‘दुनिया’,‘इंसाफ’,‘रजिया सुल्तान’ से लेकर ‘मैं ने प्यार किया’ तक लगभग 100 सफलतम फिल्मों के गीतकार असद भोपाली कभी नहीं चाहते थे कि उनकी संतान गालिब असद भोपाली फिल्मी दुनिया से जुड़े.मगर गालिब असद भोपाली के सिर पर फिल्मों में ही काम करने का जनून सवार था.12वीं की पढ़ाई पूरी कर वे राजश्री प्रोडक्शन के दफ्तर में अभिनेता बनने के लिए पहुंच गए,जहां उन्होंने कुछ समय बतौर सहायक लेखक जलीस शेरवानी के साथ काम किया.फिर बतौर सहायक, निर्देशक प्रदीप मैनी के साथ काम किया. उस के बाद ज्योतिस्वरूप के साथ बतौर घोस्ट लेखक काम किया. और सीरियल‘शक्तिमान’ से स्वतंत्र लेखक के रूप में शुरुआत की.तब से अब तक वे कई सफलतम व विचारोत्तेजक फिल्मों व सीरियलों का लेखन कर चुके हैं. इन दिनों गालिब असद भोपाली की चर्चा कुशान नंदी निर्देशित फिल्म ‘जोगीरा सारा रा’ को लेकर हो रही है,जिसका उन्होंने लेखन किया है.

हाल ही में गालिब असद भोपाली से उनके घर पर मुलाकात हुई. उस वक्त उनसे बदलते हुए समाज,युवा पीढ़ी की सोच,दर्शक,भाषा और लोगों में पढ़ने की कम होती आदत से ले कर कई अन्य अहम मुद्दों पर लंबी बातचीत हुई.गालिब असद भोपाली के पिता असद भोपाली लेखक रहे हैं. जब उन से पूछा कि क्या उन्होंने अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए लेखन को ही कैरियर बनाने की सोचा,तो वे कहते हैं, “”मुझे बचपन से ही फिल्मों में काम करना था.मेरी सोच यह थी कि मैं अभिनेता बनूं,या स्पौट बौय, लेखक या निर्देशक बनूं. मगर यह तय था कि फिल्मों में ही काम करना है.मजेदार बात यह थी कि मेरे पिताजी फिल्म इंडस्ट्री से सख्त नफरत करते थेऔर मेरा स्वभाव विद्रोही किस्म का था.मैं हमेशा पिताजी के खिलाफ सोचा करता था. वे जिस काम को करने के लिए मना करते,मैं वही काम करता.””

गालिब असद भोपाली के पिता असद भोपाली वैसे तो फिल्मी गीत लिखा करते थे पर फिल्मों में काम करने के खिलाफ थे, इस पर गालिब कहते हैं,“वे फिल्मों से मेरे जुड़ने के नहीं, बल्कि फिल्मों के ही खिलाफ थे.उनके अपने अनुभवों के अनुसार उन्हें लगता था कि फिल्म इंडस्ट्री अच्छी जगह नहीं है. यहां सुरक्षा नहीं है. वे हमेशा कहते थे, ‘मुझे फिल्मलाइन पसंद नहीं है.’मेरे पिताजी ने लोगों को फिल्मलाइन में संघर्ष करते हुए देखा था.मैं ने भी अपने कुछ दोस्तों को संघर्ष करते हुए देखा है.मैंने अपने पिताजी से कहा था कि मुझे दूसरा काम आता नहीं है, इसलिए मुझे फिल्मों में ही काम करना है.

““मुझे लगता था कि मैं डाक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकता.कला के क्षेत्र में ही कुछ कर सकता था, तो फिल्मों के अलावा कोई जगह मेरी समझ में नहीं आ रही थी.पिताजी की नजरों में फिल्मी दुनिया अच्छी जगह नहीं थी.वे बहुत संस्कारी इंसान थे. शायरी करते थे,गीत लिखते थेलेकिन उनकी नजर में फिल्म इंडस्ट्री संस्कारी जगह नहीं लगती थी.वे खुद गीतकार थेमगर घर के अंदर किसी भी इंसान को गाना गुनगुनाने की इजाजत नहीं थी.हमघर में गाना नहीं गा सकते थे.””

