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धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रसित समाज

सयुंक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने इस रिपोर्ट में जिन लोगों को शामिल किया,उनमें से 90 फीसदी ने कम से कम एक लैंगिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने की बात स्वीकार की. यहलैंगिक पूर्वाग्रह पुरुषों के साथ महिलाओं के लिए भी सामान्य बात थी.

मिसाल के तौर पर, दुनिया की 69 प्रतिशत जनसंख्या को अभी भी लगता है कि पुरुष हीमहिलाओं से ज्यादा अच्छे नेता बनेंगे.हालांकि यह कोई नई बात नहीं, तभी तो दुनियाभर में महिला नेताओं का सूखा पड़ा हुआ है. इसी तरह लगभग 46 प्रतिशत लोगों को लगता है कि पुरुषों का नौकरी पर ज्यादा अधिकार है, वहीं लगभग इतने ही सोचते हैं कि पुरुष बेहतर कारोबारी होते हैं.इसी रिपोर्ट में एकचौथाई जनसंख्या पुरुषों का पत्नी पर हाथ उठाना जायज मानती है.

सर्वे में पाया गया कि जिन 57 देशों में महिलाएं, पुरुषों से ज्यादा पढ़ीलिखी हैं, वहां भी आमदनी में 39 प्रतिशत का औसत अंतर है. यानी, भले महिलाएं पढ़लिख जा रही हैं लेकिन उन के लिए कमाने के अवसर सीमित हैं.

हेरिबर्टो टापिया, यूएनडीपी में शोध और रणनीतिक सामरिक साझेदारी की सलाहकार और रिपोर्ट की सहलेखक, बताती हैं कि समय के साथ जितना सुधार हुआ है, वह काफी निराशाजनक है.

इस रिपोर्ट में ऐसी कोई एक भी बातनहीं है जो आम जानकारी से बाहर की हो. मसलन, हमारा समाज महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह रखता है, यह घरघर की बात है. सवाल यह कि ये पूर्वाग्रह रखे क्यों जा रहे हैं?

इन सवालों के जवाब जानने के लिए यदि अपनेअपने धर्मशास्त्रों को उठा लें तो गुरेज नहीं होगा, क्योंकि यहीं तो लैंगिग पूर्वाग्रहों को आकार और आधार देने का सुनियोजित काम किया गया. जो पुरुष समझते आ रहे हैं कि औरतों पर हाथ उठाना सही है और स्त्रियां इसे पति का प्रसाद समझ खा रही हैंवेइन्हीं शास्त्रों की देन हैंजिन में बताया गया है कि महिलाएं ताड़न की अधिकारी हैं, उन्हें घरों से बाहर कदम नहीं रखना चाहिए, न शिक्षा से उन का वास्ता है न अपने लिए खुल कर हंसने से.

दुनियाभर के तमाम धर्मों ने महिलाओं को क्या दिया,इसे जानने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं बल्कि घरों, पड़ोसियों, गलियों, नुक्कड़ों, गांव, शहरों, औफिसों में कमतर आंकी जा रही महिलाओं की दुर्दशा देखना ही पर्याप्त है.

यह धर्मग्रंथ ही तो हैं जो कहते आए हैं कि महिलाएं जन्म के बाद पिता, शादी के बाद पति और बुढ़ापे में बेटे के अधीन रहेंगी. मानो, उस का कोई अपना अस्तित्व ही नहीं है. उसे संपत्ति से अलग रखा गया. यह बात बारबार मंदिरों, चर्चों, मसजिदों से बताई गई. यह अधीन और अलगथलग रखने वाली सोच ही तो है जिसे पंडों, पादरियों,मौलवियों ने कीर्तन, जागरणों, शादीब्याह, धार्मिक आयोजनों में बारबार सुनाया है और लोगों में पूर्वाग्रह बनाए हैं.

अवगुण चित न धरो : भाग 1

वैदेही पर कमेंट करने वालों को मयंक ने बचपन में पीटा तो एक पार्टी में साक्षी को जबरन शराब पिलाते शराबी पर चांटा जड़ दिया जबकि शराबी की पत्नी के साथ वह खुद डांस कर रहा था. आखिर कैसा था उस का अंतर्मन? पढि़ए, माया प्रधान की यह कहानी.

समुद्र के किनारे बैठ कर वह घंटों आकाश और सागर को निहारता रहता. मन के गलियारे में घुटन की आंधी सरसराती रहती. ऐसा बारबार क्यों होता है. वह चाहता तो नहीं है अपना नियंत्रण खोना पर जाने कौन से पल उस की यादों से बाहर निकल कर चुपके- चुपके मस्तिष्क की संकरी गली में मचलने लगते हैं. कदाचित इसीलिए उस से वह सब हो जाता है जो होना नहीं चाहिए.

सुबह से 5 बार उसे फोन कर चुका है पर फौरन काट देती है. 2 बार गेट तक गया पर गेटकीपर ने कहा कि छोटी मेम साहिबा ने मना किया है गेट खोलने को.

वह हताश हो समुद्र के किनारे चल पड़ा था. अपनी मंगेतर का ऐसा व्यवहार उसे तोड़ रहा था. घर पहुंच कर बड़बड़ाने लगा, ‘क्या सम?ाती है अपनेआप को. जरा सी सुंदर है और बैंक में आफिसर बन गई है तो हवा में उड़ी जा रही है.’

मयंक के कारण ही अब उन का ऊंचे घराने से नाता जुड़ा था. जब विवाह तय हुआ था तब तो साक्षी ऐसी न थी. सीधीसादी सी हंसमुख साक्षी एकाएक इतनी बदल क्यों गई है?

मां ने मयंक की बड़बड़ाहट पर कुछ देर तो चुप्पी साधे रखी फिर उस के सामने चाय का प्याला रख कर कहा, ‘‘तुम हर बात को गलत ढंग से समझाते हो.’’

‘‘आप क्या कहना चाह रही हैं,’’ वह सवाल उठा था.

मम्मी उस के माथे पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘पिछले हफ्ते चिरंजीव के विवाह में तुम्हारे बुलाने पर साक्षी भी आई थी. जब तक वह तुम से चिपकी रही तुम बहुत खुश थे पर जैसे ही उस ने अपने कुछ दूसरे मित्रों से बात करना शुरू किया तुम उस पर फालतू में बिगड़ उठे. वह छोटी बच्ची नहीं है. तुम्हारा यह शक्की स्वभाव उसे दुखी कर गया होगा तभी वह बात नहीं कर रही है.’’

मयंक सोच में पड़ गया. क्या मम्मी ठीक कह रही हैं? क्या सचमुच मैं शक्की स्वभाव का हूं?

दफ्तर से निकल कर साक्षी धीरेधीरे गाड़ी चला रही थी. फरवरी की शाम ठंडी हो चली थी. वह इधरउधर देखने लगी. उस का मन बहुत बेचैन था. शायद मयंक को याद कर रहा था.

पापा ने कितने शौक से यह विवाह तय किया था. मयंक पढ़ालिखा नौजवान था. एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पद पर था. कंपनी ने उसे रहने के लिए बड़ा फ्लैट, गाड़ी आदि की सुविधा दे रखी थी. बहुत खुश थी साक्षी. पर घड़ीघड़ी उस का चिड़चिड़ापन, शक्की स्वभाव उस के मन को बहुत उद्वेलित कर रहा था. मयंक के अलगअलग स्वभाव के रंगों में कैसे घुलेमिले वह. लाल बत्ती पर कार रोकी तो इधरउधर देखती आंखें एक जगह जा कर ठहर गईं. ठंडी हवा से सिकुड़ते हुए एक वृद्ध को मयंक अपना कोट उतार कर पहना रहा था.

कुछ देर अपलक साक्षी उधर ही देखती रही. फिर अचानक ही मुसकरा उठी. अब इसे देख कर कौन कहेगा कि यह कितना चिड़चिड़ा और शक्की इनसान है. इस का क्रोध जाने किधर गायब हो गया. वह कार सड़क के किनारे पार्क कर के धीरेधीरे वहां जा पहुंची. मयंक जाने को मुड़ा तो उस ने अपने सामने साक्षी को खड़ा मुसकराता पाया. इस समय साक्षी को उस पर क्रोध नहीं बल्कि मीठा सा प्यार आ रहा था.

मयंक का हाथ पकड़ कर साक्षी बोली, ‘‘मैं ने सोचा फोन पर क्यों मनाना- रूठना, आमनेसामने ही दोनों काम कर डालते हैं.’’

पहले मनाने का कार्य मयंक कर रहा था पर अब साक्षी को देखते ही उस ने रूठने की ओढ़नी ओढ़ ली और बोला, ‘‘अभी से बातबेबात नाराज होने का इतना शौक है तो आगे क्या करोगी?’’

साक्षी मन को शांत रखते हुए बोली, ‘‘चलो, कहां ले जाना चाहते थे. 2 घंटे आप के साथ ही बिताने वाली हूं.’’

मयंक अकड़ कर चलते हुए अपनी कार तक पहुंचा और अंदर बैठ कर दरवाजा खोल साक्षी के आने की प्रतीक्षा करने लगा. साक्षी बगल में बैठते हुए बोली, ‘‘वापसी में आप को मु?ो यहीं छोड़ना होगा क्योंकि अपनी गाड़ी मैं ने यहीं पार्क की है. ’’

कार चलाते हुए मयंक ने पूछा, ‘‘साक्षी, क्या तुम्हें लगता है कि मैं अच्छा इनसान नहीं हूं?’’

‘‘ऐसा तो मैं ने कभी नहीं कहा.’’

‘‘पर तुम्हारी बेरुखी से मुझे ऐसा ही लगता है.’’

‘‘देखो मयंक,’’ साक्षी बोली, ‘‘हमें गलतफहमियों से दूर रहना चाहिए.’’

मयंक एक अस्पताल के सामने रुका तो साक्षी अचरज से उस के साथ चल दी. कुछ दूर जा कर पूछ बैठी, ‘‘क्या कोई अस्वस्थ है?’’

मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘नहीं,’’ और वह सीधा अस्पताल के इंचार्ज डाक्टर के कमरे में पहुंच गया. उन्होंने देखते ही प्यार से उसे बैठने को कहा. लगा जैसे वह मयंक को भलीभांति पहचानते हैं. मयंक ने एक चेक जेब से निकाल कर डाक्टर के सामने रख दिया.

