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Raksha Bandhan : काश मेरी बेटी होती – भाग 1

‘‘यार, तुम बहुत खुशनसीब हो कि तुम्हें बेटी है…’’ शोभा बोली, ‘‘बेटियां मातापिता का दुखदर्द दिल से महसूस करती हैं…’’

‘‘नहीं यार, मत पूछो, आजकल की बेटियों के हाल… वे हमारे समय की बेटियां होती थीं जो मातापिता का, विशेषकर मां का दुखदर्द सिद्दत से महसूस करती थीं. आजकल की बेटियां तो मातापिता का सिरदर्द बन कर बेटों से होड़ लेती प्रतीत होती हैं…तुम्हारी बेटी नहीं है न…इसलिए कह रही हो.’’

एक बेटी की मां जयंति शोभा की बात काटती हुई बोली, ‘‘इस रक्षा का अच्छा है…बहू ले आई है, बेटी तो हर बात पर मुंहतोड़ जवाब देती है, पर बहू तो दिल ही दिल में भले ही बड़बड़ाए, पर सामने फिर भी लिहाज करती है. कहना सुन लेती है.’’

‘‘आजकल की बहुओं से लिहाज की उम्मीद करना, तौबातौबा… मुंह से कुछ नहीं बोलेंगी पर हावभाव व आंखों से बहुत कुछ जता देंगी,’’ रक्षा जयंति का प्रतिवाद करती हुई बोली, ‘‘जिन बेटियोंं का तू अभीअभी गुणगान कर रही थी, आखिर वही तो बहुएं बनती हैं. कोर्ई ऊपर से थोड़े ही न उतर आती हैं. ऐसा नाकों चने चबवाती हैं. आजकल की बहुएं…बस अंदर ही अंदर दिलमसोस कर रह जाओ…बेटे पर ज्यादा हक भी नहीं जता सकते, नहीं तो बहुत उसे मां का लाड़ला कहने से नहीं चूकेगी…’’ रक्षा ने दिल की भड़ास निकाली.

शोभा दोनों की बातें मुसकराती हुई सुन रही थी. एक लंबी सांस छोड़ती हुई बोली, ‘‘अब मैं क्या जानूं की बेटियां कैसी होती हैं और बहू कैसी…न मेरी बेटी न बहू…पता नहीं मेरा नखरेबाज बेटा कब शादी के लिए हां बोलेगा. कब मैं लड़की ढूंढ़ने जाऊंगी…कब शादी होगी और कब मेरी बहू होगी…अभी तो कोई सूरत नजर नहीं आती मेरे सास बनने की…’’

‘‘जब तक नहीं आती तब तक मस्ती मार…’’ रक्षा और जयंती हंसती हुई बोलीं, ‘‘गोल्डन टाइम चल रहा है तेरा…सुना नहीं, पुरानी कहावत है…पहन ले जब तक बेटी नहीं हुई, खा ले जब तक बहू नहीं आई. इसलिए हमारा खानापहनना तो छूट गया. पर तेरा अभी समय है बेटा…डांस पर चांस मार ले. मस्ती कर, पति के साथ घूमने जा, पिक्चरें देख, कैंडिल लाइट डिनर कर…वगैरह. कम से कम बाद में नातीपोते खिलाने पड़ेंगे और बच्चों को कहना पड़ेगा कि जाओ, घूम आओ, हम तो बहुत घूमे अपने जमाने में, तो दिल तो न दुखेगा, कह कर तीनों सहेलियां कम पड़ोसिन खिलखिला कर हंस पड़ीं और शोभा के घर से उन की सभा बरखास्त हो गई.

रक्षा, जयंति व शोभा तीनोंं पड़ोसिनें व अभिन्न सहेलियां भी थीं. उम्र थोड़ा बहुत ऊपरनीचे होने पर भी तीनों का आपसी तारतम्य बहुत अच्छा था. हर सुखदुख में एकदूसरे के काम आतीं. होली पर गुजिया बनाने से ले कर दीवाली की खरीदारी तीनों साथ करतीं. तीनों एकदूसरे की राजदार भी थीं और लगभग 15 साल पहले जब उन के बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे थे, थोड़ा आगेपीछे तीनों के घर इस कालोनी में बने थे.

तीनों ही अच्छी शिक्षिति महिलाएं थीं और इस समय अपने फिफ्टीज के दौर से गुजर रही थीं. जिन के पास जो था उस से असंतुष्ट और जो नहीं था, उस के लिए मनभावन कल्पनाओं का पिटारा उन के दिमाग में अकसर खुला रहता. लेकिन जो है उस से संतुष्ट रहने की तीनों ही नहीं सोचतीं, न ही सोच पातीं कि जो उन्हें कुदरत ने दिया है, उसे किस तरह से खूबसूरत बनाया जाए.

Raksha Bandhan : अल्पना, भाग 1

लगभग 20 साल बाद जब उस दिन मैं ने अल्पना को देखा तो सोचा भी नहीं था कि अमेरिका वापस जाते वक्त एक विलक्षण सी परिस्थिति में अल्पना भी मेरे साथसाथ अमेरिका जा रही होगी…

उस दिन ड्राईक्लीन हो कर आए कपड़ों में मेरे कुरते पाजामे की जगह लेडीज ड्रैस देख कर उसे वापस दे कर अपना कुरता पाजामा लेने के लिए मैं ड्राईक्लीन की दुकान पर गया था. वहीं पर मैं ने इतने सालों बाद अल्पना को देखा.

उसे दुकानदार से झगड़ता देख कर विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसी बेहूदगी बातें करने वाली औरत अल्पना होगी. लेकिन यकीनन वह अल्पना ही थी.

कुछ देर तक तो मैं दुकानदार और अल्पना के बीच का झगड़ा झेलता रहा और फिर दुकान के बाहर से ही बिना अल्पना की तरफ देखते हुए बड़े ही शांत स्वर में मैं ने दुकानदार से कहा, ‘‘भैयाजी, मेरे कुरते पाजामे की जगह यह किसी की लेडीज ड्रैस आ गई है मेरे कपड़ों में… प्लीज, जरा देखेंगे क्या?’’

‘‘अरे, यह मेरी ड्रैस आप के पास कैसे आई? 4-5 दिन हो गए हैं इसे खोए हुए… इतने दिन क्यों सोए रहे?’’ गुस्से से कह अल्पना ने लगभग झपटते हुए मेरे हाथ से ड्रैस ले ली.

यह सब कहते हुए उस ने मुझे देखा नहीं था. लेकिन मैं ने उसे पहचान लिया था. उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए मैं ने कहा था, ‘‘अरे, अंजू तुम? तुम यहां कैसे? तुम… आप अल्पना ही हैं न?’’

मेरी बात सुन उस ने तुरंत मेरी तरफ देखा और फिर बोली, ‘‘अरे हां, मैं वही तुम्हारी बैस्ट फ्रैंड अल्पना हूं… लेकिन आप यानी अरुण यहां कैसे? आप तो अमेरिका सैटल हो गए थे न?’’

फिर करीब 10-15 मिनट की बातचीत में उस ने 20 सालों का पूरा लेखाजोखा मेरे सामने रख दिया था. मेरे अमेरिका जाने के तुरंत बाद ही उस की शादी हो गई थी. अमीर मांबाप की लाडली बेटी होने के बावजूद मांबाप की अपेक्षाओं के विपरीत जगह उस की शादी हुई थी. उस का पति किसी प्राइवेट कंपनी में सहायक मैनेजर तो था, लेकिन घर के हालात बहुत अच्छे नहीं थे. इसीलिए उसे अपनी सैंट्रल गवर्नमैंट की नौकरी अब तक जारी रखनी पड़ी थी. उस की एक ही बेटी है और इंजीनियरिंग के आखिरी साल में पढ़ रही है. और ऐसी कितनी ही बातें वह लगातार बताती जा रही थी और बिना कुछ बोले मैं उसे निहारता जा रहा था.

इन 20 सालों में अल्पना थोड़ी मोटी हो गई थी, लेकिन अब भी बहुत सुंदर लग रही थी… गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें और कंधों तक कटे बाल… सचमुच आज भी अल्पना उतनी ही आकर्षक थी जितनी 20 साल पहले थी.

बीते सालों की कई यादें संजोए हुए मैं सोच ही रहा था कि उस से क्या कहूं, तभी वह फिर से बोल पड़ी, ‘‘तुम कब आए अमेरिका से यहां? अब यहीं रहोगे कि वापस जाओगे? मृणाल कैसी है? बालबच्चे कितने हैं तुम्हारे?’’

‘‘अरे भई, अब सारी बातें यहीं रास्ते में खड़ीखड़ी करोगी क्या? चलो घर चलो मेरे… मैं यहीं पास में रहता हूं. मैं अपनी कार ले कर आया हूं… चलो घर चलो.’’

‘‘नहीं नहीं, आज रहने दो. आज जरा जल्दी में हूं… फिर कभी… अपना कार्ड दे दो… मैं पहुंच जाऊंगी कभी न कभी तुम्हारे घर.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले दुकानदार से लड़ते वक्त तो तुम्हें जल्दी नहीं थी… अब कह रही हो जल्दी में हूं…’’

‘‘लड़ने से फायदा ही हुआ न? एक तो तुम मिल गए और मेरी बेटी की खोई हुई ड्रैस भी मिल गई.’’

‘‘लड़ने झगड़ने में काफी ऐक्सपर्ट हो गई हो तुम. क्या पति से भी ऐसे ही लड़ती हो?’’

‘‘और नहीं तो क्या…? कुदरत ने हर औरत को एक पति लड़ने के लिए ही तो दिया होता है… मृणाल ने तुम्हें बताया नहीं अब तक?’’

हम बातें करते करते मेरी गाड़ी के बिलकुल पास आ गए थे. मेरी नई मर्सिडीज को देख कर अल्पना की आंखें कुछ देर चुंधिया सी गई थीं और फिर अचानक बोल पड़ी थी, ‘‘वाऊ… मर्सिडीज… बड़े ठाट हैं तुम्हारे तो.’’

मेरी कार को निहारते वक्त अल्पना का चेहरा किसी भोलेभाले बच्चे सा हो गया था.

