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Property Purchase : मकान व जमीन जब जाएं खरीदने

Property Purchase : आजकल मकान या जमीन खरीदते समय उन लोगों को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जो सही से जांचपरख नहीं करते. कई बार चालाक लोग भी फ्रौड का शिकार हो जाते हैं. ऐसे में जानिए कि जमीन या मकान लेते समय किन बातों का ध्यान रखा जाए.

आज के दौर में जमीन की खरीदारी बेहद कठिन काम हो गया है. एक तो जमीन महंगी हो गई है, दूसरे गलत तरह से बेचीखरीदी जा रही है. इस में सरकार की नाकामी सब से अधिक है. भ्रष्टाचार के चलते एक ही जमीन की कईकई रजिस्ट्री हो जा रही हैं. जमीन को बिकवाने और खरीद में बिचौलिए भी होते हैं जिन को प्रौपर्टी डीलर कहा जाता है. वैसे तो हर शहर विकसित हो रहा है लेकिन बड़े शहरों के विकास ने अपने आसपास के गांव और खेती की जमीन को खत्म कर दिया है. गांव के लोग शहर में रहने को प्राथमिकता दे रहे हैं. इस के लिए वे गांव की जमीन बेच कर शहर के छोटेछोटे मकानों में रहने को आ रहे हैं.

लखनऊ, दिल्ली, पटना, भोपाल जैसे शहरों में जमीन की कीमतें आसमान छू रही हैं. लखनऊ में आवास विकास परिषद ने अनंत नगर परियोजना में प्लौट अलोट किए हैं उन में 2 हजार स्क्वायर फुट वाले प्लौट की कीमत 80 लाख रुपए हो गई है. सरकार का काम सस्ते दरों पर मकान बेचना होता है न कि किसी प्राइवेट बिल्डर की तरह से मुनाफा कमाना. लखनऊ में प्राइवेट सैक्टर में औसतन वेतन 12 से 15 हजार रुपए प्रतिमाह है. ऐसे में सरकार की ये योजनाएं उस के किस काम की हैं? ऐेसे लोग किसी तरह से पैसा जुटा कर सस्ती जमीन, प्लौट या फ्लैट खरीदते हैं तो वहां धोखाधड़ी में फंस जाते हैं.

कई प्राइवेट बिल्डर ऐसी जगहों पर फ्लैट बना देते हैं या लोग मकान बना लेते हैं जो सरकार द्वारा आवासीय नहीं होती हैं. ऐसे में जब घर बन कर तैयार हो जाते हैं तो सरकारी बुलडोजर वहां घर गिराने पहुंच जाता है. लखनऊ के बिजनौर इलाके में 25 घरों की कालोनी को लखनऊ विकास प्राधिकरण ने अवैध घोषित कर दिया है जबकि घरों की रजिस्ट्री और बैंक लोन तक हो चुका है. कई परिवार यहां रहने भी आ गए हैं. कोई कालोनी रातोंरात बन कर तैयार नहीं होती है. जब यह बनती है तब तक सरकारी अफसर सोए रहते हैं. अचानक जागते हैं और फिर बुलडोजर ले कर दरवाजे पर खड़े हो जाते हैं. यह केवल लखनऊ की बात नहीं है. हर जगह यही हालत है.

संभल कर करें जमीन की खरीदारी

आप रहने के लिए मकान खरीद रहे हो या प्लौट या फिर फ्लैट, सावधान रहिए. जमीन के पेपर देख लें. उन के सहीगलत का जितना पता कर सकते हैं, जरूर कर लें. इस के बाद अगर गलत खरीद लिया है तो डरिए नहीं. अपनी जमीन पर कब्जा बनाए रखिए और कोर्ट में लड़ाई लड़िए. डर कर मत भागिए. कोई न कोई हल जरूर निकलेगा. कई तरह के कानून हैं जो आप के पक्ष में होते हैं. अगर आप ने गलत कब्जा नहीं किया है तो आप का नुकसान नहीं होगा.

जमीन की खरीद में बहुत सावधानी बरतने की जरूरत होती है. जमीन खरीदने से पहले सभी आवश्यक दस्तावेजों की जांच करनी चाहिए. इस में खसरा खतौनी, जमाबंदी और नक्शा शामिल हैं. इस के अलावा यह भी देखें कि जमीन पर कोई लोन तो नहीं है. जमीन के मालिक का आईडी प्रूफ भी वैरिफाई कर लें. खसरा खतौनी जमीन के मालिकाना हक और सीमाओं को दर्शाता है. जमाबंदी से यह पता चलता है कि यह जमीन राजस्व रिकौर्ड में किस तरह से दर्ज है. जमीन का नक्शा जमीन के आकार व उस के स्थान को दिखाता है.

तहसील और सब रजिस्ट्रार औफिस से 12 साल का रिकौर्ड निकलवा कर जांच करें कि जमीन पहले कभी बंधक तो नहीं रही है. जमीन खरीदने के पहले यह देखना भी जरूरी है कि जमीन की प्रकृति यानी वह कृषि, आवासीय, व्यावसायिक किस प्रकार की है. यदि घर बनाने के लिए जमीन खरीद रहे हैं तो यह देख लें कि वहां आवासीय अनुमति है. जमीन खरीदने के बाद स्टैंप ड्यूटी भर कर रजिस्ट्री कराएं और फिर दाखिल खारिज कराएं. हर खरीदार जानकार नहीं होता है. ऐसे में वकील की मदद लें. दस्तावेजों की जांच करवाएं.

अगर जनरल पावर औफ अटौर्नी के आधार पर जमीन खरीदी जा रही है तो वह रजिस्टर्ड होनी चाहिए. रजिस्ट्री के बाद दाखिल खारिज कराना जरूरी है. जमीन खरीदने से पहले क्षेत्र के बारे में जानकारी कर लें. वहां की विकास योजनाएं और भविष्य की संभावनाएं क्या है, यह देख लें. किसी भी संदिग्ध चीज को नजरअंदाज न करें और यदि आवश्यक हो तो कानूनी सलाह लें. अपने दस्तावेजों को सुरक्षित रखें और उन की प्रतियां भी फाइल बना कर रखें. आजकल पेपर रखने का चलन कम हो रहा है. फाइल को डिजिटल स्कैन करा कर भी रखें.

धारा 143 क्यों महत्त्वपूर्ण है

उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम 1950 की धारा 143 कृषि भूमि को गैरकृषि उपयोग जैसे आवासीय या व्यावसायिक उददेश्यों के लिए परिवर्तित करने की अनुमति देती है. जमीन के मालिक को सब मजिस्ट्रेट एसडीएम के पास आवेदन करना होता है. यदि एसडीएम संतुष्ट हो जाता है तो वह भूमि के पुनर्वर्गीकरण की घोषणा जारी करता है. यदि आप अपनी खेती की जमीन का कोई दूसरा उपयोग करना चाहते हैं तो धारा 143 के तहत भूमि का रूपांतरण कानूनी रूप से आवश्यक है. अगर आप किसी किसान से अपने मकान बनाने के लिए जमीन खरीद रहे हैं तो यह देख लें कि धारा 143 हुई है या नहीं.

जमीन के संबंध में धारा 80 क्या है

उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006 की धारा 80 कृषि भूमि को गैरकृषि प्रयोजनों जैसे औद्योगिक, वाणिज्यिक या आवासीय उपयोग के लिए बदलने की अनुमति देती है. भूमिधर, औनलाइन आवेदन कर के अपनी कृषि भूमि को गैरकृषि प्रयोजनों के लिए उपयोग करने की अनुमति प्राप्त कर सकता है. आवासीय कालोनी, टाउनशिप कालोनी बनाने वाले बिल्डर कई बार बिना अनुमति लिए अपार्टमैंट बना लेते हैं. ऐेसे में परेशानी तब खड़ी होती है जब बनेबनाए फ्लैट गिराने के लिए बुलडोजर आ जाता है.

धारा 143 और धारा 80 दोनों ही जमीन से जुड़े कानून हैं. धारा 143 को अब धारा 80 के रूप में जाना जाता है. यह नए और पुराने कानून का अंतर है. दोनों ही धाराएं एक तरह से ही काम करती हैं. ये जमीन के प्रारूप और प्रयोग को बदलने के लिए प्रयोग की जाती हैं. मकान के लिए जमीन खरीदते समय इस बात का ध्यान हर हाल में रखना चाहिए. अगर किसी अपार्टमैंट में फ्लैट खरीद रहे हैं तो यह तय कर लें कि इस जमीन का भूउपयोग कानूनन सही से बदल लिया गया है या नहीं.

अगर आप शहर के अपने मकान में रह रहे हैं और वहां से कोई बिजनैस करना चाहते हैं या घर में दुकान खोलना चाहते हैं तो भी आप को मकान का उपयोग बदलवाना पड़ेगा. धारा 80 के तहत ही घर में कमर्शियल एक्टिविटी करने की छूट मिलती है. अगर ऐसा नहीं करते तो नगरनिगम आप के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकता है. कई बार सरकार अपनी तरफ से भी आवासीय को व्यावसायिक उपयोग में बदलने का काम करती है.

फ्लैट खरीदने से पहले कर लें सही से जांच

फ्लैट खरीदने से पहले कई महत्त्वपूर्ण कागजात और कानूनी दस्तावेजों की जांच करनी चाहिए जिस से सुनिश्चित हो सके कि संपत्ति कानूनी तौर पर सुरक्षित है. इन में बिक्री विलेख यानी सेल डीड, शीर्षक विलेख टाइटल डीड, एन्कम्ब्रन्स सर्टिफिकेट यानी अदेय प्रमाणपत्र और औक्यूपैंसी सर्टिफिकेट प्रमुख रूप से शामिल हैं. इस के अतिरिक्त, संपत्ति कर की रसीदें देख लें. अगर रेरा कानून लागू है तो देख लें कि जिस जमीन पर अपार्टमैंट बने हैं वह रेरा एपू्रव्ड है या नहीं. इस में सब से महत्त्वपूर्ण सेल डीड होती है. जो फ्लैट के स्वामित्व को बिल्डर से खरीदार को हस्तांतरित करता है. यह सुनिश्चित करें कि यह पंजीकृत है और इस में सभी नियम और शर्तें स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं. टाइटल डीड से यह पता चलता है कि संपत्ति का शीर्षक स्पष्ट है और विक्रेता के पास इसे बेचने का कानूनी अधिकार है.

एन्कम्ब्रन्स सर्टिफिकेट, जिस को अदेय प्रमाणपत्र कहते हैं, यह बताता है कि संपत्ति पर कोई बकाया या कानूनी देनदारी तो नहीं है, जैसे कि कोई ऋण या कानूनी विवाद. औक्यूपैंसी सर्टिफिकेट यह दर्शाता है कि संपत्ति निर्माण के नियमों और विनियमों के अनुसार पूरी हो चुकी है और रहने योग्य है. संपत्ति कर रसीदें बताती हैं कि संपत्ति कर का भुगतान कर दिया गया है. अगर जमीन रेरा पंजीकरण में आती है तो यह देख लें कि संपत्ति रेरा के तहत पंजीकृत है, यह सुनिश्चित करें कि बिल्डर ने पंजीकरण कराया है और परियोजना रेरा नियमों के आधार पर ही बनी है.

यदि आवश्यक हो तो विभिन्न सरकारी विभागों जैसे नगरनिगम, पानी और बिजली विभाग से एनओसी प्राप्त करें. इस के अतिरिक्त, आप को बिल्डर के साथ डैवलपमैंट एग्रीमैंट, पावर औफ अटौर्नी और अन्य जरूरी दस्तावेजों की भी जांच करनी चाहिए.

रेरा क्या है

रियल एस्टेट विनियमन एवं विकास अधिनियम 2016 को रेरा कहा जाता है. रियल एस्टेट रैगुलेटरी अथौरिटी भारत में रियल एस्टेट क्षेत्र की निगरानी करता है. घर खरीदारों के हितों को बढ़ावा देने और इस क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए रेरा अधिनियम लागू किया गया है. यह आवासीय योजनाओं को बनाने वाले बिल्डर्स और घर खरीदने वाले ग्राहकों के बीच के विवादों को हल करने का काम करता है. इसलिए अगर किसी बिल्डर्स से अपार्टमैंट खरीद रहे हैं तो यह जरूर देखें कि वह परियोजना रेरा द्वारा स्वीकृत है या नहीं.

कुछ राज्यों को छोड़ कर भारत के लगभग सभी राज्यों ने अपने यहां रियल एस्टेट क्षेत्र को विनियमित करने के लिए राज्य रियल एस्टेट नियामक प्राधिकरण स्थापित कर लिए हैं. यूपी रेरा, रेरा गुजरात, रेरा कर्नाटक, रेरा राजस्थान और रेरा महाराष्ट्र जैसे कई हैं. घर खरीदारों और डैवलपर्स के बीच झगड़े और विवादों की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए इस को बनाया गया था. इस के तहत 500 वर्ग मीटर से ज्यादा क्षेत्रफल वाली सभी रियल एस्टेट परियोजनाओं को रेरा प्राधिकरणों के पास पंजीकृत होना अनिवार्य है. इस के अलावा ऐसे प्रत्येक बिल्डर को फ्लैट के खरीदार को निर्माण की प्रगति की जानकारी देनी होगी. समय सीमा का पालन करना होगा.

रेरा अधिनियम 2016 लागू होने के बाद भारत के रियल एस्टेट क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही आई है. रियल एस्टेट डैवलपर्स के लिए किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले राज्य रेरा में पंजीकरण कराना अनिवार्य है, इसलिए भ्रामक दावों की घटनाओं में कमी आई है. रेरा अधिनियम ने राज्यवार नियामक निकायों की स्थापना को अनिवार्य बना दिया है जो प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में रियल एस्टेट विकास पर नजर रखते हैं.

परियोजनाओं में देरी करने या अधिनियम का पालन न करने वाले डैवलपर्स पर जुर्माना लगा कर घर खरीदारों के हितों की रक्षा की जाती है.

घर बनाने से पहले नक्शा पास कराना जरूरी

जब आप अपनी खरीदी जमीन पर मकान बनवाते हैं तो पहले मकान का नक्शा सरकारी विभाग, जैसे शहर में हैं तो वहां के विकास प्राधिकरण और अगर शहरी सीमा से बाहर है तो जिला पंचायत से मकान का नक्शा पास कराना जरूरी होता है. यह नक्शा उत्तर प्रदेश आवास भवन निर्माण एवं विकास उपविधि 2008, जिस को 2025 में संशोधित किया गया है, के अनुसार पास कराया जाता है. नक्शा पहले आर्किटैक्ट से बनवाना पड़ता है. नक्शा बनवाने के लिए पैसा देना पड़ता है.

इस के बाद नक्शा विकास प्राधिकरण, नगरनिगम या फिर जिला पंचायत के औफिस में जमा करना पड़ता है. इस का निर्धारित शुल्क है. इस के बाद इंजीनियर नक्शा पास करते हैं. नक्शा पास कराने के बाद ही मकान बनाने की अनुमति दी जाती है. इस में भ्रष्टाचार खूब होता है. नक्शा पास करने के नाम पर मनमानी की जाती है.

उत्तर प्रदेश में सरकार ने भवन निर्माण से जुड़ी परेशानियों से राहत देने के लिए उत्तर प्रदेश आवास भवन निर्माण एवं विकास उपविधि 2008 में बदलावों को मंजूरी दी है. जिस से अब 1,000 वर्ग फुट तक के प्लौट पर मकान बनाने के लिए नक्शा पास कराना जरूरी नहीं होगा. इस के अतिरिक्त 5,000 वर्ग फुट तक के प्लौट के लिए सिर्फ आर्किटैक्ट का प्रमाणपत्र ही पर्याप्त होगा. इस के तहत पहले जहां अपार्टमैंट के लिए 2,000 वर्गमीटर प्लौट अनिवार्य था, अब 1,000 वर्गमीटर में भी अपार्टमैंट निर्माण की अनुमति मिल सकेगी. साथ ही, अस्पताल और कमर्शियल बिल्डिंग के लिए 3,000 वर्गमीटर पर्याप्त होगा.

अब घर से ही प्रोफैशनल सर्विसेस चलाने का नियम बना दिया गया है. इस के तहत 25 फीसदी हिस्से में नर्सरी, क्रेच, होम स्टे या फिर वकील, डाक्टर, आर्किटैक्ट, आईटी जैसे प्रोफैशनल्स अपने दफ्तर चला सकेंगे. इस के लिए नक्शे में अलग से उल्लेख करना जरूरी नहीं होगा.

रिहायशी इलाकों में 24 मीटर या उस से चौड़ी सड़क वाले क्षेत्रों में दुकानें और दफ्तर खोले जा सकेंगे. इस के साथ ही वकील, डाक्टर जैसे प्रोफैशनल्स कम चौड़ाई वाली सड़कों पर भी अपने औफिस खोल सकते हैं. 45 मीटर चौड़ी सड़क पर किसी भी ऊंचाई की इमारत बनाने की इजाजत मिलेगी. वहीं, फ्लोर एरिया रेशियो अब तीनगुना तक बढ़ा दिया गया है.

इस तरह से जब मकान बनवाने, फ्लैट खरीदने जा रहे हैं तो उस से जुड़े कानूनी पहलुओं को समझ लें. उन की जानकारी वकीलों द्वारा मिल सकती है. इस के अलावा पत्रपत्रिकाओं और किताबों में यह छपती रहती है. वहां से पता कर सकते हैं. किसी भी लैवल पर किसी भी तरह की शंका का समाधान जरूरी होता है, तभी आप कानूनी पचड़ों से बच सकते हैं.  Property Purchase

Diamond Value : हीरा कीमती क्यों

Diamond Value : दुनियाभर में हीरे की मांग तेजी से बढ़ रही है. इसे स्टाइल और स्टेटस सिंबल शुरू से ही माना जाता था. अब आम स्वीकार्यता बढ़ने लगी है. महिलाएं इस की चमक के आगे सोने को भी फीका समझने लगी हैं.

अपने प्लौट पर घर बनवाने के चक्कर में अनुज की सारी बचत लगभग खत्म होने को थी. अभी सैकंड फ्लोर पर टाइल्स और वुड का सारा काम बचा हुआ था. फिर छत भी पड़नी थी. अनुज कर्ज नहीं लेना चाहता था. उस ने पत्नी के कुछ गहने बेचने की बात सोची. मगर अंजलि तो यह सुनते ही बिफर गई, ‘मैं अपने गहने हरगिज नहीं दूंगी.’

‘अच्छा, तुम अपने मत दो मगर अम्मा का वह नैकलेस-टौप्स ही निकाल दो जो हीरे का है,’ अनुज ने मनुहार की.

‘उन की तरफ तो तुम आंख उठा कर भी नहीं देखना. एक वही सैट तो है जिस को पहन कर लगता है कि हमारा भी समाज में कुछ स्टेटस है. वरना ये सोने के गहने तो हर किसी के पास हैं. तुम से तो उम्मीद नहीं कि तुम मुझे कभी वैसा हीरे का हार बनवा कर दोगे. जो है, वह भी बेच डालो,’ गुस्से से उलाहना देती अंजलि पैर पटकते हुए दूसरे कमरे में चली गई.