‘‘आप लोगों की यह सहृदयता हमारे मरीजों के बहुत से दुख दूर करती है,’’ डाक्टर ने मयंक से कहा, ‘‘आप को देख कर कुछ और लोग भी हमारी सहायता को आगे आए हैं. बहुत जल्द हम कैंसर पीडि़तों के लिए एक नया और सुविधाजनक वार्ड आरंभ करने जा रहे हैं.’’

मयंक ने चलने की आज्ञा ली और साक्षी को चलने का संकेत किया. कार में बैठ कर बोला, ‘‘तुम परेशान हो कि मैं यहां क्यों आता हूं.’’

‘‘नहीं. एक नेक कार्य के लिए आते हो यह तुरंत समझे में आ गया,’’ साक्षी मुसकरा दी.

मयंक चुपचाप गाड़ी चलातेचलाते अचानक बोल पड़ा, ‘‘साक्षी, क्या तुम्हें मैं शक्की स्वभाव का लगता हूं?’’

साक्षी चौंक कर सोच में पड़ गई कि यह व्यक्ति एक ही समय में विचारों के कितने गलियारे पार कर लेता है. पर प्रत्यक्ष में बोली, ‘‘क्या मैं ने कभी कहा?’’

औरत एक पहेली : भाग 1

संदीप बाहर धूप में बैठे सफेद कागजों पर आड़ी तिरछी रेखाएं बनाबना कर भांति भांति के मकानों के नक्शे खींच रहे थे. दोनों बेटे पंकज, पवन और बेटी कामना उन के इर्दगिर्द खड़े बेहद दिलचस्पी के साथ अपनी अपनी पसंद बतलाते जा रहे थे.

मुझे हमेशा की भांति अदरक की चाय और कोई लजीज सा नाश्ता बनाने का आदेश मिला था.

बापबेटों की नोकझोंक के स्वर रसोईघर के अंदर तक गूंज रहे थे. सभी चाहते थे कि मकान उन की ही पसंद के अनुरूप बने. पवन को बैडमिंटन खेलने के लिए लंबेचौड़े लान की आवश्यकता थी. व्यावसायिक बुद्धि का पंकज मकान के बाहरी हिस्से में एक दुकान बनवाने के पक्ष में था.

कामना अभी 11 वर्ष की थी, लेकिन मकान के बारे में उस की कल्पनाएं अनेक थीं. वह अपनी धनाढ्य परिवारों की सहेलियों की भांति 2-3 मंजिल की आलीशान कोठी की इच्छुक थी, जिस के सभी कमरों में टेलीफोन और रंगीन टेलीविजन की सुविधाएं हों, कार खड़ी करने के लिए गैराज हो.

संदीप ठठा कर हंस पड़े, ‘‘400 गज जमीन में पांचसितारा होटल की गुंजाइश कहां है हमारे पास. मकान बनवाने के लिए लाखों रुपए कहां हैं?’’

‘‘फिर तो बन गया मकान. पिताजी, पहले आप रुपए पैदा कीजिए,’’ कामना का मुंह फूल उठा था.

‘‘तू क्यों रूठ कर अपना भेजा खराब करती है? मकान में तो हमें ही रहना है. तेरा क्या है, विवाह के बाद पराए घर जा बैठेगी,’’ पंकज और पवन कामना को चिढ़ाने लगे थे.

बच्चों के वार्त्तालाप का लुत्फ उठाते हुए मैं ने मेज पर गरमगरम चाय, पकौड़े, पापड़ सजा दिए और संदीप से बोली, ‘‘इस प्रकार तो तुम्हारा मकान कई वर्षों में भी नहीं बन पाएगा. किसी इंजीनियर की सहायता क्यों नहीं ले लेते. वह तुम सब की पसंद के अनुसार नक्शा बना देगा.’’

संदीप को मेरा सुझाव पसंद आया. जब से उन्होंने जमीन खरीदी थी, उन के मन में एक सुंदर, आरामदेह मकान बनवाने की इच्छाएं बलवती हो उठी थीं.

संदीप अपने रिश्तेदारों, मित्रों से इस विषय में विचारविमर्श करते रहते थे. कई मकानों को उन्होंने अंदर से ले कर बाहर तक ध्यानपूर्वक देखा भी था. कई बार फुरसत के क्षणों में बैठ कर कागजों पर भांतिभांति के नक्शे बनाएबिगाड़े थे, परंतु मन को कोई रूपरेखा संतुष्ट नहीं कर पा रही थी. कभी आंगन छोटा लगता तो कभी बैठक के लिए जगह कम पड़ने लगती.

परिवार के सभी सदस्यों के लिए पृथकपृथक स्नानघर और कमरे तो आवश्यक थे ही, एक कमरा अतिथियों के लिए भी जरूरी था. क्या मालूम भविष्य में कभी कार खरीदने की हैसियत बन जाए, इसलिए गैराज बनवाना भी आवश्यक था. कुछ ही दिनों बाद संदीप किसी अच्छे इंजीनियर की तलाश में जुट गए.

एकांत क्षणों में मैं भी मकान के बारे में सोचने लगती थी. एक बड़ा, आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण रसोईघर बनवाने की कल्पनाएं मेरे मन में उभरती रहती थीं. अपने मकान में गमलों में सजाने के लिए कई प्रकार के पेड़पौधों के नाम मैं ने लिख कर रख दिए थे.

एक दिन संदीप ने घर आ कर बतलाया कि उन्होंने एक भवन निर्माण कंपनी की मालकिन से अपने मकान के बारे में बात कर ली है. अब नक्शा बनवाने से ले कर मकान बनवाने तक की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं की होगी.

सब ने राहत की सांस ली. मकान बनवाने के लिए संदीप के पास कुल डेढ़दो लाख की जमापूंजी थी. घर के खर्चों में कटौती करकर के वर्षों में जा कर इतना रुपया जमा हो पाया था.

संदीप एक दिन मुझे भवन निर्माण कंपनी की मालकिन विनीता से मिलवाने ले गए.

मैं कुछ ही क्षणों में विनीता के मृदु स्वभाव, खूबसूरती और आतिथ्य से कुछ ऐसी प्रभावित हुई कि हम दोनों के बीच अदृश्य सा आत्मीयता का सूत्र बंध गया.

हम उन्हें अपने घर आने का औपचारिक निमंत्रण दे कर चले आए. मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि वह हमारे घर आ कर हमारा आतिथ्य स्वीकार करेंगी. लेकिन एक शाम आकस्मिक रूप से उन की चमचमाती विदेशी कार हमारे घर के सामने आ कर रुक गई. मैं संकोच से भर उठी कि कहां बैठाऊं इन्हें, कैसे सत्कार करूं.

विनीता शायद मेरे मन की हीन भावना भांप गई. मुसकरा कर स्वत: ही एक कुरसी पर बैठ गईं, ‘‘रेखाजी, क्या एक गिलास पानी मिलेगा.’’

मैं निद्रा से जागी. लपक कर रसोई- घर से पानी ले आई. फिर चाय की चुसकियों के साथ वार्त्तालाप का लंबा सिलसिला चल निकला. इस बीच बच्चे कालिज से आ गए थे, वे भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए. फिर विनीता यह कह कर चली गईं, ‘‘मैं ने आप की पसंद को ध्यान में रख कर मकान के कुछ नक्शे बनवाए हैं. कल मेरे दफ्तर में आ कर देख लीजिएगा.’’

विनीत के जाने के बाद मेरे मन में अनेक अनसुलझे प्रश्न डोलते रह गए थे कि उस का परिवार कैसा है? पति कहां हैं और क्या करते हैं? इन के संपन्न होने का रहस्य क्या है?

कभीकभी ऐसा लगता है कि मैं विनीता को जानती हूं. उन का चेहरा मुझे परिचित जान पड़ता, लेकिन बहुत याद करने पर भी कोई ऐसी स्मृति जागृत नहीं हो पाती थी.

कभी मैं सोचने लगती कि शायद अधिक आत्मीयता हो जाने की वजह से ऐसा लगता होगा. अगले दिन शाम को मैं और संदीप दोनों उन के दफ्तर में नक्शा देखने गए. एक नक्शा छांट कर संतुष्ट भाव से हम ने वैसा ही मकान बनवाने की अनुमति दे दी.

बातों ही बातों में संदीप कह बैठे, ‘‘रुपए की कमी के कारण शायद हम पूरा मकान एकसाथ नहीं बनवा पाएंगे.’’

विनीता झट आश्वासन देने लगीं, ‘‘आप निश्ंिचत रहिए. मैं ने आप का मकान बनवाने की जिम्मेदारी ली है तो पूरा बनवा कर ही रहूंगी. बाकी रुपए मैं अपनी जिम्मेदारी पर आप को कर्ज दिलवा दूंगी. आप सुविधानुसार धीरेधीरे चुकाते रहिए.’’

बच्चों की भावना- भाग 1: क्या छोटे बच्चों की परेशानी कोई समझता है?

‘‘अकी, बेटा उठो, सुबह हो गई, स्कूल जाना है,’’ अनुभव ने अपनी लाडली बेटी आकृति को जगाने के लिए आवाज लगानी शुरू की.

‘‘हूं,’’ कह कर अकी ने करवट बदली और रजाई को कानों तक खींच लिया.

‘‘अकी, यह क्या, रजाई में अब और ज्यादा दुबक गई हो, उठो, स्कूल को देर हो जाएगी.’’

‘‘अच्छा, पापा,’’ कह कर अकी और अधिक रजाई में छिप गई.

‘‘यह क्या, तुम अभी भी नहीं उठीं, लगता है, रजाई को हटाना पड़ेगा,’’ कह कर अनुभव ने अकी की रजाई को धीरे से हटाना शुरू किया.

‘‘नहीं, पापा, अभी उठती हूं,’’ बंद आंखों में ही अकी ने कहा.

‘‘नहीं, अकी, साढ़े 5 बज गए हैं, तुम्हें टौयलेट में भी काफी टाइम लग जाता है.’’

यह सुन कर अकी ने धीरे से आंखें खोलीं, ‘‘अभी तो पापा रात है, अभी उठती हूं.’’

अनुभव ने अकी को उठाया और हाथ में टूथब्रश दे कर वाशबेसन के आगे खड़ा कर दिया.

