच कह रही हूं,

मेरे लिए तो औस्कर अवार्ड सब से बड़ा आश्चर्य है.’’ औस्कर अवार्ड के लिए सब से बड़ी जरूरत की चर्चा चलने पर डौक्यूमैंट्री की निर्माता गुनीत मोंगा ने कहा, ‘‘फिल्म के लिए एक मजबूत अमेरिकी वितरक होना चाहिए. हमारे पास सशक्त अमेरिकी वितरक भी है. इस के अलावा हमें नैटफ्लिक्स से भी मदद मिली. नैटफ्लिक्स की 190 देशों में पहुंच है.’’ ‘द एलिफैंट व्हिसपरर्स’ को औस्कर मिलने के बाद डौक्यूमैंट्री फिल्मों के प्रति फिल्म इंडस्ट्री में तबदीली की संभावनाओं पर कार्तिकी गोंजाल्विस कहती हैं, ‘‘हमारी डाक्यमैंट्री की वजह से अब डौक्यूमैंट्री फिल्मों के प्रति हर किसी का नजरिया बदलेगा.’’ नैटफ्लिक्स की वाइस प्रैसिडैंट, कंटैंट, मोनिका शेरगिल कहती हैं, ‘‘हम कार्तिकी और सिख्या की टीम के साथ ‘द एलिफैंट व्हिस्परर्स’ की दिल छू लेने वाली यात्रा का हिस्सा बन कर सम्मानित महसूस कर रहे हैं. हाथी के बच्चे अम्मू और रघु के मातापिता के रूप में बोमन और बेली की कहानी मानव और प्रकृति के बीच बंधन का उत्सव है.

नैटफ्लिक्स के रूप में, हम रचनाकारों की दृष्टि से प्यार करते थे और जानते थे कि यह शुरुआत से ही वास्तव में एक प्रेरणादायक स्थानीय कहानी थी जिस की सार्वभौमिक अपील होगी.’’ सिख्या एंटरटेनमैंट की गुनीत मोंगा आगे कहती हैं, ‘‘यह वन्यजीवों पर हमारी पहली फिल्म है. यह कार्तिकी, बोमन, बेली और बच्चे हाथियों के साथ एक अद्भुत यात्रा रही है. हमें प्रकृति के बारे में बहुतकुछ सीखने को मिला और हम आभारी हैं कि कार्तिकी ने हमें इस कहानी के लिए चुना. हमें खुशी है कि इस पूरी यात्रा में नैटफ्लिक्स ने हमें सशक्त बनाया. ‘‘हम ने दिल की कहानियों को बताने के विजन के साथ सिख्या की शुरुआत की और हमारा प्रयास रहा है कि हम उन्हें एक वैश्विक पदचिह्न दें. ‘द एलिफैंट व्हिस्परर्स’ के लिए अकादमी की मान्यता ने मु झे और मेरी टीम को इस विजन को दोगुना करने के लिए प्रेरित किया है. ‘‘हम नए फिल्म निर्माताओं के साथ सहयोग करना जारी रखेंगे और ऐसी दिल को छू लेने वाली कहानियां ढूंढें़गे.

यह पुरस्कार हमारे आसपास के सब से साधारण कोनों में छिपी असाधारण कहानियों का है. यह हमारे सुंदर भारत के स्वदेशी समुदायों से संबंधित है.’’ द्य एक तरफ खुशी तो दूसरी तरफ गम जब 23 मार्च, 2023 को मुंबई के ताज लैंड होटल में डौक्यूमैंट्री फिल्म ‘द एलिफैंट व्हिसपरर्स’ के मुख्य हीरो व थेपाथलई निवासी बोमन व बेल्ली से हम मिले थे, उस वक्त उन्होंने बताया था कि सब से पहले उन्होंने हाथी के बच्चों रघु व अम्मू की परवरिश की और जब बच्चे बड़े हो गए तो फौरेस्ट विभाग ने उन से ये बच्चे वापस ले लिए थे. उस के बाद वे तीसरे बच्चे की परवरिश नहीं करना चाहते थे. लेकिन तीसरे बच्चे यानी कि धर्मम नामक 4 माह के हाथी के बच्चे के अनाथ होने के कारण उन के अंदर की मां व पिता के दिल ने धर्मम को भी पालना स्वीकार कर लिया था.

