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Emotional Story : नाराजगी – किससे मिलकर इमोशनल हो गया था हरि?

Emotional Story : कंपनी के टूर पर हरि मुंबई गया हुआ था. वह 3 दिन मुंबई में रुका. सारा दिन कंपनीकार्य में कट जाता और शाम के समय कंपनी गेस्टहाउस आ जाता. लेकिन मन में हर शाम एक खयाल आता. बहन यहीं रहती है, जा कर मिल ले. मगर हरि के पैर गेस्टहाउस से बाहर नहीं निकले.

टीवी देखते समय मस्तिष्क के किसी बंद कोने से पुरानी यादें बाहर आने लगीं. बड़ी बहन है, बचपन में एकसाथ हंसते, खेलते, लड़तेझगड़ते खूब मस्ती करते थे. लड़ाई होती लेकिन बस कुछ पलों की, आधा घंटा, 2 घंटे. फिर एकसाथ खेलने लगते. वो बचपन के प्यारे दिन, कोई छलकपट नहीं, क्या तेरा और मेरा. सब मिलबांट कर काम करते थे. बड़े होते हैं, तो दूरियां बनती जाती हैं. कभी सोचा नहीं था कि इतनी दूरियां हो जाएंगी. मिलना तो छोड़ो, फोन पर भी बात नहीं होती है.

जब दिल में खटास आ जाए, दरार पड़ जाए तब गांठ न तो खुलती है, न ही दिल मिलते हैं. दूरियां नदी के दो पाट होती हैं, जो मिलते ही नहीं. कोई सेतु भी तो नहीं बनता, जो मिला दे. हरि की इसी सोच ने उसे शाम के समय गेस्टहाउस से बाहर निकलने नहीं दिया. कुछ ही दूर जुहू बीच था, वहां भी नहीं गया.

हरि के कंपनी टूर हर महीने लगते थे, जहां भी जाता, बच्चों और पत्नी के लिए कुछ न कुछ छोटीमोटी खरीदारी अवश्य करता. मगर इस टूर पर कोई खरीदारी भी नहीं की. 3 दिनों बाद दिल्ली वापस जाने के लिए एयरपोर्ट पहुंचा. फ्लाइट में अभी समय था. कंपनी का जब काम समाप्त हुआ, हरि भरेमन से एयरपोर्ट पर गया.

सिक्योरिटी चैक के बाद एयरपोर्ट की दुकानों में रखे सामान देखने लगा. चाहिए तो कुछ भी नहीं था, फिर भी समय व्यतीत करने हेतु हर दुकान पर खड़ा हो जाता. खरीदना कुछ भी नहीं था, लेकिन तन्मयता के साथ दुकानों में रखे सामान के दाम देखने लगा, शायद कुछ कम कीमत का सामान मिल जाए जिस की उसे उम्मीद न के बराबर थी.

‘हरि, हरि.’ उसे ऐसा प्रतीत हुआ कोई उस को पुकार रहा है. कौन हो सकता है? एक प्रश्न उस के जेहन में उभरा. ‘हरि,’ अब आवाज एकदम निकट से थी. उस ने आवाज की दिशा में गरदन घुमा कर देखा, बहन. हरि के पीछे उस की बड़ी बहन सरिता खड़ी थी. वह बहन, जिस के बारे में हरि 3 दिनों से सोचता रहा, लेकिन न फोन किया, न मिलने गया. आज एक लंबे अरसे बाद हरि का बहन से मिलना हुआ और आश्चर्यभाव लिए उस ने बहन को गले लगाया. ‘बहन, कैसी हो?’

‘मैं तो अच्छी हूं. तुम यहां एयरपोर्ट पर. मुंबई कब आए और अब कहां जा रहे हो?’ बहन सरिता ने एकसाथ कई प्रश्न पूछ लिए.

‘मुंबई कंपनी के काम से आया था, अब वापस दिल्ली जा रहा हूं.’

‘घर मिलने नहीं आए और फोन भी नहीं किया? बहन से नाराजगी दूर नहीं हुई अब तक?’ सरिता के व्यवहार में उसे कुछ परिवर्तन दिखा.

‘गलत मत सोचो, बहन. नाराजगी कुछ नहीं है. सुबह कंपनी के काम से आया था और शाम वापस जा रहा हूं. काम समाप्त होने के बाद समय नहीं मिला,’ हरि ने बहन सरिता को स्पष्टीकरण दिया.

यहां हरि झूठ बोल गया, जबकि वह पिछले 3 दिनों से मुंबई में था और बहन की यादों की कशमकश भी थी. ‘अच्छा बहन, तुम एयरपोर्ट पर अकेली, जीजा कहां हैं?’

‘भाई, सब बेंगलुरु गए हैं. मैं भी वहीं जा रही हूं. सास की तबीयत ठीक नहीं है. बड़े भाईसाहब के घर में हैं. कभी भी अंतिम सांस ले सकती हैं. तुम्हारे जीजा एक सप्ताह से बेंगलुरु में हैं,’ सरिता ने हरी को बताया.

आज लगभग 10 वर्षों बाद हरी और सरिता मिल रहे थे. 55 वर्ष का हरी और उस की बड़ी बहन सरिता 61 वर्ष की. हरि कुछ यादों में खो गया. हरि और उस की बहन में आर्थिक अंतर बहुत अधिक था. हरि एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था और उस का बहनोई एक सफल व्यापारी. बड़ी दुकान, बड़ा औफिस. नौकरी के कारण हरि की आर्थिक स्थिति व्यापार जगत में विशेष स्थान रखने वाली बहन और बहनोई के मुकाबले कुछ भी नहीं थी. बच्चों की उच्चशिक्षा और विवाह के लिए धनअर्जन की खातिर वह अपनी इच्छाओं को दबा देता था. 10 वर्षों पहले धनी बहन-बहनोई की बड़ी पुत्री के विवाह पर हरि कुछ अधिक उपहार नहीं दे सका, जिस कारण विवाह समारोह पर सरिता की सास के तानों पर हरि बहन-भाई के नाजुक रिश्ते की अहमियत को ध्यान में रखते हुए चुप रहा.

अपनी सास और दूसरे बड़ेबूढ़ों के आगे सरिता भी बेबस थी. उस ने मौके की नजाकत नहीं समझी. सास और घर के अन्य बूढ़ों के आगे उस ने भी हरि को खरीखोटी सुना दी कि खाली हाथ आने से अच्छा होता, शादी में न आता. कम से कम उसे ताने तो नहीं सुनने पड़ते. हरि अपनी हैसियत से अधिक उपहार ले कर गया था लेकिन बहन सरिता की सास और दूसरे बड़ेबूढ़ों की नाक के नीचे वे उपहार नहीं उतरे. उन के परिवार में भांजी की शादी पर मामा के घर से चूड़ा और अन्य कीमती उपहार की प्रथा थी. हरि मौके और रिश्ते की नजाकत समझता था, इसलिए चुपचाप खून का घूंट पी लिया. परंतु सरिता अपना आपा खो बैठी.

उस दिन जो दिलों में दूरियां बनीं, उन को आज 10 वर्ष हो गए. उस दिन के बाद वह बहन से कभी नहीं मिला और फोन भी नहीं किया. बहन-भाई का रिश्ता टूट गया. आज 10 वर्षों बाद सरिता की सास अंतिम सांस ले रही है. एयरपोर्ट पर दोनों की मुलाकात अचानक हो गई. 10 वर्ष की कुट्टी के पश्चात दोनों के मन की खटास खुद दूर हो गई, यह कुदरत का करिश्मा ही रहा जब सरिता ने एयरपोर्ट पर विंडो शौपिंग करते देख हरि को आवाज दी. और हरि ने पलट कर बहन को गले लगा लिया. हरि खयालों से बाहर आया, बोला, “बहन, खड़ेखड़े थक जाओगी. चलो, बैठ कर बात करते हैं.”

दोनों की फ्लाइट उड़ने में समय था. एक घंटे तक दोनों परिवार की कुशलक्षेम पूछते रहे और अपने दिल का हाल बांट कर पुराने गिलेशिकवे भुलाते रहे. समय ने दोनों को दूर किया और अचानक मिलवा कर नजदीक किया. दोनों ने पिछले 10 वर्षों में कभी नहीं सोचा था कि फिर कभी कहीं इतनी आत्मीयता से मिलना होगा.

फ्लाइट का समय हो गया. हरि दिल्ली आ गया और सरिता बेंगलुरु चली गई. दिल्ली आने के बाद हरि औफिस के काम में कुछ अधिक व्यस्त रहा, जिस कारण हरि पत्नी से सरिता के मिलने का जिक्र नहीं कर सका. सुबह जल्दी औफिस जाना और रात देर से घर वापस आना. रविवार की छुट्टी पर हरि ने पत्नी से एयरपोर्ट पर सरिता के मिलने का जिक्र किया. पत्नी हरिता चुप रही. उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की.

विवाह समारोह में अपने पति का अपमान वह नहीं भूली थी. हरि ने सरिता को माफ कर दिया था हालांकि बोलचाल 10 वर्षों बाद हवाईअड्डे पर हुई लेकिन हरिता ने ननद सरिता और उस की ससुराल को अभी भी माफ नहीं किया था. एक भारतीय नारी होने के कारण वह भरी बिरादरी में अपने पति का अपमान नहीं सहन कर सकी थी. हरिता के मन की दशा भांप कर हरि ने बात आगे नहीं बढ़ाई.

एक सप्ताह बाद रविवार के दिन टैलीफोन की घंटी बजी. लैंडलाइन पर फोन आया. लैंडलाइन फोन सिर्फ इसलिए नहीं कटवाया, घर पर मोबाइल के सिग्नल नहीं आते थे. हरी बाजार से फलसब्जी लेने गए थे. हरिता ने फोन उठाया. “भाभी,” हरिता की आवाज सुन सरिता ने कहा. हरिता कुछ नहीं बोली. फोन कान पर लगाए चुप रही. उस की आंखें नम हो गईं.

सरिता की सास के निधन का समाचार सुन कर हरिता रो पड़ी. “भाभी, रोते नहीं हैं. क्या मुझ से अभी भी नाराज हो?” सरिता का गला रुंध गया.

“नहीं दीदी. कोई नाराजगी नहीं. उठाला कब है?” हरिता ने पूछा.

“बुधवार को बेंगलुरु में है.” इतना सुन हरिता ने फोन रख दिया.

सरिता समझी कि हरिता अभी भी नाराज है. सरिता की सास की मृत्यु पर हरिता के मन में सभी गिलेशिकवे दूर हो गए. गिलेशिकवे की जो वजह थी वही चली गई तब किस बात की नाराजगी. सास और दूसरे बुजुर्गों के आगे सरिता बेबस थी. हरिता सब समझती थी. उस की नाराजगी भाई-बहन के संबंध तोड़ने पर थी. सरिता ने राखी भी भेजनी छोड़ दी थी. बांधने नहीं आती लेकिन डाक से भेज तो देती. 10 वर्षों से सरिता ने हरि को राखी भी नहीं भेजी थी. भरी बिरादरी में उस ने सास का साथ दिया, मगर भाई से राखी का संबंध तो न तोड़ती. डाक से भेज देती, कभीकभार फोन कर देती. यह सब वह सोच ही रही थी कि हरी फलसब्जी ले कर घर आए.