सर्दियों में रातें लंबी होने के कारण सुबह 7 बजे के बाद ही उजाला होना शुरू होता है और ऊपर से घने कोहरे के कारण लगता ही नहीं कि सुबह हो गई. आकृति की स्कूल बस साढ़े 6 बजे आ जाती है. वैसे तो स्कूल 8 बजे लगता है, लेकिन घर से स्कूल की दूरी 14 किलोमीटर तय करने में बस को पूरा सवा घंटा लग जाता है.

जैसेतैसे अकी स्कूल के लिए तैयार हुई. फ्लैट से बाहर निकलते हुए आकृति ने पापा से कहा, ‘‘अभी तो रात है, दिन भी नहीं निकला. मैं आज स्कूल जल्दी क्यों जा रही हूं.’’

‘‘आज कोहरा बहुत अधिक है, इसलिए उजाला नहीं हुआ, ऐसा लग रहा है कि अभी रात है, लेकिन अकी, घड़ी देखो, पूरे साढ़े 6 बज गए हैं. बस आती ही होगी.’’

कोहरा बहुत घना था. 7-8 फुट से आगे कुछ नजर नहीं आ रहा था. सड़क एकदम सुनसान थी. घने कोहरे के बीच सर्द हवा के झोंकों से आकृति के शरीर में झुरझुरी सी होती और इसी झुरझुराहट ने उस की नींद खोल दी. अपने बदन को बे्रक डांस जैसे हिलातेडुलाते वह बोली, ‘‘पापा, लगता है, आज बस नहीं आएगी.’’

‘‘आप को कैसे मालूम, अकी?’’

‘‘देखो पापा, आज स्टाप पर कोई बच्चा नहीं आया है, आप स्कूल फोन कर के मालूम करो, कहीं आज स्कूल में छुट्टी न हो.’’

‘‘आज छुट्टी किस बात की होगी?’’

‘‘ठंड की वजह से आज छुट्टी होगी. इसलिए आज कोई बच्चा नहीं आया. देखो पापा, इसलिए अभी तक बस भी नहीं आई है.’’

‘‘बस कोहरे की वजह से लेट हो गई होगी.’’

‘‘पापा, कल मोटी मैडम शकुंतला राधा मैडम से बात कर रही थीं कि ठंड और कोहरे के कारण सर्दियों की छुट्टियां जल्दी हो जाएंगी.’’

‘‘जब स्कूल की छुट्टी होगी तो सब को मालूम हो जाएगा.’’

‘‘आप ने टीवी में न्यूज सुनी, शायद आज से छुट्टियां कर दी हों.’’

आकृति ही क्या सारे बच्चे ठंड में यही चाहते हैं कि स्कूल बंद रहे, लेकिन स्कूल वाले इस बारे में कब सोचते हैं. चाहे ठंड पहले पड़े या बाद में, छुट्टियों की तारीखें पहले से तय कर लेते हैं. ठंड और कोहरे के कारण न तो छुट्टियां करते हैं न स्कूल का टाइम बदलते हैं. सुबह के बजाय दोपहर का समय कर दें, लेकिन हम बच्चों की कोई नहीं सुनता है. सुबहसुबह इतनी ठंड में बच्चे कैसे उठें. आकृति मन ही मन बड़बड़ा रही थी.

तभी 3-4 बच्चे स्टाप पर आ गए. सभी ठंड में कांप रहे थे. बच्चे आपस में बात करने लगे कि मजा आ जाएगा यदि बस न आए. तभी एक बच्चे की मां अनुभव को संबोधित करते हुए बोलीं, ‘‘भाभीजी के क्या हाल हैं. अब तो डिलीवरी की तारीख नजदीक है. आप अकेले कैसे मैनेज कर पाएंगे. अकी की दादी या नानी को बुलवा लीजिए. वैसे कोई काम हो तो जरूर बताइए.’’

‘‘अकी की नानी आज दोपहर की टे्रन से आ रही हैं,’’ अनुभव ने उत्तर दिया.

तभी स्कूल बस ने हौर्न बजाया, कोहरे के कारण रेंगती रफ्तार से बस चल रही थी. किसी को पता ही नहीं चला कि बस आ गई. बच्चे बस में बैठ गए. सभी पेरेंट्स ने बस ड्राइवर को बस धीरे चलाने की हिदायत दी.

बस के रवाना होने के बाद अनुभव जल्दी से घर आया. स्नेह को लेबर पेन शुरू हो गया था, ‘‘अनु, डाक्टर को फोन करो. अब रहा नहीं जा रहा है,’’ स्नेह के कहते ही अनुभव ने डाक्टर से बात की. डाक्टर ने फौरन अस्पताल आने की सलाह दी.

अनुभव कार में स्नेह को नर्सिंग होम ले गया. डाक्टर ने चेकअप के बाद कहा, ‘‘मिस्टर अनुभव, आज ही आप को खुशखबरी मिल जाएगी.’’

अनुभव ने अपने बौस को फोन कर के स्थिति से अवगत कराया और आफिस से छुट्टी ले ली. अनुभव की चिंता अब रेलवे स्टेशन से आकृति की नानी को घर लाने की थी. वह सोच रहा था कि नर्सिंग होम में किस को स्नेह के पास छोड़े.

आज के समय एकल परिवार में ऐसे मौके पर यह एक गंभीर परेशानी रहती है कि अकेला व्यक्ति क्याक्या और कहांकहां करे. सुबह आकृति को तैयार कर के स्कूल भेजा और फिर स्नेह के साथ नर्सिंग होम. स्नेह को अकेला छोड़ नहीं सकता, मालूम नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए.

आकृति की नानी अकेले स्टेशन से कैसे घर आएंगी. घर में ताला लगा है. नर्सिंग होम के वेटिंगरूम में बैठ कर अनुभव का मस्तिष्क तेजी से चल रहा था कि कैसे सबकुछ मैनेज किया जाए. वर्माजी को फोन लगाया और स्थिति से अवगत कराया तो आधे घंटे में मिसेज वर्मा थर्मस में चाय, नाश्ता ले कर नर्सिंग होम आ गईं.

‘‘बेटा, पहले तो आप चाय और नाश्ता लीजिए, मैं यहां स्नेह के पास बैठती हूं. आप आकृति की नानी को रेलवे स्टेशन से ले आइए.’’

अनुभव ने बिस्कुट के साथ चाय पी और रेलवे स्टेशन रवाना हुआ. स्टेशन पहुंचने पर पता चला कि गाड़ी 2 घंटे लेट है. रेलवे प्लेटफार्म के बेंच पर बैठा अनुभव सोचने लगा कि एकल परिवार के जहां एक तरफ अपने सुख हैं तो दूसरी ओर दुख भी. आज जब प्रसव के समय किसी अपने की जरूरत है, तो अकेले सभी कार्य खुद को करने पड़ रहे हैं. लेकिन यह उस की मजबूरी है. नौकरी जहां मिलेगी, वहीं रहना पड़ेगा. ऐसे समय में पड़ोस ही सगा होता है. पता नहीं डाक्टर भी डिलीवरी की गलत तारीख क्यों बताते हैं. तारीख के हिसाब से आकृति की नानी को 10 दिन पहले बुलाया है, लेकिन कुदरत के सामने किसी का बस चलता तो नहीं न.

पड़ोसी वर्माजी की भी कुछ ऐसी स्थिति है. दोनों बुजुर्ग दंपती रिटायरमेंट के बाद अकेले रह रहे हैं. एक बेटा विदेश में नौकरी कर रहा है, 2-3 साल बाद 2 महीने के लिए मिलने आता है और दूसरा बेटा बंगलौर में आईटी कंपनी में नौकरी करता है. साल में 10 दिन के लिए मिलने आता है. 2 बेटियां हैं, एक अहमदाबाद में रहती है, दूसरी नोएडा में, जो हर रविवार को सपरिवार मिलने आती है. बाकी सप्ताह भर वर्मा दंपती अकेले. इसी कारण अनुभव और वर्माजी के बीच काफी नजदीकियां हो गई थीं.

अनुभव और स्नेह दोनों नौकरी करते थे. आकृति की वजह से वर्मा दंपती की नजदीकियां बढ़ीं. दोपहर को आकृति स्कूल से आती तो अधिक समय उस का वर्माजी के घर बीतता. घर के कार्य के लिए अनुभव ने नौकरानी रखी हुई थी, लेकिन नौकरानी आकृति का कम और अपना ध्यान अधिक रखती थी. इस कारण कई नौकरानियां आईं और चली गईं, लेकिन वर्मा परिवार से संबंध बढ़ता ही गया. अकेलेपन को दूर करने के लिए एक छोटे बच्चे का सहारा वर्माजी को अपने खुद के बच्चों की दूरी भुला देता था. इस में दोष किसी का नहीं है.

तभी रेलवे की घोषणा ने अनुभव को विचलित कर दिया. गाड़ी 2 घंटे और लेट है. उफ, ये रेलवे वाले कभी नहीं सुधरेंगे. एक बार में क्यों नहीं बता देते कि गाड़ी कितनी देर से आएगी. सुबह से एकएक घंटे बाद और अधिक देरी से आने की घोषणा कर रहे हैं. सर्दियों में कोहरे के कारण गाडि़यां अकसर देरी से चलती हैं. अनुभव आज और अधिक इंतजार नहीं कर सकता था. लेकिन इस समय वह केवल झुंझला कर रेलवे प्लेटफार्म के एक छोर से दूसरे छोर के चक्कर लगा रहा था. तभी मोबाइल की घंटी बजी. दूसरी तरफ वर्माजी थे.

‘‘मुबारक हो, अनु बेटे. अकी का भाई आया है. स्नेह और छोटा काका एकदम ठीक हैं. तुम चिंता मत करो. मैं घर जा रहा हूं, अकी के स्कूल से वापस आने का समय हो गया है. चिंता मत करना.’’

यह सुन कर अनुभव की जान में जान आई. अब शांति से बेंच पर बैठ गया. निश्ंिचत हो कर अब अनुभव टे्रन का इंतजार करने लगा. गाड़ी पूरे 6 घंटे देरी से आई. बच्चे की खुशखबरी सुन कर नानी की सफर की सारी थकान मिट गई.

‘‘अनु बेटे, अब सीधा नर्सिंग होम ले चल. पहले छोटे काके को देख कर स्नेह से मिल लूं.’’

