224 सीटों वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव की 10 मई को वोटिंग के बाद 13 मई को आने वाले नतीजों को लेकर सियासी पंडितों को यह कहने में कोई रिस्क नहीं लग रहा कि साल 2018 के चुनाव में 104 सीटें ले जाने का जो रिकौर्ड फायदा भाजपा को मिला था उससे कहीं बड़ानुकसान उसे इस बार झेलना पड़ सकता है.तब भाजपा को 36.2 फीसदी वोट मिले थे जबकि 78 सीटें ले जाने वाली कांग्रेस को उससे ज्यादा 38 फीसदी वोट मिले थे. जनता दल (एस) को 18.3 फीसदी वोटों के साथ 40 सीटें मिली थीं.

विधानसभा त्रिशंकु थी. भाजपा सत्ता पर काबिज न हो जाए, इसलिए कांग्रेस ने तुरंत जनता दल (एस) के साथ गठबंधन कर उसके मुखिया एचडी कुमारसामी को मुख्यमंत्री बनाने की रजामंदी दे दी थी.इसके पहले राज्यपाल ने सबसे बड़ा दल होने के नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया था लेकिन तब येदियुरप्पा बहुमत साबित करने के पहले ही मैदान छोड़ कर चले गए थे.

जुलाई 2019 आतेआते भाजपा ने कांग्रेस और जनता दल (एस) के 15 विधायक अपने पाले में मिलाकर सरकार बना ली और येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाया. फिर जुलाई 2021 में उन्हें भी चलता कर बसवराज बोम्मई को इस पद पर बैठा दिया गया. उन्हें आगे लाकर येद्दियुरप्पा से छुटकारा पाने की भगवा गैंग की मंशा पूरी नहीं हुई तो मौजूदा चुनाव में उसने फिर उनका पल्लू थाम लिया है जो बेमन से चुनावप्रचार में जुटे हैं.उसकी वजह बेटे को राजनीति में जमा देने के मोह के अलावा भाजपा की नीतियोंरीतियों से पुराना लगाव भी है.

भाजपा के राज में विकास के नाम पर कर्नाटक में जमीनी काम तो कुछ हुए नहीं बल्कि जातिगत खेमेबाजी जरूर खूब फलीफूली, जो अब उसके ही गले की हड्डी बन गई है.2018 के चुनाव में लिंगायत समुदाय के अलावा दलितों ने भी उसका साथ दिया था जिससे वह 3 अंकों में पहुंच गई थी. इस चुनाव में तसवीर उलट कैसे है, यह समझने के लिए इन दोनों समुदायों के अलावा दूसरे छोटेबड़े समुदायों के रोल समझने भी जरूरी हैं क्योंकि कर्नाटक में हिंदीभाषी राज्यों की तरह राम और अयोध्या का होहल्ला नहीं है. जयजय श्रीराम और हरहर महादेव का नारा लगाते भगवा गमछेधारी नौजवान नहीं हैं. वहां काशी और मथुरा जैसे धार्मिकतौर पर भड़काऊ, जज्बाती और वोटदिलाऊ मुद्दे या मंदिर भी नहीं हैं. और तो और, प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी के नाम पर उमड़ने वाली भीड़ भी वहां नहीं है.

हिंदुत्व से दूर लिंगायत समुदाय

न केवल कर्नाटक, बल्कि पूरे दक्षिणी राज्यों में हिंदी बेल्ट जैसा हिंदू और हिंदुत्व नहीं है, इसलिए भाजपा वहां हमेशा मात खाती रही है. कर्नाटक में उसे जो कामयाबी मिली उसकी वजह लिंगायत समुदाय का साथ है जो उसे येदियुरप्पा की वजह से मिला और अभी भी मिल रहा है. हालांकि अब वह पहले जैसा एकतरफानहीं रह गया है.ओबीसी में शामिलइस समुदाय को सामाजिक तौर पर सबसे ऊंची जाति का दर्जा मिला हुआ है और इस समुदाय के लोगों की अपनी अलग ठसक भी है.