लेकिन एक इंग्लिश अखबार में छपी खबर के अनुसार थेपाथलई में इस बच्चे की शुक्रवार को मौत हो गई. पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टरों के अनुसार अपने 3 भाईबहन व मां से बिछुड़ने के सदमे को हाथी का यह बच्चा सहन नहीं कर पाया. डाक्टरों के अनुसार, बच्चे के फेफड़े में निमोनिया के भी लक्षण पाए गए. जानवरों के डाक्टरों ने इस बच्चे के शरीर से कुछ अंग निकाल कर प्रयोगशाला में जांच के लिए भेज दिए. उस के बाद इस के अंतिम संस्कार की विधि को बोमन व बेल्ली ने ही फौरेस्ट औफिसरों की मौजूदगी में अंजाम दिया. ज्ञातव्य है कि अभी 16 मार्च को ही हाथी का यह 4 माह का बच्चा बोमन व बेल्ली को परवरिश के लिए सौंपा गया था. उस के एक सप्ताह बाद ही बोमन व बेल्ली ‘औस्कर अवार्ड’ के जश्न का हिस्सा बनने मुंबई आए थे. उस वक्त धर्मम का जिक्र होने पर बोमन ने कहा था, ‘मु झे वापस जाने की जल्दी है. धर्मम हमारे पास है. उसे हमारी जरूरत है.

धर्मम को मु झे बड़ा करना है.’ पर अफसोस, बोमन व बेल्ली को 31 मार्च को छोड़ कर धर्मम चला गया. इंग्लिश अखबार में इस खबर को जिस तरह से और बोमन व बेल्ली की तसवीर के साथ जिस हैडलाइन से छापा गया है, उस से एक वर्ग नाराज है. इस वर्ग का मानना है कि पत्रकार व संपादक ने संजीदगी नहीं दिखाई तथा कहीं न कहीं कुछ ईर्ष्या की भावना है कि बोमन व बेल्ली को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति क्यों मिल गई.

ईद स्पेशल : ऐसे बनाएं चिकन बिरयानी

चिकन बिरयानी बनाने में बेहद आसान है. ये खाने में भी काफी टेस्टी लगती है. तो आप इस रेसिपी को  जरूर ट्राई करें.

सामग्री :

  • चावल (500 ग्राम)
  • चिकेन  (750 ग्राम)
  • दही ( 150 ग्राम)
  • घी  (1/2 कप)
  • प्याज  (3, मीडियम साइज़ के)
  • टमाटर  (4, मीडियम साइज के)
  • लहसुन पेस्ट (2 बड़े चम्मच)
  • अदरक पेस्ट  (2 बड़े चम्मच)
  • बिरयानी मसाला ( 45 ग्राम)
  • केवडा जल ( 01 बड़ा चम्मच)
  • हरी धनिया
  • खाने वाला रंग  (01 चुटकी)
  • पुदीना (1/2 स्पून, बारीक कटा हुआ)
  • नमक  (स्वादानुसार)

बनाने की विधि

सबसे पहले चावल धो कर 10 मिनट के लिये भि‍गा दें और चिकन को अच्छी तरह धोकर साफ कर लें.

अब प्याज, टमाटर को धो कर अलग-अलग बारीक काट लें और साथ ही धनिया और पुदीना को भी धो कर अलग-अलग बारीक कतर लें.

अब एक पैन में घी डालकर गर्म करें, घी गर्म होने पर इसमें कटा हुआ प्याज डालें और सुनहरा होने तक भून लें.

इसके बाद चिकन के पीस डालें और चलाते हुए 5-10 मिनट भून लें.

फिर पैन में कटे हुए टमाटर, अदरक-लहसुन पेस्ट, दही, बिरयानी मसाला और हल्का सा नमक डालें और अच्छी तरह से चला दें.

गैस की आंच मीडियम कर दें और सारी सामग्री को 10-12 मिनट तक पकायें.

चिकन पीस नरम होने पर गैस बंद कर दें.

जब तक चिकन बिरयानी के लिए चिकन पक रहा है, एक अलग पैन में 2-3 लीटर पानी लेकर उसमें चावल और स्वादानुसार नमक डालकर उबालें.

जब चावल 1/2 पक जाये, गैस बंद कर दें और चावल का पानी अलग कर दें.

अब एक पैन को धीमी आंच पर गैस पर गर्म करें और पैन गर्म होने पर उसमें चावल और चिकन करी की परतें लगा लें.

सबसे पहले थोड़ा सा चावल, फिर करी, फिर चावल फिर करी, हर परत पर 1/2 कप पानी में घुला हुआ खाने वाला रंग, हरी धनिया, पुदीना और केवडा डाल दें.

अब पैन को ढ़क दें और 10-15 मिनट तक पका लें और इसके बाद गैस बंद कर दें.

लीजिये, स्वादिष्ट चिकन बिरयानी तैयार है और इसे गर्मा-गरम परोसें.

कर्नाटक चुनाव: कौन बदलेगा गणित, लिंगायत या दलित

224 सीटों वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव की 10 मई को वोटिंग के बाद 13 मई को आने वाले नतीजों को लेकर सियासी पंडितों को यह कहने में कोई रिस्क नहीं लग रहा कि साल 2018 के चुनाव में 104 सीटें ले जाने का जो रिकौर्ड फायदा भाजपा को मिला था उससे कहीं बड़ानुकसान उसे इस बार झेलना पड़ सकता है.तब भाजपा को 36.2 फीसदी वोट मिले थे जबकि 78 सीटें ले जाने वाली कांग्रेस को उससे ज्यादा 38 फीसदी वोट मिले थे. जनता दल (एस) को 18.3 फीसदी वोटों के साथ 40 सीटें मिली थीं.