नर्सिंग होम में स्नेह के पास झूले में छोटा काका सो रहा था. नानी को देख कर वर्मा दंपती ने बधाई दी. नानी ने नर्स और आया को रुपए न्योछावर किए और छोटे काके को गोद में लिया. छोटे काके को गोद में लेते देख आकृति बोली, ‘‘नानी, मैं ने आप से पहले छोटे काका को देखा. नानी, कितना गोरा है. देखो, कितना सौफ्ट है लेकिन एकदम गंजा है. सिर पर एक भी बाल नहीं है.’’

नानी ने लाड़ में कहा, ‘‘बाल भी आ जाएंगे. अकी से भी ज्यादा. जब तुम पैदा हुई थीं, तुम्हारे भी सिर में बाल नहीं थे, अब देखो, कितने लंबे बाल हैं.’’

‘‘नानी, मुझे दो न छोटे काका को, मम्मी तो हाथ भी नहीं लगाने दे रहीं.’’

नानी ने प्यार से कहा, ‘‘अभी बहुत छोटा है, मेरे पास बैठो, तुम्हारी गोदी में देती हूं.’’

गोदी में काका को पा कर आकृति उल्लास से भर कर बोली, ‘‘नानी, देखो, अभी आंखें खोल रहा था, देखो, कितने अच्छे तरीके से मुसकरा रहा है.’’

ऐसे हंसतेखेलते शाम हो गई. स्नेह ने नानी को घर जा कर आराम करने को कहा. आकृति का मन जाने को नहीं हो रहा था.

‘‘नानी, थोड़ा रुक कर चलते हैं. अभी काका जाग रहा है. जब सो जाएगा, तब चलेंगे.’’

‘‘अकी, अब घर चलो, होमवर्क भी करना होगा और फिर तुम उठने में देर कर देती हो,’’ अनुभव ने आकृति से कहा.

घर में होमवर्क करते समय अकी का ध्यान छोटे काका में लगा हुआ था. जैसेतैसे होमवर्क पूरा किया. रात को एक बार फिर वह अनुभव के साथ नर्सिंग होम गई और काफी देर तक छोटे काका को निहारती रही, पुचकारती रही.

रात को घर आने में देरी हो गई. पूरे दिन की थकान के बाद स्नेह और अपने बेटे को सही देख कर संपूर्ण निश्ंिचतता के साथ अनुभव सोया तो सुबह उठने में देरी हो गई.

वर्मा आंटी ने कालबेल बजाई तब जा कर अनुभव की आंख खुली.

‘‘बेटे, क्या बात है, क्या अकी स्कूल नहीं जाएगी. मैं ने उस का नाश्ता भी बना दिया है.’’

‘‘आंटी, मालूम नहीं आज घड़ी का अलार्म कैसे नहीं सुनाई दिया. अभी अकी को उठाता हूं. स्कूल की तो अगले सप्ताह से छुट्टियां हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं, बेटा. मैं तुम्हारी चाय और अकी का नाश्ता रसोई में रख देती हूं और हां, स्नेह और नानी की चाय ले कर नर्सिंग होम जा रही हूं. तुम आराम से अकी को स्कूल के लिए तैयार करो.’’

अनुभव के उठने पर बड़ी मुश्किल से अकी स्कूल जाने के लिए तैयार हुई. चूंकि स्कूल बस आज निकल गई, इसलिए अनुभव को कार ले जानी पड़ी. अनुभव अकी को ले कर स्कूल पहुंचा तो गेट पर प्रिंसिपल खड़ी थीं और देरी से आने वाले बच्चों को घर वापस भेज रही थीं.

अनुभव ने काफी मिन्नत की लेकिन प्रिंसिपल के ऊपर कोई असर नहीं पड़ा, उलटे वह अनुभव पर बिफर पड़ीं, ‘‘आप अभिभावकों का कर्तव्य है कि बच्चों को नियमित समय पर स्कूल भेजें, उन को अनुशासित करें, लेकिन आप उन को शह दे कर और अधिक बिगाड़ रहे हैं. मैं स्कूल का नियम किसी को नहीं तोड़ने दूंगी. आप अपने बच्चे को वापस ले जाइए.’’

‘‘मैडम प्लीज, आगे से देर नहीं होगी. आज अधिक सर्दी और धुंध के कारण देर हुई है,’’ अनुभव ने विनती की.

‘‘अगर आप का घर दूर है तो आप घर के पास किसी स्कूल में बच्चे को दाखिल करवाइए. मुझे अपने स्कूल का अनुशासन नहीं तोड़ना,’’ पिंसिपल ने कड़क स्वर में कहा.

इस के आगे अनुभव कुछ नहीं कह सका और चुपचाप अकी के साथ कार स्टार्ट कर घर के लिए रवाना हो गया. अनुभव का मूड खराब हो गया कि कितने कठोर हैं स्कूल वाले जो बच्चों के साथ उन के मातापिता से भी कितने गलत तरीके से पेश आते हैं. इतनी ठंड में छोटे बच्चों को सुबह उठाना, तैयार करना कितना मुश्किल होता है. ठंड की परेशानी को समझना चाहिए. स्कूल के समय को बदलना चाहिए. यदि 1 घंटा देरी से सर्दियों में स्कूल लगाया जाए तो सब समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है. चाहे कुछ हो जाए, इस साल अकी का स्कूल बदलवा दूंगा. घर के पास जिस भी स्कूल में दाखिला मिलेगा, उसी में करवा दूंगा. आखिर मैं भी तो घर के पास के सरकारी स्कूल में पढ़ा हूं. क्या जिंदगी की दौड़ में पिछड़ गया. स्कूल के बड़े नाम में क्या रखा है.

अनुभव यह सोचता हुआ धीरेधीरे कार चला रहा था. अकी समझ गई कि पापा पिं्रसिपल की बात से उदास और नाराज हो गए हैं. अकी ने सीडी प्लेयर औन कर पापा की मनपसंद सीडी लगा दी. मुसकरा कर अनुभव ने अकी को देखा और कार की रफ्तार तेज की. आखिर बच्चे भी सब समझते हैं. हमें कुछ कहते नहीं, शायद डरते हैं क्योंकि हम डांट मार कर उन्हें चुप करा देते हैं.

‘‘अकी, जब स्कूल की छुट्टी हो गई है तब कुछ समय नानी, स्नेह और छोटे काका के संग गुजारा जाए,’’ यह कहते हुए अनुभव ने कार सीधे नर्सिंग होम की तरफ मोड़ दी. अकी बहुत खुश हुई कि छोटे काका के साथ उसे सारा दिन गुजारने को मिलेगा.

स्कूल बैग के साथ अकी को देख कर स्नेह कुछ नाराज हुई, ‘‘आप ने अकी की छुट्टी क्यों करवाई.’’ अनुभव ने कहा कि इस विषय में घर चल कर बात करेंगे.

शाम को स्नेह को नर्सिंग होम से छुट्टी मिल गई. अनुभव ने अकी से कहा कि आज स्कूल की छुट्टी हो गई तो वह अपनी फ्रेंड से होमवर्क पूछ कर पूरा कर ले.

अकी ने जैसेतैसे होमवर्क किया और फिर नानी के पास सट के बैठ गई कि इसी बहाने वह छोटे काका के पास रह लेगी. रात काफी हो गई थी, खुशी में बातोंबातों में आंखों से नींद गायब थी, घड़ी देख कर स्नेह ने अकी को सोने को कहा कि कल सुबह भी कहीं लेट न हो जाए.

मार्गदर्शन- भाग 1: नरेश अंकल ने कैसे सीमा की मदद की?

सेवानिवृत्त होने के बाद मुझ जैसे फिट इनसान के लिए दिन काटना एक समस्या बन गया था. जिस ने जीवन भर साथ निभाने का वादा किया था वह 2 साल पहले दुनिया छोड़ कर चली गई. उस के साथ का अभाव अब बहुत खलता था.

बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ अमेरिका में बस गया है. उस का साल में एक चक्कर लगता है. छोटा बेटा और उस की पत्नी मुंबई में नौकरी करते हैं. वे हमेशा अपने पास रहने को बुलाते हैं पर मन नहीं मानता. यह इलाका और आसपास के लोग जानेपहचाने हैं. इन्हें छोड़ कर जाने की बात सोचते ही मन उदास हो जाता है.

‘‘सर, आप के पास पैसा और जीने का उत्साह दोनों ही हैं. आप को अकेलेपन की पीड़ा क्यों भोगनी है? अपने मनोरंजन और खुशी के लिए आप को बढि़या कंपनी बड़ी आसानी से मिल सकती है.’’ ये शब्द 21 साल की शुचि ने मुझ से आज सुबह के वक्त पार्क में कहे तो मैं मन ही मन चौंक पड़ा था.

शुचि से मेरी मुलाकात सप्ताह भर पहले सुबह की सैर के समय पार्क में हुई थी. उस दिन मैं घूमने के बाद बैंच पर बैठ कर सुस्ता रहा था और वह कुछ दूरी पर व्यायाम कर रही थी.

मैं बारबार उस की तरफ देखने से खुद को रोक नहीं पा रहा था. उस के युवा, सांचे में ढले खूबसूरत जिस्म को हरकत करते देखना मुझे अच्छा लग रहा था, इस तथ्य को मैं बेहिचक स्वीकार कर लेता हूं.

एक्सरसाइज करने के बाद उसी ने मौसम के ऊपर टिप्पणी करते हुए मेरे साथ वार्तालाप शुरू किया था. करीब 10 मिनट हमारे बीच बातें हुईं पर इतनी छोटी सी मुलाकात से मिली ताजगी और खुशी दिन भर मेरे साथ बनी रही थी.

हम रोज सुबह पार्क में मिलने लगे. उस के साथ बातें करने में मुझे बहुत मजा आता था. वह एक बातूनी पर समझदार और संवेदनशील लड़की थी.

मैं रात को सोने के लिए लेटता तो पाता कि मन सुबह होने का इंतजार बड़ी बेचैनी से कर रहा है. उस से मिल कर आने के बाद घर का कोई भी काम करना मुझे पहले की तरह उबाऊ नहीं लगता. अब अगर खाली बैठता तो अकेलेपन और उदासी की चुभन व पीड़ा ने मुझे परेशान करना बंद कर दिया था.

‘‘मेरे मनोरंजन और खुशी के लिए कौन देगा मुझे बढि़या कंपनी?’’ आज सुबह उस की बात सुन कर मैं ने हलकेफुलके अंदाज में उत्सुकता दर्शाई थी.

