RSS : आरएसएस संगठन को बने 100 साल पुरे हो चुके हैं. वह खुद को दुनिया का सब से बड़ा संगठन बताता है और समाजसेवी भी लेकिन 100 सालों में उन का ऐसा कोई काम नजर नहीं आता जिस से देश या समाज प्रगति की ओर अग्रसर हुआ हो और न ही सामाजिक बुराई को खत्म करने में कोई अहम् भूमिका निभाई हो. बल्कि कई मौकों पर धार्मिक और जातिगत विवाद जरूर पैदा करते दिखा है.
देश को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आरएसएस भाजपा के कामों में दखल रखता है या नहीं. देश भाजपा को संघ परिवार का हिस्सा मानता है. सरसंघचालक मोहन भागवत को बारबार इस की सफाई देने की जरूरत नहीं है. देश यह समझने की कोशिश कर रहा है कि आरएसएस के 100 साल पूरे होने के बाद भी हिंदू इतना गरीब क्यों है ? आज में बड़ी संख्या में हिंदू अंगरेजी पढ़ने मिशनरी स्कूलों में जाने को विवश क्यों है ? आज भी हिंदू झुग्गी झोपड़ी में रहने को मजबूर क्यों है ? जिन कामों को कर के हिंदू रोजगार पा रहा था आज भी उन की प्रगति क्यों नहीं हुई है ?
‘हर मंदिर के नीचे मसजिद देखने की सोच बदलनी होगी’ मोहन भागवत के बारबार यह कहने के बाद भी यही हो रहा है. इस को देख कर रहीम दास की यह बात याद आती है कि ‘कह रहीम कैसे निभे केर बेर के संग, वो डोलत रस आपने ताको फाटत अंग’. समाज में जिस तरह से भेदभाव का बीज बो दिया गया है उस के बीच केला और बेर एक साथ कैसे रह सकते हैं ?
सरसंघ चालक कहते हैं कि संघ का हर सरकार के साथ अच्छा संबंध रहा है. चाहे वह प्रदेश की सरकार हो या देश में अलगअलग पार्टियों की सरकार रही हो. ऐसे में यह बात भी सामने है कि आरएसएस की बात सभी सुनते रहे हैं. इस के बाद भी हिंदू समाज में मजबूरी को खत्म करने की दिशा में काम क्यों नहीं हुआ ? संघ खुद को सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन कहता है इस के बाद भी देश में असमानता क्यों है ? दहेज जैसी तमाम कुरीतियां खत्म क्यों नहीं हुई ? क्या संघ का काम केवल प्रवचन देने तक ही सीमित नहीं रह गया है? संघ से जुड़े लोग हर क्षेत्र में हैं तो वहां चारित्रिक सुधार क्यों नहीं हुआ ?
आरएसएस और भाजपा का है करीबी रिश्ता
आजादी की लड़ाई के समय हिंदू महासभा कांग्रेस को अपने मुख्य दुश्मन के तौर पर देखती थी. यह अंगरेजों के साथ दोस्ती करने के लिए तैयार थे. इस के बाद भी खुद को राष्ट्रवादी बताने से चूकते नहीं थे. आजादी के 52 सालों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा तिरंगा झंडा फहराने से इनकार किया जाता रहा. आरएसएस ने झंडा तब फहराया जब 1998 में भाजपा की केंद्र में सरकार बनी. आरएसएस का गठन 1925 में केबी हेडगेवार द्वारा किया गया था. 1925 से 1947 तक इस ने कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी या समूह द्वारा चलाए गए किसी अभियान या आंदोलन में भागीदारी नहीं की. न ही अंगरेजों के खिलाफ इस ने खुद से ही कोई आंदोलन चलाया.