अंजलि ने गहने देने से साफ इनकार कर दिया तो अनुज मायूस हो गया. मरता क्या न करता, आखिर में उसे अपने बड़े भाई से 5 लाख रुपए उधार लेने पड़े. अगर अंजलि वह हीरे का हार और टौप्स दे देती तो वे कम से कम 8 लाख रुपए के बिक जाते. पुराने पुश्तैनी जेवर हैं, जिन में 10 बड़े हीरों के साथसाथ 4 लाल भी जड़े हैं. मगर अंजलि उस सैट को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करती है.

अंजलि की बात भी सही है. हीरे के जेवर सोने से ज्यादा कीमती होते हैं. इन से लोगों को आप का स्टेटस भी पता चलता है. हीरे का जेवर पहन कर कोई भी महिला खुद को गौरवान्वित महसूस करती है. हीरा सिर्फ एक आभूषण ही नहीं होता, बल्कि यह प्रतिष्ठा, सौंदर्य और आत्मविश्वास का भी प्रतीक माना जाता है. जब कोई महिला हीरा धारण करती है तो वह अपने व्यक्तित्व में एक अलग ही चमक महसूस करती है.

हीरे की चमक और दुर्लभता उसे अनमोल बनाती है. यह समृद्धि और शान का प्रतीक तो है ही, हीरा पहनने से महिला को लगता है कि वह भी उतनी ही खास और अनमोल है जितना कि वह रत्न. समाज में हीरे को हमेशा से रौयल्टी और गौरव से जोड़ा गया है, इसलिए इसे धारण करने से आत्मगौरव की भावना खुदबखुद आ जाती है. हीरे का हार किसी औरत के गले में हो तो लोगों की नजरें उस पर से हटती नहीं हैं.

ज्यादातर औरतें सोने की तुलना में हीरे के गहनों को ज्यादा पसंद करती हैं. इस के पीछे कई मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सौंदर्य कारण हैं. हीरे के जेवरों का आकर्षण, चमक और पारदर्शिता उसे सोने से कहीं अधिक आकर्षक बनाती है. हीरे की ‘फायर’ (रंगीन चमक) गहनों को और ग्लैमरस बनाती है. हीरा स्टेटस और लग्जरी का प्रतीक है. इस से आप की संपन्नता झलकती है. पश्चिमी संस्कृति में तो हीरे को ‘फौरएवर’ यानी हमेशा टिकाऊ प्रेम का प्रतीक कहा जाता है. इसलिए ज्यादातर इंगेजमैंट रिंग में हीरा ही जड़ा होता है.

मौडर्न ज्वैलरी डिजाइन में हीरे का इस्तेमाल ज्यादा होता है, जो हर ड्रैस और अवसर के साथ मेल खाता है. सोना कभीकभी ज्यादा पारंपरिक या भारी लग सकता है, जबकि हीरा एलीगेंट और मौडर्न दिखता है.

हीरे के गहने सोने से ज्यादा दुर्लभ और यूनीक लगते हैं. हर हीरा अलग कट, रंग और क्लैरिटी वाला होता है, जो पहनने वाले को खास एहसास देता है. बहुत सी औरतों के लिए हीरा सिर्फ गहना नहीं, बल्कि प्यार, रिश्ते और यादों की निशानी होता है. इंगेजमैंट रिंग या एनिवर्सरी गिफ्ट के तौर पर हीरा मिलने पर वे खुशी से झुम उठती हैं. औरतें पार्टियों में ही नहीं, बल्कि रोजमर्रा में पहनने के लिए भी हीरे को ज्यादा ग्लैमरस मानती हैं. सोना ‘सेफ्टी’ है, लेकिन हीरा ‘ब्यूटी और स्टेटस’ का प्रतीक है.

सोना निवेश के लिहाज से बेहतर है क्योंकि वह आसानी से बेचा जा सकता है और उस की कीमत अलगअलग दुकानों पर अलगअलग नहीं होती, जबकि हीरे को हर दुकानदार अपने हिसाब से परख कर उस की कीमत लगाता है.

असली हीरे की क्या पहचान है

हीरे की पहचान करना आसान नहीं होता, क्योंकि नकली हीरे जैसे क्यूबिक जरिकोनिया, अमेरिकन डायमंड, मोइसानाइट बिलकुल असली जैसे दिखते हैं. लेकिन कुछ परखने के तरीके हैं जिन से असली और नकली में फर्क समझ जा सकता है. सच्चे हीरे की पहचान उस की कठोरता से होती है.

हीरा दुनिया का सब से कठोर प्राकृतिक खनिज है. यह कांच, स्टील या धातु को भी आसानी से खुरच सकता है. नकली हीरे इतने कठोर नहीं होते हैं. इस के अलावा असली हीरा सफेद और रंगीन रोशनी को बहुत तीव्रता से परावर्तित करता है. नकली हीरे में यह चमक कम होती है या ज्यादा इंद्रधनुषी दिखाई देती है.

फौग टैस्ट से भी असली और नकली हीरे की पहचान की जाती है. असली हीरे पर सांस छोड़ने पर धुंध यानी फौग टिकती नहीं है, वह तुरंत गायब हो जाती है, जबकि नकली हीरे पर यह धुंध कुछ सैकंड तक टिकी रहती है. पानी में डाल कर भी हीरे की पहचान की जाती है. असली हीरा बहुत डैंस यानी घना होता है और पानी में डालने पर तुरंत नीचे डूब जाता है, जबकि नकली हीरा कई बार तैरता रहता है या धीरेधीरे नीचे बैठता है.

असली हीरे में हलकीफुलकी प्राकृतिक खामियां होती हैं, जबकि नकली हीरा बिलकुल साफ और एकदम परफैक्ट दिखता है. असली हीरे को कागज या अखबार पर रखने से शब्द साफ नहीं दिखते जबकि नकली हीरे से शब्द या अक्षर साफ दिखाई दे जाते हैं. वहीं असली हीरा बहुत ज्यादा गरम होने पर भी नहीं टूटता, जबकि नकली हीरा अचानक गरम करने पर टूट सकता है.

ये तो सब हीरे की परख के घरेलू तरीके हैं मगर सब से भरोसेमंद तरीका है जीआईए (जेमोलौजिकल इंस्टिट्यूट औफ अमेरिका) या आईजीआई जैसी अंतर्राराष्ट्रीय संस्था का सर्टिफिकेट लेना. साधारण परख घर पर हो सकती है, लेकिन असलीनकली का 100 फीसदी प्रमाण केवल जेमोलौजिस्ट या लैब टैस्ट से ही मिलता है.

बहुमूल्य हीरा कोहेनूर

सर्वविदित है कि कोहेनूर हीरा दुनिया के सब से मशहूर और बहुमूल्य हीरों में गिना जाता है. इस का इतिहास लगभग 800 साल पुराना माना जाता है. समयसमय पर यह हीरा अलगअलग शासकों और साम्राज्यों के हाथों में रहा और आखिरकार ब्रिटेन पहुंच गया. इस के कीमती होने के पीछे सिर्फ इस का आकार या चमक ही कारण नहीं है, बल्कि कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक पहलू भी जुड़े हुए हैं.

कोहेनूर अपने समय में दुनिया का सब से बड़ा हीरा था. इस का वजन मूलरूप से लगभग 793 कैरेट था, मगर काटने और पौलिशिंग के बाद यह अब करीब 105.6 कैरेट ही रह गया है. कोहेनूर की चमक और पारदर्शिता अद्वितीय मानी जाती है.

कोहेनूर हीरा भारत की खान से निकला और प्राचीन काल से ही शाही खजानों का हिस्सा रहा. यह कई राजवंशों, जैसे- मुगल, फारसी, अफगान, सिख, ब्रिटिश के हाथों से गुजरा और हर शासक इसे शक्ति और समृद्धि का प्रतीक मानता था.

कोहेनूर हीरे की यात्रा

13वीं शताब्दी (लगभग 1200:1300) में कोहेनूर हीरा काकतीय वंश (आंध्र प्रदेश, भारत) के काकतीय मंदिर (वारंगल के श्रीरामलिंगेश्वर मंदिर) में देवीदेवताओं के मुकुट में जड़ा हुआ था. इसे उस समय ‘राजा का रत्न’ कहा जाता था. 14वीं शताब्दी (1323) में दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने वारंगल पर आक्रमण किया और कोहेनूर अपने कब्जे में लिया.

16वीं शताब्दी (1526) में यह हीरा मुगल सम्राट बाबर के पास पहुंचा. बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में इस हीरे का उल्लेख किया है. इस के बाद यह हीरा मुगलों की शाही धरोहर बन गया और शाहजहां ने इसे अपने मयूर सिंहासन में जड़वाया.

वर्ष 1739 में जब फारस (ईरान) के शासक नादिर शाह ने भारत पर आक्रमण किया तब वह मयूर सिंहासन समेत कोहेनूर को लूट कर ईरान ले गया. नादिर शाह ने ही इस का नाम रखा ‘कोह-ए-नूर’ यानी ‘प्रकाश का पर्वत’. 1747:1751 में नादिर शाह की हत्या के बाद यह हीरा उस के सेनापति अहमद शाह अब्दाली (दुर्रानी वंश, अफगानिस्तान) के पास पहुंचा. बाद में कोहेनूर हीरा अब्दाली के वंशज शुजा शाह दुर्रानी के पास आ गया.

19वीं शताब्दी की शुरुआत में अफगानिस्तान में राजनीतिक संघर्ष के दौरान शुजा शाह को लाहौर भागना पड़ा और उस ने यह हीरा 1813 में सिख साम्राज्य के महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया. रणजीत सिंह ने इसे सिख साम्राज्य का शाही खजाना बना दिया.

दलीप सिंह पंजाब के अंतिम सिख महाराजा थे जिन के पास कोहेनूर हीरा था, जिन्हें 10 साल की उम्र में जबरन कोहेनूर अंगरेजों को देने के लिए फोर्स किया गया था.

1849 में प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध और द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने पंजाब पर कब्जा कर लिया. तब लाहौर संधि 1849 के तहत कोहेनूर हीरा ब्रिटिशों के हवाले कर दिया गया. 1850 में महारानी विक्टोरिया के आदेश पर कोहेनूर हीरा इंगलैंड ले जाया गया और इसे महारानी विक्टोरिया के मुकुट में जड़ दिया गया.

आज भी कोहेनूर हीरा ब्रिटिश शाही परिवार के मुकुट में जड़ा हुआ है. इसे लंदन के टावर औफ लंदन में सुरक्षित रखा गया है.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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भारत में हीरा कारोबार

भारत दुनिया के सब से बड़े हीरा व्यापारिक केंद्रों में से एक माना जाता है. भारत दुनिया का पहला देश था जहां से प्राकृतिक हीरों की खोज हुई. प्राचीन गोलकुंडा खान, आंध्र प्रदेश में पहली बार हीरा प्राप्त हुआ. कोहेनूर, दरिया ए नूर जैसे ऐतिहासिक हीरे भारत से ही निकले. मुगल काल से हीरा व्यापार दुनियाभर में फैला.

भारत आज कच्चे हीरों का सब से बड़ा काटछांट (कटिंग एंड पौलिशिंग) केंद्र है. विश्व के लगभग 90 फीसदी हीरे भारत में कट और पौलिश किए जाते हैं. सूरत (गुजरात) हीरा उद्योग की राजधानी है. यहां लाखों कारीगर कटिंग एंड पौलिशिंग में लगे हैं. मुंबई में हीरों का मुख्य व्यापारिक हब है. यहां भारत डायमंड बोर्स : दुनिया की सब से बड़ी डायमंड ट्रेडिंग बिल्ंिडग है.

भारतीय हीरा उद्योग का आकार लगभग 35:40 अरब अमेरिकी डौलर का है. यह भारत के कुल रत्न और आभूषण निर्यात का लगभग 70 फीसदी हिस्सा बनाता है. इस क्षेत्र में करीब 10 लाख से ज्यादा लोग रोजगार पाए हुए हैं.

भारत कच्चे हीरे मुख्य रूप से अफ्रीका, रूस, कनाडा जैसे देशों से आयात करता है. कटे और पौलिश किए हीरे अमेरिका, यूरोप, चीन, हौंगकौंग और यूएई को निर्यात होते हैं. अमेरिका भारत के हीरों का सब से बड़ा खरीदार है.

रूसयूक्रेन युद्ध के बाद रूस से हीरों की सप्लाई काफी प्रभावित हुई है. चीन और अन्य देशों की प्रतिस्पर्धा और हीरों की प्रामाणिकता (सिंथेटिक/लैब-ग्रोन डायमंड्स) आज हमारे सामने एक बड़ी चुनौती हैं.

लैब ग्रोन डायमंड्स में भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है. सरकार इस क्षेत्र को प्रोत्साहन देने के लिए पीएलआई स्कीम और टैक्स रियायतें दे रही है. मगर क्रिसिल के विश्लेषण के अनुसार, नए अमेरिकी टैरिफ्स (25 फीसदी और बाद में 50 फीसदी) की वजह से भारत के पौलिश्ड डायमंड एक्सपोर्ट में 20:25 फीसदी की गिरावट की संभावना है, जिस से मार्जिन्स पर भी दबाव आएगा.

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हीरे और सोने की तुलना

सोना और हीरा दोनों ही बहुमूल्य रत्न/धातु माने जाते हैं, लेकिन उन की कीमत तय करने के मानदंड अलगअलग होते हैं. सोने की कीमत वजन (ग्राम/तोला/औंस) के हिसाब से तय होती है और यह अंतर्राष्ट्रीय बाजार (लंदन बुलियन मार्केट) और मांग-आपूर्ति पर निर्भर करता है. जैसे अगस्त 2025 में भारत में सोने की कीमत लगभग 10,090 रुपए प्रति ग्राम (24 कैरेट) है. वहीं हीरे की कीमत वजन से नहीं, बल्कि 4सी नियम: कट, क्लैरिटी, कलर, कैरेट वेट से तय होती है. 1 कैरेट (लगभग 0.2 ग्राम) हीरे की कीमत कुछ हजार रुपए से ले कर कई लाख रुपए या करोड़ों तक हो सकती है. उदाहरण के तौर पर 1 कैरेट का साधारण हीरे का मूल्य 70,000 रुपए से ले कर 1.5 लाख रुपए तक हो सकता है. 1 कैरेट का उच्च गुणवत्ता वाला हीरा 10 लाख रुपए से भी अधिक मूल्य का हो सकता है.

अगर सिर्फ वजन के हिसाब से तुलना करें तो 1 ग्राम सोना 7,000 रुपए का है तो वहीं 1 ग्राम हीरा (यानी लगभग 5 कैरेट) की कीमत 3 से 50 लाख रुपए तक हो सकती है. यह दाम उस की क्वालिटी को देख कर निकाला जाता है. मतलब, सामान्यतौर पर हीरा सोने से कई सौ गुना ज्यादा महंगा होता है.

सोना हमेशा लिक्विड एसेट (आसानी से खरीदा-बेचा जाने वाला) है, जबकि हीरे का पुनर्विक्रय मूल्य (रीसेल वैल्यू) उतना स्थिर नहीं होता. परंतु 1 कैरेट हीरा, भले ही वह निम्न गुणवत्ता वाला हो, सोने से लगभग 20:100 गुना महंगा होता है.

हीरा बनता कैसे है

हीरा वास्तव में शुद्ध कार्बन का क्रिस्टलीय रूप है. जैसे पैंसिल में इस्तेमाल होने वाला ग्रेफाइट भी कार्बन से बना होता है, वैसे ही हीरा भी कार्बन से ही बनता है. फर्क केवल उन के क्रिस्टल स्ट्रक्चर का है. हीरा बनने की प्रक्रिया बहुत ही अद्भुत और वैज्ञानिक है. यह धरती की गहराई में लाखोंकरोड़ों सालों में बनता है. हीरा धरती की सतह से लगभग 140:200 किलोमीटर गहराई में बनता है, जहां पर तापमान लगभग 1000:1200 डिग्री सैंटिग्रेड और दबाव 45:60 किलोबार (यानी लाखों गुना ज्यादा) होता है. इतनी ऊंची गरमी और दबाव के कारण कार्बन अणु एक खास तरीके से टेट्राहेड्रल संरचना में जम जाते हैं, जिस से हीरे का कठोर क्रिस्टल बनता है.

हीरे बनने के बाद वे धरती की गहराई में लाखों वर्षों तक रहे. लाखों साल पहले ज्वालामुखी विस्फोट हुए जिन्होंने इन हीरों को सतह तक पहुंचाया. यह ज्वालामुखी विशेष प्रकार की चट्टानों के साथ हीरों को भी ऊपर ले आया. आज हीरे अनेक खदानों में पाए जाते हैं.  Diamond Value

Hindi Love Stories : कुछ कहना था तुम से – 10 साल बाद सौरव को क्यों आई वैदेही की याद ?

Hindi Love Stories : वैदेही का मन बहुत अशांत हो उठा था. अचानक 10 साल बाद सौरव का ईमेल पढ़ बहुत बेचैनी महसूस कर रही थी. वह न चाहते हुए भी सौरव के बारे में सोचने को मजबूर हो गई कि क्यों मुझे बिना कुछ कहे छोड़ गया था? कहता था कि तुम्हारे लिए चांदतारे तो नहीं ला सकता पर अपनी जान दे सकता है पर वह भी नहीं कर सकता, क्योंकि मेरी जान तुम में बसी है. वैदेही हंस कर कहती थी कि कितने झूठे हो तुम… डरपोक कहीं के. आज भी इस बात को सोच कर वैदेही के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई थी पर दूसरे ही क्षण गुस्से के भाव से पूरा चेहरा लाल हो गया था. फिर वही सवाल कि क्यों वह मुझे छोड़ गया था? आज क्यों याद कर मुझे ईमेल किया है?

वैदेही ने मेल खोल पढ़ा. सौरव ने केवल 2 लाइनें लिखी थीं, ‘‘आई एम कमिंग टू सिंगापुर टुमारो, प्लीज कम ऐंड सी मी… विल अपडेट यू द टाइम. गिव मी योर नंबर विल कौल यू.’’

यह पढ़ बेचैन थी. सोच रही थी कि नंबर दे या नहीं. क्या इतने सालों बाद मिलना ठीक रहेगा? इन 10 सालों में क्यों कभी उस ने मुझ से मिलने या बात करने की कोशिश नहीं की? कभी मेरा हालचाल भी नहीं पूछा. मैं मर गई हूं या जिंदा हूं… कुछ भी तो जानने की कोशिश नहीं की. फिर क्यों वापस आया है? सवाल तो कई थे पर जवाब एक भी नहीं था.

जाने क्या सोच कर अपना नंबर लिख भेजा. फिर आराम से कुरसी पर बैठ कर सौरव से हुई पहली मुलाकात के बारे में सोचने लगी…

10 साल पहले ‘फोरम द शौपिंग मौल’ के सामने और्चर्ड रोड पर एक ऐक्सीडैंट में वैदेही सड़क पर पड़ी थी. कोई कार से टक्कर मार गया था. ट्रैफिक जाम हो गया था. कोई मदद के लिए सामने नहीं आ रहा था. किसी सिंगापोरियन ने हैल्पलाइन में फोन कर सूचना दे दी थी कि फलां रोड पर ऐक्सीडैंट हो गया है, ऐंबुलैंस नीडेड.

