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हम हैं राही कार के

इस फिल्म का टाइटल 1993 में आमिर खान और जूही चावला की फिल्म ‘हम हैं राही प्यार के’ से मिलताजुलता है. फिल्म के निर्माता देवेंद्र गोयल ने अपने बेटे देव गोयल को लौंच करने के लिए इस फिल्म को बनाया है. उस ने 80 के दशक में कई हिट फिल्में बनाईं मगर अफसोस, अपने बेटे को लौंच करते वक्त उस ने एकदम बेसिरपैर की फिल्म बना डाली है.कार जैसे विषय पर हाल ही में 2-3 फिल्में और?भी बनी हैं, जैसे ‘फरारी की सवारी’, ‘मेरे डैड की मारुति’ आदि मगर ‘हम हैं राही कार के’ की यह कार एकदम खटारा है और इस में बैठने वाले एकदम बौड़म. इस फिल्म में संजय दत्त, अनुपम खेर, चंकी पांडे और जूही चावला जैसे पुराने कलाकार भी हैं. फिर भी फिल्म आकर्षित नहीं कर पाती. फिल्म देखते वक्त दर्शकों का धैर्य जवाब देने लगता है.

शम्मी सूरी (देव गोयल) और प्रियंका लालवानी (अदा शर्मा) मुंबई में एक साथ रहते हैं. शम्मी सौफ्टवेयर इंजीनियर है और प्रियंका एक कौलसैंटर में काम करती है. दोनों दोस्त हैं. शम्मी की मां शम्मी को एक शादी में शामिल होेने के लिए घर बुलाती है. बौस शम्मी को छुट्टी नहीं देता मगर वह प्रियंका को साथ ले कर अपनी कार से पुणे के लिए निकल पड़ता है. 2 घंटे का सफर पूरी रात तक चलता है. इस दौरान दोनों को अजीब सी मुश्किलों से गुजरना पड़ता है.  अंत में दोनों में प्यार हो जाता है. फिल्म की इस कहानी में काफी उलझाव है. चंकी पांडे की 5?भूमिकाएं हैं. एक वही ऐसा कलाकार है जो कुछ प्रभावित करता है बाकी सब बेकार हैं.

फिल्म का निर्देशन काफी घटिया है, गीतसंगीत कमजोर. इस खटारा कार के राही न ही बनें तो अच्छा है.

यमला पगला दीवाना-2

धर्मेंद्र और उस के बेटों की फिल्म ‘यमला पगला दीवाना-2’ उन की पिछली फिल्म का सीक्वल है. इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं है. पूरी फिल्म मैड कौमेडी से भरी पड़ी है. सारे कलाकार पागलपंती करते नजर आते हैं. अपनी इस फिल्म के बारे में खुद धर्मेंद्र का कहना है कि यह फिल्म उन लोगों के लिए है जिन्हें पागलपन से परहेज नहीं है. अब भला ऐसी पागल बना देने वाली फिल्म देखने जाने की क्या तुक है? फिर भी अगर आप फिल्म देखने जाना चाहते हैं और इस तिगड़ी की पागलपंती को देखना चाहते हैं तो अपने दिमाग को घर पर रख कर जाएं.

पिछली फिल्म की कहानी में परमवीर (सनी देओल) अपने पिता और भाई को ढूंढ़ने कनाडा से वाराणसी आता है. जबकि इस बार वह स्कौटलैंड में है और आईपैड के जरिए अपने पिता व भाई से चैट करता है.

इस फिल्म की कहानी स्कौैटलैंड से शुरू होती है जहां सनी देओल की ऐंट्री होती है. अगले ही सीन में कैमरा बनारस के एक घाट का सीन दिखाता है जहां यमला बाबा का भेष धारण किए धरम सिंह (धर्मेंद्र) और उस के छोटे बेटे गजोधर (बौबी देओल) को लोगों को बेवकूफ बनाते हुए दिखाया जाता है. वहीं घाट पर गजोधर की मुलाकात लंदन के एक बिजनैसमैन सर योगराज खन्ना (अन्नू कपूर) की बेटी सुमन (नेहा शर्मा) से होती है. योगराज खन्ना को मालदार आसामी समझ यमला बाबा उसे चूना लगाने के बारे में सोचता है. वह भेष बदल कर खुद को ओबेराय सेठ बता कर योगराज का दिल जीत लेता है और गजोधर के साथ लंदन पहुंच जाता है. वहां वह अपने बड़े बेटे परमवीर को योगराज खन्ना के मैनेजर के रूप में देख कर चौंक जाता है. धरम सिंह सुमन की शादी गजोधर के साथ तय कर देता है लेकिन जैसे ही धरम सिंह को पता चलता है कि सुमन योगराज की सगी बेटी नहीं है बल्कि रीत (क्रिस्टीना अखीवा) उस की अपनी बेटी है तो वह गजोधर को?भेष बदल कर उसी के जुड़वां भाई के रूप में पेश करता है ताकि वह रीत की शादी उस से करा सके. अंत में झूठ का परदाफाश होता है और गजोधर को सुमन तथा परमवीर को रीत मिल जाती है.