विधानसभा त्रिशंकु थी. भाजपा सत्ता पर काबिज न हो जाए, इसलिए कांग्रेस ने तुरंत जनता दल (एस) के साथ गठबंधन कर उसके मुखिया एचडी कुमारसामी को मुख्यमंत्री बनाने की रजामंदी दे दी थी.इसके पहले राज्यपाल ने सबसे बड़ा दल होने के नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया था लेकिन तब येदियुरप्पा बहुमत साबित करने के पहले ही मैदान छोड़ कर चले गए थे.

जुलाई 2019 आतेआते भाजपा ने कांग्रेस और जनता दल (एस) के 15 विधायक अपने पाले में मिलाकर सरकार बना ली और येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाया. फिर जुलाई 2021 में उन्हें भी चलता कर बसवराज बोम्मई को इस पद पर बैठा दिया गया. उन्हें आगे लाकर येद्दियुरप्पा से छुटकारा पाने की भगवा गैंग की मंशा पूरी नहीं हुई तो मौजूदा चुनाव में उसने फिर उनका पल्लू थाम लिया है जो बेमन से चुनावप्रचार में जुटे हैं.उसकी वजह बेटे को राजनीति में जमा देने के मोह के अलावा भाजपा की नीतियोंरीतियों से पुराना लगाव भी है.

भाजपा के राज में विकास के नाम पर कर्नाटक में जमीनी काम तो कुछ हुए नहीं बल्कि जातिगत खेमेबाजी जरूर खूब फलीफूली, जो अब उसके ही गले की हड्डी बन गई है.2018 के चुनाव में लिंगायत समुदाय के अलावा दलितों ने भी उसका साथ दिया था जिससे वह 3 अंकों में पहुंच गई थी. इस चुनाव में तसवीर उलट कैसे है, यह समझने के लिए इन दोनों समुदायों के अलावा दूसरे छोटेबड़े समुदायों के रोल समझने भी जरूरी हैं क्योंकि कर्नाटक में हिंदीभाषी राज्यों की तरह राम और अयोध्या का होहल्ला नहीं है. जयजय श्रीराम और हरहर महादेव का नारा लगाते भगवा गमछेधारी नौजवान नहीं हैं. वहां काशी और मथुरा जैसे धार्मिकतौर पर भड़काऊ, जज्बाती और वोटदिलाऊ मुद्दे या मंदिर भी नहीं हैं. और तो और, प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी के नाम पर उमड़ने वाली भीड़ भी वहां नहीं है.

हिंदुत्व से दूर लिंगायत समुदाय

न केवल कर्नाटक, बल्कि पूरे दक्षिणी राज्यों में हिंदी बेल्ट जैसा हिंदू और हिंदुत्व नहीं है, इसलिए भाजपा वहां हमेशा मात खाती रही है. कर्नाटक में उसे जो कामयाबी मिली उसकी वजह लिंगायत समुदाय का साथ है जो उसे येदियुरप्पा की वजह से मिला और अभी भी मिल रहा है. हालांकि अब वह पहले जैसा एकतरफानहीं रह गया है.ओबीसी में शामिलइस समुदाय को सामाजिक तौर पर सबसे ऊंची जाति का दर्जा मिला हुआ है और इस समुदाय के लोगों की अपनी अलग ठसक भी है.

राज्य में लिंगायतों की आबादी 18 फीसदी के लगभग है और वे 224 में से कोई 65 सीटों पर सीधा असर रखते हैं. साल 1990 तक लिंगायत कांग्रेस को वोट किया करते थे लेकिन तब राजीव गांधी ने इस समुदाय के मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को बरखास्त कर दिया था तो ये पाला बदलकर भाजपा के हो गए थे. इत्तफाक से यही वह दौर था जब येदियुरप्पा राजनीति में अपनी जगह बनाने को हाथपांव मार रहे थे. कांग्रेस ने दूसरी बड़ी गलती यह की थी कि वीरेंद्र पाटिल की जगह कोई दूसरा असरदार लिंगायत नेता तैयार नहीं किया जिसका फायदा भाजपा और येदियुरप्पा ने उठाया.

लिंगायतों की एकजुटता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब 1989 में कांग्रेस ने वीरेंद्र पाटिल की अगुआई में चुनाव लड़ा था तो तब उसे रिकौर्ड 178 सीटें मिली थीं लेकिन 1994 के चुनाव में वह 34 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. कर्नाटक की चुनावी चर्चाओं में यह किस्सा बड़े चटखारे लेकर सुना व सुनाया जाता है कि राजीव गांधी की एक नासमझी और  गलती की सजा कांग्रेस कर्नाटक में आज तक भुगत रही है.

