Download App

Hindi Story : दूसरा कदम – रिश्तों के बीच जब आ जाएं रुपए-पैसों

Hindi Story : कैसा जमाना आ गया है. यदि कोई प्यार से मिलता है और बारबार मिलना चाहता है तो पता नहीं क्यों हमारी छठी इंद्री हमें यह संकेत देने लगती है कि सामने वाले पर शक किया जाए. यह इंसान क्यों मिलता है? और फिर इतने प्यार से मिलता है कि शक तो होगा ही. वैसे हमारे पास ऐसा है ही क्या जिस पर किसी की नजर हो. एक मध्यमवर्गीय परिवार के पास ऐसी कोई दौलत नहीं हो सकती जिसे कोई चुरा ले जाए. बस, किसी तरह चादर में पैर समेटे अपना जीवन और उस की जरूरतें पूरी कर लेता है एक आम मध्यमवर्गीय मानस. पार्क में सुबह टहलने जाता हूं तो एक 26-27 साल का लड़का हर दिन मिलता है. जौगिंग करता आता है और पास आ कर यों देखने लगता है मानो मेरा ही इंतजार था उसे.

‘‘कैसे हैं आप, कल आप आए नहीं? मैं इंतजार करता रहा.’’

‘‘क्यों?’’ सहसा मुंह से निकल गया और साथ ही अपने शब्दों की कठोरता पर स्वयं ही क्रोध भी आया मुझे.

‘‘नहीं, कोई खास काम भी नहीं था. हां, रोज आप को देखता हूं न. आप अच्छे लगते हैं और सच कहूं तो आप को देख कर दिन अच्छा बीत जाता है.’’

वह भी अपने ही शब्दों पर जरा सा झेंप गया था.

पार्क से आने के बाद पत्नी से बात की तो कहने लगी, ‘‘आप बैंक में ऊंचे पद पर काम करते हैं. कोई कर्जवर्ज उसे लेना होगा इसीलिए जानपहचान बढ़ाना चाहता होगा.’’

‘‘हो सकता है कोई वजह होगी. ऐसा भी होता है क्या कि किसी का चेहरा देख कर दिन अच्छा बीते. अजीब लगता है मुझे उस का व्यवहार. बेकार की चापलूसी.’’

‘‘आप को देख कर कोई खुश होता है तो इस से भला आप को क्या तकलीफ है,’’ पत्नी बोली, ‘‘आप की सूरत देख कर उस का दिन अच्छा निकलता है तो इस का मतलब आप की सूरत किसी की खुशी का कारण है.’’

‘‘हद हो गई, तुम भी ऐसी ही सिरफिरी बातें करने लगी हो.’’

‘‘कई बातें हर तर्कवितर्क से परे होती हैं श्रीमान. बिना वजह आप उसे अच्छे लगते हैं. अगर बिना वजह बुरे लगने लगते तो आप क्या कर लेते. घटना को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिए. बिना वजह प्यार से कैसा डर. अच्छी बात है. आप भी उस से दोस्ती कर लीजिए… घर बुलाइए उसे. हमारे बच्चे जैसा ही होगा.’’

‘‘इतना भी छोटा नहीं लगता. हमारे बच्चों से तो उम्र में बड़ा ही है. चलो, छोड़ो किस बखेड़े में पड़ गईं तुम भी.’’

मैं ने पत्नी को टालने का उपक्रम किया, लेकिन पत्नी की बातों की गहराई को पूरी तरह नकार कहां पाया. सच कहती है मेरी पत्नी शुभा. मनोविज्ञान की प्राध्यापिका है न, हर बात को मनोविज्ञान की कसौटी पर ही तोलना उस की आदत है. कहीं न कहीं कुछ तो सच होगा जिसे हम सिर्फ महसूस ही कर पाते हैं.

सच में वह लड़का मुझे देख कर इतना खुश होता है कि उस की आंखों में ठहरा पानी हिलने लगता है. मानो पलकपांवड़े बिछाए वह बस मुझे ही देख लेना चाहता हो. ज्यादा बात नहीं करता. बस, हालचाल पूछ कर चुपचाप लौट जाता है, लेकिन उस का आनाजाना भी धीरेधीरे बहुत अच्छा लगने लगा है. मैं भी जैसे ही पार्क में पैर रखता हूं, मेरी नजरें भी उसे ढूंढ़ने लगती हैं. दूर से ही हाथ हिला कर हंस देना मेरी और उस की दोनों की ही आदत सी बन गई है. शब्दों के बिना हमारे हावभाव बात करते हैं, आंखें बात करती हैं, जिन में अनकहा सा स्नेह और अपनत्व महसूस होने लगा है. एक अनकहा संदेश जो सिर्फ इतना सा है कि आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. शुभा अकसर मुझे समझाती रहती है,

‘‘चिंता करना अच्छी बात है,

क्योंकि अगर हमें हर काम ठीक ढंग से करना है तो जरा सी चिंता करना जरूरी है, इतनी जितनी हम सब्जी में हींग डालते हैं. आप तो इतनी चिंता करते हो जितनी चाय में दूध, पत्ती और चीनी.’’

‘‘तुम्हारे कहने का अर्थ मैं यह निकालूं कि मैं काम कम और चिंता ज्यादा करता हूं. शौक है मुझे चिंता करने का.’’

‘‘जी हां, चिंता को ओढ़ लेना आप को अच्छा लगता है जबकि सच यह है कि जिस काम की आप चिंता कर रहे होते हैं वह चिंता लायक होता ही नहीं. अब कोई प्यार से मिल रहा है तो उस की भी चिंता. जरा सोचिए, इस की कैसी चिंता.’’

मेरी सैर अभी शुरू ही होती थी और उस की समाप्त हो जाती. पार्क के बाहर खड़ी साइकिल उठा कर वह हाथ हिलाता हुआ चला जाता. जहां तक मुझे इंसान की पहचान है, इतना कह सकता हूं कि वह अच्छे घर का लगता है.

मेरे दोनों बेटे बेंगलुरु में पढ़ाई करते हैं. उन के बिना घर खालीखाली लगता है और अकसर उसे देख कर उन की याद आती है. एक सुबह पार्क में सैर करना अभी शुरू ही किया था कि पता नहीं चला कैसे पैर में मोच आ गई. वह मुझे संभालने के लिए बिजली की गति से चला आया था.

‘‘क्या हुआ सर? जरा संभल कर. आइए, यहां बैठ जाइए.’’

उस बच्चे ने मुझे बिठा कर मेरा पैर सीधा किया. थोड़ी देर दबाता रहा.

‘‘आज सैर रहने दीजिए. चलिए, आप को आप के घर छोड़ आऊं.’’

संयोग ऐसा बन जाएगा किस ने सोचा था. पैर में मोच का आना उसे हमारे घर तक ले आया. शुभा हम दोनों को देख कर पहले तो घबराई फिर सदा की तरह सहज भाव में बोली, ‘‘हर पीड़ा के पीछे कोई खुशी होती है. मोच आई तो तुम भी हमारे घर पर आए. रोज तुम्हारी बातें करते हैं हम,’’ मुझे बिठाते हुए शुभा ने बात शुरू की तो वह भी हंस पड़ा.

बातों से पता चला कि वह भी जम्मू का रहने वाला है. हमारे बीच बातों का सिलसिला चला तो दूर तक…हमारे घर तक…हमारे अपने परिवार तक. हमारा परिवार जिस से आज मेरा कोई वास्ता नहीं है. मैं आज दिल्ली में रह रहा हूं.

‘‘जम्मू में आप का घर किस महल्ले में है, सर?’’

मैं बात को टालना चाहता था. मेरी एक दुखती रग है मेरा घर, मेरा जम्मू वाला घर, जिस पर अनायास उस का हाथ जो पड़ गया था. बड़े भाई को लगता था मैं उन का हिस्सा खा जाऊंगा और मुझे लगता था घर में मेरी बातबात पर बेइज्जती होती है. जब भी मैं घर जाता था मेरी मां को भी ऐसा ही लगता था कि शायद मैं अपना हिस्सा ही मांगने चला आया हूं. हम जब भी घर जाते तो मां शुभा पर यों बरस पड़ती थीं मानो सारा दोष उस का ही हो. मेहमान की तरह साल में हमारा 4 दिन जम्मू जाना भी उन्हें भारी लगता. भाईसाहब से मिले सालों बीत चुके हैं. उन का बड़ा लड़का सुना है मुंबई में किसी कंपनी में काम करता है और लड़की की शादी हो गई. किसी ने बुलाया नहीं. हम गए नहीं. जम्मू में है कौन जिस का नाम लूं अब.

‘‘सर, जम्मू में आप का घर कहां है? आप के भाईबहन तो होंगे न? क्या आप उन के पास भी नहीं जाते?’’

‘‘नहीं जाते बेटा, ऐसा है न… कभीकभी कुछ सह लेने की ताकत ही नहीं रहती. जब लगा घर जा कर न घर वालों को सुख दे पाऊंगा न अपनेआप को, तब जाना ही छोड़ दिया. मैं भी खुश और घर वाले भी खुश…

‘‘…अब तो मुझे किसी की सूरत भी याद नहीं. भाईसाहब के बच्चे सड़क पर ही मिल जाएं तो मैं पहचान भी नहीं सकता. उन के नाम तक नहीं मालूम. जम्मू का नाम भी मैं लेना नहीं चाहता. तकलीफ सी होती है. तुम जम्मू से हो शायद इसीलिए अपने से लगते हो. मिट्टी का रिश्ता है इसीलिए तुम्हें मैं अच्छा लगा और मुझे तुम.’’

‘‘आप के बच्चे कहां हैं?’’ वह बोला.

‘‘2 जुड़वां बेटे हैं. दोनों बेंगलुरु में एमबीए कर रहे हैं. इस साल वे पढ़ाई पूरी कर लेंगे. देखते हैं नौकरी कहां मिलती है.’’

‘‘तुम कहां रहते हो बेटा? क्या काम करते हो?’’

‘‘मैं भी एमबीए हूं. अभी कुछ दिन पहले ही मुंबई से ट्रांसफर हो कर दिल्ली आया हूं, राजौरी गार्डन में हमारी कंपनी का गैस्टहाउस है. 3 महीने का प्रोजैक्ट है मेरा.’’

‘‘मेरे बड़े भाई का बेटा भी वहीं है. अब क्या नाम है यह तो पता नहीं पर बचपन में उसे वीनू कहा करते थे.’’

‘‘आप उस की कंपनी का पता और नाम बता दें.’’

‘‘इतना सब पता किसे है. अपना ही बच्चा है पर मैं उसे पहचान भी नहीं सकता. अफसोस होता है मुझे कि हम अपने बच्चों को क्या विरासत दे कर जाएंगे. मेरे दोनों बेटे अपने उस भाई को नहीं पहचानते. बहन की सूरत कैसी है, नहीं पता. आज हम अपने पड़ोसी की परवा नहीं करेंगे तो कल वह भी मेरे काम नहीं आएगा. इस हाथ दे उस हाथ ले की तर्ज पर बड़ा अच्छा निबाह कर लेते हैं क्योंकि हमारी हार्दिक इच्छा होती है उस से निभाने की. दोस्त के साथ भी हमारा साथ लंबा चलता है.

‘‘एक भाई के साथ ही झगड़ा, भाई प्यार भी करे तो दुश्मन लगे. भाई की हमदर्दी भी शक के घेरे में, भाई का ईमान भी धोखा. सिर्फ इसलिए कि वह जमीनजायदाद में हिस्सेदार होता है.’’

‘‘आप फिर से वही सब ले कर बैठ गए,’’ शुभा बोली, ‘‘भाई की बेटी की शादी में न जाने का फैसला तो आप का ही था न.’’

‘‘भाई ने बुलाया नहीं. मैं ने फोन पर बात करनी चाही तो भी जलीकटी सुना दी. क्या करने जाता वहां.’’

‘‘चलो, अब छोड़ो इस किस्से को.’’

‘‘यही तो समस्या है आप लोगों की कि किसी भी समस्या को सुलझा लेना तो आप चाहते ही नहीं हैं. हाथ पकड़ कर भाई से पूछते तो सही कि क्यों नाराज हैं? क्या बिगाड़ा है आप ने उन का? अपनाअपना खानापीना, दूरदूर रहना, न कुछ लेना न कुछ देना फिर भी नाराजगी,’’ इतना कह कर वह लड़का बारीबारी से हम दोनों का चेहरा पढ़ रहा था.

‘‘अब टैंशन ले कर मत बैठ जाना,’’ शुभा बोली थी.

‘‘कोई तमाशा न हो इसीलिए तो जम्मू को छोड़ दिया. मेरी इच्छा तमाशा करने की कभी नहीं रही.’’

शुभा ने किसी तरह बात को टालने का प्रयास किया, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है, बेटा?’’

वह लड़का एकटक हमें निहार रहा था. आंखों में झिलमिल करता पानी जैसे लबालब कटोरों में से छलकने ही वाला हो.

‘‘चाची, मेरा नाम आज भी वीनू ही है. मैं सोनूमोनू का बड़ा भाई हूं. मैं आप का अपना ही हूं. आप के घर का झगड़ा सिर्फ आप के घर का झगड़ा नहीं है. मेरे घर का भी है.’’

ऐसा लगा मानो पवन का ठंडा झोंका हमारे घर में चला आया और हर कोने में समा गया.

‘‘आप हार गए चाचू, इतने दिन से मुझे देख रहे हैं, पर अपना खून आप से पहचाना नहीं गया. सच कहा आप ने अभीअभी. यह कैसी विरासत दे कर जा रहे हैं आप सोनूमोनू को और मुझे. मेरी तो यही कामना है कि पापा और आप लाख वर्ष जिएं, लेकिन जिस दिन आप की अरथी उठानी पड़ी सोनूमोनू तो 2 भाई हैं किसी तरह उठा कर श्मशान तक ले ही जाएंगे पर ऐसी स्थिति में मैं अकेला क्या करूंगा, चाचू. कैसे मैं अकेला पापा की अरथी को खींच पाऊंगा. क्या करूंगा? ये कैसे बीज बो दिए हैं हमारे बुजुर्गों ने जिस की फसल हमें काटनी पड़ेगी.’’

फफकफफक कर रोने लगा वह लड़का. शुभा और मैं यों खड़े थे मानो पैरों के नीचे जमीन ही नहीं रही. विश्वास नहीं हो रहा था हमें कि 6 फुट का यह लंबाचौड़ा प्यारा सा नौजवान मेरा ही खून है जिसे मैं पहचान ही नहीं पाया.

बचपन में यह मुझे घोड़ा बना कर मेरी सवारी किया करता था. आज वास्तव में यह दावा कर सकता है कि मेरा खून भी उस के पिता के खून की तरह सफेद हो चुका है. अगर मेरा खून लाल होता तो मैं अपने बच्चे को पहचान नहीं जाता.

शुभा ने हाथ बढ़ाया तो वीनू उस की गोद में समा कर यों रोने लगा मानो अभी भी 4-5 साल का ही हो. हमारे बच्चे तो शादी के 5 साल बाद जन्मे थे, तब तक वीनू ही तो शुभा का खिलौना था.

‘‘चाची, आप ने भी नहीं पहचाना.’’

क्या कहती शुभा. वीनू का माथा बारबार चूमते हुए उस के आंसू पोंछती रही. क्या उत्तर है शुभा के पास और क्या उत्तर है मेरे पास. जम्मू में 4 कमरों का एक छोटा सा हमारा घर है, जिस पर मैं ने अपना अधिकार छोड़ दिया था और भाई ने उसे कस कर पकड़ लिया था. सोचा जाए तो उस के बाद क्या हुआ. क्या मैं सुखी हो पाया? या भाईसाहब खुश रहे. हाथ तो कुछ नहीं आया. हां, बच्चे जरूर दूरदूर हो गए जो आज हम से प्रश्न कर रहे हैं. सच ही तो पूछ रहे हैं. मकान में कुछ हजार का हिस्सा छोड़ कर क्याक्या छोड़ दिया. लाखोंकरोड़ों से भी महंगा हमारा रिश्ता, हमारा पारिवारिक स्नेह.

पास जा कर मैं ने उसे थपथपाया. देर तक हमारे गिलेशिकवों और शिकायतों का दौर चला. ऐसा लगा सारा संताप चला गया. शुभा ने वीनू की पसंद का नाश्ता बनाया. हमारे घर ही नहायाधोया वीनू और मेरा पाजामाकुरता पहना.

‘‘चाचू, देखो, मैं बड़ा हो गया हूं और आप छोटे,’’ कुरतापाजामा पहन वीनू हंसने लगा.

‘‘बच्चे समझदार हो जाएं तो मांबाप को छोटा बन कर भी खुशी होती है. मेरा तो यह सोचना है कि बेटा अगर कपूत है तो क्यों उस के लिए बचाबचा कर रखना और घर जायदाद को भी किसी के साथ न बांटना. अगर भाईसाहब से मैं ने कुछ नहीं मांगा तो क्या आज सड़क पर बैठा हूं? अपना घर है न मेरा. सोनूमोनू भी अपनाअपना घर बना ही लेंगे, जितनी उन की सामर्थ्य होगी. मैं ने उन्हें भी समझा दिया है. पीछे मुड़ कर मत देखना कि पिता के पास क्या है?

‘‘पिता की दो कौडि़यों के लिए अपना रिश्ता कभी कड़वा मत करना. रुपयों का क्या है, आज इस हाथ कल उस हाथ. जो चीज एक जगह कभी टिकती ही नहीं उस के लिए अपने रिश्तों की बलि दे देना कोरी मूर्खता है. अपनों को छोड़ कर भी हम उन्हें छोड़ पाते हैं ऐसा तो कभी नहीं होता. उन की बुराई ही करने के बहाने हम उन का नाम तो दिनरात जपते हैं. कहां भूला जाता है अपना भाई, अपनी बहन और अपना रूठा रिश्ता. रिश्ते को खोना भी कोई नहीं चाहता और रिश्ते को बचाने के लिए मेहनत भी कोई नहीं करता.’’

मेरे पास आ कर बैठ गया था वीनू. अपलक मुझे निहारने लगा. शुभा का हाथ भी कस कर पकड़ रखा था वीनू ने.

‘‘चाची, अगले महीने मेरी शादी है. आप दोनों के बिना तो होगी नहीं. सोनू व मोनू से भी बात कर चुका हूं मैं, अगले महीने उन के फाइनल हो जाएंगे. यह मैं जानता हूं. शादी उस के बाद ही होगी. अपने भाइयों के बिना क्या मैं अधूरा दूल्हा नहीं लगूंगा.’’