राज्य में लिंगायतों की आबादी 18 फीसदी के लगभग है और वे 224 में से कोई 65 सीटों पर सीधा असर रखते हैं. साल 1990 तक लिंगायत कांग्रेस को वोट किया करते थे लेकिन तब राजीव गांधी ने इस समुदाय के मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को बरखास्त कर दिया था तो ये पाला बदलकर भाजपा के हो गए थे. इत्तफाक से यही वह दौर था जब येदियुरप्पा राजनीति में अपनी जगह बनाने को हाथपांव मार रहे थे. कांग्रेस ने दूसरी बड़ी गलती यह की थी कि वीरेंद्र पाटिल की जगह कोई दूसरा असरदार लिंगायत नेता तैयार नहीं किया जिसका फायदा भाजपा और येदियुरप्पा ने उठाया.

लिंगायतों की एकजुटता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब 1989 में कांग्रेस ने वीरेंद्र पाटिल की अगुआई में चुनाव लड़ा था तो तब उसे रिकौर्ड 178 सीटें मिली थीं लेकिन 1994 के चुनाव में वह 34 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. कर्नाटक की चुनावी चर्चाओं में यह किस्सा बड़े चटखारे लेकर सुना व सुनाया जाता है कि राजीव गांधी की एक नासमझी और  गलती की सजा कांग्रेस कर्नाटक में आज तक भुगत रही है.

साल 2018 में लिंगायत समुदाय के सबसे ज्यादा 58 विधायक चुने गए थे जिनमें से 38 भाजपा के थे. कांग्रेस से 16 और जनता दल (एस) से 4 विधायक इस समुदाय के थे. लिंगायतों के 62 फीसदी भाजपा को 16 फीसदी कांग्रेस को और जनता दल (एस) को 11 फीसदी वोट मिले थे. भाजपा इस बार भी लिंगायतों के भरोसे है. पर यह समुदाय येदियुरप्पा पर ज्यादा भरोसा करता है जिनके सीएम घोषित न करने पर अगर वह खफा हुआ तो वीरेंद्र पाटिल वाला एपिसोड दोहराए जाने का खतरा उस पर भी मंडरा रहा है. हालांकि, एक हद तक बसवराज बोम्मई के होने से वह खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है.

लिंगायतों से दिलचस्प रखती बात यह है कि वे खुद को हिंदू नहीं मानते. उनके रीतिरिवाज भी हिंदुओं से अलग हैं. उनके मंदिरनहीं होते क्योंकि वे शरीर को ही मंदिर मानते हैं और हिंदुओं की तरह पूजापाठ नहीं करते. पुनर्जन्म,अंधविश्वासों और कर्मकांडों में भी लिंगायत भरोसा नहीं करते. शव भी वे जलाते नहीं, बल्कि दफनाते हैं. उत्तर भारत के हिंदुओं की तरह ये हिंदुत्व और हिंदूराष्ट्र का राग भी नहीं अलापते, इसलिए भाजपा यहां इन मुद्दों की बात नहीं करती.

डांवांडोल हो रहे दलित

2018 के चुनाव में दलितों ने पहली बार बड़े पैमाने पर भाजपा पर भरोसा जताया था जो अब टूटता नजर आ रहा है.कर्नाटक में दलितों की तादाद 20 फीसदी के लगभग है जिनके लिए 36 सीटें रिजर्व हैं. वे भी लिंगायतों की तरह 65-70 सीटों पर पासा पलटने की हैसियत रखते हैं.

पिछले चुनाव में भाजपा को दलितों के 40 फीसदी वोट मिले थे और इस समुदाय के 17 विधायक उसके थे.कांग्रेस को दलितों के 37 फीसदी के लगभग वोट मिले थे और 12 विधायक उसके थे. जेडीएस को दलितों के 18 फीसदी वोट मिले थे और 6 विधायक उसके इस समुदाय से थे. 2018 के पहले कांग्रेस दलित वोटों को लेकर बेफिक्र रहती थी. पर पिछले चुनाव नतीजे से उसने सबक लेते मल्लिकार्जुन खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया. जाहिर है इस फैसले के पीछे कर्नाटक के चुनाव का अहम रोल था जो कि उसके लिए नाक की बात है.