‘‘चलो, अंजू आज मैं ही तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुंचा देता हूं… तुम्हारा घर भी देख लूंगा… चलो बैठो.’’

‘‘वाऊ, दैट्स ग्रेट… लेकिन थोड़ी देर रुको… मैं ने यहीं पास की गली में अपनी

ड्रैस सिलने दी है. अभी उसे ले कर आती हूं… गली बहुत छोटी है… तुम्हारी मर्सिडीज नहीं जा सकती… मुझे सिर्फ 5-10 मिनट लगेंगे… चलेगा?’’

‘‘औफकोर्स चलेगा… मैं यहीं गाड़ी में बैठ कर तुम्हारा इंतजार करता हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर वह चली गई.

गाड़ी में बैठेबैठे 20 साल पहले की न जाने कितनी यादें मेरे मन में उमड़ने लगीं…

20 साल पहले यहां दिल्ली में ही लाजपत नगर में हम दोनों के परिवार साथसाथ के मकानों में रहते थे. हमारे 2 मकानों के बीच सिर्फ एक दीवार थी. आंगन हमारा साझा था. अल्पना के परिवार में अल्पना के मांबाप, अल्पना और उस का उस से 10 साल छोटा भाई सुरेश यानी 4 लोग थे. मेरा परिवार अल्पना के परिवार से बड़ा था. हमारे परिवार में मां बाबा, हम 4 भाई बहन, हमारी दादी और हमारी एक बिनब्याही बूआ कुल 8 लोग थे. लाजपत नगर में तब सिर्फ हमारे ही 2 परिवार महाराष्ट्रीयन थे, इसलिए हमारे दोनों परिवारों में बहुत ज्यादा प्यार और अपनापन था.

अल्पना की मां मेरी मां से 10-12 साल छोटी थीं, इसलिए हर वक्त मेरी मां के पास कुछ न कुछ नया सीखने हमारे घर आती रहती थीं. अल्पना का छोटा भाई सुरेश अल्पना से 10 साल छोटा होने के कारण हम दोनों परिवारों में सब से छोटा था, इसलिए सब को प्यारा लगता था. अल्पना के पिताजी बैंक में बहुत बड़ी पोस्ट पर होने के कारण हरदम व्यस्त रहते थे. अल्पना देखने में सुंदर तो थी ही, लेकिन उस के बातूनी, चंचल और मिलनसार स्वभाव के कारण हम सभी भाई बहनों की वह बैस्ट फ्रैंड बन गई थी. मेरी दोनों बहनें तो हरदम उसी की बातें करती रहतीं… मेरा बड़ा भाई अजय अपने नए नए शुरू किए बिजनैस में हरदम व्यस्त रहता था, लेकिन मेरे और अल्पना के हमउम्र होने के कारण हमारी बहुत बनती थी.

ये बातें जरूर सिखाएं अपने बच्चों को

आवश्यकता से अधिक बच्चों को बांध कर रखना बच्चों के विकास के लिए हानिकारक हो सकता है. दुनिया तेजी से आगे बढ़ रही है और बच्चों को हमेशा दुनिया की परेशानियों से दूर ऐसी दुनिया में नहीं रख सकते जहां उन्हें हमेशा यह महसूस हो कि सब बहुत अच्छा है. हाल ही में गुजरात के एक हीरा व्यापारी ने अपने इकलौते बेटे को खुद अपने बल पर कुछ कमाने के लिए कहा. अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की 15 वर्षीया बेटी का सीफूड रेस्तरां में काम करना इस बात का प्रमाण है कि जीवन में शिक्षा के साथ और भी बहुतकुछ महत्त्वपूर्ण है. कुछ तरीकों से आप अपने बच्चे को आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर बना सकते हैं, जैसे–

  • उन्हें सिखाएं कि ‘न’ कैसे कहना है : यह सुननेपढ़ने में आसान लगता है पर न कहना सीखना वाकई मुश्किल होता है. दुनिया अपने हिसाब से हमें चलाने की उम्मीद रखती है. ऐसे में न कहने के लिए काफी हिम्मत चाहिए. बच्चों को जल्दी ही न कहना सिखा देना उन्हें कई चीजों में मदद करता है. उन्हें सिखाएं कि जो तुम्हें पसंद नहीं आ रहा है उस के बारे में वे साफसाफ कहें. इस से उन का आत्मविश्वास बढ़ेगा, कोई उन्हें हलके में नहीं लेगा. अगर न कहना नहीं आएगा तो उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. वे तनाव नहीं झेल पाएंगे, झूठ बोल सकते हैं या किसी की भी बातों में फंस सकते हैं.
  • घर में कभीकभी अकेला छोड़ें : बहुत सारे मातापिता को घर में बच्चों को अकेला छोड़ना मुश्किल लगेगा लेकिन सीसीटीवी कैमरा, आप के फोन कौल्स, पड़ोसी, इन सब सुरक्षाओं के साथ आप थोड़ा निश्चिंत हो सकते हैं. एक पेपर पर इमरजैंसी नंबर लिख कर रखें. बच्चों को गैस रैगुलेटर बंद करना सिखाएं. उन्हें फिनायल, कीटनाशक दवाओं या इस तरह की चीजों से दूर रखना सिखाएं. सब से जरूरी बात, उन्हें दरवाजा खोलने से पहले पीपहोल का प्रयोग करना सिखाएं.

10 वर्षीया बेटी की मां सरिता शर्मा कहती हैं, ‘‘कभीकभी बैंक या सब्जी या कुछ और खरीदने के लिए बेटी को घर में छोड़ कर जाना पड़ता है. इसलिए मैं ने उसे डिलीवरी बौयज या किसी अजनबी के लिए दरवाजा खोलने से मना किया हुआ है. दूसरा, यदि मैं घर पर नहीं हूं तो कोई लैंडलाइन पर फोन करता है तो उसे समझाया है कि वह यह कहे कि मम्मी व्यस्त हैं और बस, वह मैसेज ले ले. इस से बच्चे अपना समय ज्यादा अच्छी तरह बिताना सीख लेते हैं और अपनेआप ही उन्हें कई काम करने आ जाते हैं.’’

  • घूमने और अनुभव लेने दें : चाहे कौमिक पढ़ना हो, मूवी देखना हो, कैंप में जाना हो या ट्रैकिंग के लिए जाना हो, उन्हें  मना न करें. उन से अपनी पसंद की पुस्तकें चुनने के लिए कहें. उन से दोस्तों के साथ समय बिताने दें. उन पर हमेशा हावी न रहें. उन्हें भविष्य में बड़े, महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे. 4 वर्षीय बेटे के पिता गौरव कपूर कहते हैं, ‘‘जब मेरा बेटा 7 साल का था तब से ही मैं उसे अपनी बिल्डिंग में नीचे ही सामान खरीदने भेज दिया करता था. उसे स्कूल एजुकेशनल ट्रिप पर भी भेजा करता था. वह अपनी उम्र के बच्चों से ज्यादा आत्मनिर्भर है और बातचीत करने में उस में बहुत आत्मविश्वास है.’’
  • पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बारे में बताएं : अंजू गोयल ने अपने 2 साल के बेटे का जन्मदिन अपने पति के साथ मुंबई में ‘बैस्ट’ बस में बिताया. वे कहती हैं, ‘‘जब भी हम बाहर जाते हैं, मेरा बेटा बस को बहुत शौक से देखता है. मैं ने सोचा अपने जन्मदिन पर वह बस में बैठ कर खुश होगा और वह बहुत खुश हुआ भी. जब वह और बड़ा होगा, मैं उस से पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करने के लिए ही कहूंगी.’’ भले ही आप अपने बच्चे को कार का आराम देना चाहें, उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बारे में बताना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है. सामान्य ट्रैफिक नियम बताएं, सड़क के शिष्टाचार सिखाएं.
  • यदि ऐसा हो तो : जीवन में कई स्थितियों में अपने बच्चों को ऐक्सिडैंटप्रूफ बनाने के लिए, ‘यदि ऐसा हो जाए’ वाली स्थिति से निबटने के लिए समझाएं. 8 और 10 साल के बच्चों की मां रीता शर्मा कहती हैं, ‘‘हम दोनों कामकाजी हैं. हमारे बच्चे डेकेयर में रहते हैं. मैं ने बच्चों को लोकप्रिय गानों की ट्यून पर इमरजैंसी नंबर, पास में रहने वाले रिश्तेदारों के नंबर बताए हैं. अब जब गाना बजता है, वे नंबर दोहराने लगते हैं.’’ बच्चों को अजनबियों से सचेत रहने के लिए कहें. उन्हें असुरक्षित जगहों के बारे में बताएं. अपने घर के आसपास महत्त्वपूर्ण लैंडमार्क समझा दें. भले ही वे सुरक्षित माहौल में हों, आप खुद भी उन पर, उन के आसपास की चीजों पर नजर जरूर रखें. उन की बातें ध्यान से सुनें, उन्हें अपना समय दें.

नजमा : भाग 1

अभी आंख झपकी ही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी.

“उफ, 2 मिनट सो भी नहीं सकती. एक तो मुझे दिन में नींद नहीं आती. थकान के मारे आंख झपकी भी तो यह मुई घंटी बज उठी,” बड़बड़ाते हुए मैं उठी और दरवाजा खोला.

“क्या चाहिए?” सामने खड़ी लड़की से पूछा.

“जी, मैं इस अपार्टमैंट में काम करती हूं. आप नई शिफ्ट हुई हैं तो सोचा पूछ लूं… आप को काम के लिए चाहिए? मैं इस अपार्टमैंट में 2 फ्लैट में काम करती हूं,” वह बोली.

“तुम्हें कैसे पता, मैं नई शिफ्ट हुई हूं इस अपार्टमैंट में?” मैं ने कुछ सोचते हुए पूछा.

मुझे इस अपार्टमैंट में आए 5 दिन हुए हैं और इसे मेरे आने की खबर कैसे हुई, सावधान इंडिया और सीआईडी देखने का कुछ फायदा तो था ही कि मेरे दिमाग में ‘कुछ तो गड़बड़ है दया’ का अलार्म बज उठा. लेकिन उस के जवाब ने मेरी जासूस बनने की कल्पना को क्षणभर में चकनाचूर कर दिया.