साल 2018 में लिंगायत समुदाय के सबसे ज्यादा 58 विधायक चुने गए थे जिनमें से 38 भाजपा के थे. कांग्रेस से 16 और जनता दल (एस) से 4 विधायक इस समुदाय के थे. लिंगायतों के 62 फीसदी भाजपा को 16 फीसदी कांग्रेस को और जनता दल (एस) को 11 फीसदी वोट मिले थे. भाजपा इस बार भी लिंगायतों के भरोसे है. पर यह समुदाय येदियुरप्पा पर ज्यादा भरोसा करता है जिनके सीएम घोषित न करने पर अगर वह खफा हुआ तो वीरेंद्र पाटिल वाला एपिसोड दोहराए जाने का खतरा उस पर भी मंडरा रहा है. हालांकि, एक हद तक बसवराज बोम्मई के होने से वह खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है.

लिंगायतों से दिलचस्प रखती बात यह है कि वे खुद को हिंदू नहीं मानते. उनके रीतिरिवाज भी हिंदुओं से अलग हैं. उनके मंदिरनहीं होते क्योंकि वे शरीर को ही मंदिर मानते हैं और हिंदुओं की तरह पूजापाठ नहीं करते. पुनर्जन्म,अंधविश्वासों और कर्मकांडों में भी लिंगायत भरोसा नहीं करते. शव भी वे जलाते नहीं, बल्कि दफनाते हैं. उत्तर भारत के हिंदुओं की तरह ये हिंदुत्व और हिंदूराष्ट्र का राग भी नहीं अलापते, इसलिए भाजपा यहां इन मुद्दों की बात नहीं करती.

डांवांडोल हो रहे दलित

2018 के चुनाव में दलितों ने पहली बार बड़े पैमाने पर भाजपा पर भरोसा जताया था जो अब टूटता नजर आ रहा है.कर्नाटक में दलितों की तादाद 20 फीसदी के लगभग है जिनके लिए 36 सीटें रिजर्व हैं. वे भी लिंगायतों की तरह 65-70 सीटों पर पासा पलटने की हैसियत रखते हैं.

पिछले चुनाव में भाजपा को दलितों के 40 फीसदी वोट मिले थे और इस समुदाय के 17 विधायक उसके थे.कांग्रेस को दलितों के 37 फीसदी के लगभग वोट मिले थे और 12 विधायक उसके थे. जेडीएस को दलितों के 18 फीसदी वोट मिले थे और 6 विधायक उसके इस समुदाय से थे. 2018 के पहले कांग्रेस दलित वोटों को लेकर बेफिक्र रहती थी. पर पिछले चुनाव नतीजे से उसने सबक लेते मल्लिकार्जुन खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया. जाहिर है इस फैसले के पीछे कर्नाटक के चुनाव का अहम रोल था जो कि उसके लिए नाक की बात है.

खड़गे फैक्टर का असर तो 13 मई को देखने मिलेगा लेकिन आरक्षण को लेकर दलितों में भाजपा के लिए गुस्सा सड़कों पर भी फूट रहा है.असल में भगवा गैंग की दलितों में फूट डालने की कोशिश नाकाम हो गई है, जिसने दलितों के आरक्षण को 15 से बढ़ाकर 17 फीसदी तो कर दिया लेकिन चुनाव की तारीखों के एलान के पहले उसे अंदरूनी तौर पर 4 हिस्सों में बांट दिया. इससे नाराज बंजारा समुदाय सड़कों पर उतर आया.

बोम्मई सरकार के खिलाफ दलितों ने खुलकर सड़कों पर नारेबाजी की, भाजपा के झंडे जलाए और शिकारीपुरा में येदियुरप्पा के घर पर पथराव भी किया. गौरतलब है कि कर्नाटक में दलितों की 101 जातियां हैं जिन्हें आंतरिक आरक्षण के नाम पर कोटा दे दिया गया.कर्नाटक में 2 तरह के दलित हैं जिन्हें वाम यानी लेफ्ट और राइट कहा जाता है.

लेफ्ट दलितों में 29 जातियां शामिल हैं जिन्हें 6 फीसदी कोटा दिया गया. अनुसूचित जाति अधिकार कैटेगरी, जिसमें 25 जातियां शामिल हैं, को 5.5 फीसदी और अछूत माने जाने वाली जातियों को 4.5 फीसदी कोटा दिया गया. बाकियों के हिस्से में एक फीसदी कोटा डाल दिया गया.