फिल्म की इस कहानी में एक औरंगउटान भी है. इस जानवर ने दर्शकों को खूब हंसाया है और कमजोर कहानी को आगे बढ़ाया है.

पूरी फिल्म देओल तिगड़ी के कंधों पर टिकी है. धर्मेंद्र की मैड कौमेडी कुछ अच्छी है. सनी देओल ने जम कर ऐक्शन सीन दिए हैं. क्लाइमैक्स में सूमो पहलवानों से लड़ने में उस ने गजब की फुर्ती दिखाई है. अन्नू कपूर ने निराश किया है.

फिल्म की सब से बड़ी कमजोरी अनुपम खेर और जौनी लीवर हैं. एक डौन की भूमिका में अनुपम खेर जोकर ज्यादा लगा है. जौनी लीवर भी दर्शकों को हंसाने में नाकाम रहा है. पूरी फिल्म में वह चीखताचिल्लाता नजर आया है. नेहा शर्मा और क्रिस्टीना अखीवा दोनों सुंदर लगी हैं, मगर क्रिस्टीना नेहा पर भारी पड़ी है.

फिल्म का निर्देशन सामान्य है. लगता है निर्देशन में देओल तिगड़ी ने अपनी मनमानी की है. पिछली फिल्म के मुकाबले संगीत कमजोर है. टाइटल गीत ही कुछ अच्छा बन पड़ा है. फिल्म के सैट और लोकेशनें अच्छी हैं. छायांकन काफी अच्छा है.

 

यह जवानी है दीवानी

यह फिल्म पूरी तरह से युवाओं के लिए है. इस में मस्ती है, रोमांस है, फन है, ऐडवैंचर है, डांस है, मस्त म्यूजिक है. कहने को तो इस फिल्म का निर्देशक अयान मुखर्जी है लेकिन यह करण जौहर की फिल्म ज्यादा नजर आती है, जो इस फिल्म का निर्माता है. 5 साल बाद परदे पर आई रणबीर और दीपिका की जोड़ी ने इस फिल्म में अपना जलवा बखूबी बिखेरा है. ‘यह जवानी है दीवानी’ एक लवस्टोरी पर बनी फिल्म है. लव स्टोरीज पर बनी ज्यादातर फिल्में सफल रही हैं. इस सब्जैक्ट पर बनने वाली फिल्में को रोमांस, ऐक्शन, मेलोड्रामा और डांस व गानों से सजा कर पेश किया जाता है. इसीलिए ये फिल्में अच्छाखासा मुनाफा कमा जाती हैं. निर्देशक ने फिल्म को रोचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उस ने पूरी कोशिश की है कि दर्शकों को ऐंटरटेनमैंट की पूरी डोज मिले. हिमाचल प्रदेश और यूरोप की खूबसूरत लोकेशनें फिल्म का प्लस पौइंट हैं.

फिल्म की कहानी 4 दोस्तों, कबीर थापर उर्फ बन्नी (रणबीर कपूर), अवि (आदित्य राय कपूर), नैना तलवार (दीपिका पादुकोण) और अदिति (कल्कि कोचलिन) की है जो ट्रैकिंग के लिए मनाली जाते हैं. बन्नी को मौजमस्ती करना ज्यादा पसंद है जबकि नैना अपने आप में ही सिमट कर रहने वाली लड़की है. लेकिन मनाली पहुंचने पर जब वह खुली हवा में सांस लेती है तो मानो उसे पर लग जाते हैं. उसे लाइफ में पहली बार ऐंजौय करने का मौका मिलता है. उधर बन्नी अपने सपनों को पूरा करने में यकीन करता है. वह शादी करने में विश्वास नहीं करता. इस ट्रिप के दौरान बन्नी और नैना एकदूसरे के नजदीक आते हैं.