हरिता ने सरिता की सास की मृत्यु का समाचार दिया. हरी हमें उन के उठाले पर जाना चाहिए. तुम टिकट बुक करवा लो. “क्या तुम जाना चाहती हो?” हरि ने हैरत से पूछा.

“गमी के मौके पर हमें अवश्य जाना चाहिए. पूरी उम्र नाराजगी के बोझ के साथ नहीं जीना चाहिए. कारण चला गया, नाजरगी भी जानी चाहिए.”

हरिता ने अपने आने की सूचना सरिता को दी. यह सूचना सुन कर सरिता की आंखों में आंसू आ गए.

अपनी सास के उठाले पर हरि और हरिता को देख सरिता अति प्रसन्न हुई. गले लगा कर भाईभाभी का स्वागत किया. जिन बुजुर्गों ने हरि का मजाक सरिता की सास के साथ मिल कर उड़ाया था वे आज चुपचाप दांतों तले उंगली दबा कर हैरानी से देख रहे थे.

आज बुजुर्गों की परवा किए बिना हरि के बहन-बहनोई ने सब के सामने हरि और हरिता को गले लगा कर स्वागत किया. रिश्तों पर जमी बर्फ पिघल गई. हैरानपरेशान बुजुर्गों के सामने हरि और हरिता के मुख पर आत्मविश्वास की मुसकान थी

JNUSU Elections 2025 : छात्रों से चिढ़ती सरकारें

JNUSU Elections 2025 : दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के चुनाव इस बार काफी उत्सुकता से लड़े गए क्योंकि वामपंथी खेमे में विभाजन हो गया था और भगवा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को जीत की पूरी उम्मीद थी. हालांकि उन्हें वाम गुट की गुटबाजी का लाभ हुआ लेकिन अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सचिव के पद वामपंथियों का एक गुट बटोर ले ही गया.

यह बात इसलिए थोड़ी महत्त्व की हो जाती है क्योंकि इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप वहां के हारवर्ड समेत दूसरे विश्वविद्यालयों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे लोकतंत्र समर्थक, गर्भपात समर्थक, पैलेस्टाइन समर्थक, पर्यावरण समर्थक, रंगभेद विरोधियों, धर्म विरोधियों और तानाशाही विरोधियों पर लगाम लगाएं और छात्रों से कहें कि वे विश्वविद्यालयों में पढ़ने आए हैं, राजनीति करने नहीं.

ऐसी ही बात भारत के राजनीतिबाज कहते हैं जब सत्ता में होते हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय देश में अरसे से सत्ताविरोधी विचारों का केंद्र बना हुआ है और वहां निरंतर तानाशाही सोच व तानाशाहों के फैसलों पर चर्चा होती रहती है.

2014 के बाद से यह विश्वविद्यालय हारवर्ड विश्वविद्यालय की तरह सत्ता की आंखों में किरकिरी बना हुआ है, खासतौर पर इसलिए कि दोनों ही विश्वविद्यालयों को केंद्र सरकारों से सहायता मिलती है. अमेरिका में ट्रंप ने 2 अरब डौलर की सहायता बंद कर दी है पर भारत में भाजपा सरकार अभी सहायता तो बंद नहीं कर पाई लेकिन उस ने अपनी मरजी की नियुक्तियां करनी शुरू कर दी हैं ताकि सारी फैकल्टीज भगवा हो जाएं, चाहे माथे पर तिलक न लगा हो.

शिक्षा संस्थान में राजनीति पर खुली चर्चा किया जाना जरूरी है. यह वह जगह है जहां विचारों को आसानी से सम झा जा सकता है.

एक बार पढ़ाई खत्म की नहीं कि हर जना अपनी रोजीरोटी में इतना व्यस्त हो जाता है कि उस के पास किसी भी पनपते छोटे जहरीले अफीम के पौधे की ओर ध्यान देने का समय नहीं होता. जब तक वे छात्र रहते हैं, किताबों को पढ़ सकते हैं, तर्क कर सकते हैं, हर बात की मीनमेख निकालने में दक्ष होते हैं, उन के साथ सशक्त विज्ञान होता है और वे हर समस्या के हर पहलू पर विचार कर पाते हैं.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इस मामले में काफी अग्रणी रहा है. अब उस पर सरकार की नजर है कि वहां केवल पोंगापंथी छात्र ही दाखिला ले सकें लेकिन हर वर्ग, जाति, वर्ण व धर्म के छात्र दाखिला लेते जा रहे हैं.

देश के अनेक विश्वविद्यालय हैं जो कट्टरवादियों को पैदा करने की फैक्ट्रियां हैं. वहां उन्हें एक ही पाठ पढ़ाया जाता है जिस में धर्मगुरु और राजा दोनों को सर्वोपरि माना जाता है. वे सरकारों के सब से बड़े सिपाही साबित होते हैं और वे ही क्रूर और निर्दयी शासक, प्रशासक, प्रबंधक, नेता बनते हैं. देशों में विवाद उन्हीं से पैदा होता है.

हारवर्ड और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय विविधता और भौतिक अधिकारों के पाठ पढ़ाते हैं जिन से धर्म और राजसत्ता दोनों चिढ़ते हैं. समाज में हरकोई उपयोगी हो, हरकोई उत्पादक हो, तभी प्रगति होती है और ये विश्वविद्यालय इसी के बीज अपने छात्रों में रोपित करते हैं. हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रबंधकों और जेएनयू के छात्रों ने पैसे देने वाले कट्टरपंथियों से दुश्मनी मोल ले रखी है लेकिन फिर भी चल रहे हैं और कामयाब भी हैं, यही आवश्यक भी है.

Indian Penal Code 1860 : नई बोतल पुराना शरबत

Indian Penal Code 1860 : भारतीय जनता पार्टी ने बहुत ढोल पीटे हैं कि उस ने भारतीय न्याय संहिता बना कर गुलामी के दिनों के इंडियन पीनल कोड 1860 को हटा दिया. पर सिर्फ नाम बदलने में माहिर भाजपा सरकार ने इंडियन पीनल कोड 1860 की भाषा को, अपराधों को, सजाओं को, धाराओं को इधर से उधर कर के नई बोतल में पुराना शरबत ही रखा है, सिर्फ ढक्कन पर नया रंग लगाया है.

मई 2024 में दिए गए एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह बात पीनल कोड 1860 की धारा 498 ए के संदर्भ में कही. यह मामला हरियाणा के अचिन गुप्ता का था जो दिल्ली का रहने वाला है जिस का सांस्कारिक हिंदू विधियों से 2008 में विवाह हुआ.

2021 में तनु गुप्ता ने एक आपराधिक मामला हिसार में दर्ज कराया कि वह हरीश मनोचा की बेटी है जो अर्बन एस्टेट, हिसार में रहते हैं. उस के पति व सास उसे शादी के बाद ताने कसते थे, दहेज मांगते थे, पति शराब पीता था. पत्नी ने 498 ए के तहत मुकदमा चलाने की मांग की.

मुकदमे में 5 जनों के नाम दर्ज करवाए गए लेकिन पुलिस ने सिर्फ पति अचिन गुप्ता के नाम चार्जशीट दायर की. पति ने हाईकोर्ट से मुकदमा खारिज करने की प्रार्थना की. लेकिन हरियाणा पंजाब हाईकोर्ट ने मामला खारिज नहीं किया तो अचिन गुप्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.

सुप्रीम कोर्ट ने अचिन गुप्ता को राहत दे दी और हिसार में मजिस्ट्रेट के पास चल रहे मुकदमे को खारिज कर दिया पर इसी मुकदमे में यह भी कहा कि भारतीय न्याय संहिता की धारा 85 व 86 हूबहू गुलामी के दिनों के बने कानून इंडियन पीनल कोड की धारा 498 ए की नकल है.

वैसे, 498 ए स्वतंत्र भारत में कांग्रेस सरकार द्वारा औरतों को पतियों के अत्याचारों से बचाव के लिए जोड़ी गई थी लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नीतिनिर्धारक और कानून बनाने वाले इतने अनपढ़ या अधूरे ज्ञान वाले हैं कि उन्होंने जरा सा बदलाव ही किया.

वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा भी था कि धारा 498 ए का बहुत बुरी तरह से पत्नियों द्वारा दुरुपयोग किया जा रहा है. लेकिन अपनी योग्यता का दम भरने वाली भाजपा सरकार के मंत्री व विधि विशेषज्ञों ने न 2010 की सलाह मानी, न कांग्रेसी सरकार के इस समाज सुधार संशोधन में कोई बदलाव किया.

कानून बनाने का काम निरंतर चलता रहे, यही लोकतंत्र की खासीयत है जो इसे धर्मतंत्र से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ बनाती है. धर्म को सर्वोपरि मानने वाली भारतीय जनता पार्टी के पास, अफसोस, इतने योग्य व्यक्ति नहीं हैं कि वे सही कानून बना सकें, तभी तो 2024 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट को ढोल पीटपीट कर बनाए गए भारतीय न्याय संहिता 2023 की पोल खोलनी पड़ी.

भाजपा चाहती तो 2010 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सम झ लेती पर लगता है कि उस में पढ़ेलिखे लोगों की कमी है, उस में वे ही लोग भरे हैं जो एक ही मंत्र, एक ही भजन, एक ही आरती को रोजाना, बारबार, लगातार बिना बदले दोहराने के ‘एक्सपर्ट’ हैं.

भाषण देना एक बात है, कानून बनाना, नई खोज करना दूसरी.

भाजपा को ऐसा कानून बनाना चाहिए था जो पतिपत्नी विवादों को आसानी से हल करने में सहायक हो और या तो विवाद हल कराए या संबंध तुड़वा दे लेकिन बिना कष्ट के.

अचिन गुप्ता के मामले से साफ है कि इस धारा का दुरुपयोग हो रहा है और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने के बाद भी अचिन गुप्ता को तनु गुप्ता के लगाए आरोपों से सिर्फ मुक्ति मिली है लेकिन तलाक नहीं मिला. वह प्रक्रिया अभी भी किसी अदालत में चल रही हो तो बड़ी बात नहीं. वर्ष 2024 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अचिन गुप्ता सिर्फ जेल जाने से बचा, पत्नी तो तनु गुप्ता कानूनन बनी ही हुई है.

मजेदार बात यह है कि तनु गुप्ता ने माना था कि विवाह पूरे हिंदू रीतिरिवाजों के साथ हुआ. जब देवता विवाह में मौजूद थे तो विवाह में खटास क्यों हुई? क्या देवता अपने एजेंटों की मारफत सिर्फ पैसा लेने को विवाह में पधारते हैं, यह सवाल तो है.