खड़गे फैक्टर का असर तो 13 मई को देखने मिलेगा लेकिन आरक्षण को लेकर दलितों में भाजपा के लिए गुस्सा सड़कों पर भी फूट रहा है.असल में भगवा गैंग की दलितों में फूट डालने की कोशिश नाकाम हो गई है, जिसने दलितों के आरक्षण को 15 से बढ़ाकर 17 फीसदी तो कर दिया लेकिन चुनाव की तारीखों के एलान के पहले उसे अंदरूनी तौर पर 4 हिस्सों में बांट दिया. इससे नाराज बंजारा समुदाय सड़कों पर उतर आया.

बोम्मई सरकार के खिलाफ दलितों ने खुलकर सड़कों पर नारेबाजी की, भाजपा के झंडे जलाए और शिकारीपुरा में येदियुरप्पा के घर पर पथराव भी किया. गौरतलब है कि कर्नाटक में दलितों की 101 जातियां हैं जिन्हें आंतरिक आरक्षण के नाम पर कोटा दे दिया गया.कर्नाटक में 2 तरह के दलित हैं जिन्हें वाम यानी लेफ्ट और राइट कहा जाता है.

लेफ्ट दलितों में 29 जातियां शामिल हैं जिन्हें 6 फीसदी कोटा दिया गया. अनुसूचित जाति अधिकार कैटेगरी, जिसमें 25 जातियां शामिल हैं, को 5.5 फीसदी और अछूत माने जाने वाली जातियों को 4.5 फीसदी कोटा दिया गया. बाकियों के हिस्से में एक फीसदी कोटा डाल दिया गया.

यह एक गैरजरूरी फैसला था जिसकी हकीकत दलित समझ गए और इसका विरोध भी कर रहे हैं.सो, भाजपा का नुकसान तय दिख रहा है. बंजारा समुदाय इससे ज्यादा आहत दिखा क्योंकि सबसे ज्यादा नुकसान उसका ही हो रहा था.बात सिर्फ आरक्षण को लेकर दलितों के गुस्से की ही नहीं है बल्कि भाजपा दलितों के भले के लिए गिनाने लायक भी कुछ नहीं कर पाई है, जिससे दलित खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. भाजपा की दिक्कत यह है कि उन का गुस्सा शांत करने के लिए उसके पास न तो मजबूत दलीलें हैं और न ही अब वक्त बचा है.

जनता दल के वोक्कालिंगा

जिस तरह भाजपा लिंगायतों के दम पर ताल ठोक रही है उसी तरह जनता दल (एस) भी हमेशा की तरह वोक्कालिंगा समुदाय के भरोसे मैदान में है. आंकड़े एचडी कुमारसामी को राहत देने वाले हैं कि वे इस बार भी अपने समुदाय के समर्थन के चलते सम्मानजनक सीटें ले जाएंगे. 2018 में इस समुदाय के 42 विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे जिनमें से 23 जनता दल (एस) के थे. तब कांग्रेस से 11 औरभाजपा से 8 विधायक इस समुदाय के थे. 11 फीसदी आबादी वाला वोक्कालिंगा समुदाय 50 सीटों पर हारजीत तय करता है जिसके वोटों की तादाद 11 फीसदी है. हालांकि, ये लोग अपनी तादाद ज्यादा बताते हैं.

तादाद इतनी हो या उतनी, पर यह हर कोई जानता है कि बगैर वोक्कालिंगा समुदाय के कर्नाटक की सत्ता नहीं मिलने वाली. खासतौर से भाजपा ज्यादा चिंतित है जो एचडी देवगौड़ा के जमाने से ही कोई काट नहीं ढूंढ पा रही है. यह समुदाय भी पिछड़े तबके में आता है जिसे घेरने में सभी पार्टियां लगी हुई हैं. कांग्रेस को डीके शिवकुमार के वोक्कालिंगा समुदाय के होने का फायदा पिछले चुनाव में भी मिला था लेकिन इस दफा वह कुछ और ज्यादा की आस लगाए बैठी है क्योंकि शिवकुमार सीएम पद की दौड़ में सबसे आगे हैं.