“दीदी, अपार्टमैंट का सैक्रेटरी मुझे बोला था कि टावर ए-111 में नए लोग आए हैं और उन्हें कामवाली की जरूरत पड़ेगी. तो तू जा कर पूछ ले. साहब ने कल उस से कामवाली के लिए पूछा था. उस के कहने पर ही मैं इधर आई,” वह सफाई देते हुए बोली.

मुझे याद आया कि मैं ने ही मनन से इस बारे में पता करने को कहा था और मैं ही भूल गई. दरअसल, मुझे इस नए अपार्टमैंट में शिफ्ट हुए मुश्किल से 5 दिन हुए थे. अभी तक सामान जमाया भी नहीं था. बस किचन को ही आधाअधूरा सैट किया था. 3 दिन से बाहर का खाना खा कर ऊब गई थी. पैकर्स ऐंड मूवर्स द्वारा सामान पुराने अपार्टमैंट से इस नए अपार्टमैंट में ले तो आए, लेकिन यहां आते ही मैं बीमार पड़ गई. किसी तरह 3 दिन बाहर का खाना खा कर निकाला, लेकिन चौथे दिन थोड़ा अच्छा महसूस हुआ तो किचन को थोड़ाबहुत सैट कर लिया.

8 साल से किराए के फ्लैट में रह रहे थे. अब जा कर अपना फ्लैट खरीदा था. ये जगह हमारे लिए नई थी. यहां किसी से पहचान नहीं थी. सोचा था, धीरेधीरे सारा सामान सैट कर दूंगी, लेकिन भूल गई थी कि 8 साल की गृहस्थी को 10 दिन में किसी दूसरी जगह इतनी आसानी से जमाया नहीं जा सकता और सब से बड़ी बात, सोचा हुआ कभी होता है भला? नया घर था, अभी भी कुछ काम अधूरे थे. कभी प्लंबर वाला आता, तो कभी कारपेंटर.

मनन सुबह औफिस निकल जाते, फिर मेरे पैर में जो चक्कर लगता, वह रात के डिनर के बाद ही खत्म होता था. इस अपार्टमैंट में कुल ढाई सौ फ्लैट थे और अभी गिनती के 20-25 लोग ही शिफ्ट हुए थे. बच्चों को स्कूल भेज कर, धीरेधीरे सामान जमाना शुरू किया था.

मनन देखते तो डांट पड़ती, कहते जब तक पूरी तरह ठीक नहीं हो जाती, सामान ऐसे ही रहने दो. शनिवार और रविवार को मैं भी तुम्हारी सहायता कर दूंगा. लेकिन किसी औरत को अपना बिखरा घर देखना कहां अच्छा लगता है? मुझे बिखरा, अस्तव्यस्त घर बिलकुल पसंद नहीं था. जब मनन औफिस चले जाते तो मैं शुरू हो जाती और उन के आते ही चुपचाप बैठ जाती.

“दीदी, आप को काम करवाना है?”

“हां, काम करवाना तो है,”

इस जगह 2 कमरे और 3 कमरे के फ्लैट में काम करने का क्या रेट चल रहा था, मुझे मालूम न था. मैं ने उसी से पूछा, “बताओ, 3 कमरे का कितना लोगी?”

उस ने झट से बोला, “झाड़ू, पोंछा, डस्टिंग और टायलेट किया तो 3,000 रुपए लेती हूं. यही रेट भी चल रहा है. आप बी- 123, बी- 221 की दीदी से पूछ लीजिए.”

कच्ची नींद और थकान के कारण सिरदर्द हो रहा था. अभी मैं इन सब के बारे में बात करने के मूड में नहीं थी. मैं ने उस का नंबर मांग लिया और बोला, “मैं तुम्हें फोन कर के बता दूंगी,” इतना कह कर मैं ने दरवाजा बंद कर लिया.

थोड़ी देर में मनु और दीपक भी स्कूल से आने वाले थे. मैं जल्दी से बच्चों को लेने के लिए अपार्टमैंट के गेट पर आ गई. कुछ मिनट बाद ही स्कूल बस आ गई. मैं ने बच्चों को लिया और घर आ गई.

मनन औफिस से आए तो मैं ने उन्हें कामवाली के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि रख क्यों नहीं लिया.

“अरे, ऐसे कैसे किसी को रख लूं? वो भी 3,000 रुपए मांग रही थी. आप न, बस पैसे लुटाना जानते हैं, पैसे बचाना नहीं.

“पुराने फ्लैट में 2,000 रुपए में सारा काम कामवाली कमली कर देती थी. और तो और 1-2 ऐक्स्ट्रा काम कहो तो वह भी कर देती थी.”

“अरे राधा, वह जगह शहर से काफी अंदर थी, इसलिए कम पैसों में कामवाली कमली कर देती थी, लेकिन यह अपार्टमैंट मेन मार्केट में है. स्कूल, अस्पताल, पार्क, थिएटर, मौल, सब नजदीक है, तो यह जगह थोड़ी महंगी तो होगी न…”

“हां, बात तो आप ठीक ही कह रहे हैं.”

“ज्यादा सोचो मत, तुम्हारी तबीयत अभी ठीक नहीं है. उसे काम पर रख लो. यहां तो पहले ही वो 2 घर काम करती ही है, तो उस के ऊपर भरोसा किया जा सकता है.“

“हम्म, कल उस को फोन करती हूं,” मैं ने कहा.

दूसरे दिन मनन औफिस चले गए और बच्चे स्कूल. मैं ने  फोन नंबर पर लगा कर बात कर ली. जल्दीजल्दी में उस का नाम पूछना ही भूल गई थी. फोन की घंटी बजने लगी. उधर से आवाज आई, “कौन बोल रहा है?”

मैं ने उसे याद दिलाते हुए कहा, “ मैं बोल रही हूं. कल तुम मेरे घर आई थी न… काम करने के लिए. याद करो, ए -111 में.”

“हां दीदी, बोलो.”

“कल से काम करने आ जाना,“ मैं ने कहा.

“ठीक है दीदी, मैं सुबह 8 बजे आ जाऊंगी,“ उस ने कहा.

मन को तसल्ली हुई. कल से झाडूपोंछा, बरतन की चिंता नहीं रहेगी.

साथी साथ निभाना : भाग 1

उस शाम नेहा की जेठानी सपना ने अपने पति राजीव के साथ जबरदस्त झगड़ा किया. उन के बीच गालीगलौज भी हुई.

‘‘तुम सविता के साथ अपने संबंध फौरन तोड़ लो, नहीं तो मैं अपनी जान दे दूंगी या तुम्हारा खून कर दूंगी,’’ सपना की इस धमकी को घर के सभी सदस्यों ने बारबार सुना.

नेहा को इस घर में दुलहन बन कर आए अभी 3 महीने ही हुए थे. ऐसे हंगामों से घबरा कर वह कांपने लगी.

उस के पति संजीव और सासससुर ने राजीव व सपना का झगड़ा खत्म कराने का बहुत प्रयास किया, पर वे असफल रहे.

‘‘मुझे इस गलत इंसान के साथ बांधने के तुम सभी दोषी हो,’’ सपना ने उन तीनों को भी झगड़े में लपेटा, ‘‘जब इन की जिंदगी में वह चुड़ैल मौजूद थी, तो मुझे ब्याह कर क्यों लाए? क्यों अंधेरे में रखा मुझे और मेरे घर वालों को? अपनी मौत के लिए मैं तुम सब को भी जिम्मेदार ठहराऊंगी, यह कान खोल कर सुन लो.’’

सपना के इस आखिरी वाक्य ने नेहा के पैरों तले जमीन खिसका दी. संजीव के कमरे में आते ही वह उस से लिपट कर रोने लगी और फिर बोली, ‘‘मुझे यहां बहुत डर लगने लगा है. प्लीज मुझे कुछ समय के लिए अपने मम्मीपापा के पास जाने दो.’’

‘‘भाभी इस वक्त बहुत नाराज हैं. तुम चली जाओगी तो पूरे घर में अफरातफरी मच जाएगी. अभी तुम्हारा मायके जाना ठीक नहीं रहेगा,’’ संजीव ने उसे प्यार से समझाया.

‘‘मैं यहां रही, तो मेरी तबीयत बहुत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘जब तुम से कोई कुछ कह नहीं रहा है, तो तुम क्यों डरती हो?’’ संजीव नाराज हो उठा.

नेहा कोई जवाब न दे कर फिर रोने लगी.

उस के रोतेबिलखते चेहरे को देख कर संजीव परेशान हो गया. हार कर वह कुछ दिनों के लिए नेहा को मायके छोड़ आने को राजी हो गया.

उसी रात सपना ने अपने ससुर की नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की.

उसे ऐसा करते राजीव ने देख लिया. उस ने फौरन नमकपानी का घोल पिला कर सपना को उलटियां कराईं. उस की जान का खतरा तो टल गया, पर घर के सभी सदस्यों के चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं.

डरीसहमी नेहा ने तो संजीव के साथ मायके जाने का इंतजार भी नहीं किया. उस ने अपने पिता को फोन पर सारा मामला बताया, तो वे सुबहसुबह खुद ही उसे लेने आ पहुंचे.

नेहा के मायके जाने की बात के लिए अपने मातापिता से इजाजत लेना संजीव के लिए बड़ा मुश्किल काम साबित हुआ.

‘‘इस वक्त उस की जरूरत यहां है. तब तू उसे मायके क्यों भेज रहा है?’’ अपने पिता के इस सवाल का संजीव के पास कोई ठीक जवाब नहीं था.

‘‘मैं उसे 2-3 दिन में वापस ले आऊंगा. अभी उसे जाने दें,’’ संजीव की इस मांग को उस के मातापिता ने बड़ी मुश्किल से स्वीकार किया.

नेहा को विदा करते वक्त संजीव तनाव में था. लेकिन उस की भावनाओं की फिक्र न नेहा ने की, न ही उस के पिता ने. नेहा के पिता तो  गुस्से में थे. किसी से भी ठीक तरह से बोले बिना वे अपनी बेटी को ले कर चले गए.

उन के मनोभावों का पता संजीव को 3 दिन बाद चला जब वह नेहा को वापस  लाने के लिए अपनी ससुराल पहुंचा.