वैदेही के पैरों से खून तेजी से बह रहा था. वह रोड पर हैल्प… हैल्प चिल्ला रही थी, पर कोई मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था. उसी ट्रैफिक जाम में सौरव भी फंसा था. न जाने क्या सोच वह मदद के लिए आगे आया और फिर वैदेही को अपनी ब्रैंड न्यू स्पोर्ट्स कार में हौस्पिटल ले गया.

वैदेही हलकी बेहोशी में थी. सौरव का उसे अपनी गोद में उठा कर कार तक ले जाना ही याद था. उस के बाद तो वह पूरी बेहोश हो गई थी. पर आज भी उस की वह लैमन यलो टीशर्ट उसे अच्छी तरह याद थी. वैदेही की मदद करने के ऐवज में उसे कितने ही चक्कर पुलिस के काटने पड़े थे. विदेश के अपने पचड़े हैं. कोई किसी

की मदद नहीं करता खासकर प्रवासियों की. फिर भी एक भारतीय होने का फर्ज निभाया था. यही बात तो दिल को छू गई थी उस की. कुछ अजीब और पागल सा था. जब जो उस के मन में आता था कर लिया करता था. 4 घंटे बाद जब वैदेही होश में आई थी तब भी वह उस के सिरहाने ही बैठा था. ऐक्सीडैंट में वैदेही की एक टांग में फ्रैक्चर हो गया था, मोबाइल भी टूट गया था. सौरव उस के होश में आने का इंतजार कर रहा था ताकि उस से किसी अपने का नंबर ले इन्फौर्म कर सके.

होश में आने पर वैदेही ने ही उसे अच्छी तरह पहली बार देखा था. देखने में कुछ खास तो नहीं था पर फिर भी कुछ तो अलग बात थी.

कुछ सवाल करती उस से पहले ही उस ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप होश में आ गईं वरना तो आप के साथ मुझे भी हौस्पिटल में रात काटनी पड़ती. खैर, आई एम सौरव.’’

सौरव के तेवर देख वैदेही ने उसे थैंक्यू नहीं कहा.

वैदेही से उस ने परिवार के किसी मैंबर का नंबर मांगा. मां का फोन नंबर देने पर सौरव ने अपने फोन से उन का नंबर मिला कर उन्हें वैदेही के विषय में सारी जानकारी दे दी. फिर हौस्पिटल से चला गया. न बाय बोला न कुछ. अत: वैदेही ने मन ही मन उस का नाम खड़ूस रख दिया.

उस मुलाकात के बाद तो मिलने की उम्मीद भी नहीं थी. न उस ने वैदेही का नंबर लिया था न ही वैदेही ने उस का. उस के जाते ही वैदेही की मां और बाबा हौस्पिटल आ पहुंचे थे. वैदेही ने मां और बाबा को ऐक्सीडैंट का सारा ब्योरा दिया और बताया कैसे सौरव ने उस की मदद की.

2 दिन हौस्पिटल में ही बीते थे.

ऐसी तो पहली मुलाकात थी वैदेही और सौरव की. कितनी अजीब सी… वैदेही सोचसोच मुसकरा रही थी. सोच तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. सौरव के ईमेल ने वैदेही के पुराने सारे मीठे और दर्द भरे पलों को हरा कर दिया था.

ऐक्सीडैंट के बाद पंद्रह दिन का बैडरेस्ट लेने को कहा गया

था. नईनई नौकरी भी जौइन की थी तब वैदेही ने. घर पहुंच वैदेही ने सोचा औफिस में इन्फौर्म कर दे. मोबाइल खोज रही थी तभी याद आया मोबाइल तो हौस्पिटल में सौरव के हाथ में था और शायद अफरातफरी में उस ने उसे लौटाया नहीं था. पर इन्फौर्म तो कर ही सकता था. उफ, सारे कौंटैक्ट नंबर्स भी गए. वैदेही चिल्ला उठी थी. तब अचानक याद आया कि उस ने अपने फोन से मां को फोन किया था. मां के मोबाइल में कौल्स चैक की तो नंबर मिल गया.

तुरंत नंबर मिला अपना इंट्रोडक्शन देते हुए उस ने सौरव से मोबाइल लौटाने का आग्रह किया. तब सौरव ने तपाक से कहा, ‘‘फ्री में नहीं लौटाऊंगा. खाना खिलाना होगा… कल शाम तुम्हारे घर आऊंगा… एड्रैस बताओ.’’

वैदेही के तो होश ही उड़ गए. मन में सोचने लगी कैसा अजीब प्राणी है यह. पर मोबाइल तो चाहिए ही था. अत: एड्रैस दे दिया.

अगले दिन शाम को महाराज हाजिर भी हो गए थे. सारे घर वालों को सैल्फ इंट्रोडक्शन भी दे दिया और ऐसे घुलमिल गया जैसे सालों से हम सब से जानपहचान हो. वैदेही ये सब देख हैरान भी थी और कहीं न कहीं एक अजीब सी फीलिंग भी हो रही थी. बहुत मिलनसार स्वभाव था. मां, बाबा और वैदेही की छोटी बहन तो उस की तारीफ करते नहीं थक रहे थे. थकते भी क्यों उस का स्वभाव, हावभाव सब कितना अलग और प्रभावपूर्ण था. वैदेही उस के साथ बहती चली जा रही थी.

वह सिंगापुर में अकेला रहता था. एक कार डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी में मैनेजर था. तभी आए दिन उसे नई कार का टैस्ट ड्राइव करने का मौका मिलता रहता था. जिस दिन उस ने वैदेही की मदद की थी उस दिन भी न्यू स्पोर्ट्स कार की टैस्ट ड्राइव पर था. उस के मातापिता इंडिया में रहते थे.

इस दौरान अच्छी दोस्ती हो गई थी. रोज आनाजाना होने लगा था. वैदेही के परिवार के सभी लोग उसे पसंद करते थे. धीरेधीरे उस ने वैदेही के दिल में खास जगह बना ली. उस के साथ जब होती थी तो लगता था ये पल यहीं थम जाएं. वैदेही को भी यह एहसास हो चला था कि सौरव के दिल में भी उस के लिए खास फीलिंग्स हैं. मगर अभी तक उस ने वैदेही से अपनी फीलिंग्स कही नहीं थीं.

15 दिन बाद वैदेही ने औफिस जौइन कर लिया. सौरव और वैदेही का औफिस और्चर्ड रोड पर ही था. सौरव अकसर वैदेही को औफिस से घर छोड़ने आता था. फ्रैक्चर होने की वजह से

6 महीने केयर करनी ही थी. वैदेही को उस का लिफ्ट देना अच्छा लगता था.

आज भी वैदेही को याद है सौरव ने उसे

2 महीने के बाद उस के 22वें बर्थडे पर प्रपोज किया था. औसतन लोग अपनी प्रेमिका को गुलदस्ता या चौकलेट अथवा रिंग के साथ प्रपोज करते हैं, पर उस ने वैदेही के हाथों में एक कार का छोटा सा मौडल रखते हुए कहा कि क्या तुम अपनी पूरी जिंदगी का सफर मेरे साथ तय करना चाहोगी? कितना पागलपन और दीवानगी थी उस की बातों में. वैदेही उसे समझने में असमर्थ थी. यह कहतेकहते सौरव उस के बिलकुल नजदीक आ गया और वैदेही का चेहरा अपने हाथों में थामते हुए उस के होंठों को अपने होंठों से छूते हुए दोनों की सांसें एक हो चली थीं. वैदेही का दिल जोर से धड़क रहा था. खुद को संभालते हुए वह सौरव से अलग हुई. दोनों के बीच एक अजीब मीठी सी मुसकराहट ने अपनी जगह बना ली थी.

कुछ देर तो वैदेही वहीं बुत की तरह खड़ी रही थी. जब उस ने वैदेही का उत्तर जानने की उत्सुकता जताई तो वैदेही ने कहा था कि अगले दिन ‘गार्डन बाय द वे’ में मिलेंगे. वहीं वह अपना जवाब उसे देगी.

उस रात वैदेही एक पल भी नहीं सोई थी. कई विषयों पर सोच रही थी जैसे कैरियर, आगे की पढ़ाई और न जाने कितने खयाल. नींद आती भी कैसे, मन में बवंडर जो उठा था. तब वैदेही मात्र 22 साल की ही तो थी और इतनी जल्दी शादी भी नहीं करना चाहती थी. सौरव भी केवल 25 वर्ष का था. पर वैदेही उसे यह बताना भी चाहती थी कि उस से बेइंतहा मुहब्बत हो गई है और जिंदगी का पूरा सफर उस के साथ ही बिताना चाहती है. बस कुछ समय चाहिए था उसे. पर यह बात वैदेही के मन में ही रह गई थी. कभी इसे बोल नहीं पाई.

अगले दिन वैदेही ठीक शाम 5 बजे ‘गार्डन बाय द वे’ में पहुंच गई. वहां पहुंच कर उस ने सौरव को फोन मिलाया तो फोन औफ आ रहा था. उस का इंतजार करने वह वहीं बैठ गई. आधे घंटे बाद फिर फोन मिलाया तब भी फोन औफ ही आ रहा था. वैदेही परेशान हो उठी. पर फिर सोचा कहीं औफिस में कोई जरूरी मीटिंग में न फंस गया हो. वहीं उस का इंतजार करती रही. इंतजार करतेकरते रात के 8 बजे गए, पर वह नहीं आया और उस के बाद उस का फोन भी कभी औन नहीं मिला.

2 साल तक वैदेही उस का इंतजार करती रही पर कभी उस ने उसे एक बार भी फोन नहीं किया. 2 साल बाद मांबाबा की मरजी से आदित्य से वैदेही की शादी हो गई. आदित्य औडिटिंग कंपनी चलाता था. उस के मातापिता सिंगापुर में उस के साथ ही रहते थे.

शादी के बाद कितने साल लगे थे वैदेही को सौरव को भूलने में पर पूरी तरह भूल नहीं पाई थी. कहीं न कहीं किसी मोड़ पर उसे सौरव की याद आ ही जाती थी. आज अचानक क्यों आया है और क्या चाहता है?

वैदेही की सोच की कड़ी को अचानक फोन की घंटी ने तोड़ा. एक अनजान नंबर था. दिल की धड़कनें तेज हो चली थीं. वैदेही को लग रहा था हो न हो सौरव का ही होगा. एक आवेग सा महसूस कर रही थी. कौल रिसीव करते हुए हैलो कहा तो दूसरी ओर सौरव ही था. उस ने अपनी भारी आवाज में ‘हैलो इज दैट वैदेही?’ इतने सालों के बाद भी सौरव की आवाज वैदेही के कानों से होते हुए पूरे शरीर को झंकृत कर रही थी.

स्वयं को संभालते हुए वैदेही ने कहा, ‘‘यस दिस इज वैदेही,’’ न पहचानने का नाटक करते हुए कहा, ‘‘मे आई नो हू इज टौकिंग?’’

सौरव ने अपने अंदाज में कहा, ‘‘यार, तुम मुझे कैसे भूल सकती हो? मैं सौरव…’’

‘‘ओह,’’ वैदेही ने कहा.

‘‘क्या कल तुम मुझ से मरीना वे सैंड्स होटल के रूफ टौप रैस्टोरैंट पर मिलने आ सकती  हो? शाम 5 बजे.’’

कुछ सोचते हुए वैदेही ने कहा, ‘‘हां, तुम से मिलना तो है ही. कल शाम को आ जाऊंगी,’’ कह फोन काट दिया.

अगर ज्यादा बात करती तो उस का रोष सौरव को फोन पर ही सहना पड़ता. वैदेही के दिमाग में कितनी हलचल थी, इस का अंदाजा लगाना मुश्किल था. यह सौरव के लिए उस का प्यार था या नफरत? मिलने का उत्साह था या असमंजसता? एक मिलाजुला भावों का मिश्रण जिस की तीव्रता सिर्फ वैदेही ही महसूस कर सकती थी.

अगले दिन सौरव से मिलने जाने के लिए जब वैदेही तैयार हो रही थी, तभी आदित्य कमरे में आया. वैदेही से पूछा, ‘‘कहां जा रही हो?’’

वैदेही ने कहा, ‘‘सौरव सिंगापुर आया है. वह मुझ से मिलना चाहता है,’’ कह वैदेही चुप हो गई. फिर कुछ सोच आदित्य से पूछा, ‘‘जाऊं या नहीं?’’

आदित्य ने जवाब में कहा, ‘‘हां, जाओ. मिल आओ. डिनर पर मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ कह वह कमरे से चला गया.

आदित्य ने सौरव के विषय में काफी कुछ सुन रखा था. वह यह जानता था कि सौरव को वैदेही के परिवार वाले बहुत पसंद करते थे… कैसे उस ने वैदेही की मदद की थी. आदित्य खुले विचारों वाला इनसान था.

हलके जामुनी रंग की ड्रैस में वैदेही बहुत खूबसूरत लग रही थी. बालों को

ब्लो ड्राई कर बिलकुल सीधा किया था. सौरव को वैदेही के सीधे बाल बहुत पसंद थे. वैदेही हूबहू वैसे ही तैयार हुई जैसे सौरव को पसंद थी. वैदेही यह समझने में असमर्थ थी कि आखिर वह सौरव की पसंद से क्यों तैयार हुई थी? कभीकभी यह समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर किसी के होने का हमारे जीवन में इतना असर क्यों आ जाता है. वैदेही भी एक असमंजसता से गुजर रही थी. स्वयं को रोकना चाहती थी पर कदम थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

वैदेही ठीक 5 बजे मरीना बाय सैंड्स के रूफ टौप रैस्टोरैंट में पहुंची. सौरव वहां पहले से इंतजार कर रहा था. वैदेही को देखते ही वह चेयर से खड़ा हो वैदेही की तरफ बढ़ा और उसे गले लगते हुए बोला, ‘‘सो नाइस टू सी यू आफ्टर ए डिकेड. यू आर लुकिंग गौर्जियस.’’

वैदेही अब भी गहरी सोच में डूबी थी. फिर एक हलकी मुसकान के साथ उस ने कहा, ‘‘थैंक्स फार द कौंप्लीमैंट. आई एम सरप्राइज टु सी यू ऐक्चुअली.’’

सौरव भांप गया था वैदेही के कहने का तात्पर्य. उस ने कहा, ‘‘क्या तुम ने अब तक मुझे माफ नहीं किया? मैं जानता हूं तुम से वादा कर के मैं आ न सका. तुम नहीं जानतीं मेरे साथ क्या हुआ था?’’

वैदेही ने कहा, ‘‘10 साल कोई कम तो नहीं होते… माफ कैसे करूं तुम्हें? आज मैं जानना चाहती हूं क्या हुआ था तुम्हारे साथ?’’

सौरव ने कहा, ‘‘तुम्हें याद ही होगा, तुम ने मुझे पार्क में मिलने के लिए बुलाया था. उसी दिन हमारी कंपनी के बौस को पुलिस पकड़ ले गई थी, स्मगलिंग के सिलसिले में. टौप लैवल मैनेजर को भी रिमांड में रखा गया था. हमारे फोन, अकाउंट सब सीज कर दिए गए थे. हालांकि 3 दिन लगातार पूछताछ के बाद, महीनों तक हमें जेल में बंद कर दिया था. 2 साल तक केस चलता रहा. जब तक केस चला बेगुनाहों को भी जेल की रोटियां तोड़नी पड़ीं. आखिर जो लोग बेगुनाह थे उन्हें तुरंत डिपोर्ट कर दिया गया और जिन्हें डिपोर्ट किया गया था उन में मैं भी था. पुलिस की रिमांड में वे दिन कैसे बीते क्या बताऊं तुम्हें…

‘‘आज भी सोचता हूं तो रूह कांप जाती है. किस मुंह से तुम्हारे सामने आता? इसलिए जब मैं इंडिया (मुंबई) पहुंचा तो न मेरे पास कोई मोबाइल था और न ही कौंटैक्ट नंबर्स. मुंबई पहुंचने पर पता चला मां बहुत सीरियस हैं और हौस्पिटलाइज हैं. मेरा मोबाइल औफ होने की वजह से मुझ तक खबर पहुंचाना मुश्किल था. ये सारी चीजें आपस में इतनी उलझी हुई थीं कि उन्हें सुलझाने का वक्त ही नहीं मिला और तो और मां ने मेरी शादी भी तय कर रखी थी. उन्हें उस वक्त कैसे बताता कि मैं अपनी जिंदगी सिंगापुर ही छोड़ आया हूं. उस वक्त मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा था.

‘‘और फिर जिंदगी की आपाधापी में उलझता ही चला गया. पर तुम हमेशा याद आती रहीं. हमेशा सोचता था कि तुम क्या सोचती होगी मेरे बारे में, इसलिए तुम से मिल कर तुम्हें सब बताना चाहता था. काश, मैं इतनी हिम्मत पहले दिखा पाता. उस दिन जब हम मिलने वाले थे तब तुम मुझ से कुछ कहना चाहती थीं न… आज बता दो क्या कहना चाहती थीं.’’

वैदेही को यह जान कर इस बात की तसल्ली हुई कि सौरव ने उसे धोखा नहीं दिया. कुदरत ने हमारे रास्ते तय करने थे. फिर बोली, ‘‘वह जो मैं तुम से कहना चाहती उन बातों का अब कोई औचित्य नहीं,’’ वैदेही ने अपने जज्बातों को अपने अंदर ही दफनाने का फैसला कर लिया था.

थोड़ी चुप्पी के बाद एक मुसकराहट के साथ वैदेही ने कहा, ‘‘लैट्स और्डर सम कौफी.’’  Hindi Love Stories

Family Story : कोयले की लकीर – सुगंधा खुश थी या दुखी ?

Family Story : विनी ने सोचा न था जिस पितातुल्य इंसान पर वह विश्वास कर रही है वह इंसान उस विश्वास और सम्मान को एक झटके में समाप्त कर देगा. तो क्या वह अपने छलनी तनमन के साथ हार मान बैठ गई? विनी की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी. एमए का रिजल्ट निकल आया था. 80 प्रतिशत मार्क्स आए थे. अपनी मम्मी सुगंधा के लिए उस ने उन की पसंद की मिठाई खरीदी और घर की तरफ उत्साह से कदम बढ़ा दिए. सुगंधा अपनी बेटी की सफलता से अभिभूत हो गईं.

खुशी से आंखें झिलमिला गईं. दोनों मांबेटी एकदूसरे के गले लग गईं. एकदूसरे का मुंह मीठा करवाया. घर में 2 ही तो लोग थे. विनी के पिता आलोक का देहांत हो गया था. सुगंधा सीधीसरल हाउसवाइफ थीं. पति की पैंशन और दुकानों के किराए से घर का खर्च चल जाता था. शाम को वे कुछ ट्यूशंस भी पढ़ाती थीं. विनी ने ड्राइंग ऐंड पेंटिंग में एमए किया था. आलोक को आर्ट्स में विशेष रुचि थी. विनी की ड्राइंग में रुचि देख कर उन्होंने उसे भी इसी क्षेत्र में आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया था.