यह एक गैरजरूरी फैसला था जिसकी हकीकत दलित समझ गए और इसका विरोध भी कर रहे हैं.सो, भाजपा का नुकसान तय दिख रहा है. बंजारा समुदाय इससे ज्यादा आहत दिखा क्योंकि सबसे ज्यादा नुकसान उसका ही हो रहा था.बात सिर्फ आरक्षण को लेकर दलितों के गुस्से की ही नहीं है बल्कि भाजपा दलितों के भले के लिए गिनाने लायक भी कुछ नहीं कर पाई है, जिससे दलित खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. भाजपा की दिक्कत यह है कि उन का गुस्सा शांत करने के लिए उसके पास न तो मजबूत दलीलें हैं और न ही अब वक्त बचा है.

जनता दल के वोक्कालिंगा

जिस तरह भाजपा लिंगायतों के दम पर ताल ठोक रही है उसी तरह जनता दल (एस) भी हमेशा की तरह वोक्कालिंगा समुदाय के भरोसे मैदान में है. आंकड़े एचडी कुमारसामी को राहत देने वाले हैं कि वे इस बार भी अपने समुदाय के समर्थन के चलते सम्मानजनक सीटें ले जाएंगे. 2018 में इस समुदाय के 42 विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे जिनमें से 23 जनता दल (एस) के थे. तब कांग्रेस से 11 औरभाजपा से 8 विधायक इस समुदाय के थे. 11 फीसदी आबादी वाला वोक्कालिंगा समुदाय 50 सीटों पर हारजीत तय करता है जिसके वोटों की तादाद 11 फीसदी है. हालांकि, ये लोग अपनी तादाद ज्यादा बताते हैं.

तादाद इतनी हो या उतनी, पर यह हर कोई जानता है कि बगैर वोक्कालिंगा समुदाय के कर्नाटक की सत्ता नहीं मिलने वाली. खासतौर से भाजपा ज्यादा चिंतित है जो एचडी देवगौड़ा के जमाने से ही कोई काट नहीं ढूंढ पा रही है. यह समुदाय भी पिछड़े तबके में आता है जिसे घेरने में सभी पार्टियां लगी हुई हैं. कांग्रेस को डीके शिवकुमार के वोक्कालिंगा समुदाय के होने का फायदा पिछले चुनाव में भी मिला था लेकिन इस दफा वह कुछ और ज्यादा की आस लगाए बैठी है क्योंकि शिवकुमार सीएम पद की दौड़ में सबसे आगे हैं.

बंटे हुए हैं आदिवासी

इन 3 तबकों के बाद आदिवासी जिस तरफ झुक जाएंगे वह पार्टी सत्ता के काफी नजदीक होगी. 2018 के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के 7-7 विधायक चुनकर आए थे जबकि जेडीएस से एक ही विधायक चुना गया था. राज्य में आदिवासियों की आबादी 8 फीसदी के करीब है और 15 सीटें उसके लिए रिजर्व हैं. दो प्रमुख आदिवासी जातियां गौंड और नाइकड़ा  किसी एक पार्टी की होकर नहीं रहीं.

सरकार किसी भी दल की रही हो, उसने कभी आदिवासियों के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जिसके दम पर वे उनसे वोट मांग सकें. ये लोग आज भी खेतिहर मजदूर ही हैं जो राजनीति से ज्यादा उम्मीद नहीं रखते.

मुसलमान फिर एकजुट

कर्नाटक के पूरे चुनाव में सिर्फ मुसलमानों के बारे में ही कहा जा सकता है कि वे इस बार भी थोक में कांग्रेस को वोट करेंगे क्योंकि भाजपा राज में उनकी जमकर अनदेखी हुई है. बसवराज बोम्मई भगवा दिखने के चक्कर में खूब हलाला और हिजाब को लेकर मुसलमानों पर ताने कसते रहे हैं.इसके बाद भी उनकी इमेज योगी आदित्यनाथ या हेमंत विस्वा शर्मा जैसी कट्टर नहीं बन पाई क्योंकि वहां मुसलमानों को परेशान देखकर ताली पीटने वाले हिंदू न के बराबर हैं.

साल 2018 में 7 मुसलिम विधायक जीते थे और ये सभी कांग्रेस के थे. 10 फीसदी के लगभग आबादी वाले मुसलमान 40 सीटों पर निर्णायक होते हैं जो इस बार पहले से ज्यादा एकजुट हो गए हैं. भाजपा सरकार ने मुसलमानों को मिला 4 फीसदी आरक्षण छीनकर उसे लिंगायतों और वोक्कालिंगओं में बराबरी से बांट दिया था जिससे इन समुदायों को तो कोई खास फायदा नहीं हुआ लेकिन मुसलमानों का काफी नुकसान हुआ था.

