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Summer Special: गरमी में खाएं ये फल, होंगे ये फायदे

गर्मियों में  खरबूज सब से ज्यादा पसंद किया जाने वाला फल है. तरबूज की तरह ही खरबूज में भी पानी काफी मात्रा में पाया जाता है, जो गर्मियों में शरीर में पानी की कमी नहीं होने देता. यही नहीं खरबूज में भरपूर मात्रा में शर्करा, कैल्सियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम, विटामिन ए, विटामिन सी, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट आदि तत्व पाए जाते हैं, जो शरीर में कई पोषक तत्वों की कमी को दूर करते हैं. ज्यादातर लोग खरबूज का जूस बना कर पीना पसंद करते हैं, आइए, जानते हैं इस के फायदे –

खरबूजा: मस्तिष्क तक ऑक्सीजन पहुंचाता है

खरबूजे में पाए जाने वाला तत्व पोटेशियम मस्तिष्क तक ऑक्सीजन सप्लाई को बढ़ाने में मदद करता है. इसे खाने से दिमागी तनाव कम होता है. इस के अलावा इस में कई तरह के सुपरऑक्साइड गुण भी पाए जाते हैं जो रक्तचाप को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं. जिस से दिल से संबंधित रोगों का खतरा कम हो जाता है.

विटामिन ए की कमी होती है दूर

खरबूजे का नियमित सेवन करने से शरीर में विटामिन ए की कमी दूर होती है. प्रदूषण की वजह से शरीर में विटामिन की मात्रा बहुत कम हो जाती है, इसलिए खरबूज खाने से फेफड़े स्वस्थ रहते हैं, जो लोग धूम्रपान करते हैं, उन के लिए भी खरबूजा लाभदायक होता है.

कैंसर सेल्स को फैलने से रोकता है खरबूज

खरबूज में पाए जाने वाले बीटा कैरटिन और विटामिन सी शरीर के कई घातक कणों (रेडिकल्स) को शरीर से बाहर करने में मदद करते हैं. ये घातक कण शरीर की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाते हैं और कैंसर को पनपने में मदद करते हैं, इसलिए कैंसर पीड़ित लोगों को भी खरबूज का सेवन करना चाहिए.

आंखों की रोशनी बढ़ाए

आंखों की रोशनी यदि कमजोर हो तो खरबूज खाना फायदेमंद होता है. खरबूज में मौजूद विटामिन ए आंखों की कोशिकाओं के निर्माण में सहायक होता है. गाजर की तरह खरबूज भी विटामिन ए का मुख्य स्रोत है. यदि रोज खरबूज का सेवन करें तो मोतियाबिंद की बीमारी का खतरा बहुत ही कम हो जाता है.

खरबूजा वजन कम करने में भी सहायक

खरबूजे में कैलोरी बहुत कम मात्रा में पाई जाती है, इसलिए जो लोग वजन घटाना चाहते हैं, वे इस का सेवन नियमित रूप से करेंगे तो इस से पेट काफी समय तक भरा हुआ महसूस होगा, जिस से भूख कम लगेगी. इस के अलावा इस में फाइबर की मौजूदगी के कारण शरीर का मेटाबॉलिज्म भी बढ़ेगा, जिस से वजन कम होगा. खरबूजे में फाइबर की अधिकता की वजह से शरीर का पाचन भी बेहतर होगा.

अपच और सर्दीबुखार में फायदेमंद

खरबूजे का बीज मौसमी बीमारियों में फायदा करता है. इस के नियमित सेवन से अपच, सर्दी, बुखार और जुकाम आदि सभी बीमारियां जल्दी ठीक हो जाती हैं. दरअसल, खरबूज आसानी से पचने वाला फल है, जो छोटी व बड़ी आंत की सफाई भी करता है, जिस से कब्ज, अपच और गैस जैसी समस्या नहीं होती है.

खून में गाढ़ापन कम करता है

खरबूजे में मौजूद पोटेशियम हृदय के लिए काफी फायदेमंद है. इस से रक्तचाप संतुलित होता है, खरबूजे में कई प्रकार के मिनरल्स हाइपर टेंशन की समस्या को भी ठीक करते हैं. खरबूजे में पोटेशियम बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है. पोटेशियम शरीर में सोडियम के नकारात्मक प्रभावों को दूर करता है. इस में एडेनोसिन नामक तत्त्व खून के गाढ़ेपन को भी कम करता है, जिस से हार्ट अटैक आने की आशंकाएं कम हो जाती हैं. इस प्रकार खरबूजे का सेवन दिल के स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है. खरबूजा दिल के रोगियों को नियमित रूप से खाना चाहिए.

तेरी ‘बेटी’ हूं मां: जब बहू बनी बेटी

प्रीता जैन

सुकृति व गौरव शादी के बाद गुरुग्राम में रहने लगे. दोनों का औफिस वहीं है. वैसे, लौकडाउन की वजह से आजकल वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. सो, दोनों का अधिकतर समय घर पर बीत रहा है. सुकृति दिल्ली की है तो उस का अपने परिवारजन से मिलनाजुलना हो जाता है. किंतु गौरव का घर आगरा में होने से उस का घरवालों से मिलना कम हो पाता है.

आज लंच करते हुए मम्मी का फोन आया तो गौरव बारबार यही कह रहा था, “आते हैं, जल्द ही मिलेंगे. कुछ दिनों में आ कर मिलते हैं.”

बात ख़त्म होते ही सुकृति कहने लगी, “क्यों न हम आगरा चलें, अगला वीकैंड वहीं मनाते हैं. सब से मिलना हो जाएगा और 2 दिन संग रह भी लेंगे.”

“आइडिया तुम्हारा अच्छा है. मन तो मेरा भी जाने का है.”

“तो फिर चलते हैं. तुम कल फोन कर मम्मी को आने का बता देना.”

सुकृति आगरा जाने के प्रोग्राम से खुश थी. उसे अपनी सासुमां बीना जी से मिल कर अच्छा लगता है. घर में सासससुर के अलावा जेठ, जेठानी शिल्पी और उन की 3 साल की बिटिया गिन्नी भी है. खैर, नियत समय वे आगरा के लिए निकल लिए और समय से पहुच गए. सब से मिल अच्छा लग रहा था. गौरव तो पहुंचते ही गिन्नी संग खेलने में लग गया.

दोनों की पसंद का खाना बीना जी ने बनाया. खापी कर देररात तक गपों का दौर चला. अगले दिन थोड़ी देर से नींद खुली. फटाफट ब्रेकफास्ट तैयार किया गया. फिर लंच की तैयारी में लग गए.