बंटे हुए हैं आदिवासी

इन 3 तबकों के बाद आदिवासी जिस तरफ झुक जाएंगे वह पार्टी सत्ता के काफी नजदीक होगी. 2018 के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के 7-7 विधायक चुनकर आए थे जबकि जेडीएस से एक ही विधायक चुना गया था. राज्य में आदिवासियों की आबादी 8 फीसदी के करीब है और 15 सीटें उसके लिए रिजर्व हैं. दो प्रमुख आदिवासी जातियां गौंड और नाइकड़ा  किसी एक पार्टी की होकर नहीं रहीं.

सरकार किसी भी दल की रही हो, उसने कभी आदिवासियों के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जिसके दम पर वे उनसे वोट मांग सकें. ये लोग आज भी खेतिहर मजदूर ही हैं जो राजनीति से ज्यादा उम्मीद नहीं रखते.

मुसलमान फिर एकजुट

कर्नाटक के पूरे चुनाव में सिर्फ मुसलमानों के बारे में ही कहा जा सकता है कि वे इस बार भी थोक में कांग्रेस को वोट करेंगे क्योंकि भाजपा राज में उनकी जमकर अनदेखी हुई है. बसवराज बोम्मई भगवा दिखने के चक्कर में खूब हलाला और हिजाब को लेकर मुसलमानों पर ताने कसते रहे हैं.इसके बाद भी उनकी इमेज योगी आदित्यनाथ या हेमंत विस्वा शर्मा जैसी कट्टर नहीं बन पाई क्योंकि वहां मुसलमानों को परेशान देखकर ताली पीटने वाले हिंदू न के बराबर हैं.

साल 2018 में 7 मुसलिम विधायक जीते थे और ये सभी कांग्रेस के थे. 10 फीसदी के लगभग आबादी वाले मुसलमान 40 सीटों पर निर्णायक होते हैं जो इस बार पहले से ज्यादा एकजुट हो गए हैं. भाजपा सरकार ने मुसलमानों को मिला 4 फीसदी आरक्षण छीनकर उसे लिंगायतों और वोक्कालिंगओं में बराबरी से बांट दिया था जिससे इन समुदायों को तो कोई खास फायदा नहीं हुआ लेकिन मुसलमानों का काफी नुकसान हुआ था.

कांग्रेस आरक्षण बहाल करने का एलान कर पहले ही मुसलिम वोटों को अपने पक्ष में कर चुकी है. जनता दल (एस) तो दूर की बात है. इस बार कर्नाटक के मुसलमान असदुद्दीन ओवैसी को भी हाथ नहीं रखने दे रहे हैं.

कुरुबा भी कांग्रेस पर कुर्बान

मुसलमानों के बाद कांग्रेस की सबसे बड़ी बेफिक्री कुरुबा या कोरबा जाति के करीब 9 फीसदी वोटों को लेकर है जो कोई 25 सीटों पर खेल बनाने और बिगाड़ने की कूवत रखते हैं. 2018 के चुनाव में इस समुदाय के 12 विधायक चुने गए थे जिन में 9 कांग्रेस के, 2 भाजपा के और एक जनता दल (एस) का था.

कुरुबा भी कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक है जो सिद्धारमैया की वजह से उससे छिटका नहीं है. भाजपा ने ऊंची जाति वालों को आरक्षण की मलाई खूब बांटी लेकिन इस समुदाय की मांग पर ध्यान नहीं दिया जो आदिवासी समुदाय के तहत आरक्षण की मांग करता रहा है. इस जाति के लोग भेड़ चराने के लिए जाने जाते हैं. राजस्थान में इन्हें देवासी, गुजरात में रबारी, महाराष्ट्र में धनगर और हरियाणा में गडरिया कहा जाता है.

दूसरी जातियों में 2 फीसदी ब्राह्मणों का रुझान भाजपा की तरफ कुदरती तौर पर है क्योंकि वह उनका खास खयाल रखती है. ईसाई कांग्रेस का वोटबैंक घोषित तौर पर है ही. जातियों के लिहाज से कांग्रेस भाजपा से ज्यादा मजबूत स्थिति में है और नरेंद्र मोदी की सभाओं से ज्यादा भीड़ राहुल गांधी की सभाओं में नजर आती है.