कांग्रेस आरक्षण बहाल करने का एलान कर पहले ही मुसलिम वोटों को अपने पक्ष में कर चुकी है. जनता दल (एस) तो दूर की बात है. इस बार कर्नाटक के मुसलमान असदुद्दीन ओवैसी को भी हाथ नहीं रखने दे रहे हैं.

कुरुबा भी कांग्रेस पर कुर्बान

मुसलमानों के बाद कांग्रेस की सबसे बड़ी बेफिक्री कुरुबा या कोरबा जाति के करीब 9 फीसदी वोटों को लेकर है जो कोई 25 सीटों पर खेल बनाने और बिगाड़ने की कूवत रखते हैं. 2018 के चुनाव में इस समुदाय के 12 विधायक चुने गए थे जिन में 9 कांग्रेस के, 2 भाजपा के और एक जनता दल (एस) का था.

कुरुबा भी कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक है जो सिद्धारमैया की वजह से उससे छिटका नहीं है. भाजपा ने ऊंची जाति वालों को आरक्षण की मलाई खूब बांटी लेकिन इस समुदाय की मांग पर ध्यान नहीं दिया जो आदिवासी समुदाय के तहत आरक्षण की मांग करता रहा है. इस जाति के लोग भेड़ चराने के लिए जाने जाते हैं. राजस्थान में इन्हें देवासी, गुजरात में रबारी, महाराष्ट्र में धनगर और हरियाणा में गडरिया कहा जाता है.

दूसरी जातियों में 2 फीसदी ब्राह्मणों का रुझान भाजपा की तरफ कुदरती तौर पर है क्योंकि वह उनका खास खयाल रखती है. ईसाई कांग्रेस का वोटबैंक घोषित तौर पर है ही. जातियों के लिहाज से कांग्रेस भाजपा से ज्यादा मजबूत स्थिति में है और नरेंद्र मोदी की सभाओं से ज्यादा भीड़ राहुल गांधी की सभाओं में नजर आती है.

गायब हैं मुद्दे

जातियों के जंजाल में उलझ गए कर्नाटक के इस चुनाव से मुद्दे गायब हैं, खासतौर से भ्रष्टाचार का. इसकी वजह यह है कि खुद पार्टियां और नेता नहीं चाहते कि यह मुद्दा बने क्योंकि सभी भ्रष्टाचार में गलेगले तक डूबे रहे हैं. भाजपा के पास विकास के नाम पर कुछ गिनाने को नहीं है, तो कांग्रेस जमीनी मुद्दों को जोरदार तरीके से उठा नहीं पा रही. ये दोनों ही दल अंदरूनी कलह से भी त्रस्त हैं.

राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान कर्नाटक में महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर भाजपा को घेरा था तब उन्हें अच्छा रिस्पौंस मिला था. यात्रा में उमड़ी भीड़ देखकर खुद कांग्रेसी हैरान थे और भाजपा सकते में थी.यात्रा से कांग्रेस संगठन में भी जोश आया था जिसे कांग्रेस कितना भुना पाई, यह नतीजों वाले दिन ही पता चलेगा.

कर्नाटक के बारे में मशहूर है कि वहां किसी एक पार्टी की सरकार को मतदाता दोबारा मौका नहीं देते. वोटिंग पैटर्न वहां बदलता रहा है और वहां कोई चौथी ताकत भी नहीं है. बसपा का एक उम्मीदवार पिछली बार जनता दल (एस) के सहयोग से जीता था पर इस बार बसपा दौड़ में कहीं नहीं दिख रही. आम आदमी पार्टी भी खानापूर्ति करती नजर आ रही है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह जितने भी वोट काटेगी, वे भाजपा के होंगे.

कर्नाटक के 5 दिग्गज

बी एस येदियुरप्पा

कर्नाटक में भाजपा की एंट्री कराने वाले 80 साला येदियुरप्पा वहां के असरदार लिंगायत समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जो कम उम्र से ही आरएसएस से जुड़ गए थे. लिंगायत समुदाय के दम पर वे 3 बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने.भाजपा कर्नाटक में उनकी कितनी मुहताज है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मौजूदा चुनाव में भी वह उन्हीं के चेहरे पर मैदान में है.

साल 1994 में जब 115 सीटें ले जाने वाले जनता दल की सरकार बनी थी और कांग्रेस 34 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर खिसक गई थी और भाजपा को 40 सीटें मिलीं थीं जो उसके लिए उम्मीद से बाहर की बात थी. येदियुरप्पा को उसने ईनाम देते विपक्ष का नेता बनाया था. इसकेबाद से उनका कद बढ़ता गया और वे मुख्यमंत्री चुने जाते रहे. लेकिन एकाएक ही उन्हें बढ़ती उम्र का हवाला देकर चलता कर दिया गया और बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया गया तो हर किसी को हैरानी हुई थी और यह माना जाने लगा था कि अब कर्नाटक से भाजपा खत्म हो जाएगी. लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने उन्हें इस बार किसी तरह साधे रखा और उनके मनमुताबिक उनके बेटे बी वाई विजयेंद्र को शिकारीपुरा सीट से टिकट दे दिया.