आज लंच पर गौरव के चाचाचाची व उन के बच्चे आने वाले हैं. बीना जी का स्वभाव ही इतना मिलनसार है कि सारे परिवार को एकसूत्र में बांधा हुआ है. किसी न किसी को अपने यहां खानेपीने, मिलनेमिलाने के लिए बुलाती रहती हैं. सुकृति और उस की जेठानी ने बीना जी के साथ सभी की पसंद का लज़ीज़ खाना तैयार कर दिया. सब ने एकसाथ बैठ खाने का आनंद लेते हुए सुकूनभरा दिन बिताया.

सब के जाने के बाद बीना जी गरमागरम चाय बना लाईं. अपनी दोनों बहुओं को देते हुए कहने लगीं, “चाय पी लो, बेटा. आज मेरी बेटियां काम कर थक गई होंगी. सुबह से ही कुछ न कुछ करने में लगी हुई हैं.”

“और मां आप, आप तो हम से भी पहले से काम कर रही हो. थकी आप हो, न कि हम.” सुकृति के ऐसा बोलते ही बीना जी उसे व शिल्पी को गले लगाती हुई बोलीं, “मेरी सारी थकान तो अपनी बेटियों को खुश देख मिट जाती है. तुम बच्चे खुश रहो और हम मातापिता को क्या चाहिए. तुम्हारी खुशी में ही हमारी खुशी है.”

“ओह मां. मां, आप हमारा कितना ध्यान रखती हो. हम सब की अच्छी मां,” कह सुकृति फिर गले लग गई. अगला दिन भी इधरउधर आनेजाने में निकल गया.

दो दिन कैसे हंसतेबतियाते बीत गए, मालुम ही न पड़ा. वापस गुरुग्राम जाने के वक्त एकाएक गौरव की शर्ट का बटन टूट गया. उस को परेशान देख बीना जी ने सुकृति से कहा, “जा बेटा, मेरी अलमारी की दराज से सूईधागा निकाल ला. अभी बटन टांक देती हूं.”

सुकृति ने जैसे ही अलमारी खोली, अव्यवस्थित कपड़ों तथा सामान को देख स्तब्ध रह गई. खैर, सूईधागा बीना जी को दे गौरव की ओर देख बोली, “हम आज नहीं जा रहे. मुझे कुछ अत्यंत जरूरी काम याद आ गया है जो आज ही पूरा करना है. तुम भी यहीं से काम कर लो.”

ऐसा सुन गिन्नी तो मटकने लगी और झट से गौरव की गोद में जा बैठी. बीना जी भी बच्चों की तरह चहकती हुईं बोलीं, “बहुत अच्छा किया जो तुम दोनों रुक गए. आज तुम लोगों की पसंद का खाना ही बनाऊंगी.”

“मां…मां,” सुकृति बीना जी की बात बीच में ही काटती हुई बोली, “क्या आप के कमरे में कुछ देर अकेली बैठ सकती हूं, कुछ काम करना है?”

“कैसी बात कर रही है, बेटा. तेरी मां का ही तो कमरा है. पूछने की क्या जरूरत है. वैसे भी, तुम्हारा अपना घर है, जहां मन करे, उठोबैठो, मेरी बिटिया रानी.”

“हां मां,” कह सुकृति ने पहले औफिस से छुट्टी ली, फिर बीना जी के कमरे में चली गई. अलमारी खोल एकएक कर सभी कपड़े बाहर पलंग पर रख उन की तह बना, उन्हें जमाती गई. अब कुछ ब्लाउज़ के हुक टूटे हुए थे तो सूईधागे से वापस टांक दिए. जिन पेटीकोट के नाड़े ढीले लगे, उन में नए नाड़े डाल अच्छे से तह बना कर अलमारी में रख दिए. सब से बाद में जो भी अव्यवस्थित सामान डब्बों में रखा हुआ था उन्हें भी व्यवस्थित ढंग से रख दिया. छोटेछोटे गहने, जैसे गले की चेन या कान के टौप्स ज़रूर अलमारी के ही लौकर में डब्बों के अंदर भलीभांति जमा दिए ताकि आसानी से देख कर पहने जा सकें.

‌अलमारी का काम करने में करीब 2-3 घंटे लग गए. बीना जी व शिल्पी रसोई में खाने की तैयारी में लगी हुई थीं. दोनों ही जन एकदो दफ़ा आवाज लगा चुकी थीं- ‘सुकृति, आ कर चाय ले ले.’ अब की बार भी न आने पर बीना जी और उन के पीछेपीछे शिल्पी भी कमरे में चली आईं.

सुकृति को अलमारी खोले देख जैसे ही बीना जी की नजर अंदर की ओर गई, एकाएक मुंह से निकला, “अरे, यह क्या मेरी अलमारी है. सभी कपड़े व सामान अपनी जगह करीने से सजे हुए ‌दिखाई दे रहे हैं. ‌अच्छा, तो इतनी देर से यही काम कर रही थी. बहुत ही अच्छा किया जो तूने सभी कपड़े तथा सामान सही ढंग से रख दिए. सोच तो कई दिन से मैं भी रही थी यह काम करना है पर व्यस्तता तथा घुटनों के दर्द की वजह से टालती जा रही थी. खैर, मेरी बेटी ने कर दिया, शाबाश, मेरी बच्ची.”

“मां आप से कुछ कहना चाहती हूं. आज मैं ने एक छोटा सा काम किया है पर न जाने ऐसे कितने ही व्यक्तिगत कार्य होंगे जो घर की तमाम जिम्मेदारियों, व्यस्तताओं तथा घुटने की तकलीफ की वजह से आप नहीं कर सकती होंगी. न तो मेरा, न ही शिल्पी भाभी का ध्यान कभी इस ओर जा पाया कि आप को छोटेछोटे कार्यों में भी हमारी मदद की जरूरत पड़ सकती है. यदि हम लोग अनजाने में न समझ सकें तो आप तो शिल्पी भाभी या मुझ से हक के साथ वे सभी पर्सनल काम करने को कह सकती हैं जिन्हें करने में आप असमर्थ हैं.

“मां, हमेशा आप इतना प्यार देती हो, जरूरत से ज़्यादा हमारा खयाल रखती हो, दिनभर बेटीबेटी बोलती रहती हो तो बेटी के कर्तव्यों-फ़र्ज़ का भी हम से निर्वाह करवाओ. क्यों न वे सभी काम आप हम से करने के लिए कहें जो किसी कारणवश नहीं कर पा रही हों.

“मां कहनेभर से हम बहुओं को बेटियां मत मानो. हमारे ऊपर अपना अधिकार समझ अपने दिल की हर बात हम दोनों से साझा करें. जो भी आप के मन में काम के प्रति विचारविमर्श हो रहा हो या करने की सोच रही हों, तुरंत एक आवाज दे हम से कराएं. आप के इस व्यवहार से ही हम सही माने में आप की बेटियां बन सकेंगी. मां, हमारी खुशियों का ध्यान रख हमारे मनमाफिक काम करते रहने से, सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए ही सोचते रहने से हम आप की बेटी कहलाने लायक नहीं हो सकेंगी, इसलिए ज्यादा सोचेसमझे बिना वो सारे काम हमें करने को कहें जिन्हें करने में आप परेशानी महसूस करें.