‘‘आप अगर पैसा खर्च करने को तैयार हैं तो पहले किसी क्लब या सोसाइटी के मेंबर बन जाइए. पांचसितारा होटल के बार और रेस्तरां में जाना शुरू कीजिए. वहां आप की मुलाकात ऐसी जवान महिलाओं से होगी जिन्हें अपने शौक या जरूरतें पूरी करने को पैसा चाहिए. बदले में आप का मन बहलाने के लिए वे आप को अच्छी कंपनी देंगी.’’

‘‘आजकल ऐसा कुछ होता है, यह मैं ने सुना जरूर है पर ऐसी किसी औरत से कभी मिला नहीं हूं.’’

‘‘तो अब मिलिए, सर. आप के बेटेबहुओं के पास आप के लिए वक्त नहीं है और न ही उन्हें आप का पैसा चाहिए. तब बैंक में पैसा जोड़ कर आप को किस के लिए रखना है?’’

‘‘अरे, पैसा तो पास में होना ही चाहिए. कल को किसी बीमारी ने धरदबोचा तो…’’

‘‘सर, अगर कल की सोचते हुए आप ने आज की खुशियों को दांव पर लगा दिया तो अपने अकेलेपन और उदासी से कभी छुटकारा नहीं पा सकेंगे.’’

‘‘लेकिन मेरा इस तरह की स्त्री से परिचय कौन कराएगा?’’

‘‘सर, आप नोटों से पर्स भर कर घर से निकलिए तो सही. गुड़ कहां है, ये मक्खियों को कोई बताता है क्या, सर?’’

ऐसा जवाब देने के बाद शुचि खिलखिला कर हंसी तो मैं भी खुल कर मुसकराने से खुद को रोक नहीं पाया था.

अगले दिन उस ने जब फिर से इसी विषय पर वार्तालाप शुरू किया तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘शुचि, मैं रुपए खर्च करने को तैयार हूं पर मुझे यह बताओ कि कल को मेरा कोई परिचित, दोस्त या रिश्तेदार जब किसी सुंदर स्त्री के साथ मुझे घूमते हुए देखेगा तो क्या सोचेगा?’’

‘‘वह कुछ भी सोचे, आप को इस बारे में कैसी भी टेंशन क्यों लेनी है?’’

‘‘टेंशन तो मुझे होगी ही. मैं लोगों की नजरों में अपनी छवि खराब नहीं करना चाहता हूं.’’

‘‘सर, आप तो बहुत डरते हैं,’’ उस ने अजीब सा मुंह बनाया.

‘‘अपनी बदनामी से सभी को डरना चाहिए, यंग लेडी.’’

‘‘फिर तो आप मुझे अपने घर चलने का निमंत्रण कभी नहीं देंगे,’’ उस ने अचानक ही वार्तालाप को नया मोड़ दे दिया.

‘‘तुम मेरे घर चलना चाहती हो?’’ मैं ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘यस, सर,’’ उस ने बेहिचक जवाब दिया.

‘‘तुम्हारे घर आने की खुशी पाने के लिए मैं थोड़ी सी बदनामी सह लूंगा. तुम कब आओगी मेरे घर?’’ मैं ने मजाकिया लहजे में पूछा.

‘‘अभी चलें?’’ उस ने चुनौती देने वाले अंदाज में मेरी आंखों में झांका.

‘‘तुम्हारे मम्मीपापा चिंता तो नहीं करेंगे?’’ उस के सवाल से मन में उठी हलचल के कारण मैं एकदम से ‘हां’ नहीं कह पाया था.

‘‘मैं ने घर से निकलते हुए मम्मी को बता दिया था कि शायद मैं आप के साथ आप के घर चली जाऊं.’’

‘‘तब चलो,’’ हम दोनों पार्क के गेट की तरफ चल पड़े, ‘‘तो तुम ने अपनी मम्मी को मेरे बारे में और क्याक्या बता रखा है?’’

‘‘वह तो आप के बारे में पहले से ही बहुतकुछ जानती हैं. पार्क में घूमते हुए कुछ दिन पहले उन्होंने ही मुझे आप का परिचय बताया था.’’

‘‘और वह मुझे कैसे जानती हैं?’’ मैं ने चौंक कर पूछा.

‘‘वह आप के साथ कालिज में पढ़ा करती थीं लेकिन आप दोनों के बीच ज्यादा बातचीत कभी नहीं हुई थी.’’

‘‘शायद देखने पर मैं उन्हें पहचान लूं. वैसे तुम्हें क्या बताया है उन्होंने मेरे बारे में?’’

‘‘यही कि आप बहुत अमीर हैं और 2 साल से बहुत अकेले भी.’’

‘‘इस का मतलब तुम्हारी मम्मी को मेरी पत्नी के इस दुनिया को छोड़ कर चले जाने की जानकारी है. मेरे अकेलेपन को दूर करने का जो इलाज तुम मुझे बता रही हो, क्या वह तुम्हारी मम्मी का बताया हुआ है?’’

‘‘एक बार हम दोनों की इस विषय पर बातचीत हुई थी. वैसे मुझे नहीं लगता कि आप इस दिशा में कोई कदम उठाएंगे.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मैं ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘आप को अपनी रेपुटेशन कुछ ज्यादा ही प्यारी है,’’ उस ने बड़े नाटकीय अंदाज में जवाब दिया और फिर हम दोनों ही जोर से हंस पड़े थे.

उस दिन शुचि मेरे घर में करीब 2 घंटे रुकी. उस ने मुझे चाय बना कर पिलाई और टोस्ट पर बटर लगा कर नाश्ता कराया. फिर मेरे साथ बातें करते हुए उस ने पहले ड्राइंगरूम में फैले सामान को संभाला और फिर मेरे शयनकक्ष को भी ठीकठाक कर दिया.

उस के हाथ में जूस का गिलास पकड़ाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘तुम जिंदगी में क्या करना चाहती हो…क्या बनना चाहती हो, शुचि?’’

‘‘सर, 5 महीने बाद मेरा बी.कौम पूरा हो जाएगा. मेरी इच्छा बहुत अच्छे कालिज से एम.बी.ए. करने की है लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’ उस की आंखों में परेशानी के भाव पढ़ कर मैं ने उत्सुक लहजे में सवाल पूछा.

‘‘मेरी फीस देना पापा के लिए कठिन होगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पहले मेरी बड़ी बहन की शादी में और फिर भैया को होस्टल में रख कर इंजीनियरिंग कराने में पापा ने पहले ही सिर पर कर्जा कर लिया है. मैं बेटी हूं, बेटा नहीं. इसीलिए वह मेरी एम.बी.ए. की फीस का इंतजाम करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेंगे,’’ शुचि उदास हो उठी थी.

मैं ने फौरन उस का हौसला बढ़ाया, ‘‘शुचि, तुम अच्छे कालिज में प्रवेश तो लो. तुम्हारी फीस का इंतजाम कराने की जिम्मेदारी मेरी रहेगी.’’

‘‘क्या आप मेरी फीस भर देंगे?’’ उस की आंखों में आशा भरी चमक उभरी.

‘‘अगर बैंक से लोन नहीं मिला तो मैं भर दूंगा. नौकरी लग जाने के बाद बैंक का या मेरा लोन लौटाओगी न?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘श्योर, सर, मेरी इस समस्या को हल करने की जिम्मेदारी ले कर आप मुझ पर बहुत बड़ा एहसान करेंगे,’’ वह भावुक हो उठी थी.

‘‘दोस्तों के बीच एहसान शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए. तुम्हारे लिए कुछ भी कर के मुझे खुशी होगी,’’ इन शब्दों को सुन कर उस का चेहरा फूल सा खिल उठा था.

शुचि के साथ के कारण अचानक ही मेरा समय बड़े आराम से कटने लगा था. उस से मिलने और उस के घर आने का मुझे इंतजार रहता. अपने को मैं नई ऊर्जा और उत्साह से भरा महसूस करता. अपने बेटेबहुओं से फोन पर बातें करते हुए मैं अपने अकेलेपन की शिकायत अब नहीं करता था. शुचि की मौजूदगी ने मेरी जिंदगी से ऊब और नीरसता को बिलकुल दूर भगा दिया था.

आगामी रविवार की सुबह पार्क में सैर कर लेने के बाद उस ने कहा, ‘‘सर, आज आप का लंच हमारे यहां है. आप तैयार रहना. मैं आप को अपने घर ले चलने के लिए ठीक 12 बजे आ जाऊंगी.’’

‘‘थैंक यू वेरी मच, शुचि. तुम्हारे मम्मीपापा से मिलने की मेरी भी बड़ी इच्छा है,’’ उस के घर जाने का बुलावा पा कर मैं सचमुच बहुत खुश हुआ था.

शुचि के आने से पहले मैं काजू की मिठाई का डब्बा और फूलों का बहुत सुंदर गुलदस्ता बाजार से ले आया था. उस के आने के 5 मिनट बाद ही हम दोनों कार में बैठ कर उस के घर जाने को निकल पड़े थे.

‘‘बहुत सुंदर गुलदस्ता बनवाया है आप ने, सर. मम्मी तो बहुत खुश हो जाएंगी,’’ शुचि की आंखों में अपनी तारीफ के भाव पढ़ कर मैं खुश हुआ था.

शुचि के पापा ने बड़ी गरमजोशी के साथ हाथ मिलाते हुए मेरा स्वागत किया, ‘‘मैं रवि हूं…शुचि का पापा. वेलकम, कपूर साहब. शुचि आप की बहुत बातें करती है. इसीलिए ऐसा लग नहीं रहा है कि हम पहली बार मिल रहे हैं.’

बिट्टू : भाग 1, अनिता को अपने फैसले पर क्यों हो रहा था पछतावा?

‘‘आज बिट्टू ने बहुत परेशान किया,’’ शिशुसदन की आया ने कहा.

‘‘क्यों बिट्टू, क्या बात है? क्यों इन्हें परेशान किया?’’ अनिता ने बच्चे को गोद में उठा कर चूम लिया और गोद में लिएलिए ही आगे बढ़ गई.

बिट्टू खामोश और उदास था. चुपचाप मां की गोद में चढ़ा इधरउधर देखता रहा. अनिता ने बच्चे की खामोशी महसूस की. उस का बदन छू कर देखा. फिर स्नेहपूर्वक बोली, ‘‘बेटे, आज आप ने मां को प्यार नहीं किया?’’