नेहा की मां नीरजा ने संजीव से कहा, ‘‘हम ने बहुत लाड़प्यार से पाला था अपनी नेहा को. इसलिए तुम्हारे घर के खराब माहौल ने उसे डरा दिया.’’

नेहा के पिता राजेंद्र तो एकदम गुस्से से फट पड़े, ‘‘अरे, मारपीट, गालीगलौज करना सभ्य आदमियों की निशानी नहीं. तुम्हारे घर में न आपसी प्रेम है, न इज्जत. मेरी गुड़िया तो डर के कारण मर जाएगी वहां.’’

‘‘पापा, नेहा को मेरे घर के सभी लोग बहुत प्यार करते हैं. उसे डरनेघबराने की कोई जरूरत नहीं है,’’ संजीव ने दबे स्वर में अपनी बात कही.

‘‘यह कैसा प्यार है तुम्हारी भाभी का, जो कल को तुम्हारे व मेरी बेटी के हाथों में हथकड़ियां पहनवा देगा?’’

‘‘पापा, गुस्से में इंसान बहुत कुछ कह जाता है. सपना भाभी को भी नेहा बहुत पसंद है. वे इस का बुरा कभी नहीं चाहेंगी.’’

‘‘देखो संजीव, जो इंसान आत्महत्या करने की नासमझी कर सकता है, उस से संतुलित व्यवहार की हम कैसे उम्मीद करें?’’

‘‘पापा, हम सब मिल कर भैयाभाभी को प्यार से समझाएंगे. हमारे प्रयासों से समस्या जल्दी हल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी की खुशियां तुम्हारे भैयाभाभी के कभी समझदार बनने की उम्मीद पर आश्रित रहें.’’

‘‘फिर आप ही बताएं कि आप सब क्या चाहते हैं?’’ संजीव ने पूछा.

‘‘इस समस्या का समाधान यही है कि तुम और नेहा अलग रहने लगो. भावी मुसीबतों से बचने का और कोई रास्ता नहीं है,’’ राजेंद्रजी ने गंभीर लहजे में अपनी राय दी.

‘‘मुझे पता था कि देरसवेर आप यह रास्ता मुझे जरूर सुझाएंगे. लेकिन मेरी एक बात आप सब ध्यान से सुन लें, मैं संयुक्त परिवार में रहना चाहता हूं और रहूंगा. नेहा को उसी घर में  लौटना होगा,’’ संजीव का चेहरा कठोर हो गया.

‘‘मुझे सचमुच वहां बहुत डर लगता है,’’ नेहा ने सहमे हुए अपने मन की बात कही, ‘‘न ठीक से नींद आती है, न कुछ खाया जाता है? मैं वहां लौटना नहीं चाहती हूं.’’

‘‘नेहा, तुम्हें जीवन भर मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहिए. अपने मातापिता की बातों में आने के बजाय मेरी इच्छाओं और भावनाओं को ध्यान में रख कर काम करो. मुझे ही नहीं, पूरे घर को तुम्हारी इस वक्त बहुत जरूरत है. प्लीज मेरे साथ चलो,’’ संजीव भावुक हो उठा.

कमीशन- भाग 1

अंकल की कोशिशों से आखिर मुझे आकाशवाणी के कार्यक्रमों में जगह मिल ही गई. एक वार्ता के लिए कांट्रेक्ट लेटर मिलते ही सब से पहले अंकल के पास दौड़ीदौड़ी पहुंची तो मुझे बधाई देने के बाद पुन: अपनी बात दोहराते हुए उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारे इतना जिद करने पर मैं ने तुम्हारे लिए जुगाड़ तो कर दिया है, लेकिन जरा संभल कर रहना. किसी की भी बातों में मत आना, अपनी रिकार्डिंग के बाद अपना पारिश्रमिक ले कर सीधे घर आ जाना.’’

‘‘अंकल, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. कोई भी मुझे बेवकूफ नहीं बना सकता. मजाल है, जो प्रोग्राम देने के बदले किसी को जरा सा भी कोई कमीशन दूं. मम्मी ही थीं, जो उन लोगों के हाथों बेवकूफ बन कर हर कार्य- क्रम में जाने का कमीशन देती रहीं और फिर एक दिन बुरा मान कर पूरा का पूरा पारिश्रमिक का चेक उस डायरेक्टर के मुंह पर मार आईं. शुरू में ही मना कर देतीं तो इतनी हिम्मत न होती किसी की कि कोई उन से कुछ उलटासीधा कहता.’’

मेरे द्वारा मम्मी का जिक्र करते ही अंकल के चेहरे पर टेंशन साफ झलकने लगा था लेकिन अपने कांट्रेक्ट लेटर को ले कर मैं इतनी उत्साहित थी कि बस उन्हें तसल्ली सी दे कर अपने कमरे में आ कर रिकार्डिंग के लिए तैयारी करने लगी. उस में अभी पूरे 8 दिन बाकी थे, सो ऐसी चिंता की कोई बात नहीं थी. हां, कुछ अंकल की बातों से और कुछ मम्मी के अनुभव से मैं डरी हुई जरूर थी.

दरअसल, मेरी मम्मी भी अपने समय में आकाशवाणी पर प्रोग्राम देती रहती थीं. उस समय वहां का कुछ यह चलन सा बन गया था कि कलाकार प्रोग्राम के बदले अपने पारिश्रमिक का कुछ हिस्सा उस स्टेशन डायरेक्टर के हाथों पर रखे. मम्मी को यह कभी अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि अपने टैलेंट के बलबूते हम वहां जाते हैं, किसी भी कार्यक्रम की इतनी तैयारी करते हैं फिर यह सब ‘हिस्सा’ या ‘कमीशन’ आदि क्यों दें भला. इस से तो एक कलाकार की कला का अपमान होता है न. ऐसा लगता है कि जैसे कमीशन दे कर उस के बदले में हमें अपनी कला के प्रदर्शन का मौका मिला है. मम्मी उस चलन को ज्यादा दिन झेल नहीं पाईं.

उन दिनों उन्हें एक कार्यक्रम के 250 रुपए मिलते थे, जिस में से 70 रुपए उन्हें अपना पारिश्रमिक पाने के बदले देने पड़ जाते थे. बात पैसे देने की नहीं थी, लेकिन इस तरह रिश्वत दे कर प्रोग्राम लेना मम्मी को अच्छा नहीं लगता था जबकि वहां पर इस तरह कार्यक्रम में आने वाले सभी को अपनी इच्छा या अनिच्छा से यह सब करना ही पड़ता था.

मम्मी की कितने ही ऐसे लोगों से बात होती थी, जो उस डायरेक्टर की इच्छा के भुक्तभोगी थे. बस, अपनीअपनी सोच है. उन में से कुछ ऐसा भी सोचते थे कि आकाशवाणी जैसी जगह पर उन की आवाज और उन के हुनर को पहचान मिल रही है, फिर इन छोटीछोटी बातों पर क्या सोचना, इस छोटे से अमाउंट को पाने या न पाने से कुछ फर्क थोड़े ही पड़ जाएगा. प्रोग्राम मिल जाए और क्या चाहिए.

पता नहीं मुझे कि उस समय उस डायरेक्टर ने ही यह गंदगी फैला रखी थी या हर कोई ही ऐसा करता था. कहते हैं न कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है. मम्मी तो बस फिर वहां जाने के नाम से ही चिढ़ गईं. आखिरी बार जब वे अपने कार्यक्रम की रिकार्डिंग से लौटीं तो पारिश्रमिक के लिए उन्हें डायरेक्टर के केबिन में जाना था. चेक देते हुए डायरेक्टर ने उन से कहा, ‘अब अमाउंट कुछ और बढ़ाना होगा मैडम. इधर अब आप लोगों के भी 250 से 350 रुपए हो गए हैं, तो हमारा कमीशन भी तो बढ़ना चाहिए न.’

मम्मी को उस की बात पर इतना गुस्सा आया और खुद को इतना अपमानित महसूस किया कि बस चेक उस के मुंह पर मारती, यह कहते हुए गुस्से में बाहर आ गईं कि लो, यह लो अपना पैसा, न मुझे यह चेक चाहिए और न ही तुम्हारा कार्यक्रम. मैं तो अपनी कहानियां, लेख पत्रपत्रिकाओं में ही भेज कर खुश हूं. सेलेक्ट हो जाते हैं तो घरबैठे ही समय पर पारिश्रमिक आ जाता है.

रिश्तों का दर्द- भाग 1 : नीलू के मन में मां को लेकर क्या चल रहा था?

मां के हालात तो पहले से ही अच्छे नहीं, इस हादसे के बाद क्या भरोसा कितने दिन निकाल पाएं? नीलू जो आज तक अपने ही पति का विरोध न कर पाई वह दुनिया की हवसभरी निगाहों का कैसे सामना कर पाएगी? लंदन से इंडिया की ओर आने वाला विमान, विमानतल पर उतरने को तैयार था. विमान परिचारिका घोषणा कर रही थी- ‘‘कृपया, यात्रीगण अपनी पेटी बांध लें…’’

अचानक रोमी की तंद्रा भंग हुई. उस का दिल जोरों से धड़क रहा था. उस ने एक नजर गोद में सो रही नन्ही बेटी परी की ओर देखा… मासूम कितनी बेखबर है जिंदगी में हुए हादसों से, नहीं जानती नियति ने उस से जीवन की धूप से बचाने वाला वह छायादार दरख्त छीन लिया है. हाय, नन्ही सी मेरी बच्ची कैसे जान पाएगी पिता का साया क्या होता है. इस दुधमुंही बच्ची पर भी तरस नहीं खाया प्रकृति ने. कितनी खुशी से उस ने रणवीर के साथ अपने जीवन की शुरुआत की थी. रणवीर भी एक अच्छे और सम?ादार पति साबित हुए. उसे याद आ रहा है वह वक्त जब रणवीर के साथ उस का ब्याह तय हुआ था. कितना डर गई थी वह. एक तो रईस ठाकुरों के खानदान से… उस पर विदेश में… विदेश का न जाने कितना रंग चढ़ा होगा उन पर. शराब के नशे में ?ामते रणवीर का चेहरा डरा देता था उसे.