लेकिन बन्नी अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए यूरोप चला जाता है.

8 साल बाद जब वह अदिति की शादी में लौटता है तो उस की मुलाकात फिर से नैना से होती है. इन दोनों में एक बार फिर से प्यार हो जाता है.

फिल्म की यह कहानी पूरी तरह से बन्नी और नैना के रिश्तों के इर्दगिर्द बुनी गई है. इन किरदारों में दीपिका और रणबीर की कैमिस्ट्री खूब जमी है. मध्यांतर तक फिल्म की गति तेज बनी रहती है. मनाली मेें दीपिका और रणबीर का मस्ती करना सुहाता है. लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म की गति एकदम धीमी हो जाती है और फिल्म का आकर्षण कम होने लगता है. फिल्म के आखिरी 15-20 मिनट में इन दोनों किरदारों में फिर से रोमांस का जज्बा पैदा होना फिल्म में फिर से आकर्षण को जगाता है. फिल्म का निर्देशन काफी हद तक अच्छा है. निर्देशक अगर अदिति की शादी के फंक्शन को लंबा न खींचता तो ज्यादा अच्छा होता.

फिल्म में रणबीर कपूर एकदम नैचुरल लगा है. ‘बदतमीज…’ गाने में उस ने अपने चाचा शम्मी कपूर की यादें ताजा कर दी हैं. उस ने मस्ती भी की है और?भावुक दृश्य भी दिए हैं. दीपिका पादुकोण भी स्वाभाविक लगी है. मोटे फ्रेम के चश्मे में वह खूबसूरत लगी है. होली वाले गाने में उस ने जम कर मस्ती की है. कल्कि कोचलिन ने टौमबौय की?भूमिका की है. कल्कि और आदित्य राय कपूर कहानी को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं.

फिल्म के संवाद अच्छे हैं. रणबीर कपूर और कल्कि कोचलिन के द्वारा बोले गए संवादों पर दर्शकों के चेहरों पर मुसकराहट आती है. मारधाड़ के दृश्यों में कौमेडी भी है.

फिल्म का संगीत प्रीतम ने दिया है. कई गाने तो फिल्म के रिलीज होने से पहले ही लोगों की जबान पर चढ़ चुके थे. ‘बलम पिचकारी…’ और ‘बदतमीज दिल…’ गाने दर्शकों को झुमाने वाले हैं. माधुरी दीक्षित का एक आइटम सौंग ‘घाघरा…’ भी है. इस गाने में रणबीर कपूर ने माधुरी के साथ डांस किया है और जमा है.

फिल्म का छायांकन अच्छा है. मध्यांतर से पहले छायाकार ने पहाड़ों पर फैली बर्फ के नजारे दिखाए हैं तो मध्यांतर के बाद उदयपुर की सैर करा दी है.

 

हर औरत का दर्द मीना कुमारी का दर्द है

मीना कुमारी के मुरीदों की आज भी कमी नहीं है. उन्हीं में से एक हैं, दिल्ली में पलीबढ़ी और फिल्म व टीवी के माध्यम से शोहरत बटोरने वाली अभिनेत्री रूबी एस सैनी. वे बचपन से मीना कुमारी की फिल्में देखती आई हैं. वे अब बतौर लेखक, निर्माता, निर्देशक, कौस्ट्यूम डिजाइनर व अभिनेत्री रंगमंच पर एक अनूठा नाटक ‘एक तनहा चांद’ ले कर आई हैं. रूबी की जिंदगी के बारे में शांतिस्वरूप त्रिपाठी ने उन से बातचीत की. पेश हैं खास अंश.

आप अपनी अब तक की अभिनय यात्रा को ले कर क्या कहेंगी?

मेरी शिक्षादीक्षा दिल्ली के मध्यमवर्गीय परिवार में हुई. मेरी मम्मी को मीना कुमारी की फिल्में बहुत पसंद थीं. इसलिए धीरेधीरे मैं भी भावनात्मक स्तर पर मीना कुमारी से जुड़ती चली गई. जब अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा तो मुझे लगा कि मीना कुमारी पर कुछ करना चाहिए. लेकिन उस से पहले मैं ने दिल्ली में रहते हुए दूरदर्शन के कई सीरियलों में अभिनय किया. फिर 2007 में मैं मुंबई आ गई जहां मुझे सब से पहले जेडी मजीठिया के सीरियल ‘चलती का नाम गड्डी’ में सुहासिनी मुले और रवि गोसांई के साथ परिवार की बहू कुलदीप का किरदार निभाने को मिला. इस सीरियल से मुझे काफी शोहरत मिली. फिर जेडी मजीठिया ने मुझे अपनी फिल्म ‘खिचड़ी’ में अभिनय करने का मौका दिया.

