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चौथापन- भाग 1: बाबूजी का असली रूप क्या था?

वह एक कोने में कुरसी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे. अचानक उन्होंने ऊब कर किताब एक ओर  रख दी. आंखों  से चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया. रूमाल से आंखें साफ कीं और निरुद्देश्य खिड़की  से बाहर की चहलपहल देखने लगे.

‘‘दादाजी, यह कामिक्स पढ़ कर सुनाइए जरा,’’ उन की 10 वर्ष की नातिन अंजू रंगबिरंगी पुस्तकें लिए कमरे में पहुंच गई.

‘‘लाओ, देखें,’’ उन्होंने बड़े चाव से  पुस्तकें ले लीं.

वह पुस्तकों के चित्र तो देख पा रहे थे, किंतु चश्मा लगाने के बाद भी उन पुस्तकों को पढ़ पाना उन्हें बड़ा कठिन लग रहा था. फिर नाम भी क्या थे पुस्तकों के, ‘आग का दरिया’, ‘अंतरिक्ष का शैतान’.

‘‘छि: छि:… ये क्या हैं? अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो, बेटे.’’

‘‘अच्छी कौन सी, दादाजी?’’

‘‘जिस पुस्तक से कोई अच्छी बात सीखने को मिले. बच्चों के लिए तो आजकल बहुत सी पत्रपत्रिकाएं  निकलती हैं.’’

‘‘आप नहीं जानते, दादाजी, ये थ्री डायमेंशनल कामिक्स हैं. इन को पढ़ने के लिए अलग से चश्मा मिलता है. यह देखिए.’’

‘‘अरे, यह कोई चश्मा है? लाल पन्नी लगी है इस में तो. इस से आंखें खराब हो जाएंगी. फेंको इसे.’’

‘‘आप को कुछ नहीं मालूम, दादाजी,’’ अंजू ने उपेक्षा से कहा और पुस्तकें ले कर तेजी से बाहर चली गई.

वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे. शायद वह वर्तमान से कट चुके हैं. उन का जमाना लद चुका था. उन के सिद्धांत, आदर्श ओैर विचार अब अप्रासंगिक हो चुके थे.

अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात थी. उन के बेटे मुन्ना  ने भी यही कहा था. हुआ यों था कि उस दिन वह कारखाने में मौजूद थे. नौकर ने एक ग्राहक को बिल दिया तो उन्हें वह बहुत ज्यादा लगा. वह एक प्रकार से ग्राहक को लूटने जैसा ही  था. उन्होंने नौकर को डांट दिया और जोर दे कर उस से बिल में परिवर्तन करने को कहा.

उसी दिन मुन्ना रात को घर आने के बाद  उन पर बहुत बिगड़ा था, ‘बाबूजी, आप तो बैठेबिठाए नुकसान करवा देते हैं. क्या जरूरत थी आप को  कारखाने में जा कर कीमत कम करवाने की?’

‘मैं ने तो उचित दाम ही लगाए थे, बेटा. वह नौकर बहुत ज्यादा  बिल बना रहा था.’

‘आप बिलकुल नहीं समझते, बाबूजी. इतना बड़ा कारखाना चलाना आज के जमाने में कितना मुश्किल काम है. अब कामगारों को वेतन कितना बढ़ा कर देना पड़ता है, जानते हैं आप? नई मशीन की किश्त हर माह देनी पड़ती है सो अलग. फिर आयकर भी इसी महीने में भरना है.’

उन की दृष्टि में ग्राहकों से मनमाना पैसा वसूल करने का यह कोई उचित तर्क नहीं था, लेकिन वह चुप ही रह गए.

एक बार वह बीमार पड़ गए थे. 2-3 महीने तक कारखाने नहीं जा सके. बस, तभी अचानक मुन्ना ने उन की गद्दी हथिया ली. फिर मुन्ना यह सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि वह व्यापार में उन से अधिक कुशल है.

जहां उन्हें ग्राहक से 4 पैसे वसूल करने में कठिनाई होती थी वहां मुन्ना बड़ी आसानी से 6 पैसे वसूल कर लेता था. उस ने बैंकों से ऋण ले कर अल्प समय में ही नई मशीनें मंगवा ली थीं. किस आदमी से कैसे काम लिया जा सकता है, इस काम में मुन्ना खुद को उन से कहीं अधिक दक्ष होने का दावा करता था.

जब वह स्वस्थ हो कर कारखाने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कारखाने का शासन सूत्र मुन्ना अपने हाथों में दृढ़ता से थामे हुए है. एक बार हाथों में शासन सूत्र  आने के बाद कोई भी उसे सरलता से वापस नहीं करना चाहता.

अब मुन्ना कारखाने के तमाम कार्य अपनी मरजी से करता था. उन की ठीक सलाह भी उसे अपने मामलों में दखलंदाजी लगती थी. मुन्ना अकसर उन्हें एहसास दिलाता था, ‘बाबूजी, डाक्टर ने आप को पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है. आप घर पर रह कर ही आराम किया करें. कारखाने का सारा कारोबार मैं संभाल लूंगा. आप बेकार उधर की चिंता किया करते हैं.’

जब उन की पत्नी इंदू जिंदा थी तो उस का भी यही विचार था. वह प्राय: कहा करती थी, ‘आज नहीं तो कल, मुन्ना को ही तो संभालना है कारखाना. वह व्यापार को बढ़ा ही रहा है, घटा तो नहीं रहा? वैसे भी अब लड़का बड़ा हो गया है. बाप का जूता उस के पैर में आने लगा है. उन्हें खुद आगे हो कर मुन्ना को कारोबार सौंप देना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार आदमी को चौथेपन में सांसारिक झंझटों से संन्यास ले लेना चाहिए.’

और इस तरह बीमारी के दौरान अकस्मात ही उन की इच्छा के विरुद्ध कारखाने से उन का निष्कासन हो गया था.

उन्होंने एक नजर नाश्ते की प्लेट पर डाली. आज फिर घर का नौकर बड़ी उपेक्षा से उन के सामने सिर्फ मक्खन लगे स्लाइस रख गया था. उन के अंदर ही अंदर कुछ घुटने सा लगा था, ‘यह भी कोई नाश्ता है? बाजार से डबलरोटी मंगवाई और चुपड़ दिया उस पर जरा सा मक्खन.’

जब इंदू थी तब उन के लिए बीसियों तरह के तो लड्डू ही बनते थे घर में. मूंग के, मगज के, रवे के वगैरहवगैरह. मठरी, सेव और कई तरह के नमकीन भी परोसे जाते थे उन के आगे. पकवानों का तो कोई हिसाब ही नहीं था और अब मात्र मक्खन लगे डबलरोटी के टुकड़े.

वह खीज उठे और उठ कर सीधे अंदर गए, ‘‘बरसात में डबलरोटी क्यों मंगवाती हो, बहू? घर में ही कुछ मीठा या नमकीन बना लिया करो. कल जो डबलरोटी आई थी उस में फफूंद लगी हुई थी.’’

‘‘डाक्टर ने उन्हें अधिक घीतेल खाने की मनाही कर दी है. अगर आप को डबलरोटी पसंद नहीं है तो आप के लिए दूसरा इंतजाम हो जाएगा,’’ बहू ने रूखेपन से जवाब दिया.

दूसरे दिन उन के लिए जो नाश्ता लगाया गया वह होटल से मंगवाया गया था. एक प्लेट में बेसन का लड्डू तथा थोड़ा सा चिड़वा था. बरसात के कारण चिड़वा बिलकुल हलवा बन गया था. लड्डू बेशक स्वादिष्ठ था, परंतु उस में वनस्पति घी इतनी अधिक मात्रा में था कि खाने के बाद उन्हें बहुत देर तक खट्टी डकारें आती रही थीं.

वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि त्रिवेणी उन के पास रहती तो बड़ा सुविधाजनक होता. वह उन के खानेपीने का कितना खयाल करती थी. भैयाभैया कहते उस की जबान नहीं थकती थी.

सच  पूछो तो अपनी पत्नी इंदू की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे. त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था.

सब से बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित रूखेपन, बहू की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती- नातिनों की बदतमीजियों की ओर उन का ध्यान ही नहीं जाता था. वह तो त्रिवेणी को भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उस का घर में रहना असंभव कर दिया.

एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिशा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उन के सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूं आप को पार्क तक.’’

वह कहना चाहते थे, ‘भाई, पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूं. खुद चला जाऊंगा,’ पर चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए.

तलाक के बाद पूरी तरह टूट गए थे आशीष विद्यार्थी, पहली पत्नी ने किया खुलासा

बॉलीवुड एक्टर आशीष विद्यार्थी अपनी पर्सनल लाइफ को लेकर सुर्खियों में रहते हैं, इन दिनों वह अपनी दूसरी शादी को लेकर चर्चा में बने हुए हैं. कुछ दिनों पहले कलकता कि फैशन इंटरप्रयोनर रूपाली से वह शादी रचाए हैं. जिसे लेकर लगातार वह चर्चा में बने हुए हैं.

57 साल की रूपाली से शादी के बाद आशीष को खूब ट्रोल किया जा रहा है. इसी दौरान आशीष ने एक इंटरव्यू में अपनी पहली पत्नी के साथ अलग होने के बाद का दर्द साझा किया है. यही नहीं उन्होंने रूपाली को लेकर अपना दर्द भी साझा किया है.

 

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उन्होंने बताया कि रूपाली से उनकी मुलाकात एक बॉलगिंग के जरिए हुई थीं, जहां पर वह जानें थें कि रूपाली काफी ज्यादा दर्द से गुजर रही है, उसके बाद से उन्होंने रूपाली की मदद करने की कोशिश की थी, फिर उन्होंने अपनी पहली पत्नी से भी रूपाली के बारे में बताया था कि वह काफी ज्यादा परेशान हैं उन्हें एक पार्टनर की जरुरत है. जिसके बाद उन्होंने रूपाली को लेकर हां कहा था.