वे आगे कहते हैं,““जैसे हम सिगरेट पीते हैंपर अपने बच्चों के सामने नहीं पी सकते.क्या सिगरेट पीना इतना बुरा है?या बच्चों का सिगरेट पीना बुरा है? तो यह दोहरा व्यक्तित्व पूरे समाज का है.आप इसे देाहरा चरित्र कह सकते हैं,पर है जरूर.यह अपने लिए अलग है और दूसरों के लिए अलग है.मेरी अपनी कोशिश रहती है कि मैं वैसा न करून,मैं दोहरा चरित्र न जियूं.मैं अपने परिवार,बच्चों, रिश्तेदारों व दोस्तों को पूरी छूट देने का प्रयास करता हूं कि वे जैसा करना चाहते हैंवैसा करें.मैं वैसा करता हूंजैसा मैं चाहता हूं.””
गालिब कहते हैं,““मेरी राय में दोहरापन कम नहीं हुआ,बल्कि लोगों ने दोहरापन को छिपाना शुरू कर दिया है.आप ट्रेलर में देखेंगे तो लगेगा कि जबरदस्त ट्रोलिंग होने वाली है.तो ट्रोलिंग का जो डर हैवह उसे छिपाने का प्रयास करता है.यह कहना गलत होगा कि हमारी पितृसत्तात्मक सोच बदल गई है.

““यह कहना भी गलत है कि अब लोग ज्यादा मौडर्न हो गए हैं.यह कहना भी गलत होगा कि अब पुरुष अपने घर की स्त्रियों का सम्मान करने लग गएहैं.लेकिन अब ट्रोलिंग के डर से लोगों को यह सब छिपाना आ गया है.अब लोग आजादखयाल होने का थोड़ा सा ढोंग करने लगे हैं.सही मानोमें अभी लोग आजादखयाल हुए नहींहैं, वक्त लगेगा. जैसेजैसे लोग पढ़लिख जाएंगेवैसेवैसे बदलाव आएगा.हमारे देश में लोग पढ़ेलिखे कम हैं.लोग जितना पढ़ेलिखें होंगेउतना ही वे समझदार होंगे,उतने ही उनके पास विकल्प होंगे.””जब उन से पूछा गया कि सफलता पाने के लिए इंसान के अलग मापदंड बने हुए हैं और घर के अंदर उसके मापदंड अलग हैं, ऐसा क्यों, तो वे कहते हैं,““सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं, पूरे विश्व में ऐसा है.मैं ने यह सब रशियन व अन्य देशों की फिल्मों में भी देखा है.इन फिल्मों में ऐसे किरदार गढ़े जाते हैं और उनका मजाक भी उड़ाया जाता है. शायद यह मानवीय मनोविज्ञान है.इंसानी स्वभाव है.

““मैं अपने घर में लोगों से कहता हूं कि लोग तुम्हें अच्छी या बुरी बात बोलते हैं,तो वे यह सोचकर बोलते हैं कि वे अच्छा बोल रहे हैं. वे समझते हैं कि वे आपको अच्छी सलाह दे रहे हैंजबकि उन्हें बताने की जरूरत नहीं है कि वे आपको बताएं कि आपको क्या करना है.मैं यहां पर आपको अपने पिताजी की इसी संदर्भ में एक शायरी सुनाता हूं-‘सूरते रोज बदल देते हैं जिंदानों (जिंदान का अर्थ है- जेल) की,होशमंदों को बड़ी फिक्र है दीवानों की.’ मतलब कि बुद्धिजीवी वर्ग को बड़ी फिक्र है कि दुनिया में ये जो पागल हैंइनका क्या होगा.तो उनकी जेल वे हमेशा बदलते रहते हैं.यह बुद्धिजीवी लोग हमें बताते रहते हैं कि हमें कैसे अपनी जिंदगी जीनी है,कैसे जिंदगी को अच्छा किया जा सकता है.कुछ लोग दूसरों की जिंदगी में दखलंदाजी करना अपना कर्तव्य समझते हैं. वे खुद कैसे जी रहे हैं, उस पर उनका अख्तियार नहीं है, तो वे कुछ कर भी नहीं सकते.””