विनी शाम को कुछ बच्चों को ड्राइंग सिखाया करती थी. पेंटिंग के सामान का खर्च वह इन्हीं ट्यूशंस से निकाल लेती थी. सुगंधा ने बेटी को गर्वभरी नजरों से देखते हुए उस से पूछा, ‘‘अब आगे क्या इरादा है?’’ फिर विनी के जवाब देने से पहले ही उसे छेड़ने लगी, ‘‘लड़का ढूंढ़ा जाए?’’ विनी ने आंखें तरेरीं, ‘‘नहीं, अभी नहीं, अभी मुझे बहुतकुछ करना है.’’ ‘‘क्या सोचा है?’’ ‘‘पीएचडी करनी है. सोच रही हूं आज ही शेखर सर से मिल आती हूं. उन्हें ही अपना गाइड बनाना चाहती हूं. मां, आप को पता है, उन में मुझे पापा की छवि दिखती है. बस, वे मुझे अपने अंडर में काम करने दें.’’ ‘‘मैं तुम्हारे भविष्य में कोई बाधा नहीं बनूंगी, खूब पढ़ाई करो, आगे बढ़ो.’’ विनी अपनी मां की बांहों में छोटी बच्ची की तरह समा गई. सुगंधा ने भी उसे खूब प्यार किया. सुगंधा को अपनी मेहनती, मेधावी बेटी पर नाज था.

रुड़की के आरपी कालेज में एमए करने के बाद वह अपने प्रोफैसर शेखर के अधीन ही पीएचडी करना चाहती थी. शेखर का बेटा रजत विनी का बहुत अच्छा दोस्त था. बचपन से दोनों साथ पढ़े थे. पर रजत को आर्ट्स में रुचि नहीं थी, वह इंजीनियरिंग कर अब जौब की तलाश में था. दोनों हर सुखदुख बांटते थे, एकदूसरे के घर भी आनाजाना लगा रहता था. इन दोनों की दोस्ती के कारण दोनों परिवारों में भी कभीकभी मुलाकात होती रहती थी. विनी ने रजत को फोन कर अपना रिजल्ट और आगे की इच्छा बताई. रजत बहुत खुश हुआ, ‘‘अरे, यह तो बहुत अच्छा रहेगा. पापा बिलकुल सही गाइड रहेंगे. किसी अंजान प्रोफैसर के साथ काम करने से अच्छा यही रहेगा कि तुम पापा के अंडर में ही काम करो. आज ही आ जाओ घर, पापा से बात कर लो.’’ शाम को ही विनी मिठाई ले कर रजत के घर गई. शेखर के पास कुछ स्टूडैंट्स बैठे थे. विनी का बचपन से ही घर में आनाजाना था. वह निसंकोच अंदर चली गई.

शेखर की पत्नी राधा विनी पर खूब स्नेह लुटाती थी. रजत और राधा के साथ बैठ कर विनी गप्पें मारने लगी. थोड़ी देर में शेखर भी उन के साथ शामिल हो गए. दोनों ने उस की सफलता पर शुभाशीष दिए. उस की पीएचडी की इच्छा जान कर शेखर ने कहा, ‘‘ठीक है, अभी कुछ दिन लाइब्रेरी में सभी बुक्स देखो. किसकिस टौपिक पर काम हो चुका है, किस टौपिक पर रिसर्च होनी चाहिए, पहले वह डिसाइड करेंगे. फिर उस पर काम करेंगे. अभी कालेज की लाइब्रेरी में काफी नई बुक्स आई हैं, उन पर एक नजर डाल लो. देखो, क्या आइडिया आता है तुम्हें.’’ विनी उत्साहपूर्वक बोली, ‘‘सर, कल से ही लाइब्रेरी जाऊंगी. शेखर कालेज में विनी का पीरियड लेते थे. विनी उन्हें सर कहने लगी थी. रजत ने हमेशा की तरह टोका, ‘‘अरे, घर में तो पापा को सर मत कहो, विनी, अंकल कहो.’’ विनी हंस पड़ी, ‘‘नहीं, सर ही ठीक है, कहीं अंकल कहने की आदत हो गई और क्लास में मुंह से अंकल निकल गया तो क्या होगा, यह सोचो.

’’ सब विनी की इस बात पर हंस पड़े. विनी ने जातेजाते शेखर के रूम में नजर डाली. शेखर की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगती रहती थी. वह शेखर का बहुत सम्मान करती थी. हर पेंटिंग में स्त्री के अलगअलग भाव मुखर हो उठे थे. कहीं शक्ति बनी स्त्री, कहीं मातृत्व में डूबी स्त्री आकृति, कहीं प्रेयसी का रूप धरे मनोहारी आकृति, कहीं आराध्य का रूप लिए ओजपूर्ण स्त्री आकृति. शेखर के काम की मन ही मन सराहना करती हुई विनी घर लौट आई और सुगंधा को शेखर की सलाह बताई. अगले दिन से ही विनी लाइब्रेरी में किताबें पढ़ने में बिजी रहने लगी. 15 दिनों की खोजबीन के बाद उसे एक विषय सूझा. वह उत्साहित सी शेखर के घर की तरफ बढ़ गई. उसे पता था, रजत अपने दोस्तों के साथ कहीं गया हुआ था.

राधा तो अकसर घर में ही रहती थी. पर शाम को जिस समय विनी शेखर के घर पहुंची, राधा किसी काम से कहीं गई हुई थीं. शेखर घर में अकेले थे. विनी ने उन्हें विश किया. उन के हालचाल पूछे. पूछा, ‘‘आंटी नहीं हैं?’’ उन्होंने कहा, ‘‘अभी आ जाएंगी.’’ ‘‘आज बाकी स्टूडैंट्स नहीं हैं?’’ ‘‘नहीं आजकल उन्हें कुछ काम दिया हुआ है, पूरा कर के आएंगे.’’ ‘‘सर, मैं ने लाइब्रेरी में काफीकुछ देखा, ‘भारतीय गुफाओं में भित्ति चित्रण’ इस पर कुछ काम कर सकते हैं?’’ ‘‘हां, शाबाश, कुछ विषय और देख लो, फिर फाइनल करेंगे,’’ शेखर आज उस के सामने बैठ कर जिस तरह उसे देख रहे थे, विनी कुछ असहज सी हुई. वह जाने के लिए उठती हुई बोली, ‘‘ठीक है, सर, मैं अभी और पढ़ कर आऊंगी.’’

सच है, गृहस्थ हो या संन्यासी, सभी पुरुषों के अंदर एक आदिम पाश्विक वृत्ति छिपी रहती है. किस रूप में, किस उम्र में वह पशु जाग कर अपना वीभत्स रूप दिखाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. ‘‘रुको जरा, विनी मेरे लिए एक कप चाय बना दो. कुछ सिरदर्द है,’’ विनी धर्मसंकट में फंस गई. उस का दिमाग कह रहा था, फौरन चली जा, पर पिता की सी छवि वाले गुरु की बात टालने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी. फिर अपने दिल को ही समझा लिया, नहीं, उस का वहम ही होगा. आजकल माहौल ही ऐसा है न, डर लगा ही रहता है. ‘जी, सर’ कहती हुई वह किचन की तरफ बढ़ गई.

उसे अपने पीछे दरवाजा बंद करने की आहट मिली तो वह चौंक गई. शेखर उस की तरफ आ रहे थे. चेहरे पर न पिता की सी छवि दिखी, न गुरु के से भाव, विनी को उन के चेहरे पर कुटिल मुसकान दिखी. उसे महसूस हुआ जैसे वह किसी खतरे में है. शेखर एकदम उस के पास आ कर खड़े हो गए. उस के कंधों पर हाथ रखा तो विनी पीछे हटने लगी. नारी हर उम्र में पुरुष के अनुचित स्पर्श को भांप लेती है. शेखर बोले, ‘‘घबराओ मत, यह तो अब चलता ही रहेगा. थोड़े और करीब आ जाएं हम दोनों, तो रिसर्च करने में तुम्हें आसानी होगी. तुम्हारी हर मदद करूंगा मैं.’’ नागिन सी फुंफकार उठी विनी, ‘‘शर्म नहीं आती आप को? आप की बेटी जैसी हूं मैं. आप में हमेशा पिता की छवि दिखी है मुझे.’’ ‘‘मैं ने तो तुम्हें कभी बेटी नहीं समझा. तुम अपने मन में मेरे बारे में क्या सोचती हो, उस से मुझे जरा भी मतलब नहीं. आओ मेरे साथ.’’ विनी ने पीछे हटते हुए कहा, ‘‘मैं आंटी, रजत सब को बताऊंगी, आप की यह गिरी हुई हरकत छिपी नहीं रहेगी.’’ ‘‘बाद में बताती रहना, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा,’’

कहते हुए उस का हाथ पकड़ कर बलिष्ठ शेखर उसे बैडरूम तक ले गए. विनी ने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश में उन्हें काफी धक्के दिए. उन का हाथ दांतों से काट भी लिया. पर उन के सिर पर ऐसा शैतान सवार था कि विनी के रोके न रुका और दुर्घटना घट गई. सालों का आदर, विश्वास सब रेत की तरह ढहता चला गया. विनी ने रोरो कर चीखचीख कर शोर मचाया. तो शेखर ने कहा, ‘‘चुपचाप चली जाओ यहां से और जो हुआ उसे भूल जाओ. इसी में तुम्हारी भलाई है. किसी को बताओगी भी, तो जानती हो न, कितने सवालों के घेरे में फंस जाओगी. परिवार, समाज में मेरी इमेज का अंदाजा तो है ही तुम्हें.’’ ‘‘कहीं नहीं जाऊंगी मैं,’’ विनी चिल्लाई, ‘‘आने दो आंटी को, उन्हें और रजत को आप की करतूत बताए बिना मैं कहीं नहीं जाने वाली,’’ शेखर को अब हैरानी हुई, ‘‘बेवकूफी मत करो बदनाम हो जाओगी, कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी, समाज रोज तुम पर ही नएनए ढंग से कीचड़ उछालेगा, पुरुष का कुछ बिगड़ा है कभी?’’ विनी नफरतभरे स्वर में गुर्राई, ‘‘आप ने मेरा रेप किया है,

आप मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे.’’ शेखर ने तो सोचा था विनी रोधो कर चुपचाप चली जाएगी पर वह तो अभी वैसी की वैसी बैठी हुई उन्हें गालियां दिए जा रही थी. हिली भी नहीं थी. इस स्थिति की तो उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी. डोरबेल बजी तो उन के पसीने छूट गए, बोले, ‘‘भागो यहां से, जल्दी.’’ ‘‘मैं कहीं नहीं जा रही.’’ डोरबेल दोबारा बजी तो शेखर के हाथपैर फूल गए, दरवाजा खोला, राधा थीं. शेखर का उड़ा चेहरा देख चौंकी, ‘‘क्या हुआ?’’ शेखर इतना ही बोले, ‘‘सौरी, राधा.’’ ‘‘क्या हुआ, शेखर?’’ तभी बैडरूम से ‘आंटी’ कह कर विनी के तेजी से रोने की आवाज आई. राधा भागीं. बैड पर अर्धनग्न, बेहाल, रोने से फैले काजल की गालों पर सबकुछ स्पष्ट करती रेखा, बिखरे बाल, कराहतीरोती विनी राधा की बांहों में निढाल हो गईं. राधा जैसे पत्थर की बुत बन गई. विनी की हालत देख कर सबकुछ समझ गईं. फूटफूट कर रो पड़ीं. शेखर को धिक्कार उठीं, ‘‘यह क्या किया, हमारी बच्ची जैसी है यह. यह कुकर्म क्यों कर दिया? नफरत हो रही है तुम से.’’ राधा का रौद्र रूप देख कर शेखर सकपकाए. राधा ने उन की तरफ थूक दिया. तनमन में ऐसी आग लगी थी कि विनी को एक तरफ कर पास के कमरे में अगले हफ्ते होने वाली प्रदर्शनी के लिए रखी शेखर की तैयार 10-15 पेंटिंग्स पर वहीं रखे काले रंग से स्त्री के महान रूपों की तस्वीरों में कालिख भरती चली गईं. विनी को फिर अपने से चिपटा लिया. शेखर चुपचाप वहीं रखी एक चेयर पर बैठ गए थे. दोनों रोती रहीं, राधा और सुगंधा के अच्छे संबंध थे.

राधा ने सुगंधा को फोन किया और फौरन आने के लिए कहा. घर थोड़ी ही दूर था. सुगंधा और रजत लगभग साथसाथ ही घर में घुसे. सब स्थिति समझ कर सुगंधा तो विनी को, अपनी मृगछौने सी प्यारी बेटी को, गले से लगा कर बिलख उठी. रजत ने उन्हें संभाला. रजत ने रोते हुए विनी के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘बहुत शर्मिंदा हूं, विनी, अब इस आदमी से मेरा कोई संबंध नहीं है.’’ राधा भी दृढ़ स्वर में बोल उठीं, ‘‘और मेरा भी कोई संबंध नहीं. रजत, मैं इस आदमी के साथ अब नहीं रहूंगी,’’ रजत विनी की हालत देख कर फूटफूट कर रो रहा था. बचपन की प्यारी सी दोस्त का यह हाल. वह भी उस के पिता ने, घिन्न आ रही थी उसे. सुगंधा का विलाप भी थमने का नाम नहीं ले रहा था. राधा कभी सुगंधा से माफी मांगती, कभी विनी से. शेखर को छोड़ कर सब गहरे दुख में डूबे थे. वे सोच रहे थे, सब रोधो कर अभी शांत हो जाएंगे. राधा कह रही थी, ‘‘काश, मैं विधवा होती, ऐसे पशु पति का साथ तो न होता. अपरिचितों से तो ये परिचित अधिक खतरनाक होते हैं. ये कुछ भी करें, इन्हें पता है, कोई कुछ बोलेगा नहीं. पर ऐसा नहीं होगा.’’ विनी के मुंह से जैसे ही निकला, ‘‘मेरा जीवन तो बरबाद हो गया,’’ राधा ने तुरंत कहा, ‘‘तुम्हारा क्यों बरबाद होगा, बेटी, तुम ने क्या किया है. तुम्हारा तो कोई दोष नहीं है.

अपने दिल पर यह बोझ मत रखना. इस दुष्कर्म को याद ही नहीं रखना. दुखी नहीं रहना है तुम्हें. पाप कोई और करे, दुखी कोई और हो, यह कहां का न्याय है?’’ राधा के शब्दों से जैसे सुगंधा भी होश में आई. यह समय उस के रोने का कहां था. यह तो बेटी को मानसिक संबल देने की घड़ी थी. अपने आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘नहीं विनी, इस घृणित इंसान का दिया घाव जल्दी नहीं भरेगा, जानती हूं, पर भरेगा जरूर, यह भी भरोसा रखो. समझ लेना बेटा, सड़क पर चलते हुए किसी कुत्ते ने काट खाया है. इस दुष्कर्मी का कुकर्म मेरी बेटी के आत्मविश्वास की मजबूत चट्टान को भरभरा कर गिरा नहीं सकता.’’ विनी फिर रोने लगी, सिसकते हुए बोली, ‘‘मेरे सारे वजूद पर कालिख सी पोत दी गई है, कैसे जिऊंगी,’’ रजत उस के पास ही जमीन पर बैठते हुए बोला, ‘‘विनी, ताजमहल की सुंदरता ऐसे दुष्कर्मियों की खींची कोयले की लकीरों से खराब नहीं होती. इस लकीर पर पानी डालते हुए सिर ऊंचा रख कर आगे बढ़ना है तुम्हें. हम सब तुम्हारे साथ हैं. तुम्हारा जीवन यहां रुकेगा नहीं. बहुत आगे बढ़ेगा,’’

और फिर शेखर की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘और आप को तो मैं सजा दिलवा कर रहूंगा.’’ बात इस हद तक पहुंच जाएगी, इस की तो शेखर ने कल्पना भी नहीं की थी. अपने अधीन पीएचडी करने वाली अन्य छात्राओं का भी वे शारीरिक शोषण करते आए थे. किसी ने उन के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की थी. उन्हें किसी का डर नहीं था. इस तरह के किसी भी आदमी को समाज, परिवार या कानून का डर नहीं होता क्योंकि उन के पास इज्जत, पद का ऐसा लबादा होता है जिस से नीचे की गंदगी कोई चाह कर भी नहीं देख सकता. वे कमजोर सी, आम परिवार की छात्राओं को अपना शिकार बनाया करते थे. विनी के बारे में भी यही सोचा था कि मांबेटी रोधो कर इज्जत के डर से चुप ही रह जाएंगी. पर उन की पत्नी और पुत्र ने स्थिति बदल दी थी. अब जो हो रहा था, वे हैरान थे. अकल्पनीय था. पत्नी और पुत्र के सामने शर्मिंदा होना पड़ गया था. राधा उठ कर खड़ी हो गई थी, ‘‘रजत, मैं इस घर में नहीं रहूंगी.’’ ‘‘हां, मां, मैं भी नहीं रह सकता.’’ शेखर ने उपहासपूर्वक पूछा, ‘‘कहां जाओगे दोनों? बड़ीबड़ी बातें तो कर रहे हो, कोई और ठिकाना है?’’ अपमान की पीड़ा से राधा तड़प उठी, ‘‘तुम्हारे जैसे बलात्कारी पुरुष के साथ रह कर सुविधाओं वाला जीवन नहीं चाहिए मुझे, मांबेटा कहीं भी रह लेंगे.

तुम से संबंध नहीं रखेंगे. तुम्हें सजा मिल कर रहेगी. ‘‘आज अपने बेटे के साथ मिल कर एक निर्दोष लड़की को एक साहस, एक सुरक्षा का एहसास सौंपना है. धरोहर के रूप में अपनी आने वाली पीढि़यों को भी यही सौंपना होगा.’’ राधा आगे बोली, ‘‘चलो रजत, मैं यह टूटन, यह शोषण स्वीकार नहीं करूंगी. अपने घर के अंदर अगर इस घिनौनी करतूत का विरोध नहीं किया तो बाहर भी औरत कैसे लड़ पाएगी और हमेशा रिश्तों की आड़ में शोषित ही होती रहेगी. परिवार की इज्जत, रिश्तेदारी और समाज के खयाल से मैं चुप नहीं रहूंगी.’’ सुगंधा भी विनी को संभालते हुए उस का हाथ पकड़ कर जाने के लिए खड़ी हो गईं. अचानक कुछ सोच कर बोली, ‘‘राधा, चाहो तो आज से तुम दोनों हमारे घर में रह सकते हो.’’ रजत उन के पैरों में झुक गया, ‘‘हां, आंटी, मैं भी आ रहा हूं आप के घर. चलो मां, अभी बहुत लंबी लड़ाई लड़नी है. साथ रहेंगे तो अच्छा रहेगा. और विनी, तुम एक दिन भी इस कुकर्मी के कुकर्म को याद कर दुखी नहीं होगी. तुम्हें बहुत काम है. नया गाइड ढूढ़ंना है. पीएचडी करनी है.

इस आदमी की रिपोर्ट करनी है. इसे कोर्ट में घसीटना है. सजा दिलवानी है. बहुत काम है. विनी, चलो,’’ चारों उन के ऊपर नफरतभरी नजर डाल कर निकल गए. अब शेखर को साफसाफ दिख रहा था कि अब उन के किए की सजा उन्हें मिल कर रहेगी. अगर विनी और सुगंधा अकेले होते तो कमजोर पड़ सकते थे. पर अब चारों साथ थे, तो उन की हार तय थी. कितनी ही छात्राओं के साथ किया बलात्कार उन की आंखों के आगे घूम गया. वे सिर पकड़ कर बैठे रह गए थे. वे चारों गंभीर, चुपचाप चले जा रहे थे. ऐसे समाज से निबटना था जो बलात्कार की शिकार लड़की को ही सवालों के कठघरे में खड़ा कर देता है. उस के साथ ऐसा व्यवहार करता है जैसे उस ने कोई गुनाह किया हो. शारीरिक और मानसिक रूप से पहले से ही आहत लड़की को और सताया जाता है. लेकिन, इन चारों के इरादे, हौसले मजबूत थे. समाज की चिंता नहीं थी. लड़ाई मुश्किल, लंबी थी पर चारों के दिलों में इस लड़ाई में जीत का एहसास अपनी जगह बना चुका था. हार का संशय भी नहीं था. जीत निश्चित थी.