गायब हैं मुद्दे

जातियों के जंजाल में उलझ गए कर्नाटक के इस चुनाव से मुद्दे गायब हैं, खासतौर से भ्रष्टाचार का. इसकी वजह यह है कि खुद पार्टियां और नेता नहीं चाहते कि यह मुद्दा बने क्योंकि सभी भ्रष्टाचार में गलेगले तक डूबे रहे हैं. भाजपा के पास विकास के नाम पर कुछ गिनाने को नहीं है, तो कांग्रेस जमीनी मुद्दों को जोरदार तरीके से उठा नहीं पा रही. ये दोनों ही दल अंदरूनी कलह से भी त्रस्त हैं.

राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान कर्नाटक में महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर भाजपा को घेरा था तब उन्हें अच्छा रिस्पौंस मिला था. यात्रा में उमड़ी भीड़ देखकर खुद कांग्रेसी हैरान थे और भाजपा सकते में थी.यात्रा से कांग्रेस संगठन में भी जोश आया था जिसे कांग्रेस कितना भुना पाई, यह नतीजों वाले दिन ही पता चलेगा.

कर्नाटक के बारे में मशहूर है कि वहां किसी एक पार्टी की सरकार को मतदाता दोबारा मौका नहीं देते. वोटिंग पैटर्न वहां बदलता रहा है और वहां कोई चौथी ताकत भी नहीं है. बसपा का एक उम्मीदवार पिछली बार जनता दल (एस) के सहयोग से जीता था पर इस बार बसपा दौड़ में कहीं नहीं दिख रही. आम आदमी पार्टी भी खानापूर्ति करती नजर आ रही है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह जितने भी वोट काटेगी, वे भाजपा के होंगे.

कर्नाटक के 5 दिग्गज

बी एस येदियुरप्पा

कर्नाटक में भाजपा की एंट्री कराने वाले 80 साला येदियुरप्पा वहां के असरदार लिंगायत समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जो कम उम्र से ही आरएसएस से जुड़ गए थे. लिंगायत समुदाय के दम पर वे 3 बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने.भाजपा कर्नाटक में उनकी कितनी मुहताज है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मौजूदा चुनाव में भी वह उन्हीं के चेहरे पर मैदान में है.

साल 1994 में जब 115 सीटें ले जाने वाले जनता दल की सरकार बनी थी और कांग्रेस 34 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर खिसक गई थी और भाजपा को 40 सीटें मिलीं थीं जो उसके लिए उम्मीद से बाहर की बात थी. येदियुरप्पा को उसने ईनाम देते विपक्ष का नेता बनाया था. इसकेबाद से उनका कद बढ़ता गया और वे मुख्यमंत्री चुने जाते रहे. लेकिन एकाएक ही उन्हें बढ़ती उम्र का हवाला देकर चलता कर दिया गया और बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया गया तो हर किसी को हैरानी हुई थी और यह माना जाने लगा था कि अब कर्नाटक से भाजपा खत्म हो जाएगी. लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने उन्हें इस बार किसी तरह साधे रखा और उनके मनमुताबिक उनके बेटे बी वाई विजयेंद्र को शिकारीपुरा सीट से टिकट दे दिया.

साल 2011-12 में येदियुरप्पा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे जिस के चलते उन्हें विधानसभा से इस्तीफ़ा देने के साथसाथ भाजपा की प्राथमिक सदस्यता भी खोनी पड़ी थी. भाजपा की बेवफाई और अनदेखी से नाराज येदियुरप्पा ने नई पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) बना ली थी. इसके नतीजे में साल 2008 के चुनाव में 110 सीटें जीतने वाली भाजपा साल 2013 के विधानसभा चुनाव में महज 40 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. हालांकि कामयाबी केजेपी को भी कोई खास नहीं मिली थी क्योंकि उसे केवल 6 सीटें मिलीं थीं लेकिन 72 सीटों पर उसने भाजपा का रायता लुढ़का दिया था.

इससे साबित हो गया था कि ये दोनों ही एकदूसरे के बगैर अधूरे हैं. इस तलाक का फायदा उठाते कांग्रेस ने 2008 की 80 के मुकाबले 122 सीटें झटकी थीं. उसे वोट भी 37 फीसदी के लगभग मिले थे, तब थोड़ा फायदा जनता दल (एस) को भी हुआ था जिसकी सीटें 28 से बढ़ कर 40 हो गई थीं.