“मां, एक बार फिर दिल से यही बात कहना चाहूंगी कि आप व पापाजी दोनों ही अधिकार और अपनेपन से मुझे और शिल्पी भाभी से जो भी काम या फिर मन की बात कहना चाहें, कहें और हमेशा ही कहते रहें.”

“ठीक है, मेरी बच्ची ठीक है,” भावविह्वल हो बीना जी बोलीं, “आइंदा से तुम दोनों से कुछ भी कहने से न तो सोचूंगी, न ही हिचकूंगी. सालों से सोचती थी ईश्वर ने एक बेटी दी होती, कितना अच्छा होता. अपने मन की कहसुन पाती. पर मुझे क्या पता था, इस जीवन में एक के बजाय दो बेटियां मिलेंगी जो अपनी मां से बेइंतहा प्यारस्नेह करेंगी,” कहतीकहती बीना जी ने दोनों को गले लगा लिया और उन की बेटियां भी उन से मासूम बच्चे की भांति लिपट गईं.”

“आज भूख हड़ताल है, लंच नही मिलेगा क्या?” गौरव की आवाज सुन सब कमरे से बाहर आए. बीना जी हंसती हुई कहने लगीं, “तेरी पसंद का ही खाना बनाया है. जल्दी से आ जा और सब को भी खाने के लिए आवाज लगा दे. तुम सभी बैठो, मैं गरमागरम फुल्के सेंक खिलाती हूं…”

बीना जी की बात खत्म भी न हुई कि सुकृति व शिल्पी ने लगभग एकसाथ ही कहा, “फटाफट लंच निबटा, हम सभी बाजार अथवा मौल जाएंगे. फिर वहीं से मां और पापा के लिए उन की पसंद के कपड़े खरीदेंगे.”

“हांहां, बिलकुल. और बहुत सारी शौपिंग,” बीना जी के कहने का अंदाज ही कुछ ऐसा था कि सभी की सम्मिलित हंसी से घर गूंज उठा.

अपने हुए पराए : भाग 1

‘‘अजय, हम साधारण इनसान हैं. हमारा शरीर हाड़मांस का बना है. कोई नुकीली चीज चुभ जाए तो खून निकलना लाजिम है. सर्दी गरमी का हमारे शरीर पर असर जरूर होता है. हम लोहे के नहीं बने कि कोई पत्थर मारता रहे और हम खड़े मुसकराते रहें.

‘‘अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल करेंगे तो शायद सामने वाले का सम्मान ही न कर पाएं. हम प्रकृति के विरुद्ध न ही जाएं तो बेहतर होगा. इनसानी कमजोरी से ओतप्रोत हम मात्र मानव हैं, महामानव न ही बनें तो शायद हमारे लिए उचित है.’’

बड़ी सादगी से श्वेता ने समझाने का प्रयास किया. मैं उस का चेहरा पढ़ता रहा. कुछ चेहरे होते हैं न किताब जैसे जिन पर ऐसा लगता है मानो सब लिखा रहता है. किताबी चेहरा है श्वेता का. रंग सांवला है, इतना सांवला कि काले की संज्ञा दी जा सकती है…और बड़ीबड़ी आंखें हैं जिन में जराजरा पानी हर पल भरा रहता है.

अकसर ऐसा होता है न जीवन में जब कोई ऐसा मिलता है जो इस तरह का चरित्र और हावभाव लिए होता है कि उस का एक ही आचरण, मात्र एक ही व्यवहार उस के भीतरबाहर को दिखा जाता है. लगता है कुछ भी छिपा सा नहीं है, सब सामने है. नजर आ तो रहा है सब, समझाने को है ही क्या, समझापरखा सब नजर आ तो रहा है. बस, देखने वाले के पास देखने वाली नजर होनी चाहिए.

‘‘तुम इतनी गहराई से सब कैसे समझा पाती हो, श्वेता. हैरान हूं मैं,’’ स्टाफरूम में बस हम दोनों ही थे सो खुल कर बात कर पा रहे थे.

‘‘तारीफ कर रहे हो या टांग खींच रहे हो?’’

श्वेता के चेहरे पर एक सपाट सा प्रश्न उभरा और होंठों पर भी. चेहरे पर तीखा सा भाव. मानो मेरा तारीफ करना उसे अच्छा नहीं लगा हो.

‘‘नहीं तो श्वेता, टांग क्यों खींचूंगा मैं.’’

‘‘मेरी वह उम्र नहीं रही अब जब तारीफ के दो बोल कानों में शहद की तरह घुलते हैं और ऐसा कुछ खास भी नहीं समझा दिया मैं ने जो तुम्हें स्वयं पता न हो. मेरी उम्र के ही हो तुम अजय, ऐसा भी नहीं कि तुम्हारा तजरबा मुझ से कम हो.’’

अचानक श्वेता का मूड ऐसा हो जाएगा, मैं ने नहीं सोचा था…और ऐसी बात जिस पर उसे लगा मैं उस की चापलूसी कर रहा हूं. अगर उस की उम्र अब वह नहीं जिस में प्रशंसा के दो बोल शहद जैसे लगें तो क्या मेरी उम्र अब वह है जिस में मैं चापलूसी करता अच्छा लगूं? और फिर मुझे उस से क्या स्वार्थ सिद्ध करना है जो मैं उस की चापलूसी करूंगा. अपमान सा लगा मुझे उस के शब्दों में, पता नहीं उस ने कहां का गुस्सा कहां निकाल दिया होगा.

‘‘अच्छा, बताओ, चाय लोगे या कौफी…सर्दी से पीठ अकड़ रही है. कुछ गरम पीने को दिल कर रहा है. क्या बनाऊं? आज सर्दी बहुत ज्यादा है न.’’

‘‘मेरा मन कुछ भी पीने को नहीं है.’’

‘‘नाराज हो गए हो क्या? तुम्हारा मन पीने को क्यों नहीं, मैं समझ सकती हूं. लेकिन…’’

‘‘लेकिन का क्या अर्थ है श्वेता, मेरी जरा सी बात का तुम ने अफसाना ही बना दिया.’’

‘‘अफसाना कहां बना दिया. अफसाना तो तब बनता जब तुम्हारी तारीफ पर मैं इतराने लगती और बात कहीं से कहीं ले जाते तुम. मुझे बिना वजह की तारीफ अच्छी नहीं लगती…’’

‘‘बिना वजह तारीफ नहीं की थी मैं ने, श्वेता. तुम वास्तव में किसी भी बात को बहुत अच्छी तरह समझा लेती हो और बिना किसी हेरफेर के भी.’’

‘‘वह शायद इसलिए भी हो सकता है क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण भी वही होगा जो मेरा है. तुम इसीलिए मेरी बात समझ पाए क्योंकि मैं ने जो कहा तुम उस से सहमत थे. सहमत न होते तो अपनी बात कह कर मेरी बात झुठला सकते थे. मैं अपनेआप गलत प्रमाणित हो जाती.’’

‘‘तो क्या यह मेरा कुसूर हो गया, जो तुम्हारे विचारों से मेरे विचार मेल खा गए.’’

‘‘फैशन है न आजकल सामने वाले की तारीफ करना. आजकल की तहजीब है यह. कोई मिले तो उस की जम कर तारीफ करो. उस के बालों से…रंग से…शुरू हो जाओ, पैर के अंगूठे तक चलते जाओ. कितने पड़ाव आते हैं रास्ते में. आंखें हैं, मुसकान है, सुराहीदार गरदन है, हाथों की उंगलियां भी आकर्षक हो सकती हैं. अरे, भई क्या नहीं है. और नहीं तो जूते, चप्पल या पर्स तो है ही. आज की यही भाषा है. अपनी बात मनवानी हो या न भी मनवानी हो…बस, सामने वाले के सामने ऐसा दिखावा करो कि उसे लगे वही संसार का सब से समझदार इनसान है. जैसे ही पीठ पलटो अपनी ही पीठ थपथपाओ कि हम ने कितना अच्छा नाटक कर लिया…हम बहुत बड़े अभिनेता होते जा रहे हैं…क्या तुम्हें नहीं लगता, अजय?’’

‘‘हो सकता है श्वेता, संसार में हर तरह के लोग रहते हैं…जितने लोग उतने ही प्रकार का उन का व्यवहार भी होगा.’’

‘‘अच्छा, जरा मेरी बात का उत्तर देना. मैं कितनी सुंदर हूं तुम देख सकते हो न. मेरा रंग गोरा नहीं है और मैं अच्छेखासे काले लोगों की श्रेणी में आती हूं. अब अगर कोई मुझ से मिल कर यह कहना शुरू कर दे कि मैं संसार की सब से सुंदर औरत हूं तो क्या मैं जानबूझ कर बेवकूफ बन जाऊंगी? क्या मैं इतनी सुंदर हूं कि सामने वाले को प्रभावित कर सकूं?’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो, श्वेता. तुम से किस ने कह दिया कि तुम सुंदर नहीं हो.’’

सहसा मेरे होंठों से भी निकल गया और मैं कहीं भी कोई दिखावा या झूठ नहीं बोल रहा था. अवाक् सी मेरा मुंह ताकने लगी श्वेता. इतनी स्तब्ध रह गई मानो मैं ने जो कहा वह कोरा झूठ हो और मैं एक मंझा हुआ अभिनेता हूं जिसे अभिनय के लिए पद्मश्री सम्मान मिल चुका हो.

चौथापन- भाग 1: बाबूजी का असली रूप क्या था?

वह एक कोने में कुरसी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे. अचानक उन्होंने ऊब कर किताब एक ओर  रख दी. आंखों  से चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया. रूमाल से आंखें साफ कीं और निरुद्देश्य खिड़की  से बाहर की चहलपहल देखने लगे.

‘‘दादाजी, यह कामिक्स पढ़ कर सुनाइए जरा,’’ उन की 10 वर्ष की नातिन अंजू रंगबिरंगी पुस्तकें लिए कमरे में पहुंच गई.

‘‘लाओ, देखें,’’ उन्होंने बड़े चाव से  पुस्तकें ले लीं.

वह पुस्तकों के चित्र तो देख पा रहे थे, किंतु चश्मा लगाने के बाद भी उन पुस्तकों को पढ़ पाना उन्हें बड़ा कठिन लग रहा था. फिर नाम भी क्या थे पुस्तकों के, ‘आग का दरिया’, ‘अंतरिक्ष का शैतान’.

‘‘छि: छि:… ये क्या हैं? अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो, बेटे.’’

‘‘अच्छी कौन सी, दादाजी?’’

‘‘जिस पुस्तक से कोई अच्छी बात सीखने को मिले. बच्चों के लिए तो आजकल बहुत सी पत्रपत्रिकाएं  निकलती हैं.’’

‘‘आप नहीं जानते, दादाजी, ये थ्री डायमेंशनल कामिक्स हैं. इन को पढ़ने के लिए अलग से चश्मा मिलता है. यह देखिए.’’

‘‘अरे, यह कोई चश्मा है? लाल पन्नी लगी है इस में तो. इस से आंखें खराब हो जाएंगी. फेंको इसे.’’

‘‘आप को कुछ नहीं मालूम, दादाजी,’’ अंजू ने उपेक्षा से कहा और पुस्तकें ले कर तेजी से बाहर चली गई.

वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे. शायद वह वर्तमान से कट चुके हैं. उन का जमाना लद चुका था. उन के सिद्धांत, आदर्श ओैर विचार अब अप्रासंगिक हो चुके थे.

अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात थी. उन के बेटे मुन्ना  ने भी यही कहा था. हुआ यों था कि उस दिन वह कारखाने में मौजूद थे. नौकर ने एक ग्राहक को बिल दिया तो उन्हें वह बहुत ज्यादा लगा. वह एक प्रकार से ग्राहक को लूटने जैसा ही  था. उन्होंने नौकर को डांट दिया और जोर दे कर उस से बिल में परिवर्तन करने को कहा.

उसी दिन मुन्ना रात को घर आने के बाद  उन पर बहुत बिगड़ा था, ‘बाबूजी, आप तो बैठेबिठाए नुकसान करवा देते हैं. क्या जरूरत थी आप को  कारखाने में जा कर कीमत कम करवाने की?’

‘मैं ने तो उचित दाम ही लगाए थे, बेटा. वह नौकर बहुत ज्यादा  बिल बना रहा था.’

‘आप बिलकुल नहीं समझते, बाबूजी. इतना बड़ा कारखाना चलाना आज के जमाने में कितना मुश्किल काम है. अब कामगारों को वेतन कितना बढ़ा कर देना पड़ता है, जानते हैं आप? नई मशीन की किश्त हर माह देनी पड़ती है सो अलग. फिर आयकर भी इसी महीने में भरना है.’

उन की दृष्टि में ग्राहकों से मनमाना पैसा वसूल करने का यह कोई उचित तर्क नहीं था, लेकिन वह चुप ही रह गए.

एक बार वह बीमार पड़ गए थे. 2-3 महीने तक कारखाने नहीं जा सके. बस, तभी अचानक मुन्ना ने उन की गद्दी हथिया ली. फिर मुन्ना यह सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि वह व्यापार में उन से अधिक कुशल है.

जहां उन्हें ग्राहक से 4 पैसे वसूल करने में कठिनाई होती थी वहां मुन्ना बड़ी आसानी से 6 पैसे वसूल कर लेता था. उस ने बैंकों से ऋण ले कर अल्प समय में ही नई मशीनें मंगवा ली थीं. किस आदमी से कैसे काम लिया जा सकता है, इस काम में मुन्ना खुद को उन से कहीं अधिक दक्ष होने का दावा करता था.

जब वह स्वस्थ हो कर कारखाने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कारखाने का शासन सूत्र मुन्ना अपने हाथों में दृढ़ता से थामे हुए है. एक बार हाथों में शासन सूत्र  आने के बाद कोई भी उसे सरलता से वापस नहीं करना चाहता.

अब मुन्ना कारखाने के तमाम कार्य अपनी मरजी से करता था. उन की ठीक सलाह भी उसे अपने मामलों में दखलंदाजी लगती थी. मुन्ना अकसर उन्हें एहसास दिलाता था, ‘बाबूजी, डाक्टर ने आप को पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है. आप घर पर रह कर ही आराम किया करें. कारखाने का सारा कारोबार मैं संभाल लूंगा. आप बेकार उधर की चिंता किया करते हैं.’

जब उन की पत्नी इंदू जिंदा थी तो उस का भी यही विचार था. वह प्राय: कहा करती थी, ‘आज नहीं तो कल, मुन्ना को ही तो संभालना है कारखाना. वह व्यापार को बढ़ा ही रहा है, घटा तो नहीं रहा? वैसे भी अब लड़का बड़ा हो गया है. बाप का जूता उस के पैर में आने लगा है. उन्हें खुद आगे हो कर मुन्ना को कारोबार सौंप देना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार आदमी को चौथेपन में सांसारिक झंझटों से संन्यास ले लेना चाहिए.’

और इस तरह बीमारी के दौरान अकस्मात ही उन की इच्छा के विरुद्ध कारखाने से उन का निष्कासन हो गया था.

उन्होंने एक नजर नाश्ते की प्लेट पर डाली. आज फिर घर का नौकर बड़ी उपेक्षा से उन के सामने सिर्फ मक्खन लगे स्लाइस रख गया था. उन के अंदर ही अंदर कुछ घुटने सा लगा था, ‘यह भी कोई नाश्ता है? बाजार से डबलरोटी मंगवाई और चुपड़ दिया उस पर जरा सा मक्खन.’

जब इंदू थी तब उन के लिए बीसियों तरह के तो लड्डू ही बनते थे घर में. मूंग के, मगज के, रवे के वगैरहवगैरह. मठरी, सेव और कई तरह के नमकीन भी परोसे जाते थे उन के आगे. पकवानों का तो कोई हिसाब ही नहीं था और अब मात्र मक्खन लगे डबलरोटी के टुकड़े.

वह खीज उठे और उठ कर सीधे अंदर गए, ‘‘बरसात में डबलरोटी क्यों मंगवाती हो, बहू? घर में ही कुछ मीठा या नमकीन बना लिया करो. कल जो डबलरोटी आई थी उस में फफूंद लगी हुई थी.’’

‘‘डाक्टर ने उन्हें अधिक घीतेल खाने की मनाही कर दी है. अगर आप को डबलरोटी पसंद नहीं है तो आप के लिए दूसरा इंतजाम हो जाएगा,’’ बहू ने रूखेपन से जवाब दिया.

दूसरे दिन उन के लिए जो नाश्ता लगाया गया वह होटल से मंगवाया गया था. एक प्लेट में बेसन का लड्डू तथा थोड़ा सा चिड़वा था. बरसात के कारण चिड़वा बिलकुल हलवा बन गया था. लड्डू बेशक स्वादिष्ठ था, परंतु उस में वनस्पति घी इतनी अधिक मात्रा में था कि खाने के बाद उन्हें बहुत देर तक खट्टी डकारें आती रही थीं.

वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि त्रिवेणी उन के पास रहती तो बड़ा सुविधाजनक होता. वह उन के खानेपीने का कितना खयाल करती थी. भैयाभैया कहते उस की जबान नहीं थकती थी.

सच  पूछो तो अपनी पत्नी इंदू की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे. त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था.

सब से बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित रूखेपन, बहू की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती- नातिनों की बदतमीजियों की ओर उन का ध्यान ही नहीं जाता था. वह तो त्रिवेणी को भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उस का घर में रहना असंभव कर दिया.

एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिशा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उन के सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूं आप को पार्क तक.’’

वह कहना चाहते थे, ‘भाई, पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूं. खुद चला जाऊंगा,’ पर चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए.

तलाक के बाद पूरी तरह टूट गए थे आशीष विद्यार्थी, पहली पत्नी ने किया खुलासा

बॉलीवुड एक्टर आशीष विद्यार्थी अपनी पर्सनल लाइफ को लेकर सुर्खियों में रहते हैं, इन दिनों वह अपनी दूसरी शादी को लेकर चर्चा में बने हुए हैं. कुछ दिनों पहले कलकता कि फैशन इंटरप्रयोनर रूपाली से वह शादी रचाए हैं. जिसे लेकर लगातार वह चर्चा में बने हुए हैं.

57 साल की रूपाली से शादी के बाद आशीष को खूब ट्रोल किया जा रहा है. इसी दौरान आशीष ने एक इंटरव्यू में अपनी पहली पत्नी के साथ अलग होने के बाद का दर्द साझा किया है. यही नहीं उन्होंने रूपाली को लेकर अपना दर्द भी साझा किया है.

 

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उन्होंने बताया कि रूपाली से उनकी मुलाकात एक बॉलगिंग के जरिए हुई थीं, जहां पर वह जानें थें कि रूपाली काफी ज्यादा दर्द से गुजर रही है, उसके बाद से उन्होंने रूपाली की मदद करने की कोशिश की थी, फिर उन्होंने अपनी पहली पत्नी से भी रूपाली के बारे में बताया था कि वह काफी ज्यादा परेशान हैं उन्हें एक पार्टनर की जरुरत है. जिसके बाद उन्होंने रूपाली को लेकर हां कहा था.

आशीष अपनी शादी से काफी ज्यादा खुश हैं, बता दें कि 5 साल पहले रूपाली के पति का निधन हो गया था, जिसके बाद से रूपाली काफी ज्यादा परेशान रह रही थीं. आशीष ने उनकी प्रॉब्लम को समझते हुए उनके साथ शादी करने का फैसला लिया था.

आखिर क्यों आमिर खान नहीं जाते ‘द कपिल शर्मा शो’ खुद किया खुलासा

द कपिल शर्मा शो में जाने के लिए हर कोई एक्साइटेड रहता है, हाल ही में आमिर खान और कपिल शर्मा की मुलाकात एक शो के जरिए हुई है, जहां पर उन लोगों ने एक-दूसरे से बात किया. जहां पर कपिल शर्मा ने आमिर खान से सवाल पूछा कि आप क्यों नहीं आते हैं हमारे शो में .