आसपास मंडराती तितलियों की कल्पनामात्र से कांप जाती थी वह. राजस्थान के एक छोटे से गांव जड़ावता की रहने वाली मध्यवर्गीय परिवार की ग्रेजुएट पास रोमी कैसे निर्वाह कर पाएगी. मगर उस की खुशी का ठिकाना न रहा जब उस की वे सारी कल्पनाएं थोथी साबित हुईं. रणवीर उस की कल्पनाओं से कहीं बेहतर साबित हुए. उन्होंने न केवल ऊंची पढ़ाई हासिल की थी बल्कि उन के व्यवहार में भी वे ऊंचाइयां थीं. रणवीर हमेशा ध्यान रखते कि कहीं रोमी को अकेलापन महसूस न हो.

लंदन जाते ही उन्होंने वहां के अच्छे भारतीय परिवारों से उस की जानपहचान करा दी थी जिन्होंने पराई जमीन पर अपनेपन का एहसास दिया रोमी को. फिर परिवार में बेटी परी का आना जश्न था उन की जिंदगी में. कितनी धूमधाम से पार्टी दी थी रणवीर ने. सभी मिलनेजुलने वालों ने ढेरों शुभकामनाओं से नवाजा था उसे. मगर किसी की मंगलकामना काम न आई. परी 10 माह की भी नहीं हुई थी कि औफिस से लौटते हुए रणवीर की कार सड़क हादसे की शिकार हो गई.

मेरी शादी को ठीक 2 महीने रह गए थे, लेकिन उससे पहले लड़के ने सगाई तोड़ दी, अब मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल

मैं 26 वर्षीया युवती हूं. हाल ही में मेरी बड़ी धूमधाम से सगाई हुई थी. शादी की तारीख भी तय हो गई थी. शादी से ठीक 2 महीना पहले लड़के वालों ने सगाई तोड़ दी. मेरे घर वाले इस से काफी हताशा महसूस कर रहे हैं. अब वे चाहते हैं कि जल्दी से कोई दूसरा लड़का मिल जाए जिस से मेरी शादी तय तारीख में ही हो जाए. उन्हें लगता है कि सगाई टूटने की बात यदि समाज में उजागर हो गई, तो फिर मेरे लिए शायद ही दूसरा लड़का मिले. मुझे डर है कि इस हड़बड़ी में वे कहीं किसी ऐसे लड़के के साथ मेरी शादी न करा दें, जो मेरे लिए उपयुक्त न हो. मैं क्या करूं?

जवाब

आप के घर वालों की हताशा बेमानी है. उन्हें तो खुश होना चाहिए कि आप लोग ऐसे लोगों के चंगुल में फंसने से बालबाल बच गए. यदि शादी के बाद उन का असली चेहरा सामने आता तो काफी मुश्किल होती. शादी की तय तारीख को ही (दूसरा लड़का तलाश कर) शादी करने की हड़बड़ी न करें. जल्दबाजी और हताशा में कोई काम सही नहीं होता. चूंकि आप लोगों को एक बार धोखे का सामना करना पड़ चुका है, इसलिए अब और सावधानी की जरूरत है. भलीभांति जांचपरख कर ही रिश्ता तय करें. इस बाबत आप घर वालों से बात कर सकती हैं, क्योंकि यह आप की जिंदगी का सवाल है.

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सूरज के निकलते ही आसमान में छाई कोहरे की धुंध साफ होने लगी थी. चिडिय़ों की मधुर कलरव ने सुबह होने का आभास कराया तो बागेश्वरी देवी भी उठ गईं. उन की बड़ी बहू पहले ही उठ कर फ्रेश हो गई थी. लेकिन पहली मंजिल पर रहने वाला उन का छोटा बेटा, बहू और पोता अभी तक नहीं उठा था. चायनाश्ते का समय हो गया था, इस के बावजूद वे लोग पहली मंजिल से नीचे नहीं आए थे.

एक बार तो बागेश्वरी देवी को लगा कि शायद ठंड होने की वजह से वे उठ न पाए होंगे. लेकिन इतनी देर तक न कभी बेटा ओमप्रकाश सोता था और न पोता शिवा. इसलिए वह परेशान होने लगीं. वह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की कोतवाली शाहपुर के मोहल्ला अशोकनगर में रहती थीं.

मकान की ऊपरी मंजिल पर काम चल रहा था. साढ़े 8 बजतेबजते मजदूर काम पर आ गए थे, लेकिन तब तक ऊपर सो रहे लोगों में से कोई नहीं उठा था. मजदूर जैसे ही सीढिय़ां चढ़ते हुए प्रथम तल पर पहुंचे, उन्हें कमरे के अंदर से दरवाजे के जोरजोर से थपथपाने और औरत के चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी. एक मजदूर ने जल्दी से दरवाजे की बाहर से लगी सिटकनी खोल दी.

अंदर से घर की छोटी बहू अर्चना तेजी से बाहर निकली और सीधे सामने वाले कमरे की तरफ भागी. उसे इस तरह भाग कर कमरे में जाते देख मजदूर हैरान रह गए.

अर्चना ने जैसे ही दरवाजे पर हाथ रखा, दरवाजा खुल गया. अंदर का दिल दहला देने वाला नजारा देख कर उस के पांव चौखट पर ही जम गए और वह जोर से चीखी. उस कमरे में बैड पर ओमप्रकाश की लाश चित पड़ी थी. फर्श पर खून ही खून फैला था. उन्हीं के बगल 4 साल के मासूम बेटे शिवा की भी लाश पड़ी थी. दोनों लाशें देख कर ही अर्चना जोर से चीखी थी.

बापबेटे की लाशें देख कर मजदूरों के भी हाथपांव फूल गए. अर्चना रोतीचीखती नीचे सास बागेश्वरी देवी के पास पहुंची. बहू के मुंह से बेटे और पोते की हत्या की बात सुन उन का पूरा बदन कांपने लगा. घर में रोनापीटना मच गया. दोनों की आवाजें सुन कर पड़ोसी भी आ गए. जैसेजैसे यह खबर मोहल्ले में फैलती गई, लोग बागेश्वरी देवी के घर इकट्ïठा होने लगे.

बागेश्वरी देवी की बड़ी बहू ने फोन द्वारा इस घटना की सूचना अपने पति राजकुमार को दे दी. वह उत्तर प्रदेश पुलिस में इंसपेक्टर थे. छोटे भाई और भतीजे की हत्या की बात सुन कर वह भी सन्न रह गए. उन्होंने कोतवाली शाहपुर के प्रभारी आनंदप्रकाश शुक्ला को फोन द्वारा घटना की जानकारी दे दी.

इंसपेक्टर आनंदप्रकाश शुक्ला तुरंत एसआई रामकृपाल यादव, एएसआई विमलेंद्र कुमार, कांस्टेबल संतोष कुमार, रामविनय सिंह, शिवानंद उपाध्याय और जनार्दन पांडेय को साथ ले कर अशोकनगर स्थित राजकुमार यादव के घर पहुंच गए. मृतक ओमप्रकाश यादव के ससुर दीपचंद यादव राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पीएसओ थे. उन्हें जब घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने गोरखपुर रेंज के आईजी पी.सी. मीणा को फोन किया.

इस के बाद तो आईजी पी.सी. मीणा, डीआईजी आर.के. चतुर्वेदी, एसएसपी लव कुमार, एसपी हेमंत कुटीयार, सीओ कमल किशोर, क्राइम ब्रांच, एसटीएफ की टीम, डौग स्क्वायड और फोरैंसिक टीम वहां पहुंच गईं. थोड़ी ही देर में अशोकनगर पुलिस छावनी में तब्दील हो गया.

पुलिस ने बड़ी बारीकी से घटनास्थल की जांच की. जिस कमरे में दोनों लाशें पड़ी थीं, वहीं बैड के पास खून से सना एक हथौड़ा और एक कूदने वाली रस्सी पड़ी थी. लाशें देख कर ही लग रहा था कि हत्यारे ने हथौड़े से ओमप्रकाश की हत्या की थी, जबकि उन के बेटे का रस्सी से गला घोंटा था. पुलिस ने दोनों सामानों को कब्जे में ले लिया.

सभी को यह बात परेशान कर रही थी कि आखिर बच्चे की हत्या क्यों की गई? पुलिस की नजर जब कमरे के दरवाजे की सिटकनी पर पड़ी तो दरवाजे पर सिटकनी तोडऩे जैसा कोई निशान नहीं था. देख कर लग रहा था कि किसी ने सिटकनी के पेंच खोल कर उसे फर्श पर रख दिया था.

जबकि पूछताछ में अर्चना ने बताया था कि उस के पति अंदर से सिटकनी बंद कर के सोए थे. उस ने यह भी कहा था कि लूटपाट का विरोध करने पर लुटेरों ने हथौड़े से उस के पति की हत्या की होगी. उसी समय बच्चा जा गया होगा, तब पहचाने जाने के डर से उन्होंने बच्चे को भी मार दिया होगा. लूटपाट के दौरान खटपट की आवाज सुन कर वह आ न जाए, इसलिए बदमाशों ने उस के कमरे की सिटकनी बाहर से बंद कर दी थी.

अर्चना का बयान पुलिस को कुछ अजीब लग रहा था. बागेश्वरी देवी के बड़े बेटे इंसपेक्टर राजकुमार आ गए तो वह उस कमरे में गए, जहां दोनों लाशें पड़ी थीं. उन्होंने भी कमरे का निरीक्षण किया. उन्हें भी साफ लग रहा था कि यह लूट का मामला नहीं है. पुलिस ने घटनास्थल की काररवाई पूरी करने के बाद दोनों लाशों को पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया. मृतक की मां बागेश्वरी देवी की तहरीर पर पुलिस ने अज्ञात के खिलाफ दोनों हत्याओं का मुकदमा दर्ज कर लिया. तकरीबन 7 साल पहले की बात है.

यह मामला एक तो विभागीय था, दूसरे बात मुख्यमंत्री तक पहुंच चुकी थी, इसलिए उसी दिन शाम को आईजी पी.सी. मीणा, एसएसपी लव कुमार ने एसपी (सिटी) हेमंत कुटीयार, एसपी (क्राइम ब्रांच) मानिकचंद और सीओ (कैंट) कमल किशोर को बुला कर विचारविमर्श करने के साथ इस केस का जल्द से जल्द खुलासा करने के निर्देश दिए.