साल 2011-12 में येदियुरप्पा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे जिस के चलते उन्हें विधानसभा से इस्तीफ़ा देने के साथसाथ भाजपा की प्राथमिक सदस्यता भी खोनी पड़ी थी. भाजपा की बेवफाई और अनदेखी से नाराज येदियुरप्पा ने नई पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) बना ली थी. इसके नतीजे में साल 2008 के चुनाव में 110 सीटें जीतने वाली भाजपा साल 2013 के विधानसभा चुनाव में महज 40 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. हालांकि कामयाबी केजेपी को भी कोई खास नहीं मिली थी क्योंकि उसे केवल 6 सीटें मिलीं थीं लेकिन 72 सीटों पर उसने भाजपा का रायता लुढ़का दिया था.

इससे साबित हो गया था कि ये दोनों ही एकदूसरे के बगैर अधूरे हैं. इस तलाक का फायदा उठाते कांग्रेस ने 2008 की 80 के मुकाबले 122 सीटें झटकी थीं. उसे वोट भी 37 फीसदी के लगभग मिले थे, तब थोड़ा फायदा जनता दल (एस) को भी हुआ था जिसकी सीटें 28 से बढ़ कर 40 हो गई थीं.

साल 2008 के चुनाव में भाजपा ने 110 सीटें जीती थीं. तब यह साफ हो गया था कि बिना येदियुरप्पा के कर्नाटक में भगवा तंबू गाड़े रखना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुकिन है तो उसने पूरी इज्जत बख्शते हुए उन्हें उनकी पार्टी सहित अपने साथ मिला लिया और 2018 में फिर से सीएम बनाया था.

बसवराज बोम्मई

साल 2021 में भाजपा ने येदियुरप्पा को हटाकर 62 साला बसवराज बोम्मई को राज्य की कमान सौंपी थी लेकिन वे न तो आलाकमान और न ही जनता की उम्मीदों पर खरे उतरे. बोम्मई सदर लिंगायत समुदाय के हैं जिसकी आबादी 3.5 फीसदी है.

भाजपा उनके जरिए येदियुरप्पा से हटकर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती थी लेकिन जैसेजैसे चुनाव नजदीक आते गए उसे एहसास होता गया कि कर्नाटक की लड़ाई आसान नहीं है. लिहाजा, उसने फिर येदियुरप्पा को आगे कर दिया. लेकिन इस बार हालात कुछ अलग हैं क्योंकि बोम्मई भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं. उनके पिता एसआर बोम्मई भी कर्नाटक के सीएम रह चुके हैं.

बोम्मई मूलतया जनता दल के हैं और उसके टिकट पर 2 बार धारवाड़ सीट से विधायक चुने गए. इसके बाद उन्होंने 2008 में भाजपा जौइन कर ली थी लेकिन पूरी तरह भगवा रंग में वे खुद को रंग नहीं पाए. भाजपा ने बतौर ईनाम उन्हें मंत्री बनाया था. धीरेधीरे उन्होंने भाजपा में अपनी पकड़ मजबूत की. साल 2021 में येदियुरप्पा की जगह उन्हें सीएम बनाया गया लेकिन उनके कार्यकाल में जमकर भ्रष्टाचार हुआ और दलित समुदाय भी नाखुश रहा. खुद लिंगायत समुदाय के लोग उनसे बहुत ज्यादा खुश नहीं हैं, जिस का खमियाजा भाजपा को भुगतना भी पड़ सकता है.

सिद्धारमैया

पिछड़े कहे जाने वाले कुरुबा समुदाय के गरीब परिवार में जन्मे कांग्रेसी दिग्गज 72 साला सिद्धारमैया पेशे से वकील हैं जो 2 बार कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री और एक बार मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. खुद को नास्तिक कहने वाले लोहियावादी सिद्धारमैया कभी कांग्रेस के धुरविरोधी हुआ करते थे लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (एस) से उन्हें निकाल दिया गया था क्योंकि वे उनके बेटे एचडी कुमारसामी के रास्ते में रोड़ा बनने लगे थे.

कांग्रेस ने 2013 में सीएम बनने की उनकी ख्वाहिश पूरी की लेकिन सिद्धारमैया एक बार और कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. इस बाबत वे एलान भी कर चुके हैं कि यह उनका आखिरी चुनाव होगा. कुरुबा समुदाय कर्नाटक की तीसरी बड़ी जाति है जिसकी अनदेखी हर दौर में होती रही है.