इस पर आमिर खान ने हंसते हुए बोला की मुझे पता था कि आप मुझसे यह सवाल करेंगे, बता दें कि एक इवेंट में आमिर खान जट्टा3 के प्रमोशन में पहुंचे थें, जहां पर उनकी मुलाकात आमिर खान से हुई.

 

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अभी तक आमिर खान द कपिल शर्मा शो का हिस्सा नहीं बने हैं, जिस वजह से कपिल शर्मा उनसे यह बात कह रहे हैं. द कपिल शर्मा शो में आए दिन कुछ न कुछ नए मेहमान देखने को मिलते रहते हैं. हाल ही में द कपिल शर्मा शो में नए-नए मेहमान नजर आते रहते हैं.

हालांकि आमिर खान इस शो का हिस्सा नहीं है यह सवाल लोगों के मन में गुत्थी बना हुआ है कि आखिर वह इस शो का हिस्सा क्यों नहीं बने हैं. खबर है कि जल्द आमिर खान अपने दिए हुए बयान के ममुताबिक इस शो में आएगें.

आमिर इन दिनों अपनी अपकमिंग फिल्म को लेकर चर्चा में बने हुए हैं, आमिर कि यह फिल्म काफी चर्चा में बनी हुई है.

प्यार और दौलत : मोहिनी का प्यार क्या परवान चढ़ पाया

आंगन में धमधम की आवाज से मोहिनी यह समझ गई कि रामजीवन आ गया है. अपने यकीन को पुख्ता करने के लिए वह उठी और देखा कि आंगन में एक मिट्टी का ढेला पड़ा है, क्योंकि आज रामजीवन के आने पर इसी इशारे का वादा था.

रामजीवन और मोहिनी का प्यार परवान पर था. रामजीवन के बगैर मोहिनी एक पल भी नहीं रहना चाहती थी. लेकिन मोहिनी के घर वाले रामजीवन की कहानी जानते थे. रामजीवन सही आदमी नहीं था. वह झोलाछाप डाक्टरी के अलावा और भी गैरकानूनी धंधे करता था. उस ने दहेज के लालच में अपनी बीवी तक को मार डाला था. लेकिन न जाने मोहिनी पर रामजीवन का कौन सा जादू छाया था.

वैसे रामजीवन था तो मोहिनी की बिरादरी का ही, मगर मोहिनी के घर वाले अपनी बेटी पर उस की छाया भी नहीं पड़ने देना चाहते थे. मोहिनी का पूरा परिवार पढ़ालिखा था. भाई भी नौकरी करते थे और खुद मोहिनी भी इंटर पास थी.

रामजीवन को आया जान मोहिनी घर के जेवर व नकदी एक थैले में डाल कर छत पर चढ़ गई. घर के सभी लोग सो रहे थे. सारे गांव में सन्नाटा था. आज गली के कुत्तों को भी नींद आ गई थी. उन का भूंकना बंद था. वह धीरेधीरे चलती हुई पिछवाड़े की मुंड़ेर पर पहुंच गई. रामजीवन वहीं खड़ा इंतजार कर रहा था. मोहिनी रामजीवन की बांहों में जल्द से जल्द समा जाना चाहती थी. पड़ोस की खपरैल से होते हुए वह रामजीवन के बहुत नजदीक पहुंच गई.

रामजीवन ने उस का थैला थामा और उसे एक ओर रख कर अपने हाथों का सहारा दे कर मोहिनी को भी नीचे उतार लिया. रात आधी से ज्यादा बीत गई थी. दोनों सारी रात चलते रहे. सुबह होने तक वे एक काफी सुनसान जगह पर आ कर रुक गए.

सवेरा हो गया था. जहां वे लोग रुके थे, वहीं पास में ही रामजीवन का खेत था, जहां रामजीवन के खास साथी डेरा डाल कर रहते थे. मोहिनी को वहीं छोड़ रामजीवन अपने एक साथी को ले आया. उस साथी को मोहिनी के पास बैठा कर रामजीवन खुद खाना लाने के बहाने एक ओर चला गया.

जातेजाते रामजीवन ने मोहिनी से झोले में क्याक्या है, जानना चाहा था. तब मोहिनी ने बताया था कि 80 हजार की नकदी और सोनेचांदी के जेवर हैं. एक नजर थैले पर डाल मोहिनी को तसल्ली देते हुए वह बोला, ‘‘इसे मैं अपने साथ लिए जा रहा हूं. कुछ नकद का और इंतजाम कर के मैं शाम तक आ जाऊंगा, फिर कहीं दूर चले जाएंगे.’’

वहां बैठा साथी, जिस का नाम शंकर था, उन की बातें गौर से सुन रहा था. शंकर जानता था कि आज ठाकुर सोने की चिडि़या फांस कर लाए हैं लेकिन वह चुप था. दिन बीता रात आई लेकिन रामजीवन नहीं आया. अब शंकर से रहा नहीं गया. वह बोला, ‘‘कहां रहती हैं आप?’’

‘‘किशनपुर में,’’ मोहिनी ने जवाब दिया. ‘‘अच्छा, जहां मालिक डाक्टरी करते हैं?’’ शंकर ने पूछा.

मोहिनी चुप रही. शंकर ने फिर पूछा, ‘‘क्या नाम है आप का?’’

‘‘मोहिनी,’’ उस ने छोटा सा जवाब दिया. ‘‘जैसा नाम वैसा गुण,’’ शंकर कहे बिना नहीं रह सका. सचमुच वह रात में चांदनी की तरह चमक रही थी.

शंकर ने पूछा, ‘‘घर क्यों छोड़ा आप ने?’’

मोहिनी ने लजा कर कहा, ‘‘तुम्हारे मालिक के साथ रहने के लिए.’’ शंकर मन ही मन सोच रहा था, ‘अजब जादू चलाया है मालिक ने. न जाने क्या हाल होगा इस का?’ फिर उस ने सोचा, ‘बेवकूफ लड़की, तू ने ठीक नहीं किया. मांबाप हमेशा अपनी औलाद का भला ही चाहते हैं, बुरा तो सपने में भी नहीं सोच सकते. कसाई भी अपने बच्चों को खुश व सुखी देखना चाहते हैं.’

मन ही मन शंकर चुप ही रहा. इसी दौरान किसी के पैरों की आहट से उन का ध्यान बंटा. रात के 10 बजे होंगे. दोनों चौकन्ने हो गए. दूर कहीं सियार की डरावनी आवाज सुनाई दे रही थी.