गालिब का मानना हैकि इंसान के दोहरेपन का भाषा से कोई ताल्लुक नहीं है.यह इंसानी स्वभाव है.बच्चों को झूठ बोलना तो बड़े ही सिखाते हैं. वे कहते हैं,““मैं ने कोशिश की कि अपने बच्चों के साथ वह न करूं जो आमतौर पर हर मांबाप अपने बच्चे के साथ करता है.बच्चे के गिर जाने पर जमीन पर हाथ मार कर कहते हैं कि लो हमने इसे मार दिया या देखो चींटी मर गई.”“वे मानते हैं कि बच्चे से अकसर झूठ बोलते हैं.वह रो रहा होता हैतो हम उससे कहते हैं कि बस,मैं 5 मिनट में आ रहा हूंतो यह पूरा हमारे यहां का संस्कार है.यह हमारे अंदर से है.जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी तक चलता रहता है.यही हाल हमें नजर आता रहता है.प्रतिस्पर्धा की भावना भी बच्चे को बचपन से सिखाई जा रही है कि तुम्हेंक्लास में प्रथम ही आना है.लोग खुद को देखने के बजाय खुद को ‘जज’ करने के लिए दूसरों को देखते हैं.”

वे कहते हैं,“18 वर्ष में लोग बालिग हो जाते हैं.घर के संस्कारों के अनुरूप 13-14 वर्ष की उम्र तक हर बच्चा अपने मापदंड बनाता है.कुछ चीजें सीखता है,कुछ चीजें अपने लिए सोचता है कि जिंदगी में ऐसा करना चाहिएजिसे वह20-22 की उम्र तक अपनी जिंदगी पर अप्लाई करता है.फिर वह जो कुछ देखता हैउसअनुभव के आधार पर वह 22 वर्ष तक जो कुछ सोचा होता है,उसमें से छंटनी करना शुरू कर देता है.वह सोचने लगता है कि ये सब किताबी बातें हैं,हमें मूर्ख बनाया गया है.तब वह अपने जीवन में नई आइडियोलौजी तैयार करता है.”गालिब कहते हैं,““यह आइडियोलौजी 40 से 45 वर्ष तक चलती हैजो कि उस की व्यावहारिक जिंदगी का हिस्सा बन जाती है.वह व्यावहारिक जिंदगी में हर बात को अप्लाई करके देखता है. उसी के साथ वह बदलाव व छंटनी करना शुरू करता है. उसे लगता है कि वह जो कुछ कर रहा है, सही कर रहा है. पर यह एक प्रोसैस होता है.यह प्रोसैस जिंदगी के अंत तक चलता है.

जब जिंदगी अपने अंतिम पड़ाव पर होती हैतब इंसान को लगता है कि उसने क्या सही किया और क्या गलत.यह प्रोसैस पूरी पीढ़ी का होता है.यही वजह है कि जिस ढंग से दर्शक बदलता है,उसी तरह से फिल्में बदलती हैं.””जब उन से पूछा गया कि देश की सरकार बदलने से सिनेमा में क्या अंतर आता है तो वे कहते हैं, ““सरकार व सिनेमा का बदलना वास्तव में समाज का, इंसान का बदलना है.जब समाज की सोच बदलती है,तभी सरकार बदलती है,तभी सिनेमा बदलता है.जब समाज की सोच बदलती है तो लेखक से लेकर निर्देशक-निर्माता सब की सोच बदलती है.आखिर यह सब भी तो समाज का ही हिस्सा हैं.फिल्म व सरकार सब समाज का ही हिस्सा हैं.”