India-Pakistan War : बदला सम्मान के लिए

India-Pakistan War : पाकिस्तान सरकार व उस के साए में पलते आतंकवादी आखिर यह सोच कैसे पाते हैं कि वे कहीं पर, कभी भी भारत के निहत्थे निर्दोषों को गोलियों से भून कर भाग जाएंगे और देश चुप बैठा रहेगा. वर्ष 1965 और 1971 के युद्धों और कारगिल की झड़पों ने साबित कर दिया है कि चाहे जो भी कीमत हो, पाकिस्तान हो या कोई और देश, भारत चुप न बैठेगा, चाहे उस का प्रधानमंत्री कोई भी हो, किसी भी पार्टी का हो.

आतंकवादियों से निबटने में बस एक खतरा हर प्रधानमंत्री को मोल लेना होता है कि कहीं बात इतनी न बढ़ जाए कि आणविक हथियार सामने आ जाएं.

भारत द्वारा 7 मई से 10 मई तक मिसाइलों से आतंकवादियों के 9 ठिकानों पर जो हमले किए गए हैं वे न आखिरी हैं न पूरे जोर वाले हैं. यह पक्का है कि भारत आतंकवाद का उत्तर देगा और इस का दंड हो सकता है उन को भी भुगतना पड़े जो इन आतंकवादियों के आसपास रह रहे हैं. आतंकवादी हमेशा जनता में घुलेमिले रहते हैं ताकि दुश्मन उन्हें मार न पाए. वे इतने कायर होते हैं कि न अपना नामपता बताते हैं, न यह तक बताते हैं कि वे किस गुट के हैं. आमतौर पर उन्हें भेजने वाले गुट भी छोटे सनकियों के होते हैं जो 100-200 लोगों को जमा कर के भारत जैसे देश पर हमला करने को तैयार हो जाते हैं.

उन्हें पकड़ने के लिए अगर वह देश, जहां ये पनप रहे हैं व पनाह ले रहे हैं, खुद आगे नहीं आता तो पीडि़त देश को पूरा हक है कि वह अपनी जानकारी और सम झ से बदले की कार्रवाई करे, चाहे उस से दोनों देशों के निहत्थों, निर्दोषों की जान भी चली जाए. आतंकवाद का मुकाबला करना हर सरकार का पहला कर्तव्य है और उस में कोई भी कसर छोड़ी नहीं जा सकती.

USA : ट्रंप का आदेश

USA : 22 अप्रैल को पहलगाम में जो कत्लेआम हुआ था वह आतंकवाद से भी ज्यादा क्रूर था क्योंकि आमतौर पर आतंकवादी अचानक आते हैं, गोलियां चलाते हैं, फिर भाग जाते हैं. 22 अप्रैल को वे काफी देर तक 2,000 लोगों से भरे मैदान में मौजूद रहे, लोगों से धर्म पूछा, हिंदू बताने पर गोली मारी, औरतों व बच्चों को कुछ कहा नहीं और फिर आराम से निकल गए. जाहिर तौर पर तो आतंकवादियों ने कुछ बेकुसूरों को मौत के घाट उतारा था लेकिन दरअसल उन के निशाने पर थे देश का सम्मान, देश की सुरक्षा और देश के लोगों का अस्तित्व.

इस के लिए अगर 7 मई को औपरेशन सिंदूर के अंतर्गत पाकिस्तान के कई ठिकानों पर भारतीय सीमा के अंदर उड़ते सेना के हवाई जहाजों ने मिसाइलें फेंक कर हमले किए तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता अगर सरकार को पक्का पता था कि आतंकी, जिन्होंने 22 अप्रैल को बरसैन मैदान में निर्दोष भारतीयों का खून बहाया था, इन 9 जगहों से आए थे और यहीं कहीं पर शरण लिए हुए थे. वे ही नहीं, इन्हीं ठिकानों पर उन के सरगना व दूसरे आतंकी भी पनाह लिए हुए थे.

अगर यह औपरेशन केवल आतंक का प्रशिक्षण देने वाले केंद्रों को नष्ट करने के लिए किया गया था तो यह जरूरी था कि पाकिस्तान व भारत के सीमाई इलाके में ही नहीं, पूरे पाकिस्तान में जहां भी ऐसे केंद्र हैं सभी को नष्ट किया जाता तो औपरेशन सिंदूर की सफलता पूरी होती. जितना हुआ उस से नहीं लगता कि पाकिस्तान में आतंकियों की फैक्ट्रियां हमेशा के लिए जला डाली गई हैं.

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीच में पड़ कर, आदेश दे कर, यह युद्ध रुकवा दिया तो साफ जाहिर है कि भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के और उन के सहायकों में रीढ़ की हड्डियां नहीं हैं कि वे डोनाल्ड ट्रंप से ‘न’ कह सकें.

यह तो बेहद अफसोस की बात है कि भारत ने ऐक्शन शुरू किया लेकिन 5,000 किलोमीटर दूर व्हाइट हाउस में बैठे डोनाल्ड ट्रंप की एक घुड़की पर दोनों पक्ष एकदम चुप हो गए. भारत जो आतंकवाद का लगातार शिकार रहा है वह अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाया, ट्रंप के आगे झुक गया. आखिर क्यों?

भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में चौथी है. हमारी सेना की गिनती 4 बड़े देशों में आती है. हमारे पास लड़ाकू हवाई जहाज, तोपें, राडार, ड्रोन, नेवी, एयरक्राफ्ट कैरियर, मिसाइलें ही नहीं, न्यूक्लियर बमों का बड़ा स्टौक भी है. फिर हम अपना मकसद पूरा किए बिना रुके क्यों?

पाकिस्तान ने यह नहीं माना है कि पहलगाम में भेजे गए आतंकवादियों को वह पकड़ कर भारत को सौंप देगा. हम ने यह पता नहीं किया है कि उन आतंकवादियों को किस क्रूर शख्स ने भारत भेजा था. जिन 9 ठिकानों पर 7 मई की रात को हम ने मिसाइलों से हमले किए थे और जो नुकसान पहुंचाया था उन में पहलगाम के आतंकवादी या उन को भेजने वाले लीडर थे, हम इस पर पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकते.

हमें सही पता होता तो हम 9 पर नहीं बल्कि 1 ठिकाने पर ही हमला करते जैसे अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मार डालने के लिए रावलपिंडी के निकट एबटाबाद पर ही हमला किया था.

अगर सटीक पता नहीं था तो बेकार में अरबों रुपए खर्च कर के हम ने अंधेरे में तीर क्यों चलाए, यह सवाल तो पैदा होता है.

रामकथा के अनुसार, राम ने रावण की लंका पर युद्ध तब शुरू किया जब हनुमान ने पक्का कर लिया कि सीता उसी अशोकवाटिका में है जो रावण के राज में है. वहां राम को मालूम था कि रावण कौन सी लंका में है. अब की बार हमला हम ने क्या यों ही सिर्फ पाकिस्तान को दंड देने या देश की जनता को बहलाने-बहकाने के लिए किया था, फिर तो, डोनाल्ड ट्रंप के कहने पर रोक देना सही है. वैसे, उस डोनाल्ड ट्रंप को हमारे बीच में पड़ने की जरूरत नहीं थी क्योंकि ट्रंप के ट्वीट के कुछ घंटे पहले ही अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस, जिन की पत्नी ऊषा भारतीय मूल की हैं, ने कहा था कि अमेरिका को कोई रुचि नहीं है कि वह इस मामले में दखल दे.

आतंकवादियों को सबक सिखाए बिना, उन के सरगनाओं को पकड़े बिना, पहलगाम में पहुंचे बंदूकधारियों को दंड दिए बिना सैनिक कार्रवाई रोक देना देश के मकसद को अधूरा छोड़ देने जैसा है जिस पर खर्च तो बहुत हुआ ही, आगे उसे पूरा करने के रास्ते भी बंद हो गए.

Best Hindi Story : मुखौटा – उर्मिला की बेटियों का असली चेहरा क्या था ?

Best Hindi Story : आदमी पीछे मुड़ कर भी देखता है. सिर्फ आगे देख कर हम आसमान छू तो लेते हैं मगर भूल जाते हैं कि हमारी जड़ें पीछे की तरफ हैं जिन से हम कटते जा रहे हैं. आज का दिन कुछ ऐसा ही था जब प्रदीप का फोन आया. यह मेरे लिए अकल्पनीय था. प्रदीप और मैं भले ही चचेरे भाईबहन हों, प्रदीप की ऊंची हैसियत के चलते उन के परिवार वालों ने हमारे परिवार को कभी तवज्जुह नहीं दी. एक तरह से हम उन के लिए अछूत थे.

कहते हैं न, कि वक्त सब सिखा देता है. कुछ ऐसा ही प्रदीप के साथ हुआ जिसे न जाने क्या सोच कर उस ने मुझ से साझा करना चाहा. न तब जब हम विपन्न थे न आज जबकि हमारा परिवार आर्थिक दृष्टि से संभल गया है, मैं ने कभी किसी से दुराव नहीं किया. लाख वे हम से कटते रहे मगर हम ने अपने रिश्तों की कशिश बनाए रखी. हो सकता है तब प्रदीप और उन की बहनों में परिपक्वता का अभाव हो. मगर उर्मिला चाची को क्या कहा जाए, वे तो अपने बच्चों को सामाजिकता सिखा सकती थीं. उन्हें सही रास्ता दिखा सकती थीं. मगर नहीं, वे खुद ऐंठ में रहतीं, उन के बच्चे भी. लेदे कर चाचाजी को घरखानदान का एहसास था. सो, कभीकभार समय निकाल कर वे हमारे घर आ जाते. प्रोफैसरी की ठनक तो थी ही.

रविवार का दिन था. घर का कामकाज निबटा कर जैसे ही मैं लेटने जा रही थी कि प्रदीप का फोन आया, ‘‘कैसी हो?’’ आवाज पहचानने में लमहा लगा पर अगले ही पल समझ गई कि कौन है. ‘‘प्रदीप,’’ मेरे मुख से निकला, ‘‘बहुत दिनों बाद फोन किया?’’

‘‘तुम तो फोन कभी करोगी नहीं,’’ प्रदीप का स्वर शिकायताना था.

‘‘समय नहीं मिलता,’’ मैं ने कहा.

‘‘मिलेगा भी क्यों, इतने बड़े स्कूल की टीचर जो हो?’’ प्रदीप के स्वर में व्यंग्य का पुट था. समझने के बाद भी मैं ने हंस कर कहा, ‘‘एक हद तक तुम ठीक कह रहे हो. दूसरे, घरगृहस्थी में इतनी व्यस्तता है कि अपनों के लिए समय निकाल पाना मुश्किल हो जाता है. कभीकभी बड़ी उलझन होती है. जी करता है, सबकुछ छोड़ कर कुछ दिनों के लिए कहीं चली जाऊं, कम से कम घरगृहस्थी की किचकिच से मुक्ति तो मिलेगी.’’

‘‘यहीं चली आओ. हम सब को बहुत अच्छा लगेगा,’’ प्रदीप ने मनुहार की. मुझे अच्छा लगा.