साल 2008 के चुनाव में भाजपा ने 110 सीटें जीती थीं. तब यह साफ हो गया था कि बिना येदियुरप्पा के कर्नाटक में भगवा तंबू गाड़े रखना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुकिन है तो उसने पूरी इज्जत बख्शते हुए उन्हें उनकी पार्टी सहित अपने साथ मिला लिया और 2018 में फिर से सीएम बनाया था.

बसवराज बोम्मई

साल 2021 में भाजपा ने येदियुरप्पा को हटाकर 62 साला बसवराज बोम्मई को राज्य की कमान सौंपी थी लेकिन वे न तो आलाकमान और न ही जनता की उम्मीदों पर खरे उतरे. बोम्मई सदर लिंगायत समुदाय के हैं जिसकी आबादी 3.5 फीसदी है.

भाजपा उनके जरिए येदियुरप्पा से हटकर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती थी लेकिन जैसेजैसे चुनाव नजदीक आते गए उसे एहसास होता गया कि कर्नाटक की लड़ाई आसान नहीं है. लिहाजा, उसने फिर येदियुरप्पा को आगे कर दिया. लेकिन इस बार हालात कुछ अलग हैं क्योंकि बोम्मई भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं. उनके पिता एसआर बोम्मई भी कर्नाटक के सीएम रह चुके हैं.

बोम्मई मूलतया जनता दल के हैं और उसके टिकट पर 2 बार धारवाड़ सीट से विधायक चुने गए. इसके बाद उन्होंने 2008 में भाजपा जौइन कर ली थी लेकिन पूरी तरह भगवा रंग में वे खुद को रंग नहीं पाए. भाजपा ने बतौर ईनाम उन्हें मंत्री बनाया था. धीरेधीरे उन्होंने भाजपा में अपनी पकड़ मजबूत की. साल 2021 में येदियुरप्पा की जगह उन्हें सीएम बनाया गया लेकिन उनके कार्यकाल में जमकर भ्रष्टाचार हुआ और दलित समुदाय भी नाखुश रहा. खुद लिंगायत समुदाय के लोग उनसे बहुत ज्यादा खुश नहीं हैं, जिस का खमियाजा भाजपा को भुगतना भी पड़ सकता है.

सिद्धारमैया

पिछड़े कहे जाने वाले कुरुबा समुदाय के गरीब परिवार में जन्मे कांग्रेसी दिग्गज 72 साला सिद्धारमैया पेशे से वकील हैं जो 2 बार कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री और एक बार मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. खुद को नास्तिक कहने वाले लोहियावादी सिद्धारमैया कभी कांग्रेस के धुरविरोधी हुआ करते थे लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (एस) से उन्हें निकाल दिया गया था क्योंकि वे उनके बेटे एचडी कुमारसामी के रास्ते में रोड़ा बनने लगे थे.

कांग्रेस ने 2013 में सीएम बनने की उनकी ख्वाहिश पूरी की लेकिन सिद्धारमैया एक बार और कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. इस बाबत वे एलान भी कर चुके हैं कि यह उनका आखिरी चुनाव होगा. कुरुबा समुदाय कर्नाटक की तीसरी बड़ी जाति है जिसकी अनदेखी हर दौर में होती रही है.

2004 में जब कांग्रेस और जनता दल की गठबंधन वाली सरकार बनी थी तब उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाया गया था जबकि उनकी दावेदारी मुख्यमंत्री पद को लेकर थी. लेकिन देवगौड़ा उनका कद बढ़ता नहीं देखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आसानी से कांग्रेस के एन धरमसिंह को मुख्यमंत्री बन जाने दिया था.

साल 2006 में वे अपने समर्थकों सहित कांग्रेस में शामिल हो गए थे जिसका फायदा कांग्रेस को भी हुआ था क्योंकि तब तक पिछड़े तबके के बड़े नेता के तौर पर सिद्धारमैया पहचाने जाने लगे थे. इस बार देखना दिलचस्प होगा कि बहुमत अगर मिला तो कांग्रेस उन्हें सीएम बनाती है या नहीं.भाजपा ने उन्हें घेरने क्र लिए वरुणा विधानसभा सीट से अपने वरिष्ठ मंत्री लिंगायत समुदाय के वी सोमन्ना को टिकट देकर उनकी जीत को मुश्किल बना दिया है.