“”आप यदि गौर करें तो पाएंगे कि पुरानी फिल्मों में आदर्शवाद था,क्योंकि तब लोगों में आदर्शवाद था.उस वक्त आदर्शवादी फिल्में लोगों को भा रही थीं.जब लोगों से आदर्शवाद गायब हुआतो उन्हें लगा कि फिल्मों मेंये कौन सी बातें हो रही हैं,हकीकत में ऐसा नहीं होता.तब सिनेमा यथार्थवाद में आया,फिर काल्पनिक दुनिया में आयाक्योंकि यथार्थवाद में मनोरंजन नहीं मिल रहा था.“”यथार्थवादी फिल्मों में कड़वाहट थी,जिससे छुटकारा पाने के लिए ही लोग काल्पनिक कहानियों वाले सिनेमा की तरफ मुड़े.तो जिस तरह समाज बदल रहा है,उसी तरह से सिनेमा और सरकार बदल रही है.पीढ़ी बदल रही है.एक आदर्शवादी पीढ़ी थी,तो दूसरी आज की पीढ़ी हैजो प्यार के बारे में बात ही नहीं करती.

“”आज की पीढी प्यार के बजाय येबातें करती है कि ‘आई लाइक यू’,‘आई लाइक टू स्पैंड टाइम विथ यू’.यह पूरी पीढ़ी का अंतर है.आज की पीढ़ी कमिटेड तक हो जाएगी,पर प्यार नहीं करेगी क्योंकि उस के अनुसार प्यार वास्तविक चीज नहीं बल्कि काल्पनिक चीज है, अव्यावहारिक चीज है.यही बात आपको 26 मई को प्रदर्शित हो रही हमारी फिल्म ‘जोगीरा सारा सारा’ में नजर आएगी,जिसकी कहानी मैं ने लिखी है.
““आज की पीढ़ी पूरी तरह से प्रैक्टिकल हो गई है, तो भाषा नहीं बल्कि पूरी एक पीढ़ी की सोच का परिणाम है.हमारे पूर्वज जो करते आए हैंउसे उसे आज की पीढ़ी वाले अपने हिसाब से कसते हैं,उसमें छांट कर अपना अलग नजरिया बनाते हैं.यह प्रोसैस चलता रहता है और पूरा सर्कल होने के बाद हम फिर वहीं पहुंचते हैं जहां हम पहले कभी थे.इसीलिए कहा जाता है कि इतिहास अपनेआपको दोहराता है.””

फिल्म ‘जोगीरा सारा रा’ की कहानी के आइडिया को ले कर वे बताते हैं,““फिल्म लेखन का अपना एक अलग तरीका है.लेकिन इस फिल्म को लेकर हमारा थौट प्रोसैस यह था कि जब हमने ‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ लिखी थी,तो हमारी समझ में आया कि हमारी गलती यह रही कि हमने एक ‘एडल्ट’ फिल्म बना डाली थी. उस फिल्म के समय हमारी समझ में आया था कि अगर हमारी फिल्म एडल्ट न होतीतो ज्यादा दर्शक मिलते.“”तो हमने सोचा कि इस बार हम पारिवारिक फिल्म बनाएं.टैबू वगैरह के बजाय एक साधारण पारिवारिक फिल्म बनानाचाह रहे थे.तो हमने मनोरंजक पारिवारिक फिल्म बनाने की सोची.कहानी पर विचार आया कि किरदार आधारित कहानी हो.हमने सोचा कि एक जुगाड़ू किरदार होजो सारी चीजों का जुगाड़ करता है.दूसरों की शादी करवाता है,पर खुद शादी नहीं करता.वह किसी की शादी तुड़वाता है और फिर खुदशादी के चक्कर में फंस जाता है.

“”इसी लाइन को हमने विस्तृत किया. पहले विचार यह आया था कि एक बेचारा पुरुष परिवार की ढेर सारी औरतों के बीच में फंसा हुआ है.वह मैं स्वयं हूं.जब मेरे भांजे का जन्म हुआ थाउस वक्त मेरे घर में मेरी मां,मेरी बहन,भांजी,मेरी पत्नी व मेरी 2 बेटियां थीं.यानी, मेरे अलावा सारी औरते हैं.इसलिए हम इस कौन्सैप्ट पर काम कर रहे थे कि कैसे सारी औरतों को खुश रखा जा सकता है.क्या आपको एहसास है कि सासननद,ननदभावज,सासबहू के बीच क्या होगा. जब यह पुरुष सभी की सुनेगातो इसका क्या हाल होगा.
“”हालांकि मेरे साथ इतना बुरा नहीं हुआपर मैं कल्पना कर सकता हूंतो मुझे लगा कि यह किरदार मजेदार हो सकता है.तो फिर सोचते हुए यह बात दिमाग में आई कि यह किरदार शादी नहीं करता है, बल्कि दूसरों की शादी करवाता है.तब लगा कि अच्छी कहानी बन सकती है.जब हमने लिखातो कहानी अच्छी बन गई.””