द्य ऐसा भी होता है मनोहरजी का बेटा अपनी मां को लेने गांव आया था. उन की बहू का बच्चा होने वाला था. इसलिए बेटा मां को मुंबई ले जा रहा था. वह मनोहरजी के लिए पैंटकमीज का कपड़ा मुंबई से लाया था. बेटे ने कपड़ा मनोहरजी को देते हुए कहा, ‘‘इसे सिलवा लीजिएगा, आप पर बहुत अच्छा लगेगा.’’ पिताजी ने कहा, ‘‘इस की क्या जरूरत थी, मुझे धोतीकुरते में ही आराम मिलता है.’’ मनोहरजी कपड़े पा कर बहुत प्रसन्न थे. उन्होंने दर्जी को दे कर अपनी नाप की पैंटशर्ट सिलवा ली. कपड़े उन्होंने पहन कर नापे, वे खुद को बहुत सुंदर महसूस कर रहे थे. एक महीने बाद खबर आई कि बहू ने एक बेटे को जन्म दिया है. बेटे के जन्मोत्सव के लिए बेटे ने उन्हें भी मुंबई बुलाया था. वे मुंबई जाने की तैयारी करने लगे. नियत समय पर वे मुंबई पहुंचे. बेटा उन्हें लेने के लिए आया हुआ था. जब वे बेटे के घर पहुंचे तो बहुत प्रसन्न थे कि उस का रहनसहन कितना ऊंचा है. उन का बेटा कितना बड़ा अफसर है, उस के कितने ठाटबाट हैं. बेटे के जन्मोत्सव की पार्टी रखी गई. घर में तैयारी चल रही थी.

शाम को सभी लोग पार्टी के लिए तैयार हो रहे थे. मनोहरजी अपनी वही पैंटशर्ट पहने तैयार हुए जो उन का बेटा उन्हें गांव में दे गया था. बेटे ने जब उन्हें उन कपड़ों में देखा, तो चीखते हुए बोला, ‘‘आप के पास यही कपड़े पहनने को हैं.’’ बहू भी दौड़ती हुई आई कि क्या हो गया. तब बहू पिताजी को ले कर कमरे में आई और पिताजी से बोली, ‘‘आप दूसरे कपड़े पहन लीजिए. ये कपड़े यहां के इंजीनियरों की यूनिफौर्म के हैं. इंजीनियर को साल में 2 जोड़ी कपड़े मिलते हैं. वे उन्हें स्वयं न सिलवा कर अपने रिश्तेदारों में बांट देते हैं या दान कर देते हैं. आप को इन कपड़ों में देख कर लोग क्या सोचेंगे.’’ मनोहरजी बहू की बात सुन कर सकते में आ गए. उन्हें बड़ा दुख हो रहा था कि बेटे ने उन्हें कपड़ा देने के पहले यह बात क्यों नहीं बता दी थी. उपमा मिश्रा  Family Story

Social Story In Hindi : बिना जड़ का पेड़ – अपनों के बीच अपनी पहचान बनाते पुरुष की जद्दोजद की कहानी

Social Story In Hindi : “मैं आज से कोई 5-6 साल पहले अपना घर व व्यवसाय छोड़ कर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आया था. खुद को अपने सहधर्मी व्यक्तिओं के बीच सुरक्षित रखने के लिए,” यह वे हमेशा अपने से मिलने वाले लोगों को बोला करते.

कृष्णराय हमारे बंगले के पास अभी रहने आए थे. मैं ने उन के मुख से कई बार यहां भारत के अनुभव व पाकिस्तान में उन की सुखद आर्थिक स्थिती के बारे में सुनता रहता था.

एक दिन मैं ने उन को यों ही मजाक में कहा, “कृष्णरायजी, आप हमेशा अपने बारे में किश्तों में बताते रहते हैं, कभी किसी के साथ बैठ कर अपनी पूरी कहानी सुनाइए,” मगर उन के चेहरे के भावों को देख कर मैं ने जल्दी क्षमा मांगी.

उन्होंने गहरी सांस ली और बोले,”चांडक साहब, इस में क्षमा की बात नहीं है. आप ठीक कहते हैं, मुझे हर किसी को अपनी बात नहीं कहनी चाहिए. लेकिन क्या करूं, मन में रख नहीं रख पाता हूं, अंदर घुटन महसूस करता हूं. सच कहूं, मैं अपनी पूरी कहानी किसी को सुनाना चाहता हूं ताकि जी हलका हो सके,” उन्होंने उदासी से कहा.

“आज मैं अपने काम से फारिग हूं, आप को ऐतराज नहीं हो तो मैं आप की कहानी सुनना चाहता हूं. विश्वास कीजिए, मैं आप की कहानी का मजाक नहीं बनाऊंगा,” मैं ने संजीदगी से कहा.

उन्होंने मेरी ओर गंभीर नजरों से देखा, शायद सोचा हो कि कहूं या नहीं? लेकिन फिर उन्होंने अपनी कहानी शुरू की, अपने पाकिस्तान में जन्म से ले कर व भारत में स्थायी होने तक…

मेरा जन्म पाकिस्तान में एक रईस व जमींदार हिंदू परिवार में हुआ था. मैं ने बचपन से ले कर जवानी तक कभी भी किसी की चीज की कमी महसूस नहीं की, जो चाहा वह मिला. घर पर नौकरों की फौज थी. मेरे बाबा हमारे गांव के सब से बड़े जमींदार थे. गांव में वही होता था जो हमारे बाबा चाहते थे. यह सब आजादी के पहले की नहीं, आजादी के बाद की बात थी.
हमारा वहां बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था. हम ने कभी भी अपनेआप को अकेला महसूस नहीं किया. 2 साल पढ़ने के लिए मैं कराची गया. लेकिन पढ़ाई बीच में छोड़ कर मैं जल्दी जमींदारी में लग गया.

कुछ समय बाद हम ने शहर में भी अपना व्यवसाय खोल दिया. हम हिंदू थे पर पूरा गांव मुसलमान था. हमारे नौकर व ग्राहक भी मुसलिम थे.

मैं ने कभी जाना भी नहीं कि हिंदू व मुसलिमों में फर्क भी होता है. न ही कभी गांव के मुसलिमों ने हमें यह महसूस होने दिया. 1965 व 1971 में जब हमारे रिश्तेदारों ने, जो पाकिस्तान छोड़ कर हिंदुस्तान जा रहे थे, हमारे दादा से भी हिंदुस्तान चलने का आग्रह किया था. लेकिन दादा अपनी जन्मभूमी छोड़ कर जाने को तैयार ही नहीं थे. वे हठीले जमींदार थे, दूसरा उन्होंने कभी खतरा महसूस नहीं किया.

हम लोग वहां सुख व आनंद के साथ जी रहे थे. मेरे बड़े भाई स्थानीय समर्थकों की सहायता से वहां की नगरपालिका के अध्यक्ष बने. उन्होंने वहां की जनता के लिए अच्छे काम किए और लंबे समय तक इस पद पर बने रहे. लेकिन इस बीच अयोध्या के मामले ने हमारे दिलोदिमाग को भीतर तक झकझोरा और हम पहली बार खुद को असुरक्षित समझने लगे. हम अपने दोस्तों व गांववालों से नजरें मिलाते तो ऐसा लगता जैसे हिंदुस्तान में जो हो रहा है उस के लिए हम जिम्मेदार हैं.

हमें हिंदुओं के बारें में धार्मिक स्थिति तो पता थी पर सामाजिक व राजनीतिक स्थिति से हम लोग अनजान थे. अब हम जब अपने दूसरों जगहों के रिश्तेदारों से मिलते तो यही चर्चा होती कि क्या हम पाकिस्तान में सुरक्षित हैं? यदि हां, तो कब तक? हमारे चेहरे भले ही शांत हो पर मनमस्तिष्क में द्वंद्व चलता रहता था. मस्तिष्क कह रहा था कि हम सुरक्षित नहीं हैं पर मन कहता कि यह तो हमारी जन्मभूमी है.

इस बीच रथयात्रा निकली. हिंदुस्तान के दंगों की चर्चा पाकिस्तानी समाज व अखबारों में होने लगी. वहां कुछ लोग इस की प्रतिकिया करने लगे. पुराने मंदिर खंडहर फिर समतल मैदान होने लगे. हिंदुओं की दुकानें जो गिनीचुनी थीं लुटी जाने लगीं.

मुझे लग रहा था कि भारत पाकिस्तान के विभाजन की प्रकिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. अब हमारा पाकिस्तान में रहना मुझे असहज लगने लगा. मैं अब जल्द से जल्द विधर्मी देश को छोड़ कर सहधर्मी देश में आने की सोचने लगा ताकि मैं अपने लोगों के बीच सुरक्षित महसूस कर सकूं. मुझे लग रहा था कि भारत पाकिस्तान के विभाजन की प्रकिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. मैं परिवार के सदस्यों के बीच इस बात को ले कर विचारविमर्श करने लगा. लेकिन सब ने मुझे यही समझाया कि यहां से उखड़ कर, वहां पनपना आसान नहीं होगा. यहां की जमींदारी व जमाजमाया व्यवसाय छोड़ कर कहीं तुम्हें वहां की दरदर की ठोकरें न खानी पड़े. तुम्हारी हालत बिना जड़ के पेड़ की तरह हो जाएगी. आखिर उन का तर्क सही था.

लेकिन दूसरी तरफ मन कहता कि जहां चाह वहां राह. दूसरा मेरा हठीला स्वभाव अपने बाबा पर गया था. वैसे भी घोड़े पर चढ़ने वाला दुल्हा फेरे खाने के बाद ही नीचे उतरता है.

जब मेरे मुसलमान दोस्तों व गांव वालों को मेरे निर्णय के बारे में पता चला तो वे सब मेरे पास आए और मुझे समझाने लगे, “किशन तुम्हें हम पर विश्वास नहीं, हम लोग न जाने कितनी पीढ़ियों से एकसाथ रह रहे हैं, क्या हमारे होते हुए तुम्हें आंच आ सकती है?” समझाते हुए उन की आंखों में आंसू आने लगे. मैं भी रोने लगा. एक बार तो मैं ने भी अपना निर्णय बदलने की सोची लेकिन कुछ समय बाद के बुरे खयालों से मेरा दिल कांपने लगा.

आखिरकार, मैं अपना घर, कारोबार व जन्मभूमी, बसबसाया सुख छोड़ कर अनजाने लेकिन सहधर्मी देश की ओर निकल पड़ा, संशयपूर्ण भविष्य को साथ में ले कर.

घर व गांव को छोड़ते हुए मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. मेरे परिजन, गांव वालों व दोस्तों की आंखों में आंसू थे. मेरे दोस्तों व गांव वालों ने विदा करते समय कहा,”किशन, यदि तुम्हें पराई जमीन पंसद न आए तो निस्संकोच अपने गांव वापस आ जाना,” यह उन के अंतिम वाक्य थे, जो मुझे न जाने कितनी बार याद आए.

अभी तक तो मेरी जिंदगी सुख के धरातल पर चल रही थी. पुरखों के बोए बीजों के फल मैं खा रहा था. उबङखाबड़ और परेशानियों वाली जिंदगी के दर्शन अभी तक बाकी थे जो यहां आने के बाद होने लगे.
नई आशा व विश्वास में आ गया अपने सहधर्मी देश. बहुत सारे सामान व अपने परिवार के साथ मैं मुंबई एअरपोर्ट पर उतरा. सब से पहली परेशानी यहीं से शुरू होती है. यहां पर कस्टम अधिकारियों ने शुरू में बहुत परेशान किया क्योंकि एक तो मैं पाकिस्तान से आया था, दूसरा मेरे साथ पूंजी के रूप में बहुत सारा सोना आभूषणों के रूप में मेरे साथ था. पर जब उन्होंने पाकिस्तान में एक हिंदू के रूप में मेरी व्यथा सुनी तो उन का दिल पसीजा और उन्होंने मेरे न सिर्फ कस्टम ड्यूटी माफ की बल्कि उन्होंने मेरे और मेरे परिवार को दिल से कैंटीन में खाना भी खिलाया. मेरे प्रति एक हिंदू के रूप में यह पहली सहानुभूति थी.

हिंदुस्तान आ कर कुछ दिन मैं अपनी बड़ी बहन के यहां रहा. कुछ दिन बाद उन्हीं के शहर में एक मकान भी लिया, जहां मैं ने पहली बार सहधर्मी पड़ोसियों के अनुभव लिए. मैं जहां रह रहा था वहां पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आना जिज्ञासा का विषय नहीं था, क्योंकि हमारी तरह के बहुत सारे परिवार विस्थापित हो कर यहां आ कर बस गए थे. जिज्ञासा का विषय तो हमार शाही रहनसहन व खानपान था. साथ में हमारा बड़ा परिवार भी सब की नजरों में चर्चा का विषय था. हमारे यहां 8-10 सदस्यों का परिवार सामान्य समझा जाता था. लेकिन यहां के 2-3 सदस्यों वाले परिवारों में हमें स्वाभाविक रूप से चर्चा का विषय बनना ही था.

हमारी मातृभाषा सिंधी थी जो यहां की गुजराती भाषा से बहुत भिन्न थी. हालांकि मुझे इस की खास परेशानी नहीं थी क्योंकि कराची में मेरे कुछ दोस्त गुजरात से आए हुए थे, लेकिन बच्चों व बीवी को बहुत परेशानी होती थी.

हम ने कुछ ही समय में सारी भौतिक सुखसुविधाएं जुटा लीं. हमारा शाहीखर्च उन को आश्चर्यचकित कर देता था. मेरी पत्नी का उन को चायनाश्ता के साथ स्वागत करना विस्मय से भर देता था क्योंकि वे लोग चाय तक ही सीमीत रहते थे. बच्चों का दिनभर झगड़ना उन की शांत जिंदगी में तुफान ला देता था. बहुत लोगों ने इस की शिकायत की. लेकिन मेरे कहने पर कि यह तो बच्चे हैं उन को गुस्से में ला देता था, “आप तो बड़े हैं,” ऐसा अपमान बहुत बार हुआ.

काम करने वाली जिस दिन नहीं आती उस दिन जूठे बरतनों व कपड़ों का अंबार लग जाता था. मेरे घर का माहौल देख कर लोगों ने धीरेधीरे आना बंद कर दिया.

उधर मैं व्यवसाय ढूंढ़ने के लिए इधरउधर अपने भाई के दोस्त के साथ भटकने लगा. व्यवसाय शुरू करना व उसे सुचारु रूप से चलाना कितना मुश्किल भरा होता है यह मुझे अब पता लगना था. अब तक मैं अपने बापदादा की जमीजमाई जमींदारी पर आराम के साथ जिंदगी गुजार रहा था.

दूसरी तरफ मेरी बहन के परिवार के साथ संबध कटने लगा, वे मुझे व्यवसाय में मदद के लिए असमर्थ लगे. लेकिन आज सोचता हूं कि वे उस समय कितने सही थे. उन का मुझे कुछ समय राह देख कर, व्यवसाय शुरू करने की सलाह को मैं ने गलत तरीके से लिया था. आज यह सोच कर ग्लानी से भर उठता हूं.

मैं ने जल्द ही भाई दोस्त के कहने पर अहमदाबाद के नजदीक शहर में अपना व्यवसाय शुरू किया, लेकिन जो व्यवसाय मैं ने शुरू किया उस का मुझे तनिक भी अनुभव नहीं था. जिस कारण शुरू में मैं बहुत परेशान रहा.

मेरी परेशानी देख कर मेरी बहन ने अपने बेटे को मेरी मदद करने लिए भेजा. वह इस मामले में बड़ा अनुभवी व होशियार निकला. उस ने मेरे व्यवसाय को जमाने में मेरी बहुत मदद की. मेरे बच्चे तो बहुत ही छोटे थे.

बच्चों को भी शुरू में विद्यालय व आसपास के माहौल में सामंजस्य बैठाने में बहुत तकलीफें आईं. भाषा की तकलीफें तो थीं ही साथ में और भी कई परेशानियां थीं.

एक बार मेरे बेटे को विद्यालय में राष्ट्रगान बोलने को कहा तो उस ने पाकिस्तान का राष्ट्रगान सुना दिया. इस पर विद्यालय व शहर में बहुत हंगामा हुआ. घर पर बुलावा आया, मुझे माफी मांगनी पड़ी व भविष्य में ऐसा नहीं होगा लिखित आश्वासन भी देना पड़ा.

हर महीने पुलिस थाने जा कर उपस्थिती के साथ नजराना भी देना पड़ता था. यहां पर व्यवसाय के चक्कर में सरकारी अधिकारियों के साथ रोज पाला पड़ता था.

मेरा सपना हिंदुस्तान आ कर चकनाचूर हो गया. मैं ने तो यह सपना देखा था कि सहधर्मी देश आ कर मैं सुरक्षित व सुखी रहूंगा. हालांकि मुझे व्यवसाय में सफलता मिल रही थी पर मैं यहां की परेशानियां झेलने में असफल व असमर्थ था.

जब मैं अपने साथी व्यापारी व रिश्तेदारों से बातें करता तो वे हंस कर कहते,”यह तो साधारण रोज की बातें हैं जिन का जिंदगीभर सामना करना पड़ता है. जितना बड़ा व्यापारी उतनी ज्यादा परेशानियां.

मैं परेशान हो गया, मन में अजीब सा द्वंद्व पैदा हो गया. कभीकभी सोचता था कि सबकुछ छोड़ कर वापस पाकिस्तान चला जाऊं. लेकिन वहां मेरे दोस्त व रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उन के व्यंग्यबाण मैं झेल पाउंगा? हो सकता है वहां की सरकार मुझे शक की नजरों से देखे.

इस तनाव के कारण मैं चिड़चिड़ा हो गया. मैं तनाव में रहने लगा. मेरे व्यवहार में अजीब सी कर्कशता आ गई. बच्चे भी सहमने लगे. मैं ने पहली बार जाना कि अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह जुड़ना कितना कठिन व कष्टदायक होता है.

मुझे बीमार व तनाव में देख कर मेरी पत्नी ने बड़ी बहन को बुलाया. मेरी हालत देख कर मेरी बहन की आंखों में आंसू आ गए.

मैं ने रोते हुए कहा, “दीदी, अब मैं यहां और नहीं रह सकता. मेरे में और परेशानियां झेलने की क्षमता नहीं है. मैं अब वापस अपने लोगों के बीच लौट जाना चाहता हूं.”

“क्या हम तुम्हारे नहीं हैं कृष्ण? और फिर क्या बारबार एक जगह से पेड़ों को उखाड़ कर दूसरी जगह रोपना आसान है? क्या तुम पहले की तरह वहां रह सकोगे? इतना फैला हुआ व्यापार समेटना क्या आसान है? तुम्हारे बच्चों का यहां मन लग गया है. देखो वे कितने खुश हैं,” मस्ती से खेलते बच्चों को दखते हुए बोली.