‘‘नहीं करूंगा,’’ बिट्टू ने गुस्से में गरदन हिला कर कहा.

‘‘क्यों बेटे, आप हम से नाराज हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ अनिता ने पूछा और फिर बिट्टू को नीचे उतार कर सब्जी वाले से आलू का भाव पूछा और 1 किलो आलू थैले में डलवाए. कुछ और सब्जी खरीद कर वह बिट्टू की उंगली थामे धीरेधीरे घर की ओर चल दी.

‘‘मां, मैं टाफी लूंगा,’’ बिट्टू ने मचल कर कहा.

‘‘नहीं बेटे, टाफी से दांत खराब हो जाते हैं और खांसी आने लगती है.’’

‘‘फिर बिस्कुट दिला दो.’’

‘‘हां, बिस्कुट ले लो,’’ अनिता ने काजू वाले नमकीन बिस्कुट का पैकेट ले कर  2 बिट्टू को पकड़ा दिए और शेष थैले में डाल लिए.

अनिता बेहद थकी हुई थी. उस की इच्छा हो रही थी कि वह जल्दी से जल्दी घर पहुंच कर बिस्तर पर ढेर हो जाए. पंखे की ठंडी हवा में आंखें मूंदे लेटी रहे और अपने दिलोदिमाग की थकान उतारती रहे. फिर कोई उसे एक प्याला चाय पकड़ा दे और चाय पी कर वह फिर लेट जाए.

लेकिन ऐसा संभव नहीं था. घर जाते ही उसे काम में जुट जाना था. महरी भी 2-3 दिन की छुट्टी पर थी.

यही सब सोचते हुए अनिता घर पहुंची. साड़ी उतार कर एक ओर रख दी और पंखा पूरी गति पर कर के ठंडे फर्श पर लेट गई. बिट्टू ने अपने मोजे और जूते उतारे और उस के ऊपर आ कर बैठ गया.

‘‘मां…’’

‘‘हूं.’’

‘‘कल से मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘कहां?’’

‘‘वहीं, जहां रोज तुम मुझे छोड़ देती हो. मैं सारा दिन तुम्हारे पास रहूंगा,’’ कहते हुए बिट्टू अपना चेहरा अनिता के गाल से सटा कर लेट गया.

‘‘फिर मैं दफ्तर कैसे जाऊंगी?’’ अनिता ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मत जाइए,’’ बिट्टू ने मुंह फुला लिया.

‘‘फिर मेरी नौकरी नहीं छूट जाएगी?’’

‘‘छूट जाने दीजिए…लेकिन कल मैं वहां नहीं जाऊंगा.’’

‘‘मत जाना,’’ अनिता ने झुंझलाते हुए कह दिया.

‘‘वादा,’’ बिट्टू ने बात की पुष्टि करनी चाही.

‘‘हां…देखूंगी,’’ कह कर अनिता अतीत में खो गई.

नौकरी करने की अनिता की बिलकुल इच्छा नहीं थी. वह तो घर में ही रहना चाहती थी. और घर में रह कर वह ऐसा काम जरूर करना चाहती थी, जिस से कुछ आर्थिक लाभ होता रहे.

शुरू में उस ने अपनी यह इच्छा अजय पर जाहिर की थी. सुन कर वे बेहद खुश हुए थे और वादा कर लिया था कि वे कोशिश करेंगे कि उसे जल्दी ही कोई काम मिल जाए.

बिट्टू डेढ़ साल का ही था, जब एक दिन अजय खुशी से झूमते हुए आए और बोले, ‘आज मैं बहुत खुश हूं.’

‘क्या हुआ?’ अनिता ने आश्चर्य से पूछा.

‘तुम्हें नौकरी मिल गई है.’

‘क्या?’ उस का मुंह खुला रह गया, ‘लेकिन अभी इतनी जल्दी क्या थी.’

‘क्या कहती हो. नौकरी कहीं पेड़ों पर लगती है कि जब चाहो, तोड़ लो. मिलती हुई नौकरी छोड़ना बेवकूफी है,’ अजय अपनी ही खुशी में डूबे, बोले जा रहे थे. उन्होंने अनिता के उतरे हुए चेहरे की तरफ नहीं देखा था.

‘लेकिन अजय, मैं अभी नौकरी नहीं करना चाहती. बिट्टू अभी बहुत छोटा है. जरा सोचो, भला मैं उसे घर में अकेले किस के पास छोड़ कर जाऊंगी.’

‘तुम इस की चिंता मत करो,’ अजय ने अपनी ही रौ में कहा.

‘क्यों न करूं. जब तक बिट्टू बड़ा नहीं हो जाता, मैं घर से बाहर जा कर नौकरी करने के बारे में सोच भी नहीं सकती.’

‘कैसी पागलों जैसी बातें करती हो.’

‘नहीं, अजय, तुम कुछ भी कहो, मैं बिट्टू को अकेले…’

‘मेरी बात तो सुनो, आजकल कितने ही शिशुसदन खुल गए हैं. वहां नौकरीपेशा महिलाएं अपने बच्चों को सुबह छोड़ जाती हैं और शाम को वापस ले जाती हैं,’ अजय ने मुसकराते हुए कहा.

‘नहीं, मैं अपने बच्चे को अजनबी हाथों में नहीं सौपूंगी,’ अनिता ने परेशान से स्वर में कहा.

‘बिट्टू वहां अकेला थोड़े ही होगा. सुनो, वहां तो 3-4 महीने तक के बच्चे महिलाएं छोड़ जाती हैं. क्या उन्हें अपने बच्चों से प्यार नहीं होता?’ अनिता के सामने कुरसी पर बैठा अजय उसे समझाने की कोशिश कर रहा था.

अब और नहीं- भाग 1: क्या दीपमाला मन में दबी चिंगारी बुझा सकी?

नन्हीगौरैया ने बड़ी कोशिश से अपना घोंसला बनाया था. घास के तिनके फुरती से बटोर कर लाती गौरैया को देख कर दीपमाला के होंठों पर मुसकान आ गई. हाथ सहज ही अपने पेट पर चला गया. पेट के उभार को सहलाते हुए वह ममता से भर उठी. कुछ ही दिनों में एक नन्हा मेहमान उस के आंगन में किलकारियां मारेगा. तार पर सूख रहे कपड़े बटोर वह कमरे में आ गई. कपड़े रख कर रसोई की तरफ मुड़ी ही थी कि तभी डोरबैल बजी.

‘‘आज तुम इतनी जल्दी कैसे आ गई?’’ घर में घुसते ही भूपेश ने पूछा.

‘‘आज मन नहीं किया काम पर जाने का. तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ दीपमाला ने जवाब दिया.

दीपमाला इस आस से भूपेश के पास खड़ी रही कि तबीयत खराब होने की बात जान कर वह परेशान हो उठेगा. गले से लगा कर प्यार से उस का हाल पूछेगा, मगर बिना कुछ कहेसुने जब वह हाथमुंह धोने बाथरूम में चला गया तो बुझी सी दीपमाला रसोई की ओर चल पड़ी.

शादी के 4 साल बाद दीपमाला मां बनने जा रही थी. उस की खुशी 7वें आसमान पर थी, मगर भूपेश कुछ खास खुश नहीं था. दीपमाला अकेली ही डाक्टर के पास जाती, अपने खानेपीने का ध्यान रखती और अगर कभी भूपेश को कुछ कहती तो काम की व्यस्तता का रोना रो कर वह अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता. वह बड़ी बेसब्री से दिन गिन रही थी. बच्चे के आने से भूपेश को शायद कुछ जिम्मेदारी का एहसास हो जाए, शायद उस के अंदर भी नन्ही जान के लिए प्यार उपजे, इसी उम्मीद से वह सब कुछ अपने कंधों पर संभाले बैठी थी.

कुछ ही दिनों की तो बात है. बच्चे के आने से सब ठीक हो जाएगा, यही सोच कर उस ने काम पर जाना नहीं छोड़ा. जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि उस की और भूपेश की कमाई से घर मजे से चल रहा था. पार्लर की मालकिन दीपमाला के हुनर की कायल थी. एक तरह से दीपमाला के हाथों का ही कमाल था जो ग्राहकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई थी. दीपमाला के इस नाजुक वक्त में सैलून की मालकिन और बाकी लड़कियां उसे पूरा सहयोग देतीं. उस का जब कभी जी मिचलाता या तबीयत खराब लगती तो वह काम से छुट्टी ले लेती.

एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर भूपेश स्वभाव से रूखा था. उस के अधीन 2-4 लोग काम करते थे. उस के औफिस में एक पोस्ट खाली थी, जिस के लिए विज्ञापन दिया गया था. कंपनी में ग्राहक सेवा के लिए योग्यता के साथसाथ किसी मिलनसार और आकर्षक व्यक्तित्व की जरूरत थी.

एक दिन तीखे नैननक्शों वाली उपासना नौकरी के आवेदन के लिए आई. उस की मधुर आवाज और व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर और कुछ उस के पिछले अनुभव के आधार पर उस का चयन कर लिया गया. भूपेश के अधीनस्थ होने के कारण उसे काम सिखाने की जिम्मेदारी भूपेश पर थी.

उपासना उन लड़कियों में से थी जिन्हें योग्यता से ज्यादा अपनी सुंदरता पर भरोसा होता है. अब तक के अपने अनुभवों से वह जान चुकी थी कि किस तरह अदाओं के जलवे दिखा कर आसानी से सब कुछ हासिल किया जा सकता है. छोटे शहर से आई उपासना कामयाबी की मंजिल छूना चाहती थी. कुछ ही दिनों बाद वह समझ गई कि भूपेश उस पर फिदा है. फिर इस बात का वह भरपूर फायदा उठाने लगी.

उपासना का जादू भूपेश पर चला तो वह उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहने लगा. उपासना बहाने बना कर औफिस के कामों को टाल देती जिन्हें भूपेश दूसरे लोगों से करवाता. अकसर बेवजह छुट्टी ले कर मौजमस्ती करने निकल पड़ती. उसे बस उस पैसे से मतलब था जो उसे नौकरी से मिलते थे. साथ में काम करने वाले भूपेश के दबदबे की वजह से उपासना की हरकतों को नजरंदाज कर देते.