आशीष अपनी शादी से काफी ज्यादा खुश हैं, बता दें कि 5 साल पहले रूपाली के पति का निधन हो गया था, जिसके बाद से रूपाली काफी ज्यादा परेशान रह रही थीं. आशीष ने उनकी प्रॉब्लम को समझते हुए उनके साथ शादी करने का फैसला लिया था.

आखिर क्यों आमिर खान नहीं जाते ‘द कपिल शर्मा शो’ खुद किया खुलासा

द कपिल शर्मा शो में जाने के लिए हर कोई एक्साइटेड रहता है, हाल ही में आमिर खान और कपिल शर्मा की मुलाकात एक शो के जरिए हुई है, जहां पर उन लोगों ने एक-दूसरे से बात किया. जहां पर कपिल शर्मा ने आमिर खान से सवाल पूछा कि आप क्यों नहीं आते हैं हमारे शो में .

इस पर आमिर खान ने हंसते हुए बोला की मुझे पता था कि आप मुझसे यह सवाल करेंगे, बता दें कि एक इवेंट में आमिर खान जट्टा3 के प्रमोशन में पहुंचे थें, जहां पर उनकी मुलाकात आमिर खान से हुई.

 

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अभी तक आमिर खान द कपिल शर्मा शो का हिस्सा नहीं बने हैं, जिस वजह से कपिल शर्मा उनसे यह बात कह रहे हैं. द कपिल शर्मा शो में आए दिन कुछ न कुछ नए मेहमान देखने को मिलते रहते हैं. हाल ही में द कपिल शर्मा शो में नए-नए मेहमान नजर आते रहते हैं.

हालांकि आमिर खान इस शो का हिस्सा नहीं है यह सवाल लोगों के मन में गुत्थी बना हुआ है कि आखिर वह इस शो का हिस्सा क्यों नहीं बने हैं. खबर है कि जल्द आमिर खान अपने दिए हुए बयान के ममुताबिक इस शो में आएगें.

आमिर इन दिनों अपनी अपकमिंग फिल्म को लेकर चर्चा में बने हुए हैं, आमिर कि यह फिल्म काफी चर्चा में बनी हुई है.

प्यार और दौलत : मोहिनी का प्यार क्या परवान चढ़ पाया

आंगन में धमधम की आवाज से मोहिनी यह समझ गई कि रामजीवन आ गया है. अपने यकीन को पुख्ता करने के लिए वह उठी और देखा कि आंगन में एक मिट्टी का ढेला पड़ा है, क्योंकि आज रामजीवन के आने पर इसी इशारे का वादा था.

रामजीवन और मोहिनी का प्यार परवान पर था. रामजीवन के बगैर मोहिनी एक पल भी नहीं रहना चाहती थी. लेकिन मोहिनी के घर वाले रामजीवन की कहानी जानते थे. रामजीवन सही आदमी नहीं था. वह झोलाछाप डाक्टरी के अलावा और भी गैरकानूनी धंधे करता था. उस ने दहेज के लालच में अपनी बीवी तक को मार डाला था. लेकिन न जाने मोहिनी पर रामजीवन का कौन सा जादू छाया था.

वैसे रामजीवन था तो मोहिनी की बिरादरी का ही, मगर मोहिनी के घर वाले अपनी बेटी पर उस की छाया भी नहीं पड़ने देना चाहते थे. मोहिनी का पूरा परिवार पढ़ालिखा था. भाई भी नौकरी करते थे और खुद मोहिनी भी इंटर पास थी.

रामजीवन को आया जान मोहिनी घर के जेवर व नकदी एक थैले में डाल कर छत पर चढ़ गई. घर के सभी लोग सो रहे थे. सारे गांव में सन्नाटा था. आज गली के कुत्तों को भी नींद आ गई थी. उन का भूंकना बंद था. वह धीरेधीरे चलती हुई पिछवाड़े की मुंड़ेर पर पहुंच गई. रामजीवन वहीं खड़ा इंतजार कर रहा था. मोहिनी रामजीवन की बांहों में जल्द से जल्द समा जाना चाहती थी. पड़ोस की खपरैल से होते हुए वह रामजीवन के बहुत नजदीक पहुंच गई.

रामजीवन ने उस का थैला थामा और उसे एक ओर रख कर अपने हाथों का सहारा दे कर मोहिनी को भी नीचे उतार लिया. रात आधी से ज्यादा बीत गई थी. दोनों सारी रात चलते रहे. सुबह होने तक वे एक काफी सुनसान जगह पर आ कर रुक गए.

सवेरा हो गया था. जहां वे लोग रुके थे, वहीं पास में ही रामजीवन का खेत था, जहां रामजीवन के खास साथी डेरा डाल कर रहते थे. मोहिनी को वहीं छोड़ रामजीवन अपने एक साथी को ले आया. उस साथी को मोहिनी के पास बैठा कर रामजीवन खुद खाना लाने के बहाने एक ओर चला गया.

जातेजाते रामजीवन ने मोहिनी से झोले में क्याक्या है, जानना चाहा था. तब मोहिनी ने बताया था कि 80 हजार की नकदी और सोनेचांदी के जेवर हैं. एक नजर थैले पर डाल मोहिनी को तसल्ली देते हुए वह बोला, ‘‘इसे मैं अपने साथ लिए जा रहा हूं. कुछ नकद का और इंतजाम कर के मैं शाम तक आ जाऊंगा, फिर कहीं दूर चले जाएंगे.’’

वहां बैठा साथी, जिस का नाम शंकर था, उन की बातें गौर से सुन रहा था. शंकर जानता था कि आज ठाकुर सोने की चिडि़या फांस कर लाए हैं लेकिन वह चुप था. दिन बीता रात आई लेकिन रामजीवन नहीं आया. अब शंकर से रहा नहीं गया. वह बोला, ‘‘कहां रहती हैं आप?’’

‘‘किशनपुर में,’’ मोहिनी ने जवाब दिया. ‘‘अच्छा, जहां मालिक डाक्टरी करते हैं?’’ शंकर ने पूछा.

मोहिनी चुप रही. शंकर ने फिर पूछा, ‘‘क्या नाम है आप का?’’

‘‘मोहिनी,’’ उस ने छोटा सा जवाब दिया. ‘‘जैसा नाम वैसा गुण,’’ शंकर कहे बिना नहीं रह सका. सचमुच वह रात में चांदनी की तरह चमक रही थी.

शंकर ने पूछा, ‘‘घर क्यों छोड़ा आप ने?’’

मोहिनी ने लजा कर कहा, ‘‘तुम्हारे मालिक के साथ रहने के लिए.’’ शंकर मन ही मन सोच रहा था, ‘अजब जादू चलाया है मालिक ने. न जाने क्या हाल होगा इस का?’ फिर उस ने सोचा, ‘बेवकूफ लड़की, तू ने ठीक नहीं किया. मांबाप हमेशा अपनी औलाद का भला ही चाहते हैं, बुरा तो सपने में भी नहीं सोच सकते. कसाई भी अपने बच्चों को खुश व सुखी देखना चाहते हैं.’

मन ही मन शंकर चुप ही रहा. इसी दौरान किसी के पैरों की आहट से उन का ध्यान बंटा. रात के 10 बजे होंगे. दोनों चौकन्ने हो गए. दूर कहीं सियार की डरावनी आवाज सुनाई दे रही थी.

पास आता एक चेहरा अब साफ दिखाई दे रहा था, यह रामजीवन ही था. नजदीक आ कर रामजीवन शंकर को एक ओर ले गया, जहां उस ने शंकर की छाती पर रामपुरी चाकू रख दिया. शंकर के पैरों तले जमीन खिसकने लगी, सामने मौत जो खड़ी थी. उस का हलक सूख गया था. रामजीवन ने कहा, ‘‘मरना चाहते हो कि…’’

शंकर की सूखी जबान से खरखराती आवाज निकली, ‘‘म… म… म… मालिक.’’ ‘‘ले चाकू और मार दे उस लड़की को. नहीं तो तू भी फंसेगा और मैं भी. पुलिस हम दोनों को ढूंढ़ रही है,’’ रामजीवन ने धीरे से, पर कड़कती आवाज में कहा.

‘‘न… न… नहीं मालिक, यह काम मैं नहीं कर पाऊंगा. मैं ने कभी मुरगी तक नहीं…’’ शंकर हकलाया. ‘‘तो ले, तू ही मरने को…’’

शंकर अब तक संभल चुका था. वह सहमते हुए बोला, ‘‘मालिक, चाहे मुझे मार दो, मगर मुझ से यह काम नहीं होगा.’’ रामजीवन कुछ ढीला हो कर बोला, ‘‘एक शर्त पर तू बचेगा. तू किसी से कुछ नहीं कहेगा. जो मैं कहूंगा वही करेगा.’’

‘‘हर शर्त मंजूर है मालिक,’’ शंकर ने डरते हुए कहा. ‘‘आओ,’’ ऐसा कहते हुए रामजीवन मोहिनी के पास गया. शंकर दूर खड़ा अनहोनी का अंदाजा लगा रहा था.

रामजीवन मोहिनी को एक टीले की ओर ले गया. दूर झींगुरों की आवाज से रात और भी डरावनी हो रही थी. प्यार में अंधी मोहिनी चहकती हुई उस की ओर बड़ी अदा से बलखाती सी जाने लगी, क्योंकि उसे लग रहा था कि टीले की ओट में वह उसे बहुत प्यार करेगा. उस की भरी जवानी का रस पीएगा. आज कई दिनों बाद सबकुछ करने का एक अच्छा मौका जो मिला है. वह रामजीवन की बांहों में समा जाने को मचल रही थी.