“क्या वापस पाकिस्तान जा कर बच्चों की हालत तेरी जैसी नहीं हो जाएगी?”

कुछ देर बाद रुक कर दीदी आगे बोली,”तुम एक बार वहां की जिंदगी को भूल कर, वहां के सारे सुखों को भूल कर, यहां नई जिंदगी शुरू कर दो. यही सोचो कि तुम्हारा जन्म यहीं पर हुआ है. मैं जब ससुराल आई थी, तब मेरा यहां कोई नहीं था. मैं अपना सुखदुख किसी को सुना नहीं सकती थी. लेकिन तुम्हारा तो यहां पूरा परिवार है, मैं हूं, अपने लोगों से तुम्हारा फोन पर संपर्क है. और तुम जल्दी घबरा गए, जल्दी हार मान गए. मैं तो तुम्हारी तरह वापस भी नहीं जा सकती थी. तू तो मेरा भाई है, तेरे में तो मेरे से भी ज्यादा हिम्मत, हौसला व हिम्मत होनी चाहिए. उठ और हिम्मत से काम ले. सहनशील व संयमशील बन कर जिंदगी को आसान व सफल बना,” दीदी ने सिर पर हाथ फेर कर कहा.

‘उन की बात सही थी कि मेरा वापस जाना संभव नहीं. मेरे बच्चों की भी हालत मेरी जैसी न हो जाए. अब मुझे यहीं रहना होगा. मुझे ही इस मुल्क के अनुकूल होना पड़ेगा,’ यह सोच कर मैं ने अपना मन मजबूत किया. इस से जो समस्याएं मुझ में पहाड़ सी दिखती थीं वे कंकड़ के समान दिखने लगी. मैं वही हंसमुख कृष्णकुमार बना. मुझ में हद से ज्यादा संयमशीलता आ गई. मेरा व्यवसाय अच्छा जमने लगा.

कृष्णराय के घर से आने के बाद मैं सोचने लगा कि सच में कितना मुश्किल होता है अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह पनपना, भले ही वह जगह अपनी मनपंसद व अनुकूल ही क्यों न हो.  Social Story In Hindi 

Romantic Story In Hindi : दो कदम तन्हा – अंजलि ने क्यों किया डा. दास का विश्वास ?

Romantic Story In Hindi : ‘‘दास.’’ अपने नाम का उच्चारण सुन कर डा. रविरंजन दास ठिठक कर खड़े हो गए. ऐसा लगा मानो पूरा शरीर झनझना उठा हो. उन के शरीर के रोएं खड़े हो गए. मस्तिष्क में किसी अदृश्य वीणा के तार बज उठे. लंबीलंबी सांसें ले कर डा. दास ने अपने को संयत किया. वर्षों बाद अचानक यह आवाज? लगा जैसे यह आवाज उन के पीछे से नहीं, उन के मस्तिष्क के अंदर से आई थी. वह वैसे ही खड़े रहे, बिना आवाज की दिशा में मुड़े. शंका और संशय में कि दोबारा पीछे से वही संगीत लहरी आई, ‘‘डा. दास.’’

वह धीरेधीरे मुड़े और चित्रलिखित से केवल देखते रहे. वही तो है, अंजलि राय. वही रूप और लावण्य, वही बड़ी- बड़ी आंखें और उन के ऊपर लगभग पारदर्शी पलकों की लंबी बरौनियां, मानो ऊषा गहरी काली परतों से झांक रही हो. वही पतली लंबी गरदन, वही लंबी पतली देहयष्टि. वही हंसी जिस से कोई भी मौसम सावन बन जाता है…कुछ बुलाती, कुछ चिढ़ाती, कुछ जगाती.

थोड़ा सा वजन बढ़ गया है किंतु वही निश्छल व्यक्तित्व, वही सम्मोहन.  डा. दास प्रयास के बाद भी कुछ बोल न सके, बस देखते रहे. लगा मानो बिजली की चमक उन्हें चकाचौंध कर गई. मन के अंदर गहरी तहों से भावनाओं और यादों का वेग सा उठा. उन का गला रुंध सा गया और बदन में हलकी सी कंपन होने लगी. वह पास आई. आंखों में थोड़ा आश्चर्य का भाव उभरा, ‘‘पहचाना नहीं क्या?’’

‘कैसे नहीं पहचानूंगा. 15 वर्षों में जिस चेहरे को एक पल भी नहीं भूल पाया,’ उन्होंने सोचा.

‘‘मैं, अंजलि.’’

डा. दास थोड़ा चेतन हुए. उन्होंने अपने सिर को झटका दिया. पूरी इच्छा- शक्ति से अपने को संयत किया फिर बोले, ‘‘तुम?’’

‘‘हां, मैं. गनीमत है पहचान तो लिया,’’ वह खिलखिला उठी और

डा. दास को लगा मानो स्वच्छ जलप्रपात बह निकला हो.

‘‘मैं और तुम्हें पहचानूंगा कैसे नहीं? मैं ने तो तुम्हें दूर से पीछे से ही पहचान लिया था.’’

मैदान में भीड़ थी. डा. दास धीरेधीरे फेंस की ओर खिसकने लगे. यहां कालिज के स्टूडेंट्स और डाक्टरों के बीच उन्हें संकोच होने लगा कि जाने कब कौन आ जाए.

‘‘बड़ी भीड़ है,’’ अंजलि ने चारों ओर देखा.

‘‘हां, इस समय तो यहां भीड़ रहती ही है.’’

शाम के 4 बजे थे. फरवरी का अंतिम सप्ताह था. पटना मेडिकल कालिज के मैदान में स्वास्थ्य मेला लगा था. हर साल यह मेला इसी तारीख को लगता है, कालिज फाउंडेशन डे के अवसर पर…एक हफ्ता चलता है. पूरे मैदान में तरहतरह के स्टाल लगे रहते हैं. स्वास्थ्य संबंधी प्रदर्शनी लगी रहती है. स्टूडेंट्स अपना- अपना स्टाल लगाते हैं, संभालते हैं. तरहतरह के पोस्टर, स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां और मरीजों का फ्री चेकअप, सलाह…बड़ी गहमागहमी रहती है.

शाम को 7 बजे के बाद मनोरंजन कार्यक्रम होता है. गानाबजाना, कवि- सम्मेलन, मुशायरा आदि. कालिज के सभी डाक्टर और विद्यार्थी आते हैं. हर विभाग का स्टाल उस विभाग के एक वरीय शिक्षक की देखरेख में लगता है. डा. दास मेडिसिन विभाग में लेक्चरर हैं. इस वर्ष अपने विभाग के स्टाल के वह इंचार्ज हैं. कल प्रदर्शनी का आखिरी दिन है.

‘‘और, कैसे हो?’’

डा. दास चौंके, ‘‘ठीक हूं…तुम?’’

‘‘ठीक ही हूं,’’ और अंजलि ने अपने बगल में खड़े उत्सुकता से इधरउधर देखते 10 वर्ष के बालक की ओर इशारा किया, ‘‘मेरा बेटा है,’’ मानो अपने ठीक होने का सुबूत दे रही हो, ‘‘नमस्ते करो अंकल को.’’

बालक ने अन्यमनस्क भाव से हाथ जोड़े. डा. दास ने उसे गौर से देखा फिर आगे बढ़ कर उस के माथे के मुलायम बालों को हलके से सहलाया फिर जल्दी से हाथ वापस खींच लिया. उन्हें कुछ अतिक्रमण जैसा लगा.

‘‘कितनी उम्र है?’’

‘‘यह 10 साल का है,’’ क्षणिक विराम, ‘‘एक बेटी भी है…12 साल की, उस की परीक्षा नजदीक है इसलिए नहीं लाई,’’ मानो अंजलि किसी गलती का स्पष्टीकरण दे रही हो. फिर अंजलि ने बालक की ओर देखा, ‘‘वैसे परीक्षा तो इस की भी होने वाली है लेकिन जबरदस्ती चला आया. बड़ा जिद्दी है, पढ़ता कम है, खेलता ज्यादा है.’’

बेटे को शायद यह टिप्पणी नागवार लगी. अंगरेजी में बोला, ‘‘मैं कभी फेल नहीं होता. हमेशा फर्स्ट डिवीजन में पास होता हूं.’’

डा. दास हलके से मुसकराए, ‘‘मैं तो एक बार एम.आर.सी.पी. में फेल हो गया था,’’ फिर वह चुप हो गए और इधरउधर देखने लगे.

कुछ लोग उन की ओर देख रहे थे.

‘‘तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’

डा. दास ने प्रश्न सुना लेकिन जवाब नहीं दिया. वह बगल में बाईं ओर मेडिसिन विभाग के भवन की ओर देखने लगे.

अंजलि ने थोड़ा आश्चर्य से देखा फिर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं?’’

‘‘2 बच्चे हैं.’’

‘‘लड़के या लड़कियां?’’

‘‘लड़कियां.’’

‘‘कितनी उम्र है?’’

‘‘एक 10 साल की और एक 9 साल की.’’

‘‘और कैसे हो, दास?’’

‘‘मुझे दास…’’ अचानक डा. दास चुप हो गए. अंजलि मुसकराई. डा. दास को याद आ गया, वह अकसर अंजलि को कहा करते थे कि मुझे दास मत कहा करो. मेरा पूरा नाम रवि रंजन दास है. मुझे रवि कहो या रंजन. दास का मतलब स्लेव होता है.

अंजलि ऐसे ही चिढ़ाने वाली हंसी के साथ कहा करती थी, ‘नहीं, मैं हमेशा तुम्हें दास ही कहूंगी. तुम बूढ़े हो जाओगे तब भी. यू आर माई स्लेव एंड आई एम योर स्लेव…दासी. तुम मुझे दासी कह सकते हो.’

आज डा. दास कालिज के सब से पौपुलर टीचर हैं. उन की कालिज और अस्पताल में बहुत इज्जत है. लोग उन की ओर देख रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा संकोच होने लगा. यहां यों खड़े रहना ठीक नहीं लगा. उन्होंने गला साफ कर के मानो किसी बंधन से छूटने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘बहुत भीड़ है. बहुत देर से खड़ा हूं. चलो, कैंटीन में बैठते हैं, चाय पीते हैं.’’

अंजलि तुरंत तैयार हो गई, ‘‘चलो.’’

बेटे को यह प्रस्ताव नहीं भाया. उसे भीड़, रोशनी और आवाजों के हुजूम में मजा आ रहा था, बोला, ‘‘ममी, यहीं घूमेंगे.’’

‘‘चाय पी कर तुरंत लौट आएंगे. चलो, गंगा नदी दिखाएंगे.’’

गेट से निकल कर तीनों उत्तर की ओर गंगा के किनारे बने मेडिकल कालिज की कैंटीन की ओर बढ़े. डा. दास जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहे थे फिर अंजलि को पीछे देख कर रुक जाते थे. कैंटीन में भीड़ नहीं थी, ज्यादातर लोग प्रदर्शनी में थे. दोनों कैंटीन के हाल के बगल वाले कमरे में बैठे.

कैंटीन के पीछे थोड़ी सी जगह है जहां कुरसियां रखी रहती हैं, उस के बाद रेलिंग है. बालक की उदासी दूर हो गई. वह दौड़ कर वहां गया और रेलिंग पकड़ कर गंगा के बहाव को देखने लगा.

डा. दास और अंजलि भी कुरसी मोड़ कर उधर ही देखने लगे. गरमी नहीं आई थी, मौसम सुहावना था. मोतियों का रंग ले कर सूर्य का मंद आलोक सरिता के शांत, गंभीर जल की धारा पर फैला था. कई नावें चल रही थीं. नाविक नदी के किनारे चलते हुए रस्सी से नाव खींच रहे थे. कई लोग किनारे नहा रहे थे.

मौसम ऐसा था जो मन को सुखद बीती हुई घडि़यों की ओर ले जा रहा था. वेटर चाय का आर्डर ले गया. दोनों नदी की ओर देखते रहे.

‘‘याद है? हम लोग बोटिंग करते हुए कितनी दूर निकल जाते थे?’’

‘‘हां,’’ डा. दास तो कभी भूले ही नहीं थे. शाम साढ़े 4 बजे क्लास खत्म होने के बाद अंजलि यहां आ जाती थी और दोनों मेडिकल कालिज के घाट से बोटिंग क्लब की नाव ले कर निकल जाते थे नदी के बीच में. फिर पश्चिम की ओर नाव खेते लहरों के विरुद्ध महेंद्रू घाट, मगध महिला कालिज तक.

सूरज जब डूबने को होता और अंजलि याद दिलाती कि अंधेरा हो जाएगा, घर पहुंचना है तो नाव घुमा कर नदी की धारा के साथ छोड़ देते. नाव वेग से लहरों पर थिरकती हुई चंद मिनटों में मेडिकल कालिज के घाट तक पहुंच जाती.

डूबती किरणों की स्वर्णिम आभा में अंजलि का पूरा बदन कंचन सा हो जाता. वह अपनी बड़ीबड़ी आंखें बंद किए नाव में लेटी रहती. लहरों के हलके छींटे बदन पर पड़ते रहते और डा. दास सबकुछ भूल कर उसी को देखते रहते. कभी नाव बहती हुई मेडिकल कालिज घाट से आगे निकल जाती तो अंजलि चौंक कर उठ बैठती, ‘अरे, मोड़ो, आगे निकल गए.’

डा. दास चौंक कर चेतन होते हुए नाव मोड़ कर मेडिकल कालिज घाट पर लाते. कभी वह आगे जा कर पटना कालिज घाट पर ही अनिच्छा से अंजलि को उतार देते. उन्हें अच्छा लगता था मेडिकल कालिज से अंजलि के साथ उस के घर के नजदीक जा कर छोड़ने में, जितनी देर तक हो सके साथ चलें, साथ रहें. वेटर 2 कप चाय दे गया. अंजलि ने बेटे को पुकार कर पूछा, ‘‘क्या खाओगे? बे्रडआमलेट खाओगे. यहां बहुत अच्छा बनता है.’’

बालक ने नकरात्मक भाव से सिर हिलाया तो डा. दास ने पूछा, ‘‘लस्सी पीओगे?’’

‘‘नो…नथिंग,’’ बालक को नदी का दृश्य अधिक आकर्षित कर रहा था.

चाय पी कर डा. दास ने सिगरेट का पैकेट निकाला.

अंजलि ने पूछा, ‘‘सिगरेट कब से पीने लगे?’’

डा. दास ने चौंक कर अपनी उंगलियों में दबी सिगरेट की ओर देखा, मानो याद नहीं, फिर उन्होंने कहा, ‘‘इंगलैंड से लौटने के बाद.’’

अंजलि के चेहरे पर उदासी का एक साया आ कर निकल गया. उस ने निगाहें नीची कर लीं. इंगलैंड से आने के बाद तो बहुत कुछ खो गया, बहुत सी नई आदतें लग गईं.

अंजलि मुसकराई तो चेहरे पर स्वच्छ प्रकाश फैल गया. किंतु डा. दास के मन का अंधकार अतीत की गहरी परतों में छिपा था. खामोशी बोझिल हो गई तो उन्होंने पूछा, ‘‘मृणालिनी कहां है?’’

‘‘इंगलैंड में. वह तो वहीं लीवरपूल में बस गई है. अब इंडिया वापस नहीं लौटेगी. उस के पति भी डाक्टर हैं. कभीकभी 2-3 साल में कुछ दिन के लिए आती है.’’

‘‘तभी तो…’’

‘‘क्या?’’

‘‘कुछ भी नहीं, ब्रिलियंट स्टूडेंट थी. अच्छा ही हुआ.’’

मृणालिनी अंजलि की चचेरी बहन थी. उम्र में उस से बड़ी. डा. दास से वह मेडिकल कालिज में 2 साल जूनियर थी.

डा. दास फाइनल इयर में थे तो वह थर्ड इयर में थी. अंजलि उस समय बी.ए. इंगलिश आनर्स में थी.

अंजलि अकसर मृणालिनी से मिलने महिला होस्टल में आती थी और उस से मिल कर वह डा. दास के साथ घूमने निकल जाती थी. कभी कैंटीन में चाय पीने, कभी घाट पर सीढि़यों पर बैठ कर बातें करने, कभी बोटिंग करने.

डा. दास की पहली मुलाकात अंजलि से सरस्वती पूजा के फंक्शन में ही हुई थी. वह मृणालिनी के साथ आई थी. डा. दास गंभीर छात्र थे. उन्हें किसी भी लड़की ने अपनी ओर आकर्षित नहीं किया था, लेकिन अंजलि से मिल कर उन्हें लगा था मानो सघन हरियाली के बीच ढेर सारे फूल खिल उठे हैं और उपवन में हिरनी अपनी निर्दोष आंखों से देख रही हो, जिसे देख कर आदमी सम्मोहित सा हो जाता है.

फिर दूसरी मुलाकात बैडमिंटन प्रतियोगिता के दौरान हुई और बातों की शुरुआत से मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ. वह अकसर शाम को पटना कालिज में टेनिस खेलने जाते थे. वहां मित्रों के साथ कैंटीन में बैठ कर चाय पीते थे. वहां कभीकभी अंजलि से मुलाकात हो जाती थी. जाड़ों की दोपहर में जब क्रिकेट मैच होता तो दोनों मैदान के एक कोने में पेड़ के नीचे बैठ कर बातें करते.

मृणालिनी ने दोनों की नजदीकियों को देखा था. उसे कोई आपत्ति नहीं थी. डा. दास अपनी क्लास के टापर थे, आकर्षक व्यक्तित्व था और चरित्रवान थे.

बालक के लिए अब गंगा नदी का आकर्षण समाप्त हो गया था. उसे बाजार और शादी में आए रिश्तेदारों का आकर्षण खींच रहा था. उस ने अंजलि के पास आ कर कहा, ‘‘चलो, ममी.’’

‘‘चलती हूं, बेटा,’’ अंजलि ने डा. दास की ओर देखा, ‘‘चश्मा लगाना कब से शुरू किया?’’

‘‘वही इंगलैंड से लौटने के बाद. वापस आने के कुछ महीने बाद अचानक आंखें कमजोर हो गईं तो चश्मे की जरूरत पड़ गई,’’ डा. दास गंगा की लहरों की ओर देखने लगे.

अंजलि ने अपनी दोनों आंखों को हथेलियों से मला, मानो उस की आंखें भी कमजोर हो गई हैं और स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा है.

‘‘शादी कब की? वाइफ क्या करती है?’’

डा. दास ने अंजलि की ओर देखा, कुछ जवाब नहीं दिया, उठ कर बोले, ‘‘चलो.’’

मैदान की बगल वाली सड़क पर चलते हुए गेट के पास आ कर दोनों ठिठक कर रुक गए. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा, अंदर से एकसाथ आवाज आई, याद है?

मैदान के अंदर लाउडस्पीकर से गाने की आवाज आ रही थी. गालिब की गजल और तलत महमूद की आवाज थी :

‘‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक…’’

तलत महमूद पटना आए थे.