पास आता एक चेहरा अब साफ दिखाई दे रहा था, यह रामजीवन ही था. नजदीक आ कर रामजीवन शंकर को एक ओर ले गया, जहां उस ने शंकर की छाती पर रामपुरी चाकू रख दिया. शंकर के पैरों तले जमीन खिसकने लगी, सामने मौत जो खड़ी थी. उस का हलक सूख गया था. रामजीवन ने कहा, ‘‘मरना चाहते हो कि…’’

शंकर की सूखी जबान से खरखराती आवाज निकली, ‘‘म… म… म… मालिक.’’ ‘‘ले चाकू और मार दे उस लड़की को. नहीं तो तू भी फंसेगा और मैं भी. पुलिस हम दोनों को ढूंढ़ रही है,’’ रामजीवन ने धीरे से, पर कड़कती आवाज में कहा.

‘‘न… न… नहीं मालिक, यह काम मैं नहीं कर पाऊंगा. मैं ने कभी मुरगी तक नहीं…’’ शंकर हकलाया. ‘‘तो ले, तू ही मरने को…’’

शंकर अब तक संभल चुका था. वह सहमते हुए बोला, ‘‘मालिक, चाहे मुझे मार दो, मगर मुझ से यह काम नहीं होगा.’’ रामजीवन कुछ ढीला हो कर बोला, ‘‘एक शर्त पर तू बचेगा. तू किसी से कुछ नहीं कहेगा. जो मैं कहूंगा वही करेगा.’’

‘‘हर शर्त मंजूर है मालिक,’’ शंकर ने डरते हुए कहा. ‘‘आओ,’’ ऐसा कहते हुए रामजीवन मोहिनी के पास गया. शंकर दूर खड़ा अनहोनी का अंदाजा लगा रहा था.

रामजीवन मोहिनी को एक टीले की ओर ले गया. दूर झींगुरों की आवाज से रात और भी डरावनी हो रही थी. प्यार में अंधी मोहिनी चहकती हुई उस की ओर बड़ी अदा से बलखाती सी जाने लगी, क्योंकि उसे लग रहा था कि टीले की ओट में वह उसे बहुत प्यार करेगा. उस की भरी जवानी का रस पीएगा. आज कई दिनों बाद सबकुछ करने का एक अच्छा मौका जो मिला है. वह रामजीवन की बांहों में समा जाने को मचल रही थी.

मगर यह क्या, जैसे ही मोहिनी रामजीवन के गले लगी तो आसमान कांप उठा. रामजीवन ने प्यार करने के बजाय एक हाथ से मोहिनी के जिगर में रामपुरी चाकू घुसेड़ दिया और दूसरे हाथ से उस का मुंह कस कर दबोच लिया. मोहिनी चीख भी नहीं सकी. उस की चीख अंदर ही अंदर दब कर रह गई. जब वह निढाल हो गई, तब कहीं रामजीवन ने उसे छोड़ा. शंकर चुपचाप एक कसाई के हाथों गऊ जैसी मोहिनी को हलाल होते देख रहा था.

जिस के जिस्म से खेला, जो लाखों की दौलत ले कर घरपरिवार, रिश्तेदारों को छोड़ कर आ गई थी, आज उसी मोहिनी के लिए रामजीवन कालिया नाग बन गया था. ‘‘खड़ेखड़े क्या देख रहा है? ले, इस की लाश उठा उधर से,’’ रामजीवन की आवाज से शंकर सोते सा जगा और मशीन की तरह उस ने मोहिनी को एक तरफ से उठा लिया. फिर दोनों उसे एक ढलान पर ले गए.

ढलान में एक गहरा गड्ढा देख कर शंकर समझ गया कि रामजीवन अभी तक क्या कर रहा था. उसी गड्ढे में मोहिनी को हमेशा के लिए दफना दिया गया मानो प्यार की दौलत ही दफना दी हो.

बिन मां की बेटियां: भाग 2

राइटर- डा. कुसुम रानी नैथानी

बच्चों की हालत देख कर अमरनाथजी की भी आंखों में आंसू आ गए. लगता था, कई दिनों से वे नहाए नहीं और उन के कपड़े भी नहीं बदले गए थे.

दादी बोली, “मुझ से जितना बन पड़ता है मैं उतना ही कर सकती हूं. प्रज्ञा को तो शिवांश से ही फुरसत नहीं मिलती.”

“अगर आप बुरा न मानें, तो क्या हम इन्हें अपने साथ ले जाते हैं?”

“इस में बुरा मानने की क्या बात है? ये अच्छे से पल जाएं, मैं तो इतना ही चाहती हूं…

“अच्छा होता, आप रजत से भी पूछ लेते.”

“उस से क्या पूछना है? वह दो दिन के लिए बाहर गया हुआ है, फिर इन्हें छोड़ने कौन जाएगा? अच्छा होगा कि आप ही इन्हें अपने साथ ले जाएं.”

शिवांश की मुंहदिखाई कर वे इशिता और शलाका को ले कर लौट आए. प्रज्ञा ने उन्हें रुकने तक के लिए नहीं कहा और न ही खाने के लिए पूछा. बच्चों की हालत देख कर उन्हें बड़ा तरस आ रहा था. अनायास ही इस समय उन्हें त्रिशाला याद आ गई थी.

रजत के आ जाने पर मां ने उसे पूरी बात बता दी. रजत को शायद ऐसे ही मौके का इंतजार था. उसे भी अब अपनी बेटियां बोझ स्वरूप लगने लगी थीं. प्रज्ञा तो पहले ही उन्हें यहां रखने के खिलाफ थी. मौके का

फायदा उठाते हुए वह बोला, “वे अपनी मरजी से बच्चों को ले कर गए हैं तो आगे से मैं भी उन्हें लेने नहीं जाऊंगा. वे मेरे लौटने का

इंतजार कर सकते थे.”

प्रांजलि उन के लौट आने से बहुत खुश थी. उन के बिना उसे भी घर बड़ा सूनासूना लग रहा था. अमरनाथजी ने भी मन बना लिया था कि अब वे इशिता और शलाका को रजत के पास नहीं भेजेंगे. एक ही महीने में

फूल सी बच्चियों की क्या हालत हो गई थी? पढ़ाईलिखाई वे सब भूल गए थे. त्रिशाला अपनी दो

निशानियां इशिता और शलाका उन के पास छोड़ गई थी. अमरनाथजी ने फिर से उन का स्कूल में एडमिशन करा दिया और उन की पढ़ाई पर ध्यान देने लगे. वे दोनों पढ़ने में बहुत होशियार थीं. प्रांजलि भी

बड़ी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही थी. वह बहुत अच्छे नंबरों से एमएससी की पढ़ाई पूरी कर अब बीएड

कर रही थी. मौसी के साथ बैठ कर वे दोनों भी पढ़ाई करने लगती.