राष्ट्रवाद को यह अपना धर्म बताते हैं. इन के राष्ट्रवाद का अर्थ वास्तव में हिंदू राष्ट्रवाद रहता है. मुसलिमों के वर्चस्व के खतरे के खिलाफ यह हिंदू समाज को लामबंद करने का काम करते हैं. आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार नागपुर में कांग्रेस के नेता भी थे. असहयोग आंदोलन के दौरान जेल भी गए थे. इस के बाद वह वीडी सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व’ से प्रभावित थे. जो प्रकाशित 1923 में हुई थी, लेकिन प्रसार में इस से पहले से थी. जिस में सावरकर ने हिंदुत्व की विचारधारा का मूल विचार दिया था. हेडगेवार मुख्य तौर पर एक सांगठनिक व्यक्ति थे और बौद्धिक और वैचारिक निर्देश वास्तव में सावरकर से ही आता था.
1925 की विजयादशमी के दिन हेडगेवार और हिंदू महासभा के चार नेताओं बीएस मुंजे, गणेश सावरकर, एलवी परांजपे और बीबी ठोलकर के बीच हुई थी. सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर इस बैठक में मौजूद थे, जिस में आरएसएस की स्थापना हुई थी. इस के बाद उन्होंने अपने संगठन तरुण भारत संघ का विलय आरएसएस में कर दिया था. आरएसएस के गठन के 2 साल बाद देशभर में साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे. लेकिन इन में आरएसएस कहीं नहीं था. दिसंबर, 1929 में जवाहर लाल नेहरू ने लाहौर में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के तौर पर भारत के राष्ट्रीय ध्वज को फहराया और पूर्ण स्वराज को पार्टी का मकसद घोषित किया.
कांग्रेस ने 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस के तौर पर मनाने का भी फैसला लिया. हेडगेवार ने दावा किया कि चूंकि आरएसएस पूर्ण स्वराज में यकीन करता है, इसलिए यह स्वतंत्रता दिवस तो मनाएगा, लेकिन यह तिरंगे की जगह भगवा झंडा फहराएगा. 1930 के दशक में आरएएस और हिंदू महासभा के बीच सावरकर को ले कर टकराव हुआ. इस के बाद भी दोनों संगठनों के बीच संबंध बने रहे. इस के बाद सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी बने. 6 साल तक इस पद पर बने रहे.
30 जनवरी को गांधीजी की हत्या के तुरंत बाद उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री के रूप में सरदार पटेल के नेतृत्व में भारत सरकार ने आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया और इस के 25,000 सदस्यों को जेल भेज दिया. प्रतिबंध लगाए जाने पर हिंदू महासभा ने खुद को भंग करने का फैसला किया.
इस के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की. इस के बाद से इसे हिंदू सांप्रदायिक विचारों का मुख्य राजनीतिक वाहन, इस की सर्वप्रमुख राजनीतिक पार्टी होना था. 1977 में आपातकाल के बाद इस का जनता पार्टी में विलय हो गया और बाद में 1980 में इस ने भाजपा के रूप में नया अवतार लिया. इस तरह से भाजपा और आरएसएस के बीच गहरा रिश्ता है. सरसंघ चालक के कहने की बात नहीं है देश के लोग इस सच को जानते हैं. संघ को बारबार सफाई देने की जरूरत नहीं है.
मुसलिम विरोध बना एजेंडा
1920 में बालगंगाधर तिलक के निधन के बाद नागपुर में तिलक के समर्थकों की ही तरह से डाक्टर हेडगेवार भी महात्मा गांधी द्वारा अपनाए गए कुछ कार्यक्रमों के विरोधी थे. भारतीय मुसलिम खिलाफत मुद्दे पर गांधी का रुख हेडगेवार के लिए चिंता का विषय था. इस में एक और कारण था ‘गौरक्षा’ का कांग्रेस के एजेंडे में होना. इस कारण हेडगेवार और अन्य तिलक समर्थकों ने गांधी से नाता तोड़ लिया. 1921 में हेडगेवार को कटोल और भरतवाड़ा में दिए गए उन के भाषणों के लिए ‘राजद्रोह’ के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. उन को एक वर्ष की जेल की सजा सुनाई गई.