एसएसपी लव कुमार के निर्देश पर थानाप्रभारी आनंदप्रकाश शुक्ला ने सब से पहले मृतक ओमप्रकाश और उन की पत्नी अर्चना के मोबाइल नंबरों की काल डिटेल्स निकलवाई. ओमप्रकाश की काल डिटेल्स से तो कुछ खास नहीं मिला, लेकिन अर्चना की काल डिटेल्स चौंकाने वाली थी. रात साढ़े 12 से डेढ़ बजे के बीच उस ने एक नंबर पर कई फोन किए थे.

जांच में पता चला कि वह नंबर फिरोजाबाद जिले के स्वामीनगर के रहने वाले अजय कुमार यादव का था और उस के फोन की लोकेशन दोपहर के बाद से ले कर उस समय तक गोरखपुर की थी. यही नहीं, इस के पहले भी उस नंबर पर अर्चना की दिन में कईकई बार लंबीलंबी बातें होती रही थीं.

सारा माजरा पुलिस की समझ में आ गया. अर्चना शक के दायरे में आ गई, लेकिन पुलिस ने इस बात का अहसास किसी को नहीं होने दिया. अजय कुमार गोरखपुर में ही था, लेकिन पुलिस के पास उस का कोई फोटो नहीं था, जिस से उसे पहचाना जा सके.

अजय कुमार के फोटो के लिए पुलिस ने सोशल साइट फेसबुक खंगाली तो उस में उस का फोटो मिल गया. लेकिन फेसबुक पर पड़े उस के फोटो देख कर एक बारगी पुलिस को झटका सा लगा, क्योंकि एक फोटो में वह समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ बैठक में था तो दूसरे फोटो में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से हाथ मिला रहा था.

उन्होंने यह बात एसएसपी लव कुमार को बताई तो उन्होंने कहा कि स्थितियों से साफ लगता है कि इन हत्याओं में उसी का हाथ है, इसलिए उसे तुरंत गिरफ्तार करो. देर होने पर वह हाथ से निकल सकता है.

मोबाइल की लोकेशन से पुलिस को पता चल गया था कि अजय कुमार बसअड्ïडे पर है. पुलिस को फोटो मिल ही गया था, इसलिए 22 जनवरी की सुबह पुलिस ने बसअड्डे को घेर लिया. बसअड्ïडे पर भारी मात्रा में पुलिस बल देख कर अजय ने भागने की कोशिश तो की, लेकिन वह भाग नहीं सका. पुलिस उसे पकड़ कर सीधे शाहपुर कोतवाली ले आई.

अजय कुमार के पकड़े जाने की सूचना मिलते ही एसएसपी लव कुमार और एसपी (सिटी) हेमंत कुटीयार थाने आ गए. अजय ने खुद को समाजवादी पार्टी का नेता बताते हुए बिना वजह थाने लाए जाने पर रौब तो खूब झाड़ा, लेकिन जब उस के सामने काल डिटेल्स रखी गई तो उस की सारी हेकड़ी निकल गई.

रुआंसी आवाज में हाथ जोड़ कर उस ने पुलिस अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘सर, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. अर्चना की बातों में आ कर मुझ से यह अपराध हो गया. उसी ने मुझ पर पति और बच्चे को रास्ते से हटाने का दबाव डाला था.’’

इस के बाद अजय ने ओमप्रकाश और उन के 4 साल के मासूम बेटे की हत्या की पूरी कहानी सुना दी. अजय ने स्वीकार कर लिया कि इन हत्याओं में अर्चना का भी हाथ था. इसलिए पुलिस अर्चना को गिरफ्तार करने के लिए अजय को साथ ले कर अशोकनगर कालोनी पहुंच गई.

उस समय इंसपेक्टर राजकुमार के घर परिवार वाले तो थे ही, अर्चना के पिता दीपचंद भी मौजूद थे. पुलिस अधिकारी पूछताछ के बहाने उसे लौन में वहां ले आए, जहां अजय कुमार खड़ा था. उसे पुलिस हिरासत में देख कर अर्चना का चेहरा सफेद पड़ गया.

अजय को देख कर अर्चना समझ गई कि उस का खेल खत्म हो गया है. अब उस के सामने अपना अपराध स्वीकार करने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है. इस से पहले कि उस से पुलिस कुछ पूछती, उस ने खुद ही कह दिया,  ‘‘हां, मैं ने ही अजय के साथ मिल कर पति और बेटे की हत्या की है. मुझे इस का कोई मलाल भी नहीं है.’’

अर्चना के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर वहां खड़े लोग दंग रह गए. बेटी की करतूत पर दीपचंद तो गश खा कर गिर पड़े और बेहोश हो गए.

पुलिस ने अर्चना को भी गिरफ्तार कर लिया था. इस के बाद एसएसपी लव कुमार ने पुलिस लाइंस में प्रैसवार्ता आयोजित कर अर्चना और अजय कुमार को पत्रकारों के सामने पेश किया तो दोनों ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए ओमप्रकाश और उन के 4 साल के बेटे की हत्या के पीछे की पूरी कहानी सुना दी. इस दोहरे हत्याकांड की जो कहानी सामने आई, वह कुछ इस प्रकार थी.

उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर के थाना जमनिया के खलीलचक ढडनी के रहने वाले भोलानाथ यादव का 5 लोगों का छोटा सा परिवार था. उन 5 लोगों में 2 तो वह पतिपत्नी थे, बाकी 2 बेटे राजकुमार व ओमप्रकाश और एक बेटी प्रमिला. भोलानाथ साधनसंपन्न किसान थे, इसलिए अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाई. पढ़लिख कर बड़ा बेटा राजकुमार यादव उत्तर प्रदेश पुलिस में सबइंसपेक्टर हो गया तो दूसरा बेटा ओमप्रकाश यादव नेत्र परीक्षक.

पिता की मौत के बाद राजकुमार ने पूरे परिवार को अपने साथ रख लिया था. उन की पोङ्क्षस्टग गोरखपुर हुई तो वहां किराए पर रहते हुए उन्होंने कोतवाली शाहपुर के अंतर्गत बशारतपुर की पौश कालोनी अशोकनगर में जमीन खरीद कर अपना मकान बनवा लिया. राजकुमार की शादी हो चुकी थी, ओमप्रकाश ने नेत्र परीक्षक का डिप्लोमा कर लिया तो उन की भी शादी सिंगापुर में हो गई.

शादी के बाद ओमप्रकाश पत्नी को सिंगापुर से गोरखपुर ले आए. पत्नी को गोरखपुर में अच्छा नहीं लगा तो 6 महीने बाद ही वह सिंगापुर लौट गई. उस ने ओमप्रकाश को भी वहां आने को कहा, लेकिन ओमप्रकाश घरपरिवार छोड़ कर जाना नहीं चाहते थे, इसलिए मना कर दिया.

दोनों ही अपनीअपनी जिद पर अड़े थे. इसी जिद ने उन के बीच तलाक करा दिया. इस के बाद सन 2009 में 34 साल के ओमप्रकाश की दूसरी शादी लखनऊ के रहने वाले पीएसी के कंपनी कमांडर दीपचंद यादव की बड़ी बेटी अर्चना से हो गई. उस समय अर्चना यही कोई 19 साल की थी.

उन की 2 बेटियों में अर्चना बड़ी थी. वह पढ़ीलिखी और खूबसूरत तो थी ही, स्वच्छंद स्वभाव की भी थी. अकेली घूमना, दोस्ती करना और महंगे मोबाइल फोन रखना उसे अच्छा लगता था. यह प्रवृत्ति उस की शादी के बाद भी बनी रही. खूबसूरत अर्चना को पा कर ओमप्रकाश खुश थे. करीब साल भर बाद उन के घर बेटा पैदा हुआ तो पतिपत्नी ने प्यार से उस का नाम नितिन रखा. घर में सभी उसे प्यार से शिवा कहते थे.  इस तरह ओमप्रकाश का घर खुशियों से भर गया.

ओमप्रकाश जिस मकान में परिवार के साथ रहते थे, वह उन के बड़े भाई राजकुमार यादव का था. वह भी भाई की तरह अपनी मेहनत की कमाई से एक घर बनाना चाहते थे, जिसे वह अपना कह सकें. अपने सपनों का महल खड़ा करने के लिए उन्होंने जीतोड़ मेहनत की. आखिर उन की मेहनत सफल हुई और उन्होंने थाना गुलरिहा के मोगलहा में जमीन खरीद कर सुंदर सा अपना घर बनवा लिया.

उन के बेटे नितिन उर्फ शिवा का जन्मदिन था, उसी दिन वह अपने नए मकान में जाने की तैयारी कर रहे थे. लेकिन उन का यह सपना सपना ही रह गया. क्योंकि अर्चना और ओमप्रकाश के जो 5 साल हंसीखुशी से बीते थे, पिछले साल से उन की खुशियों में अचानक ग्रहण लग गया था.

ओमप्रकाश की बशारतपुर के एक कौंप्लेक्स में औप्टिकल्स की दुकान थी. उन के दुकान पर चले जाने के बाद अर्चना घर में खाली रहती थी. बूढ़ी सास बागेश्वरी देवी और जेठानी नीचे के कमरे में रहती थीं, जबकि वह पहली मंजिल पर. खाली समय में वह टीवी देख कर समय बिताती थी या फिर मोबाइल पर सोशल साइट फेसबुक पर दोस्तों के साथ चैटिंग करती थी.

किसी दिन फेसबुक के ‘ऐडेड फ्रैंड’लिस्ट में प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से हाथ मिलाते हुए था सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ बैठे अजय कुमार यादव पर उस की नजर पड़ी तो वह उस से काफी प्रभावित हुई.

उस ने अजय की प्रोफाइल खोल कर देखी तो उस में उस का पता गांव स्वामीनगर, थाना शिकोहाबाद, जिला फिरोजाबाद दिया था. उस का मोबाइल नंबर भी उस में था. अर्चना ने अपने फेसबुक के मुख्य पेज पर अपनी शादी से पहले की आकर्षक फोटो लगा रखी थी.

अजय की राजनीतिक पहुंच देख कर उस ने उसे ‘फ्रेंड रिक्वैस्ट’ भेज दी तो अजय की ओर से रिक्वैस्ट स्वीकार कर ली गई. उस के बाद उन के बीच चैटिंग शुरू हो गई. जल्दी ही दोनों गहरे दोस्त बन गए.