अपने यौवन और शोख अदाओं के बल पर उपासना भूपेश के दिलोदिमाग में पूरी तरह उतर गई. उस की और भूपेश की नजदीकियां बढ़ने लगीं. काम के बाद दोनों कहीं घूमने निकल जाते. उसे खुश करने के लिए भूपेश उसे महंगे तोहफे देता. आए दिन किसी पांचसितारा होटल में लंच या डिनर पर ले जाता. भूपेश का मकसद उपासना को पूरी तरह से हासिल करना था और उपासना भी खूब समझती थी कि क्यों भूपेश उस के आगेपीछे भंवरे की तरह मंडरा रहा है.

पहले भूपेश औफिस से घर जल्दी आता था तो दोनों साथ में खाना खाते, अब देर रात तक दीपमाला उस का इंतजार करती रहती और फिर अकेली ही खा कर सो जाती. कुछ दिनों से भूपेश के रंगढंग बदल गए थे. औफिस में भी सजधज कर जाता. उधर इन सब बातों से बेखबर दीपमाला नन्हें मेहमान की कल्पना में डूबी रहती. उस की दुनिया सिमट कर छोटी हो गई थी.

एक रोज धोने के लिए कपड़े निकालते वक्त उसे भूपेश की पैंट की जेब से फिल्म के 2 टिकट मिले. उसे थोड़ी हैरानी हुई. भूपेश फिल्मों का शौकीन नहीं था. कभी कोई अच्छी फिल्म लगी होती तो दीपमाला ही जबरदस्ती उसे खींच ले जाती.

उस ने भूपेश से इस बारे में पूछा. टिकट की बात सुन कर वह कुछ सकपका गया. फिर तुरंत संभल कर उस ने बताया कि औफिस के एक सहकर्मी के कहने पर वह चला गया था. बात आईगई हो गई.

इस बात को कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन भूपेश के बटुए में दीपमाला को सुनार की दुकान की एक परची मिली. शंकित दीपमाला ने भूपेश के घर लौटते ही उस पर सवालों की बौछार कर दी.

उपासना को जन्मदिन में देने के लिए भूपेश ने एक गोल्ड रिंग बुक करवाई थी, लेकिन किसी शातिर अपराधी की तरह भूपेश उस दिन सफेद झूठ बोल गया. अपने होने वाले बच्चे का वास्ता दे कर.

उस ने दीपमाला को यकीन दिला दिया कि उस के दोस्त ने अपनी पत्नी को सरप्राइज देने के लिए ही परची उस के पास रखवाई है. इस घटना के बाद से भूपेश कुछ सतर्क रहने लगा. अपनी जेब में कोई सुबूत नहीं छोड़ता था.

दीपमाला की डिलीवरी का समय नजदीक था. भूपेश ने उस के जाने का इंतजाम कर दिया. दीपमाला अपनी मां के घर चली आई. अपने मायके पहुंचने के कुछ दिन बाद ही दीपमाला ने एक बेटे को जन्म दिया. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस के दिनरात नन्हे अंशुल के साथ बीतने लगे. 4 दिन दीपमाला और बच्चे के साथ रह कर भूपेश औफिस में जरूरी काम की बात कह कर लौट आया. दीपमाला के न रहने पर वह अब बिलकुल आजाद पंछी था. उस की और उपासना की प्रेमलीला परवान चढ़ रही थी. औफिस में लोग उन के बारे में दबीछिपी बातें करने लगे थे, मगर भूपेश को अब किसी की परवाह नहीं थी. वह हर हालत में उपासना का साथ चाहता था.

कुछ महीने बीते तो दीपमाला ने भूपेश को फोन कर के बताया कि वह अब घर आना चाहती है. जवाब में भूपेश ने दीपमाला को कुछ दिन और आराम करने की बात कही. दीपमाला को भूपेश की बात कुछ जंची नहीं, मगर उस के कहने पर वह कुछ दिन और रुक गई. 3 महीने बीतने को आए, मगर भूपेश उसे लेने नहीं आया तो उस ने भूपेश को बताए बिना खुद ही आने का फैसला कर लिया.

दरवाजे की घंटी पर बड़ी देर तक हाथ रखने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो दीपमाला को फिक्र होने लगी. ‘आज इतवार है. औफिस नहीं गया होगा. दरवाजे पर ताला भी नहीं है. इस का मतलब कहीं बाहर भी नहीं गया है. तो फिर इतनी देर क्यों लग रही है उसे दरवाजा खोलने में?’ वह सोचने लगी.

कंधे पर बैग उठाए और एक हाथ से बच्चे को गोद में संभाले वह अनमनी सी खड़ी थी कि खटाक से दरवाजा खुला.

एक बिलकुल अनजान लड़की को अपने घर में देख दीपमाला हैरान रह गई. वह कुछ पूछ पाती उस से पहले ही उपासना बिजली की तेजी से वापस अंदर चली गई. भूपेश ने दीपमाला को यों इस तरह अचानक देखा तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उस के माथे पर पसीना आ गया.

उस का घबराया चेहरा और घर में एक पराई औरत को अपनी गैरमौजूदगी में देख दीपमाला का माथा ठनका. गुस्से में दीपमाला की त्योरियां चढ़ गईं. पूछा, ‘‘कौन है यह और यहां क्या कर रही है तुम्हारे साथ?’’

भूपेश अपने शातिर दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा. उपासना उस के मातहत काम करती है, यह बताने के साथ ही उस ने दीपमाला को एक झूठी कहानी सुना डाली कि किस तरह उपासना इस शहर में नई आई है. रहने की कोई ढंग की जगह न मिलने की वजह से वह उस की मदद इंसानियत के नाते कर रहा है.

‘‘तो तुम ने यह मुझे फोन पर क्यों नहीं बताया? तुम ने मुझ से पूछना भी जरूरी नहीं समझा कि हमारे साथ कोई रह सकता है या नहीं?’’

‘‘यह आज ही तो आई है और मैं तुम्हें बताने ही वाला था कि तुम ने आ कर मुझे चौंका दिया. और देखो न मुझे तुम्हारी और मुन्ने की कितनी याद आ रही थी,’’ भूपेश ने उस की गोद से ले कर अंशुल को सीने से लगा लिया. दीपमाला का शक अभी भी दूर नहीं हुआ कि तभी उपासना बेहद मासूम चेहरा बना कर उस के पास आई.

‘‘मुझे माफ कर दीजिए, मेरी वजह से आप लोगों को तकलीफ हो रही है. वैसे इस में इन की कोई गलती नहीं है. मेरी मजबूरी देख कर इन्होंने मुझे यहां रहने को कहा. मैं आज ही किसी होटल में चली जाती हूं.’’

‘‘इस शहर में बहुत से वूमन हौस्टल भी तो हैं, तुम ने वहां पता नहीं किया?’’ दीपमाला बोली.

‘‘जी, हैं तो सही, लेकिन सब जगह किसी जानपहचान वाले की गारंटी चाहिए और यहां मैं किसी को नहीं जानती.’’

भूपेश और उपासना अपनी मक्कारी से दीपमाला को शीशे में उतारने में कामयाब हो गए. दीपमाला उन दोनों की तरह चालाक नहीं थी. उपासना के अकेली औरत होने की बात से उस के दिल में थोड़ी सी हमदर्दी जाग उठी. उन का गैस्टरूम खाली था तो उस ने उपासना को कुछ दिन रहने की इजाजत दे दी.

भूपेश की तो जैसे बांछें खिल गईं. एक ही छत के नीचे पत्नी और प्रेमिका दोनों का साथ उसे मिल रहा था. वह अपने को दुनिया का सब से खुशनसीब मर्द समझने लगा.

दीपमाला के आने के बाद भूपेश और उपासना की प्रेमलीला में थोड़ी रुकावट तो आई पर दोनों अब होशियारी से मिलतेजुलते. कोशिश होती कि औफिस से भी अलगअलग समय पर निकलें ताकि किसी को शक न हो. दीपमाला के सामने दोनों ऐसे पेश आते जैसे उन का रिश्ता सिर्फ औफिस तक ही सीमित हो.

दीपमाला घर की मालकिन थी तो हर काम उस की मरजी से होता था. थोड़े ही अंतराल बाद उपासना उस की स्थिति की तुलना खुद से करने लगी थी. उस के तनमन पर भूपेश अपना हक जताता था, मगर उन का रिश्ता कानून और समाज की नजरों में नाजायज था. औफिस में वह सब के मनोरंजन का साधन थी, सब उस से चुहल भरे लहजे में बात करते, उन की आंखों में उपासना को अपने लिए इज्जत कम और हवस ज्यादा दिखती थी.

समाज में पत्नी का दर्जा क्या होता है, भूपेश और दीपमाला के साथ रहते हुए उसे इस बात का अंदाजा हो गया था. दीपमाला की जो जगह उस घर में थी वह जगह अब उपासना लेना चाहती थी. वह सोचने लगी आखिर कब तक वह भूपेश की खेलने की चीज बन कर रहेगी. कभी न कभी तो भूपेश इस खिलौने से ऊब जाएगा. उपासना को अब अपने भविष्य की चिंता होने लगी.

भूपेश के पास ओहदा और पैसा दोनों थे. उस के साथ रह कर उपासना को अपना भविष्य सुनहरा लग रहा था. उस ने अब अपना दांव फेंकना शुरू किया. वह भूपेश पर दीपमाला को तलाक देने का दबाव डालने लगी. शातिर दिमाग भूपेश को घरवाली और बाहरवाली दोनों का सुख मिल रहा था. वह शादी के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था. उस ने उपासना को कई तरीकों से समझाने की कोशिश की तो वह जिद पर अड़ गई. उस ने भूपेश के सामने शर्त रख दी कि या तो वह दीपमाला को तलाक दे कर उस से शादी करे या फिर वह सदा के लिए उस से अपना रिश्ता तोड़ लेगी.

कंटीली चितवन और मदमस्त हुस्न की मालकिन उपासना को भूपेश कतई नहीं छोड़ना चाहता था. उस ने उपासना से कुछ दिन की मोहलत मांगी.

एक रात दीपमाला की नींद अचानक खुली तो उस ने पाया भूपेश बिस्तर से नदारद है. दीपमाला को बातचीत की आवाजें सुनाई दीं तो वह कमरे से बाहर आई. आवाजें उपासना के कमरे से आ रही थीं. दरवाजा पूरी तरह बंद नहीं था. एक झिरी से दीपमाला ने अंदर झांका. बिस्तर पर उपासना और भूपेश सिर्फ एक चादर लपेटे हमबिस्तर थे. दोनों इतने बेखबर थे कि उन्हें दीपमाला के वहां होने का भी पता नहीं चला.