एक और सत्य पर से परदा उठाया वीनू ने. खुशी के मारे हम दोनों की आंखों से आंसू निकल आए. वीनू की आंखें भी भीगी थीं. रोतेरोते हंस पड़ा मैं. भाई साहब द्वारा की गई सारी बेरुखी शून्य में कहीं खो सी गई.

वीनू को कस कर गले से लगा लिया मैं ने. रिश्तों को बचाने के लिए और कितनी मेहनत करेगा यह बच्चा. ताली तो दोनों हाथों से बजती है न. बच्चों के साथ हमें भी तो दूसरा कदम उठाना चाहिए.

Hindi Kahani : परफैक्शन – जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए क्या करना चाहिए?

Hindi Kahani : अमित अभी सो ही रहा था कि पल्लवी ने एकदम से उस की चादर खींच ली. अमित आंख मलते हुए बोला,”क्या बदतमीजी है यह…” पल्लवी कटाक्ष करते हुए बोली,”तुम्हारे बराबर ही कमाती हूं, तो तुम्हें भी घर के कामों में बराबरी का योगदान देना होगा।”

अमित बोला,” कल कह तो दिया था कि एक मेड लगा लो। मेरा फील्ड का काम रहता है, मैं बहुत थक जाता हूं।”

पल्लवी तमतमाते हुए बोली,”मेरे पास फालतू पैसे नही हैं। तुम कर पाओगे इतना अफोर्ड?”

अमित इस से पहले कुछ बोल पाता पल्लवी ने अमित की मम्मी को लानतसलामत भेजनी शुरू कर दी थी,”अगर तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें अच्छे से पाला होता तो मुझे ये दिन न देखने पड़ते।”

उधर नींद में अधखुली आंखें लिए स्नेहा डरीडरी खड़ी थी. अपनी मम्मी पल्लवी के इस चंडी रूप से वह भलीभांति परिचित थी मगर फिर भी उस 7 साल की छोटी सी जान को ऐसी सुबह से रोज डर लगता था. पल्लवी का बड़बड़ाना और अमित के हाथ एकसाथ बड़ी रफ्तार से चल रहे थे. अमित ने फटाफट औमलेट के लिए अंडे फेंटे और जल्दीजल्दी अपना नाश्ता बनाया. उधर पल्लवी अपने लिए अलग से नाश्ता बना रही थी.

जब अमित स्नेहा को तैयार कर रहा था कि अचानक से बाल बनाते हुए उसे सफेद बाल दिखाई दिए। एकाएक उस का हाथ ठिठक गया था. क्या स्नेहा के साथ भी वही कहानी दोहराई जाएगी? अचानक से अमित के अतीत के पन्नों से हंसतीमुसकराती मुनमुन सामने आ कर खड़ी हुई थी…

मुनमुन का औफिस में पहला दिन था। अमित ने उस की जौइनिंग के समय थोड़ीबहुत मदद करी थी. मुनमुन की गुलाब की पंखुड़ियों की तरह खुलती हुई बड़ीबड़ी आंखें, चिड़िया की तरह छोटेछोटे अधखुले गुलाबी होंठ, कंधे तक कटे हुए बाल जिन्हें वह हमेशा बांध कर रखती थी मगर सब से प्यारी थी मुनमुन की बच्चों जैसी भोली हंसी जो किसी को भी 2 मिनट में अपना बना सकती थी.

अमित न चाहते हुए भी मुनमुन की तरफ खींचा जा रहा था मगर मुनमुन अमित से खींचीखींची ही रहती थी. अमित को समझ नहीं आ रहा था की आखिर मुनमुन उस के साथ ऐसा क्यों कर रही है?

अमित बेहद आकर्षक, खातेपीते परिवार का इकलौता बेटा था. आज तक लड़कियां ही उस के पीछे भागती थी मगर मुनमुन न जाने क्यों उसे भाव नहीं दे रही थी. अमित की बहुत कोशिशों के बाद मुनमुन आखिरकार एक दिन डिनर के लिए मान गई थी. अमित इस से पहले बहुत सारी लड़कियों के साथ डिनर कर चुका था मगर आज न जाने क्यों वह बेहद नर्वस हो रहा था. तभी काले सूट में मुनमुन आई। आज उस ने अपने बाल खोल रखे थे जो मुनमुन के चांद जैसे चेहरे को और आकर्षक बना रहे थे.

मुनमुन ने एक झटके से अपने बालों को हाथों से पीछे किया और अमित का दिल अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया. अमित को हर चीज में परफैक्शन पसंद था. अपनी बीबी के लिए तो वैसे ही उस ने बड़ेबड़े सपने देख रखे थे. मुनमुन अमित के हर सपने पर खरी उतरती थी.

मुनमुन ने अपने सौंदर्य और अपने व्यवहार से उस रात अमित को चारों खाने चित्त कर दिया था. डिनर समाप्ति के बाद अमित ने मुनमुन का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा,”अब अगली बार कब मुझ से मिलोगी?”

मुनमुन ने धीरे से हाथ छुड़ाते हुए कहा,”अमित, अगर विवाह के लिए इच्छुक हो तो मेरे मम्मीपापा से आ कर बात कर लेना. वे लोग अगले हफ्ते कोलकाता से आ रहे हैं।”

अमित खिलंदङ किस्म का युवक था, इसलिए हंसते हुए बोला,”अरे बंगाली लड़कियां तो इतनी जल्दी शादी के बंधन में नही बंधती हैं।”

मुनमुन उठते हुए बोली,”मगर मैं अपना समय डेटिंग में वेस्ट नहीं करना चाहती हूं।”

अमित ने फिर आगे कुछ नहीं कहा. पूरे हफ्ते मुनमुन अमित को अवाइड करती रही थी. अमित ने अब ठान लिया था कि जैसे भी हो इस बंगालन को अपनी दुलहन हर हाल में बना कर ही रहूंगा.

रविवार की अलसाई सी दोपहर थी, अमित यों ही टीवी के साथ खिलवाड़ कर रहा था. तभी मुनमुन का फोन आया,”मम्मीपापा तुम से मिलना चाहते हैं।”

अमित फटाफट तैयार हो कर पहुंच गया था. मुनमुन के मम्मीपापा ने अमित से थोड़ीबहुत बातचीत करी और अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी थी.

मुनमुन के पापा ने फिर कहा,”अमित, अपने मम्मीपापा को कोलकाता भेज देना और फिर हम उन से मिलने दिल्ली चले जाएंगे। इस बीच तुम दोनों घूमोफिरो, एकदूसरे को अच्छे से समझ लो।”

फिर तो अमित का दिन सोना और रात चांदी हो गई थी. अमित को मुनमुन के बालों से बड़ा प्यार था. अमित के खुद के बाल थोड़े हलके थे, इसलिए उस ने पहले ही सोच रखा था कि उस की पत्नी के घने व काले बाल होंगे ताकि उस के बच्चे एकदम परफैक्ट हों.

उस दिन रविवार था। रातभर अमित और मुनमुन फोन पर बात करते रहे थे. अचानक से अमित का मन किया कि क्यों नहीं वह मुनमुन के साथ ही नाश्ता करे. वह मुनमुन को सरप्राइज करना चाहता था. जैसे ही अमित ने दरवाजे की घंटी बजाई, मुनमुन ने दरवाजा खोला तो अमित उसे देख कर हक्कबक्का रह गया था. मुनमुन हेयर कलर लगाई हुई थी।

अमित बोला,”यह क्यों लगा रखा है? जल्दी से बाल वाश करो। मुझे तुम्हारे बाल नैचुरल ही पसंद हैं।”

मुनमुन बोली,”अमित मैं तो हमेशा से ही हेयर कलर करती हूं।”

अमित बोला,”मुझे कुछ नहीं सुनना। मैं तुम्हें जैसी हो वैसे ही देखना चाहता हूं. 1-2 सफेद बालों से मुझे कोई फर्क नही पड़ता है.”

मुनमुन जब नहा कर बाहर आई तो उस ने टावेल से अपने बालों को लपेट रखा था। वह इतनी खूबसूरत लग रही थी कि अमित खुद को रोक नहीं पाया. अमित सोफे पर ही मुनमुन को प्यार करने लगा था कि अचानक से मुनमुन के बालों से टावेल निकल गया, अमित ने देखा मुनमुन के 25% बाल सफेद दिखाई पड़ रहे थे। अमित एकाएक उठ गया और मुनमुन को देलते हुए बोला कि तुम ने कभी बताया नहीं कि तुम्हारे इतने सारे बाल सफेद हैं?

मुनमुन हंसते हुए बोली,”अरे तो मैं इसलिए ही तो हर महीने हेयर कलर करती हूं और इस में बताने वाली कौन सी बात है?”

अमित बोला,”यह धोखा है मुनमुन, तुम्हें यह मुझे पहले ही बताना चाहिए था कि तुम्हारे बाल सफेद हैं। मुझे अपने बच्चो में किसी भी तरह का नुक्स नहीं चाहिए और इतनी कम उम्र में सफेद बाल तो जैनेटिक होते हैं।”

मुनमुन को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही अमित है जो उस से रातदिन प्यार के वादे करता था. मुनमुन बोली,”अमित, तुम यह क्या कह रहे हो, दरअसल, मेरे बाल सफेद तो स्ट्रैस और जगहजगह का पानी बदलने के कारण हुए हैं। यह इतनी बड़ी बात भी नही है।”

अमित गुस्से में बोला,”मुझे किसी खाला से शादी नहीं करनी है। हेयर कलर करोगी तो 10 साल में ही तुम्हारे बाल आधे हो जाएंगे और 5 साल बाद तो शायद गंजी ही हो जाओ और बिना कलर के तो तुम मेरी मां लगोगी।”

अमित फिर वहां नहीं रुका। मुनमुन को लगा शायद अमित को थोड़ा समय चाहिए इसलिए उस ने अमित को फोन नही किया. मगर अमित पूरे हफ्ते औफिस में मुनमुन को इग्नोर करता रहा था. फिर शनिवार की शाम खुद ही पहल कर के मुनमुन ने अमित को कौल किया तो अमित बोला,”देखो मुनमुन, तुम हर तरह से परफैक्ट लड़की हो मगर मैं बालों के साथ समझौता नहीं कर सकता हूं।”

मुनमुन अमित के प्यार में पागल थी, इसलिए बोली,”एक बार आओ तो सही, मैं तुम्हें सब समझा दूंगी।”

अमित लंच पर आया और मुनमुन की सारी बात सुनी मगर समझी नहीं. जैसे ही अमित मुनमुन के करीब आने लगा तो मुनमुन धीरे से बोली,”तुम्हें अब कोई समस्या तो नही हैं न मेरे बालों से अमित, मैं तुम्हें कोई शिकायत का मौका नही दूंगी। कलर के बाद भी मेरे बाल हलके नहीं होंगे, मैं बहुत ध्यान रखूंगी और जरूरी तो नहीं हमारे बच्चों के बाल मुझ पर ही जाएं।”

अमित बोला,”मुनमुन मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं मगर मैं यह शादी नहीं कर सकता हूं।”

मुनमुन लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोली,”अमित मेरे मम्मीपापा बहुत निराश हो जाएंगे, क्या मेरी पहचान मेरे सौंदर्य तक ही सीमित है? क्या हमारे प्यार की नींव इतनी कमजोर थी अमित?” अमित की चुप्पी में मुनमुन को अमित का जवाब मिल गया था.

जब अमित अगले दिन औफिस पहुंचा तो मुनमुन 15 दिन की छुट्टी पर चली गई थी। लगभग 1 माह पश्चात मुनमुन ने दूसरी कंपनी जौइन कर ली थी और उस का ट्रांसफर मुंबई हो गया था.

अमित को मुनमुन की बहुत याद आती थी. उस की भोलीभोली आंखें, बातें और हंसी सबकुछ उसे तड़पा देता था मगर वह क्या करे, उसे परफैक्ट जीवनसाथी ही चाहिए था. मुनमुन की फेयरवेल पार्टी पर अमित बोला,”मुनमुन मुझे आशा है कि तुम मुझ से नाराज नहीं होगी।”

मुनमुन मुसकराते हुए बोली,”अमित, मुझे तो खुशी है कि शादी से पहले ही तुम्हारी सचाई सामने आ गई है। मैं तो तुम्हारी शुक्रगुजार हूं, शादी के कारण ही मैं मुंबई की कंपनी का औफर ठुकरा रही थी। मम्मीपापा के दबाव में आ कर तुम से प्यार की भीख मांग रही थी मगर बस अब और नहीं। थैंक यू अमित, अगर तुम न होते तो मैं कभी यह जान नहीं पाती कि मैं कितनी स्ट्रौंग हूं।” उस दिन के बाद मुनमुन हमेशा के लिए अमित की जिंदगी से चली गई थी. उस ने कभी भी पीछे मुड़ कर नही देखा था. अमित को इधरउधर से ही खबर मिलती रही थी कि मुनमुन अपने कैरियर में लगातार आगे बढ़ रही है और जल्द ही मुनमुन विवाह के बंधन में भी बंध गई थी. अमित को अंदर से जलन हुई, उसे लग रहा था कि उस ने एक हीरा छोटी सी बात पर खो दिया था. मगर अमित अपनी आदत से मजबूर था. अमित ने मुनमुन को सोशल मीडिया साइट्स पर फौलो करने की कोशिश करी मगर मुनमुन ने न अमित को ब्लौक किया और न ही उस की रिक्वैस्ट स्वीकार करी. अमित को समझ आ गया था कि वह अब मुनमुन की जिंदगी में कोई माने नहीं रखता है.

करीब 2 साल के बाद पल्लवी के लिए अमित ने हामी भर दी थी. पल्लवी के बेहद घने और लंबे बाल थे। गोरा रंग, गहरी काली आंखें और बेदाग त्वचा. अमित को इस जोड़गुना में अपना मुनाफा ही नजर आया था. शादी से पहले भी अमित पल्लवी से 4-5 बार मिला था और अमित को लगा था कि जिंदगी का सफर आराम से कट जाएगा. मगर पल्लवी से विवाह करने के बाद अमित को यह तो समझ आ गया था कि वह कितना नासमझ था। जिंदगी को परफैक्शन से चलाने के लिए बाहरी रूप से नहीं, अंदर से परफैक्ट इंसान चाहिए था. पल्लवी के बाल शादी के 10 साल बाद भी घने और काले थे मगर फिर भी पल्लवी का सौंदर्य अमित के दिल को बांध नहीं पाया था. पल्लवी हवा से भी लड़ने का बहाना ढूंढ़ती थी.

स्नेहा के स्कूल के सामने जब अमित ने कार रोकी तो स्नेहा बोली,”पापा, मैं लगातार आप से बातें कर रही थी और आप न जाने कहां खोए हुए थे?”

शाम को अमित और पल्लवी स्नेहा को डाक्टर के पास ले कर गए थे. डाक्टर ने चिंतित स्वर में कहा,”7-8 साल की उम्र में ऐसे बाल सफेद तो नहीं होने चाहिए। क्या आप के परिवार में यह जैनेटिक है?”

पल्लवी और अमित के मना करने पर डाक्टर बोली,”फिर यह स्ट्रैस के कारण हो सकते हैं। आपलोग बच्चे को एक हैल्दी और पौजिटिव एनवायरनमैंट दीजिए।”

घर आकर फिर से दोषारोपण शुरू हो गया था कि स्नेहा का अमित खयाल नहीं रख पाया था या पल्लवी के व्यवहार की वजह से स्नेहा का यह हाल हो गया है. स्नेहा फिर से एक कोने में घुसी हुई कांप रही थी. उसे लग रहा था कि अब उस के सफेद बालों के कारण मम्मीपापा की लड़ाई हो रही है.

अमित गुस्से में कार उठा कर बाहर निकल गया था. उसे मालूम था कि पल्लवी के साथ किसी भी तरह की बात करना बेवकूफी है। जब अमित वापस घर आया तो पल्लवी और स्नेहा सो चुकी थी. अमित जैसे ही बाथरूम में अपने चेहरा धोने लगा, उसे लगा पीछे चुपके से मुनमुन की परछाई खड़ी हो कर मुसकरा रही है। बारबार उस के कानो में कह रही है कि अब स्नेहा को कैसे घर से निकलोगे? तुम्हारे परफैक्शन के चक्कर में तुम ने तो अपनी पूरी जिंदगी ही इनपरफैक्ट कर ली है।

अमित ने जैसे ही पीछे मुड़ कर देखा तो स्नेहा सहमी हुई पीछे खड़ी हुई थी. अमित को देखते ही बोली,”पापा, क्लास में सब बच्चे मुझे चिढ़ाते हैं।इस में मेरी क्या गलती है?”

अमित को लगा यही समय है स्नेहा को इस सौंदर्य के भंवरजाल से बाहर निकालने का. अमित बोला,”बेटा, तुम्हारी पहचान इन बालों से नहीं, तुम्हारे व्यक्तित्व से है। खुद पर भरोसा करना सीखो, आज बाल हैं तो कल तुम्हारा वजन हो सकता है, कुछ सालों बाद त्वचा भी हो सकती है। हम इस समस्या पर काम कर रहे हैं और देखना बहुत जल्द तुम इस से बाहर निकल जाओगी।”

तभी पीछे से पल्लवी स्नेहा के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली,”बेटा, पापा एकदम ठीक कह रहे हैं। हम लोग एकसाथ इस का सामना करेंगे।”

अमित ने देखा कि स्नेहा के चेहरे से तनाव के बादल छंट रहे थे.अमित को लगा जैसे आज उस ने सही माने में अपने अतीत की परछाई को सदैव के लिए धूमिल कर लिया है. उस की स्नेहा किसी अमित से प्यार की भीख नही मांगेगी, वह सदैव अपनी बेटी के साथ ढाल बन कर खडा रहेगा.