अजय कुमार यादव फिरोजाबाद के थाना शिकोहाबाद के गांव स्वामीनगर का रहने वाला था. दो भाइयों में वही बड़ा था. उस के घर की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. गांव में उस के पिता श्यामबहादुर यादव की किराने की दुकान थी. पिता के न रहने पर अजय भी दुकान पर बैठता था.

उस की शादी भी हो चुकी थी. पत्नी काफी खर्चीली थी, जबकि उस के खर्च पूरे करने का अजय के पास कोई साधन नहीं था, इसलिए जल्दी ही दोनों में तलाक हो गया था. पत्नी के चले जाने के बाद अजय अकेला हो गया था. उस के बाद वह समाजवादी पार्टी से जुड़ गया और मेहनत की बदौलत जल्दी ही युवजन सभा में जिला स्तर का पद पा लिया.

फिर तो उस का बड़े नेताओं के बीच उठनाबैठना होने लगा. ऐसे में ही उस का फोटो सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ भी खिंच गया, जिसे उस ने फेसबुक पर अपलोड कर दिया. इस फोटो को काफी लोगों ने लाइक किया.

इसी दौरान अजय ने दूसरी शादी कर ली. दूसरी पत्नी से 2 बच्चे पैदा हुए. लेकिन दूसरी पत्नी से भी उस की अनबन रहने लगी और वह भी नाराज हो कर बच्चों के साथ मायके चली गई. यह 2 साल पहले की बात है. इधर पार्टी विरोधी गतिविधियों की वजह से अजय को पार्टी से निकाल दिया गया. लेकिन उस के उस फोटो को देख कर अर्चना तो उस से प्रभावित हो ही चुकी थी.

अजय और अर्चना की दोस्ती होने के बाद जबतब उन की फोन पर भी बातचीत होने लगी थी. जल्दी ही उन की दोस्ती ने प्यार का रूप ले लिया. दोनों ही एकदूसरे को दिलोजान से चाहने लगे. इसी का नतीजा था कि अर्चना ने अजय को अपने मायके लखनऊ में मिलने के लिए बुला लिया.

उस ने उसे मायके में इसलिए बुलाया था, ताकि मिलने में कोई बाधा उत्पन्न न हो. वहां मां के अलावा घर में कोई और नहीं रहता था. पापा दिन में ड्यूटी पर चले जाते थे, छोटी बहन वंदना की शादी ही हो चुकी थी. वह अपनी ससुराल में रहती थी.

पति से बहाना कर के अर्चना बेटे को ले कर मायके आ गई. अजय उस के दिए पते पर लखनऊ पहुंच गया. अर्चना ने मां से अजय का परिचय पुराने दोस्त के रूप में कराया. इस के बाद दोनों एकांत में मिले तो खुद को रोक नहीं पाए और वासना के प्रवाह में ऐसे बहे कि मर्यादा भंग कर बैठे.

अजय अर्चना से मिल कर फिरोजाबाद लौट गया तो अगले दिन अर्चना भी लखनऊ से गोरखपुर आ गई. इस के बाद उस ने ओमप्रकाश को महत्त्व देना बंद कर दिया. वह हर घड़ी मोबाइल से ही चिपकी रहती. उस की यह आदत न पति को अच्छी लग रही थी और न ही सास को. जब भी कोई उस से कुछ पूछता, वह कोई बहाना बना देती. धीरेधीरे ओमप्रकाश को उस पर शक होने लगा.

इस बीच अजय अर्चना से मिलने उस के ससुराल भी आने लगा था. सास बागेश्वरी देवी ने इस नए चेहरे को देखा तो पूछ बैठीं कि यह कौन है? तब उस ने खुद को अर्चना का दूर का रिश्तेदार बता दिया था, वह अर्चना के सभी रिश्तेदारों को जानती थीं. इतने दिनों बाद यह नया रिश्तेदार कौन आ गया, यह बात बागेश्वरी देवी के गले नहीं उतरी तो उन्होंने ओमप्रकाश से बात की.

ओमप्रकाश ने जब अर्चना से अजय के बारे में पूछा तो अपनी गलती मानने के बजाय वह पति से लडऩे पर आमादा हो गई. बस उसी दिन के बाद उन के रिश्ते में जो दरार पड़ी, वह धीरेधीरे बढ़ती ही गई.

पतिपत्नी के बीच इतनी दूरियां बढ़ गईं कि लगभग रोज ही घर में महाभारत होने लगा. यही नहीं, दोनों अलगअलग कमरों में सोने लगे. ओमप्रकाश नितिन को ले कर सोता था, जबकि अर्चना दूसरे कमरे में अकेली सोती थी.

एक तरह से अब अर्चना के लिए पति उस के प्रेम में रोड़ा बन रहा था. रोजरोज के झगड़े से वह ऊब चुकी थी. इसी का नतीजा था कि उस ने पति को रास्ते से हटाने के लिए अजय से बात की. अजय उस के लिए कुछ भी करने को तैयार था, इसलिए वह उस का साथ देने के लिए राजी हो गया.

पड़ोस में रवि राय के यहां सालगिरह का कार्यक्रम था, जिस में ओमप्रकाश भी सपरिवार जाना था. यही दिन अर्चना को पति को रास्ते से हटाने के लिए उचित लगा. उस ने अजय को फोन कर के 20 जनवरी को गोरखपुर बुला लिया. 3 बजे दोपहर अजय गोरखपुर पहुंच गया. उस समय मकान में काम चल रहा था, इसलिए बागेश्वरी देवी ऊपर थीं. अर्चना ने पीछे की सीढिय़ों से अजय को अपने कमरे में ला कर छिपा दिया.

देर शाम ओमप्रकाश लौटे तो पत्नी से पार्टी में चलने को कहा. उस समय सिर दर्द का बहाना बना कर अर्चना ने पार्टी में जाने से मना कर दिया. ओमप्रकाश ने भी जाने की जिद नहीं की. बेटे को तैयार किया और खुद भी तैयार हो कर चले गए. पति के जाने के बाद अर्चना ने अजय को बाहर निकाला और उसे खिलायापिलाया. ओमप्रकाश के लौटने का समय हुआ तो उसे फिर छिपा दिया.

रात करीब 11 बजे ओमप्रकाश बेटे के साथ पार्टी से लौटे और बेटे के साथ अपने कमरे में सो गए. सोते समय उन्होंने दरवाजे की सिटकनी अंदर से बंद नहीं की. मजदूरों के  जाने के बाद उन के औजारों से हथौड़ा निकाल कर अर्चना ने अपने कमरे में पहले ही रख लिया था. बच्चों की कूदने वाली रस्सी भी उस ने रख ली थी. अपनी इस योजना को वह किसी भी तरह से विफल नहीं होने देना चाहती थी.

सब के सो जाने के बाद अर्चना रात एक बजे के करीब दबे पांव अपने कमरे से निकली और पति के कमरे में गई. देखा कि बापबेटे गहरी नींद में सो रहे हैं तो वापस आई और अजय को हथौड़ा और रस्सी थमा कर एक बार फिर पति के कमरे में आ गई.

अर्चना ने उसे पति पर वार करने के लिए इशारा किया तो अजय ने हथौड़े से ओमप्रकाश के सिर पर पूरी ताकत से वार कर दिया. भरपूर वार से ओमप्रकाश भले ही चीख नहीं पाया, लेकिन शरीर ने तो हरकत की ही, जिस से नितिन जाग गया. पापा को मारते देख वह चिल्लाने लगा. अर्चना डर गई. दूसरी ओर संगमरमर के फर्श पर खून देख कर अजय भी कांप उठा.

अर्चना ने अजय से बच्चे को खत्म करने को कहा तो अजय की हिम्मत जवाब दे गई. उस ने मना किया तो भेद खुलने के डर से अर्चना कांप उठी. तब उस ने खुद ही बेटे का गला पकड़ लिया. उस समय मां की वह ममता भी नहीं जागी, जिस के बारे में कहा जाता है कि मां की ममता से बढ़ कर इस दुनिया में कुछ भी नहीं है. मां मर सकती है, लेकिन अपने बच्चों को खरोंच तक नहीं आने दे सकती. लेकिन वासना में अंधी अर्चना ने बेटे को गला दबा कर मार दिया.

पुलिस और घर वालों को गुमराह करने के लिए अर्चना ने घर का सामान बिखेर दिया साथ ही सिटकनी खोल कर फर्श पर रख दी, ताकि सभी को यही लगे कि लूट की नीयत से सिटकनी तोड़ कर अंदर आए लुटेरों ने ओमप्रकाश और नितिन की हत्या कर दी है. इस के बाद दोनों ने बाथरूम में जा कर खून से सने हाथपैर धोए और कमरे में जा कर सो गए.

सुबह 4 बजे दोनों उठे तो अर्चना ने दरवाजा खोल कर बाहर झांका. कोई दिखाई नहीं दिया तो उस ने पीछे की सीढ़ी से अजय को बाहर निकाल दिया. अजय वहां से निकल कर गोरखपुरमहारागंज राष्ट्रीय राजमार्ग पर आया और टैंपो से बसअड्ïडे पर जा कर छिप गया. वह वहां इसलिए रुका था, क्योंकि अगले दिन अर्चना भी उस के साथ जाने वाली थी. वह अर्चना को ले जा पाता, उस के पहले ही पुलिस ने मोबाइल की लोकेशन के आधार पर उसे पकड़ लिया.

अर्चना ने प्रेमी अजय के साथ मिल कर जो किया, उस की सजा उसे अवश्य मिलेगी. अब उन की बाकी की ङ्क्षजदगी जेल की सलाखों के पीछे बीतेगी. लेकिन अर्चना को अभी भी अपने किए का दुख नहीं है.

अवगुण चित न धरो

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जन्म समय : कितने साल पुराना था नया अस्पताल ?

रिसैप्शन रूम से बड़ी तेज आवाजें आ रही थीं. लगा कि कोई झगड़ा कर रहा है. यह जिला सरकारी जच्चाबच्चा अस्पताल का रिसैप्शन रूम था. यहां आमतौर पर तेज आवाजें आती रहती थीं. अस्पताल में भरती होने वाली औरतों के हिसाब से स्टाफ कम होने से कई बार जच्चा व उस के संबंधियों को संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाता था.