उस के बाद कई फिल्मों में काम किया. अनूप जलोटा की शीघ्र प्रदर्शित होने वाली, आतंकवाद पर आधारित फिल्म ‘मकसद द प्लान’ की है. सीरियल तारक मेहता का ‘उलटा चश्मा’ के अलावा ‘यू ट्यूब’ पर मेरा खुद का चैनल चल रहा है. इस की स्क्रिप्ट भी मैं खुद ही लिखती हूं. अब थिएटर जगत में बतौर निर्माता, निर्देशक, लेखक, कौस्ट्यूम डिजाइनर व अभिनेत्री एक नाटक ‘एक तनहा चांद’ कर रही हूं. इस में मीना कुमारी का मुख्य किरदार मैं खुद ही निभा रही हूं.

नाटक की विषयवस्तु के रूप में मीना कुमारी की जिंदगी ही क्यों?

मेरी मम्मी मीना कुमारी की फिल्में देखते हुए रोती थीं. उस वक्त मैं भी सोचती थी कि मीना कुमारी के अंदर कितना दर्द है. कितना रोती हैं. इसी दौरान दिल्ली में ही एक दिन मेरी मुलाकात दिलशाद अमरोही से हुई, जोकि अमरोहा के रहने वाले हैं और कमाल अमरोही के काफी नजदीक रहे हैं. उन से मीना कुमारी की चर्चा निकली तो उन्होंने मुझे मीना कुमारी पर नाटक की पटकथा लिख कर दी जिस पर मैं ने 2006 में ‘तनहा चांद’ नाम से दिल्ली के कमानी औडिटोरियम और श्रीराम सैंटर में शो किए.

फिर 2007 में मैं मुंबई आ गई. वहां सीरियल व फिल्मों में अभिनय करने के साथसाथ मीना कुमारी के बारे में जानकारियां इकट्ठा की. काफी रिसर्च करने व मधुप शर्मा की किताब ‘आखिरी ढाई दिन’ पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इस नाटक को नए सिरे से लिखा जाना चाहिए. इस बार मैं ने दर्शक और मीना कुमारी के बीच पुल का काम करने के लिए अमन मियां का काल्पनिक पात्र गढ़ा और इस नाटक को नाम दिया ‘एक तनहा चांद’.

इस में हम ने यह दिखाया है कि राउफ लैला एक दरजी है, जोकि अकसर अमान मियां के यहां आताजाता है. अमान मियां ने मीना कुमारी को अपने घर में काफी समय तक रखा व पाला. अमान मियां ने मीना कुमारी के दर्द आदि को जिया था.

आप के मन में इस तरह के खयाल कैसे आए?

लोग मीना कुमारी को ट्रैजडी क्वीन समझते हैं. लोगों को मीना कुमारी की शराब की लत व कई पुरुषों के साथ अफेयर की बात पता है पर इस की वजह किसी को पता नहीं है. किसी ने उन के दर्द को नहीं जाना. जिन समस्याओं से मीना कुमारी अपनी निजी जिंदगी में जूझ रही थीं उन समस्याओं से आज की भारतीय नारी भी जूझ रही है.

मीना कुमारी के पास सुंदरता, धन, मानसम्मान, शोहरत सबकुछ था. उन के प्रशंसकों की कमी नहीं थी लेकिन उन की कोख सूनी थी. उन्हें अपने पति से अपेक्षित प्यार नहीं मिला. नाटक में हम ने इस बात को स्थापित किया है कि एक स्थापित अभिनेत्री का एक स्ट्रगलर फिल्मकार कमाल अमरोही से शादी करने का फैसला प्यार पाने का सपना था. मगर कमाल उन्हें अपनी पत्नी के बदले एक सफल हीरोइन के रूप में देखते थे, जो उन्हें सफल निर्देशक बना सकती थी. कहा भी गया कि मीना साहिबान (पाकीजा) नहीं होती, तो कमाल अमरोही इतिहास के पन्नों में ही नहीं होते. पुरुष प्रधान समाज में हर नारी का दर्द मीना कुमारी के दर्द की ही तरह है.