जुलाई 1922 में उन्हें रिहा कर दिया गया. 1922 और 1924 के बीच नागपुर में प्रमुख राजनीतिक हस्तियों के साथ बैठकें कीं. 1924 में वे पास के वर्धा में गांधीजी के आश्रम गए और कई मुद्दों पर चर्चा की. इस बैठक के बाद, वे अकसर विरोधी हिंदू समूहों को एक साझा राष्ट्रवादी आंदोलन में एकजुट करने की योजना बनाने के लिए वर्धा से चले गए. यही दौर था जब हिंदू मुसलिम एकदूसरे के खिलाफ दिखने लगे थे. महात्मा गांधी चाहते थे कि हिंदूमुसलिम एकजुट रहें. अगस्त 1921 में मोपला विद्रोह विद्रोह इस की शुरू आत मानी जाती है. 1923 में नागपुर में दंगे हुए जिन्हें हेडगेवार ने ‘मुसलिम दंगे’ कहा था.
अब हेडगेवार का प्रयास हिंदूओं को संगठित करने के साथ ही साथ उन को मजबूत करने का भी था. इस के लिए संगठन में लोगों को मजबूत करने के लिए ट्रेनिंग देने की योजना शुरू की गई. 1927 में हेडगेवार ने प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक टुकड़ी बनाने के उद्देश्य से ‘अधिकारी प्रशिक्षण शिविर’ का आयोजन किया. जिस को प्रचारक कहा गया. इस के लिए स्वयंसेवकों से पहले ‘साधु’ बनने, पेशेवर और पारिवारिक जीवन को त्यागने और आरएसएस के लिए अपना जीवन समर्पित करने को कहा गया. इस के बाद शाखाओं का एक नेटवर्क विकसित किया गया. प्रचारक को अधिक से अधिक शाखाएं तैयार करने के लिए कहा गया.
पहले नागपुर में फिर पूरे महाराष्ट्र में और अंततः शेश भारत में इस की शुरूआत की गई. इस में कालेज और विश्वविद्यालयों को भी जोड़ना शुरू किया गया. बनारस इस काम के लिए प्रचारकों को अलगअलग प्रदेशों में भेजा गया. आरएसएस ने अपने हिसाब से संगठन को बनाने के लिए अलगअलग हिस्सों में बांटा. इस को प्रांत का नाम दिया गया. हर प्रांत में प्रांत प्रचारक को जिम्मेदारी दी गई कि वह शाखा और संगठन को मजबूत कर सके. धीरधीरे इस काम को विस्तार दिया जाए. अपने खर्चों को चलाने के लिए आरएसएस से गुरू दक्षिणा लेनी शुरू की. हर साल गुरू पूर्णिमा के अवसर पर इस का आयोजन होता है. फ्रांसीसी राजनीतिक वैज्ञानिक क्रिस्टोफ जैफ्रेलो का कहना है कि आरएसएस का उद्देश्य हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करना और बहुसंख्यक समुदाय को ‘नई शारीरिक शक्ति’ प्रदान करना था.
1927 में आरएसएस में लगभग 100 स्वयंसेवकों को शामिल करने के बाद गणेश पूजा के लिए मुसलिम क्षेत्र में ले जाया गया. गणेश के लिए हिंदू धार्मिक जुलूस का नेतृत्व इन लोगों ने किया. पहले जुलूस मसजिद के सामने से नहीं गुजरता था. इस को तोड़ते हुए न केवल जुलूस निकाला गया बल्कि ढोल बजाए गए.
4 सितंबर को लक्ष्मी पूजा के दिन, मुसलमानों ने जवाबी कार्रवाई की. जब हिंदू जुलूस नागपुर के महल क्षेत्र में एक मसजिद में पहुंचा, तो मुसलमानों ने इसे रोक दिया. दोपहर में उन्होंने महल क्षेत्र में हिंदू आवासों पर हमला किया. दंगे 3 दिनों तक जारी रहे और हिंसा को शांत करने के लिए सेना को बुलाना पड़ा.
आरएसएस ने हिंदू प्रतिरोध का आयोजन किया और हिंदू परिवारों की रक्षा का दावा किया. इस घटना से आरएसएस की पहचान बनी. क्रिस्टोफ जैफ्रेलो ने आरएसएस की विचारधारा में आर्य समाज और हिंदू महासभा जैसे अन्य हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलनों के साथ ‘कलंक और अनुकरण’ के विषय की तरफ इशारा किया है. मुसलमानों, ईसाइयों और अंगरेजों को हिंदू राष्ट्र में ‘विदेशी निकाय’ माना गया. जो हिंदुओं के बीच फूट और वीरता की कमी का फायदा उठा कर उन्हें अपने अधीन करने में सक्षम थे.