‘‘आज तो तुम्हारे यहां बहुत भीड़ लगी होगी.’’

‘‘भीड़ किस बात की. मोना आई हुई है. बाकी ने राखी डाक से भिजवा दी थीं.’’

‘‘ चाची का क्या हाल है?’’

‘‘अब क्या बताऊं,’’ उस का स्वर भरा हुआ था.

‘‘यहां आया हूं. उन का ब्लडप्रैशर और शुगर दोनों बढ़े हुए हैं.’’

‘‘यहां का क्या मतलब?’’

‘‘रायपुर.’’

‘‘क्या चाची तुम्हारे पास नहीं रहतीं?’’

‘‘अब तुम से क्या छिपाना. पापा के गुजर जाने के बाद उन्हें अपने साथ सतना ले जाना चाहता था. मगर गईं नहीं. कहती हैं कि वहां बंध कर रहना पड़ेगा.’’

‘‘कल को कुछ ऊंचनीच हो गई तो?’’

‘‘हो गई है,’’ उस ने ‘गई’ शब्द पर जोर दिया, आगे कहा, ‘‘ब्लडप्रैशर और शुगर दोनों के बढ़ने का मतलब जान सकती हो कि मेरे दिल पर क्या गुजर रही है.’’

मुझे सुन कर चिंता हुई. उम्र के 70वें साल में वे अकेली एक नौकर के साथ अपने दिवंगत पति यानी मेरे चाचा के बनाए मकान में रह रही थीं. यही नौकर उन की देखभाल करता था. लमहों के लिए मेरा मन अतीत के पन्नों में उलझ गया.

चाचा एक सरकारी स्कूल में प्रोफैसर थे. रुपयोंपैसों की कोई कमी नहीं थी. सब की बेहतर परवरिश हुई. वहीं मेरे पापाका अपना व्यापार था. व्यापार में आए घाटे के चलते एक समय ऐसा भी आया जब हमारा परिवार दानेदाने के लिए मुहताज हो गया. इस के बावजूद न तो हमारे संस्कारों में कोई कमी आई, न ही हमारी पढ़ाईलिखाई में. हम भले ही शहर के नामीगिरामी स्कूल में नहीं पर जहां भी पढ़े, अच्छे से पढ़े. मेरी मां की खासीयत यह थी कि वे कोई बात दिल में छिपाती नहीं थीं. वहीं, चाची में छिपाने की प्रवृत्ति थी. समझ में आया तो चाचा से बताया, नहीं तो छिपा गईं. बच्चों के साथ भी वही करतीं. व्यवहार में पारदर्शिता जैसी कोई बात ही नहीं थी उन में. यही संकीर्णता उन की तीनों बेटियों में भी आ गई. अपवादवश प्रदीप इस से अछूता रहा. मैं अतीत से उबरी.

‘‘तुम्हारे साथ न रहने का कारण?’’

‘‘सलोनी. वे कहती हैं कि वे मेरी बीवी के साथ नहीं रह सकतीं. उसे अपनी कमाई पर बहुत घमंड है.’’

‘‘क्या सचमुच में ऐसा ही है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘अजीब सी बात करती हो,’’ प्रदीप तल्ख स्वर में बोला, ‘‘उस के पास समय ही नहीं बचता. तुम भी टीचर हो, क्या नहीं जानतीं कि एक प्रिंसिपल के ऊपर कितनी जिम्मेदारी होती है. पापा के घर में नौकर देखभाल करता है, तो ठीक है, वहीं, यहां नौकरानी खानानाश्ता तैयार कर के देती है तो वे इसे अपनी तौहीन समझती हैं.’’

‘‘चाची क्या चाहती हैं?’’

‘‘वे चाहती हैं कि सलोनी उन्हें वक्त दे. हमेशा उन की जीहुजूरी करे,’’ उस के स्वर में हताशा थी, ‘‘उन्हें मुझे टौर्चर करने में आनंद आ रहा है.’’

‘‘मां अपने बेटे के साथ ऐसा सुलूक कैसे कर सकती है?’’

‘‘क्यों नहीं कर सकती है. उन्हें लगता है कि मैं अब अपनी बीवी का हो कर रह गया हूं. वहीं उन की तीनों बेटियां, खासतौर से मोना तो साल के 6 महीने मां के पास ही रहती है. वही उन को ज्यादा बरगलाती है.’’

28 वर्ष की थी मोना जब आजिज आ कर चाचा ने उस की शादी एक किराना व्यापारी से कर दी. चाचा को यह शादी कतई पसंद नहीं थी. मगर क्या करते. जहां भी जाते, मोना का सांवला रंग समस्या बन कर सामने आ जाता. मोना ने सुना तो रोंआसी हो गई. यहीं से उस के मन में कुंठा ने जन्म लिया. उसे चाचा और प्रदीप दोनों से खुन्नस थी. उसे अपने पति से घिन्न आती. न ढंग से पहनना आता, न ही बोलना. दिनभर दुकान पर बैठा ग्राहक निबटाता रहता. मोना को अवसर मिलता, सो, दिनभर फोन से चाची को प्रदीप के खिलाफ भड़काती रहती.

‘‘तुम मां को समझाओ.’’

‘‘समझासमझा कर तंग आ चुका हूं.’’

‘‘शादी के बाद बेटियां मायके में दखल न दें, तभी उन की इज्जत बनी रहती है.’’

‘‘यह तुम कह रही हो न, मोना और मेरी मां के समझ में आए, तब न.’’

‘‘मोना को समझना चाहिए कि वह कब तक मां का साथ दे पाएगी. आखिरकार, मां को बेटेबहू के साथ ही जीवन गुजारना है. बेटियों के पास इतनी फुरसत कहां होती है कि वे अपने पतिबच्चों को छोड़ कर मां की सेवा करने आएं.’’

मेरी मां को अपनी मझली बेटी नीता से खासा लगाव था. लगाव का कारण था उस का संपन्न होना. वह जब भी ससुराल से आती, उन की जरूरतों का समान ले कर आती. वापस लौटते समय भी उन के हाथ में रुपया रख देती. वहीं, बनारस में रह कर मैं उन को समय नहीं दे पाती. एक तो मेरी आमदनी कम थी, उस पर बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी. उन्हें हमेशा मुझ से शिकायत रहती. कहतीं, क्या फायदा तुम्हारे बनारस में रहने से? काम तो आखिर नीता ही आती है. मुझे बुरा लगता. यही शिकायत उन्हें अपने इकलौते बेटे सोनू से भी थी जो कम ही उन से संपर्क रख पाता. इस का मतलब यह नहीं था कि उन का हालचाल नहीं लेता. बीमारी हो या कोई अन्य जरूरत, रुपएपैसे उन के खाते में समयसमय पर डालता रहता.

पापा की मृत्यु के बाद सोनू मम्मी से मजाकिया स्वर में बोला, ‘आप का मन नीता के यहां लगता है. चाहे तो वहीं रह सकती हो.’ नीता मां के पास बैठी सुन रही थी. वह मुसकरा दी. मां ने कोईर् जवाब नहीं दिया. इस का मतलब वह अच्छी तरह समझ रही थीं कि बेटीदामाद का साथ दोचार दिन का ही अच्छा होता है. एक दिन की नीता और हर दिन की नीता में फर्क होता है. तब वे कहां जाएंगी? नीता भी इसे अच्छी तरह से समझ रही थी. इसलिए कोई जोर नहीं दिया. न ही मां को अपने बेटेबहू के खिलाफ भड़काया.

अपनी बात कह कर प्रदीप ने फोन काट दिया. मैं सोचने लगी, क्यों नहीं मोना के मन में भी ऐसी समझ आती कि वह बिना वजह उर्मिला चाची की शेष जिंदगी में जहर न घोले. उस के साथ जो हुआ वह उस का समय था. वह अब उर्मिला चाची को क्यों मोहरा बना रही है? उर्मिला चाची से लगी रहने के पीछे मोना का अपना स्वार्थ था. इसी बहाने वह उन से जबतब रुपए ऐंठती. प्रदीप ने ही बताया था कि कैसे मम्मी ने उसे कुछ गहने भी दे रखे थे.

एक दिन अचानक उर्मिला चाची के सीने में दर्द उठा. मोना ने इस की खबर प्रदीप को दी. वह भागते हुए आया. शहर के एक निजी अस्पताल में भरती कराया. जांच में पता चला कि उन के हृदय के तीनों वाल्व जाम हैं. लादफांद कर उन्हें दिल्ली ले जाया गया. वहां उन की बाईपास सर्जरी हुई, तब कहीं जा कर उन की जान बची.

डाक्टर ने उन्हें डिस्चार्ज करने के साथ चेतावनी दी कि इन की नियमित देखभाल की जाए. और बीचबीच में दिखाने के लिए दिल्ली लाया जाए. अब सवाल उठा कि यह जिम्मेदारी कौन लेगा. प्रदीप को मौका मिला, उस ने इसी बहाने मोना को परखा. उर्मिला चाची के सामने ही मोना से पूछा, ‘‘मोना, तुम्हे मां के साथ कम से कम एक साल तक नियमित रहना होगा. उन की समयसमय पर देखभाल करनी होगी. क्या इस के लिए तुम तैयार हो?’’ मोना ने ऐंठ कर जवाब दिया, ‘‘आप क्या करेंगे?’’

‘‘मुझे जो करना था, वह कर दिया. मम्मी को तुम बहनों से ज्यादा लगाव है. इसलिए पूछ रहा हूं. क्या उन की जिम्मेदारी लोगी?’’ मोना जवाब से कन्नी काटने लगी.

उर्मिला चाची समझ गईं कि उन की बेटियों का असली चेहरा क्या है. उन्होंने ही हस्तक्षेप किया, ‘‘चाहे जैसा भी हो, बुरे समय में मेरे बेटेबहू ही काम आए, इसलिए अब मैं उन्हें छोड़ कर कहीं जाने वाली नहीं.’’

मोना का मुंह बन गया. उस के बाद वह जो अपनी ससुराल आईर् तो एक बार फोन कर के भी उर्मिला चाची का हाल नहीं पूछा.

Love Story : भेलपुरी और सैंडविच – प्यार का सुखद अहसास रोमांस

Love Story : मैं उबले आलू की भरावन तैयार करते हुए सामने वाली कंपनी के गेट को भी देखे जा रहा था, दोनों अभी तक आए नहीं. मैं ने मन में उन दोनों का नाम भेलपुरी और सैंडविच रख लिया है. आज औफिस आए भी हैं या नहीं, 10 तो बज रहे हैं. इतने में दोनों आते दिख ही गए, मेरे हाथ जल्दीजल्दी चलने लगे, अभी लड़की आते ही कहेगी, “भैया, जरा जल्दी से एक कप चाय और एक सैंडविच दे दो.”

वही हुआ भी. लड़की ने आते ही कहा, “भैया, जरा जल्दी से एक कप चाय और एक सैंडविच दे दो.”