अमरनाथजी खुद भी एक शिक्षक थे. उन्होंने हमेशा अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी. उन के पास अपने

पुरखों की काफी जमीनजायदाद थी.  पुश्तैनी घर पर किसी चीज का अभाव न था. शहर से लगे इस कसबे में सभी सुविधाएं थी. उस दिन के बाद से न तो रजत ने उन के लिए कोई खर्चा भेजा और न ही कभी उन से मिलने आए. बस

कभीकभार फोन पर जरूर बात कर लेता. बेटियों का पिता से रिश्ता अब इतना ही रह गया.

बीएड करने के सालभर बाद प्रांजलि की नौकरी लग गई थी. घर से चालीस किलोमीटर की दूरी पर उसका कालेज था. वह हर रोज इतनी दूर घर से आतीजाती. इशिता और शलाका के बगैर उसे भी कहीं अच्छा नहीं लगता था. वे दोनों अपनी हर छोटीबड़ी बात उसी के साथ बांटती. नौकरी लग जाने पर अब वह उन की हर ख्वाहिश पूरी कर देती. उन दोनों को भी मौसी से बहुत ज्यादा लगाव था.

अमरनाथजी ने अच्छा सा लड़का देख कर प्रांजलि का  रिश्ता पक्का कर दिया था. लड़का दिल्ली में नौकरी करता था. यह जानते हुए कि प्रांजलि नौकरी के लिए उत्तराखंड से बाहर कभी नहीं जा सकती, तब भी

लड़की वाले शादी के लिए राजी थे. जल्दी ही अमरनाथजी ने उस के हाथ पीले कर दिए. इस बार बेटी की शादी में उन में वह  उत्साह न था जितना त्रिशाला की शादी में था. शादी के बाद वह मात्र एक महीने ही ससुराल रही. उस के बाद नौकरी की वजह से वह वापस मायके चली गई.

शादी के दो साल बाद प्रांजलि ने आर्यन को जन्म दिया. उस की देखभाल के लिए घर पर रमा थी. प्रांजलि के पति विवेक ने कई बार चाहा कि वह नौकरी छोड़ कर उस के साथ दिल्ली आ जाए, लेकिन वह नौकरी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुई. उस की इच्छा का मान करते हुए उन्होंने कुछ बोलना ही छोड़ दिया.

रमा ने भी उसे समझाया,

“बेटी, ऐसे कब तक मायके में रहेगी? अपने लिए अलग घर की व्यवस्था कर लो, जिस से तुम्हारे ससुराल

वाले भी जब जी चाहे तुम्हारे पास आ सके.

“मां, मेरे बेटे आर्यन को वहां कौन देखेगा? मैं उसे अकेले नहीं संभाल सकती. यहां पर तुम भी हो और इशिता और शलाका भी हैं, जिन की मदद से वह अच्छे से पल रहा है.”

“प्रांजलि, तुझे अपने पति के बारे में भी तो सोचना चाहिए. तुम जहां नौकरी करती हो, वहां अलग घर की व्यवस्था कर लोगी तो आर्यन की देखभाल के लिए तुम्हारी सास भी आ जाएंगी और विवेक भी आता रहेगा. यहां आने में उन लोगों को झिझक होती होगी. तुम्हें यह बात समझनी चाहिए. हर कोई चाहता है कि उस की एक जमीजमाई गृहस्थी हो. उस का अपना परिवार उस के साथ हो.”

“मां, इन बातों को छोड़ो. मैं विवेक को अच्छी तरह से जानती हूं. वे वैसा कुछ नहीं सोचते जैसा तुम सोच

रही हो. उन्हें मुझ से कोई शिकायत नहीं और मुझे उन से. वह अपने मम्मीपापा के साथ खुश हैं और मैं

अपने मम्मीपापा के. आप को क्या परेशानी है? मुझे कोई परेशानी नहीं. बस, तुम्हें अपने अनुभव की बात बता रही हूं.”

प्रांजलि मां की कोई बात सुनने के लिए तैयार नहीं थी. मम्मीपापा और इशिता और शलाका के साथ उसे

इस घर में जितनी सुविधा थी उतनी उसे कहीं नहीं मिल सकती थी. यहां उस पर काम की कोई जिम्मेदारी

न थी. रमा भी अपनी ओर से ठीक कह रही थी. अब उन के अपने बेटे व्योमेश की भी गृहस्थी हो गई थी.

ऐसे में इन सब के साथ उस की पत्नी शिखा कभीकभी छोटी बातों को ले कर खीज जाती थी. इसी वजह से

रमा बेटी को समझाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन वह समझने को राजी नहीं थी.

कुछ समय बाद शलाका ने एमए पास कर लिया था. रजत को बेटियों से कोई मतलब नहीं था. नाना

और मामा ने अच्छा सा घर देख कर उस की शादी पक्की कर दी.

मैं कुछ मीनिंगफुल करना चाहती हूं, जिस से मेरे दिल को संतुष्टि मिले, कृप्या मेरी मदद करें?

सवाल

मैं कुछ मीनिंगफुल करना चाहती हूं, जिस से मेरे दिल को संतुष्टि मिले,पति की हाल ही में डैथ हुई है, लाइफ वैसे तो बिलकुल रूटीन पर चल रही है, बच्चे बड़े हैं, अपने डिसीजन खुद लेते हैं, मेरी उम्र अभी 48 है, अच्छी पढ़ीलिखी हूं लाइफ में कुछ करना चाहती थी लेकिन मौका नहीं मिला, वैसे, मेरा जो मन करता है वह मैं करती हूं, किसी तरह की कोई रोकटोक नहीं है, मैं ऐसा क्या करूं?

जवाब 

जैसा कि आप लिख रही हैं कि लाइफ में कुछ करना चाहती थी लेकिन मौका नहीं मिला तो फिर अब अपनी इच्छा पूरी कीजिए. लाइफ में कुछ करने के लिए सब से पहले आप के इरादे मजबूत होने चाहिए. फिर अपने उद्देश्य पर फोकस कर के आगे बढ़िए. आप पढ़ीलिखी हैं, अच्छे व्यक्तित्व वाली है तो खुद को किसी ग्रुप में शामिल कीजिए. सामाजिक परिचर्चाओं में भाग लें.
आप में प्रतिभा है कुछ करने, कुछ सीखने की तो जिस चीज में आप की रुचि है उस काम को करने की ट्रेनिंगलें. वुमन और्गेनाइजेशनों में अपना योगदान दे सकती हैं जिस से आप की अपनी एक पहचान बनेगी.
एनजीओ से जुड़े सोशल वर्क कर सकती हैं. इस से मीनिंगफुल काम और क्या होगा. निस्वार्थ भावना से जरूरतमंदों की सहायता करना, उन की सेवा करने से बड़ा काम और क्या होगा. समाज में अपने आसपास करने के लिए बहुतकुछ होता है. बस, अपने कदम उठाने की देर होती है. शुरुआत करिए, एक के बाद एक और दरवाजे खुलते जाएंगे.

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