उस दृश्य ने दीपमाला को जड़ कर दिया. उस की हिम्मत नहीं हुई कुछ देर और वहां रुकने की. जैसे गई थी वैसे ही उलटे पांव कमरे में लौट आई. आंखों से लगातार आंसू बहते जा रहे थे. उस की नाक के नीचे ये सब हो रहा था और वह बेखबर रही. वह यकीन नहीं कर पा रही थी कि इतना बड़ा विश्वासघात किया दोनों ने उस के साथ.

दीपमाला के दिल में नफरत का ज्वारभाटा उछाल मार रहा था. उस के आंसू पोंछने वाला वहां कोई नहीं था. दिमाग में बहुत से विचार कुलबुलाने लगे. अगर अभी कमरे में जा कर दोनों को जलील करे तो उस का मन शांत हो और फिर वह हमेशा के लिए यह घर छोड़ कर चली जाए. फिर उसे खयाल आया कि वह क्यों अपना घर छोड़ कर जाए. यहां से जाएगी तो उपासना जिस ने उस के सुहाग पर डाका डाला. अपने सोते हुए बच्चे पर नजर डाल दीपमाला ने खुद को किसी तरह सयंत किया और फिर एक फैसला ले लिया.

दीपमाला को नींद में बेखबर समझ बड़ी देर बाद भूपेश अपने कमरे में लौट आया और चुपचाप बिस्तर पर लेट गया मानो कुछ हुआ ही नहीं.

दूसरी सुबह जब उपासना औफिस के लिए निकली रही थी तभी दीपमाला ने उस का रास्ता रोक लिया. बोली, ‘‘सुनो उपासना अब तुम यहां नहीं रह सकती. इसलिए आज ही अपना सामान उठा कर चली जाओ,’’ दीपमाला की आंखों में उस के लिए नफरत के शोले धधक रहे थे.

‘‘यह क्या कह रही हो तुम? उपासना कहीं नहीं जाएगी,’’ भूपेश ने बीच में आते हुए कहा.

‘‘मैं ने बोल दिया है. इसे जाना ही होगा.’’

भूपेश की शह पा कर उपासना भूपेश के साथ खड़ी हो गई तो दीपमाला के तनबदन में आग लग गई.

एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी, उपासना की ढिठाई देख कर दीपमाला से रहा नहीं गया. गुस्से की ज्वाला में उबलती दीपमाला ने उपासना की बांह पकड़ कर उसे लगभग धकेल दिया.

तभी एक जोरदार तमाचा दीपमाला के गाल पर पड़ा. वह सन्न रह गई. एक दूसरी औरत के लिए भूपेश उस पर हाथ उठा सकता है, वह सोच भी नहीं सकती थी. उस की आंखें भर आईं. भूपेश के रूप में एक अजनबी वहां खड़ा था उस का पति नहीं.

किसी जख्मी शेरनी सी गुर्रा कर दीपमाला बोली, ‘‘सब समझती हूं मैं. तुम इसे यहां क्यों रखना चाहते हो… कल रात अपनी आंखों से देख चुकी हूं तुम दोनों की घिनौनी करतूत.’’

मर्यादा की सारी हदें तोड़ते हुए भूपेश ने दीपमाला के सामने ही उपासना की कमर में हाथ डाल दिया और एक कुटिल मुसकान उस के होंठों पर आ गई.

‘‘चलो अच्छा हुआ जो तुम सब जान गई, तो अब यह भी सुन लो मैं उपासना से शादी करने वाला हूं और यह मेरा अंतिम फैसला है.’’

दीपमाला अवाक रह गई. उसे यकीन हो गया भूपेश अपने होशोहवास में नहीं है. जो कुछ कियाधरा है उपासना का किया है.

‘‘तुम अपने होश में नहीं हो भूपेश… यह हम दोनों के बीच नहीं आ सकती… मैं तुम्हारी बीवी हूं.’’

‘‘तुम हम दोनों के बीच आ रही हो. मैं अब तुम्हारे साथ एक पल भी नहीं रहना चाहता,’’ भूपेश ने बिना किसी लागलपेट के दोटूक जवाब दिया.

दीपमाला अपने ही घर में अपराधी की तरह खड़ी थी. भूपेश और उपासना एक पलड़े में थे और उन का पलड़ा भारी था.

जिस आदमी के साथ ब्याह कर वह इस घर में आई थी, वही अब उस का नहीं रहा तो उस घर में उस का हक ही क्या रह जाता है.

बसीबसाई गृहस्थी उजड़ चुकी थी. भूपेश ने जब तलाक का नोटिस भिजवाया तो दीपमाला की मां और भाई का खून खौल उठा. वे किसी भी कीमत पर भूपेश को सबक सिखाना चाहते थे, जिस ने दीपमाला की जिंदगी से खिलवाड़ किया. रहरह कर दीपमाला को वह थप्पड़ याद आता जो भूपेश ने उसे उपासना की खातिर मारा था.

दीपमाला के दिल में भूपेश की याद तक मर चुकी थी. उस ने ठंडे लहजे में घर वालों को समझाबुझा लिया और तलाकनामे पर हां की मुहर लगा दी. जिस रिश्ते की मौत हो चुकी थी उसे कफन पहनाना बाकी था.

दीवारें बोल उठीं: भाग 1

परेशान इंद्र एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगा रहे थे. गुस्से में बुदबुदाए जाने वाले शब्दों को शिल्पी लाख चाहने पर भी सुन नहीं पा रही थी. बस, चेहरे के भावों से अनुमान भर ही लगा पाई कि वे  हालात को कोस रहे हैं. अमन की कारस्तानियों से दुखी इंद्र का जब परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं रहता था तो वह आसपास मौजूद किसी भी व्यक्ति में कोई न कोई कारण ढूंढ़ कर उसे ही कोसना शुरू कर देते.यह आज की बात नहीं थी.

अमन का यों देर रात घर आना, घर आ कर लैपटाप पर व्यस्त रहना, अब रोज की दिनचर्या बन गई थी. कान से फोन चिपका कर यंत्रवत रोबोट की तरह उस के हाथ थाली से मुंह में रोटी के कौर पहुंचाते रहते. उस की दिनचर्या में मौजूद रिश्तों के सिर्फ नाम भर ही थे, उन के प्रति न कोई भाव था न भाषा थी.औलाद से मांबाप को क्या चाहिए होता है, केवल प्यार, कुछ समय.

लेकिन अमन को देख कर यों लगता कि समय रेत की मानिंद मुट्ठी से इतनी जल्दी फिसल गया कि मैं न तो अमन की तुतलाती बातों के रस का आनंद ले पाई और न ही उस के नन्हे कदम आंखों को रि?ा पाए. उसे किशोर से युवा होते देखती रही. विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने वाले अमन के दिल पर मैं भी हाथ कहां रख पाई.वह जब भी स्कूल की या दोस्तों की कोई भी बात मुझे बताना चाहता तो मैं हमेशा रसोई में अपनी व्यस्तता का बहाना बना कर उसे उस के पापा के पास भेज देती और इंद्र उसे उस के दादा के पास. समय ही नहीं था हमारे पास उस की बातें, शिकायतें सुनने का.

आज अमन के पास समय नहीं है अपने अधेड़ होते मांबाप के पास बैठने का. आज हम दोनों अमन को दोषी मानते हैं. इंद्र तो उसे नई पीढ़ी की संज्ञा दे कर बिगड़ी हुई औलाद कहते हैं, लेकिन वास्तव में दोषी कौन है? हम दोनों, इंद्र या मैं या केवल अमन.लेकिन सप्ताह के 6 दिन तक रूखे रहने वाले अमन में शनिवार की रात से मैं प्रशंसनीय परिवर्तन देखती. तब भी वह अपना अधिकतर समय यारदोस्तों की टोली में ही बिताना पसंद करता.

रविवार की सुबह घर से निकल कर 4-5 घंटे गायब रहना उस के लिए मामूली बात थी.‘न ढंग से नाश्ता करता है, न रोटी खाता है.’ अपने में सोचतेसोचते मैं फुसफुसा रही थी और मेरे फुसफुसाए शब्दों की ध्वनि इतनी साफ थी कि तिलमिलाए इंद्र अपने अंदर की कड़वाहट उगलने से खुद को रोक नहीं पाए. जब आवेग नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो तबाही निश्चित होती है. बात जब भावोंविचारों में आवेग की हो और सद्व्यवहार के बंधन टूटने लगें तो क्रोध भी अपनी सीमाएं तोड़ने लगता है.मेरी बुदबुदाहट की तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इंद्र ने कहा, ‘‘हां हां, तुम हमेशा खाने की थाली सजा कर दरवाजे पर खड़ी रह कर आरती उतारो उस की. जबजब वह घर आए, चाहो तो नगाड़े पीट कर पड़ोसियों को भी सूचित करो कि हमारे यहां अतिविशिष्ट व्यक्ति पधारे हैं.

कहो तो मैं भी डांस करूं, ऐसे…’’कहतेकहते आवेश में आ कर इंद्र ने जब हाथपैर हिलाने शुरू किए तो मैं अचंभित सी उन्हें देखती रही. सच ही तो था, गुस्सा इनसान से सही बात कहने व संतुलित व्यवहार करने की ताकत खत्म कर देता है.मु?ो इंद्र पर नहीं खामखा अपने पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों मैं ने अमन की बात शुरू की.

पापा जल्दी आ जाना : भाग 1, पापा से मुलाकात को तरसती बेटी की कहानी

पापा से बातबात पर मम्मी झगड़तीं जबकि मनोज नाम के व्यक्ति के साथ खूब हंसतीबोलती थीं. नटखट निकी को यह अच्छा नहीं लगता था. समय वह भी आया जब पापा को मम्मी से दूर जाना पड़ा. पापा के इंतजार के साथ पलतीबढ़ती निकी ससुराल चली गई. क्या पापा से उस की मुलाकात हो सकी? पढि़ए, डा. पंकज धवन की यह मार्मिक कहानी.

‘‘पा पा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मु?ो रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मु?ा से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को सम?ा कर भी नहीं सम?ाना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मु?ो अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मु?ा से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

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