Online Hindi Story : जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे

Online Hindi Story : बड़े दिनों के बाद मेरा लुधियाना जाना हुआ था. कोई बीस बरस बाद. लुधियाना मेरा मायका है. माता-पिता तो कब के गुजर गये, बस छोटे भाई का परिवार ही रहता है हमारे पुश्तैनी घर में. सन् बहत्तर में जब मेरी शादी हुई थी, तब के लुधियाना और अब के लुधियाना में बहुत फर्क आ गया है. शहर से लगे जहां खेत-खलिहान और कच्चे मकान हुआ करते थे, वहां भी अब कंक्रीट के जंगल उग आये हैं. शहर पहले से ज्यादा चमक-दमक वाला मगर शोर-शराबे से भर गया है. जब तक मेरे बच्चे छोेटे थे, कहीं आना-जाना ही मुश्किल था. शादी के कुछ सालों बाद तक तो काफी आती-जाती रही, फिर मां-पिता जी के गुजरने के बाद जाना करीब-करीब बंद ही हो गया. बच्चों की परवरिश और उनके स्कूल-कॉलेज के चक्कर में कभी फुर्सत ही नहीं मिली. फिर बच्चे जवान हुए तो उनके शादी-ब्याह और नौकरी की चिंता में लगी रही. अब बच्चे सेटेल हो गये हैं. पति भी रिटायर हो चुके हैं, तो अब फुर्सत ही फुर्सत है. भरा-पूरा घर है. काम-काज के लिए तीन-तीन नौकर हैं. बेटे की शादी हो गयी है. प्यारी सी बहू पूरे दिन घर में चहकती रहती है.

बहुत दिन से सोच रही थी कि जीवन ने अब जो थोड़ी फुर्सत दी है तो क्यों न भाई के घर कुछ रोज रह आऊं. कितना लंबा वक्त गुजर गया अपने मायके गये हुए. मैंने अपने मायके का जिक्र बहू से किया तो वह भी साथ चलने को मचल उठी. अपनी बहू के साथ मेरी बड़ी पटती है. हम सास-बहू कम, दोस्त ज्यादा हैं. हंसमुख, बातूनी और हर तरह से ख्याल रखने वाली लड़की है मेरी बहू निक्की. सच तो यह है कि जिस दिन से निक्की हमारी बहू बन कर इस घर में आयी है, मुझे लगता है मेरी बेटी लाडो ही वापस आ गयी है. लाडो की शादी कनाडा के एक व्यवसायी के साथ हुई है, इसलिए उसका आना भी बहुत कम हो गया है. लेकिन उसकी कमी निक्की ने पूरी कर दी है. बहुत भाग्यशाली हूं मैं कि मुझे ऐसी बहू मिली. सच तो यह है कि मैं उसे कभी बहू के रूप में देखती ही नहीं, वह तो मेरी बेटी है, बेटी.

मैंने अपने बेटे और पति से लुधियाना जाने की बात कही तो उन्होंने खुशी-खुशी रजामंदी दे दी. फोन करके भाई को बताया तो वह उछल ही पड़ा. बोला, ‘मैं लेने आ जाऊं?’ मैं हंसी, बोली, ‘अरे, अभी तेरी बहन इतनी बूढ़ी नहीं हुई कि दिल्ली से लुधियाना न आ पाए. तू चिन्ता न कर. निक्की साथ आ रही है. हम आराम से पहुंच जाएंगे.’

कितना अच्छा लग रहा था इतने सालों बाद अपने मायके आकर. यहां मेरा बचपन गुजरा. इस घर के आंगन में जवान हुई, ब्याही गयी. सबकुछ चलचित्र सा आंखों के सामने से गुजरने लगा. निक्की के ससुरजी इसी आंगन में आये थे मुझे ब्याहने के लिए. दरवाजे पर घोड़ी से उतरने को तैयार नहीं थे, तब छोटा ही अपने कंघे पर उठाकर भीतर लाया था. इसी घर के दरवाजे से मां ने रोते-कलपते भारी मन से मुझे उनके साथ विदा किया था.

शाम को मैंने सोचा कि चलो कुछ पड़ोसियों की खबर ले आऊं. पता नहीं अब कौन बचा है, कौन नहीं. चार गली छोड़ कर मेरी बचपन की सहेगी कुलवंत कौर का घर भी है. उसे भी देख आऊं. मैंने निक्की को ढूंढा तो देखा कि वह रसोई में अपनी ममिया सास के साथ कोई पंजाबी डिश बनाने में जुटी है. मैं अकेले ही निकल पड़ी.

कुलवंत कौर सुंदर और तेज-तर्रार पंजाबन थी. शादी के बाद वह कभी ससुराल नहीं गयी, उलटा उसका पति ही घर जमाई बन कर आ गया था. दो बेटे हुए. बड़ा तो जवान होते ही लंदन चला गया और फिर वहीं किसी अंग्रेजन से शादी करके बस गया था. छोटा बेटा कुलवंत के साथ रहता था, पर भाई से सुना कि वह भी पांच साल पहले गुजर गया. पति पहले ही गुज़र चुके थे. अब उसके घर में बस दो प्राणी ही बचे हैं एक कुलवंत और दूसरी उसकी जवान विधवा बहू.

कुलवंत शुरू से ही बड़े अक्खड़ और तेज स्वभाव की थी. सब पर हावी रहती थी. लड़ने में उस्ताद. पता नहीं बहू के साथ उसका कैसा व्यवहार होगा. उसकी पटरी बस मेरे साथ ही खाती थी, वह भी इसलिए कि मैं उससे थोड़ा दबती थी. वह बोलती थी और मैं सुनती थी. यह तमाम बातें सोचते-सोचते मैं उसके घर पहुंच गयी. उसकी बहू ने दरवाजा खोला. आंगन में पलंग पर बैठी कुलवंत पर नजर पड़ी तो मैं हैरान ही रह गयी. मेरी ही उम्र की कुलवंत कितनी ज्यादा बूढ़ी दिखने लगी है. बातचीत शुरू हुई. पता चला कि ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, अर्थराइटिस, अपच और न जाने क्या क्या बीमारियां उसे घेरे हुए हैं. मोटा थुलथुल शरीर ऐसा कि खाट से उठना मुश्किल. उसके पति को गुजरे बीस साल हो गये, पांच साल पहले छोटा बेटा एक्सीडेंट में चल बसा. उसके बाद से कुलवंत अपनी बहू के साथ ही रह रही है. नाते-रिश्तेदार अब झाँकने भी नहीं आते. कुलवंत की तेज़-तर्रारी को देखते हुए पहले भी कौन आता था?

सफेद कुरते-शलवार में उसकी बहू का चेहरा देखकर मेरा दिल तड़प उठा. चाय की ट्रे हमारे सामने रखकर वह अंदर गयी तो फिर नहीं लौटी. मैं कुलवंत से काफी देर तक बातें करती रही. ज्यादातर तो वह अपनी बीमारियों का रोना ही रोती रही. फिर बोली, ‘तुम आयी तो अच्छा लगा. यहां तो अब कोई मुझसे बात करने वाला भी नहीं है. खामोश घर काटने को दौड़ता है. मौत भी नहीं आ रही.’

मैं हंस कर बोली, ‘क्यों, इतनी प्यारी बहू तो है, उससे बोला-बतियाया करो.’ कुलवंत एक फीकी सी मुस्कान देकर चुप्प लगा गयी. मैं इंतजार करती रही कि उसकी बहू बाहर आये तो उससे भी कुछ बातें कर लूं. बेचारी, जवानी में सुहाग उजड़ गया. कैसा दुख लिख दिया भगवान ने इसके भाग्य में. लेकिन काफी इंतजार के बाद भी जब वह न आयी तो मैं ही उठ कर अंदर रसोई में गयी. देखा पीढ़े पर बैठी चुपचाप सब्जी काट रही थी. मैं वहीं बैठ गयी दूसरे पीढ़े पर. वह मुस्कुरायी. मैंने हंस कर कहा, ‘सास के साथ बैठा करो, उनका अकेले दिल घबराता है.’

वह भी फीकी सी हंसी हंसी, फिर धीरे से बोली, ‘उन्होंने जब कभी अपने पास बिठाया ही नहीं, तो अब क्या बैठूं आंटीजी. मैं अपनी मां का घर छोड़ कर आयी थी, सोचा था यहां इनसे मां का प्यार मिलेगा, मगर इनसे तो बस दुत्कार ही मिली. हमेशा नफरत ही करती रहीं मुझसे. कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले. मेरे हर काम में नुक्स निकालती रहीं. जब तक ये जिन्दा रहे मेरी शिकायतें ही करती रहीं उनसे. न मेरे ससुर को चैन से जीने दिया और न मेरे पति को. मैं जब से इस घर में आयी इनके ताने ही सुने. उनके गुजरने के बाद उलाहना देती रहीं कि मैंने इनका बेटा छीन लिया. अरे, मेरा भी तो सुहाग उजड़ गया. आंटी जी, आपसे क्या छुपाना, ये मेरे पति का दिमाग खाती थीं हमेशा. तभी एक दिन गुस्से में घर से निकला और उसका एक्सीडेंट हो गया. यही जिम्मेदार हैं उसकी मौत की. इन्होंने कभी दूसरे की पीड़ा-परेशानी न समझी, दूसरे की खामोशी न समझी. अब अगर शिकायत करें कि आज कोई उनसे बोलता नहीं, तो उन्हें भी अच्छी तरह पता है कि इसमें गलती किसकी है.’

कुलवंत कौर की बहू की बातें सुनकर मेरे मुंह पर ताला पड़ गया. इसके बाद मैं उसे कोई नसीहत न दे सकी. सच ही तो कहा था उसने. कुलवंत कौर आज अगर यह शिकायत करे कि वह अकेली है और कोई उससे बोलता नहीं, तो इसकी जिम्मेदार वह खुद है. उसने जीवन भर जैसा बोया है, अब बुढ़ापे में वही तो काटेगी…

Best Hindi Story : मेरी ससुराल और दूरदर्शन समाचार

Best Hindi Story : ससुरजी की मौत, पर सासजी और हमारी श्रीमतीजी खुश. और मैं हैरान. ऐसा नहीं कि गम का माहौल नहीं था, तो फिर खुशी क्यों? पढि़ए, डा. गोपाल नारायण आवटे की यह कहानी.

सुबह अभी नींद खुली भी नहीं थी कि धर्मपत्नी के दहाड़ें मार कर रोने की आवाज कानों में आई. हम हड़बड़ा कर उठ बैठे. आज रविवार था. सोचा था कि आराम करेंगे लेकिन आराम के दुश्मनों का न कोई धर्म होता है न कोई जाति, सो हम तेजी से रोने वाली जगह पहुंचे.

हम ने देखा श्रीमतीजी के हाथों में टेलीफोन लटका हुआ था. मानो कोई मरा हुआ सांप हो और वह जोरों से दहाड़ें मार कर रो रही थीं.

‘‘क्या बात हो गई?’’ हम ने घबरा कर उन से पूछा.

वह हमें देख कर और जोरों से रोने लगीं. हम भी उन के स्वर में स्वर मिलाने लगे, हमारी आवाज पंचम स्वर में जा पहुंची थी. वह घबरा गईं और चुप हो गईं. वह चुप हो गईं तो हम भी चुप हो गए. उन्होंने सिसकते हुए बताया, ‘‘पापा नहीं रहे.’’

‘‘कब?’’

‘‘अभी फोन आया था, हमें चलना होगा.’’

हमारे ससुर साहब बड़े सिद्धांतवादी थे. हमेशा खादी पहनी, सिद्धांत ओढ़े, भगवा टोपी लगाई, नीली जाकेट पहनी, सदैव ईमानदारी से रहने का भाषण दिया.

विवाह पूर्व हम बड़े खुश थे कि चलो, किसी बढि़या नेता की बेटी से हमारा विवाह हो रहा है. लेकिन हमारे सभी सपने जल्द ही टूट गए, सब आदर्श की आग में जल कर खाक हो गए. हमारे ससुर दहेज के खिलाफ थे. इसलिए हमें भी हां में हां मिलानी पड़ी और बिना दहेज के ऐसा विवाह हुआ जिस की मिसाल दी जा सकती है. नियमकानून का सहारा ले कर मात्र 5 बरातियों को ही उन्होंने आने को कहा था, जिस के परिणामस्वरूप हमारे मांबाप, भाईबहन और हमें मिला कर ही हम 5 हो गए थे.

दोस्त ऐसे नाराज हुए कि कभी उन्होंने हमारा मुंह नहीं देखा. हमारी धर्मपत्नी भी खुश हो गई थीं. नासपिटे फालतू दोस्तों से उन्हें नजात मिल गई थी. हमेशा आदर्श की चर्चा करने वाले और अमेरिका से ले कर दिल्ली तक के नेताओं से संबंध बताने वाले हमारे ससुरजी अब नहीं रहे थे. हमें ध्यान आया कि हमारी एकमात्र सास की हालत न जाने कैसी हो रही होगी, लेकिन वह भी बड़े नेताओं की तरह काले चश्मे को आंखों पर लगा कर अपने भावों को छिपा रही होंगी.

हम ने नाश्ता किया, कपड़े बदले और पत्नी के साथ उस के मायके के लिए निकल गए. बीचबीच में यादों की जुगाली भी करते जा रहे थे जिस के चलते पत्नी गंगाजमुना नाक से बहा देती थीं.

जब हम ससुराल पहुंचे तो दोपहर हो चुकी थी. हमारी सोच बिलकुल सच थी. धर्मपत्नी जैसे ही लपक कर अपनी मम्मी यानी हमारी सास से लिपटीं उन्होंने बड़े ठंडे ढंग से उस की पीठ पर हाथ फेरा और एक ओर बैठ जाने का निर्देश दिया. हमारी सास सफेद रंग की शिफोन की साड़ी में थीं, आंखों पर सदा की तरह काले रंग का चश्मा था, हलका सा मेकअप भी था. चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो निर्लेप हों.

हम भी एक कोने में दुबक गए. हम तो समझे थे कि हमारे आते ही धूमधाम से शवयात्रा निकाली जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. 8-10 व्यक्ति बैठे थे और बड़े सुव्यवस्थित तरीके से कमरा सजा हुआ था. पता नहीं क्या प्रोग्राम है? हम मन ही मन विचार कर ही रहे थे कि तभी हमें हमारे पड़ोस में बैठे एक व्यक्ति ने बताया, ‘‘कोई मंत्रीजी आ रहे हैं. उन्हीं का इंतजार है.’’

धर्मपत्नी ने भी सुन लिया था. वह दौड़ कर अंदर गईं और यात्रा से थके चेहरे को धोपोंछ कर नई साड़ी के साथ आ गईं.

1 घंटे की लंबी प्रतीक्षा के बाद मंत्रीजी आए. उन्हीं के साथ कैमरामैन, सिक्योरिटी गार्ड आदि. वह हमारी सास के पास बैठे. सास ने कैमरे की ओर एक क्लोजअप शाट दिया. मंत्रीजी ने 30 सेकंड का एक वक्तव्य दिया. 2 फूलमालाएं चढ़ाईं. हमारे ससुर को विश्व का महान आदर्शवादी व्यक्ति बताया. हमें सुन कर बड़ा भला लगा. हमें पहली बार प्रतीत हुआ कि हमारे ससुर महान थे और हम उन के आदर्शवादी दामाद हैं. थोड़ी देर बाद पूरी टीम चली गई, उसी के साथ शवयात्रा भी प्रारंभ हो गई.

दाहसंस्कार को निबटा कर हम जब श्मशान से लौटे तब तक शाम हो गई थी. घर में काफी उत्साह का वातावरण था. हम भी नहाधो कर ड्राइंगरूम में आ गए थे. सब टीवी के सामने बैठे थे. न्यूज आने वाली थी. सब देख लेना चाह रहे थे कि वह शव के साथ कैसे लग रहे थे. थोड़ी देर में न्यूज प्रारंभ हुई और आखिरी के अंतिम क्षणों में उस समाचार को भी दिखलाया जाने लगा. हमारा दिल धकधक कर उठा. हम भी स्वयं को टीवी पर देख लेना चाह रहे थे. हमारी सास अपलक समाचार को देख लेना चाह रही थीं कि अचानक पावर कट हो गई और चहुंओर घुप्प अंधेरा हो गया. सभी ने बिजली विभाग को दर्जन बददुआएं दीं. थोड़ी देर बाद जब बिजली आई तो समाचार बुलेटिन समाप्त हो चुका था.

तभी हमारे साले ने यह खुशी की खबर सुनाई कि यह समाचार 1 घंटे बाद पुन: दिखलाई देगा. सब के चेहरे पर खुशियां छा गईं. सब ने तब तक भोजन निबटाया और फिर एकसाथ टीवी के सामने आ कर बैठ गए. सच ही कहा था साले साहब ने कि 1 घंटे बाद पुन: समाचार आएगा. समाचार आया. सब के चेहरे टीवी पर जम गए. दिल की धड़कनें तेज हो गईं. थोड़ी देर बाद समाचार देख सब खुश हो गए. मेरी पत्नी ने नाराजगी के साथ हमारी सास से कहा, ‘‘क्या मम्मी, तुम ने सिर पर ऐसा पल्ला ले लिया कि चेहरा ही छिप गया.’’

‘‘नहीं री पगली, उस ने 2-3 शाट लिए थे लेकिन एडिट कर के मात्र यही शाट रहने दिया,’’ सास ने उदास स्वर में कहा.

‘‘मम्मी, तुम ने मंत्री की ओर देखा भी नहीं, थोड़ी बातचीत तो करतीं. एकदम पूरे शाट को बिगाड़ दिया जबकि जीजाजी का शाट भीड़ में भी सुंदर दिखलाई दे रहा है,’’ साले ने कहा.

हम सब उस 1 मिनट से भी कम समय के समाचार की समीक्षा कर रहे थे.

सब खुश थे. तभी बड़ी खुशीखुशी हमारे साले ने कहा, ‘‘मम्मी, देखना, तुम्हारे अंतिम समय पर यदि मुख्यमंत्री को न बुलाया तो पापा की असल औलाद नहीं.’’

‘‘सच मम्मी, मैं तो सिर पर पल्ला भी नहीं रखूंगी, बालों की स्टाइल भी तो दिखना चाहिए,’’ धर्मपत्नी ने अपने भैया की बात में सहमति की आहुति दी.

मैं ठगा सा पूरे परिवार को देखता रह गया. लगा कि क्या पूरा समाज ही पूरी तरह से अपंग हो गया है? सब रिश्ते संवेदना शून्य हो गए हैं? मेरे सवाल का कोई भी जवाब कमरे में नहीं था. पूरा ससुराल टीवी पर दिखलाई देने की खुशी में मगन था.

Love Story : दो कदम साथ – क्या जिंदगी के सफर में साथ चल सके दोनों ?

Love Story : पूरे 10 साल के बाद दोनों एक बार फिर आमनेसामने खडे़ थे. नोएडा में एक शौपिंग माल में यों अचानक मिलने पर हत्प्रभ से एकदूसरे को देख रहे थे.