शादी तुड़वाने वाले कौन्सैप्ट पर ‘जोड़ी ब्रेकर’ सहित कई फिल्में बन चुकी हैं. इस मामले में वे बताते हैं,““इस विषय पर इंग्लिश फिल्में भी बन चुकी हैं.पर मेरा मानना है कि कहानियां एकदूसरे से मिलतीजुलती होती ही हैं.कुल मिलाकर कहानियां सीमित हैं.मेरा मानना है कि कहानी बहुत थिन लाइन होती है.एक मां,जिसके 2 बेटे. एक अच्छा या एक बुरा.अब वह फिल्म ‘गंगा जमुना’ या ‘दीवार’ भी हो सकती है. हमने इस बात पर गौर किया कि हम क्या नया कर सकते हैं.यदि आपको यह ‘जोड़ी ब्रेकर’ लगती हैतो हमने उसमें कुछ नयापन लाने की कोशिश की है.”

‘जोगीरा सारारारा’ में ‘लव मैरिज’ का तड़का भी लगाया गया है. इस विषय पर गालिब कहते हैं, “”हमारी फिल्म में प्यार नहीं आया है.हमारी फिल्म 2 ऐसे किरदारों की कहानी है जिन्हें पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं, पर करते जा रहे हैं.ऐसे 2 लोगों की कहानी नहीं हैजो साथ में चलतेचलते प्यार हो गया.हमारी पत्नी रेखा की सलाह थी कि इन्हें प्यार नहीं होना चाहिए.हमारे लिए यही सबसे बड़ी चुनौती थी. पर बाद में हमें लगा कि ‘फील गुड’ के लिए इनका कुछ हो जाना चाहिए.तो वह हमने किया है,मगर प्यार नहीं हुआ है.””
कुछ लोगों की नजर में आज की तारीख में युवा पीढ़ी का प्यार कौफी डे से शुरू और कौफी डे पर ही खत्म हो जाता है. जब उन से पूछा कि समाज में जो बदलाव आया हैउसमें प्यार क्या है? तो इस के जवाब में वे कहते हैं,““मैं वही बता रहा था कि अब प्यार नहीं रहा.अब प्यार अव्यावहारिक चीज हो गया है.नई पीढ़ी के लिए प्यार किताबी बातें हैं.आज की पीढ़ी के पास कई टर्म्स आ गए हैं.

“”यानी कि आज की पीढ़ी वाले अपनी भावनाओं को बहुत अलग तरीके से व्यक्त करने लगे हैं. वे प्यार की बातें करने के बजाय कहते हैं कि वे एकदूसरे के प्रति कमिटेड हैं.प्यार नहीं रहाजबकि ‘लिव इन रिलेशनशिप’ भी होने लगा है. वे प्यार नहीं मानते.युवा पीढ़ी के लिए प्यार भावनात्मक कमजोरी है.वर्तमान समय में प्रैक्टिकल में जीने वाली युवा पीढ़ी प्यार को मानती ही नहीं.युवा पीढ़ी जिंदगी को अपनी नजरों से देखती है.उसे लगता है कि पिछली पीढ़ी ने जो किया,वह नहीं करना चाहिए था.
“”जैसा कि मैं ने बताया कि पहले आदर्शवादी हीरो हुआ करता था.नई पीढ़ी को लगा कि यह क्या बात हुई.देश के लिए जान दे दी,पर देश ने तो हमको कुछ दिया नहीं.फिर वह हीरो आया जो सभी नेताओं को गोली मारने लगा.फिर करप्शन का दौर आया.इसी तरह प्यार के मसले पर भी आज की पीढ़ी हर टैबू को तोड़ने पर आमादा है.फिर नारीवाद का दौर आया.फिल्मकार दिखाने लगा कि औरतें कुछ भी कर सकती हैं.ऐसे में वे औरतें बिना प्यार के भी किसी के भी साथ रह सकती हैं.