मैं ने मुसकराते हुए बस सिर हिला दिया, ‘कैसे कहूं, मैं उन के लिए चाय का पानी चढ़ा चुका हूं. और सैंडविच बनाने की तैयारी भी कर चुका हूं.’

मैं ने 2 ब्रेड स्लाइस के बीच में आलू की भरावन रखी, पतले गोल प्याज के टुकड़े रखे, एक टमाटर का गोल कटा टुकड़ा रख कर उस पर चाट मसाला छिड़का, ब्रेड के दोनों तरफ खूब मक्खन लगा कर जलते स्टोव पर सैंडविचर में रख कर उलटपुलट कर सेंकने लगा. 3-4 मिनट में ही सैंडविच अच्छी तरह से सिंक गया, फिर मक्खन लगाया, एक पेपर प्लेट में रख कर उस के 4 टुकड़े किए, एक कप में चाय छानी और उन्हें दे दी.

लड़की इस समय बस चाय पीती है, लड़का सैंडविच खाता है. दोनों एक साल से मेरे ठेले पर आते हैं, सामने की कंपनी में ही साथ काम करते हैं. रोज दिखने वाले चेहरे इतने परिचित हो जाते हैं कि कोई रिश्ता न होते हुए भी सब एकदूसरे को जानते चले जाते हैं.

मुझे तो इन दोनों की इतनी आदत हो गई है कि चाहे ठेले पर कितनी भी भीड़ हो जाए, मुझे इन का इंतजार रहता है. इन के साथ के बाकी लोग आतेजाते रहते हैं, कभी आते हैं, कभी नहीं.

यह लड़की घर से नाश्ता कर के आती है, लड़का शायद अकेला रहता है, यहीं नाश्ता करता है. दोनों शाम को एक बार फिर 6 बजे आते हैं. लड़की उस समय भेलपूरी खाती है. दोनों की बातों से मुझे इतना अंदाजा लग चुका है कि लड़का दिल्ली से आया हुआ है और लड़की यहीं की है, फोन पर घर वालों से मराठी बोलती है. मैं भी मराठी समझने लगा हूं. लड़के को मराठी नहीं आती.

“आज तुम क्या नाश्ता कर के आई?” लड़का पूछ रहा था.

“वही, पोहा. हर दूसरे दिन पोहा बनता है घर में, बाबा तो रोज खा सकते हैं.”

“अरे, मुझे तो पोहा बहुत पसंद है. तुम कितनी लकी हो, सब कियाकराया मिल जाता है. यहां तो न बनाना आता है, न टाइम है. तुम्हें पता है, अनिल ने कल रात मुझे फोन किया था, उस क्लाइंट ने मेरा जीना हराम कर रखा है, यार. यह अनिल मैरिड है, इस की कोई फैमिली लाइफ है या नहीं. इस की वाइफ इसे कुछ कहती नहीं क्या? यह मेरे साथ रात 11 बजे तक फोन पर था.”

मैं और लोगों के लिए चाय और सैंडविच बनाता जा रहा था, पर मेरे कान हमेशा की तरह इन दोनों की बातों पर थे. ये मेरे थोड़ा पास ही साइड में खड़े होते हैं.

यह सुनते ही लड़की हंसी, “अब जब तक यह डील फाइनल नहीं करवा लेगा, तुम ही हो इस की वाइफ. यार, ये जितने भी सीनियर हैं, इन के चेहरे देखे हैं, आजकल उड़े ही रहते हैं. काम ही नहीं खत्म हो रहा है.”

“तुम लड़कियों के साथ कम से कम हंसता तो है अनिल. हमें देख कर तो जम्हाइयां लेता है.”

दोनों इस बात पर खूब हंसे और फिर मुझे रोज की तरह पैसे दे कर चले गए. अब ये शाम को आएंगे. शाम को मेरी बनाई भेलपुरी खाने के लिए औफिस से निकलते हुए कई लोग आते हैं, जो घर जाते हुए यहां खड़े हो कर गप्पें मारते हुए दिनभर की भड़ास निकालते हैं. कोईकोई तो भेलपुरी पैक करवा कर घर भी ले जाता है.

मुझे इन दोनों को साथ देखना अच्छा लगता है, इन की बातें सुनना और भी अच्छा लगता है. ज्यादा पढ़ालिखा तो हूं नहीं, वरना गांव से यहां आ कर यह ठेला क्यों लगाता. 2 बजे तक ही मैं यहां खड़ा होता हूं, उस के बाद कोई आता नहीं. शाम को मैं सैंडविच और चाय के साथ भेलपुरी भी रखता हूं.

इस जगह खड़े होने से फायदा होता है, सामने औफिस ही औफिस हैं, यह एक छोटी सी सड़क है, इस के आगे एक मौल है, मौल के अंदर जाने वाले वहां के महंगे खाने से बचने के लिए कई बार यहीं कुछ खा कर आगे बढ़ते हैं. इस सड़क पर बस एक मैं हूं और थोड़ी दूर पर एक डोसे वाला. वह दीपक भी मेरे ही गांव का है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर से 20 किलोमीटर दूर गांव है हमारा, मरियाहू. यहां हम ने एक कमरा किराए पर लिया है, जहां हम 4 लोग रहते हैं. साल में 2 बार हम गांव जाते हैं.

गांव में मेरी पत्नी है रमा, जो मेरी अम्मांबाबू के साथ रहती है. अब उस के 5 महीने का पेट है, बच्चा होने के टाइम मैं जाऊंगा. हम ठीकठाक गुजारे लायक कमा लेते हैं. यहां मुंबई में कई लोग ऐसे हैं, जिन का पेट हमारे जैसे खानों से ही भरता है. कुछ को सस्ता लगता है, कुछ टाइमपास में खाते हैं, कुछ जवान बच्चों को घर का खाना नहीं पसंद. शाम को लड़केलड़कियां खूब आते हैं. जवान लड़के तो दरियादिली से लड़की से ऐसे पूछते हैं कि बोलो, क्या खाओगी, अरे, और खाओ न. इतना कम क्यों? पहले ही इतनी शेप में हो.

थोड़ी बहुत अंगरेजी मैं भी समझने लगा हूं. शादीशुदा आते हैं, आदमी हमेशा ही जल्दी में रहता है, आते ही कहता है, जरा जल्दी देना. उन्हें साथ टाइम बिताने की तो कोई जल्दी होती नहीं है. उन के पास घर है ही. वहीं उस की पत्नी इतने शौक से खा रही होती है, लगता है, आज कुछ बनाने से इस की जान छूटी.

सारे ग्राहक एक तरफ, इन दोनों से मुझे खास लगाव हो गया है. अब शाम हो गई है, मैं फिर सामने देख रहा हूं, अब दोनों आने ही वाले हैं. दोनों आ रहे हैं. लड़की अभी आ कर कहेगी, “भैया, जरा तीखी भेल बना देना.” लड़का फिर कहेगा, “मेरे लिए मीडियम.”

लड़की ने पास आते हुए कहा, “भैया, जरा तीखी भेल बना देना.” लड़का बोला, “मेरे लिए मीडियम.”

यह सुन मैं मन ही मन मुसकराता हुआ दोनों के लिए भेलपूरी बनाने लगा. तैयारी तो सब कर के ही लाता हूं, छोटाछोटा प्याज, हरी मिर्च, धनिया घर से ही काट कर ले आता हूं, खट्टीमीठी चटनी तो बना कर रख लेता हूं. बस सब यहां मिलाना ही होता है. गांव जाता हूं, तो कई बार घर में सब को बना कर भी खिला देता हूं.

रमा को आजकल तीखा बहुत भाता है. उस के दिन ही ऐसे हैं. कमाने के चक्कर में दूर पड़ा हुआ हूं सब से, फिर सोचता हूं, जो भी ठेले पर खाने आते हैं, उन में से काफी लोग घर से दूर ही तो हैं. यह लड़का भी तो अकेला ही रहता है.

आज दोनों का मूड खराब लग रहा है, शायद झगड़ा हुआ हो. पर झगड़ा होता तो साथ क्यों आते. दोनों बात ही नहीं कर रहे, मैं ने उन दोनों को उन की भेलपुरी दी, दोनों ने चुपचाप पकड़ ली. लड़के ने लड़की को इतना तीखा खाने पर छेड़ा भी नहीं. बस थोड़ी देर बाद उस ने धीरे से पूछ लिया, “मतलब, तुम्हारी फैमिली मना करेगी तो हमारी शादी नहीं होगी?”

“अरशद, कैसे होगी, बताओ? आईबाबा बिलकुल तैयार नहीं.”

“मैं एक बार मिल लूं?”

“नहीं, तुम्हारी इंसल्ट कर देंगे, तो मुझे बहुत दुख होगा.”

“तुम ने पहले क्यों नहीं यह सब सोचा, नेहा?”

“प्यार सोचसमझ कर होता है क्या?”

यह सुन लड़के का मुंह लटक गया था. दोनों मेरे पीछे ही एक तरफ हट कर बात कर रहे थे. मेरे हाथों की स्पीड कम हो गई. कान पीछे ही लगे थे. इतना सुंदर जोड़ा… इतने बड़े शहर में पढ़ेलिखों में भी यह सब आज भी चलता जा रहा है, फिर हम गांव के लोगों की तो बात ही क्या सोचूं…

दोनों पैसे दे कर उखड़े से वापस चले गए. लड़का बाइक पर शायद लड़की को उस के घर के पास छोड़ता होगा. अगला पूरा हफ्ता दोनों साथ नहीं आए. मेरा दिल तो उन्हीं में रमा था, वे दोनों मेरे जीवन का ऐसा हिस्सा हो चुके थे कि मुझे पता ही नहीं चला था. आतेजाते दोनों अलगअलग दिखते, बिलकुल उदास, उतरे चेहरे.

धीरेधीरे एक महीना बीत गया. मुझे घर जा कर भी उन दोनों के बारे में सोच कर दुख होता रहा. क्या जाति, धर्म की बातें हमेशा ऐसे ही जवां दिलों के प्यार भरे दिलों को तोड़ती रहेगी. इतने पढ़ेलिखे बच्चों की बात इन के मातापिता के लिए माने नहीं रखती? इस लड़की के घर वालों को इस के चेहरे की उदासी नहीं दिखती? अरशद नाम है तो क्या हुआ, कितना प्यार करता है इस लड़की को. यह लड़की अरशद के साथ कितनी खुश रहती थी. इस की शादी इस के घर वाले किसी और के साथ कर देंगे, तो क्या इसे अरशद की याद नहीं आया करेगी?

दोनों मेरे दिलोदिमाग पर हावी रहने लगे, मैं हर समय उन दोनों को साथ देखने का इंतजार करता रहा. कितने ग्राहक आते, चले जाते. पर ऐसा लगाव मुझे किसी से न हुआ था.

मैं ने रमा को फोन पर उन की कहानी सुनाई. उस ने इतना ही कहा, “यह तो लड़कियों के साथ होता ही रहता है. यह कौन सी बड़ी बात है.”