सुलभ ने ही अपने को संयत कर के धीरे से पूछा, ‘‘कैसी हो, मन?’’

वही प्यार में भीगा हुआ स्वर. कोई दिखावा नहीं, कोई शिकायत नहीं. मानसी के चेहरे पर कुछ दर्द की लकीरें, खिंचने लगीं जिन्हें उस ने यत्न से संभाला और हंसने की चेष्टा करते हुए बोली, ‘‘तुम कैसे हो?’’

सुलभ ने ध्यान से देखा. वही 10 साल पहले वाला सलोना सा चेहरा है पर जाने क्यों तेवर पुराने नहीं हैं. अपने प्रश्नों को उस ने चेहरे पर छाने नहीं दिया. दोनों साथसाथ चलने लगे. दोनों के अंतस में प्रश्नों के बवंडर थे फिर भी वे चुप थे. सुलभ ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘तुम तो दिल्ली छोड़ कर बंगलौर मामाजी के पास चली गई थीं.’’

मानसी ने उसे देखा. इस ने मेरे एकएक पल की खबर रखी है. मुसकराने का प्रयास करते हुए उत्तर में बोली, ‘‘एक सेमिनार में आई हूं. नोएडा में भाभी से मिलने आना पड़ा. उन का फ्रैक्चर हो गया है.’’

‘‘अरे,’’ सुलभ भी चौंक पड़ा.

‘‘किस अस्पताल में हैं?’’

‘‘अब तो घर पर आ गई हैं.’’

मानसी चलतेचलते एक शोरूम के सामने रुक गई. सुलभ को याद आया कि मानसी को शौपिंग का शौक सदा से रहा है. बेहिसाब शौपिंग और फिर उन्हें बदलने का अजीब सा बचकाना शौक…यह सब सुलभ को बहुधा परेशान कर दिया करता था. पर इस समय वह चुप रहा. मानसी अधिक देर वहां नहीं रुकी. बोली, ‘‘पीहू कैसी है?’’

‘‘विवाह हो गया है उस का…अब 1 साल का बेटा भी है उस के.’’

मानसी मुसकरा दी पर उस की मुसकराहट में अब वह तीखापन नहीं था. सुलभ बारबार सोच रहा था, यह बदलाव कैसे हुआ है इस में…हुआ भी है या उस का भ्रम है यह.

सुलभ को आवश्यककार्य से जाना था. उस ने कुछ कहना चाहा उस से पहले ही मानसी का स्वर जैसे गुफाओं से गूंजता सा निकला, ‘‘और तुम्हारे बच्चे, पत्नी?’’

सुलभ ठहर गया. मानसी के चेहरे पर जो भी था वह क्या कोई पछतावा था या वही मैं के आसपास भटकने की जिद, बोला, ‘‘विवाह के बिना बच्चे कैसे हो सकते हैं. और तुम?’’

मानसी चुप रही. एक कार्ड निकाल कर उस की तरफ बढ़ा दिया और बोली, ‘‘यह मेरा मोबाइल नंबर है.’’

सुलभ ने कार्ड पकड़ लिया. औपचारिकता के नाते अपना कार्ड भी उस की तरफ बढ़ा दिया और चलते हुए बोला, ‘‘एक जरूरी मीटिंग है…’’ और आगे बढ़ गया.

उस रात सुलभ का मन बहुत व्याकुल था. कैसी विडंबना है यह कि शरीर और मन दोनों अपने होते हैं पर परिस्थितियां अपने वश में नहीं होती हैं. इसलिए तो एक आयु बीत जाने के बाद महसूस होता है कि काश, एक बार जीवन वहीं से शुरू कर सकते तो जीवन अधिक व्यवस्थित ढंग से जी पाते.

कौन गलत था कौन सही, यह सब अब सोचने का कोई लाभ नहीं है. कितना गलत होता है यह सोचना कि किसी को हम 1-2 माह की जानपहचान में अच्छी तरह समझ पाते हैं.

सुलभ को अपने दोस्त अंचित के विवाह की याद आ गई. मानसी अंचित की पत्नी सुलेखा की मित्र थी. विवाह के अवसर पर बरातियों की खिंचाई करने में सब से आगे. एक तो उस के रूपसौंदर्य का जादू, ऊपर से उस का हंसता- खिलखिलाता स्वभाव. सुलभ का मन अपने वश में नहीं था. जैसेजैसे उस का मन वश के बाहर होता जा रहा था वैसेवैसे जानपहचान उस मंजिल की ओर बढ़ चली थी जिसे प्यार कहते हैं.

प्यार का सम्मोहन कितना विचित्र होता है. सबकुछ भूल कर व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ एकदूसरे के सम्मुख प्रस्तुत करता रहता है. एकदूसरे को शीघ्र पा लेने की उत्कंठा और कुछ सोचने भी नहीं देती है. यही उन दोनों के साथ भी हुआ.

सुलभ इंजीनियर था और मानसी एक बड़े व्यवसायी की पुत्री, विवाह में बाधा क्यों आती. दोनों बहुत शीघ्र पतिपत्नी बन गए थे. विवाह से ले कर हनीमून तक सब कुछ कितना सुखद था, एक स्वप्नलोक सा. मानसी का प्यार, उस के मीठे बोल उसे हर पल गुदगुदाते रहते लेकिन घर वापस लौटते ही धीरेधीरे मानसी के स्वर बदलने लगे थे. घर में सभी उसे प्यार करते थे पर उस के मन में क्या था यह जान पाना कठिन था. उस ने एक दिन कहा था, ‘तुम्हारे यहां तो बहुत सारे लोग इस 4 कमरे के घर में रहते हैं.’

सुलभ चौंक पड़ा. यह स्वर उस की प्रेयसी का नहीं हो सकता. फिर भी मन को संयत रख कर बोला, ‘बहुत सारे कैसे, मन…मेरे मातापिता, 2 भाई, 1 बहन और 1 विधवा बूआ. ये सब हमारे अपने हैं, यहां नहीं तो और कहां रहेंगे.’

‘तुम इंजीनियर हो, इमारतें बनवाते हो. अपने लिए एक घर नहीं बनवा सकते,’ मानसी ने कहा तो वह स्तब्ध रह गया.

‘यह कैसी बातें कर रही हो, मन. पापा ने पढ़ालिखा कर मुझे इस योग्य बनाया कि मैं उन के सुखदुख में काम आऊं…और तुम काम आने की जगह अलग घर बसा लेने को कह रही हो?’

उस दिन मानसी शायद बहस करने के लिए तैयार बैठी थी. बोली, ‘तुम गलत सोचते हो. हम 2 इस घर से चले जाएंगे तो उन का खर्च भी कम हो जाएगा.’

सुलभ को अपनी नवविवाहिता पत्नी से ऐसी बातों की उम्मीद नहीं थी. बात टालने के लिए बोला, ‘जब तक पीहू का विवाह नहीं हो जाता मैं अलग होने की बात सोच भी नहीं सकता. पीहू मेरी भी जिम्मेदारी है.’

संभवत: वही एक पल था जब पीहू के लिए मानसी के मन में चिढ़ पैदा हुई थी.

ऐसी छोटीछोटी बातें अकसर उन दोनों के बीच उलझन बन कर छाने लगीं. घर के सभी लोगोें को  यह सब समझ में आने लगा था पर कोई भी विवाद बढ़ाना नहीं चाहता था. मां को उम्मीद थी कि कुछ दिनों में मानसी नई स्थिति से समझौता करना सीख जाएगी. इसलिए कभीकभी उसे समझाने के प्रयास में कहतीं, ‘बेटा, अपने घर से अलग अकसर वे सारी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं जिन की बचपन से आदत होती है…तुम्हें भी धीरेधीरे इस नए वातावरण का अभ्यास हो जाएगा.’

मानसी ने इस पर बिफर कर कहा था, ‘लेकिन मम्मीजी, यह क्या बात हुई कि विवाह के बाद लड़की ही अपना अस्तित्व मिटा दे, लड़के क्यों नहीं नए सांचे में ढलना चाहते हैं?’

‘ठीक कहती हो बेटा, लड़कों को भी समझौता करना चाहिए,’ मम्मी धीरे से बोल गई थीं और सुलभ की ओर देख कर कहा, ‘शादी की है तो अपनी जिम्मेदारियों को भी समझना सीखो. अभी से इस का दिल दुखाओगे तो आगे क्या करोगे.’

‘मम्मीजी, मुझे पता है कि आप मेरा मन रखने के लिए यह बात कर रही हैं. अंदर से तो आप को मेरी बात बुरी ही लगी है,’ मानसी ने तुरंत कहा.

‘ऐसा बिलकुल नहीं है.’

मां समझा रही थीं या फुजूल में गिड़गिड़ा रही थीं, सुलभ समझ नहीं पाया था. फिर भी कह  बैठा, ‘मम्मी, इसे समझाने की कोई जरूरत नहीं है,’ और क्रोध से पैर पटकते चला गया था.

मन में बहुत बड़ा झंझावात उठा था. न खानेपीने में मन  लग रहा था, न मित्रों से गपशप में. पार्क में जा कर बैठा तो भी मन उदास रहा. वहां जाने कितने प्यारेप्यारे बच्चे खेल रहे थे. उन की किलकारियां और शरारतें उसे भा तो रही थीं पर कुछ इस तरह जैसे कोई बहुत ही सुगंधित सी बयार उसे छू कर बेअसर सी गुजर जाए.

उसे बारबार याद आ रही थी वह रात जब प्यार के सम्मोहन में डूब उस ने मानसी से कहा था, ‘मानसी, मुझे पापा कब बनाओगी?’

मानसी ने भी प्यार के मधुर रस में डूब कर कहा था, ‘अभी मुझे मां नहीं बनना है.’

‘क्यों?’

‘अभी मेरी उम्र ही क्या है,’ मानसी इतरा कर बोली.

‘हां, यह तो है, जितनी जल्दी मां बनोगी उतनी जल्दी जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी,’ सुलभ ने सहजता से कह कर उस का चुंबन ले लिया. पर यह क्या? मानसी जैसे बिफर कर उठ बैठी.

‘जिम्मेदारियां तो इस घर में कदम रखते ही मेरे तमाम सपनों पर काले बादलों सी मंडराने लगी हैं. ’

मन जब प्यार की उमंग में डूबा हुआ हो और ऐसे में पत्नी प्यार का रुख मोड़ कर आंधियों के हवाले कर दे तो बेचारा पति हक्काबक्का होने के अलावा और क्या करे.

‘किन बादलों की बात कर रही हो?’ सुलभ आश्चर्य और खीज से देखते हुए बोला था.

‘क्यों, मेरे जीवन पर तुम्हारे मातापिता, भाईबहन का साया मेरे सपने तोड़ता रहता है और वह विधवा बूआ सुबहसुबह उस के दर्शन करो.’

‘मानसी…’ सुलभ की आवाज तल्ख हो उठी.

‘चिल्लाओ मत,’ मानसी भी उतने ही आवेग से बोली, ‘वह तुम्हारी प्यारी बहन पीहू…जब तक उस का विवाह नहीं हो जाता हम अपने शौक पूरे नहीं कर सकते. मेरे सारे अरमान घुट रहे हैं इसलिए कि तुम्हारे पापा के पास पीहू के लिए ज्यादा पैसे नहीं हैं.’

‘बस, मानसी बहुत कह दिया,’ सुलभ के अंदर का प्रेमी अचानक बिफर कर पलंग से उठ गया, ‘तुम्हारे संस्कारों में रिश्तों का महत्त्व नहीं है तो न सही…मेरी दुनिया इतनी छोटी नहीं कि पतिपत्नी से आगे हर रिश्ता बेमानी लगे.’

सुलभ कमरे से उठ कर बाहर चला गया. धीरेधीरे ऐसी तकरारें बढ़ने लगीं तब मां ने एक दिन सुलभ को एकांत में समझाया, ‘अगर मानसी अलग रहना चाहती है तो मान ले उस की बात. शादी की है तो निभाने के रास्ते निकाल. शायद दूर रह कर वह सब के प्यार को समझ सके.’

सुलभ मां की बातों पर विचार ही करता रह गया और मानसी अचानक अपने पापा के यहां चली गई. उस समय सब को लगा था कि वह कुछ दिन में वापस आ जाएगी पर सुलभ के बुलाने पर भी मानसी नहीं लौटी.

मां ने कई बार उसे बुलाने भेजा था पर मानसी ने कहा कि उस की तरफ से सुलभ पूरी तरह हर बंधन से आजाद है. जब चाहे दूसरी शादी कर ले, वह कभी नहीं आएगी.

मां को फिर भी भरोसा था कि कुछ माह में मानसी जरूर वापस आ जाएगी पर जाने कैसी जिद या शायद घमंड पाल कर बैठ गई थी मानसी. एक साल के अंदर तलाक का नोटिस आ गया था. आशाओं की अंतिम डोर भी टूट गई थी.

मानसी दिल्ली छोड़ कर अपने मामा के यहां बंगलौर चली गई थी. उस के मामाजी बहुत बड़े व्यापारी थे. विदेशों में भी उन का काम फैला हुआ था. मानसी का सपना भी बहुत पैसा था. शायद वहां मानसी ने उन की सहायता कर के अपना सपना साकार करना चाहा था.

सुलभ ने अपनी सोच को परे धकेल कर करवट ली. जाने कैसी व्याकुलता थी. उठ कर बैठ गया. पानी पी कर मेज पर पड़ा मानसी का कार्ड देखने लगा. विचारों का झंझावात फिर परेशान करने लगा.

मानसी को मामाजी के घर अपार वैभव का सुख था. उन्हें कोई संतान नहीं थी इसलिए उसे बेटी जैसा प्यार मिल रहा था. फिर भी मानसी के चेहरे पर कैसी उदासी थी. उस ने शायद  विवाह भी नहीं किया. क्या अकेलेपन की उदासी थी उस के चेहरे पर या अब उसे रिश्तों की परख हो गई है.

रात के 11 बज चुके थे. फोन के पास बैठ कर भी उसे साहस नहीं हुआ कि मानसी को फोन करे. वह चुपचाप पलंग पर लेट गया. अपने ही मन से प्रश्न करने लगा… यह क्या हो रहा है मन को? इतने वर्षों तक वह मानसी को भूल जाने का भ्रम पाले हुए था पर अब क्यों मन व्याकुल है. क्या मानसी भी उस से बहुत सी कहीअनकही बातें करना चाहती होगी? अपने ही प्रश्नों से घिरा सुलभ सोने का व्यर्थ प्रयास करने लगा.

अभी अधिक समय नहीं बीता था कि उस का मोबाइल बजने लगा. उस ने बत्ती जला कर देखा और मुसकरा उठा.

‘‘हैलो, मन.’’

‘‘जाग रहे हो?’’ उधर से मानसी का विह्वल स्वर गूंजा.

‘‘हां, सोच रहा था कि तुम्हें फोन करूं या नहीं,’’ सुलभ ने अपने मन की बात कह दी. पहले भी कभी वह मानसी से कुछ छिपा नहीं पाता था.

‘‘तो किया क्यों नहीं?’’ मानसी ने प्रश्न किया, ‘‘शायद इसलिए कि अभी तक तुम ने मुझे क्षमा नहीं किया है.’’

‘‘ऐसा नहीं है, भूल तो हम दोनों से हुई है. मेरे मन में जरा भी मैल होता तो अब तक मैं दूसरी बार घर बसा चुका होता,’’ सुलभ ने स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात कह दी.

उधर से कुछ पल सन्नाटा रहा, फिर एक धीमी सी वेदनामय आवाज गूंजी, ‘‘घर तो मैं भी नहीं बसा सकी. शुरू में वह सब जिद में किया, फिर धीरेधीरे अपनी गलतियों का एहसास जागा तो तुम्हारी याद ने वैसा नहीं करने दिया.’’

दोनों तरफ फिर मौन पसर गया. दोनों के मन में हलचल थी. शायद समय को मुट््ठी में कैद कर लेने की चाहत जाग उठी थी.

एक पल के सन्नाटे के बाद ही उसे मानसी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘सुलभ, मेरी बात को तुम पता नहीं कैसे लोगे पर बहुत दिनों से मन में एक बात थी और मैं चाहती थी कि तुम्हें बताऊं. क्या तुम से वह बात शेयर कर सकती हूं?’’

‘‘मानसी, भले ही अब हम साथसाथ नहीं हैं पर कभी हम ने हर कदम पर एकदूसरे का साथ देने का वचन दिया था… बोलो, क्या बात है?’’

‘‘जानती हूं, सुलभ. मेरा ही दोष है, जो दो कदम भी तुम्हारे साथ नहीं चल सकी,’’ और इसी के साथ मोबाइल पर फिर सन्नाटा पसर गया…फिर एक आवाज जैसे किसी कंदरा से घूमती हुईर् उस तक पहुंची.

‘‘सुलभ, तुम चाहते थे कि मैं तुम्हें एक बच्चे का पिता बनाऊं. तुम ने मेरे विवाह के बारे में पूछा था तो मैं ने दूसरी शादी नहीं की, लेकिन मैं एक बच्ची की मां हूं…क्या तुम उस के पिता बनना पसंद करोगे?’’

‘‘क्या?’’ सुलभ चौंक कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘हां, सुलभ, मैं ने विवाह नहीं किया तो क्या, मैं मां हूं, एक प्यारी सी बेटी की मां, 2 साल पहले उसे गोद लिया था.’’

सुलभ चकित हो कर सुन रहा था. क्या यह सचमुच मानसी का स्वर था, जिसे बच्चे पसंद नहीं थे, जिसे घर में भीड़ पसंद नहीं थी, यह वही मानसी है…

अभी वह सोच ही रहा था कि मानसी ने फिर कहा, ‘‘जाने दो, सुलभ, मैं ने तो…’’

‘‘मानसी, हमारी बेटी का नाम क्या है?’’ सुलभ बोला तो मानसी का स्वर खुशी से लहराता हुआ आया, ‘‘सुरीली.’’

मानसी को उस का वह सपना भी याद था. हनीमून पर उस ने कहा था, ‘मन, जब कभी हमें बेटी होगी उस का नाम हम सुरीली रखेंगे.’

वह भावविभोर हो कर उठा और बोला, ‘‘थैंक्स मन, मैं अभी तुम्हारे पास पहुंच रहा हूं.’’

‘‘इतनी रात में?’’ मानसी का स्वर उस ने अनसुना करते हुए कहा, ‘‘अब और कुछ नहीं, पहले ही जीवन के बहुत सारे पल हम ने गंवा दिए हैं.