डा. घोषाल ने रवींद्र भवन में प्रोग्राम करवाया था. उस समय रवींद्र भवन पूरा नहीं बना था. उसी को पूरा करने के लिए फंड एकत्र करने के लिए चैरिटी शो करवाया गया था. बड़ी भीड़ थी. ज्यादातर लोग खड़े हो कर सुन रहे थे. तलत ने गजलों का ऐसा समा बांधा था कि समय का पता ही नहीं चला.

डा. दास और अंजलि को भी वक्त का पता नहीं चला. रात काफी बीत गई. दोनों रिकशा पकड़ कर घबराए हुए वापस लौटे थे. डा. दास अंजलि को उस के आवास तक छोड़ने गए थे. अंजलि के मातापिता बाहर गेट के पास चिंतित हो कर इंतजार कर रहे थे. डा. दास ने देर होने के कारण माफी मांगी थी. लेकिन उस रात को पहली बार अंजलि को देर से आने के लिए डांट सुननी पड़ी थी और उस के मांबाप को यह भी पता लग गया कि वह डा. दास के साथ अकेली गई थी. मृणालिनी या उस की सहेलियां साथ में नहीं थीं.

हालांकि दूसरे दिन मृणालिनी ने उन्हें समझाया था और डा. दास के चरित्र की गवाही दी थी तब जा कर अंजलि के मांबाप का गुस्सा थोड़ा कम हुआ था किंतु अनुशासन का बंधन थोड़ा कड़ा हो गया था. मृणालिनी ने यह भी कहा था कि डा. दास से अच्छा लड़का आप लोगों को कहीं नहीं मिलेगा. जाति एक नहीं है तो क्या हुआ, अंजलि के लिए उपयुक्त मैच है. लेकिन आजाद खयाल वाले अभिभावकों ने सख्ती कम नहीं की.

बालक ने अंजलि का हाथ पकड़ कर जल्दी चलने का आग्रह किया तो उस ने डा. दास से कहा, ‘‘ठीक है, चलती हूं, फिर आऊंगी. कल तो नहीं आ सकती, शादी है, परसों आऊंगी.’’

‘‘परसों रविवार है.’’

‘‘ठीक तो है, घर पर आ जाऊंगी. दोपहर का खाना तुम्हारे साथ खाऊंगी. बहुत बातें करनी हैं. अकेली आऊंगी,’’ उस ने बेटे की ओर इशारा किया, ‘‘यह तो बोर हो जाएगा. वैसे भी वहां बच्चों में इस का खूब मन लगता है. पूरी छुट्टी है, डांटने के लिए कोई नहीं है.’’

डा. दास ने केवल सिर हिलाया. अंजलि कुछ आगे बढ़ कर रुक गई और तेजी से वापस आई. डा. दास वहीं खड़े थे. अंजलि ने कहा, ‘‘कहां रहते हो? तुम्हारे घर का पता पूछना तो भूल ही गई?’’

‘‘ओ, हां, राजेंद्र नगर में.’’

‘‘राजेंद्र नगर में कहां?’’

‘‘रोड नंबर 3, हाउस नंबर 7.’’

‘‘ओके, बाय.’’

अंजलि चली गई. डा. दास बुत बने बहुत देर तक उसे जाते देखते रहे. ऐसे ही एक दिन वह चली गई थी…बिना किसी आहट, बिना दस्तक दिए.

डा. दास गरीब परिवार से थे. इसलिए एम.बी.बी.एस. पास कर के हाउसजाब खत्म होते ही उन्हें तुरंत नौकरी की जरूरत थी. वह डा. दामोदर के अधीन काम कर रहे थे और टर्म समाप्त होने को था कि उसी समय उन के सीनियर की कोशिश से उन्हें इंगलैंड जाने का मौका मिला.

पटना कालिज के टेनिस लान की बगल में दोनों घास पर बैठे थे. डा. दास ने अंजलि को बताया कि अगले हफ्ते इंगलैंड जा रहा हूं. सभी कागजी काररवाई पूरी हो चुकी है. एम.आर.सी.पी. करते ही तुरंत वापस लौटेंगे. उम्मीद है वापस लौटने पर मेडिकल कालिज में नौकरी मिल जाएगी और नौकरी मिलते ही…’’

अंजलि ने केवल इतना ही कहा था कि जल्दी लौटना. डा. दास ने वादा किया था कि जिस दिन एम.आर.सी.पी. की डिगरी मिलेगी उस के दूसरे ही दिन जहाज पकड़ कर वापस लौटेंगे.

लेकिन इंगलैंड से लौटने में डा. दास को 1 साल लग गया. वहां उन्हें नौकरी करनी पड़ी. रहने, खाने और पढ़ने के लिए पैसे की जरूरत थी. फीस के लिए भी धन जमा करना था. नौकरी करते हुए उन्होंने परीक्षा दी और 1 वर्ष बाद एम.आर.सी.पी. कर के पटना लौटे.

होस्टल में दोस्त के यहां सामान रख कर वह सीधे अंजलि के घर पहुंचे. लेकिन घर में नए लोग थे. डा. दास दुविधा में गेट के बाहर खड़े रहे. उन्हें वहां का पुराना चौकीदार दिखाई दिया तो उन्होंने उसे बुला कर पूछा, ‘‘प्रोफेसर साहब कहां हैं?’’

चौकीदार डा. दास को पहचानता था, प्रोफेसर साहब का मतलब समझ गया और बोला, ‘‘अंजलि दीदी के पिताजी? वह तो चले गए?’’

‘‘कहां?’’

‘‘दिल्ली.’’

‘‘और अंजलि?’’

‘‘वह भी साथ चली गईं. वहीं पीएच.डी. करेंगी.’’

‘‘ओह,’’ डा. दास पत्थर की मूर्ति की भांति खड़े रहे. सबकुछ धुंधला सा नजर आ रहा था. कुछ देर बाद दृष्टि कुछ स्पष्ट हुई तो उन्होंने चौकीदार को अपनी ओर गौर से देखते पाया. वह झट से मुड़ कर वहां से जाने लगे.

चौकीदार ने पुकारा, ‘‘सुनिए.’’

डा. दास ठिठक कर खड़े हो गए तो उस ने पीछे से कहा, ‘‘अंजलि दीदी की शादी हो गई.’’

‘‘शादी?’’ कोई आवाज नहीं निकल पाई.

‘‘हां, 6 महीने हुए. अच्छा लड़का मिल गया. बहुत बड़ा अधिकारी है. यहां सब के नाम कार्ड आया था. शादी में बहुत लोग गए भी थे.’’

रविवार को 12 बजे अंजलि डा. दास के घर पहुंची. सामने छोटे से लान में हरी दूब पर 2 लड़कियां खेल रही थीं. बरामदे में एक बूढ़ी दाई बैठी थी. अंजलि ने दाई को पुकारा, ‘‘सुनो.’’

दाई गेट के पास आई तो अंजलि ने पूछा, ‘‘डाक्टर साहब से कहो अंजलि आई है.’’

दाई ने दिलचस्पी से अंजलि को देखा फिर गेट खोलते हुए बोली, ‘‘डाक्टर साहब घर पर नहीं हैं. कल रात को ही कोलकाता चले गए.’’

‘‘कल रात को?’’

‘‘हां, परीक्षा लेने. अचानक बुलावा आ गया. फिर वहां से पुरी जाएंगे…एक हफ्ते बाद लौटेंगे.’’

दाई बातूनी थी, शायद अकेले बोर हो जाती होगी. आग्रह से अंजलि को अंदर ले जा कर बरामदे में कुरसी पर बैठाया. जानना चाहती थी उस के बारे में कि यह कौन है?

अंजलि ने अपने हाथों में पकड़े गिफ्ट की ओर देखा फिर अंदर की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘मेम साहब तो घर में हैं न?’’

‘‘मेम साहब, कौन मेम साहब?’’

‘‘डा. दास की पत्नी.’’

‘‘उन की शादी कहां हुई?’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, मेम साहब, साहब ने आज तक शादी नहीं की.’’

‘‘शादी नहीं की?’’

‘‘नहीं, मेम साहब, हम पुरानी दाई हैं. शुरू से बहुत समझाया लेकिन कुछ नहीं बोलते हैं…कितने रिश्ते आए, एक से एक…’’

अंजलि ने कुछ नहीं कहा. आई तो सोच कर थी कि बहुत कुछ कहेगी, लेकिन केवल मूक बन दाई की बात सुन रही थी.

दाई ने उत्साहित हो कर कहा, ‘‘अब क्या कहें, मेम साहब, सब तो हम को संभालना पड़ता है. बूढे़ हो गए हम लोग, कब तक जिंदा रहेंगे. इन दोनों बच्चियों की भी परवरिश. अब क्या बोलें, दिन भर तो ठीक रहता है. सांझ को क्लिनिक में बैठते हैं,’’ उस ने परिसर में ही एक ओर इशारा किया फिर आवाज को धीमा कर के गोपनीयता के स्तर पर ले आई, ‘‘बाकी साढ़े 8 बजे क्लब जाते हैं तो 12 के पहले नहीं आते हैं…बहुत तेज गाड़ी चला कर…पूरे नशे में. हम रोज चिंता में डूबे 12 बजे रात तक रास्ता देखते रहते हैं. कहीं कुछ हो गया तो? बड़े डाक्टर हैं, अब हम गंवार क्या समझाएं.’’

अंजलि ने गहरी धुंध से निकल कर पूछा, ‘‘शराब पीते हैं?’’

‘‘दिन में नहीं, रात को क्लब में बहुत पीते हैं.’’

‘‘कब से शराब पीने लगे हैं?’’

‘‘वही इंगलैंड से वापस आने के कुछ दिन बाद से. हम तब से इन के यहां हैं.’’

इंगलैंड से लौटने के बाद. अंजलि ने हाथ में पकड़े गिफ्ट को दाई की ओर बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘शादी नहीं हुई तो ये दोनों लड़कियां?’’

दाई ने दोनों लड़कियों की ओर देखा, फिर हंसी, ‘‘ये दोनों बच्चे तो अनाथ हैं, मेम साहब. डाक्टर साहब दोनों को बच्चा वार्ड से लाए हैं. वहां कभीकभार कोई औरत बच्चा पैदा कर के उस को छोड़ कर भाग जाती है. लावारिस बच्चा वहीं अस्पताल में ही पलता है. बहुत से लोग ऐसे बच्चों को गोद ले लेते हैं. अच्छेअच्छे परिवार के लोग.  Romantic Story In Hindi 

Social Story : दो खजूर – क्या आसिफ मुस्तफा काजी के पद के योग्य था ?

Social Story : बगदाद के बादशाह मीर काफूर ने अपने विश्वासी सलाहकार आसिफ मुस्तफा को बगदाद का नया काजी नियुक्त किया, क्योंकि निवर्तमान काजी रमीज अबेदिन अब बूढ़े हो चले थे और उन्होंने बादशाह से गुजारिश की थी कि अब उन का शरीर साथ नहीं दे रहा है इसलिए उन्हें राज्य के काजी पद की खिदमत से मुक्त कर दें. बगदाद राज्य का काजी पद बहुत महत्त्वपूर्ण और जिम्मेदारी भरा होता था. बगदाद के काजी पद पर नियुक्ति की खुशी में आसिफ मुस्तफा ने एक जोरदार दावत दी. उस दावत में उस के मातहत राज्य के सभी न्यायिक दंडाधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी आमंत्रित थे. राज्य के लगभग सभी सम्मानित व्यक्ति भी दावत में उपस्थित थे.

सब लोग दावत की खूब तारीफ कर रहे थे, क्योंकि वहां हर चीज मजेदार बनी थी. आसिफ मुस्तफा सारा इंतजाम खुद देख रहा था. सुरीले संगीत की धुनें वातावरण को और भी रसमय बना रही थीं. अचानक आसिफ मुस्तफा को ध्यान आया कि उस ने एक चीज तो मंगवाईर् ही नहीं. आजकल खजूर का मौसम चल रहा है. अत: उस फल का दावत में होना जरूरी है. बगदाद में पाया जाने वाला अरबी खजूर बहुत स्वादिष्ठ होता है. दावतों में भी उसे चाव से खाया जाता है.

आसिफ ने अपने सब से विश्वसनीय सेवक करीम को बुलाया और उसे सोने का एक सिक्का देते हुए कहा, ‘‘जल्दी से बाजार से 500 अच्छे खजूर ले आओ.’’ बगदाद में खजूर वजन के हिसाब से नहीं बल्कि संख्या के हिसाब से मिलते थे. सेवक फौरन रवाना हो गया. थोड़ी देर बाद लौटा तो उस के पास खजूरों से भरा हुआ एक बड़ा थैला था.

आसिफ मुस्तफा ने कहा, ‘‘थैला जमीन पर उलटो और मेरे सामने सब खजूर गिनो.’’

करीम अपने मालिक के इस आदेश पर दंग रह गया. वह सोच भी नहीं सकता था कि उस का मालिक उस जैसे पुराने विश्वसनीय सेवक पर इस तरह शक करेगा. सब मेहमान भी हैरत से आसिफ की तरफ देखने लगे.

करीम ने फल गिनने शुरू किए. जब गिनती पूरी हुई तो वह थरथर कांपने लगा. खजूर 498 ही थे. आसिफ बिगड़ कर बोला, ‘‘तुम ने बेईमानी की है. तुम ने 2 खजूर रास्ते में खा लिए हैं. तुम्हें इस जुर्म की सजा अवश्य मिलेगी.’’

करीम ‘रहमरहम…’ चिल्लाता रहा, लेकिन आसिफ मुस्तफा जरा भी नहीं पसीजा. उस ने सिपाहियों को आदेश दिया कि करीम को फौरन गिरफ्तार कर लिया जाए. आसिफ के इस बरताव से सारे मेहमान हक्केबक्के थे कि इतनी सी बात पर एक पुराने वफादार सेवक को सजा देना कहां का इंसाफ है.

आसिफ ने आदेश दिया, ‘‘करीम की पीठ पर तब तक कोड़े बरसाए जाएं, जब तक वह अपना अपराध कबूल न कर ले.’’ उस के आदेश का पालन किया जाने लगा. करीम की चीखें शामियाने में गूंजने लगीं. जब पिटतेपिटते करीम लहूलुहान हो गया तो उस ने चिल्ला कर कहा, ‘‘हां, मैं ने 2 खजूर चुरा लिए, 2 खजूर चुरा लिए. मीठेमीठे खजूर देख कर मेरा जी ललचा गया था. मैं अपराध कबूल करता हूं. मुझे छोड़ दो.’’

उस की इस बात पर मेहमानों में खुसुरफुसुर होने लगी कि अब ईमानदारी का जमाना नहीं रहा. जिसे देखो, वही बेईमानी करता है. किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता, वफादार सेवक पर भी नहीं. सभी करीम को कोस रहे थे, जिस की वजह से दावत का मजा किरकिरा हो गया था. तभी आसिफ मुस्तफा ने कहा, ‘‘सिपाहियो, खोल दो इस की जंजीरें.’’

जंजीरें खोल दी गईं. करीम को आसिफ के सामने पेश किया गया. सारे मेहमान चुपचाप देख रहे थे कि अब आसिफ मुस्तफा उस के साथ क्या व्यवहार करता है. सब का विचार था कि करीम ने अपराध स्वीकार कर लिया है इसलिए इसे बंदीगृह में भेज दिया जाएगा या नौकरी से निकाल दिया जाएगा. लेकिन इस के बाद आसिफ मुस्तफा अपनी जगह से उठ कर करीम के पास आया. उस के शरीर से रिसते खून को अपने रूमाल से साफ किया. उस की मरहमपट्टी की और दूसरे साफ कपड़े पहनाए. सभी आश्चर्य करने लगे कि यह क्या तमाशा है. जब करीम रहम की भीख मांग रहा था, तब तो उस की पुरानी वफादारी का लिहाज नहीं किया और अब कबूल चुका है तो उस की मरहमपट्टी हो रही है.

आसिफ मुस्तफा ने करीम से माफी मांगी. फिर मेहमानों से कहने लगा, ‘‘मैं जानता हूं करीम बेकुसूर है. इस ने कोई अपराध नहीं किया. यह देखिए,’’ उस ने अपने कुरते की आस्तीन में से 2 खजूर निकाल कर कहा, ‘‘ये हैं वे 2 खजूर जिन्हें मैं ने पहले ही फुरती से निकाल लिया था. ऐसा मैं ने इसलिए किया था कि आप को बता सकूं कि लोगों को कठोर दंड दे कर जुर्म कबूल करवाना कितनी बड़ी बेइंसाफी है, लेकिन ऐसा हो रहा है. हमारा काम अपराधियों का पता लगाना और उन के अपराध के लिए उन्हें सजा देना है न कि किसी भी निर्दोष को मार कर उसे चोर साबित करना.’’ सभी आसिफ मुस्तफा की इस सच्ची बात पर वाहवाह कर उठे. उन्हें विश्वास हो गया कि आसिफ वाकई काजी के पद के योग्य है. उस के कार्यकाल में किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलेगी और कुसूरवार बच नहीं पाएगा.  Social Story

Family Story In Hindi : बोझ – अपनों का बोझ भी क्या बोझ होता है ?

Family Story In Hindi : मां ने फुसफुसाते हुए मेरे कान में कहा, ‘‘साफसाफ कह दो, मैं कोई बांदी नहीं हूं. या तो मैं रहूंगी या वे लोग. यह भी कोई जिंदगी है?’’

इस तरह की उलटीसीधी बातें मां 2 दिनों से लगतार मुझे समझा रही थी. मैं चुपचाप उस का मुख देखने लगी. मेरी दृष्टि में पता नहीं क्या था कि मां चिढ़ कर बोली, ‘‘तू मूर्ख ही रही. आजकल अपने परिवार का तो कोई करता नहीं, और तू है कि बेगानों…’’

मां का उपदेश अधूरा ही रह गया, क्योंकि अनु ने आ कर कहा, ‘‘नानीअम्मा, रिकशा आ गया.’’ अनु को देख कर मां का चेहरा कैसा रुक्ष हो गया, यह अनु से भी छिपा नहीं रहा.

मां ने क्रोध से उस पर दृष्टि डाली. उस का वश चलता तो वह अपनी दृष्टि से ही अनु, विनू और विजू को जला डालती. फिर कुछ रुक कर तनिक कठोर स्वर में बोली, ‘‘सामान रख दिया क्या?’’

‘‘हां, नानीअम्मा.’’

अनु के स्वर की मिठास मां को रिझा नहीं पाई. मां चली गई किंतु जातेजाते दृष्टि से ही मुझे जताती गई कि मैं बेवकूफ हूं.

मां विवाह में गई थी. लौटते हुए 2 दिन के लिए मेरे यहां आ गई. मां पहली बार मेरे घर आई थी. मेरी गृहस्थी देख कर वह क्षुब्ध हो गई. मां के मन में इंजीनियर की कल्पना एक धन्नासेठ के रूप में थी. मां के हिसाब से घर में दौलत का पहाड़ होना चाहिए था. हर भौतिक सुख, वैभव के साथसाथ सरकारी नौकरों की एक पूरी फौज होनी चाहिए थी. इन्हीं कल्पनाओं के कारण मां ने मेरे लिए इंजीनियर पति चुना था.