रमा समझदार है, कम शब्दों में बहुतकुछ कह जाती है. मैं ने उसे छेड़ा, “तुम्हारे साथ तो यह नहीं हुआ न…?”

अब की बार रमा हंस दी, “नहीं, किसी और को पसंद करने का कभी मौका ही नहीं मिला. अब तो तुम ही सबकुछ हो,” उस की आवाज भर्रा गई, जानता हूं, वह मुझे बहुत प्यार करती है.

दिन गुजरते गए. बीचबीच में तो कभी अरशद और लड़की दिख भी जाते थे, अब तो कई दिन से नहीं दिखे थे. अब आतेजाते लोगों की भीड़ में कहीं गुम से हो जाते होंगे.

अचानक सुबह एक बाइक जब ठेले के सामने आ कर रुकी, मेरे हाथ रुक गए, मैं मुंहबाए उन्हें देखता रहा. लड़की नई दुलहन जैसी दमक रही थी, हाथों में मेहंदी लगी थी, आज जींसटौप नहीं, एक सुंदर सी साड़ी में थी. अरशद का चेहरा चमक रहा था. दोनों ने पास आ कर कहा, “दो चाय, दो सैंडविच देना भैया.”

मैं हंस दिया, पूछ ही लिया, “भैयाजी, बहुत दिनों बाद आए हो?”

“हां, हम ने शादी कर ली.”

“बधाई हो.”

दोनों ने हंसते हुए ‘थैंक यू’ कहा.

इतने में उन के एक साथी ने आ कर पूछा, “नेहा के घर वाले आराम से तैयार हो गए?”

नेहा हंसी, “अभी नाराज हैं. टाइम लगेगा. उन के तैयार होने में अपना टाइम खराब नहीं कर सकते थे. इतना पढ़लिख कर भी अगर धर्मजाति के चक्कर में पड़ कर एकदूसरे को खो दिया, तो हमारे समझदार होने पर लानत है.”

‘शाबाश नेहा,’ मैं ने मन ही मन कहा. और साथी आते गए, उन्हें बधाई दे कर पार्टी मांगते रहे. हंसीमजाक चलता रहा.

अरशद मुझे पैसे देने लगा, तो मैं ने कहा, “नहीं भैयाजी, आज नहीं. आज मेरी तरफ से,” कह कर वह हंस दिया. मेरे कंधे पर हाथ रख आ कर ‘ओके, दोस्त. थैंक यू…’ कह कर नेहा का हाथ पकड़ कर सामने अपने औफिस चला गया.

मैं उन्हें देखता रहा, मुसकराता रहा. पता नहीं क्यों, आज मैं बहुत खुश था.

Romantic Story : एक प्रेम कहानी का अंत – क्यों हुआ इस लव स्टोरी का खात्मा

Romantic Story : डा. सान्याल के नर्सिंग होम के आईसीयू में बिस्तर पर सिरहाना ऊंचा किए अधखुली आंखों में रुकी हुई आंसू की बड़ी सी बूंद. आज बेसुध है प्रियंवदा. गंभीर संकट में है जीवन उस का. जिसे भी पता चल रहा है वह भागा चला आ रहा है उसे देखने. आसपास कितने लोग जुट आए हैं, जो एकएक कर उसे देखने आईसीयू के अंदर आजा रहे हैं, पर वह किसी को नहीं देख रही, कुछ भी नहीं बोल रही. कभी किसी की निंदा तो कभी किसी की प्रशंसा में पंचमुख होने वाली, कभी मौन न बैठने वाली, लड़तीझगड़ती व हंसतीखिलखिलाती प्रियम आज बड़े कष्ट से सांस ले पा रही है. बाहर शेखर दौड़ रहे हैं, सुंदर, सुदर्शन पति, बूढ़े होने पर भी न सजधज में कमी न सौंदर्य में. और आज तो कुछ अधिक ही सुंदर लग रहे हैं. इतनी परेशान स्थिति में भी. मां कहती थीं कि ऐसे समय में यदि सुंदरता चढ़ती है तो सुहाग ले कर ही उतरती है. तो क्या प्रियम बचेगी नहीं? संजना के मन में धक से हुआ और ठक से वह दिन याद हो आया जब प्रियंवदा और शेखर का विवाह हुआ था आज से ठीक 10 वर्ष, 2 माह और 4 दिन पूर्व. पर उन की प्रेम कहानी तो इस से भी कई वर्ष पुरानी है.

पहली बार वे दोनों किसी इंटरव्यू के दौरान मिले. संयोग से उसी औफिस में दोनों की नियुक्ति हुई, साथसाथ ट्रेनिंग भी हुई और पोस्ंिटग भी एक ही विंग में हो गई. फिर क्या, वे एकसाथ लंच करते. जहां जाते, साथ ही जाते. प्रियम तो शेखर को देखते ही रीझ गई. उस गौरवर्ण, सुंदर नैननक्श और गुलाब से खिले व्यक्तित्व के स्वामी को उसी क्षण उस ने अपना बनाने की ठान ली. ‘कहां वह और कहां तू? उस पर से वह दूसरी जातिधर्म का है, उसे कैसे अपने वश में कर लेगी,’ अपनी सखियों के ऐसे प्रश्नों पर प्रियम कहती, ‘अरे, कोशिश करने में क्या जाता है.’

वे दोनों एक ऐसे बेमेल जोड़े के रूप में जाने जाते जिस में कहीं कोई समानता नहीं. लड़का अत्यंत सुंदर और आकर्षक जबकि लड़की सामान्य रंगरूप के लिए भी मुहताज. लड़का सुरुचिसंपन्न और शौकीन स्वभाव का, लड़की लटरसटर बनी रहती, मेकअप करती तो भी शेखर के पार्श्व में बदसूरत ही दिखती. प्रियम का सांवला, रूखा चेहरा, बड़ीबड़ी आंखों के सर्द भाव, खुले अधरों से बाहर झांकते हुए ऊंचे दांत देख लोग उन की उपमा कौए और हंस से दिया करते. राह चलते उस पर छींटाकशी होती, गीत गाए जाते. प्रियम के ऊपर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. ‘मैया मैं तो चंद्र खिलौना लेहौं’ जैसा उस का हठ देख सब मुंह फेर कर हंसते. सोचते कि इतने अच्छे घर का शेखर, जो नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देता, प्रियम को कैसे अपनी जीवनसंगिनी बनाएगा? पर असंभव कुछ नहीं है. कहते ही हैं : ‘रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान.’

निरंतर शेखर के आगेपीछे घूमती प्रियम ने शेखर पर अपना अधिकार जताते हुए उस की दीवानियों को लड़लड़ कर पीछे ठेल दिया. वह कभी उस के लिए चिकन तो कभी बिरयानी बना कर लाती. उसे रंगबिरंगी शर्ट्स या बहुमूल्य परफ्यूम्स इत्यादि गिफ्ट्स दिया करती. तो कभी उस के अत्यंत समीप आ बैठती. वह उसे वश में करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती. प्रियम का ऊंचा मनोबल, अपने प्यार पर दृढ़ विश्वास और शेखर के पीछे सतत पड़े रहना रंग लाया. धीरेधीरे उन में प्रगाढ़ता बढ़ती गई. जीवन के रंगों व उमंगों से भरे गोपन रहस्य परत दर परत खुलने लगे तो ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की पृष्ठभूमि वाले शेखर की सारी सुप्त कामनाएं जाग उठीं. एक दिन लोगों ने घोर आश्चर्य से शेखर को अपने सात्विक घर के सारे नियमसंयम को धता बताते हुए प्रियम के आगेपीछे घूमते हुए, लट्टू सा नाचते हुए देखा. फिर तो लोग उन की बातें करने लगे, दूरदूर तक उन के चर्चे होने लगे.

शेखर भरपूर प्यार तो करता प्रियम से, पर उसे मारता भी खूब अच्छी तरह. अचरज तो इस बात पर होता कि विवाह होने से पहले भी शेखर ने उस पर कई बार हाथ उठाया, उस पर चिल्लाया भी. फिर भी प्रियम अपने निश्चय से डिगी नहीं. यह सब देख कर उस की परमप्रिय सखी संजना ने कहा भी, ‘अपने पापा के बताए लड़के से विवाह कर ले, खुश रहेगी,’ पर प्रियम को या तो शेखर की मार भी अच्छी लगती रही होगी या वह अपने दिल के हाथों इतनी विवश थी कि संजना की बात मानने के बजाय वह उस से ही रूठ गई.

शेखर की मां ने बड़ेबड़े सपने संजोए थे कि वह अपने राजा बेटे के लिए परियों की राजकुमारी लाएगी. अपने गुड्डे के लिए प्यारी सी गुडि़या लाएगी. पिता तो जबतब अपने कुलदीपक के विवाह में होने वाले मानसम्मान की परिकल्पनाएं कर और मिलने वाले साजसामान की गणना कर मन ही मन पुलकित हुआ करते. पर उन लोगों के सारे सपने धूलधूसरित हो गए. एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे थे शेखर के लिए. पर उसे प्रियंवदा इतनी अधिक पसंद आ गई थी कि वह किसी और से विवाह करने हेतु किसी भी दशा में तैयार न था. मांपिता ने हर तरह से शेखर को समझाने की चेष्टा की, पर उस ने इतना बवंडर मचाया कि उन्हें कलेजे पर पत्थर रख कर आखिरकार झुकना ही पड़ा.

शेखर ने मांपिता, कुल परंपरा, रिश्तेनाते किसी की चिंतापरवा किए बिना आगे बढ़ कर प्रियम का हाथ थाम लिया. प्रियम वधू बन कर पिया के घर आ गई. ऐसी बेमेल जोड़ी को जो देखता, उसे धक्का लगता. यदि मांपिता ने ऐसी लड़की ढूंढ़ी होती तो लोग यही कहते कि दहेज के लालच में लड़के को बलि चढ़ा दिया, पर जब लड़का ही इसे स्वयं पसंद कर के लाया है तो इस पर क्या कहे कोई? प्रेम अंधा होता है और दिल को जो भाए वही सुंदर. कहते हैं न, ‘ब्यूटी लाइज इन द आईज औफ बिहोल्डर.’ रूपगुण से शून्य प्रियंवदा की वाणी भी कर्कश थी. फिर भी उस का इतना दबदबा था कि कोई भी व्यक्ति उस का तिरस्कार या अवहेलना नहीं कर सकता, उस से ऊंचा भी नहीं बोल सकता. शेखर के सामने तो क्या, उस के पीठ पीछे भी नहीं.