डीके शिवकुमार

सिद्धारमैया की तरह ही भाजपा ने एक और दिग्गज कांग्रेसी कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष 61 साला डीके शिवकुमार को भी कनकपुरा सीट पर आर अशोक को उतार कर उन्हें दिक्कत में डाल दिया है. भाजपा की मंशा साफ है कि सिद्धारमैया की तरह शिवकुमार भी अपने इलाके में सिमटकर रह जाएं.आर अशोक और शिवकुमार दोनों ही वोक्कालिंगा समुदाय के हैं, लिहाजा, टक्कर कांटे की है.

कर्नाटक के सबसे अमीर नेताओं में शुमार किए जाने वाले शिवकुमार जोड़तोड़ में माहिर हैं. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे एचडी देवगौड़ा को 2 बार हरा चुके हैं. इससे उन्हें जरूरत से ज्यादा शोहरत मिली थी जिसे उन्होंने कायम भी रखा.शिवकुमार कई अहम विभागों के मंत्री रह चुके हैं जिन पर मनीलौंड्रिंग और भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे और इस बाबत जेल भी उन्हें जाना पड़ा. कांग्रेस में उनकी अहमियत इसी बात से समझी जा सकती है कि अक्तूबर 2019 में जब वे दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखे गए थे तब उनसे मिलने सोनिया गांधी गई थीं.

डीके शिवकुमार भी इस बार कांग्रेस की तरफ से सीएम पद की दौड़ में हैं और आत्मविश्वास से लबालब हैं. उनका दावा है कि कांग्रेस 141 सीट जीतकर सरकार बनाएगी. अब देखना दिलचस्प होगा कि बहुमत मिलने की स्थिति में कांग्रेस उन्हें यह मौका देती है या नहीं.

एचडी कुमारसामी

पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के बेटे के रूप में पहचाने जाने वाले जनता दल (एस) के नेता 63 साला एचडी कुमारसामी 2 बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं लेकिन दोनों ही बार उनका कार्यकाल लगभग एक साल का रहा. साल 2018 में कांग्रेस के सहयोग से वे सीएम बने थे लेकिन जुलाई 2019 में भाजपा द्वारा लाए अविश्वास प्रस्ताव के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था.

कुमारसामी भी कई विवादों और घोटालों के आरोपों से घिरे रहे हैं. राजनीति से ज्यादा उनकी दिलचस्पी फिल्मों में रही है. 2003 में उनकी बनाई कन्नड़ फिल्म ‘चंद्र चकोरी’ ने रिकौर्ड बिजनैस किया था. इसके बाद उन्होंने ‘कस्तूरी’ नाम से एक टीवी चैनल भी शुरू किया जिसे उनकी पत्नी अनीता कुमारसामी देखती हैं.

कुमारसामी को लेम्बोर्गिनी, पोर्श, हमर और रेंज रोवर जैसी महंगी कारों के शौक के लिए भी जाना जाता है. हालांकि, उन्हें भाग्यलक्ष्मी योजना लागू करने के लिए भी लोग याद करते हैं जो उन्होंने लड़कियों की हिफाजत के लिए 2006 में शुरू की थी.

जनता दल (एस) के नेता के तौर पर इस बार भी वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हैं लेकिन राह आसान नहीं है क्योंकि हर बार की तरह इस बार भी जनता दल (एस) और वे गठबंधन की वैशाखी के मुहताज अभी से दिख रहे हैं. अगर कम सीटें मिलीं तो जनता दल (एस)की जमीन कर्नाटक से सिमटना भी शुरू हो जाएगी.

इसी साल फरवरी में उन्होंने आरएसएस पर हमला करते ब्राह्मणों को बांटने वाली जाति कहा था, तो काफी बवंडर भगवा गैंग ने मचाया था. इसके पहले भी उन्होंने अक्तूबर 2021 में प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी को आरएसएस की कठपुतली करार दिया था.

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