“”पुराने समय से कहा जाता रहा है कि प्यार किसी एक से होता है.हालांकि, करण जौहर ने अपनी फिल्म में एक के मरने के बाद दूसरे से करवाया.लेकिन उस वक्त भी उनका तर्क यही था कि जिंदा में तो एक से ही हो सकता है.मेरे दोस्त हैं,मनोज पुंज.उन्होंने कहा था कि जरूरी तो नहीं कि एक से ही प्यार हो.दो लोगों से भी प्यार हो सकता है.मैं ने उनसे कहा था कि हो सकता है,मगर हमारे यहां जो चलता आया हैउसके अनुसार उसे प्यार नहीं व्यभिचार माना जाएगा.

“”आज की नई पीढ़ी कहती है कि हमें एक नहीं,50 से प्यार हो सकता है. कर लीजिए, आपको जो करना हो.तो चीजें तेजी से बदलने लगी हैं.‘कौफी डे’ यानी कि सीसीडी वाला प्यार,प्यार नहीं है.वह सिर्फ एक सुख की अनुभूति है.उस वक्त उन्हें किसी के साथ बैठकर कौफी पीना अच्छा लगता है.आज की युवा पीढ़ी को कुछ समय के सुख के लिए शारीरिक संबंध बनाने से परहेज नहीं है,मगर वह उसे प्यार का नाम नहीं देती.आज के युवा सामाजिक बंधनों को अहमियत नहीं देते. उन्होंने अपना अलग समाज बनाया हुआ है.
“”लोग ‘लिवइन रिलेशनशिप’ में इसलिए जाते हैंक्योंकि उन्हें शादी वाला सामाजिक बंधन नहीं चाहिए.पर वे अपने स्टेटस में ‘कमिटेड’ शब्द का उपयोग करते हैं. वेशादी वाले सारे बंधन लागू करते हैं.पर कहते हैं कि हम सामाजिक बंधन में यकीन नहीं करते. ये हमारे अपने बंधन हैं.यह पूरी तरह से कन्फ्यूजन है.ऐसा पीढ़ीदरपीढ़ी प्रयोग के तौर पर चल रहा है.अगली पीढ़ी हमेशा खराब मानी जाएगीक्योंकि वह पिछली पीढ़ी को नकारती है.””

पिछली बार निर्मातानिर्देशक को‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ से सैंसर बोर्ड से काफी परेशानी हुई थी.तब ‘एफसीएटी’ फिल्म ट्रिब्यूनल से मदद मिली थी. पर अब सरकार ने ‘एफसीएटी’ बंद कर दिया है.इससे फिल्म निर्माता पर क्या असर पड़ा है, इस सवाल पर गालिब कहते हैं,“सैंसर बोर्ड को तो अभी भी अदालत में चुनौती दी जा सकती है.सच कहूं तो सैंसरबोर्ड का होना कितना तार्किक है,मुझे नहीं पता. पर मेरी राय में फिल्म ट्रिब्यूनल के पास जाने वाला प्रोसैस ही गलत था.इतना ही नहीं, आज की तारीख में भी हमें सैंसर बोर्ड की गाइडलाइन्स ठीक से पता नहीं है.मेरी राय में फिल्म के प्रमाणीकरण का मसला सैंसर बोर्ड में ही निबट जाना चाहिए.अदालत जाने की जरूरत नहीं आनी चाहिए.””

लोगों में अब पढ़ने की आदत खत्म हो गई है. इस पर वे कहते हैं,““इसमें कुछ अच्छाई है,तो कुछ बुराई है.गांधीजी कहते थे, ‘जिन्हें किताब पढ़ने का शौक है, वे कभी अकेले नहीं रहते.’तो इंसान के अकेलेपन का साथी किताबें हैं.किताबें तो आपकी दुनिया से बाहर की दुनिया है.किताबों की कहानी कह लें या किताबों का ज्ञान कह लें,यह आपकी बाहर की दुनिया हैजिसे आप अपने कमरे में बैठकर आत्मसात करते हैं.
““किताब में किसी काल्पनिक लोक की बात की गई हैतो आप उसे पढ़ते हुए वहां तक पहुंच सकते हैंलेकिन आज की तारीख में अगर आपको वही चीज मोबाइल,लैपटौप या अन्य माध्यम से मिल रही है तो मुझे नहीं लगता कि उसे छोड़कर लोगों को किताबों की तरफ मुड़ना चाहिए.यह आपकी प्रगति है.यह आपकी वैज्ञानिक व साहित्यिक प्रगति ही है. आपके हाथ में एक लेखक की कोई किताब होगीतो आप सिर्फ उस तक ही सीमित रहेंगेजबकि आपके हाथ में किताब के बजाय मोबाइल होतो उस में हजार किताबें भी हो सकती हैं.