शेखर के सीधेसरल मांपिता अधिक दिन नहीं जिए. इस आघात को मन में छिपाए, सिर झुकाए वे संसार से प्रस्थान कर गए. अपने घर का दुलारा शेखर व्यवहार में बड़ा सौम्य, शांत और सज्जन प्रतीत होता था. पर था वह प्रारंभ से ही उच्छृंखल और क्रोधी स्वभाव का. आत्ममुग्ध मनोवृत्ति थी उस की. घंटों दर्पण के सामने खड़ा रहता वह. ड्रैसिंग टेबल पुरुषों के सौंदर्यप्रसाधनों से लदी रहती. प्रियम का तो दर्पण देखने का कभी मन ही नहीं करता. अपने किंचित केश भी यों ही समेट कर रबरबैंड लगा लिया करती. दर्पण में झांक कर वह कभीकभार अपनी बिंदी या लिपस्टिक ठीक कर लेती, बस इतना ही. धीरेधीरे दिन बीतते गए. वक्त के साथसाथ उन की भी स्थितियांपरिस्थितियां बदलती गईं. आपसी अंतर्विरोध उभरने लगे. एकदूसरे को पाने हेतु जो भी त्यागा था वह उन के मन की अधूरी अचेतन गुफा से बाहर निकल आया. तूफानी प्रेमविवाह था उन का. जो चाहा था वह पा लिया था, पर इस पाने पर प्रसन्न होने के बजाय अब वे यह दंभ जताते हुए झगड़ने लगे थे, ‘उन्हें किसी अच्छे की कमी थोड़े न थी.’

प्रेम ओझल हो चुका था, रिश्ते बोझ बन गए थे.  प्रियम को पता ही नहीं चला, कब शेखर को कोई और भा गई. जिस पति को इतनी कठिनता से पाया, इतना सहेजसंभाल कर रखा, उसे कोई और आकृष्ट कर ले, उस के स्वत्वसुख में सेंध लगा दे, इस का भयानक दुख था उसे. ऊपर से मुसकान ओढ़े भीतरभीतर वह असह्य यंत्रणा से गुजर रही थी. किसी काम में मन नहीं लगता उस का. प्रतिपल मन में आंधियां, भांतिभांति की अनर्गल बातें चलती रहतीं. पति में आए परिवर्तन को देखदेख रोया करती. अब उन्हें सजते देख कर मुग्ध होने के बजाय जलभुन कर राख हो जाती. कभी उस के लिए दुनिया में उथलपुथल मचा दी थी शेखर ने, किसी सपने जैसा लगता वह कालखंड उसे. अब प्रेम सूख गया था, कीचड़ बचा था, जिस में दोनों मेढ़क की तरह हरदम टर्राया करते ऊंचे कर्कश स्वर में :

‘शेखर, तुम सुनते क्यों नहीं? मेरी बात का कोई असर क्यों नहीं होता?’

‘तुम्हारे पास एक ही राग है, जब देखो वही बजाया करती हो.’

‘तो सुधर जाओ न, क्यों करते हो ये सब.’

‘तुम सुधर जाओ वरना एक दिन बहुत पछताओगी,’ शेखर तमतमा जाते, क्रोध से पांव पटकते और फिर जो व्यंग्य बुझे तीर चलते और भयानक गृह युद्ध आरंभ होता वह समाप्त होने को न आता.

अब थकीहारी, टूटी प्रियम ने यही मान लिया कि निश्चय ही उस कलमुंही ने शेखर पर कोई वशीकरण किया होगा. वे इसे सब को बताती फिरतीं, सरेआम किसी को कोसा करतीं. पता नहीं कितनी सच थीं उन की बातें. कुछ कण बोए हुए और पालेपोसे हुए भी थे जिन से उबर पाना अब उन के वश में न रहा. संबंधों की चादर में इतने छेद हो चुके थे कि पैबंद लगाने का स्थान भी शेष न था. एक दिन जब वह संजना के पास आई थी, बड़ी परेशान सी थी. आते ही बिना किसी भूमिका के वह कंपित स्वर में बोली:

‘तू ठीक कहती थी संजू. तेरी बात मान लेती तो आज मेरा यह हाल न होता.’

‘हां रे, पर तब तो तेरे ऊपर प्रेम का भूत सवार था.’

‘मति मारी गई थी मेरी और क्या? अब तो लगता है कि कोई किसी से प्यार न करे, प्यार करे भी तो उस से विवाह न करे.’

संजना अचरज से प्रियम को देखती रह गई थी. शेखर से विवाह करने के लिए जब मना किया था, रोका था तो उस से रूठ गई थी प्रियम. इतने वर्षों बाद आज वह अपना हितअनहित जान रही है, पर अब तो बड़ी देर हो गई. जीवन में पीछे नहीं लौटा जा सकता. प्रियम की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहे जा रही है. देह पर कीमती परिधान और आभूषण धारण किए, अकूत चलअचल संपत्ति की स्वामिनी होने पर भी प्रियम को आज कुछ भी अपना नहीं लग रहा है. अपनी ही रची विपत्ति के तूफान के भीतर से गुजरती हुई छटपटा रही प्रियम डरी हुई है. बारबार वह एक ही बात दोहरा रही है :

‘मुझे मार डालेंगे वे, तुम देख लेना एक दिन.’

‘ऐसा क्यों कह रही हो? शेखर तो कितना प्यार करते हैं तुम्हें. सारे बंधन तोड़ दिए तुम्हारे लिए. याद है जब तुम एक दिन औफिस नहीं आई थीं, तब क्या किया था उन्होंने…’

बात बीच में रोकते हुए प्रियम ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘वह कोई और ही शेखर थे संजू. अब तो बहुत तकलीफ देते हैं वे. मुझे देखना भी नहीं चाहते वे.’

उसे दुख हो रहा था कि जीवन जिस रूप में आया उसे सुंदर न बना सकी, हाथ में आए चांद को रोक नहीं पा रही. अपनी असमर्थता का बोझ उस ने सदा की भांति दूसरों के कंधों पर रख देना चाहा. कहने लगी, ‘संजू, तुम समझाओ न शेखर को. हो सकता है तुम्हारी बात मान जाए.’

‘ना बाबा ना, ऐसा मैं कैसे कर सकती हूं? एक बार तुम्हें समझाया तो था, उस दिन के बाद आज मिली हो और वैसे भी पतिपत्नी के मध्य तो कभी बोलना भी नहीं चाहिए,’ कान पकड़ते हुए संजना ने कहा. यह भी कहा, ‘तुम स्वयं इन बातों का समाधान तलाशो. बीती कड़वी बातें भुला कर नवजीवन आरंभ करो.’

तब ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ प्रियम को विदा करते समय संजना ने यह कहां सोचा था कि प्रियम को इस रूप में देखेगी वह. सांझ अपनी किरणें समेट रही थी. प्रियम भी अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी, लगा जैसे सांसें अभी थम जाएंगी. और एक झटके से प्रियम की सांसों की डोर टूट गई. संजना विह्वल हो कर रो पड़ी, पर जैसे ही उस ने अश्रुपूरित दृष्टि से शेखर की ओर देखा, उस की रुलाई कंठ में ही अटक गई. चिरवियोग की इस कठिन घड़ी में शेखर के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, दुख की मद्धम सी भी छाया नहीं. एकबारगी तो ऐसा लगा जैसे उस ने छुटकारा पा कर चैन की सांस ली हो. धिक्कार है, कुत्ताबिल्ली भी पालो तो उस का बिछोह सहन नहीं होता और यहां इतने बरसों का साथ छूटने का कोई गम नहीं. यदि प्रियम ने न बताया होता तो वह उस की ऐसी दशा को सामान्य ही समझती. पर अब उसे सब गड़बड़ लग रहा है. डाक्टर भी यही कह रहे थे, यह सामान्य मृत्यु नहीं थी. तो क्या थी? राह से हटाने का कुचक्र? पर ऐसे चालाक लोगों का झूठ तो मशीन भी नहीं पकड़ पाती है और सच बोलने वाले झूठे सिद्ध हो जाते हैं.

शायद ही कभी कोई जान पाए कि प्रियम के साथ क्या घटा था. जो हुआ अच्छा तो नहीं हुआ, पर कोई कर भी क्या सकता है. संजना का हृदय भर आया. कितना क्षणभंगुर है यह जीवन. कुछ भी स्थायी नहीं यहां. फिर भी न जाने किस बात का मानअभिमान करते हैं हम? आज प्रियम नहीं रही और उसी शेखर की आंखों में आंसू की एक बूंद तक नहीं.

Family Story : रीवा की लीना – कैसी थी रीवा और लीना की दोस्ती

Family Story : डलास (टैक्सास) में लीना से रीवा की दोस्ती बड़ी अजीबोगरीब ढंग से हुई थी. मार्च महीने के शुरुआती दिन थे. ठंड की वापसी हो रही थी. प्रकृति ने इंद्रधनुषी फूलों की चुनरी ओढ़ ली थी. घर से थोड़ी दूर पर झील के किनारे बने लोहे की बैंच पर बैठ कर धूप तापने के साथ चारों ओर प्रकृति की फैली हुई अनुपम सुंदरता को रीवा अपलक निहारा करती थी. उस दिन धूप खिली हुई थी और उस का आनंद लेने को झील के किनारे के लिए दोपहर में ही निकल गई.

सड़क किनारे ही एक दक्षिण अफ्रीकी जोड़े को खुलेआम कसे आलिंगन में बंधे प्रेमालाप करते देख कर वह शरमाती, सकुचाती चौराहे की ओर तेजी से आगे बढ़ कर सड़क पार करने लगी थी कि न जाने कहां से आ कर दो बांहों ने उसे पीछे की ओर खींच लिया था.

तेजी से एक गाड़ी उस के पास से निकल गई. तब जा कर उसे एहसास हुआ कि सड़क पार करने की जल्दबाजी में नियमानुसार वह चारों दिशाओं की ओर देखना ही भूल गई थी. डर से आंखें ही मुंद गई थीं. आंखें खोलीं तो उस ने स्वयं को परी सी सुंदर, गोरीचिट्टी, कोमल सी महिला की बांहों में पाया, जो बड़े प्यार से उस के कंधों को थपथपा रही थी. अगर समय पर उस महिला ने उसे पीछे नहीं खींचा होता तो रक्त में डूबा उस का शरीर सड़क पर क्षतविक्षत हो कर पड़ा होता.

सोच कर ही वह कांप उठी और भावावेश में आ कर अपनी ही हमउम्र उस महिला से चिपक गई. अपनी दुबलीपतली बांहों में ही रीवा को लिए सड़क के किनारे बने बैंच पर ले जा कर उसे बैठाते हुए उस की कलाइयों को सहलाती रही.

‘‘ओके?’’ रीवा से उस ने बड़ी बेसब्री से पूछा तो उस ने अपने आंचल में अपना चेहरा छिपा लिया और रो पड़ी. मन का सारा डर आंसुओं में बह गया तो रीवा इंग्लिश में न जाने कितनी देर तक धन्यवाद देती रही लेकिन प्रत्युत्तर में वह मुसकराती ही रही. अपनी ओर इशारा करते हुए उस ने अपना परिचय दिया. ‘लीना, मैक्सिको.’ फिर अपने सिर को हिलाते हुए राज को बताया, ‘इंग्लिश नो’, अपनी 2 उंगलियों को उठा कर उस ने रीवा को कुछ बताने की कोशिश की, जिस का मतलब रीवा ने यही निकाला कि शायद वह 2 साल पहले ही मैक्सिको से टैक्सास आई थी. जो भी हो, इतने छोटे पल में ही रीवा लीना की हो गई थी.