आरएसएस और हिंदू महासभा
हिंदू महासभा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर से अलग हुए गुट ने बनाई. इस के ऊपर आरएसएस पर प्रभाव था. 1923 में मदन मोहन मालवीय जैसे प्रमुख हिंदू नेता इस मंच पर एकत्र हुए और ‘हिंदू समुदाय में विभाजन’ पर अपनी चिंता व्यक्त की. हिंदू महासभा में अपने भाषण में मालवीय ने कहा ‘दोस्ती बराबरी के लोगों के बीच हो सकती है. अगर हिंदू खुद को मजबूत बनाते हैं और मुसलमानों के बीच उपद्रवी वर्ग को यह विश्वास हो जाता है कि वे सुरक्षित रूप से हिंदुओं को लूट और अपमानित नहीं कर सकते हैं, तो एक स्थिर आधार पर एकता स्थापित होगी. वह चाहते थे कि कार्यकर्ता सभी लड़केलड़कियों को शिक्षित करें, अखाड़े स्थापित करें, लोगों को हिंदू महासभा के निर्णयों का पालन करने के लिए राजी करने के लिए एक स्वयंसेवी दल स्थापित करें.
हिंदू महासभा के नेता वीडी सावरकर की ‘हिंदुत्व’ विचारधारा का भी आरएसएस की ‘हिंदू राष्ट्र’ पर गहरा प्रभाव था. 1931 में अकोला में हिंदू महासभा की वार्षिक बैठक के आयोजन में आरएएस ने अलग संस्था के रूप हिस्सा लिया था. गणेश सावरकर ने स्थानीय नेताओं के साथ संपर्क शुरू कर के महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली और रियासतों में आरएसएस की शाखाओं को फैलाने का काम किया. इसी के साथ सावरकर ने अपने युवा संगठन तरुण हिंदू सभा का आरएसएस में विलय कर इस के विस्तार में मदद की. 1937 में रिहा होने के बाद वीडी सावरकर आरएसएस के प्रसार में उन के साथ शामिल हो गए और इस के समर्थन में भाषण दिए.
100 साल में मुद्दे जस के तस
आरएसएस का जन्म ही मुसलिम विरोध को ले कर हुआ. उस दौर में जितने भी हिंदूवादी विचारों के लोग थे सब ने आरएसएस का साथ दिया. इस के बाद आरएसएस ने अपना प्रभाव बनाना शुरू किया. अलगअलग सरकारों के साथ उस के संबंध रहे हैं. आजादी के बाद संघ ने अपना राजनीतिक संगठन भारतीय जनसंघ बनाया. 1977 में यह जनता पार्टी में विलय हो गया. इस के बाद 1980 में जनता पार्टी से अलग हो कर जनसंघ के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी बनाई. इस के बाद 1989 में भाजपा पहली बार सत्ता में शामिल हुई. विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने. एक साल में ही भाजपा ने खुद को अलग कर लिया. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में भाजपा ने सरकार बनाई.
2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब से अब तक भाजपा का राज है. परोक्ष रूप से यह माना जाता है कि भाजपा के पीछे आरएसएस की ही ताकत है. आरएसएस इस बात से इंकार करती रहती है. संघ के 100 साल पूरे होने पर सरसंघ चालक मोहन भागवत ने भाजपा और आरएसएस के संबंधों को ले कर कहा ‘आरएसएस, बीजेपी को नियंत्रित नहीं करता है. आरएसएस सुझाव देता है, लेकिन बीजेपी अपने फैसले खुद लेती है. आरएसएस और सरकार के बीच कोई झगड़ा नहीं है. अगर कोई व्यक्ति कुर्सी पर बैठा है और वह हमारे लिए 100 फीसदी है, तो भी उसे पता है कि क्या दिक्कतें हैं. हमें उसे आजादी देनी होगी. हमारी हर सरकार के साथ अच्छी बातचीत होती है, चाहे वह राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार. सिर्फ इस सरकार के साथ ही नहीं, बल्कि हर सरकार के साथ आरएसएस के अच्छे रिश्ते रहे हैं. सिस्टम में कुछ कमियां हैं. यह सिस्टम अंगरेजों ने बनाया था ताकि वे राज कर सकें. हमें इस में कुछ बदलाव करने की जरूरत है.’