वर्तमान पीढ़ी तो मीना कुमारी के साथ रिलेट नहीं करती होगी?

शुरू से ही हर कोई मुझ से यही सवाल कर रहा था. लोगों का मानना था कि मीना कुमारी को जानने वाली पीढ़ी अब नहीं रही और नई पीढ़ी उन्हें जानती नहीं. लेकिन जब आप ‘एक तनहा चांद’ का दूसरा शो देखने आए थे, तो आप ने भी महसूस किया होगा कि दर्शकों में आधे से ज्यादा युवा थे. शुरू से मेरा मानना रहा है कि वर्तमान युवा पीढ़ी भी मीना कुमारी के बारे में जानना चाहेगी.

आप ने इस नाटक में मीना कुमारी को उन के पति कमाल अमरोही द्वारा प्रताडि़त करते हुए दिखाया है. इस को ले कर कोई विवाद नहीं उठा?

विवाद क्यों उठेगा? पूरी दुनिया जानती है कि कमाल अमरोही ने मीना कुमारी की जिंदगी बर्बाद की. जब मैं 7वीं कक्षा में थी तभी मुझे यह बात पता चली थी कि कमाल अमरोही, मीना कुमारी को मारते थे.

आरोप लगाया जा रहा है कि आप ने दूसरों के कौंसेप्ट को चुरा लिया?

लोग मुझ पर गलत आरोप लगा रहे हैं. मैं ने किसी का कौंसेप्ट नहीं चुराया. मीना कुमारी किसी की निजी प्रौपर्टी नहीं हैं. कोई भी इंसान अपनेअपने तरीके से उन्हें ट्रिब्यूट दे सकता है.

किस्तों का मोबाइल बाजार

मोबाइल फोन का भारतीय बाजार निर्माता कंपनियों को लगातार आकर्षित कर रहा है. कंपनियां बाजार पर कब्जा करने के लिए नित नई रणनीतियां बना रही हैं. उधर, करीब 1 साल के दौरान इन कंपनियों ने भारतीय उपभोक्ता को अपने महंगे फोन बेचने के लिए किस्तों की रणनीति अपनाई है. कंपनियां अपने महंगे फोन ग्राहक को ब्याजरहित आसान किस्त पर बेच रही हैं. इस के लिए फोन निर्माता कंपनी ने क्रैडिट कार्ड बनाने वाली कंपनियों के साथ समझौता किया है.

आसान किस्तों ने मोबाइल फोन की बिक्री को आसान बना दिया है जिस से एप्पल के आई फोन और सैमसंग के गैलेक्सी फोन की बिक्री में भारी इजाफा हुआ है.

सैमसंग का दावा है कि उस के स्मार्ट फोन की बिक्री इस रणनीति के तहत मार्च में जनवरी की तुलना में दोगुनी हुई है. कंपनियों ने 50 हजार के फोन 6 ऋणरहित किस्तों में दे कर बाजार में उपभोक्ता को महंगे फोन खरीदने के लिए आकर्षित किया है. कंपनियों ने बाजार में ऐसा जादू चलाया है कि महंगे उपकरण खरीदना फैशन बन गया है. इस फैशनबाजी को भुनाने के लिए कंपनियां 50 हजार रुपए का फोन 12 ब्याजरहित किस्तों में बेच कर आम उपभोक्ता को भी महंगे फोन रखने का आदी बना रही हैं.

कंपनियों का विदेश पलायन ठीक नहीं

गरमी तेज पड़ रही है और चारों तरफ बिजली के लिए हाहाकार मचा हुआ है. गांव में तो बिजली एक सपना बन गई है. शहरों में भी बुरा हाल है. जबरदस्त बिजली कटौती के कारण आम उपभोक्ता परेशान है ही लेकिन बिजली के भुगतान की लगातार बढ़ रही दर से तो उस का पसीना सूखने का नाम नहीं ले रहा है. बिजली संकट से निबटने के लिए सरकार के पास फिलहाल कोई उपाय नहीं है. परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की शुरुआत की गई है लेकिन उन में जोखिम ज्यादा है. इस क्रम में अक्षय ऊर्जा ही बेहतर विकल्प है. लेकिन ऐसा लगता है कि उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा. पन बिजली, सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा कुछ ऐसे विकल्प हैं जिन पर सरकार ध्यान दे तो संकट काफी कम किया जा सकता है. सरकार की ही उदासीनता है कि टाटा पावर जैसे बड़े औद्योगिक घराने अक्षय ऊर्जा के उत्पादन के लिए विदेश भाग रहे हैं जबकि देश को उस की सख्त जरूरत है. टाटा पावर अफ्रीकी बाजार के अक्षय ऊर्जा के कारोबार की संभावना तलाश रहा है जबकि इंडोनेशिया और भूटान में तो उस का यह कारोबार अच्छा चल रहा है. सवाल यह है कि देश ऊर्जा संकट से जूझ रहा है और इस दिशा में राहत पहुंचाने वाली बड़ी कंपनियां बाहर भाग रही हैं. निश्चित रूप से सरकार को निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनियों को स्वदेश में ही ऊर्जा, विशेषकर अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.