Romantic Story : प्रेम न माने हार – अपने निर्णय पर अडिग युवती की कहानी

Romantic Story : “अरु के पापा, डोरबैल बज रही है. जरा दरवाजा खोल दीजिए. अरु आई होगी. मैं उस की पसंद के प्याजी परांठे बना रही हूं ,” कह कर शोभा जल्दीजल्दी बेलन चलाने लगी.

आज सुबह ही मांबेटी में अनुराग को ले कर जबरदस्त नोकझोंक हुई थी और अरु बिना कुछ खाए ही निकल गई थी.

‘अपना मनपसंद परांठा देख कर सारा गुस्सा उड़नछू हो जाएगा उस का…’ शोभा मन ही मन सोच कर खुश हो रही थी. पति का कोई उत्तर न पा कर स्वयं ही चली आई दरवाजा खोलने.

‘छन्नाक…’ हाथ का छनौटा छूट कर दूर जा गिरा.

अरुंधति और अनुराग वरमाला पहने हुए दरवाजे पर खड़े थे. अरु के पापा मुंह फाड़े किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े थे.

‘छनाक’ की आवाज से जैसे ही उन की तंद्रा भंग हुई, तो दहाड़ उठे, “इतनी हिम्मत कैसे हो गई तुम दोनों की? उस पर बेशर्मी यह कि मुंह उठाए घर चले आए.”

फिर अरुंधति को झिंझोड़ते हुए कहा, “तुम ने सोच भी कैसे लिया कि तुम सीधे शादी कर के आओगी और मैं तुम्हें अपना लूंगा… इस फटीचर अनुराग के लिए कोई जगह नहीं है मेरे घर में.”

“मैं ने कहा था न अनुराग कि इस घर में भावनाओं का कोई महत्व नहीं है. तुम्हें ही आशीर्वाद लेने का बहुत शौक था. अब और बेइज्जती सहन नहीं कर सकती मैं…” अनुराग का हाथ पकड़ कर लगभग घसीटती हुई अरुंधति तीर की भांति निकल गई.

शोभा जड़वत खड़ी ही रह गई. इतना बड़ा तूफान आ कर चला गया और वह कुछ कर नहीं पाई.

“अरु, हमारा प्रेम विवाह सफल तो होगा न…?” अनुराग ने कार में बैठते हुए अरुंधति का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा.

“ऐसा क्यों कह रहे हो अनुराग? क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं या अपनेआप पर?”

“क्यों न कहूं? तुम अमीर घराने में सारी सुखसुविधाओं में पलीबढ़ी मांबाप की एकलौती संतान हो और मैं बचपन से ही अभावों से घिरा आर्थिक चक्रव्यूह में फंसा किसी तरह पढ़ाई पूरी करने की कोशिश कर रहा हूं.”

“तो क्या हुआ…? प्यार में इतनी ताकत होती है कि असंभव चीज भी सरलता से प्राप्त हो जाती है, फिर तुम तो इतने प्रतिभाशाली हो कि तुम्हें आसानी से अच्छी नौकरी मिल जाएगी. अब हमें अपने जीवन को गंभीरता से लेना होगा. बहुत क्लासें बंक कर ली हम ने. अब हमें अपने प्यार को दुनिया के सामने साबित करना होगा. हमारा प्यार ही हमारा संबल बनेगा.”

दोनों अकसर मेहता सर का क्लास बंक कर के अपने दिल की बातें एकदूसरे से साझा करते रहे थे कालेज के मैदान में लगी बैंच पर बैठ कर. अब उन की परीक्षा यथार्थ की पथरीली जमीन पर होनी थी. वैसे भी अनुराग का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था.

अरुंधति कोलकाता के एक बड़े बिजनैसमैन की बेटी थी. उस की मां शोभा की साहित्य में काफी रुचि थी. बड़े नाजो से पाला था शोभा ने अपनी बेटी को, किंतु तितली सी उस की चंचलता को देख कर कभी मुग्ध होती तो कभी उस के भविष्य की चिंता में डूब जाती.

“मम्मा, आज मैं कालेज कैंटीन में ही कुछ खा लूंगी…”

“नाश्ता तो करती जा…”

“नहीं मम्मा, देर हो जाएगी… आज फर्स्ट पीरियड में ही मेरा प्रैक्टिकल है. इसे मिस नहीं करना चाहती. ओके, बाय…”

“अरे, रुक तो… अरु… एक ऐपल ही ले ले… ” शोभा बेटी के पीछे दौड़ती, इस से पहले ही अरुंधति स्कूटी स्टार्ट कर चुकी थी. अकसर सुबह का यही दृश्य होता.

अरु एकलौती संतान थी शोभा की और शोभा अपने सारे स्वप्न बेटी अरु के माध्यम से पूरे करना चाहती थी, जो परिस्थितिवश स्वयं से पूरे न कर पाई थी.

शोभा को साहित्य से बहुत लगाव था. उस ने लगभग सभी महिला साहित्यकारों को पढ़ा था. मन्नू भंडारी और अरुंधति राय उस की प्रिय साहित्यकारों में से थीं. उन की रचनाओं से प्रभावित हो स्वयं भी जबतब लेखनी चला लिया करती थी. वह अरुंधति राय की इतनी बड़ी फैन कि उन के उपन्यास ‘गौड औफ स्माल थिंग्स’ को ‘बुकर पुरस्कार’ मिलने पर सोच लिया था कि उस की बेटी होगी तो वह उस का नाम अरुंधति ही रखेगी.

अरुंधति हर क्षेत्र में अच्छी थी, परंतु मस्तमौला स्वभाव की थी. पहाड़ी नदियों की भांति बस बहती ही जाना चाहती… स्वच्छंद… उस का चित्त तो कभी स्थिर रहा ही नहीं. यह स्वभाव स्वयं उसे भी कभीकभी असमंजस में डाल देता था.

मम्मीपापा की तरफ से पूरी आजादी थी कि वह जिस भी क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहे, वे उसे हमेशा सपोर्ट करेंगे. परंतु अरुंधति ठहरी चंचला… कभी विज्ञान अच्छा लगता, तो कभी अभिनय. कभी पाककला सीखने की कोशिश करती, पर मन ऊबने पर खेल का मैदान दिखाई देता. वह कबड्डी बहुत अच्छा खेलती थी. मम्मीपापा के समझाने पर उस ने विज्ञान विषय ले कर कालेज में एडमिशन ले लिया था.

शोभा जानती थी कि अरु जन्मजात प्रतिभा संपन्न है और जिस क्षेत्र का भी चुनाव करेगी, उस में अच्छा ही करेगी, परंतु अरुंधति की किस्मत तो कुछ और ही थी, जिस की कल्पना शोभा ने कभी नहीं की थी.

कालेज में एक लड़का था अनुराग, जो अरुंधति से 2 साल सीनियर था. उस का धीरगंभीर स्वभाव अरु के मन को भा गया.

स्कूल के अनुशासित जीवन से निकलने के बाद कालेज का उन्मुक्त बिंदास जीवन… यौवन की गलियों में पहला कदम… हर किसी को एक सतरंगी दुनिया में ले जाता है, जहां वह किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता.

अरुंधति ने अब तक का अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीया था. उसे पूरा विश्वास था कि उस की पसंद पर मम्मीपापा को कोई एतराज नहीं होगा, परंतु जब उस ने उस लड़के से शादी करने की इच्छा जताई, तो पापा एकदम से भड़क उठे, “आजादी देने का यह मतलब नहीं कि तुम मनमानी करो…”

पापा की आपत्ति से हतप्रभ रह गई थी वह. उसे लगा कि यह आजादी देना महज एक दिखावा है. पापा को अपने स्टेटस की पड़ी है. अनुराग हमारे स्तर से थोड़ा उन्नीस जो बैठता है.

यह विचार दिमाग में आते ही अरुंधति विद्रोहिणी बन बैठी. 12वीं पास करने तक वह चुप रही. जैसे ही 18 की उम्र पार हुई, मम्मीपापा की मरजी के खिलाफ अनुराग से कोर्ट मैरिज कर ली.

अरुंधति की मम्मी पर तो मानो वज्रपात ही हो गया था. कितने सपने संजोए थे बेटी के भविष्य के लिए. लाखों में एक दामाद ढूंढ़ के लाएगी, परंतु उस ने आवेश में आ कर इतना बड़ा कदम उठा लिया.

दरअसल, यह उम्र ही ऐसी होती है, जहां ख्वाबों की दुनिया हकीकत पर भारी पड़ने लग जाती है. यदि सावधानी और धैर्य से काम न लिया जाए, तो मामला नाजुक हो उठता है और फिर रिश्तों की जमीन में दरारें पड़ जाती हैं.

अरुंधति के पापा अपनी जातिगत कट्टरता के साथसाथ अपनी सामाजिक साख को ले कर कुछ ज्यादा ही सजग थे. अरुंधति द्वारा चुना गया लड़का न केवल दूसरी जाति का था, वरन उस की आर्थिक स्थिति भी डांवांडोल थी. अनुराग के पिता कोलकाता में ही किसी फैक्टरी में मजदूर थे, किंतु फैक्टरी में अधिक उम्र के मजदूरों की छंटनी के शिकार हो नौकरी से हटा दिए गए थे.

4 भाईबहन और वृद्ध मातापिता. बड़ा बेटा होने के नाते परिवार की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी. हालांकि वह पढ़ने में अव्वल था, परंतु आर्थिक पहिया दलदल में धंसे होने के कारण ग्रेजुएशन के बाद जो भी नौकरी मिली, उस ने तत्काल स्वीकार कर लिया. फिर तो जीवन की गाड़ी खींचने में ही उस की प्रतिभा जाया होने लगी. फिर भी उस ने छोटे भाईबहनों की पढ़ाई पर कोई आंच नहीं आने दी.

अरुंधति ने अनुराग से शादी तो कर ली, परंतु उस की ग्रेजुएशन पूरी नहीं हो पाई. इस वजह से उसे कहीं ढंग की नौकरी भी नहीं मिल सकती थी. दूसरे ज्वाइंट फैमिली के कारण आएदिन किसी न किसी बात पर पैसों को ले कर घर में क्लेश बना ही रहता था.

बड़े ही संघर्ष के दिन थे अरुंधति के, किंतु अनुराग के प्रेमिल व्यवहार एवं उस की पारिवारिक मजबूरी ने उसे अपने नेह की डोर में बांध रखा था. अनुराग अरुंधति को इस हाल में देख कर दुखी हो अकसर कह उठता, “मुझ से प्यार कर के कैसी हालत हो गई है तुम्हारी…”

जबतब चांदनी रातों में अनुराग अरुंधति को फूलों से सजाता तो अरु स्वयं को दुनिया की सब से अमीर लड़की मानती. उन फूलों के आभूषण के सामने हीरे के आभूषण भी फीके लगते उसे.

अनुराग के अपराधबोध से ग्रसित चेहरे को देख वह मीठी झिड़की भी देती, “मैं मानती हूं कि मैं भी एक इनसान हूं और परिस्थितियों का प्रभाव तो मुझ पर भी पड़ेगा ही, पर तुम क्या समझते हो, मैं परेशान हो कर मम्मी के घर चली जाऊंगी? ऐसा हरगिज नहीं हो सकता. जीवनभर का साथ है हमारा. जीवन का क्या है… आज दुख है तो कल सुख भी होगा.”

इन बातों से अनुराग निरुत्तर हो उठता और परिस्थितियां संभालने के लिए अपने प्रयास तेज कर देता.

अरुंधति के पापा को उस स्थिति का अनुमान था. जैसा कि आमतौर पर होता है कि अमीर घराने की लड़कियां भावनाओं में बह कर ऐसा कदम तो उठा लेती हैं, किंतु यथार्थ के कठोर धरातल का स्पर्श होते ही भावनाएं कपूर की भांति उड़ जाती हैं. अरुंधति के पिता ऐसे ही किसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्होंने अपने वकील से मिल कर बेटी के तलाक से संबंधित बातचीत भी कर ली थी. बस, जिस दिन बेटी ससुराल से तंग हो कर मायके आएगी, उस के अगले दिन ही कोर्ट में तलाक की अर्जी दिलवा देंगे. वे शोभा को बराबर सांत्वना देते रहे, “शोभा क्यों रोरो कर इतनी हलकान हो रही हो? हमारी बेटी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाएगी वहां? तुम तो उस का स्वभाव जानती ही हो. एक जगह टिक कर रह पाई है कभी.”

“वो तो ठीक है जी, पर अपनी ममता का क्या करूं? हम यहां ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं और वहां वह छोटेछोटे सुख के लिए भी तरस रही होगी. एक मां का दिल कैसे माने…” कहते हुए शोभा की तड़प और बढ़ गई.

“तुम क्या समझती हो, मुझे तकलीफ नहीं हो रही? कोई भी इनसान किस के लिए कमाता है. कड़ी मेहनत कर चार पैसे इकट्ठा करता है तो किस के लिए? अपनी संतान के लिए ही न? ”

“नहीं, तुम अपनी संतान के लिए कुछ नहीं सोचते. जल्लाद का दिल है तुम्हारा… नहीं तो कुछ करते? एकएक दिन पहाड़ के समान लग रहा है मेरे लिए,” शोभा अपना आक्रोश नहीं दबा पाई.

” देखो, यदि स्वाभाविक तौर पर ही कोई काम हो जाए तो फिर उस के लिए अपनी टांग क्यों अड़ाएं? तुम बस यह समझो कि हमारी अरु उच्च शिक्षा के लिए विदेश गई है. पूरी होते ही वह लौट आएगी. साल दो साल नियंत्रण में रखो अपनी ममता को. फिर, सब ठीक हो जाएगा.”

अरुंधति के पिता का अनुमान गलत सिद्ध हुआ, किंतु अनुराग को परखने में अरुंधति से कोई भूल नहीं हुई. शादी के बाद लड़कियां कितनी जिम्मेदार हो जाती हैं, अरुंधति उस की एक उत्कृष्ट उदाहरण थी. उस ने अपने पति की सच्ची सहधर्मिणी बनने का फर्ज निभाया. हालांकि कभीकभी झल्ला भी उठती थी. मानवसुलभ अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करते हुए अनुराग और उस के परिवार को संभालने की कोशिश करती रही.

शोभा किसी न किसी बहाने बिटिया की खबर लेती रहती. फोन करने पर अरुंधति कभीकभार ही रिप्लाई करती. स्वयं कितनी भी तकलीफ में रही, पर मां को इस की भनक भी न लगने दी. कभी किसी चीज का रोना नहीं रोया. शोभा समझ ही नहीं पा रही थी कि जो उस के महल्ले से अनुराग की आर्थिक बदहाली की जानकारी मिली, वो सही है या बेटी के साथ वार्तालाप में मिली संतुष्टि की महक वास्तविक है. ममता के मोह में अंधी हो कर बारबार कुरेदती रहती… तरहतरह की सुखसुविधाओं का लालच देती. शोभा की मंशा सिर्फ यही थी कि उस की बेटी को अभावों में न जीना पड़े.

अरुंधति को बहुत बुरा लग रहा था कि जहां मांबाप को अपने बच्चों को परिस्थितियों से जूझने, संघर्ष करने और धैर्य से उस का सामना करने की सीख देनी चाहिए, वहीं उस के मातापिता मैदान छोड़ कर भागने की बात कर रहे हैं, कायरों की तरह पीठ दिखाने की बात कर रहे हैं. इस सोच की प्रतिक्रियास्वरूप उस का मन विद्रोह कर उठा. विद्रोही तो थी ही. मन में उस ने एक संकल्प लिया, जिस ने उसे इतनी हिम्मत दी कि उस ने ठान लिया कि चाहे जो हो जाए, वह अनुराग का साथ नहीं छोड़ेगी. उस की कुछ जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले ली. 10वीं कक्षा के स्तर तक विज्ञान विषय पर उस की अच्छी पकड़ थी. उस ने प्राइवेट ट्यूशन लेना शुरू किया. धीरेधीरे छात्रों की संख्या इतनी बढ़ गई कि उसे ट्यूशन 2 शिफ्टों में करना पड़ा. अच्छाखासा पैसा मिलने लगा, तो उस ने अनुराग को किसी अच्छे संस्थान से एमबीए कर लेने की सलाह दी.

अनुराग मेधावी तो था ही, स्कौलरशिप मिलने की भी पूरी संभावना थी. अनुराग को अरु की सलाह अच्छी लगी.

अनुराग की मेहनत और अरुंधति का संकल्प एक नई खुशी ले कर आया. एमबीए करने के बाद अपनी प्रतिभा के बल पर वह एक ख्यातिप्राप्त कंपनी का बड़ा अफसर बन गया.

अरुंधति मिठाई का डब्बा ले कर अपने पति अनुराग के साथ जब अपने मायके गई, तो उस के पापा अपने दामाद को देख कर फूले नहीं समाए और उस की मम्मी बड़े स्नेह से अपनी बेटी का मुखड़ा निहार रही थी, जो आत्मविश्वास की आभा से दमक रहा था.

Hindi Kahani : नमक हलाल – मनोहरा ने आखिर कैसे चुकाया नमक का कर्ज

Hindi Kahani : बैठक की मेज पर रखा मोबाइल फोन बारबार बज रहा था. मनोहरा ने इधरउधर झांका. शायद उस के मालिक बाबू बंका सिंह गलती से मोबाइल फोन छोड़ कर गांव में ही कहीं जा चुके थे.

मनोहरा ने दौड़ कर मोबाइल फोन उठाया और कान से लगा लिया. उधर से रोबदार जनाना आवाज आई, ‘हैलो, मैं निक्की की मां बोल रही हूं.’

अपनी मालकिन की मां का फोन पा कर मनोहरा घबराते हुए बोला, ‘‘जी, मालिक घर से बाहर गए हुए हैं.’’

‘अरे, तू उन का नौकर मनोहरा बोल रहा है क्या?’

‘‘जी…जी, मालकिन.’’

‘‘ठीक है, मुझे तुम से ही बात करनी है. कल निक्की बता रही थी कि तू जितना खयाल भैंस का रखता है, उतना खयाल निक्की का नहीं रखता. क्या यह बात सच है?’’

मनोहरा और घबरा उठा. वह अपनी सफाई में बोला, ‘‘नहीं… नहीं मालकिन, यह झूठ है. मैं निक्की मालकिन का हर हुक्म मानता हूं.’’

‘ठीक है, आइंदा उन की सेवा में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए,’ इतना कह कर मोबाइल फोन कट गया.