“”किताबों के छूटने का जो नुकसान हुआ हैवह यह है कि भाषा से कनैक्टिविटी खत्म हो गई हैलेकिन जिस तरह हम पूरी दुनिया से जुड़ रहे हैं,भाषा बैरियर के तौर पर आ जाती है.मसलन,मेरी भाषा हिंदी है. मैं ‘हिंदी मीडियम’ से पढ़ा हुआ हूं,मुझे इंग्लिश अच्छी नहीं आतीतो मुझे यह कमी लगती है.अगर मुझे इंग्लिश ज्यादा अच्छी आ रही होतीतो मैं ज्यादा लोगों से संपर्क करने,उनसे बातचीत करने में सक्षम हो पाता.मैं ज्यादा लोगों तक पहुंच पाता.

““तो भाषा कहीं पर आपका बहुत बड़ा हथियार हैतो कहीं पर वह आपकी कमजोरी भी है.जब आपके हाथ से किताबें छूटती हैंतो भाषा भी छूटती है.जब भाषा छूटती हैतब साहित्य व काव्य से नाता टूटता है.मैं इसे ‘जज’ नहीं कर रहा.पर ऐसा ही हो रहा है.लोग मानते हैं कि यह बुरा है, पर मैं ऐसा नहीं मानता.मेरा मानना है कि जब आप एक सीढ़ी आगे बढ़ते हैं तो आपको पिछला एक पायदान छोड़ना ही पड़ता है.आप पिछले पायादान का मोह नहीं कर सकते.””

आमतौर पर अब मोबाइल पर फिल्म या कंटैंट देखा जा रहा है. देखने के बाद इस से सोच पर असर पड़ रहा है. जबकि किताब पढ़ते समय जोकुछ पढ़ते हैं,उसको लेकर सोच बढ़तीहै. इस पर गालिब कहते हैं,““आपकी बात से सहमत हूं कि किताबें पढ़ने से कल्पनाशक्ति बेहतर हो सकती है.लेकिन आप जब भी कल्पना करते हैंतब आपकी अपनी स्मृति में या आपके दिमाग में जो डेटा संचित है,उसी से कल्पना कर सकते हैं.आपने जो सड़कें देखी होंगी, उन्हीं सड़कों की आप कल्पना कर सकते हैं.आप उन सड़कों की कल्पना किताब पढ़ने के बावजूद नहीं कर सकते जिन्हें आपने न देखी हो.पर मोबाइल पर आपने 10 हजार प्रकार की सड़कें देखी हैं,तो आपके लिए 10 हजार तरह की सड़कों की कल्पना करना संभव है. आप उसकी गहराई में जा सकेंगे कि वह जा कौन सी सड़क पर था.