 

बैंकिंग पर सरकार का जोर

सरकार वित्तीय प्रवाह बढ़ाने के लिए बैंकों पर ज्यादा ध्यान दे रही है. सरकारी बैंकों को मिला कर एक बड़े और स्तरीय बैंक में तबदील करने के लिए इन का एकीकरण किया जा रहा है और सरकारी बैंकों की कुल संख्या घटा कर 7 करने पर काम चल रहा है. दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय नए बैंकों के लिए लाइसैंस देने पर भी विचार कर रहा है ताकि वित्तीय प्रवाह बढ़े व बाजार में प्रतिस्पर्धा आए. उस के लिए रिजर्व बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बड़े उपक्रमों को बैंक स्थापित करने के लिए लाइसैंस जारी कर सकता है. पिछले दशक यानी जब से (1991-94 से) देश में उदारीकरण की व्यवस्था शुरू हुई है तब से अब तक 2 चरणों में लगभग एक दर्जन नए बैंकों को लाइसैंस जारी किए गए हैं. वर्ष 2006 के बाद रिजर्व बैंक ने सिर्फ 2 बैंकों, कोटक महेंद्रा और येस बैंक को ही लाइसैंस दिए हैं जबकि तीसरे चरण में कई बड़ी कंपनियां बैंक का लाइसैंस लेने के लिए लाइन लगाए खड़ी हैं.

उम्मीद की जानी चाहिए कि इस से बैंकिंग बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इस का लाभ आखिरकार आम आदमी को भी मिलेगा. लेकिन बैंक अनियमितता से नहीं जुड़ें, इस पर सरकार को नजर रखनी होगी.

 

कमजोर अर्थव्यवस्था आंकड़ों से बाजार में निराशा

सरकार के सोने के आयात पर फिर नियंत्रण की अवधि बढ़ाने, सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर का निराशाजनक अनुमान, विनिर्माण क्षेत्र के 4 साल के निचले स्तर पर पहुंचने और विदेशी बाजार में अच्छा कारोबार नहीं होने से बंबई शेयर बाजार यानी बीएसई में निराशा का माहौल रहा और सूचकांक में तेज गिरावट दर्ज की गई है. निराशा के इस माहौल में बाजार को सब से तगड़ा झटका 23 मई को लगा जब सूचकांक 388 अंक तक लुढ़क गया. वर्ष 2012-13 में जीडीपी के दशक के सब से निचले स्तर पर रहने से बाजार में मायूसी का दौर रहा और 31 मई को समाप्त हुए सप्ताह में सूचकांक में 455 अंक की गिरावट दर्ज की गई. जून की शुरुआत भी बाजार के लिए अच्छी नहीं रही और जीडीपी, आटो बिक्री व विनिर्माण क्षेत्र के आंकड़ों के कमजोर रहने का दबाव बाजार पर स्पष्ट दिखा और सूचकांक मनोवैज्ञानिक स्तर से नीचे लुढ़कता रहा.

बाजार में अफरातफरी का माहौल देखते हुए वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने कहा है, ‘‘नर्वस होने की कोई बात नहीं है. मुझे लगता है कि भारतीय बाजार को ठीक तरह से स्थिति को पढ़ना आना चाहिए. बाजार को इधरउधर की घटनाओं से उत्पन्न हुई स्थिति का सही मूल्यांकन करना चाहिए.’’ वित्तमंत्री के इस बयान के बाद सूचकांक में जारी गिरावट को ब्रेक लगा और बाजार में, मामूली ही सही, मजबूती का रुख बना.

 

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