सवाल उठता है कि आरएसएस ने जो सपने देखे थे वह कितने पूरे हुए? समाज में अभी भी छुआछूत कायम है. हिंदूमुसलिम के बीच तनाव कायम है. दंगे होते हैं. वैसे तो आरएसएस हिंदूमुसलिम संबंधों को ले कर भी एकता की बात करते हैं. इस के बाद भी उसे वोट 80 बनाम 20 का बंटवारा करने पर ही मिलता है. भाजपा सरकार और संगंठन दोनों में ही मुसलिमों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. चुनाव लड़ने के लिए भाजपा उन को टिकट नहीं देती है. यह बात और है कि आरएसएस के कुछ लोगों ने भारतीय मुसलिम संगठन भी बनाया है. मोहन भागवत मुसलिमों के साथ बातचीत भी करते हैं.
दिल्ली के हरियाणा भवन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मुसलिम धर्मगुरुओं के साथ बैठक की. इस में 70 से ज्यादा मुसलिम धर्मगुरुओं, बुद्धिजीवियों, मौलानाओं, स्कौलर के बीच करीब 3 घंटे बातचीत हुई. इस से पहले सितंबर 2022 में मोहन भागवत ने कई मुसलिम धर्मगुरुओं से मुलाकात की थी. बैठक में ज्ञानवापी विवाद, हिजाब विवाद और जनसंख्या नियंत्रण जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई थी. इस दौरान भागवत दिल्ली के एक मसजिद में भी गए थे. संघ अपनी सहयोगी संस्था मुसलिम राष्ट्रीय मंच के जरिए मुसलिम मौलवियों, धर्मगुरुओं और समुदाय के प्रमुख लोगों के साथ बातचीत करता है. इस के बाद भी देश में मुसलिम विरोध पर ही भाजपा राजनीति कर रही है.
आज भी देश में गैरबराबरी है. हर शहर में गरीबों की बस्तियां हैं. अगर आरएसएस ने सही तरह से काम किया होता तो यह गैर बराबरी का दौर खत्म हो गया होता. सरकारी अस्पतालों में आरएसएस ने सेवा भाव से काम किया होता तो वहां गरीबों को सही इलाज मिल जाता. यही नहीं आज सरकारी स्कूल बदहाल है. वहां पढ़ाई का माहौल नहीं है. ऐसे में आरएसएस को इन क्षेत्रों में काम करना चाहिए था. आरएसएस के लोग जो चाहते हैं वह करते हैं. चाहे मंदिर में पूजा हो, गणेश यात्रा, कांवड यात्रा जैसे धार्मिक आयोजन हो जाते हैं वहां बजट की चिंता नहीं होती है.
आरएसएस बयान देने में आगे रहता है. उस की नजर में दलितों की कोई समस्या नहीं है. उसे लगता है कि हिंदूमुसलिम में कोई अलगाव नहीं है. मूल रूप से जो हालात हैं वह समझ नहीं रहा है. आरएसएस की विचारधारा हिंदूत्व और हिंदू राष्ट्र की है. जिस में दलित और मुसलिम दोनों के लिए कोई जगह नहीं है. ऐसे में बारबार संघ प्रमुख की बातें सवालों के घेरे में रहती है. संघ प्रमुख की बातें हाथी के दांत जैसी है. जो खाने के और दिखाने के और होते हैं. भाजपा आज भी अपने मुद्दे संभल जैसे पुराने विवाद में तलाश रही है. मोहन भागवत कितना भी कहे कि हर मंदिर के नीचे मसजिद तलाशने की जरूरत नहीं है लेकिन काशी, मथुरा और संभल जैसी तमाम जगहों पर वही हो रहा है. RSS