अस्पताल बड़ा होने के चलते जच्चा के रिश्तेदारों को ज्यादा भागादौड़ी करनी पड़ती थी. इसी झल्लाहट को वे गुस्से के रूप में स्टाफ व डाक्टर पर निकालते थे.

मुझे एक तरह से इस सब की आदत सी हो गई थी, पर आज गुस्सा कुछ ज्यादा ही था. मैं एक औरत की जचगी कराते हुए काफी समय से सुन रहा था और समय के साथसाथ आवाजें भी बढ़ती ही जा रही थीं.

मेरा काम पूरा हो गया था. थोड़ा मुश्किल केस था. केस पेपर पर लिखने के लिए मैं अपने डाक्टर रूम में गया.

मैं ने वार्ड बौय से पूछा, ‘‘क्या बात है, इतनी तेज आवाजें क्यों आ रही हैं?’’

‘‘साहब, एक शख्स 24-25 साल पुरानी जानकारी हासिल करना चाहते हैं. बस, उसी बात पर कहासुनी हो रही है.’’

वार्ड बौय ने ऐसे बताया, जैसे कोई बड़ी बात नहीं हो.

‘‘अच्छा, उन्हें मेरे पास भेजो,’’ मैं ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘जी साहब,’’ कहता हुआ वह रिसैप्शन रूम की ओर बढ़ गया.

कुछ देर बाद वह वार्ड बौय मेरे चैंबर में आया. उस के साथ तकरीबन 25 साल की उम्र का नौजवान था.

वह शख्स थोड़ा पढ़ालिखा लग रहा था. शक्ल भी ठीकठाक थी. पैंटशर्ट में था. वह काफी परेशान व उलझन में दिख रहा था. शायद इसी बात का गुस्सा उस के चेहरे पर था.

‘‘बैठो, क्या बात है?’’ मैं ने केस पेपर पर लिखते हुए उसे सामने की कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

‘‘डाक्टर साहब, मैं कितने दिनों से अस्पताल के धक्के खा रहा हूं. जिस टेबल पर जाऊं, वह यही बोलता है कि यह मेरा काम नहीं है. उस जगह पर जाओ. एक जानकारी पाने के लिए

मैं 5 दिन से धक्के खा रहा हूं,’’ उस शख्स ने अपनी परेशानी बताई.

‘‘कैसी जानकारी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जन्म के समय की जानकारी,’’ उस ने ऐसे बोला, जैसे कि कोई बड़ा राज खोला.

‘‘किस के जन्म की?’’ आमतौर पर लोग अपने छोटे बच्चे के जन्म की जानकारी लेने आते हैं, स्कूल में दाखिले के लिए.

‘‘मेरे खुद के जन्म की.’’

‘‘आप के जन्म की? यह जानकारी तो तकरीबन 24-25 साल पुरानी होगी. वह इस अस्पताल में कहां मिलेगी. यह नई बिल्डिंग तकरीबन 15 साल पुरानी है. तुम्हें हमारे पुराने अस्पताल के रिकौर्ड में जाना चाहिए.

‘‘इतना पुराना रिकौर्ड तो पुराने अस्पताल के ही रिकौर्ड रूम में होगा, सरकार के नियम के मुताबिक, जन्म समय का रिकौर्ड जिंदगीभर तक रखना पड़ता है.

‘‘डाक्टर साहब, आप भी एक और धक्का खिला रहे हो,’’ उस ने मुझ से शिकायती लहजे में कहा.

‘‘नहीं भाई, ऐसी बात नहीं है. यह अस्पताल यहां 15 साल से है. पुराना अस्पताल ज्यादा काम के चलते छोटा पड़ रहा था, इसलिए तकरीबन 15 साल पहले सरकार ने बड़ी बिल्डिंग बनाई.

‘‘ओ भाई यह अस्पताल यहां शिफ्ट हुआ था, तब मेरी नौकरी का एक साल ही हुआ था. सरकार ने पुराना छोटा अस्पताल, जो सौ साल पहले अंगरेजों के समय बना था, पुराना रिकौर्ड वहीं रखने का फैसला किया था,’’ मैं ने उसे समझाया.

‘‘साहब, मैं वहां भी गया था, पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. बोले, ‘प्रमाणपत्र में सिर्फ तारीख ही दे सकते हैं, समय नहीं,’’’ उस शख्स ने कहा.

आमतौर पर जन्म प्रमाणपत्र में तारीख व जन्मस्थान का ही जिक्र होता है, समय नहीं बताते हैं. पर हां, जच्चा के इंडोर केस पेपर में तारीख भी लिखी होती है और जन्म समय भी, जो घंटे व मिनट तक होता है यानी किसी का समय कितने घंटे व मिनट तक होता है, यानी किसी का समय कितने घंटे व मिनट पर हुआ.

तभी मेरे दिमाग में एक सवाल कौंधा कि जन्म प्रमाणपत्र में तो सिर्फ तारीख व साल मांगते हैं, इस को समय की जरूरत क्यों पड़ी?

‘‘भाई, तुम्हें अपने जन्म के समय की जरूरत क्यों पड़ी?’’ मैं ने उस से हैरान हो कर पूछा.

‘‘डाक्टर साहब, मैं 26 साल का हो गया हूं. मैं दुकान में से अच्छाखासा कमा लेता हूं. मैं ने कालेज तक पढ़ाई भी पूरी की है. मुझ में कोई ऐब भी नहीं है. फिर भी मेरी शादी कहीं तय नहीं हो पा रही है. मेरे सारे दोस्तों व हमउम्र रिश्तेदारों की भी शादी हो गई है.

‘‘थकहार कर घर वालों ने ज्योतिषी से शादी न होने की वजह पूछी. तो उस ने कहा, ‘तुम्हारी जन्मकुंडली देखनी पड़ेगी, तभी वजह पता चल सकेगी और कुंडली बनाने के लिए साल, तारीख व जन्म के समय की जरूरत पड़ेगी.’

‘‘मेरी मां को जन्म की तारीख तो याद है, पर सही समय का पता नहीं. उन्हें सिर्फ इतना पता है कि मेरा जन्म आधी रात को इसी सरकारी अस्पताल में हुआ था.

‘‘बस साहब, उसी जन्म के समय के लिए धक्के खा रहा हूं, ताकि मेरा बाकी जन्म सुधर जाए. शायद जन्म का सही समय अस्पताल के रिकौर्ड से मिल जाए.’’

‘‘मेरे साथ आओ,’’ अचानक मैं ने उठते हुए कहा. वह उम्मीद के साथ उठ खड़ा हुआ.

‘‘यह कागज व पैन अपने साथ रखो,’’ मैं ने क्लिप बोर्ड से एक पन्ना निकाल कर कहा.

‘‘वह किसलिए?’’ अब उस के चौंकने की बारी थी.

‘‘समय लिखने के लिए,’’ मैं ने उसे छोटा सा जवाब दिया.

‘‘मेरी दीवार घड़ी में जितना समय हुआ है, वह लिखो,’’ मैं ने दीवार घड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा.

उस ने हैरानी से लिखा. सामने ही डिलीवरी रूम था. उस समय डिलीवरी रूम खाली था. कोई जच्चा नहीं थी.

डिलीवरी रूम में कभी भी मर्द को दाखिल होने की इजाजत नहीं होती है. मैं उसे वहां ले गया. वह भी हिचक के साथ अंदर घुसा.

मैं ने उस कमरे की घड़ी की ओर इशारा करते हुए उस का समय नोट करने को कहा, ‘‘अब तुम मेरी कलाई घड़ी और अपनी कलाई घड़ी का समय इस कागज में नोट करो.’’

उस ने मेरे कहे मुताबिक सारे समय नोट किए.

‘‘अच्छा, बताओ सारे समय?’’ मैं ने वापस चैंबर में आ कर कहा.

‘‘आप की घड़ी का समय दोपहर 2.05, मेरी घड़ी का समय दोपहर 2.09, डिलीवरी रूम का समय दोपहर 2.08 और आप के चैंबर का समय दोपहर 2.01 बजे,’’ जैसेजैसे वह बोलता गया, खुद उस के शब्दों में हैरानी बढ़ती जा रही थी.

‘‘सभी घडि़यों में अलगअलग समय है,’’ उस ने इस तरह से कहा कि जैसे दुनिया में उस ने नई खोज की हो.

‘‘देखा तुम ने अपनी आंखों से, सब का समय अलगअलग है. हो सकता है कि तुम्हारे ज्योतिषी की घड़ी का समय भी अलग हो. और जिस ने पंचांग बनाया हो, उस की घड़ी में उस समय क्या बजा होगा, किस को मालूम?

‘‘जब सभी घडि़यों में एक ही समय में इतना फर्क हो, तो जन्म का सही समय क्या होगा, किस को मालूम?

‘‘जिस केस पेपर को तुम ढूंढ़ रहे हो, जिस में डाक्टर या नर्स ने तुम्हारा जन्म समय लिखा होगा, वह समय सही होगा कि गलत, किस को पता?

‘‘मैं ने सुना है कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक पल का फर्क भी ग्रह व नक्षत्रों की जगह में हजारों किलोमीटर में हेरफेर कर देता है. तुम्हारे जन्म समय में तो मिनटों का फर्क हो सकता है.

‘‘सुनो भाई, तुम्हारी शादी न होने की वजह यह लाखों किलोमीटर दूर के बेचारे ग्रहनक्षत्र नहीं हैं. हो सकता है कि तुम्हारी शादी न होने की वजह कुछ और ही हो. शादियां सिर्फ कोशिशों से होती हैं, न कि ग्रहनक्षत्रों से,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘डाक्टर साहब, आप ने घडि़यों के समय का फर्क बता कर मेरी आंखें खोल दीं. इतना पढ़नेलिखने के बावजूद भी मैं सिर्फ निराशा के चलते इन अंधविश्वासों के फेर में फंस गया. मैं फिर से कोशिश करूंगा कि मेरी शादी जल्दी से हो जाए.’’

अब उस शख्स के चेहरे पर निराशा की नहीं, बल्कि आत्मविश्वास की चमक थी.

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