2004 में जब कांग्रेस और जनता दल की गठबंधन वाली सरकार बनी थी तब उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाया गया था जबकि उनकी दावेदारी मुख्यमंत्री पद को लेकर थी. लेकिन देवगौड़ा उनका कद बढ़ता नहीं देखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आसानी से कांग्रेस के एन धरमसिंह को मुख्यमंत्री बन जाने दिया था.

साल 2006 में वे अपने समर्थकों सहित कांग्रेस में शामिल हो गए थे जिसका फायदा कांग्रेस को भी हुआ था क्योंकि तब तक पिछड़े तबके के बड़े नेता के तौर पर सिद्धारमैया पहचाने जाने लगे थे. इस बार देखना दिलचस्प होगा कि बहुमत अगर मिला तो कांग्रेस उन्हें सीएम बनाती है या नहीं.भाजपा ने उन्हें घेरने क्र लिए वरुणा विधानसभा सीट से अपने वरिष्ठ मंत्री लिंगायत समुदाय के वी सोमन्ना को टिकट देकर उनकी जीत को मुश्किल बना दिया है.

डीके शिवकुमार

सिद्धारमैया की तरह ही भाजपा ने एक और दिग्गज कांग्रेसी कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष 61 साला डीके शिवकुमार को भी कनकपुरा सीट पर आर अशोक को उतार कर उन्हें दिक्कत में डाल दिया है. भाजपा की मंशा साफ है कि सिद्धारमैया की तरह शिवकुमार भी अपने इलाके में सिमटकर रह जाएं.आर अशोक और शिवकुमार दोनों ही वोक्कालिंगा समुदाय के हैं, लिहाजा, टक्कर कांटे की है.

कर्नाटक के सबसे अमीर नेताओं में शुमार किए जाने वाले शिवकुमार जोड़तोड़ में माहिर हैं. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे एचडी देवगौड़ा को 2 बार हरा चुके हैं. इससे उन्हें जरूरत से ज्यादा शोहरत मिली थी जिसे उन्होंने कायम भी रखा.शिवकुमार कई अहम विभागों के मंत्री रह चुके हैं जिन पर मनीलौंड्रिंग और भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे और इस बाबत जेल भी उन्हें जाना पड़ा. कांग्रेस में उनकी अहमियत इसी बात से समझी जा सकती है कि अक्तूबर 2019 में जब वे दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखे गए थे तब उनसे मिलने सोनिया गांधी गई थीं.

डीके शिवकुमार भी इस बार कांग्रेस की तरफ से सीएम पद की दौड़ में हैं और आत्मविश्वास से लबालब हैं. उनका दावा है कि कांग्रेस 141 सीट जीतकर सरकार बनाएगी. अब देखना दिलचस्प होगा कि बहुमत मिलने की स्थिति में कांग्रेस उन्हें यह मौका देती है या नहीं.

एचडी कुमारसामी

पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के बेटे के रूप में पहचाने जाने वाले जनता दल (एस) के नेता 63 साला एचडी कुमारसामी 2 बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं लेकिन दोनों ही बार उनका कार्यकाल लगभग एक साल का रहा. साल 2018 में कांग्रेस के सहयोग से वे सीएम बने थे लेकिन जुलाई 2019 में भाजपा द्वारा लाए अविश्वास प्रस्ताव के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था.

कुमारसामी भी कई विवादों और घोटालों के आरोपों से घिरे रहे हैं. राजनीति से ज्यादा उनकी दिलचस्पी फिल्मों में रही है. 2003 में उनकी बनाई कन्नड़ फिल्म ‘चंद्र चकोरी’ ने रिकौर्ड बिजनैस किया था. इसके बाद उन्होंने ‘कस्तूरी’ नाम से एक टीवी चैनल भी शुरू किया जिसे उनकी पत्नी अनीता कुमारसामी देखती हैं.

कुमारसामी को लेम्बोर्गिनी, पोर्श, हमर और रेंज रोवर जैसी महंगी कारों के शौक के लिए भी जाना जाता है. हालांकि, उन्हें भाग्यलक्ष्मी योजना लागू करने के लिए भी लोग याद करते हैं जो उन्होंने लड़कियों की हिफाजत के लिए 2006 में शुरू की थी.

जनता दल (एस) के नेता के तौर पर इस बार भी वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हैं लेकिन राह आसान नहीं है क्योंकि हर बार की तरह इस बार भी जनता दल (एस) और वे गठबंधन की वैशाखी के मुहताज अभी से दिख रहे हैं. अगर कम सीटें मिलीं तो जनता दल (एस)की जमीन कर्नाटक से सिमटना भी शुरू हो जाएगी.

इसी साल फरवरी में उन्होंने आरएसएस पर हमला करते ब्राह्मणों को बांटने वाली जाति कहा था, तो काफी बवंडर भगवा गैंग ने मचाया था. इसके पहले भी उन्होंने अक्तूबर 2021 में प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी को आरएसएस की कठपुतली करार दिया था.

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