मनोहरा ने ठंडी सांस ली. उस का दिमाग दौड़ने लगा. फोन की आवाज जानीपहचानी सी लग रही थी. निक्की मालकिन जब से इस घर में आई हैं, तब से वे कई बार उसे बेवकूफ बना चुकी हैं. उस ने ओट ले कर आंगन में झांका. निक्की मालकिन हाथ में मोबाइल फोन लिए हंसी के मारे लोटपोट हो रही थीं. मनोहरा सारा माजरा समझ गया. वह मुसकराता हुआ भैंस दुहने निकल पड़ा.

निक्की बाबू बंका सिंह की दूसरी पत्नी थीं. पहली पत्नी के बारे में गांव के लोगों का कहना था कि बच्चा नहीं जनने के चलते बाबू बंका सिंह ने उन्हें मारपीट कर घर से निकाल दिया था. बाद में वे मर गई थीं.

निक्की पढ़ीलिखी खूबसूरत थीं. वे इस बेमेल शादी के लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं, लेकिन मांबाप की गरीबी और उन के आंसुओं ने उन्हें समझौता करने को मजबूर कर दिया था.

शादी के कई महीनों तक निक्की बिलकुल गुमसुम बनी रहीं. उन की जिंदगी सोने के पिंजरे में कैद तोते की तरह हो गई थी.

हालांकि बाबू बंका सिंह निक्की की सुखसुविधा का काफी ध्यान रखते थे, इस के बावजूद उम्र का फासला निक्की को खुलने नहीं दे रहा था.

मनोहरा घर का नौकर था. हमउम्र मनोहरा से बतियाने में निक्की को अच्छा लगता था. समय गुजरने के साथसाथ निक्की का जख्म भरता गया और वे खुल कर मनोहरा से हंसीठिठोली करने लगीं.

उस दिन बाबू बंका सिंह गांव की पंचायत में गए हुए थे. निक्की गपशप के मूड में थीं. सो, उन्होंने मनोहरा को अंदर बुला लिया.

निक्की मनोहरा की आंखों में आंखें डाल कर बोलीं, ‘‘अच्छा, बता उस दिन मोबाइल फोन पर मेरी मां से क्या बातें हुई थीं?’’

मनोहरा मन ही मन मुसकराया, फिर अनजान बनते हुए कहने लगा, ‘‘कह रही थीं कि मैं आप का जरा भी खयाल नहीं रखता.’’

‘‘हांहां, मेरी मां ठीक ही कह रही थीं. मेरे सामने तुम शरमाए से खड़े रहते हो. तुम्हीं बताओ, मैं किस से बातें करूं? बाबू बंका सिंह की मूंछें और लाललाल आंखें देख कर ही मैं डर जाती हूं. उन की कदकाठी देख कर मुझे अपने काका की याद आने लगती है. एक तुम्हीं हो, जो मुझे हमदर्द लगते हो…’’

इस बेमेल शादी पर गांव वाले तो थूथू कर ही रहे थे. खुद मनोहरा को भी नहीं सुहाया था, पर उस की हैसियत हमदर्दी जताने की नहीं थी. सो, वह चुपचाप निक्की की बात सुनता रहा.

मनोहरा को चुप देख कर निक्की बोल पड़ीं, ‘‘मनोहरा, तुम्हारी शादी के लिए मैं ने अपने मायके में 60 साल की खूबसूरत औरत पसंद की है…’’

‘‘60 साल,’’ कहते हुए मनोहरा की आंखें चौड़ी हो गईं.

‘‘इस में क्या हर्ज है? जब मेरी शादी 60 साल के मर्द के साथ हो सकती है, तो तुम्हारी क्यों नहीं?’’

‘‘नहीं मालकिन, शादी बराबर की उम्र वालों के बीच ही अच्छी लगती है.’’

‘‘तो तुम ने अपने मालिक को समझाया क्यों नहीं? उन्होंने एक लड़की की खुशहाल जिंदगी क्यों बरबाद कर दी?’’ कहते हुए निक्की की आंखें आंसुओं से भर आईं.

समय बीतता गया. निक्की कीशादी के 5 साल गुजर गए, फिर भी आंगन में बच्चे की किलकारी नहीं गूंज पाई. निक्की को ओझा, गुनी, संतमहात्मा सब को दिखाया गया, लेकिन नतीजा सिफर रहा. गांवसमाज में निक्की को ‘बांझ’ कहा जाने लगा.

निक्की मालकिन दिलेर थीं. उन्हें ओझागुनी के यहां चक्कर लगाना अच्छा नहीं लग रहा था. उन्होंने शहर के बड़े डाक्टर से अपने पति और खुद का चैकअप कराने की ठानी.

शहर के माहिर डाक्टर ने दोनों के नमूने जांच लिए और बोला, ‘‘देखिए बंका सिंह, 10 दिन बाद निक्की की एक और जांच होगी. फिर सारी रिपोर्टें सौंप दी जाएंगी.’’

देखतेदेखते 10 दिन गुजर गए. उन दिनों गेहूं की कटाई जोरों पर थी. आकाश में बादल उमड़घुमड़ रहे थे. सो, किसानों में गेहूं समेटने की होड़ सी लगी थी.

बाबू बंका सिंह को भी दम मारने की फुरसत नहीं थी. वे दोबारा निक्की को चैकअप कराने में आनाकानी करने लगे. लेकिन निक्की की जिद के आगे उन की एक न चली. आखिर में मनोहरा को साथ ले कर जाने की बात तय हो गई.

दूसरे दिन निक्की मनोहरा को साथ ले कर सुबह वाली बस से डाक्टर के यहां चल पड़ीं. उस दिन डाक्टर के यहां ज्यादा भीड़ थी.

निक्की का नंबर आने पर डाक्टर ने चैकअप किया, फिर रिपोर्ट देते हुए बोला, ‘‘मैडम, आप बिलकुल ठीक हैं. फिर भी आप मां नहीं बन सकतीं, क्योंकि आप के पति की सारी रिपोर्टें ठीक नहीं हैं. आप के पति की उम्र काफी हो चुकी है, इसलिए उन्हें दवा से नहीं ठीक किया जा सकता है.’’

निक्की का चेहरा सफेद पड़ गया. डाक्टर उन की हालत को समझते हुए बोला, ‘‘घबराएं मत. विज्ञान काफी तरक्की कर चुका है. आप चाहें तो और भी रास्ते हैं.’’

निक्की डाक्टर के चैंबर से थके पैर निकली. बाहर मनोहरा उन का इंतजार कर रहा था. वह निक्की को सहारा देते हुए बोला, ‘‘मालकिन, सब ठीकठाक तो है?’’

‘‘मनोहरा, मुझे कुछ चक्कर सा आ रहा है. शाम हो चुकी है. चलो, किसी रैस्टहाउस में रुक जाते हैं. कल सुबह वाली बस से गांव चलेंगे.’’

आटोरिकशा में बैठते हुए मनोहरा बोला, ‘‘मालकिन, गांव से हो कर निकलने वाली एक बस का समय होने वाला है. उस से हम लोग निकल चलते हैं. हम लोगों के आज नहीं पहुंचने पर कहीं मालिक नाराज नहीं हो जाएं.’’

‘‘भाड़ में जाए तुम्हारा मालिक. उन्होंने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा,’’ निक्की बिफर उठीं.

आटोरिकशा एक रैस्टहाउस में रुका. निक्की ने 2 बैड वाला कमरा बुक कराया और कमरे में जा कर निढाल पड़ गईं. उन के दिमाग में विचारों का पहिया घूमने लगा, ‘मेरे पति ने अपनी पहली पत्नी को बच्चा नहीं जनने के कारण ही घर से निकाला था, लेकिन खोट मेरे पति में है, यह कोई नहीं जान पाया. अगर इस बात को मैं ने उजागर किया, तो यह समाज मुझे बेहया कहने लगेगा. हो सकता है कि मेरा भी वही हाल हो, जो पहली पत्नी का हुआ था.’

निक्की के दिमाग के एक कोने से आवाज आई, ‘डाक्टर ने बताया है कि बच्चा पाने के और भी वैज्ञानिक रास्ते हैं…’

लेकिन दिमाग के दूसरे कोने ने इस सलाह को काट दिया, ‘क्या बाबू बंका सिंह अपनी झूठी शान के चलते ऐसा करने देंगे?’

सवालजवाब की चल रही इस आंधी में अपने को बेबस पा कर निक्की सुबकने लगीं.

मनोहरा को भी नींद नहीं आ रही थी. मालकिन के सुबकने से उस के होश उड़ गए. वह पास आ कर बोला, ‘‘मालकिन, आप रो क्यों रही हैं? क्या आप को कुछ हो रहा है?’’

निक्की का सुबकना बंद हो गया. उन्होंने जैसे फैसला कर लिया था. वे मनोहरा का हाथ पकड़ कर बोलीं, ‘‘मनोहरा, जो काम बाबू बंका सिंह 5 साल में नहीं कर पाए, वह काम तुझे करना है. बोलो, मेरा साथ दोगे?’’

मनोहरा निक्की की बातों का मतलब समझे बिना ही फटाक से बोल पड़ा,

‘‘मालकिन, मैं तो आप के लिए जान भी दे सकता हूं.’’

निक्की मालकिन मनोहरा के गले लग गईं. उन का बदन तवे की तरह जल रहा था. मनोहरा हैरान रह गया. वह निक्की से अलग होता हुआ बोला, ‘‘नहीं मालकिन, यह मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘मनोहरा, डाक्टर का कहना है कि तुम्हारे मालिक में वह ताकत नहीं है, जिस से मैं मां बन सकूं. मैं तुम से बच्चा पाना चाहती हूं…’’

‘‘नहीं, यह नमक हरामी होगी.’’

‘‘मनोहरा, यह वक्त नमक हरामी या नमक हलाली का नहीं है. मेरे पास सिर्फ एक रास्ता बचा है और वह तुम हो. सोच लो, अगर मैं ने देहरी से बाहर पैर रखा, तो तुम्हारे मालिक की मूंछें नीची हो जाएंगी…’’ कहते हुए निक्की ने मनोहरा को अपनी बांहों में समेट लिया.

कोमल बदन की छुअन ने मनोहरा को मदहोश बना डाला. उस ने निक्की को अपनी बांहों में ऐसा जकड़ा कि उन के मुंह से आह निकल पड़ी.

घर आने के बाद भी लुकछिप कर यह सिलसिला चलता रहा. आखिरकार निक्की ने वह मंजिल पा ली, जिस की उन्हें दरकार थी.

गोदभराई रस्म के दिन बाबू बंका सिंह चहकते फिर रहे थे. निक्की दिल से मनोहरा की आभारी थीं, जिस ने एक उजड़ते घर को बचा लिया था.

Hindi Story : नीली झील में गुलाबी कमल – किसे भा गया ईशानी का चुलबुला स्वभाव

Hindi Story : ईशानी अपनी दीदी शर्मिला से बहुत प्यार करती थी. शर्मिला भी हमेशा अपनी ममता उस पर लुटाती रहती थी, तभी तो वह जबतब हमारे घर आ जाया करती थी. जब मैं ने शुरूशुरू में शर्मिला को देने के लिए एक पत्र उस के हाथों में सौंपा था, तब वह मात्र 12 वर्ष की थी. वह लापरवाह सी साइकिल द्वारा इधरउधर बेरोकटोक आयाजाया करती थी. मेरा और शर्मिला का गठबंधन कराने में ईशानी का ही हाथ था. जाति, बिरादरी से भरे शहर में हम दोनों छिपछिप कर मिलते रहे, लेकिन किसी को पता ही न चला. ईशानी ने एक दिन कहा, ‘‘तुम दोनों में क्या गुटरगूं चल रही है… मां को बता दूं?’’

उस की चंचल आंखों ने मानो हम दोनों को चौराहे पर ला खड़ा कर दिया. किसी तरह शर्मिला ने अंधेरे में तीर मार कर मामला संभाला, ‘‘मैं भी मां को बता दूंगी कि तू टैस्ट में फेल हो गई है.’’ वह सहम गई और विवाह तक उस ने हम लोगों की मुहब्बत को राज ही रहने दिया.

बड़ी बहन होने के नाते शर्मिला ने ईशानी की टीचर से मिल कर उस के इतिहासभूगोल के अंक बढ़वाए और पास करवा दिय?. शर्मिला ही ईशानी की देखरेख करती, सो, दोनों में मांबेटी जैसा ममतापूर्ण स्नेह भी पनपता रहा. अपनी सहेलियों से मजाक करतेकरते ईशानी दावा कर दिया करती थी, ‘मैं शर्मिला दीदी को ‘मां’ कह सकती हूं.’ यह बात मेरे दोस्त की बहन ने बताई थी, जो ईशानी की सहेली थी. समय ने करवट ली. एक दिन बाजार से लौटते समय ईशानी की मां को एक तीव्र गति से आती हुई कार ने धक्का दे दिया. उन्हें अस्पताल ले जाया गया, परंतु बिना कुछ कहे, बताए वे संसार से विदा हो गईं. ईशानी के बड़े भाई प्रशांत का इंजीनियरिंग का अंतिम वर्ष था. वह किशोरी अपने बड़े भैया को समझाती रही, तसल्ली देती रही, जैसे परिवार में वह सब से बड़ी हो.

उस की मां ने अपने पति के रहते हुए ही तीनों बच्चों में संपत्ति का बंटवारा करवा लिया था. इस से उन लोगों के न रहने पर भी आपस में मधुर संबंध बने रहे. मैं परिवार का बड़ा बेटा था. मुझ से छोटी 2 बहनें सुधा, सीमा हाई स्कूल और इंटर बोर्ड की तैयारी कर रही थीं. मैं बैंक में नौकरी करता था. पिता बचपन में ही चल बसे थे. मां ने अपनेआप को अकेलेपन से बचाने के लिए एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने का काम ले लिया था. कुल मिला कर जीवन आराम से चल रहा था.

एक दिन ईशानी बोली, ‘‘होने वाले जीजाजी, अब आप लोग जल्दी से शादी कर लीजिए.’’

मैं ने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो… क्या भैया ने कुछ कह दिया है.’’

‘‘नहीं,’’ वह बोली, ‘‘बात यह है कि कल मामाजी आए थे. भैया ने उन से दीदी के लिए लड़का ढूंढ़ने को बोला है.’’

‘‘तो क्या हुआ, हम तुझ से शादी कर लेंगे.’’ यह सुन कर वह ऐसे मुसकराई जैसे मुझे बच्चा समझ रही हो. मैं ने झेंपते हुए उस से कहा, ‘‘फिर क्या करें? मेरे घर में तो सब मान जाएंगे… हां, तुम्हारे भैया…’’

‘‘उन को मैं मनाऊंगी,’’ वह चुटकी बजाते हुए हंसती हुई चली गई.

पता नहीं उस ने भैया को कौन सी घुट्टी पिलाई कि वे एक बार में ही हम लोगों का विवाह करने को राजी हो गए.

ईशानी हमारे यहां आतीजाती रहती थी और भैया के समाचार देती रहती थी. भैया इंजीनियर के पद पर नियुक्त हुए तो उस दिन वह बहुत खुश हुई और आ कर मुझ से लिपट गई. फिर झेंपती हुई अपनी दीदी के पास चली गई. हाई स्कूल का फार्म भरते समय ईशानी ने अभिभावक के स्थान पर भैया का नाम न लिख कर मेरा लिखा था. तब मैं ने उस से कहा, ‘‘ईशानी, गलती से तुम ने यहां मेरा नाम लिख दिया है.’’ ‘‘वाह जीजाजी, आप तो अपुन के माईबाप हो, मैं ने तो समझबूझ कर ही आप का नाम लिखा है,’’ कहते हुए वह खिलखिला पड़ी थी.

मेरे पिता बनने का समाचार भी ईशानी ने ही मुझे दिया था. पर मैं ने इस बात को सामान्यतौर पर ही लिया था.

‘‘जीजाजी, आज हम सब इस खुशी में आइसक्रीम खाएंगे,’’ वह चहक रही थी.

शर्मिला भी बोली, ‘‘सच तो है, चलिए…आज सब लोग आइसक्रीम खाएंगे.’’

‘‘ठीक है, आइसक्रीम खिला देंगे पर मैं तो इतनी बड़ी घोड़ी का बाप पहले से ही बना दिया गया हूं. तब तो किसी ने कुछ खिलाने की बात नहीं की,’’ मैं ने ईशानी की ओर देख कर कहा.

मेरी बात पर वह जोर से हंस पड़ी. फिर बोली, ‘‘बगल में खड़ी हो जाऊं तो आधी घरवाली लगूंगी और उंगली पकड़ लूं तो…’’

शर्मिला ने मीठी झिड़की दी, ‘‘चल हट, यह मुंह और मसूर की दाल…’’

मेरी बहन सुधा के विवाह में उस की विदाई पर ईशानी मुझे सांत्वना दे रही थी, ‘‘बेटियां तो पराए घर जाती ही हैं.’’

सीमा प्रेमविवाह करना चाहती थी, पर मां इस के लिए तैयार नहीं थीं, तब मैं ईशानी की बात सुन कर दंग रह गया. वह मां को समझा रही थी, ‘‘आप सीमा से नाराज मत होइए. आप के जो भी अरमान रह गए हों, मेरी शादी में पूरे कर लीजिएगा. आप जैसी कहेंगी मैं वैसी ही शादी करूंगी और जिस से कहेंगी, उस से कर लूंगी. बस, अब आप शांत हो जाइए.’’ मैं ने वातावरण को सहज करने के लिए मजाक किया, ‘‘मां कहेंगी, बच्चों के बापू से विवाह कर लो तो करना पड़ेगा…’’

मैं कई वर्षों बाद बेटे का बाप बना था. इस सुख ने मुझे अंदर से पुलकित और पूर्ण बना दिया था. बेटे का नाम रखना था, सो, सब ने अपनेअपने सोचे हुए नाम सुझाए पर निश्चित नहीं हो पा रहा था कि किस के द्वारा सुझाया हुआ नाम रखा जाए. फिर तय किया गया कि सब बारीबारी से बच्चे के कान में नाम का उच्चारण करेंगे, जिस के नाम पर वह जबान खोलेगा उसी का सुझाया गया नाम रखा जाएगा. सब से पहले शर्मिला ने उस का नाम लिया, ‘विराट’, सुधा ने ‘विक्रम’, सीमा ने ‘राघव’, मां ने पुकारा, ‘पुरुषोत्तम’. आखिर में ईशानी की बारी थी. उस ने बच्चे के कान के पास फूंक मारी और ‘अंकित’ कहते ही वह ‘ममम…ऊं…अं…मम…’ गुनगुना उठा.