लीना भी शायद बहुत खुश थी. अपनी भाषा में इशारों के साथ लगातार कुछ न कुछ बोले जा रही थी. कभी उसे अपनी दुबलीपतली बांहों में बांधती, तो कभी उस के उड़ते बालों को ठीक करती. उस शब्दहीन लाड़दुलार में रीवा को बड़ा ही आनंद आ रहा था. भाषा के अलग होने के बावजूद उन के हृदय प्यार की अनजानी सी डोर से बंध रहे थे. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद रीवा के पैरों में चलने की शक्ति ही कहां थी, वह तो लीना के पैरों से ही चल रही थी.

कुछ दूर चलने के बाद लीना ने एक घर की ओर उंगली से इंगित करते हुए कहा, हाउस और रीवा का हाथ पकड़ कर उस घर की ओर बढ़ गई. फिर तो रीवा न कोई प्रतिरोध कर सकी और न कोई प्रतिवाद. उस के साथ चल पड़ी. अपने घर ले जा कर लीना ने स्नैक्स के साथ कौफी पिलाई और बड़ी देर तक खुश हो कर अपनी भाषा में कुछकुछ बताती रही.

मंत्रमुग्ध हुई रीवा भी उस की बातों को ऐसे सुन रही थी मानो वह कुछ समझ रही हो. बड़े प्यार से अपनी बेटियों, दामादों एवं 3 नातिनों की तसवीरें अश्रुपूरित नेत्रों से उसे दिखाती भी जा रही थी और धाराप्रवाह बोलती भी जा रही थी. बीचबीच में एकाध शब्द इंग्लिश के होते थे जो अनजान भाषा की अंधेरी गलियारों में बिजली की तरह चमक कर राज को धैर्य बंधा जाते थे.

बच्चों को याद कर लीना के तनमन से अपार खुशियों के सागर छलक रहे थे. कैसा अजीब इत्तफाक था कि एकदूसरे की भाषा से अनजान, कहीं 2 सुदूर देश की महिलाओं की एक सी कहानी थी, एकसमान दर्द थे तो ममता ए दास्तान भी एक सी थी. बस, अंतर इतना था कि वे अपनी बेटियों के देश में रहती थी और जब चाहा मिल लेती थी या बेटियां भी अपने परिवार के साथ हमेशा आतीजाती रहती थीं.

रीवा ने भी अमेरिका में रह रही अपनी तीनों बेटियों, दामादों एवं अपनी 2 नातिनों के बारे में इशारों से ही बताया तो वह खुशी के प्रवाह में बह कर उस के गले ही लग गई. लीना ने अपने पति से रीवा को मिलवाया. रीवा को ऐसा लगा कि लीना अपने पति से अब तक की सारी बातें कह चुकी थी. सुखदुख की सरिता में डूबतेउतरते कितना वक्त पलक झपकते ही बीत गया. इशारों में ही रीवा ने घर जाने की इच्छा जताई तो वह उसे साथ लिए निकल गई.

झील का चक्कर लगाते हुए लीना रीवा को उस के घर तक छोड़ आई. बेटी से इस घटना की चर्चा नहीं करने के लिए रास्ते में ही रीवा लीना को समझा चुकी थी. रीवा की बेटी स्मिता भी लीना से मिल कर बहुत खुश हुई. जहां पर हर उम्र को नाम से ही संबोधित किया जाता है वहीं पर लीना पलभर में स्मिता की आंटी बन गई. लीना भी इस नए रिश्ते से अभिभूत हो उठी.

समय के साथ रीवा और लीना की दोस्ती से झील ही नहीं, डलास का चप्पाचप्पा भर उठा. एकदूसरे का हाथ थामे इंग्लिश के एकआध शब्दों के सहारे वे दोनों दुनियाजहान की बातें घंटों किया करते थे.

घर में जो भी व्यंजन रीवा बनाती, लीना के लिए ले जाना नहीं भूलती. लीना भी उस के लिए ड्राईफू्रट लाना कभी नहीं भूली. दोनों हाथ में हाथ डाले झील की मछलियों एवं कछुओं को निहारा करती थीं. लीना उन्हें हमेशा ब्रैड के टुकड़े खिलाया करती थी. सफेद हंस और कबूतरों की तरह पंक्षियों के समूह का आनंद भी वे दोनों खूब उठाती थीं.

उसी झील के किनारे न जाने कितने भारतीय समुदाय के लोग आते थे जिन के पास हायहैलो कहने के सिवा कुछ नहीं रहता था.

किसीकिसी घर के बाहर केले और अमरूद से भरे पेड़ बड़े मनमोहक होते थे. हाथ बढ़ा कर रीवा उन्हें छूने की कोशिश करती तो हंस कर नोनो कहती हुई लीना उस की बांहों को थाम लेती थी.

लीना के साथ जा कर रीवा ग्रौसरी शौपिंग वगैरह कर लिया करती थी. फूड मार्ट में जा कर अपनी पसंद के फल और सब्जियां ले आती थी. लाइब्रेरी से भी किताबें लाने और लौटाने के लिए रीवा को अब सप्ताहांत की राह नहीं देखनी पड़ती थी. जब चाहा लीना के साथ निकल गई. हर रविवार को लीना रीवा को डलास के किसी न किसी दर्शनीय स्थल पर अवश्य ही ले जाती थी जहां पर वे दोनों खूब ही मस्ती किया करती थीं.

हाईलैंड पार्क में कभी वे दोनों मूर्तियों से सजे बड़ेबड़े महलों को निहारा करती थीं तो कभी दिन में ही बिजली की लडि़यों से सजे अरबपतियों के घरों को देख कर बच्चों की तरह किलकारियां भरती थीं. जीवंत मूर्तियों से लिपट कर न जाने उन्होंने एकदूसरे की कितनी तसवीरें ली होंगी.

पीले कमल से भरी हुई झील भी 10 साल की महिलाओं की बालसुलभ लीलाओं को देख कर बिहस रही होती थी. झील के किनारे बड़े से पार्क में जीवंत मूर्तियों पर रीवा मोहित हो उठी थी. लकड़ी का पुल पार कर के उस पार जाना, भूरे काले पत्थरों से बने छोटेबड़े भालुओं के साथ वे इस तरह खेलती थीं मानो दोनों का बचपन ही लौट आया हो.

स्विमिंग पूल एवं रंगबिरंगे फूलों से सजे कितने घरों के अंदर लीना रीवा को ले गई थी, जहां की सुघड़ सजावट देख कर रीवा मुग्ध हो गई थी. रीवा तो घर के लिए भी खाना पैक कर के ले जाती थी. इंडियन, अमेरिकन, मैक्सिकन, अफ्रीका आदि समुदाय के लोग बिना किसी भेदभाव के खाने का लुत्फ उठाते थे.

लीना के साथ रीवा ने ट्रेन में सैर कर के खूब आनंद उठाया था. भारी ट्रैफिक होने के बावजूद लीना रीवा को उस स्थान पर ले गई जहां अमेरिकन प्रैसिडैंट जौन कैनेडी की हत्या हुई थी. उस लाइब्रेरी में भी ले गई जहां पर उन की हत्या के षड्यंत्र रचे गए थे.

ऐेसे तो इन सारे स्थलों पर अनेक बार रीवा आ चुकी थी पर लीना के साथ आना उत्साह व उमंग से भर देता था. इंडियन स्टोर के पास ही लीना का मैक्सिकन रैस्तरां था. जहां खाने वालों की कतार शाम से पहले ही लग जाती थी. जब भी रीवा उधर आती, लीना चीपोटल पैक कर के देना नहीं भूलती थी.

मैक्सिकन रैस्तरां में रीवा ने जितना चीपोटल नहीं खाया होगा उतने चाट, पकौड़े, समोसे, जलेबी लीना ने इंडियन रैस्तरां में खाए थे. ऐसा कोई स्टारबक्स नहीं होगा जहां उन दोनों ने कौफी का आनंद नहीं उठाया. डलास का शायद ही ऐसा कोई दर्शनीय स्थल होगा जहां के नजारों का आनंद उन दोनों ने नहीं लिया था.

मौल्स में वे जीभर कर चहलकदमी किया करती थीं. नए साल के आगमन के उपलक्ष्य में मौल के अंदर ही टैक्सास का सब से बड़ा क्रिसमस ट्री सजाया गया था. जिस के चारों और बिछे हुए स्नो पर सभी स्कीइंग कर रहे थे. रीवा और लीना बच्चों की तरह किलस कर यह सब देख रही थीं.

कैसी अनोखी दास्तान थी कि कुछ शब्दों के सहारे लीना और रीवा ने दोस्ती का एक लंबा समय जी लिया. जहां भी शब्दों पर अटकती थीं, इशारों से काम चला लेती थीं.

समय का पखेरू पंख लगा कर उड़ गया. हफ्ताभर बाद ही रीवा को इंडिया लौटना था. लीना के दुख का ठिकाना नहीं था. उस की नाजुक कलाइयों को थाम कर रीवा ने जीभर कर आंसू बहाए, उस में अपनी बेटियों से बिछुड़ने की असहनीय वेदना भी थी. लौटने के एक दिन पहले रीवा और लीना उसी झील के किनारे हाथों में हाथ दिए घंटाभर बैठी रहीं. दोनों के बीच पसरा हुआ मौन तब कितना मुखर हो उठा था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस की अनंत प्रतिध्वनियां उन दोनों से टकरा कर चारों ओर बिखर रही हों.

दोनों के नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी. शब्द थे ही नहीं कि जिन्हें उच्चारित कर के दोस्ती के जलधार को बांध सकें. प्रेमप्रीत की शब्दहीन सरिता बहती रही. समय के इतने लंबे प्रवाह में उन्हें कभी भी एकदूसरे की भाषा नहीं जानने के कारण कोई असुविधा हुई हो, ऐसा कभी नहीं लगा. एकदूसरे की आंखों में झांक कर ही वे सबकुछ जान लिया करती थीं. दोस्ती की अजीब पर अतिसुंदर दास्तान थी. कभी रूठनेमनाने के अवसर ही नहीं आए. हंसी से खिले रहे.

एकदूसरे से विदा लेने का वक्त आ गया था. लीना ने अपने पर्स से सफेद धवल शौल निकाल कर रीवा को उठाते हुए गले में डाला, तो रीवा ने भी अपनी कलाइयों से रंगबिरंगी चूडि़यों को निकाल लीना की गोरी कलाइयों में पहना दिया जिसे पहन कर वह निहाल हो उठी थी. मूक मित्रता के बीच उपहारों के आदानप्रदान देख कर निश्चय ही डलास की वह मूक मगर चंचल झील रो पड़ी होगी.

भीगी पलकों एवं हृदय में एकदूसरे के लिए बेशुमार शुभकामनाओं को लिए हुए दोनों ने एकदूसरे से विदाई तो ली पर अलविदा नहीं कहा.

Writer- Renu Srivastava

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