मां की इन कल्पनाओं के लिए मैं कभी मां को दोषी नहीं मानती. हमारे नानाजी साधारण क्लर्क थे, लेकिन वे तनमन दोनों से पूर्ण क्लर्क थे. वेतन से दसगुनी उन की ऊपर की आमदनी थी. पद उन का जरूर छोटा था किंतु वैभव की कोई कमी नहीं थी. हर सुविधा में पल कर बड़ी हुई मां ने उस वैभव को कभी नाजायज नहीं समझा. यही कारण था कि मेरे नितांत ईमानदार मास्टर पिता से मां का कभी तालमेल नहीं बैठा.

मुझे अब भी याद है कि मैं जब भी मायके जाती, मां खोदखोद कर इन की कमाई का हिसाब पूछती. घुमाफिरा कर नानाजी के सुखवैभव की कथा सुना कर उसी पथ पर चलने का आग्रह करती, किंतु हम सभी भाईबहनों की नसनस में पिता की शिक्षादीक्षा रचबस गई थी. विवाह भी हुआ तो पति पिता के मनोनुकूल थे.

मां के इन 2 दिनों के वास ने मेरी खुशहाल गृहस्थी में एक बड़ा कांटा चुभो दिया. आज जब सभी अपने काम पर चले गए तो रह गई हैं रचना और मां की बातों का जाल.

रचना को दूध पिला कर सुला देने के बाद मैं घर में बाकी काम निबटाने लगी. ज्यादातर काम तो अनु ही निबटा जाती है, फिर भी गृहस्थी के तो कई अनदेखे काम हैं. सब कामों से निबट कर जब मैं अकेली बैठी तो मां की बातें मुझे बींधने लगीं. ‘क्या हम ने गलत किया है? क्या मैं रचना और आशीष का हक छीन रही हूं? क्या उन की इच्छाओं को मैं पूर्ण कर पा रही हूं? मुझे अपने पति पर क्रोध आने लगा. सचमुच मैं मूढ़ हूं. कितनी लच्छेदार बातें बना कर मुझ से इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठवा दी. मुझे अपनी स्थिति अत्यंत दयनीय नहीं, असह्य लगने लगी. मां के आने से पूर्व भी तो परिस्थितियां यही थीं. सब बच्चे अनु, विनू और विजू साथ रहे किंतु आज उन का रहना असह्य क्यों लग रहा है?’

मन बारबार अतीत में भटकने लगा है. 3 साल पहले की घटना मेरे मनमस्तिष्क पर भी स्पष्ट रूप से अंकित थी. रचना तब होने वाली थी. होली की छुट्टियां हो चुकी थीं. उसी दिन हमें अपनी बड़ी ननद  के यहां जाना था. किंतु वह जाना सुखद नहीं हुआ. उस दिन बिजली का धक्का लगने से उन्हें बचाते हुए जीजी और भाईसाहब दोनों मृत्यु के ग्रास बन गए. रह गए बिलखते, विलाप करते उन के बच्चे अनु, विनू और विजू, सबकुछ समाप्त हो गया. आज के युग में हर व्यक्ति अपने ही में इतना लिप्त है कि दूसरे की जिम्मेदारी का करुणक्रंदन मन को विचलित किए दे रहा था.

रात्रि के सूनेपन में मेरे पति ने मुझ से लगभग रोते हुए कहा, ‘आभा, क्या तुम इन बच्चों को संभाल सकोगी?’

मैं पलभर के लिए जड़ हो गई. कितनी जोड़तोड़ से तो अपनी गृहस्थी चला रही हूं और उस पर 3 बच्चों का बोझ.

मैं कुछ उत्तर नहीं दे पाई. अपना स्वार्थ बारबार मन पर हावी हो जाता. वे अतीत की गाथाएं गागा कर मेरे हृदय में सहानुभूति जगाना चाह रहे थे. अंत में उन्होंने कहा, ‘अपने लिए तो सभी जीते हैं, किंतु सार्थक जीवन उसी का है जो दूसरों के लिए जिए.’

अंततोगत्वा बच्चे हमारे साथ आ गए. घरबाहर सभी हमारी प्रशंसा करते. किंतु मेरा मन अपने स्वार्थ के लिए रहरह कर विचलित हो जाता. फिर धीरेधीरे सब कुछ सहज हो गया. इस में सर्वाधिक हाथ 17 वर्षीय अनु का था.

उन लोगों के आने के बाद हम पारिवारिक बजट बना रहे थे, तभी ‘मामी आ जाऊं?’ कहती हुई अनु आ गई थी. उस समय उस का आना अच्छा नहीं लगा था, किंतु कुछ कह नहीं पाई. ‘मामी,’ मेरी ओर देख कर उस ने कहा था, ‘आप को बजट बनाते देख कर चली आई हूं. अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही हूं, बुरा नहीं मानिएगा.’

‘नहींनहीं बेटी, कहो, क्या कहना चाहती हो?’

‘आप रामलाल की छुट्टी कर दें. एक आदमी के खाने में कम से कम 2,000 रुपए तो खर्च हो ही जाते हैं.’

मेरे प्रतिरोध के बाद भी वह नहीं मानी और रामलाल की छुट्टी कर दी गई. अनु ने न केवल रामलाल का बल्कि मेरा भी कुछ काम संभाल लिया था.

उस के बाद रचना का जन्म हुआ. रचना के जन्म पर अनु ने मेरी जो सेवा की उस की क्या मैं कभी कीमत चुका पाऊंगी?

रचना के आने से खर्च का बोझ बढ़ गया. उसी दिन शाम को अनु ने आ कर कहा, ‘‘मम्मा, मेरी एक टीचर ने बच्चों के लिए एक कोचिंग सैंटर खोला है. प्रति घंटा 300 रुपए के हिसाब से वे अभी पढ़ाने के लिए देंगी. बहुत सी लड़कियां वहां जा रही हैं. मैं भी कल से जाऊंगी.’’

हम लोगों ने कितना समझाया पर वह नहीं मानी. अपनी बीए की पढ़ाई, घर का काम, ऊपर से यह मेहनत, किंतु वह दृढ़ रही. इन के हृदय में अनु के इस कार्य के लिए जो भाव रहा हो, पर मेरे हृदय में समाज का भय ही ज्यादा था. दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े यत्न से अच्छाई का जो मुखौटा मैं ने ओढ़ रखा है, वह क्या लोगों की आलोचना सह सकेगा?

पर वह प्रतिमाह अपनी सारी कमाई मेरे हाथ पर रख देती. कितना कहने पर भी एक पैसा तक न लेती. यह देख कर मैं लज्जित हो उठती.

विनू भी पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम ट्यूशन करता. इन्होंने बहुत मना किया, पर बच्चों का एक ही नारा था-  ‘मेहनत करते हैं, चोरी तो नहीं.’

3 साल देखतेदेखते बीत गए. आशीष और रचना दोनों की जिम्मेदारियों से मैं मुक्त थी. वह अपने अग्रजों के पदचिह्नों पर चल रहा था. कक्षा में वह कभी पीछे नहीं रहा. मेरी आंखों के सामने बारीबारी से अनु, विनू और विजू का चेहरा घूम जाता. उस के साथसाथ आशीष का भी. क्या इन बच्चों को घर से निकाल दूं?

मेरा बाह्य मन हां कहता. 3 का खर्च तो कम होगा. किंतु अंतर्मन मुझे धिक्कारता. कल अगर हम दोनों नहीं रहे तो आशीष और रचना भी इसी तरह फालतू हो जाएंगे. मैं फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘क्या बात है, मामी, रो क्यों रही हैं?’’ अनु के कोमल स्वर से मेरी तंद्रा भंग हो गई. शाम हो चुकी थी.

मां ने कितना अत्याचार किया मात्र 2 दिनों में. आशीष और रचना को छिपा कर हर चीज खिलाना चाहती थी. बारबार बच्चों को उलटीसीधी बातें सिखाती.

मैं अनु की ओर देखने लगी. मुझे लगा अनु नहीं, मेरी रचना बड़ी हो गई है और हम दोनों के अभाव में मां की दी हुई मानसिक यातनाएं भोग रही है.

मैं ने अनु को हृदय से लगा लिया. ‘‘नहींनहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी.’’

‘‘मुझे आप से अलग कौन कर रहा है?’’ अनु ने हंस कर कहा.

‘‘किंतु इसे जाना तो होगा ही,’’ यह करुण स्वर मेरे पति का था. पता नहीं कब वे आ गए थे.

‘‘क्या?’’ मैं ने अपराधी भाव से पूछा.

‘‘अनु का विवाह पक्का हो गया है. मेरे अधीक्षक ने अपने पुत्र के लिए स्वयं आज इस का हाथ मांगा है. दहेज में कुछ नहीं देना पड़ेगा.’’

अनु सिर झुका कर रोने लगी. मेरे हृदय पर से एक बोझ हट गया. उसे हृदय से लगा कर मैं भी खुशी में रो पड़ी.  Family Story In Hindi

False Knowledge : दुराज्ञान का फेर

False Knowledge : ज्ञान की जरूरत सब को है, दुराज्ञान की नहीं. दुराज्ञान तो न केवल एक अकेले बल्कि उस के पूरे परिवार को, उस के संबंधियों को, उस के गांव को और यहां तक कि पूरे देश को भी ऐसे गहरे गड्ढे में डाल सकता है जिस में गिर कर भी एक अकेला या पूरा समूह अपने को सही ही मानता रहे जबकि दूसरों को दुश्मन समझता रहे. यही नहीं, उक्त गड्ढे में अपनी ही फैलाई गंदगी पर गौरव भी महसूस करता रहे.

ऐसे लोग परिवारों में अकसर दिख जाते हैं जो पारिवारिक या निजी संबंधों को ले कर पूर्वाग्रह पाल लेते हैं और मरने तक उन से निकल नहीं पाते. वे खुद के लिए बोझ होते हैं और दूसरों के लिए भी नुकसानदायक. मुसीबत तब होती है जब दुराज्ञान का शिकार आसपास वालों को प्रभावित कर के सब को अपने साथ मिला लेता है. मुसीबत तब भी होती है जब आसपास वालों के दुराज्ञान को सही ज्ञान मान कर लोग उन से चिपकने लगते हैं.

विधवा से विवाह करना वर्जित है, यह दुराज्ञान है, जिसे इस देश के लोगों ने सदियों सहा. यह सही तब होता जब विधुर भी शादी न करते. जिन समाजों में विधवाओं का विवाह होता था वहां कोई आफत नहीं आई, यह जान कर भी जो इस से चिपटे रहे वे विधवाओं के जीवन को तो नर्क बनाते ही रहे, उन्हें घरों में कैद रख एक आफत भी मोल लेते रहे.

निसंतान औरतों को अपशकुनी मान कर आज भी उन का अपमान किया जाता है तब भी जब उन के पति को मालूम होता है कि स्पष्ट रूप से दोषी वही है. पूरा परिवार हर समय गंभीर तनाव में जीता है. सब लोग न खुद चैन से जीते हैं न निसंतान जोड़े को चैन से जीने देते रहे हैं.

हमारे पुराणों में ऐसी सैकड़ों कहानियां भरी हैं जिन में निसंतान दंपती तपस्या करते रहे, व्रतों में पैसा व शक्ति बरबाद करते रहे, पुत्रेष्ठि यज्ञ करतेकराते रहे, नियोग तक अपनाते रहे. क्या वे दुराज्ञान के शिकार नहीं थे? क्या आज उन की गिनती कम हो गई है?

आजकल हम भारतीयों को इसी दुराज्ञान के कारण अपने अतीत पर बहुत गौरव है. रोजाना सोशल मीडिया या टीवी चैनलों में समृद्ध व शक्तिशाली भारत की बातें की जाती रहती हैं. और इन्हीं के आधार पर हम अपना वर्तमान कम ठीक कर रहे हैं जबकि इन्हीं बातों की शराब पी कर मस्त ज्यादा हो रहे हैं.

हमारा यह दुराज्ञान असल में उन जरमन व अन्य यूरोपीय विचारकों ने शुरू किया था जिन्हें 17वीं, 18वीं सदी में भारतीय संस्कृत की किताबों का अनुवाद मिलना शुरू हुआ. जो लोग यह सोचे बैठे थे कि पढ़नालिखना तो केवल यूरोप के लोग जानते हैं उन्हें उस पर आश्चर्य हुआ और अनेक विद्वानों ने भारतीय पुस्तकों के आधार पर बड़े प्रशंसात्मक विचारों वाली पुस्तकें लिख डालीं.

मजेदार बात यह है कि मैक्समूलर और जेम्स मिल जैसे विद्वान न कभी भारत में आए न यहां रहे, फिर भी उन्होंने एक के बाद एक किताब लिख मारीं जो आज के विषैले दुराज्ञान की जड़ हैं. हम ने इन नकली पुस्तकों को सही मान कर झूठ को सच समझ लिया और रात को दिन समझने लगे.

आज भारत गरीब है, बिखरा है, गंदा है, करप्ट है, अंधविश्वासी है लेकिन हम इस सब को वैसे ही मानने को तैयार नहीं जैसे एक परिवार का मुखिया मानने को तैयार नहीं होता कि वह पुरानी लीक पर चल कर गलत कर रहा है.

आज हर घर में जो विवाद है उस के पीछे वही दुराज्ञान है जो कभी यूरोपियों ने हमारे गले मढ़ दिया था. हम समझने को तैयार ही नहीं कि हम गलत हो सकते हैं. हम हर पाखंड, परिपाटी को बिना समझे व बिना परखे इस युग में भी अपने पर थोपे चले जा रहे हैं जबकि विज्ञान, गणित, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर साइंस, वायरलैस, आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस वगैरह का बोलबाला है.

इसे दोगलापन नहीं कहेंगे क्योंकि यह जानबूझ कर या स्वार्थवश नहीं किया जा रहा. यह तो वह कोरा दुराज्ञान है जो हमारे मनमस्तिष्क में गहरी जड़ें जमा चुका है. यह ऐसा है कि सब से मौडर्न मैडिसन के साथ झाड़फूंक कराने को भी सहजता से स्वीकार कर लेता है.

जीवन एक गणित है जिस में दो और दो कभी भी पांच नहीं होते. इस के विपरीत हम जिद पर अड़े हैं कि पूर्वजों ने जो कहा था वही सही है, वही सच है. यह आज की प्रौढ़ पीढ़ी और युवा पीढ़ी के बीच सब से बड़ी खाई का कारण है. हमें आज अगर नहीं मालूम कि यह युवा पीढ़ी क्या व क्यों कर रही है तो इसलिए कि युवा पीढ़ी नहीं समझ सकती कि प्रौढ़ पीढ़ी क्यों इस दुराज्ञान से चिपकी हुई है. False Knowledge

Superstitions : अंधविश्वास की जड़ें पूरी दुनिया में फैली हैं

Superstitions : अंधविश्वास के लिए भारत हमेशा बदनाम रहा है, मगर यह बीमारी दुनिया के अनेक देशों में फैली हुई है. लगभग हर समाज और संस्कृति में अनेक तरह के अंधविश्वास पनपे. कुछ तो ऐसे अंधविश्वास रहे हैं जो बहुत खतरनाक साबित हुए, फिर भी बहुत प्रचलित रहे. इन अंधविश्वासों ने बड़ी संख्या में लोगों की जान ली और समाज को नुकसान पहुंचाया. इस में कोई दोराय नहीं कि अंधविश्वास की पहली शिकार औरत और दूसरा शिकार मासूम बच्चे होते हैं.

दुनिया के सब से खतरनाक लेकिन बहुप्रचलित अंधविश्वास में चुड़ैल-टोना और डायन प्रथा प्रमुख थी. यूरोप में ‘विच हंट्स’ (16वीं–17वीं सदी) के दौरान हजारों महिलाओं को सिर्फ चुड़ैल समझ कर जिंदा जला दिया गया. भारत और अफ्रीका में भी आज तक कई जगह महिलाओं को ‘डायन’ कह कर मार दिया जाता है. मानव बलि और नरबलि सिर्फ भारत में ही नहीं दी जाती बल्कि प्राचीन संस्कृतियों (माया, एजटेक, इंका, भारत के कुछ हिस्सों) में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए इंसानों की बलि दी जाती थी. यह विश्वास इतना गहरा था कि समाज इसे धर्म समझ कर इस का पालन करता था.

काली बिल्ली द्वारा रास्ता काटना बड़ा अशुभ माना जाता है. यूरोप से ले कर एशिया तक यह अंधविश्वास फैला कि बिल्ली या उल्लू को देखना अशुभ है. नतीजा बिल्लियों का सामूहिक कत्लेआम हुआ, खासकर मध्यकालीन यूरोप में. इस से चूहों की संख्या बढ़ी और प्लेग जैसी महामारी फैली.

एक और अंधविश्वास काफी समय तक लोगों की जान लेता रहा. ये था खून से इलाज यानी ब्लड-लेटिंग. यूरोप और एशिया में माना जाता था कि बीमारियों को खून निकालने से ठीक किया जा सकता है. लाखों मरीज इस ‘इलाज’ से मर गए क्योंकि असल में इससे शरीर और कमजोर हो जाता था.

जाति और जन्म आधारित अंधविश्वास तो आज तक दुनिया भर में कायम है. भारत और कई समाजों में यह मान्यता रही कि जन्म से कोई ऊंचा नीचा होता है. इस के चलते भेदभाव, छुआछूत और लाखों लोगों का सामाजिक शोषण हुआ और हो रहा है.

भारत में शनि ग्रहण और ग्रहदोष का डर दिखा कर औरतों का खूब शोषण होता है. ग्रहण को अपशकुन मान कर गर्भवती महिलाओं को कैद कर देना, खानापीना रोक देना, या ग्रह शांति के नाम पर महंगे अनुष्ठान करवाना भारत में आज भी जारी है.

कई देशों में बीमारी की वजह जादूटोना को माना जाता था. अफ्रीका और एशिया के कई हिस्सों में एचआईवी, मलेरिया, और मानसिक रोगों को टोना टोटका या दुष्ट आत्मा का असर माना जाता रहा और उस के इलाज की जगह झाड़फूंक कराने से लाखों जानें गईं.

मध्य पूर्व, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और अफ्रीका में यह अंधविश्वास रहा कि परिवार या कबीले के खून का बदला खून से ही चुकाना चाहिए. लिहाजा पीढ़ियों तक हिंसा और कत्लेआम चलते रहे, साफ है कि अंधविश्वास केवल व्यक्तिगत नहीं होते, बल्कि पूरी सभ्यता और मानव इतिहास को प्रभावित करते हैं. कई बार अंधविश्वासों ने विज्ञान और उसकी खोजों की राह रोक दी. उदाहरण के लिए – यूरोप में डार्क एजेस के दौरान धार्मिक अंधविश्वासों के कारण वैज्ञानिक खोजों को दबाया गया. शासक अंधविश्वासों का उपयोग जनता पर नियंत्रण रखने के लिए करते थे. जैसे ‘दैवी अधिकार’ का विचार, जिस में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था और उस का आदेश ईश्वर का आदेश होता था.

ऐसे ही समय में मानव वध या बलिदान को भी अंधविश्वासों से वैध ठहराया गया. जबजब अंधविश्वास प्रबल हुए, विज्ञान और आलोचनात्मक सोच पीछे छूट गई. लेकिन जबजब समाज ने अंधविश्वासों को चुनौती दी पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति हुई और तभी सभ्यताएं तेजी से आगे बढ़ीं. यानी अंधविश्वास सिर्फ व्यक्तिगत भ्रम नहीं, बल्कि सभ्यता की गति और दिशा तय करने वाले कारक भी हैं.  Superstitions

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