सब लोग हंस पड़े, तालियां बज उठीं. मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘ईशानी, तू ने आधी घरवाली का रोल अदा किया है.’’ य-पि सुधा को यह अच्छा नहीं लगा था, परंतु मां का चेहरा दमक रहा था. वे बोलीं, ‘‘मौसी है न, मां ही होती है, गया भी तो मौसी पर ही है.’’

सुधा से न रहा गया. वह बोली, ‘‘सब कुछ मौसी का ही लिया है, क्या बात है ईशानी?’’ इस मजाक में य-पि सुधा की चिढ़ छिपी थी पर ईशानी झेंप गई थी. उस की झुकीझुकी पलकें मर्यादा से बोझिल थीं, परंतु होंठों की मुसकराहट में गौरव की झलक थी, ‘‘हां, मुझे मौसी होने पर गर्व है.’’

शर्मिला बीमार पड़ी तो पता चला कि उसे कैंसर ने दबोच लिया है. हम सब लोगों के तो जैसे हाथपांव ही फूल गए. एक ईशानी ही सब को दिलासा दे रही थी. अंकित की देखभाल अब ईशानी ही करती थी.

एक दिन ईशानी डाक्टर के सामने रो पड़ी, ‘‘डाक्टर साहब, मेरी दीदी को बचा लीजिए.’’ मृत्यु के पूर्व शर्मिला का चेहरा चमकने लगा था. उस के कष्ट जैसे समाप्त ही हो गए थे. ईशानी यह देख कर खुश थी. लेकिन उसे क्या पता था कि मृत्यु इतनी निकट आ गई है. ईशानी अंकित को पैरों पर बिठा कर झुला रही थी, ‘‘बता, तू मुझे दीदी कहेगा या मौसी? बता न, तू मुझे दीदी कहेगा… हां…’’

मैं आरामकुरसी पर बैठा आंखें मूंदे सोने की चेष्टा कर रहा था. पर ईशानी की तोतली बोली में ‘दीदी’ का संबोधन सुन कर मन ही मन हंस पड़ा. मां पास बैठी थीं, बोलीं, ‘‘ईशानी, नीचे गद्दी रख ले, गीला कर देगा,’’ और उन्होंने गद्दी उठा कर उसे दे दी. ईशानी गद्दी रखते हुए दुलार से अंकित से बोली, ‘‘अगर तू दीदी कहेगा तो गीला नहीं करना, मौसी कहेगा तो गीला…’’ मैं हंस पड़ा, ‘‘तुम मौसी हो तो मौसी ही कहेगा न.’’

शर्मिला की सहेलियां उस से मिल कर जा चुकी थीं. भैया भी आ गए थे. शाम हो गई, पर अंकित ने गद्दी गीली नहीं की थी. मां बोलीं, ‘‘देखो तो इस अंकू को, आज गद्दी गीली ही नहीं की.’’ ईशानी जूस बना रही थी, झट से देखने आ गई, ‘‘अरे, वाह, यह हुई न बात.’’ फिर मुझे आवाज दे कर बोली, ‘‘जीजाजी, देखिए, अंकू ने गद्दी गीली नहीं की,’’ और फिर खुद ही झेंप गई. उसी रात साढ़े 11 बजे शर्मिला हम सब से विदा हो गई. अंदर से मैं पूरी तरह ध्वस्त हो गया था, परंतु कुछ ऐसा अनुभव कर रहा था कि ईशानी मुझ से भी ज्यादा बिखर कर चूरचूर हो गई है. उस की गंभीर आंखें देख कर मेरा मन और भी उदास होने लगता. मैं अपना दुख भूल कर उसे समझाने की चेष्टा करता, परंतु वह मेरे सामने पड़ने से कतरा जाती.

समय बीतने लगा. अंकित ईशानी के बिना नहीं रहता था. वह उसे कईकई दिनों के लिए अपने साथ ले जाने लगी. मैं ही अंकित से मिलने चला जाता. अंकित का जन्मदिन आने वाला था. मां अपनी योजनाएं बनाने लगीं. सुधा, सीमा को भी निमंत्रण भेजा गया. ईशानी और मैं बड़े पैमाने पर जन्मदिन मनाने के पक्ष में नहीं थे. पर मां का कहना था कि वे अपने पोते के जन्मदिन पर शानदार दावत देंगी.

मां और ईशानी का विवाद चल रहा था. ऐसा लग रहा था कि मां खिसिया गई हैं, तभी उन्होंने यह प्रस्ताव रख दिया, ‘‘ईशानी, तुम जब अंकित पर इतना अधिकार समझती हो तो उसे सौतेला बेटा बनने से बचा लो,’’ और वे रोने लगीं. सब चुप थे. शीघ्र ही मां ने धीरेधीरे कहा, ‘‘तुम एक बार यहां इस की मां बन कर आ जाओ, बेटी. अंकित अनाथ होने से बच जाएगा…’’ ईशानी उठ कर चली गई थी. वह अंकित के जन्मदिन पर भी नहीं आई. अंकित रोता, चिड़चिड़ाता, बीमार पड़ा, तब भी वह नहीं आई. मां अंकित की देखरेख करती थक जातीं. मेरा बेटा ईशानी के बिना नहीं रह सकता, यह मैं जानता था. वह निरंतर दुर्बल होता जा रहा था. क्या करें, कुछ समझ नहीं आ रहा था. लगभग 2 माह बीत गए. फिर इस विषय पर कोई बातचीत न हुई. एक शाम मैं उदास बैठा ईशानी के बारे में ही सोच रहा था. साथ ही, मां के प्रस्ताव की भी याद आ गई. लेकिन मैं ने ईशानी को कभी उस नजर से नहीं देखा था. मुझे उम्मीद नहीं थी कि विशाल नभ के नीचे फैली नीली नदी में भी झील उतर सकती है और उस में गुलाबी कमल खिल सकते हैं.

तभी भैया को आते देखा तो मैं उठ खड़ा हुआ, ‘‘आइए, मां देखो तो, भैया आए हैं.’’ मां झट से अंकित को गोद में उठाए आ गईं.

भैया ने कहा, ‘‘यह पत्र ईशानी ने दिया है,’’ और वह पत्र मेरे हाथ में दे दिया.

मैं कुछ घबरा गया, ‘‘सब ठीक तो है न, भैया?’’ ‘‘हां, सब ठीक ही है,’’ कहते हुए उन्होंने अंकित को गोद में ले लिया, ‘‘मैं इसे ले जा रहा हूं. घुमा कर थोड़ी देर में ले आऊंगा,’’ और वे अंकित को ले कर चले गए. ‘‘क्या बात है बेटा, देखो तो क्या लिखा है? मालूम नहीं, वह क्या सोच रही होगी, मुझे ऐसा प्रस्ताव नहीं रखना चाहिए था. सचमुच उस दिन से मैं पछता रही हूं. वह घर नहीं आती तो अच्छा नहीं लगता…’’ और मां की आंखों में आंसू आ गए. मैं ने पत्र खोला. उस में लिखा था…

‘मां, मैं बहुत सोचविचार कर, भैया से पूछ कर फैसला कर रही हूं. मुझे आप का प्रस्ताव स्वीकार है, ईशानी.’ मुझे अचानक महसूस हुआ जैसे सचमुच नीली झील में गुलाबी कमल खिल गए हैं.

Emotional Story : बंद खिड़की – रचना को अपनी गलती का एहसास हुआ?

Emotional Story : ‘‘मौसी की बेटी मंजू विदा हो चुकी थी. सुबह के 8 बज गए थे. सभी मेहमान सोए थे. पूरा घर अस्तव्यस्त था. लेकिन मंजू की बड़ी बहन अलका दीदी जाग गई थीं और घर में बिखरे बरतनों को इकट्ठा कर के रसोई में रख रही थीं.

अलका को काम करता देख रचना, जो उठने  की सोच रही थी ने पूछा, ‘‘अलका दीदी क्या समय हुआ है?’’

‘‘8 बज रहे हैं.’’

‘‘आप अभी से उठ गईं? थोड़ी देर और आराम कर लेतीं. बहन के ब्याह में आप पूरी रात जागी हो. 4 बजे सोए थे हम सब. आप इतनी जल्दी जाग गईं… कम से कम 2 घंटे तो और सो लेतीं.

अलका मायूस हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘अरे, हमारे हिस्से में कहां नींद लिखी है. घंटे भर में देखना, एकएक कर के सब लोग उठ जाएंगे और उठते ही सब को चायनाश्ता चाहिए. यह जिम्मेदारी मेरे हिस्से में आती है. चल उठ जा, सालों बाद मिली है. 2-4 दिल की बातें कर लेंगी. बाद में तो मैं सारा दिना व्यस्त रहूंगी. अभी मैं आधा घंटा फ्री हूं.’’ रचना अलका दीदी के कहने पर झट से बिस्तर छोड़ उठ गई. यह सच था कि दोनों चचेरी बहनें बरसों बाद मिली थीं. पूरे 12 साल बाद अलका दीदी को उस ने ध्यान से देखा था. इस बीच न जाने उन पर क्याक्या बीती होगी.

उस ने तो सिर्फ सुना ही था कि दीदी ससुराल छोड़ कर मायके रहने आ गई हैं. वैसे तो 1-2 घंटे के लिए कई बार मिली थीं वे पर रचना ने कभी इस बारे में खुल कर बात नहीं की थी. गरमी की छुट्टियों में अकसर अलका दीदी दिल्ली आतीं तो हफ्ता भर साथ रहतीं. खूब बनती थी दोनों की. पर सब समय की बात थी. रचना फ्रैश हो कर आई तो देखा अलका दीदी बरामदे में कुरसी पर अकेली बैठी थीं.

‘‘आ जा यहां… अकेले में गप्पें मारेंगे…. एक बार बचपन की यादें ताजा कर लें,’’ अलका दीदी बोलीं और फिर दोनों चाय की चुसकियां लेने लगीं.

‘‘दीदी, आप के साथ ससुराल वालों ने ऐसा क्या किया कि आप उन्हें छोड़ कर हमेशा के लिए यहां आ गईं?’’

‘‘रचना, तुझ से क्या छिपाना. तू मेरी बहन भी है और सहेली भी. दरअसल, मैं ही अकड़ी हुई थी. पापा की सिर चढ़ी लाडली थी, अत: ससुराल वालों की कोई भी ऐसी बात जो मुझे भली न लगती, उस का जवाब दे देती थी. उस पर पापा हमेशा कहते थे कि वे 1 कहें तो तू 4 सुनाना. पापा को अपने पैसे का बड़ा घमंड था, जो मुझ में भी था.’’

दीदी ने चाय का घूंट लेते हुए आगे कहा, ‘‘गलती तो सब से होती है किंतु मेरी गलती पर कोई मुझे कुछ कहे मुझे सहन न था. बस मेरा तेज स्वभाव ही मेरा दुश्मन बन गया.’’

चाय खत्म हो गई थी. दीदी के दुखों की कथा अभी बाकी थी. अत: आगे बोलीं, ‘‘मेरे सासससुर समझाते कि बेटा इतनी तुनकमिजाजी से घर नहीं चलते. मेरे पति सुरेश भी मेरे इस स्वभाव से दुखी थे. किंतु मुझे किसी की परवाह न थी. 1 वर्ष बाद आलोक का जन्म हुआ तो मैं ने कहा कि 40 दिन बाद मैं मम्मीपापा के घर जाऊंगी. यहां घर ठंडा है, बच्चे को सर्दी लग जाएगी.’’ मैं दीदी का चेहरा देख रही थी. वहां खुद के संवेगों के अलावा कुछ न था.

‘‘मैं जिद कर के मायके आ गई तो फिर नहीं गई. 6 महीने, 1 वर्ष… 2 वर्ष… जाने कितने बरस बीत गए. मुझे लगा, एक न एक दिन वे जरूर आएंगे, मुझे लेने. किंतु कोई न आया. कुछ वर्ष बाद पता लगा सुरेश ने दूसरा विवाह कर लिया है,’’ और फिर अचानक फफकफफक कर रोने लगीं. मैं 20 वर्ष पूर्व की उन दीदी को याद कर रही थी जिन पर रूपसौंदर्य की बरसात थी. हर लड़का उन से दोस्ती करने को लालायित रहता था. किंतु आज 35 वर्ष की उम्र में 45 की लगती हैं. इसी उम्र में चेहरा झुर्रियों से भर गया था.

मुझे अपलक उन्हें देखते काफी देर हो गई, तो वे बोलीं, ‘‘मेरे इस बूढ़े शरीर को देख रही हो… लेकिन इस घर में मेरी इज्जत कोई नहीं करता. देखती नहीं मेरे भाइयों और भाभियों को? वे मेरे बेटे आलोक और मुझे नौकरों से भी बदतर समझते हैं. पहले सब ठीक था. पापा के जाते ही सब बदल गए. भाभियों की घिसी साडि़यां मेरे हिस्से आती हैं तो भतीजों की पुरानी पैंटकमीजें मेरे बेटे को मिलती हैं. इन के बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और मेरा बेटा सरकारी स्कूल में. 15 वर्ष का है आलोक 7वीं में ही बैठा है. 3 बार 7वीं में फेल हो चुका है. अब क्या कहूं,’’ और दीदी ने साड़ी के किनारे से आंखें पोंछ कर धीरे से आगे कहा, ‘‘भाई अपने बेटों के नाम पर जमीन पर जमीन खरीदते जा रहे हैं, पर मेरे बेटे के लिए क्या है? कुछ नहीं. घर के सारे लोग गरमी की छुट्टियों में घूमने जाते हैं और हम यहां बीमार मम्मी की सेवा और घर की रखवाली करते हैं.

‘‘तू तो अपनी है, तुझ से क्या छिपाऊं… जवान जोड़ों को हाथ में हाथ डाल कर घूमते देखती हूं तो मनमसोस कर रह जाती हूं.’’

मैं दीदी को अवाक देख रही थी, किंतु वे थकी आवाज में कह रही थीं, ‘‘रचना, आज मैं बंद कमरे का वह पक्षी हूं जिस ने अपने पंखों को स्वयं कमरे की दीवारों से टक्कर मार कर तोड़ा है. आज मैं एक खाली बरतन हूं, जिसे जो चाहे पैर से मार कर इधर से उधर घुमा रहा है…’’  आज मैं अकेलेपन का पर्याय बन कर रह गई हूं.’’

दीदी का रोना देखा न जाता था, किंतु आज मैं उन्हें रोकना नहीं चाहती थी. उन के मन में जो था, उसे बह जाने देना चाहती थी. थोड़ी देर चुप रहने के बाद अलका दीदी आगे बोलीं, ‘‘सच तो यह है कि मेरी गलती की सजा मेरा बेटा भी भुगत रहा है… मैं उसे वह सब न दे पाई जिस का वह हकदार था… न पिता का प्यार न सुखसुविधाओं वाला जीवन… कुछ भी तो न मिला. सोचती हूं आखिर मैं ने यह क्या कर डाला? अपने साथ उसे भी बंद गली में ले आई… क्यों मैं ने उस की खुशियों की खिड़की बंद कर दी,’’ और फिर दीदी की रुलाई फूट पड़ी. उन का रोना सुन कर 2-3 रिश्तेदार भी आ गए. पर अच्छा हुआ जो तभी बूआ ने किचन से आवाज लगा दी, ‘‘अरी अलका, आ जल्दी… आलू उबल गए हैं.’’

दीदी साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछते हुए उठ खड़ी हुईं. फिर बोली, ‘‘देख मुझे पता है कि तू भी अपनी मां के पास आ गई है, पति को छोड़ कर. पर सुन इज्जत की जिंदगी जीनी है तो अपना घर न छोड़ वरना मेरी तरह पछताएगी.’’ अलका दीदी की बात सुन कर रचना किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. यह एक भयानक सच था. उसे लगा कि राजेश और उस के बीच जरा सी तकरार ही तो हुई है. राजेश ने किसी छोटी से गलती पर उसे चांटा मार दिया था, पर बाद में माफी भी मांग ली थी. फिर रचना की मां ने भी उसे समझाया था कि ऐसे घर नहीं छोड़ते. उस ने तुझ से माफी भी मांग ली है. वापस चली जा. रचना सोच रही थी कि अगर कल को उस के भैयाभाभी भी आलोक की तरह उस के बेटे के साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो क्या पता मेरे साथ भी दीदी जैसा ही कुछ होगा… फिर नहीं… नहीं… कह कर रचना ने घबरा कर आंखें बंद कर लीं और थोड़ी देर बाद ही पैकिंग करने लगी. अपने घर… यानी राजेश के घर जाने के लिए. उसे बंद खिड़की को खोलना था, जिसे उस ने दंभवश बंद कर दिया था. बारबार उन के कानों में अलका दीदी की यह बात गूंज रही थी कि रचना इज्जत से रहना चाहती हो तो घर अपना घर कभी न छोड़ना.

Best Hindi Story : रौंग नंबर – कैसे बदली दीपाली की जिंदगी ?

Best Hindi Story : एक दिन मैं अपने मित्र को फोन मिला रहा था कि इत्तिफाक से रौंग नंबर लग गया. दूसरी तरफ से एक लड़की ने फोन उठाया. आमतौर पर ऐसी स्थिति में रौंग नंबर कह कर फोन काट दिया जाता है, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ. हम दोनों के बीच कुछ ही देर टेलीफोन सर्विस की गड़बड़ी को ले कर कुछ बातें हुईं. लेकिन उन चंद बातों ने ही मेरे दिलोदिमाग में हलचल मचा दी. उस की आवाज मेरे दिमाग में सितार की झंकार की तरह गूंज रही थी. वह बात करतेकरते बीचबीच में हंसती थी तो ऐसा लगता था, जैसे पत्थर की विशाल शिलाओं पर उछलकूद मचाते हुए कोई पहाड़ी झरना बह रहा है. मेरी वह सारी रात बेचैनी के आलम में गुजरी.

उस का फोन नंबर मेरे मोबाइल फोन में आ ही गया था. अगले दिन सुबहसुबह मैं ने उस का नंबर मिला दिया.

‘‘क्या बात है…?’’ वह खिलखिला कर हंसी, ‘‘आज फिर रौंग नंबर लग गया.’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने अपनी तेज होती धड़कन को नियंत्रित करते हुए कहा, ‘‘आज मैं ने जानबूझ कर मिलाया है.’’