“”उस वक्त आप अपनी स्मृति से परे जाकर विचार करेंगे कि यह तो अंगरेज आदमी है.इसका अर्थ यह हुआ कि यह सड़क इस जगह नहीं, बल्कि शायद ब्रिटेन की होगी. पर मैं ने ब्रिटेन तो देखा ही नहीं.मैं मोबाइल पर ब्रिटेन देख सकता हूं,पर किताब में नहीं देख सकता.मैं किताब में उसी ब्रिटेन की कल्पना कर सकता हूंजिस ब्रिटेन को मैं ने किसी अन्य किताब में देखा हो.तो वह हमारी अपनी दुनिया है.किताबें आपको अपनी दुनिया से बाहर ले जाती हैंलेकिन आपकी अपनी ही दुनिया में किताबें एक और दुनिया भी बना सकती हैं,जैसेकि आप सपने में देखते हैं.सपने में आप वही देखते हैंजो आपने सोचा हुआ हो.अवचेतन आपको ऐसी चीजें बताता हैजिसे आपको लगता है कि आप नहीं जानते,जबकि आप जानते होते हैं.””
लेखन में समाज के बदलाव के साथ किस तरह से बदलाव आए हैं, इस पर ग़ालिब बताते हैं,““मैं यह निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि क्या बदलाव आया.पर मैं जिस तरह से चीजों को देखता रहता हूंवह कहीं न कहीं मेरे लेखन में लक्षित होता रहा है.मेरे आसपास समाज में जो कुछ हो रहा होता है,उसे एक कलाकार के तौर पर आब्जर्व करनामेरा काम है.मैं खुद को क्रिएटिव इंसान मानता हूं.लोग भी लेखन को क्रिएटिव काम मानते हैं.मैं लेखन को ‘क्रिएटिव’ नहीं,बल्कि ‘रीक्रिएशन’ मानता हूं.मतलब लेखन नकल ही है.हम संसार में जो कुछ देखते हैं,उसे ही लिखते हैं.””

वे आगे कहते हैं,““समाज के बदलाव का मेरे लेखन में फिल्मदरफिल्म जो बदलाव आया हैउसका कोई रास्ता नहीं है. क्योंकि मुझे जब जो करने का अवसर मिला, मैं ने किया.मैं ने हर तरह का काम किया. मैं सहायक लेखक,फिर सहायक निर्देशक रहा.जैसेजैसे चीजें बदलती गईं,वैसेवैसे मेरा लेखन बदलता गया.सबसे बड़ा फर्क यह है कि पहले अलग तरह के ‘टारगेट औडियंस’ के लिए लिखते थे, अब ‘टारगेट औडियंस’ बदल गए हैं. तो अब हमें नए वर्ग के दर्शकों के हिसाब से लिखना पड़ता है.””

गालिब बताते हैं कि टारगेट आडियंस चुनने के लिए ज्यादातर निर्माता या निर्देशक तय करते हैं कि उनकी फिल्म देखने कौन जाएगा.जब हम कोई ट्रेलर देखते हैंतो तुरंत कह देते हैं कि अरे, इसे कौन देखेगा?जब मैं टीवी सीरियल लिखता थातब भी यही होता था कि यह सीरियल इस तरह के दर्शकों के लिए है,वही अब फिल्मों के लिए है.तो अब हम सोचते हैं कि क्या टीनएजर हमारी फिल्म देखेगा? क्या बड़ी उम्र के दर्शक फिल्म देखेंगे?वे कहते हैं,““कुछ माह पहले राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘उंचाईं’ आई थी.तब हमारे बीच बहस इस बात पर हुई थी कि इस फिल्म को कौन देखने जाएगा?क्या बुजुर्ग इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमाघर जाएंगे, क्या रिकशावाला या क्या टीनएजर इस फिल्म को देखेगा? फिल्म बहुत अच्छी है,पर सवाल था कि इसका दर्शक कौन होगा? आखिर यह फिल्म किन लोगों के लिए बनाई गई है? यह समझना आवश्यक है,जो किसी की भी समझ में नहीं आता.

“”यदि हम इस सच को समझ जाते तो सुपरहिट फिल्में बना रहे होते. हम सभी एक अनुमान के अनुसार काम करते हैं.इस अनुमान को करते समय 2बातों पर गौर करते हैं कि किन्हें और किस तरह का मनोरंजन चाहिए? दूसरा कि मनोरंजन के लिए कौन खर्च करना चाहेगा? मसलन, घर की औरतें तो अपने पति से ही कहेंगी कि हमें यह फिल्म देखनी है? ऐसे में पति ही तय करेगा कि घर की औरत कौन सी फिल्म देखे और कौन सी न देखे.ऐसे में यदि हम पारिवारिक फिल्म बना रहे हैं तो हमें यह सोचना पड़ता है कि हम ऐसी पारिवारिक फिल्म तो नहीं बना रहेजिसे पति अपनी पत्नी या घर की औरतों को न दिखाना चाहे?”

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