मगर यह क्या, जैसे ही मोहिनी रामजीवन के गले लगी तो आसमान कांप उठा. रामजीवन ने प्यार करने के बजाय एक हाथ से मोहिनी के जिगर में रामपुरी चाकू घुसेड़ दिया और दूसरे हाथ से उस का मुंह कस कर दबोच लिया. मोहिनी चीख भी नहीं सकी. उस की चीख अंदर ही अंदर दब कर रह गई. जब वह निढाल हो गई, तब कहीं रामजीवन ने उसे छोड़ा. शंकर चुपचाप एक कसाई के हाथों गऊ जैसी मोहिनी को हलाल होते देख रहा था.

जिस के जिस्म से खेला, जो लाखों की दौलत ले कर घरपरिवार, रिश्तेदारों को छोड़ कर आ गई थी, आज उसी मोहिनी के लिए रामजीवन कालिया नाग बन गया था. ‘‘खड़ेखड़े क्या देख रहा है? ले, इस की लाश उठा उधर से,’’ रामजीवन की आवाज से शंकर सोते सा जगा और मशीन की तरह उस ने मोहिनी को एक तरफ से उठा लिया. फिर दोनों उसे एक ढलान पर ले गए.

ढलान में एक गहरा गड्ढा देख कर शंकर समझ गया कि रामजीवन अभी तक क्या कर रहा था. उसी गड्ढे में मोहिनी को हमेशा के लिए दफना दिया गया मानो प्यार की दौलत ही दफना दी हो.

बिन मां की बेटियां: भाग 2

राइटर- डा. कुसुम रानी नैथानी

बच्चों की हालत देख कर अमरनाथजी की भी आंखों में आंसू आ गए. लगता था, कई दिनों से वे नहाए नहीं और उन के कपड़े भी नहीं बदले गए थे.

दादी बोली, “मुझ से जितना बन पड़ता है मैं उतना ही कर सकती हूं. प्रज्ञा को तो शिवांश से ही फुरसत नहीं मिलती.”

“अगर आप बुरा न मानें, तो क्या हम इन्हें अपने साथ ले जाते हैं?”

“इस में बुरा मानने की क्या बात है? ये अच्छे से पल जाएं, मैं तो इतना ही चाहती हूं…

“अच्छा होता, आप रजत से भी पूछ लेते.”

“उस से क्या पूछना है? वह दो दिन के लिए बाहर गया हुआ है, फिर इन्हें छोड़ने कौन जाएगा? अच्छा होगा कि आप ही इन्हें अपने साथ ले जाएं.”

शिवांश की मुंहदिखाई कर वे इशिता और शलाका को ले कर लौट आए. प्रज्ञा ने उन्हें रुकने तक के लिए नहीं कहा और न ही खाने के लिए पूछा. बच्चों की हालत देख कर उन्हें बड़ा तरस आ रहा था. अनायास ही इस समय उन्हें त्रिशाला याद आ गई थी.

रजत के आ जाने पर मां ने उसे पूरी बात बता दी. रजत को शायद ऐसे ही मौके का इंतजार था. उसे भी अब अपनी बेटियां बोझ स्वरूप लगने लगी थीं. प्रज्ञा तो पहले ही उन्हें यहां रखने के खिलाफ थी. मौके का

फायदा उठाते हुए वह बोला, “वे अपनी मरजी से बच्चों को ले कर गए हैं तो आगे से मैं भी उन्हें लेने नहीं जाऊंगा. वे मेरे लौटने का

इंतजार कर सकते थे.”

प्रांजलि उन के लौट आने से बहुत खुश थी. उन के बिना उसे भी घर बड़ा सूनासूना लग रहा था. अमरनाथजी ने भी मन बना लिया था कि अब वे इशिता और शलाका को रजत के पास नहीं भेजेंगे. एक ही महीने में

फूल सी बच्चियों की क्या हालत हो गई थी? पढ़ाईलिखाई वे सब भूल गए थे. त्रिशाला अपनी दो

निशानियां इशिता और शलाका उन के पास छोड़ गई थी. अमरनाथजी ने फिर से उन का स्कूल में एडमिशन करा दिया और उन की पढ़ाई पर ध्यान देने लगे. वे दोनों पढ़ने में बहुत होशियार थीं. प्रांजलि भी

बड़ी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही थी. वह बहुत अच्छे नंबरों से एमएससी की पढ़ाई पूरी कर अब बीएड

कर रही थी. मौसी के साथ बैठ कर वे दोनों भी पढ़ाई करने लगती.

अमरनाथजी खुद भी एक शिक्षक थे. उन्होंने हमेशा अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी. उन के पास अपने

पुरखों की काफी जमीनजायदाद थी.  पुश्तैनी घर पर किसी चीज का अभाव न था. शहर से लगे इस कसबे में सभी सुविधाएं थी. उस दिन के बाद से न तो रजत ने उन के लिए कोई खर्चा भेजा और न ही कभी उन से मिलने आए. बस

कभीकभार फोन पर जरूर बात कर लेता. बेटियों का पिता से रिश्ता अब इतना ही रह गया.

बीएड करने के सालभर बाद प्रांजलि की नौकरी लग गई थी. घर से चालीस किलोमीटर की दूरी पर उसका कालेज था. वह हर रोज इतनी दूर घर से आतीजाती. इशिता और शलाका के बगैर उसे भी कहीं अच्छा नहीं लगता था. वे दोनों अपनी हर छोटीबड़ी बात उसी के साथ बांटती. नौकरी लग जाने पर अब वह उन की हर ख्वाहिश पूरी कर देती. उन दोनों को भी मौसी से बहुत ज्यादा लगाव था.

अमरनाथजी ने अच्छा सा लड़का देख कर प्रांजलि का  रिश्ता पक्का कर दिया था. लड़का दिल्ली में नौकरी करता था. यह जानते हुए कि प्रांजलि नौकरी के लिए उत्तराखंड से बाहर कभी नहीं जा सकती, तब भी

लड़की वाले शादी के लिए राजी थे. जल्दी ही अमरनाथजी ने उस के हाथ पीले कर दिए. इस बार बेटी की शादी में उन में वह  उत्साह न था जितना त्रिशाला की शादी में था. शादी के बाद वह मात्र एक महीने ही ससुराल रही. उस के बाद नौकरी की वजह से वह वापस मायके चली गई.

शादी के दो साल बाद प्रांजलि ने आर्यन को जन्म दिया. उस की देखभाल के लिए घर पर रमा थी. प्रांजलि के पति विवेक ने कई बार चाहा कि वह नौकरी छोड़ कर उस के साथ दिल्ली आ जाए, लेकिन वह नौकरी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुई. उस की इच्छा का मान करते हुए उन्होंने कुछ बोलना ही छोड़ दिया.

रमा ने भी उसे समझाया,

“बेटी, ऐसे कब तक मायके में रहेगी? अपने लिए अलग घर की व्यवस्था कर लो, जिस से तुम्हारे ससुराल

वाले भी जब जी चाहे तुम्हारे पास आ सके.

“मां, मेरे बेटे आर्यन को वहां कौन देखेगा? मैं उसे अकेले नहीं संभाल सकती. यहां पर तुम भी हो और इशिता और शलाका भी हैं, जिन की मदद से वह अच्छे से पल रहा है.”

“प्रांजलि, तुझे अपने पति के बारे में भी तो सोचना चाहिए. तुम जहां नौकरी करती हो, वहां अलग घर की व्यवस्था कर लोगी तो आर्यन की देखभाल के लिए तुम्हारी सास भी आ जाएंगी और विवेक भी आता रहेगा. यहां आने में उन लोगों को झिझक होती होगी. तुम्हें यह बात समझनी चाहिए. हर कोई चाहता है कि उस की एक जमीजमाई गृहस्थी हो. उस का अपना परिवार उस के साथ हो.”

“मां, इन बातों को छोड़ो. मैं विवेक को अच्छी तरह से जानती हूं. वे वैसा कुछ नहीं सोचते जैसा तुम सोच

रही हो. उन्हें मुझ से कोई शिकायत नहीं और मुझे उन से. वह अपने मम्मीपापा के साथ खुश हैं और मैं

अपने मम्मीपापा के. आप को क्या परेशानी है? मुझे कोई परेशानी नहीं. बस, तुम्हें अपने अनुभव की बात बता रही हूं.”

प्रांजलि मां की कोई बात सुनने के लिए तैयार नहीं थी. मम्मीपापा और इशिता और शलाका के साथ उसे

इस घर में जितनी सुविधा थी उतनी उसे कहीं नहीं मिल सकती थी. यहां उस पर काम की कोई जिम्मेदारी

न थी. रमा भी अपनी ओर से ठीक कह रही थी. अब उन के अपने बेटे व्योमेश की भी गृहस्थी हो गई थी.

ऐसे में इन सब के साथ उस की पत्नी शिखा कभीकभी छोटी बातों को ले कर खीज जाती थी. इसी वजह से

रमा बेटी को समझाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन वह समझने को राजी नहीं थी.

कुछ समय बाद शलाका ने एमए पास कर लिया था. रजत को बेटियों से कोई मतलब नहीं था. नाना

और मामा ने अच्छा सा घर देख कर उस की शादी पक्की कर दी.

मैं कुछ मीनिंगफुल करना चाहती हूं, जिस से मेरे दिल को संतुष्टि मिले, कृप्या मेरी मदद करें?

सवाल

मैं कुछ मीनिंगफुल करना चाहती हूं, जिस से मेरे दिल को संतुष्टि मिले,पति की हाल ही में डैथ हुई है, लाइफ वैसे तो बिलकुल रूटीन पर चल रही है, बच्चे बड़े हैं, अपने डिसीजन खुद लेते हैं, मेरी उम्र अभी 48 है, अच्छी पढ़ीलिखी हूं लाइफ में कुछ करना चाहती थी लेकिन मौका नहीं मिला, वैसे, मेरा जो मन करता है वह मैं करती हूं, किसी तरह की कोई रोकटोक नहीं है, मैं ऐसा क्या करूं?

जवाब 

जैसा कि आप लिख रही हैं कि लाइफ में कुछ करना चाहती थी लेकिन मौका नहीं मिला तो फिर अब अपनी इच्छा पूरी कीजिए. लाइफ में कुछ करने के लिए सब से पहले आप के इरादे मजबूत होने चाहिए. फिर अपने उद्देश्य पर फोकस कर के आगे बढ़िए. आप पढ़ीलिखी हैं, अच्छे व्यक्तित्व वाली है तो खुद को किसी ग्रुप में शामिल कीजिए. सामाजिक परिचर्चाओं में भाग लें.
आप में प्रतिभा है कुछ करने, कुछ सीखने की तो जिस चीज में आप की रुचि है उस काम को करने की ट्रेनिंगलें. वुमन और्गेनाइजेशनों में अपना योगदान दे सकती हैं जिस से आप की अपनी एक पहचान बनेगी.
एनजीओ से जुड़े सोशल वर्क कर सकती हैं. इस से मीनिंगफुल काम और क्या होगा. निस्वार्थ भावना से जरूरतमंदों की सहायता करना, उन की सेवा करने से बड़ा काम और क्या होगा. समाज में अपने आसपास करने के लिए बहुतकुछ होता है. बस, अपने कदम उठाने की देर होती है. शुरुआत करिए, एक के बाद एक और दरवाजे खुलते जाएंगे.

Nutrition Special: न्यूट्रिशन से भरपूर है दही, जानें इसके फायदे

दूध के मुकाबले दही खाना सेहत के लिये हर तरह से ज्यादा लाभकारी है. दूध में मिलने वाला फैट और चिकनाई बौडी को एक उम्र के बाद नुकसान देता है. इसके मुकाबले दही में मिलने वाला फासफोरस और विटामिन डी बौडी के लिये लाभकारी होता है. दही में कैल्शियम को एसिड के रूप में समा लेने की खूबी भी होती है. रोज 300 मिली दही खाने से आस्टियोपोरोसिस, कैंसर और पेट के दूसरे रोगों से बचाव होता है. दही बौडी की गर्मी को शांत कर ठंडक का अहसास दिलाता है. फंगस को भगाने के लिये भी दही का प्रयोग खूब किया जाता है.

हेल्थजोन की डायरेक्टर और डाइटिशयन तान्या साहनी का कहना है सबसे बड़ी बात यह है कि दही को भोजन के रूप में देखा जाता है और इसका प्रयोग कई रूपों में किया जाता है. देश के अलग अलग हिस्सों में दही का प्रयोग रायता, लस्सी और श्रीखंड के रूप में किया जाता है. दही का प्रयोग करके कई तरह की सब्जी भी बनायी जाती है. कुछ लोग दही में काला नमक और जीरा डालकर खाते हैं. यह पेट के लिये कई तरह से लाभकारी होता है.  जो लोग वजन घटाने का काम करते हैं दही उनके लिये भी कई तरह से लाभकारी होता है.

बीमारियां भगाये दही

दही का नियमित सेवन करने से शरीर कई तरह की बीमारियों से मुक्त रहता है. दही में मिलने वाला फास्फोरस और विटामिन डी के साथ कैल्शियम को एसिड रूप में ढाल देता है. जो लोग बचपन से ही दही का भरपूर मात्रा में सेवन करते हैं उनको बुढ़ापे में आस्टियोपोरोसिस जैसा रोग होने का खतरा कम हो जाता है. दही में अच्छी किस्म के बैक्टिरिया पाये जाते हैं जो शरीर को कई तरह से लाभ पहुंचाते हैं. पेट में मिलने वाली आंतों में जब अच्छे किस्म के बैक्टिेरिया का अभाव हो जाता है तो भूख न लगने जैसी तमाम बीमारियां पैदा हो जाती हैं. इसके अलावा बीमारी के दौरान या एंटीबाइटिक थेरेपी के दौरान भोजन में मौजूद विटामिन और खनिज हजम नहीं होते. इस हालत में दही ही सबसे अच्छा भोजना बन जाता है. यह इन तत्वों को हजम करने में मदद करता है. जिससे पेट में होने वाली बीमारियां अपने आप ही खत्म हो जाती हैं.

तान्या साहनी कहती हैं कि आज की दौड़ती भागती जिंदगी में पेट की बीमारियों से परेशान होने वाले लोगों की संख्या सबसे ज्यादा होती है. ऐसे लोग अपनी डाइट में प्रचुर मात्रा में दही को शामिल करें तो अच्छा रहेगा. उनको पेट में होने वाली सबसे खास बीमारी भोजन का न पचना या अपच रहना दूर हो सकता है. दही खाने से उन लोगों को भी लाभ होगा जो भूख न लगने की शिकायत करते रहते हैं. दही खाने से पाचन क्रिया सही रहती है जिससे खुलकर भूख भी लगती है और खाना सही तरह से पच भी जाता है. दही खाने से बौडी को अच्छी डाइट मिलती है जिससे स्किन में एक अच्छा ग्लो भी रहता है.

इंफैक्शन से बचाव

जानकारी के मुताबिक 300 मिली दही रोज खाने से केंडिडा इंफैक्शन द्वारा होने वाले मुंह के छालों से निजात मिलती है. महिलाओं में अक्सर केंडिडा इंफैक्शन होने के कारण मुंह में छाले पड़ जाते हैं. जिन महिलाओं को इस तरह की शिकायत हो वह दही का भरपूर मात्रा में सेवन करें. मुंह के छालों पर दिन में 2 से 3 बार दही लगाने से भी छालें जल्द ही ठीक हो जाते हैं. बौडी के ब्लड सिस्टम में इंफैक्शन को कंट्रोल करने में व्हाइट ब्लड सेल का योगदान सबसे ज्यादा होता है. दही खाने से व्हाइट ब्लड सेल मजबूत होता है. जो बौडी की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है.

बढ़ती उम्र के लोगों को दही का सेवन जरूर करना चाहिये. जो लोग लंबी बीमारी से लड़ रहे होते हैं दही उनके लिये भी बहुत उपयोगी होता है. सभी डाइटिशयन एंटीबाइटिक थेरेपी के दौरान दही का नियमित सेवन करने के लिये राय देते हैं. दही का सेवन करके ब्लड में कोलेस्ट्रोल को कम किया जा सकता है जिससे हार्ट में होने कोरोनरी आर्टरी रोग से बचाव करना आसान हो जाता है. डाक्टरों का कहना है कि दही खाने से ब्लड कोलेस्ट्रोल को कम किया जा सकता है.

दही है खास

दूध में लेक्टोबेसिलस बुलगारिक्स बैक्टिरिया को डाला जाता है. जिससे शुगर लेक्टिस एसिड में बदल जाता है. इससे दूध जम जाता है. इस जमे हुये दूध को ही दही कहा जाता है. यह प्रिजर्वेटिव की तरह से काम करता है.  दही खमीर युक्त डेरी उत्पाद माना जाता है. पौष्ठिकता के मामले में दही को दूध से कम नहीं माना जाता है. यह कैल्शियम तत्व के साथ ही तैयार होता है. कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और फैट्स को साधारण रूप में तोड़ा जाता है. इसी लिये दही को प्री डाइजेस्टिक फूड माना जाता है. बच्चों के डाक्टर दही को छोटे बच्चों के लिये भी उपयुक्त मानते हैं. जो लोग किसी कारणवश लैक्टोस यानि शुगर मिल्क का सेवन नहीं कर पाते वे भी दही का सेवन कर सकते हैं. शुगर लेक्टिक एसिड में बंट जाती है. बैक्टीरिया भी कैल्शियम और विटामिन बी को हजम करने में मदद करता है.

दही में कंजुगेटिड लिनोलेइक एसिड (सीएलए) होता है. सीएलए फ्री रेडिकल्स सेल्स को बनने से रोकने का काम करता है. यह सेल्स बौडी के विकास को रोकने का काम करते हैं. बौडी में होने वाले रोग से बचाव में मदद करते हैं. दही से कैंसर और हार्ट रोगों को रोकने में मदद मिलती है. दही को तैयार करते समय इस बात का खास ख्याल रखा जाना चाहिये कि इसको फुल फैट मिल्क से तैयार न किया जाये. इस तरह से तैयार दही में पफैट और कैलोरी की मात्रा बढ़ जाती है. पहले से मीठी और मीठे के रूप में तैयारी दही में सीएलए के लाभ कम हो जाते है.

तान्या साहनी कहती हैं अगर दही को मीठा खाना है तो इसमें चीनी की जगह पर शहद या ताजे फल को मिलाया जा सकता है. दही और दही से बनाया जाने वाला छाछ गर्मी को अंदर और बाहर दोनों तरह से बचाता है. गर्मियों में तपती धूप का प्रकोप रोकने के लिये दही और छाछ का सेवन जरूरी हो जाता है. कुछ लोगों में यह भ्रांति होती है कि दही खाने से जुकाम और सर्दी जैसी बीमारियां हो जाती हैं. इस तरह के लोगों को दही का सेवन दिन में खाने के बाद करना चाहिये. ठंडे या फ्रिज में रखे दही का सेवन नहीं करना चाहिये. दही का सेवन हमेशा ताजा ही करना चाहिये. यह खाने में अच्छा लगता है.

किताब पढ़ने के फायदे हैं क्या

‘दिल की किताब कोरी है’, ‘किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुम ने, मगर कोई चेहरा क्या तुम ने पढ़ा है…’हिंदी फिल्मों के ऐसे कई गानेकिताबों के जरिए ही प्यार की गहराई को, प्रेमी जोड़े एकदूसरे को जाहिर करते आ रहे हैं.यह सभी जानते भी हैं.लेकिन आज फिल्मों के साथसाथ लोगों ने भी किताबों को पढ़ना कम कर दिया है. इसी वजह से विश्व में लोगों के बीच में किताब पढ़ने के सिलसिले को जारी रखने के लिए हर साल 23 अप्रैल को वर्ल्ड बुक डे मनाया जाता है.

बचपन में पहले पेरैंट्स बच्चों को किताबें पढ़ने पर जोर दिया करते थे, क्योंकि किताबें पढ़ना अच्छी बात मानी जाती है. इस से बच्चे में एकाग्रता, याद्दाश्त, नई खोज को जानने की इच्छाआदि विकसित हुआ करती है. पेरैंट्स से ले कर डाक्टर, टीचर्स और लाइब्रेरियन तक, सभी हमें यही एडवाइस करते थे कि हमें बुक्स पढ़नी चाहिए. बुक्स इंसान की हैल्थ और वैलनैस के लिए भी फायदेमंद होती हैं.

यह दुख की बात है कि बदलते वक्त में आज के बच्चे किताबों को छोड़ कर मोबाइल पर व्यस्त हो चुके हैं, जिस से उन की एकाग्रता और याद करने की शक्ति में कमी होने के साथसाथ उन की आंखों पर भी इस का प्रैशर बढ़ रहा है. आज 5 साल के बच्चे को भी चश्मा पहनन पड़ता है. आज वे किसी बात को बारबार कहने पर भी भूल जाया करते हैं.

रिसर्च बताती हैं कि किताबें पढ़ने से न केवल आप स्मार्ट बनते हैं बल्कि उम्र बढ़ने के साथसाथ यह आप को शार्प और एनालिटिकल भी बनातीहैं. किताबें हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा होती हैं. असल में किताबें बिलकुल एक पार्टनर की तरह होती हैं, उन के बिना व्यक्ति खुद को अकेला महसूस करता है.

                                                        

किताबेंपढ़ने से लाभ

किताबें पढ़ने और इसके प्रकाशन को बढ़ावा देने के लिए हर साल 23 अप्रैल को दुनियाभर के लोग वर्ल्ड बुक डे मनाते हैं. लेकिन इस दिन का महत्त्व तभी है जब यह दिन हर रोज मनाया जाए यानी हर दिन कुछ न कुछ छपा हुआ पढ़ा जाए. ऐसा माना जाता है कि नियमित रूप से किताबें पढ़ने से तनाव कम होता है, एकाग्रता, याद्दाश्त और विनम्रता बढ़ती है और कम्युनिकेशन स्किल्स में भी सुधार आता है. किताबें हमें नईनई चीजें सिखाती हैं और हमें अपने काम व रिश्तों में कामयाब होने में मदद करती हैं. कुछ लाभ निम्न हैं-

  • शब्दों और भाषा का ज्ञान होना,
  • अल्जाइमर और डिमैंशिया से बचना,
  • तनाव कम करना,
  • ज्ञान बढ़ना,
  • याद रखने की क्षमता को बढ़ाना,
  • फोकस और एकाग्रता का बढ़ना,
  • आत्मविश्वास बढ़ाना,
  • अच्छी नींद आना,
  • लेखन क्षमता को बढ़ाना आदि.

आज किताबों को कम पढ़े जाने को लेकर टीवी सैलेब्स भी चिंतित हैं और वे अपना संदेश लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. क्या कहते हैं वे, आइए जानें-

 

निहारिका राय

धारावाहिक ‘प्यार का पहला नाम राधा मोहन’ की अभिनेत्री निहारिका राय कहती हैं, ‘‘मैं अपने खाली वक्त में हमेशा किताबें पढ़ती हूं. किसी भी दिलचस्प नोवेल को पढ़कर हमेशा मुझे खुशी मिलती है और मैं थका देने वाले शूट शैड्यूल में भी तनावमुक्त महसूस करती हूं.

““मैं बताना चाहूंगी कि मेरे बचपन से ही मेरी किताबों का कलेक्शन बढ़ता जा रहा है. किताबें वाकई आपको एक व्यक्ति के रूप में विकसित होने में मदद करती हैं. ये कभीकभी आपका सपोर्ट सिस्टम भी बन जाती हैं.

“”मैंने यही महसूस किया है. जब भी मुझे निराशा महसूस होती है, मैं एक किताब पढ़ना शुरू कर देती हूं और इससे वाकई मुझे अंदर से खुशी मिलती है. किताबें पढ़ने के असली फायदों को देखते हुए मैं सभी को यह सलाह देना चाहूंगी कि वे महीने में कम से कम एक किताब जरूर पढ़ें.””

 

अनुष्का मर्चंडे

धारावाहिक ‘मैं हूं अपराजिता’ में छवि का रोल निभा रहीं अभिनेत्री अनुष्का मर्चंडे बताती हैं कि जिस पहली किताब ने उन की जिंदगी के प्रति नजरिया बदल दिया था, वह थी रिजर्ड बक की ‘जौनेथन लिविंगस्टन सीगल’. इससे उन्हें चीजों को देखने का एक नया नज़रिया मिला.

वे कहती हैं,““असल में इस किताब को पढ़ने के बाद ही मुझे महसूस हुआ कि मुझे ऐसी विचारोत्तेजक कहानियां पढ़ना पसंद हैंजो मुझे एक इंसान के रूप में आगे बढ़ने में मदद करें. जब भी मुझे खाली वक्त मिलता है, मैं एक नया उपन्यास पढ़ती हूं. मैं बताना चाहूंगी कि जब भी मैं कोई दिलचस्प नोवेल पढ़ती हूं, तो मैं अपने बिजी शूट शैड्यूल के बावजूद बड़ा खुश और तरोताजा महसूस करती हूं.

““कोई किताब पढ़ना एक और जिंदगी जीने जैसा है और इससे मुझे बेइंतहा खुशी मिलती है. मैं सभी को यह सलाह दूंगी कि हर दिन एक नोवेल के कुछ पन्ने जरूर पढ़ें.””

वे आगे कहती हैं,““अपनी पसंद की किताबों के बारे में बात करूं, तो ये अलगअलग विषय की किताबें हैं, जैसे मुझे ऐतिहासिक, बायोग्राफिकल, हैल्थ और फिक्शन जैसे अनोखे जोनर्स की किताबें पढ़ना अच्छा लगता है. इस समय मेरी फेवरेट बुक्स हैं- ऐलेना अरमास की ‘द स्पैनिश लव डिसैप्शन’, ऐना हुआंग की ‘ट्विस्टेड लव’ और ऐसी ही कई अन्य किताबें हैं.

““मुझे स्टिफेनी मेयेर और कालीन हूवर का काम भी बहुत पसंद है, जिन्होंने मुझे प्रेरित और प्रभावित किया. इसके अलावा कान्स्टैंटिन स्टेनिस्लाव्स्की की ‘बिल्डिंग अ कैरेक्टर’ हर ऐक्टर के लिए पढ़ने लायक किताब है, क्योंकि इसमें व्यक्ति की कला को निखारने के लिए कई नायाब टैक्निक्स बताई गई हैं.””

किताबों के छूटने से भाषा से कनैक्टिविटी खत्म हो गई है- गालिब असद भोपाली

‘दुनिया’,‘इंसाफ’,‘रजिया सुल्तान’ से लेकर ‘मैं ने प्यार किया’ तक लगभग 100 सफलतम फिल्मों के गीतकार असद भोपाली कभी नहीं चाहते थे कि उनकी संतान गालिब असद भोपाली फिल्मी दुनिया से जुड़े.मगर गालिब असद भोपाली के सिर पर फिल्मों में ही काम करने का जनून सवार था.12वीं की पढ़ाई पूरी कर वे राजश्री प्रोडक्शन के दफ्तर में अभिनेता बनने के लिए पहुंच गए,जहां उन्होंने कुछ समय बतौर सहायक लेखक जलीस शेरवानी के साथ काम किया.फिर बतौर सहायक, निर्देशक प्रदीप मैनी के साथ काम किया. उस के बाद ज्योतिस्वरूप के साथ बतौर घोस्ट लेखक काम किया. और सीरियल‘शक्तिमान’ से स्वतंत्र लेखक के रूप में शुरुआत की.तब से अब तक वे कई सफलतम व विचारोत्तेजक फिल्मों व सीरियलों का लेखन कर चुके हैं. इन दिनों गालिब असद भोपाली की चर्चा कुशान नंदी निर्देशित फिल्म ‘जोगीरा सारा रा’ को लेकर हो रही है,जिसका उन्होंने लेखन किया है.

हाल ही में गालिब असद भोपाली से उनके घर पर मुलाकात हुई. उस वक्त उनसे बदलते हुए समाज,युवा पीढ़ी की सोच,दर्शक,भाषा और लोगों में पढ़ने की कम होती आदत से ले कर कई अन्य अहम मुद्दों पर लंबी बातचीत हुई.गालिब असद भोपाली के पिता असद भोपाली लेखक रहे हैं. जब उन से पूछा कि क्या उन्होंने अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए लेखन को ही कैरियर बनाने की सोचा,तो वे कहते हैं, “”मुझे बचपन से ही फिल्मों में काम करना था.मेरी सोच यह थी कि मैं अभिनेता बनूं,या स्पौट बौय, लेखक या निर्देशक बनूं. मगर यह तय था कि फिल्मों में ही काम करना है.मजेदार बात यह थी कि मेरे पिताजी फिल्म इंडस्ट्री से सख्त नफरत करते थेऔर मेरा स्वभाव विद्रोही किस्म का था.मैं हमेशा पिताजी के खिलाफ सोचा करता था. वे जिस काम को करने के लिए मना करते,मैं वही काम करता.””

गालिब असद भोपाली के पिता असद भोपाली वैसे तो फिल्मी गीत लिखा करते थे पर फिल्मों में काम करने के खिलाफ थे, इस पर गालिब कहते हैं,“वे फिल्मों से मेरे जुड़ने के नहीं, बल्कि फिल्मों के ही खिलाफ थे.उनके अपने अनुभवों के अनुसार उन्हें लगता था कि फिल्म इंडस्ट्री अच्छी जगह नहीं है. यहां सुरक्षा नहीं है. वे हमेशा कहते थे, ‘मुझे फिल्मलाइन पसंद नहीं है.’मेरे पिताजी ने लोगों को फिल्मलाइन में संघर्ष करते हुए देखा था.मैं ने भी अपने कुछ दोस्तों को संघर्ष करते हुए देखा है.मैंने अपने पिताजी से कहा था कि मुझे दूसरा काम आता नहीं है, इसलिए मुझे फिल्मों में ही काम करना है.

““मुझे लगता था कि मैं डाक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकता.कला के क्षेत्र में ही कुछ कर सकता था, तो फिल्मों के अलावा कोई जगह मेरी समझ में नहीं आ रही थी.पिताजी की नजरों में फिल्मी दुनिया अच्छी जगह नहीं थी.वे बहुत संस्कारी इंसान थे. शायरी करते थे,गीत लिखते थेलेकिन उनकी नजर में फिल्म इंडस्ट्री संस्कारी जगह नहीं लगती थी.वे खुद गीतकार थेमगर घर के अंदर किसी भी इंसान को गाना गुनगुनाने की इजाजत नहीं थी.हमघर में गाना नहीं गा सकते थे.””

वे आगे कहते हैं,““जैसे हम सिगरेट पीते हैंपर अपने बच्चों के सामने नहीं पी सकते.क्या सिगरेट पीना इतना बुरा है?या बच्चों का सिगरेट पीना बुरा है? तो यह दोहरा व्यक्तित्व पूरे समाज का है.आप इसे देाहरा चरित्र कह सकते हैं,पर है जरूर.यह अपने लिए अलग है और दूसरों के लिए अलग है.मेरी अपनी कोशिश रहती है कि मैं वैसा न करून,मैं दोहरा चरित्र न जियूं.मैं अपने परिवार,बच्चों, रिश्तेदारों व दोस्तों को पूरी छूट देने का प्रयास करता हूं कि वे जैसा करना चाहते हैंवैसा करें.मैं वैसा करता हूंजैसा मैं चाहता हूं.””
गालिब कहते हैं,““मेरी राय में दोहरापन कम नहीं हुआ,बल्कि लोगों ने दोहरापन को छिपाना शुरू कर दिया है.आप ट्रेलर में देखेंगे तो लगेगा कि जबरदस्त ट्रोलिंग होने वाली है.तो ट्रोलिंग का जो डर हैवह उसे छिपाने का प्रयास करता है.यह कहना गलत होगा कि हमारी पितृसत्तात्मक सोच बदल गई है.

““यह कहना भी गलत है कि अब लोग ज्यादा मौडर्न हो गए हैं.यह कहना भी गलत होगा कि अब पुरुष अपने घर की स्त्रियों का सम्मान करने लग गएहैं.लेकिन अब ट्रोलिंग के डर से लोगों को यह सब छिपाना आ गया है.अब लोग आजादखयाल होने का थोड़ा सा ढोंग करने लगे हैं.सही मानोमें अभी लोग आजादखयाल हुए नहींहैं, वक्त लगेगा. जैसेजैसे लोग पढ़लिख जाएंगेवैसेवैसे बदलाव आएगा.हमारे देश में लोग पढ़ेलिखे कम हैं.लोग जितना पढ़ेलिखें होंगेउतना ही वे समझदार होंगे,उतने ही उनके पास विकल्प होंगे.””जब उन से पूछा गया कि सफलता पाने के लिए इंसान के अलग मापदंड बने हुए हैं और घर के अंदर उसके मापदंड अलग हैं, ऐसा क्यों, तो वे कहते हैं,““सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं, पूरे विश्व में ऐसा है.मैं ने यह सब रशियन व अन्य देशों की फिल्मों में भी देखा है.इन फिल्मों में ऐसे किरदार गढ़े जाते हैं और उनका मजाक भी उड़ाया जाता है. शायद यह मानवीय मनोविज्ञान है.इंसानी स्वभाव है.

““मैं अपने घर में लोगों से कहता हूं कि लोग तुम्हें अच्छी या बुरी बात बोलते हैं,तो वे यह सोचकर बोलते हैं कि वे अच्छा बोल रहे हैं. वे समझते हैं कि वे आपको अच्छी सलाह दे रहे हैंजबकि उन्हें बताने की जरूरत नहीं है कि वे आपको बताएं कि आपको क्या करना है.मैं यहां पर आपको अपने पिताजी की इसी संदर्भ में एक शायरी सुनाता हूं-‘सूरते रोज बदल देते हैं जिंदानों (जिंदान का अर्थ है- जेल) की,होशमंदों को बड़ी फिक्र है दीवानों की.’ मतलब कि बुद्धिजीवी वर्ग को बड़ी फिक्र है कि दुनिया में ये जो पागल हैंइनका क्या होगा.तो उनकी जेल वे हमेशा बदलते रहते हैं.यह बुद्धिजीवी लोग हमें बताते रहते हैं कि हमें कैसे अपनी जिंदगी जीनी है,कैसे जिंदगी को अच्छा किया जा सकता है.कुछ लोग दूसरों की जिंदगी में दखलंदाजी करना अपना कर्तव्य समझते हैं. वे खुद कैसे जी रहे हैं, उस पर उनका अख्तियार नहीं है, तो वे कुछ कर भी नहीं सकते.””

गालिब का मानना हैकि इंसान के दोहरेपन का भाषा से कोई ताल्लुक नहीं है.यह इंसानी स्वभाव है.बच्चों को झूठ बोलना तो बड़े ही सिखाते हैं. वे कहते हैं,““मैं ने कोशिश की कि अपने बच्चों के साथ वह न करूं जो आमतौर पर हर मांबाप अपने बच्चे के साथ करता है.बच्चे के गिर जाने पर जमीन पर हाथ मार कर कहते हैं कि लो हमने इसे मार दिया या देखो चींटी मर गई.”“वे मानते हैं कि बच्चे से अकसर झूठ बोलते हैं.वह रो रहा होता हैतो हम उससे कहते हैं कि बस,मैं 5 मिनट में आ रहा हूंतो यह पूरा हमारे यहां का संस्कार है.यह हमारे अंदर से है.जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी तक चलता रहता है.यही हाल हमें नजर आता रहता है.प्रतिस्पर्धा की भावना भी बच्चे को बचपन से सिखाई जा रही है कि तुम्हेंक्लास में प्रथम ही आना है.लोग खुद को देखने के बजाय खुद को ‘जज’ करने के लिए दूसरों को देखते हैं.”

वे कहते हैं,“18 वर्ष में लोग बालिग हो जाते हैं.घर के संस्कारों के अनुरूप 13-14 वर्ष की उम्र तक हर बच्चा अपने मापदंड बनाता है.कुछ चीजें सीखता है,कुछ चीजें अपने लिए सोचता है कि जिंदगी में ऐसा करना चाहिएजिसे वह20-22 की उम्र तक अपनी जिंदगी पर अप्लाई करता है.फिर वह जो कुछ देखता हैउसअनुभव के आधार पर वह 22 वर्ष तक जो कुछ सोचा होता है,उसमें से छंटनी करना शुरू कर देता है.वह सोचने लगता है कि ये सब किताबी बातें हैं,हमें मूर्ख बनाया गया है.तब वह अपने जीवन में नई आइडियोलौजी तैयार करता है.”गालिब कहते हैं,““यह आइडियोलौजी 40 से 45 वर्ष तक चलती हैजो कि उस की व्यावहारिक जिंदगी का हिस्सा बन जाती है.वह व्यावहारिक जिंदगी में हर बात को अप्लाई करके देखता है. उसी के साथ वह बदलाव व छंटनी करना शुरू करता है. उसे लगता है कि वह जो कुछ कर रहा है, सही कर रहा है. पर यह एक प्रोसैस होता है.यह प्रोसैस जिंदगी के अंत तक चलता है.

जब जिंदगी अपने अंतिम पड़ाव पर होती हैतब इंसान को लगता है कि उसने क्या सही किया और क्या गलत.यह प्रोसैस पूरी पीढ़ी का होता है.यही वजह है कि जिस ढंग से दर्शक बदलता है,उसी तरह से फिल्में बदलती हैं.””जब उन से पूछा गया कि देश की सरकार बदलने से सिनेमा में क्या अंतर आता है तो वे कहते हैं, ““सरकार व सिनेमा का बदलना वास्तव में समाज का, इंसान का बदलना है.जब समाज की सोच बदलती है,तभी सरकार बदलती है,तभी सिनेमा बदलता है.जब समाज की सोच बदलती है तो लेखक से लेकर निर्देशक-निर्माता सब की सोच बदलती है.आखिर यह सब भी तो समाज का ही हिस्सा हैं.फिल्म व सरकार सब समाज का ही हिस्सा हैं.”

“”आप यदि गौर करें तो पाएंगे कि पुरानी फिल्मों में आदर्शवाद था,क्योंकि तब लोगों में आदर्शवाद था.उस वक्त आदर्शवादी फिल्में लोगों को भा रही थीं.जब लोगों से आदर्शवाद गायब हुआतो उन्हें लगा कि फिल्मों मेंये कौन सी बातें हो रही हैं,हकीकत में ऐसा नहीं होता.तब सिनेमा यथार्थवाद में आया,फिर काल्पनिक दुनिया में आयाक्योंकि यथार्थवाद में मनोरंजन नहीं मिल रहा था.“”यथार्थवादी फिल्मों में कड़वाहट थी,जिससे छुटकारा पाने के लिए ही लोग काल्पनिक कहानियों वाले सिनेमा की तरफ मुड़े.तो जिस तरह समाज बदल रहा है,उसी तरह से सिनेमा और सरकार बदल रही है.पीढ़ी बदल रही है.एक आदर्शवादी पीढ़ी थी,तो दूसरी आज की पीढ़ी हैजो प्यार के बारे में बात ही नहीं करती.

“”आज की पीढी प्यार के बजाय येबातें करती है कि ‘आई लाइक यू’,‘आई लाइक टू स्पैंड टाइम विथ यू’.यह पूरी पीढ़ी का अंतर है.आज की पीढ़ी कमिटेड तक हो जाएगी,पर प्यार नहीं करेगी क्योंकि उस के अनुसार प्यार वास्तविक चीज नहीं बल्कि काल्पनिक चीज है, अव्यावहारिक चीज है.यही बात आपको 26 मई को प्रदर्शित हो रही हमारी फिल्म ‘जोगीरा सारा सारा’ में नजर आएगी,जिसकी कहानी मैं ने लिखी है.
““आज की पीढ़ी पूरी तरह से प्रैक्टिकल हो गई है, तो भाषा नहीं बल्कि पूरी एक पीढ़ी की सोच का परिणाम है.हमारे पूर्वज जो करते आए हैंउसे उसे आज की पीढ़ी वाले अपने हिसाब से कसते हैं,उसमें छांट कर अपना अलग नजरिया बनाते हैं.यह प्रोसैस चलता रहता है और पूरा सर्कल होने के बाद हम फिर वहीं पहुंचते हैं जहां हम पहले कभी थे.इसीलिए कहा जाता है कि इतिहास अपनेआपको दोहराता है.””

फिल्म ‘जोगीरा सारा रा’ की कहानी के आइडिया को ले कर वे बताते हैं,““फिल्म लेखन का अपना एक अलग तरीका है.लेकिन इस फिल्म को लेकर हमारा थौट प्रोसैस यह था कि जब हमने ‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ लिखी थी,तो हमारी समझ में आया कि हमारी गलती यह रही कि हमने एक ‘एडल्ट’ फिल्म बना डाली थी. उस फिल्म के समय हमारी समझ में आया था कि अगर हमारी फिल्म एडल्ट न होतीतो ज्यादा दर्शक मिलते.“”तो हमने सोचा कि इस बार हम पारिवारिक फिल्म बनाएं.टैबू वगैरह के बजाय एक साधारण पारिवारिक फिल्म बनानाचाह रहे थे.तो हमने मनोरंजक पारिवारिक फिल्म बनाने की सोची.कहानी पर विचार आया कि किरदार आधारित कहानी हो.हमने सोचा कि एक जुगाड़ू किरदार होजो सारी चीजों का जुगाड़ करता है.दूसरों की शादी करवाता है,पर खुद शादी नहीं करता.वह किसी की शादी तुड़वाता है और फिर खुदशादी के चक्कर में फंस जाता है.

“”इसी लाइन को हमने विस्तृत किया. पहले विचार यह आया था कि एक बेचारा पुरुष परिवार की ढेर सारी औरतों के बीच में फंसा हुआ है.वह मैं स्वयं हूं.जब मेरे भांजे का जन्म हुआ थाउस वक्त मेरे घर में मेरी मां,मेरी बहन,भांजी,मेरी पत्नी व मेरी 2 बेटियां थीं.यानी, मेरे अलावा सारी औरते हैं.इसलिए हम इस कौन्सैप्ट पर काम कर रहे थे कि कैसे सारी औरतों को खुश रखा जा सकता है.क्या आपको एहसास है कि सासननद,ननदभावज,सासबहू के बीच क्या होगा. जब यह पुरुष सभी की सुनेगातो इसका क्या हाल होगा.
“”हालांकि मेरे साथ इतना बुरा नहीं हुआपर मैं कल्पना कर सकता हूंतो मुझे लगा कि यह किरदार मजेदार हो सकता है.तो फिर सोचते हुए यह बात दिमाग में आई कि यह किरदार शादी नहीं करता है, बल्कि दूसरों की शादी करवाता है.तब लगा कि अच्छी कहानी बन सकती है.जब हमने लिखातो कहानी अच्छी बन गई.””

शादी तुड़वाने वाले कौन्सैप्ट पर ‘जोड़ी ब्रेकर’ सहित कई फिल्में बन चुकी हैं. इस मामले में वे बताते हैं,““इस विषय पर इंग्लिश फिल्में भी बन चुकी हैं.पर मेरा मानना है कि कहानियां एकदूसरे से मिलतीजुलती होती ही हैं.कुल मिलाकर कहानियां सीमित हैं.मेरा मानना है कि कहानी बहुत थिन लाइन होती है.एक मां,जिसके 2 बेटे. एक अच्छा या एक बुरा.अब वह फिल्म ‘गंगा जमुना’ या ‘दीवार’ भी हो सकती है. हमने इस बात पर गौर किया कि हम क्या नया कर सकते हैं.यदि आपको यह ‘जोड़ी ब्रेकर’ लगती हैतो हमने उसमें कुछ नयापन लाने की कोशिश की है.”

‘जोगीरा सारारारा’ में ‘लव मैरिज’ का तड़का भी लगाया गया है. इस विषय पर गालिब कहते हैं, “”हमारी फिल्म में प्यार नहीं आया है.हमारी फिल्म 2 ऐसे किरदारों की कहानी है जिन्हें पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं, पर करते जा रहे हैं.ऐसे 2 लोगों की कहानी नहीं हैजो साथ में चलतेचलते प्यार हो गया.हमारी पत्नी रेखा की सलाह थी कि इन्हें प्यार नहीं होना चाहिए.हमारे लिए यही सबसे बड़ी चुनौती थी. पर बाद में हमें लगा कि ‘फील गुड’ के लिए इनका कुछ हो जाना चाहिए.तो वह हमने किया है,मगर प्यार नहीं हुआ है.””
कुछ लोगों की नजर में आज की तारीख में युवा पीढ़ी का प्यार कौफी डे से शुरू और कौफी डे पर ही खत्म हो जाता है. जब उन से पूछा कि समाज में जो बदलाव आया हैउसमें प्यार क्या है? तो इस के जवाब में वे कहते हैं,““मैं वही बता रहा था कि अब प्यार नहीं रहा.अब प्यार अव्यावहारिक चीज हो गया है.नई पीढ़ी के लिए प्यार किताबी बातें हैं.आज की पीढ़ी के पास कई टर्म्स आ गए हैं.

“”यानी कि आज की पीढ़ी वाले अपनी भावनाओं को बहुत अलग तरीके से व्यक्त करने लगे हैं. वे प्यार की बातें करने के बजाय कहते हैं कि वे एकदूसरे के प्रति कमिटेड हैं.प्यार नहीं रहाजबकि ‘लिव इन रिलेशनशिप’ भी होने लगा है. वे प्यार नहीं मानते.युवा पीढ़ी के लिए प्यार भावनात्मक कमजोरी है.वर्तमान समय में प्रैक्टिकल में जीने वाली युवा पीढ़ी प्यार को मानती ही नहीं.युवा पीढ़ी जिंदगी को अपनी नजरों से देखती है.उसे लगता है कि पिछली पीढ़ी ने जो किया,वह नहीं करना चाहिए था.
“”जैसा कि मैं ने बताया कि पहले आदर्शवादी हीरो हुआ करता था.नई पीढ़ी को लगा कि यह क्या बात हुई.देश के लिए जान दे दी,पर देश ने तो हमको कुछ दिया नहीं.फिर वह हीरो आया जो सभी नेताओं को गोली मारने लगा.फिर करप्शन का दौर आया.इसी तरह प्यार के मसले पर भी आज की पीढ़ी हर टैबू को तोड़ने पर आमादा है.फिर नारीवाद का दौर आया.फिल्मकार दिखाने लगा कि औरतें कुछ भी कर सकती हैं.ऐसे में वे औरतें बिना प्यार के भी किसी के भी साथ रह सकती हैं.

“”पुराने समय से कहा जाता रहा है कि प्यार किसी एक से होता है.हालांकि, करण जौहर ने अपनी फिल्म में एक के मरने के बाद दूसरे से करवाया.लेकिन उस वक्त भी उनका तर्क यही था कि जिंदा में तो एक से ही हो सकता है.मेरे दोस्त हैं,मनोज पुंज.उन्होंने कहा था कि जरूरी तो नहीं कि एक से ही प्यार हो.दो लोगों से भी प्यार हो सकता है.मैं ने उनसे कहा था कि हो सकता है,मगर हमारे यहां जो चलता आया हैउसके अनुसार उसे प्यार नहीं व्यभिचार माना जाएगा.

“”आज की नई पीढ़ी कहती है कि हमें एक नहीं,50 से प्यार हो सकता है. कर लीजिए, आपको जो करना हो.तो चीजें तेजी से बदलने लगी हैं.‘कौफी डे’ यानी कि सीसीडी वाला प्यार,प्यार नहीं है.वह सिर्फ एक सुख की अनुभूति है.उस वक्त उन्हें किसी के साथ बैठकर कौफी पीना अच्छा लगता है.आज की युवा पीढ़ी को कुछ समय के सुख के लिए शारीरिक संबंध बनाने से परहेज नहीं है,मगर वह उसे प्यार का नाम नहीं देती.आज के युवा सामाजिक बंधनों को अहमियत नहीं देते. उन्होंने अपना अलग समाज बनाया हुआ है.
“”लोग ‘लिवइन रिलेशनशिप’ में इसलिए जाते हैंक्योंकि उन्हें शादी वाला सामाजिक बंधन नहीं चाहिए.पर वे अपने स्टेटस में ‘कमिटेड’ शब्द का उपयोग करते हैं. वेशादी वाले सारे बंधन लागू करते हैं.पर कहते हैं कि हम सामाजिक बंधन में यकीन नहीं करते. ये हमारे अपने बंधन हैं.यह पूरी तरह से कन्फ्यूजन है.ऐसा पीढ़ीदरपीढ़ी प्रयोग के तौर पर चल रहा है.अगली पीढ़ी हमेशा खराब मानी जाएगीक्योंकि वह पिछली पीढ़ी को नकारती है.””

पिछली बार निर्मातानिर्देशक को‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ से सैंसर बोर्ड से काफी परेशानी हुई थी.तब ‘एफसीएटी’ फिल्म ट्रिब्यूनल से मदद मिली थी. पर अब सरकार ने ‘एफसीएटी’ बंद कर दिया है.इससे फिल्म निर्माता पर क्या असर पड़ा है, इस सवाल पर गालिब कहते हैं,“सैंसर बोर्ड को तो अभी भी अदालत में चुनौती दी जा सकती है.सच कहूं तो सैंसरबोर्ड का होना कितना तार्किक है,मुझे नहीं पता. पर मेरी राय में फिल्म ट्रिब्यूनल के पास जाने वाला प्रोसैस ही गलत था.इतना ही नहीं, आज की तारीख में भी हमें सैंसर बोर्ड की गाइडलाइन्स ठीक से पता नहीं है.मेरी राय में फिल्म के प्रमाणीकरण का मसला सैंसर बोर्ड में ही निबट जाना चाहिए.अदालत जाने की जरूरत नहीं आनी चाहिए.””

लोगों में अब पढ़ने की आदत खत्म हो गई है. इस पर वे कहते हैं,““इसमें कुछ अच्छाई है,तो कुछ बुराई है.गांधीजी कहते थे, ‘जिन्हें किताब पढ़ने का शौक है, वे कभी अकेले नहीं रहते.’तो इंसान के अकेलेपन का साथी किताबें हैं.किताबें तो आपकी दुनिया से बाहर की दुनिया है.किताबों की कहानी कह लें या किताबों का ज्ञान कह लें,यह आपकी बाहर की दुनिया हैजिसे आप अपने कमरे में बैठकर आत्मसात करते हैं.
““किताब में किसी काल्पनिक लोक की बात की गई हैतो आप उसे पढ़ते हुए वहां तक पहुंच सकते हैंलेकिन आज की तारीख में अगर आपको वही चीज मोबाइल,लैपटौप या अन्य माध्यम से मिल रही है तो मुझे नहीं लगता कि उसे छोड़कर लोगों को किताबों की तरफ मुड़ना चाहिए.यह आपकी प्रगति है.यह आपकी वैज्ञानिक व साहित्यिक प्रगति ही है. आपके हाथ में एक लेखक की कोई किताब होगीतो आप सिर्फ उस तक ही सीमित रहेंगेजबकि आपके हाथ में किताब के बजाय मोबाइल होतो उस में हजार किताबें भी हो सकती हैं.

“”किताबों के छूटने का जो नुकसान हुआ हैवह यह है कि भाषा से कनैक्टिविटी खत्म हो गई हैलेकिन जिस तरह हम पूरी दुनिया से जुड़ रहे हैं,भाषा बैरियर के तौर पर आ जाती है.मसलन,मेरी भाषा हिंदी है. मैं ‘हिंदी मीडियम’ से पढ़ा हुआ हूं,मुझे इंग्लिश अच्छी नहीं आतीतो मुझे यह कमी लगती है.अगर मुझे इंग्लिश ज्यादा अच्छी आ रही होतीतो मैं ज्यादा लोगों से संपर्क करने,उनसे बातचीत करने में सक्षम हो पाता.मैं ज्यादा लोगों तक पहुंच पाता.

““तो भाषा कहीं पर आपका बहुत बड़ा हथियार हैतो कहीं पर वह आपकी कमजोरी भी है.जब आपके हाथ से किताबें छूटती हैंतो भाषा भी छूटती है.जब भाषा छूटती हैतब साहित्य व काव्य से नाता टूटता है.मैं इसे ‘जज’ नहीं कर रहा.पर ऐसा ही हो रहा है.लोग मानते हैं कि यह बुरा है, पर मैं ऐसा नहीं मानता.मेरा मानना है कि जब आप एक सीढ़ी आगे बढ़ते हैं तो आपको पिछला एक पायदान छोड़ना ही पड़ता है.आप पिछले पायादान का मोह नहीं कर सकते.””

आमतौर पर अब मोबाइल पर फिल्म या कंटैंट देखा जा रहा है. देखने के बाद इस से सोच पर असर पड़ रहा है. जबकि किताब पढ़ते समय जोकुछ पढ़ते हैं,उसको लेकर सोच बढ़तीहै. इस पर गालिब कहते हैं,““आपकी बात से सहमत हूं कि किताबें पढ़ने से कल्पनाशक्ति बेहतर हो सकती है.लेकिन आप जब भी कल्पना करते हैंतब आपकी अपनी स्मृति में या आपके दिमाग में जो डेटा संचित है,उसी से कल्पना कर सकते हैं.आपने जो सड़कें देखी होंगी, उन्हीं सड़कों की आप कल्पना कर सकते हैं.आप उन सड़कों की कल्पना किताब पढ़ने के बावजूद नहीं कर सकते जिन्हें आपने न देखी हो.पर मोबाइल पर आपने 10 हजार प्रकार की सड़कें देखी हैं,तो आपके लिए 10 हजार तरह की सड़कों की कल्पना करना संभव है. आप उसकी गहराई में जा सकेंगे कि वह जा कौन सी सड़क पर था.

“”उस वक्त आप अपनी स्मृति से परे जाकर विचार करेंगे कि यह तो अंगरेज आदमी है.इसका अर्थ यह हुआ कि यह सड़क इस जगह नहीं, बल्कि शायद ब्रिटेन की होगी. पर मैं ने ब्रिटेन तो देखा ही नहीं.मैं मोबाइल पर ब्रिटेन देख सकता हूं,पर किताब में नहीं देख सकता.मैं किताब में उसी ब्रिटेन की कल्पना कर सकता हूंजिस ब्रिटेन को मैं ने किसी अन्य किताब में देखा हो.तो वह हमारी अपनी दुनिया है.किताबें आपको अपनी दुनिया से बाहर ले जाती हैंलेकिन आपकी अपनी ही दुनिया में किताबें एक और दुनिया भी बना सकती हैं,जैसेकि आप सपने में देखते हैं.सपने में आप वही देखते हैंजो आपने सोचा हुआ हो.अवचेतन आपको ऐसी चीजें बताता हैजिसे आपको लगता है कि आप नहीं जानते,जबकि आप जानते होते हैं.””
लेखन में समाज के बदलाव के साथ किस तरह से बदलाव आए हैं, इस पर ग़ालिब बताते हैं,““मैं यह निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि क्या बदलाव आया.पर मैं जिस तरह से चीजों को देखता रहता हूंवह कहीं न कहीं मेरे लेखन में लक्षित होता रहा है.मेरे आसपास समाज में जो कुछ हो रहा होता है,उसे एक कलाकार के तौर पर आब्जर्व करनामेरा काम है.मैं खुद को क्रिएटिव इंसान मानता हूं.लोग भी लेखन को क्रिएटिव काम मानते हैं.मैं लेखन को ‘क्रिएटिव’ नहीं,बल्कि ‘रीक्रिएशन’ मानता हूं.मतलब लेखन नकल ही है.हम संसार में जो कुछ देखते हैं,उसे ही लिखते हैं.””

वे आगे कहते हैं,““समाज के बदलाव का मेरे लेखन में फिल्मदरफिल्म जो बदलाव आया हैउसका कोई रास्ता नहीं है. क्योंकि मुझे जब जो करने का अवसर मिला, मैं ने किया.मैं ने हर तरह का काम किया. मैं सहायक लेखक,फिर सहायक निर्देशक रहा.जैसेजैसे चीजें बदलती गईं,वैसेवैसे मेरा लेखन बदलता गया.सबसे बड़ा फर्क यह है कि पहले अलग तरह के ‘टारगेट औडियंस’ के लिए लिखते थे, अब ‘टारगेट औडियंस’ बदल गए हैं. तो अब हमें नए वर्ग के दर्शकों के हिसाब से लिखना पड़ता है.””

गालिब बताते हैं कि टारगेट आडियंस चुनने के लिए ज्यादातर निर्माता या निर्देशक तय करते हैं कि उनकी फिल्म देखने कौन जाएगा.जब हम कोई ट्रेलर देखते हैंतो तुरंत कह देते हैं कि अरे, इसे कौन देखेगा?जब मैं टीवी सीरियल लिखता थातब भी यही होता था कि यह सीरियल इस तरह के दर्शकों के लिए है,वही अब फिल्मों के लिए है.तो अब हम सोचते हैं कि क्या टीनएजर हमारी फिल्म देखेगा? क्या बड़ी उम्र के दर्शक फिल्म देखेंगे?वे कहते हैं,““कुछ माह पहले राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘उंचाईं’ आई थी.तब हमारे बीच बहस इस बात पर हुई थी कि इस फिल्म को कौन देखने जाएगा?क्या बुजुर्ग इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमाघर जाएंगे, क्या रिकशावाला या क्या टीनएजर इस फिल्म को देखेगा? फिल्म बहुत अच्छी है,पर सवाल था कि इसका दर्शक कौन होगा? आखिर यह फिल्म किन लोगों के लिए बनाई गई है? यह समझना आवश्यक है,जो किसी की भी समझ में नहीं आता.

“”यदि हम इस सच को समझ जाते तो सुपरहिट फिल्में बना रहे होते. हम सभी एक अनुमान के अनुसार काम करते हैं.इस अनुमान को करते समय 2बातों पर गौर करते हैं कि किन्हें और किस तरह का मनोरंजन चाहिए? दूसरा कि मनोरंजन के लिए कौन खर्च करना चाहेगा? मसलन, घर की औरतें तो अपने पति से ही कहेंगी कि हमें यह फिल्म देखनी है? ऐसे में पति ही तय करेगा कि घर की औरत कौन सी फिल्म देखे और कौन सी न देखे.ऐसे में यदि हम पारिवारिक फिल्म बना रहे हैं तो हमें यह सोचना पड़ता है कि हम ऐसी पारिवारिक फिल्म तो नहीं बना रहेजिसे पति अपनी पत्नी या घर की औरतों को न दिखाना चाहे?”

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