‘‘वाह, क्या बात है,’’ वह हंसते हुए बोली, ‘‘आज की सुबह का आगाज कुछ खास लग रहा है.’’

निस्संदेह उस की हंसी में जैसे कोई जादू था, नशा था, मैं ने सकुचाते हुए पूछा, ‘‘तु… तुम्हारा नाम क्या है?’’

यह पूछ कर मुझे डर लगा कि कहीं वह मेरा सवाल सुन कर फोन न काट दे या नाराज न हो जाए, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मेरा सवाल सुन कर वह फिर हंसी और बड़े अलमस्त अंदाज में बिना किसी लागलपेट के अपना नाम बता दिया, ‘‘दीपाली.’’

उस की आवाज मेरे दिलोदिमाग में बस गर्ई थी. बिना उसे देखे, बिना उसे जाने दिल के किसी कोने में मुहब्बत के अंकुर फूटने लगे थे. सचमुच मुहब्बत एक खूबसूरत अहसास है. जवां दिलों का वह नगमा, जो दिल में बजता है और उस की स्वर लहरियां पूरे तनबदन को रोमांचित कर देती हैं.

उस दिन दीपाली से मेरी काफी देर तक बात हुई, रंगों के बारे में, किताबों के बारे में, वेस्टर्न म्यूजिक और देश की पौलिटिक्स के बारे में. लगता था, जैसे हर सब्जैक्ट पर उस की गहरी पकड़ थी.
इस क बाद हमारे बीच फोन पर बातचीत का सिलसिला चल निकला.

मैं रोज उसे फोन मिलाता और देर तक बातें करता. हम दोनों के बीच जो बातें होतीं, उन का कोई आधार नहीं होता था. कह सकते हैं कि हमारे बीच अधिकतर बेसिरपैर की बातें होती थीं. मुझे उस से बातें करना बहुत अच्छा लगता था. मेरा बस चलता तो मैं बिना थके उस से चौबीसों घंटे लगातार बातें करता रहता था. कुछ ही दिनों में हम दोनों एक अच्छे दोस्त बन गए. कभीकभी दीपाली भी मुझे फोन करने लगी थी. बातोंबातों में हमारे बीच जितनी नजदीकियां बढ़ती जा रही थीं, मेरी यह जानने की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि दीपाली देखने में कैसे होगी. जब जिज्ञासा बढ़ती गई, तो एक दिन मैं ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘तुम देखने में कैसी हो…? मेरा मतलब, तुम्हारी सुंदरता से है.’’

दीपाली की खनकदार हंसी मेरे तनमन को रोमांचित कर गई. वह शायराना अंदाज में बोली, ‘‘तुम ने कभी शिलाखंडों पर बिखरी चांदनी को देखा है.’’

मेरी कल्पनाओं में पाषाण शिलाओं पर फैली चांदनी का दृश्य घूम गया और मैं ने बिना सोचेसमझे हां कर दिया.

‘‘समझ लो, मैं बिलकुल वैसी ही हूं. बर्फ के पहाड़ों पर बिखरी चांदनी सी सुंदर, स्वच्छ और दिलकश. अब यह बताओ कि तुम कैसे हो?’’ जवाब के साथसाथ उस ने बिना मौका दिए सवाल कर दिया.

‘‘मैं, उस चांद की तरह हूं, जो चांदनी बिखेरता है. जिस के बिना चांदनी का कोई अस्तित्व नहीं है,’’ मेरा जवाब सुन कर दीपाली पहले से भी ज्यादा जोर से खिलखिला कर हंसी. उस दिन के बाद पहले बीच और भी नजदीकियां बढ़ गईं. कह सकते हैं कि बातों के फैलते दायरे चाहत के द्वार खोलने लगे.

अभी हमारी बातचीत के सिलसिले को एक सप्ताह ही हुआ था कि मैं ने दीपाली से एक गंभीर मजाक कर दिया. उस दिन फर्स्ट अप्रैल था और रात को ही मैं योजना बना चुका था कि सुबह उठ कर सब से पहले दीपाली को ही अप्रैल फूल बनाऊंगा. मैं ने यह किया भी. मैं ने सुबह 8 बजे दीपाली को फोन किया.
मैं ने घबराई आवाज में कहा, ‘‘दीपाली, मैं अचानक एक भारी मुसीबत में फंस गया हूं, इसलिए तुम्हें 2-3 दिन तक फोन नहीं कर सकूंगा. तुम भी मुझे फोन मत करना.’’

‘‘कैसी मुसीबत…? तुम किस मुसीबत में फंस गए हो?’’ दीपाली ने परेशान हो कर पूछा.

‘‘एकाएक मेरी बीवी की तबीयत खराब हो गई है. मैं उसे ले कर अस्पताल जा रहा हूं. उस की फर्स्ट डिलीवरी होने वाली है. तुम दुआ करना कि सबकुछ ठीक हो जाए और वह खूबसूरत बच्चे को जन्म दे.’’

दूसरी तरफ सन्नाटा छा गया. लगा जैसे दीपाली की आवाज गले में फंस गई हो. फोन डिस्कनेक्ट कर के मैं यह सोच कर खुश हुआ कि मैं ने दीपाली को अप्रैल फूल बना दिया है. मैं ने पहले ही सोच रखा था कि उसे कम से कम एक घंटा कुछ नहीं बताऊंगा. उस के बाद फोन कर के बता दूंगा कि मैं ने उसे अप्रैल फूल बनाया था.

एक घंटे बाद मैं ने दीपाली को फोन किया, तो मेरी आवाज सुनते ही उस ने फोन डिस्कनेस्ट कर दिया.

मैं ने फिर से उसे फोन मिलाया. फिर वही हुआ, मेरी आवाज सुनते ही उस ने फोन काट दिया. इस के बाद मुझे एक और नई मुश्किल का सामना करना पड़ा. तीसरी बार जब मैं ने नंबर डायल किया, तो दूसरी ओर घंटी बजती रही, लेकिन फोन उठाया नहीं गया. इस के बाद फोन स्विच्ड औफ हो गया. मैं बेचैन हो कर पागलों की तरह अपने बेडरूम में घूमने लगा. मेरी हालत उस कबूतर जैसी हो गई थी, जिस के पंख कट गए हों, लेकिन वह उड़ना चाहता हो. मैं रात के 1 बजे तक उसे फोन मिलाता रहा, लेकिन दीपाली का फोन स्विच्ड औफ था.

मेरी हालत खराब हो गई थी. मैं पूरी रात एक पल के लिए भी नहीं सो सका. सुबह होते ही मैं ने फिर दीपाली को फोन मिलाया. इस बार दीपाली ने फोन रिसीव तो कर लिया, लेकिन मुझे ऐसा लगा, जैसे वह फोन काटनेे वाली हो. मैं चीख पड़ा, ‘‘दीपाली, प्लीज, फोन मत काटिएगा, तुम्हें मेरी कसम दीपाली.’’

वह बोली तो कुछ नहीं, लेकिन उस पर मेरी बात का माकूल असर पड़ा. उस ने फोन डिस्कनेक्ट नहीं किया. मैं ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘मेरे छोटे से मजाक की इतनी बड़ी सजा मत दो दीपाली. तुम नहीं जानतीं, मैं सारी रात नहीं सोया हूं.’’
इस के बाद एक ही सांस में मैं ने दीपाली को फर्स्ट अप्रैल वाली पूरी बात बता दी. मैं बहुत जल्दीजल्दी बोल रहा था. मुझे डर था कि कहीं दीपाली फोन डिस्कनेक्ट न कर दे और मेरी बात अधूरी रह जाए.

दीपाली ने मेरी पूरी बात सुन तो ली, लेकिन बोली कुछ नहीं. उस ने बिना कुछ कहे फोन डिस्कनेक्ट कर दिया.
उस दिन के बाद दीपाली जैसे बदल भी गई. मैं उस से फोन पर बातें करता, तो वह मेरे सवालों का जवाब सिर्फ हूं, हां में देती. उस की चंचल बातें और मदमस्त हंसी एकदम से गायब हो गई थी. मैं उसे नएनए चुटकुले सुनाता. तरहतरह की मजाकिया बातें करता. लेकिन वह कभी नहीं हंसती. वह झील के पानी के तरह शांत हो चुकी थी. मैं फोन करता, तो वह पत्थर बनी चुपचाप मेरी बातें सुनती रहती. उस की चुप्पी से मेरी बेचैनी और बढ़ जाती.

मैंं दीपाली में आए इस परिवर्तन की वजह समझ नहीं पा रहा था. उसी बीच एक रोज रात को दीपाली का फोन आया. वह बड़े ही गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों नहीं,’’ मेरे दिल में खुशियों के कमल खिल उठे, ‘‘मैं खुद तुम से मिलना चाहता हूं. बताओ, कहां मिलोगी.’’

‘‘कल शाम 7 बजे मैं वहां पहुंच जाऊंगा, लेेकिन तुम्हें पहचानूंगा कैसे?’’ मैं ने मन की खुशी जाहिर करते हुए सवाल किया, तो वह बोली, ‘‘मैं होटल ताज लैंंड्स एंड के रिसेप्शन हौल में लाल रंग के कपड़ों में बैठी मिलूंगी. मेरी टेबल पर सफेद गुलाब रखा होगा, पहचान लेना.’’

मैं कुछ और कहता, उस के पहले ही दीपाली ने फोन काट दिया. सफेद गुलाब की बात मुझे कुछ अटपटी सी लग रही थी. प्रेम का प्रतीक तो लाल रंग होता है, फिर दीपाली ने टेबल पर सफेद गुलाब रखने की बात क्यों कहीं. किसी बात को ले कर मन अनिश्चितता से भरा हो, तो तरहतरह की आशंकाएं जन्म लेने लगती हैं. सोचसोच कर मेरा दिल अजीब सी आशंका से धड़कने लगा.

अगले दिन शाम 7 बजे बनठन कर मैं होटल ताज लैंड्स एंड पहुंंच गया. मैं ने अपना पसंदीदा डबल ब्रेस्टेड नीला सूट पहना था. प्रचलन के मुताबिक टाई लगाई थी. कोट पर सितारों वाला ब्रोच लगाया था. मैं सीधा ताज लैंड्स एंड के रिसेप्शन हौल में जा पहुंचा.
दीपाली को ढूंढ़ने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई. कहे अनुसार उस ने अपनी टेबल पर सफेद गुलाब रख रखा था और वह सुर्ख साड़ी में थी. उस के मेकअप और साजश्रृंगार से लग रहा था कि जैसे वह शादीशुदा हो. मैं हैरान सा उसे देखता रह गया. वह सचमुच श्वेत चांदनी की तरह स्वच्छ, निर्मल और मनमोहिनी थी.
मैं ने कुरसी खींच कर दीपाली के सामने बैठते हुए अपना परिचय दिया. थोड़ी देर वह मुझे अपलक देखती रही. फिर गंभीर स्वर में वह बोली, ‘‘तुम ने पिछले कुछ दिनों से मुझ में परिवर्तन महसूस किया होगा. मैं ने तुम्हें आज उसी सिलसिले में बुलाया है.’’

‘‘हां, तुम सचमुच काफी बदल गई हो,’’ मैं उस की खामोश आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘क्या मैं इस की वजह जान सकता हूं, कहीं तुम मेरी अप्रैल फूल वाली बात का बुरा तो नहीं मान गई?’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है,’’ दीपाली अपने खुले बालों को पीछे की ओर झटकते हुए बोली, ‘‘दरअसल, जब तुम ने मजाक में यह कहा कि तुम्हारी शादी हो चुकी है और तुम्हारी पत्नी की फर्स्ट डिलीवरी होने वाली है, तो मुझे झटका तो लगा, लेकिन खुशी भी हुई.’’

‘‘खुशी,’’ मैं ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘खुशी क्यों हुई?’’

‘‘क्योंकि, तुम ने तो अपनी शादी की बात मजाक में कही थी, जबकि मैं सचमुच पहले से शादीशुदा थी. मेरा 2 साल का एक बेटा भी है.’’

उस की बात सुन कर मैं स्तब्ध रह गया. मुझे लगा, जैसे किसी ने अचानक मेरी छाती में खंजर घोंप दिया हो.

मेरे मुंह से घुटीघुटी सी आवाज में चंद शब्द निकले, ‘‘तु… तुम्हारी शादी हो चुकी है.’’

‘‘हां, आज मेरी शादी की चौथी सालगिरह है. मैं अपने पति और बेटे के साथ ही यहां सेलीब्रेशन के लिए आई हूं.’’

मुझे एक और झटका लगा. मैं ने मन मसोस कर पूछा, ‘‘तुम्हारा पति और बेटा, क्या वे भी यहां आए हैं?’’

‘‘बस अपने ही वाले हैं. लेकिन तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है. दरअसल, मैं मजाकिया स्वभाव की हूं. तुम से जब मजाकमजाक में बात आगे बढ़ी, तो मैं ने मजाक में झूठ बोल दिया. इस तरह बात आगे बढ़ती गई और मैं ने तुम से दोस्ती कर ली,’’ दीपाली धाराप्रवाह बोलती गई, ‘‘लेकिन, तब मैं नहीं जानती थी कि तुम सचमुच मुझ से प्रेम करने लगोगे और मजाकमजाक में शुरू हुआ यह सिलसिला इतना गंभीर मोड़ ले लेगा. अपने पति के ही कहने पर मैं ने आज तुम्हें यहां बुलाया है. और पति सबकुछ जानते हैं और हम दोनों चाहते हैं कि इस प्रेमकथा का यहीं अंत हो जाए, क्योंकि इस का कोई भविष्य नहीं है.’’

मैं पत्थर का बुत बना बैठा विस्मय से दीपाली को देख रहा था. तभी एक सुंदर से बच्चे को गोद में संभाले उस का पति भी रिसेप्शन हौल में आ गया. मेरे नजदीक आ कर उस ने मुझ से इस तरह मित्रतापूर्वक ढंग से हाथ मिलाया, जैसे वह मुझे पहले से जानता हो. चंद बातों के बाद उन दोनों ने मेरी उपस्थिति में ही शादी की वर्षगांठ की खुशी में शैंपेन खोली और उस का पहला पैग बना कर मुझे दिया. मैं उसे एक ही घूंट में पी गया.

होटल से लौट कर मैं सीधे घर पहुंचा और बेहाल सा हो कर बिस्तर पर पड़ गया. मेरी आंखें धुआंधुआं हो रही थीं और सिर चकरा रहा था. जिस दीपाली को मैं ने अपनी दुनिया मान लिया था, जिस के आगे मैं कुछ सोच ही नहीं सकता था, आज पता चला कि उस की पहले ही शादी हो चुकी है. मैं उसे ले कर गंभीर था और वह मेरे साथ मजाक कर रही थी. मुझे खुद पर गुस्सा भी आ रहा था और तरस भी. तभी मेरी निगाह सिरहाने साइड टेबल पर रखे मोबाइल पर पड़ी. सबकुछ उसी की वजह से हुआ था. न उस दिन रौंग नंबर लगता और न बात यहां तक पहुंचती.

मैं ने गुस्से मे मोबाइल उठा कर दीवार पर दे मारा. उस के टुकड़े कमरे में इधरउधर बिखर गए. मैं ने तकिए में मुंह छिपा लिया. मेरी आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे. पता नहीं, मैं कब तक रोता रहा. तभी मैं ने महसूस किया, जैसे बेडरूम में कोई आया हो, मैं ने पलट कर देखा, तो चौंका. सामने दीपाली अपने पति के साथ खड़ी थी.

‘‘यह क्या हाल बना लिया तुम ने?’’ दीपाली का पति आगे बढ़ कर मुझे उठाते हुए बोला, ‘‘इतने से मजाक का इतना बुरा मान गए.’’

‘‘मजाक,’’ मैं चौंका.

‘‘बेवकूफ हो तुम, इतनी लंबीलंबी बातों के बावजूद दीपाली को नहीं समझ पाए. बहुत शैतान है ये. तुम ने इसे अप्रैल फूल बनाया था, इसीलिए इस ने भी तुम से बदला लेेने के लिए यह नाटक रचा था.’’

‘‘न… नाटक,’’ मैं ने लड़खड़ाती आवाज में पूछा, ‘‘क… क्या यह सब नाटक था? इस का मतलब कि तुम इस के पति नहीं हो.’’

‘‘मैं दीपाली का पति कैसे हो सकता हूं. अभी तो इस की शादी ही नहीं हुई. मैं इस की बड़ी बहन का पति हूं और जिस बच्चे को तुम ने देखा था, वह मेरा बेटा है.

“दरअसल, दीपाली ने ही मुझे शादी की सालगिरह का यह सारा नाटक रखने के लिए कहा था, ताकि तुम से तुम्हारे ही अंदाज में बदला ले सके.’’

मैं ने दीपाली की ओर देखा. वह मुझे देख कर बड़े ही मनमोहक ढंग से मुसकरा रही थी.

‘‘दोस्त,’’ दीपाली के जीजा ने हंसते हुए कहा, ‘‘प्रेम के मामले में तुम्हारा रौंग नंबर नहीं, बल्कि सही नंबर लगा था. जितना प्रेम तुम दीपाली से करते हो, उतना ही दीपाली भी तुम से करती है.’’

हकीकत बताने के बाद दीपाली के जीजा हम दोनों को अकेला छोड़ कर बाहर चले गए. मैं उठ कर दीपाली के नजदीक पहुंचा. लाज से उस का चेहरा गुलाबी हो गया था. उस के चेहरे पर वैसी लुनाई थी, जैसी अपने प्रेमी का साथ पा कर किसी कुंआरी लड़की के चेहरे पर आ जाती है.

‘‘क्या तुम सचमुच मुझ से प्रेम करती हो?’’ मैं ने दीपाली के चेहरे पर नजरें जमाते हुए पूछा, तो दीपाली ने नजरें झुका कर स्वीकृति में सिर हिला दिया.

‘‘मुझ से शादी करोगी,’’ मैं ने गंभीर हो कर पूछा, तो वह धीरे से बोली, ‘‘हां, मैं तैयार हूं.’’

मैं ने दीपाली को अपनी बांहों में भर लिया. वह भी मुझ से लिपट गई. हम दोनों के दिल के साज पर मुहब्बत का राग बज उठा. हम देर तक एकदूसरे की बांहों में समाए रहे. उस वक्त ऐसा लग रहा था, जैसे हम अनंत आकाश में उड़ रहे हों. सचमुच इस दुनिया में मुहब्बत से ज्यादा खूबसूरत कोई चीज नहीं है… कुछ भी नहीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें