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बिन घुंघरू की पायल : भाग 1

‘‘पायल कैसा नाम है, दीदी,’’ पालने में बिटिया को लिटाते हुए निशा भाभी ने मुझे से पूछा. ‘‘हूं, पायल भी कोई नाम हुआ?’’ मां बीच में ही मुंह बिचकाती हुई बोल उठीं, ‘‘इस से तो झूमर, बिंदिया, माला न रख लो. पैर में पहनने की चीज का क्या नाम रखना.’’ ‘‘पैर में पहनने से क्या होता है? पायल की झनकार कितनी प्यारी होती है. नाम लेने में रुनन की आवाज कानों में गूंजने लगती है.’’ भाभी और मां में ऐसी ही कितनी ही बातों पर नोकझोंक हो जाया करती थी. मैं तटस्थ भाव से देख रही थी. न भाभी के पक्ष में कह सकती थी, न मां के. मां का पक्ष लेती तो भाभी को बुरा लगता.

भाभी का पक्ष लेती तो मां कहतीं, लो, अपने ही पेट की जाई पराई हो गई. यों भाभी और मां में बहुत स्नेह था पर कभीकभी किसी बात पर मतभेद हो जाता तो फिर एकमत होना मुश्किल हो जाता. भैया आयु में मुझ से बड़े थे पर मेरा विवाह उन से पहले हो गया था. मेरे पति की नौकरी उसी शहर में थी, इसलिए मैं अकसर मां से मिलने आती रहती थी. विवाह के 2 वर्ष पश्चात जब भाभी के पैर भारी होने का आभास मां को हुआ तो उस पड्ड्रसन्नता में न जाने कितने नाम उन्होंने अपप्ने पोतेपोती के सोच डाले. बिटिया होते ही मां ने अपने सोचे हुए नामों की पूरी सूची ही सुना डाली. लक्ष्मी, सरस्वती, सीता जैसी देवियों के नाम के सामने मां को काजल, कोयल, पायल जैसे नाम बिलकुल बेतुके और सारहीन लगते. आधुनिक सभ्यता में पलीबढ़ीं भाभी को मां का रखा कोई भी नाम पसंद न आया.

उन्हें पायल पसंद था, सो वही रखा पर मां भी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने कभी अपनी जबान से पायल न पुकारा और बिटिया को रुनझन कहने लगीं. रुनझन क्या हो गई थी, मां को जीने का सहारा मिल गया था. हरदम उसे सीने से लगाए रखतीं. निरे प्यार में पायल पल रही थी. जब कुछ चलने लायक हुई तो मां भाभी से बोलीं, ‘‘नाम तो इस का पायल रखा है, अब पैरों में भी पायल ला कर डाल दो न.’’ और फिर एक दिन स्वयं ही छोटेछोटे घुंघरुओं की पायल ला कर उस के पैरों में पहना दीं. घर का कोना छमछम की आवाज से गूंजने लगा. भाभी और मां उस की बलैया लेते न थकतीं. उस के गोलमटोल चेहरे पर बड़ीबड़ी आंखें बहुत ही प्यारी लगती थीं. खुश रहना उस का स्वभाव था. उस की खिलखिलाती हंसी को देख कर सब खुश हो उठते. पायल के साथ मां भी जैसे बच्चा बन गई थीं. कभी उस के साथ लुकाछिपी खेलतीं, कभी अक्कड़बक्कड़. उस की तोतली बोली सुन कर वे निहाल हो जातीं. फिर एक दिन मां को बीमारी ने आ पकड़ा.

पुनर्जन्म : भाग 1

परिवार की जिम्मेदारी शिखा के कंधों पर आ पड़ी तो उस ने सूरज को सलाह दी कि वह उसे भूल जाए. अपना घर न बसा कर उस ने छोटे भाई व बहन को पढ़ायालिखाया, उन की शादियां कीं. मां का पूरा खयाल रखा. इसी बीच, काम की थकान उतारने को वह एकांतवास में चली गई तो उस ने महसूस किया कि उस का पुनर्जन्म हो रहा है.

‘‘आप को मालूम है मां, दीदी का प्रोमोशन के बाद भी जन कल्याण मंत्रालय से स्थानांतरण क्यों नहीं किया जा रहा, क्योंकि दीदी को व्यक्ति की पहचान है. वे बड़ी आसानी से पहचान लेती हैं कि किस समाजसेवी संस्था के लोग समाज का भला करने वाले हैं और कौन अपना. फिर आप लोग इतनी पारखी नजर वाली दीदी की जिंदगी का फैसला बगैर उन्हें भावी वर से मिलवाए खुद कैसे कर सकती हैं?’’ ऋचा ने तल्ख स्वर से पूछा, ‘‘पहले दीदी के अनुरूप सुव्यवस्थित 2 लोगों को आप ने इसलिए नकार दिया कि वे दुहाजू हैं और अब जब एक कुंआरा मिल रहा है तो आप इसलिए मना कर रही हैं कि उस में जरूर कुछ कमी होगी जो अब तक कुंआरा है. आखिर आप चाहती क्या हैं?’’

‘‘शिखा की भलाई और क्या?’’ मां भी चिढ़े स्वर में बोलीं.

‘‘मगर यह कैसी भलाई है, मां कि बस, वर का विवरण देखते ही आप और यश भैया ऐलान कर दें कि यह शिखा के उपयुक्त नहीं है. आप ने हर तरह से उपयुक्त उस कुंआरे आदमी के बारे में यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि उस की अब तक शादी न करने की क्या वजह है?’’

‘‘शादी के बाद यह कुछ ज्यादा नहीं बोलने लगी है, मां?’’ यश ने व्यंग्य से पूछा.

‘‘कम तो खैर मैं कभी भी नहीं बोलती थी, भैया. बस, शादी के बाद सही बोलने की हिम्मत आ गई है,’’ ऋचा व्यंग्य से मुसकराई.

‘‘बोलने की ही हिम्मत आई है, सोचने की नहीं,’’ यश ने कटाक्ष किया, ‘‘सीधी सी बात है, 35 साल तक कुंआरा रहने वाला आदमी दिलजला होगा…’’

‘‘फिर तो वह दीदी के लिए सर्वथा उपयुक्त है,’’ ऋचा ने बात काटी, ‘‘क्योंकि दीदी भी अपने बैचमेट सूरज के साथ दिल जला कर मसूरी की सर्द वादियों में अपने प्रणय की आग लगा चुकी हैं.’’

‘‘तुम तो शादी के बाद बेशर्म भी हो गई हो ऋचा, कैसे अपने परिवार और कैरियर के प्रति संप्रीत दीदी पर इतना घिनौना आरोप लगा रही हो?’’ यश की पत्नी शशि ने पूछा.

‘‘यह आरोप नहीं हकीकत है, भाभी. दीदी की सगाई उन के बैचमेट सूरज से होने वाली थी लेकिन उस से एक सप्ताह पहले ही पापा को हार्ट अटैक पड़ गया. पापा जब आईसीयू में थे तो मैं ने दीदी को फोन पर कहते सुना था, ‘पापा अगर बच भी गए तो सामान्य जीवन नहीं जी पाएंगे, इसलिए बड़ी और कमाऊ होने के नाते परिवार के भरणपोषण की जिम्मेदारी मेरी है. सो, जब तक यश आईएएस प्रतियोगिता में उत्तीर्ण न हो जाए और ऋचा डाक्टर न बन जाए, मैं शादी नहीं कर सकती, सूरज. इस सब में कई साल लग जाएंगे, सो बेहतर होगा कि तुम मुझे भूल जाओ.’

‘‘उस के बाद दीदी ने दृढ़ता से शादी करने से मना कर दिया, रिश्तेदारों ने भी उन का साथ दिया क्योंकि अपाहिज पापा की तीमारदारी का खर्च तो उन के परिवार का कमाऊ सदस्य ही उठा सकता था और वह सिर्फ दीदी थीं. पापा ने अंतिम सांस लेने से पहले दीदी से वचन लिया था कि यश भैया और मेरे व्यवस्थित होने के बाद वे अपनी शादी के लिए मना नहीं करेंगी. आप को पता ही है कि मैं ने डब्लूएचओ की स्कालरशिप छोड़ कर अरुण से शादी क्यों की, ताकि दीदी पापा की अंतिम इच्छा पूरी कर सकें.’’

‘‘हमारे लिए उस के पापा की अंतिम इच्छा से बढ़ कर शिखा की अपनी इच्छा और भलाई जरूरी है,’’ मां ने तटस्थता से कहा.

‘‘पापा की अंतिम इच्छा पूरी करना दीदी की इच्छाओं में से एक है,’’ ऋचा बोली, ‘‘रहा भलाई का सवाल तो आप लोग केवल उपयुक्त घरवर सुझाइए, उस के अपने अनुरूप या अनुकूल होने का फैसला दीदी को करने दीजिए.’’

‘‘और अगर हम ने ऐसा नहीं किया न मां तो यह दीदी की परम हितैषिणी स्वयं दीदी के लिए घरवर ढूंढ़ने निकल पड़ेगी,’’ यश व्यंग्य से हंसा.

‘‘बिलकुल सही समझा आप ने, भैया. इस से पहले कि मैं और अरुण अमेरिका जाएं मैं चाहूंगी कि दीदी का भी अपना घरसंसार हो. आज मैं जो हूं दीदी की मेहनत और त्याग के कारण. सच कहिए, अगर दीदी न होतीं तो आप लोग मेरी डाक्टरी की पढ़ाई का खर्च उठा सकते थे?’’ ऋचा ने तल्ख स्वर में पूछा, ‘‘आप के लिए तो पापा की मृत्यु मेहनत से बचने का बहाना बन गई भैया. बगैर यह परवा किए कि पापा का सपना आप को आईएएस अधिकारी बनाना था, आप ने उन की जगह अनुकंपा में मिल रही बैंक की नौकरी ले ली क्योंकि आप पढ़ना नहीं चाहते थे. मां भी आप से मेहनत करवाना नहीं चाहतीं. और फिर पापा के समय की आनबान बनाए रखने को आईएएस अफसर दीदी तो थीं ही. नहीं तो आप के बजाय यह नौकरी मां भी कर सकती थीं, आप पढ़ाई और दीदी शादी.’’

‘‘ये गड़े मुर्दे उखाड़ कर तू कहना क्या चाहती है?’’ मां ने झल्लाए स्वर में पूछा.

‘‘यही कि पुत्रमोह में दीदी के साथ अब और अन्याय मत कीजिए. भइया की गृहस्थी चलाने के बजाय उन्हें अब अपना घरसंसार बसाने दीजिए. फिलहाल उस डाक्टर का विवरण मुझे दे दीजिए. मैं उस के बारे में पता लगाती हूं,’’ ऋचा ने उठते हुए कहा.

‘‘वह हम लगा लेंगे मगर आप चली कहां, अभी बैठो न,’’ शशि ने आग्रह किया.

‘‘अस्पताल जाने का समय हो गया है, भाभी,’’ कह कर ऋचा चल पड़ी. मां और यश ने रोका भी नहीं जबकि मां को मालूम था कि आज उस की छुट्टी है.

ऋचा सीधे शिखा के आफिस गई.

‘‘आप से कुछ जरूरी बात करनी है, दीदी. अगर आप अभी व्यस्त हैं तो मैं इंतजार कर लेती हूं,’’ उस ने बगैर किसी भूमिका के कहा.

‘‘अभी मैं एक मीटिंग में जा रही हूं, घंटे भर तक तो वह चलेगी ही. तू ऐसा कर, घर चली जा. मैं मीटिंग खत्म होते ही आ आऊंगी.’’

‘‘घर से तो आ ही रही हूं. आप ऐसा करिए मेरे घर आ जाइए, अरुण की रात 10 बजे तक ड्यूटी है, वह जब तक आएंगे हमारी बात खत्म हो जाएगी.’’

‘‘ऐसी क्या बात है ऋचा, जो मां और अरुण के सामने नहीं हो सकती?’’

‘‘बहनों की बात बहनों में ही रहने दो न दीदी.’’

‘‘अच्छी बात है,’’ शिखा मुसकराई, ‘‘मीटिंग खत्म होते ही तेरे घर पहुंचती हूं.’’

उसे लगा कि ऋचा अमेरिका जाने से पहले कुछ खास खरीदने के लिए उस की सिफारिश चाहती होगी. मीटिंग खत्म होते ही वह ऋचा के घर आ गई.

‘‘अब बता, क्या बात है?’’ शिखा ने चाय पीने के बाद पूछा.

‘‘मैं चाहती हूं दीदी कि मेरे और अरुण के अमेरिका जाने से पहले आप पापा को दिया हुआ अपना वचन कि जिम्मेदारियां पूरी होते ही आप शादी कर लेंगी, पूरा कर लें,’’ ऋचा ने बगैर किसी भूमिका के कहा, ‘‘वैसे आप की जिम्मेदारी तो मेरे डाक्टर बनते ही पूरी हो गई थी फिर भी आप मेरी शादी करवाना चाहती थीं, सो मैं ने वह भी कर ली…’’

‘‘लेकिन मेरी जिम्मेदारियां तो खत्म नहीं हुईं, बहन,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘यश अपना परिवार ही नहीं संभाल पाता है तो मां को कैसे संभालेगा?’’

‘‘यानी न कभी जिम्मेदारियां पूरी होंगी और न पापा की अंतिम इच्छा. जीने वालों के लिए ही नहीं दिवंगत आत्मा के प्रति भी आप का कुछ कर्तव्य है, दीदी.’’

शिखा ने एक उसांस ली.

‘‘मैं ने यह वचन पापा को ही नहीं सूरज को भी दिया था ऋचा, और जो उस ने मेरे लिए किया है उस के बाद उसे दिया हुआ वचन पूरा करना भी मेरा फर्ज बनता है लेकिन महज वचन के कारण जिम्मेदारियों से मुंह तो नहीं मोड़ सकती.’’

‘‘मां के लिए पापा की पेंशन काफी है, दीदी, और जरूरत पड़ने पर पैसे से मैं और आप दोनों ही उन की मदद कर सकते हैं, उन्हें अपने पास रख सकते हैं. यश का परिवार उस की निजी समस्या है, मेहनत करें तो दोनों मियांबीवी अच्छाखासा कमा सकते हैं, उन के लिए आप को परेशान होने की जरूरत नहीं है,’’ ऋचा ने आवेश से कहा और फिर हिचकते हुए पूछा, ‘‘माफ करना, दीदी, मगर मुझे याद नहीं आ रहा कि सूरज ने आप के लिए क्या किया?’’

‘‘मुझे रुसवाई से बचाने के लिए सूरज ने मेहनत से मिली आईएएस की नौकरी छोड़ दी क्योंकि हमारे सभी साथियों को हमारी प्रेमकहानी और होने वाली सगाई के बारे में मालूम था. एक ही विभाग में होने के कारण गाहेबगाहे मुलाकात होती और अफवाहें भी उड़तीं, सो मुझे इस सब से बचाने के लिए सूरज नौकरी छोड़ कर जाने कहां चला गया.’’

‘‘आप ने उसे तलाशने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘उस के किएकराए यानी त्याग पर पानी फेरने के लिए?’’

‘‘यह बात भी ठीक है. देखिए दीदी, जब आप वचनबद्ध हुई थीं तब आप की जिम्मेदारी केवल भैया और मेरी पढ़ाई पूरी करवाने तक सीमित थी, लेकिन आप ने हमारी शादियां भी करवा दीं. अब उस के बाद की जिम्मेदारियां आप के वचन की परिधि से बाहर हैं और अब आप का फर्ज केवल अपना वचन निभाना है. बहुत जी लीं दूसरों के लिए और यादों के सहारे, अब अपने लिए जी कर देखिए दीदी, कुछ नए यादगार क्षण संजोने की कोशिश करिए.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है…’’

‘‘तो फिर आज से ही इंटरनेट पर अपने मनपसंद जीवनसाथी की तलाश शुरू कर दीजिए. मां तो पुत्रमोह में आप की शादी करवाएंगी नहीं.’’

परिवार की हिंदी कहानियां

Top Pariwar ki Kahani : सरिता डिजिटल लाया है latest Pariwar ki Hindi Kahaniyan यानी फैमिली स्टोरी. पढ़िए Family stories, or Parivarik से जुड़ी एक से बढ़कर एक कहानियां.

1. तुम कैसी हो : आशा के पति को क्या उसकी चिंता थी?

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एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें.

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2. शिकायतनामा : कृष्णा क्यों करता था इतना अत्याचार ?

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देर शाम अनुष्का का फोन आया. कामधाम से खाली होती तो अपने पिता विश्वनाथ को फोन कर अपना दुखसुख अवश्य साझा करती. शादी के 3 साल हो गए, यह क्रम आज भी बना हुआ था. पिता को बेटियेां से ज्यादा लगाव होता है, जबकि मां को बेटों से. इस नाते अनुष्का निसंकोच अपनी बात कह कर जी हलका कर लेती.

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3. रिश्तों की कसौटी : क्या हुआ था सुरभी को ?

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‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा.

‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

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4. पति नहीं सिर्फ दोस्त : स्वाति का क्यों नहीं आया था फोन ?

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3 दिन हो गए स्वाति का फोन नहीं आया तो मैं घबरा उठी. मन आशंकाओं से घिरने लगा. वह प्रतिदिन तो नहीं मगर हर दूसरे दिन फोन जरूर करती थी. मैं उसे फोन नहीं करती थी यह सोच कर कि शायद वह बिजी हो. कोई जरूरत होती तो मैसेज कर देती थी. मगर आज मुझ से नहीं रहा गया और शाम होतेहोते मैं ने स्वाति का नंबर डायल कर दिया. उधर से एक पुरुष स्वर सुन कर मैं चौंक गई. हालांकि फोन तुरंत स्वाति ने ले लिया मगर मैं उस से सवाल किए बिना नहीं रह सकी.

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5. भाभी : गीता को क्यों याद आ रहे थे पुराने दिन ?

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अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई.

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6. कोरा कागज: आखिर कोरे कागज पर किस ने कब्जा किया

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1996, अब से 25 साल पहले. सुबह के 9 बजने को थे. नाश्ते की मेज पर नवीन और पूनम मौजूद थे. नवीन अखबार पढ़ रहे थे और पूनम चाय बना रही थी, तभी राजन वहां पहुंचा और तेजी से कुरसी खींच कर उस पर जम गया.

“गुड मौर्निंग मम्मीपापा,” राजन ने कहा. “गुड मौर्निंग बेटा,” पूनम ने मुसकरा कर जवाब दिया और उस के लिए ब्रैड पर जैम लगाने लगी.

“मम्मी, सामने वाली कोठी में लोग आ गए क्या…? अभी मैं ने देखा कि लौन में एक अंकल कुरसीपर बैठे हैं.”

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7. मीत मेरा मनमीत तुम्हारा: अंबुज का अपनी भाभी से क्यों था इतना लगाव

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‘‘प्रेरणा भाभी, कहां हो आप?’’ अंबुज ने अपना हैल्मेट एक ओर रख दिया और दूसरे हाथ का पैकेट डाइनिंगटेबल पर रख दिया. बारिश की बूंदों को शर्ट से हटाते हुए वह फिर बोला, ‘‘अब कुछ नहीं बनाना भाभी… अली की शौप खुली थी अभी… बिरयानी मिल गई,’’ और फिर किचन से प्लेटें लेने चला गया.

प्रेरणा रूम से बाहर आ गई. वह नौकरी के लिए इंटरव्यू दे कर कानपुर से अभीअभी लौटी थी. रात के 8 बज रहे थे. पति पंकज अपने काम के सिलसिले में 1 सप्ताह से बाहर था. इसीलिए वह अंबुज की मदद से आराम से इंटरव्यू दे कर लौट आई वरना पंकज उसे जाने ही नहीं देता. गुस्सा करता. अंबुज ने ही विज्ञापन देखा, फार्म भरवाया, टिकट कराया और ट्रेन में बैठा कर भी आया. सुबहशाम हाल भी पूछता रहा. तभी तो नौकरी पक्की हो गई तो उसे बता कर प्रेरणा को कितनी खुशी हुई थी. पंकज से तो शेयर भी नहीं कर सकती.

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8. गर्ल टौक: आंचल खुद रोहिणी की कैसे बन गई दोस्त

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एक दिन साहिल के सैलफोन की घंटी बजने पर जब आंचल ने उस के स्क्रीन पर रोहिणी का नाम देखा तो उस के माथे पर त्योरियां चढ़ गईं.

रोहिणी के महफिल में कदम रखते ही संगीसाथी जो अपने दोस्त साहिल की शादी में नाच रहे थे, के कदम वहीं के वहीं रुक गए. सभी रोहिणी के बदले रूप को देखने लगे.

‘‘रोहिणी… तू ही है न?’’ मोहन की आंखों के साथसाथ उस का मुंह भी खुला का खुला रह गया.

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9. एक साथी की तलाश: क्या श्यामला अपने पति मधुप के पास लौट पाई?

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शाम गहरा रही थी. सर्दी बढ़ रही थी. पर मधुप बाहर कुरसी पर बैठे शून्य में टकटकी लगाए न जाने क्या सोच रहे थे. सूरज डूबने को था. डूबते सूरज की रक्तिम रश्मियों की लालिमा में रंगे बादलों के छितरे हुए टुकड़े नीले आकाश में तैर रहे थे. उन की स्मृति में भी अच्छीबुरी यादों के टुकड़े कुछ इसी प्रकार तैर रहे थे.

2 दिन पहले ही वे रिटायर हुए थे. 35 सालों की आपाधापी व भागदौड़ के बाद का आराम या विराम… पता नहीं…

‘‘पर, अब… अब क्या…’’ विदाई समारोह के बाद घर आते हुए वे यही सोच रहे थे. जीवन की धारा अब रास्ता बदल कर जिस रास्ते पर बहने वाली थी, उस में वे अकेले कैसे तैरेंगे.

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10. अपनी खुशी के लिए: क्या जबरदस्ती की शादी से बच पाई नम्रता?

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‘‘नंदिनी अच्छा हुआ कि तुम आ गईं. तुम बिलकुल सही समय पर आई हो,’’ नंदिनी को देखते ही तरंग की बांछें खिल गईं.

‘‘हम तो हमेशा सही समय पर ही आते हैं जीजाजी. पर यह तो बताइए कि अचानक ऐसा क्या काम आन पड़ा?’’

‘‘कल खुशी के स्कूल में बच्चों के मातापिता को आमंत्रित किया गया है. मैं तो जा नहीं सकता. कल मुख्यालय से पूरी टीम आ रही है निरीक्षण करने. अपनी दीदी नम्रता को तो तुम जानती ही हो. 2-4 लोगों को देखते ही घिग्घी बंध जाती है. यदि कल तुम खुशी के स्कूल चली जाओ तो बड़ी कृपा होगी,’’ तरंग ने बड़े ही नाटकीय स्वर में कहा.

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11. अपना घर: क्या बेटी के ससुराल में माता-पिता का आना गलत है?

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डायबिटीज़ के मरीज अरुण की भूख जब बरदाश्त के बाहर होने लगी और वे आवाज दे कर बोलने ही जा रहे थे कि रेणु ने आंखें तरेरीं, “शर्म है कि नहीं कुछ आप को? बेटी के घर आए हो और भूखभूख कर रहे हो, जरा रुक नहीं सकते? यह आप का अपना घर नहीं है, बेटी की ससुराल आए हैं हम,  समझे?”

“अरे, तो क्या हो गया? क्या बेटी के घर में भूख नहीं लग सकती? भूख तो भूख है, कहीं भी लग सहती है,” अरुण ने ठहाका लगाया, “तुम भी न रेणु, कुछ भी सोचती हो. यह हमारी बेटी का घर है, किसी पराए का नहीं.”

यह सुन कर रेणु भुनभुनाते हुए कहने लगी कि इसलिए वह यहां आना नहीं चाहती है. मगर वाणी  है कि समझती ही नहीं. जाने क्या सोचते होंगे इस की ससुराल वाले?

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12. सच्चाई: आखिर क्यों मां नहीं बनना चाहती थी सिमरन?

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पड़ोस में आते ही अशोक दंपती ने 9 वर्षीय सपना को अपने 5 वर्षीय बेटे सचिन की दीदी बना दिया था. ‘‘तुम सचिन की बड़ी दीदी हो. इसलिए तुम्हीं इस की आसपास के बच्चों से दोस्ती कराना और स्कूल में भी इस का ध्यान रखा करना.’’ सपना को भी गोलमटोल सचिन अच्छा लगा था. उस की मम्मी तो यह कह कर कि गिरा देगी, छोटे भाई को गोद में भी नहीं उठाने देती थीं. समय बीतता रहा. दोनों परिवारों में और बच्चे भी आ गए. मगर सपना और सचिन का स्नेह एकदूसरे के प्रति वैसा ही रहा. सचिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मणिपाल चला गया.

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13. मुक्तिद्वार: क्या थी कुमुद की कहानी

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माधुरी और उस के पूरे ग्रुप का आज धनोल्टी घूमने का प्रोग्राम था. माधुरी ने सारी तैयारी कर ली थी. एक छोटी सी मैडिसिन किट भी बना ली थी. तभी कुमुद चुटकी काटते हुए बोली, “मधु, 2 ही दिनों के लिए जा रहे हैं.” और विनोद हंसते हुए बोला, “भई, माधुरी को मत रोको कोई, पूरे 10 वर्षों बाद कहीं जा रही हैं. कर लेने दो उसे अपने मन की.” तभी जयति और इंद्रवेश अंदर आए, दोनों गुस्से से लाल पीले हो रहे थे.

विनोद बोले, “क्या फिर से प्रिंसिपल से लड़ कर आ रहे हो?” जयति गुस्से में बोली, “वो क्या हमें अपना गुलाम समझते हैं, क्या छुट्टियों पर भी हमारा हक नही हैं?” कुमुद तभी दोनों को चाय के कप पकड़ाते हुए बोली, “अरे, विजय समझा देगा. अभी वह टैक्सी की बात करने गया है.”

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14. चरित्रहीन कौन: कामवाली के साथ क्या कर रहा था उमेश

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पति उमेश की गंदी हरकतों से आयुषी तंग आ चुकी थी. आखिर कितनी मेड बदलेगी वह. उमेश की गंदी हरकतों से परेशान हो कर कितनी मेड काम छोड़ गईं तो कितनी को आयुषी ने खुद निकाल दिया.

आयुषी बैंक में नौकरी करती है और उमेश एलआईसी कार्यालय में है. उमेश तो घर से 10-11 बजे निकलता है, पर आयुषी को घर से जल्दी निकलना पड़ता है. उन के 2 बच्चे हैं- बेटी पावनी 11 साल की और बेटा सनी 7 साल का.

आयुषी दोनों बच्चों को स्कूल भेज उमेश का लंच पैक कर बाकी का काम बाई पर छोड़ तैयार हो कर बैंक निकल जाती. उसे हमेशा यही डर सताता है कि पता नहीं उस के पीछे उमेश और बाई कहीं कुछ…

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15. शरणागत: डा. अमन की जिंदगी क्यों तबाह हो गई?

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आईसीयू में लेटे अमन को जब होश आया तो उसे तेज दर्द का एहसास हुआ. कमजोरी की वजह से कांपती आवाज में बोला, ‘‘मैं कहां हूं?’’

पास खड़ी नर्स ने कहा, ‘‘डा. अमन, आप अस्पताल में हैं. अब आप ठीक हैं. आप का ऐक्सिडैंट हो गया था,’’ कह कर नर्स तुरंत सीनियर डाक्टर को बुलाने चली गई.

खबर पाते ही सीनियर डाक्टर आए और डा. अमन की जांच करने लगे. जांच के बाद बोले, ‘‘डा. अमन गनीमत है जो इतने बड़े ऐक्सिडैंट के बाद भी ठीक हैं. हां, एक टांग में फ्रैक्चर हो गया है. कुछ जख्म हैं. आप जल्दी ठीक हो जाएंगे. घबराने की कोई बात नहीं.’’

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फ्लौपी : आखिर में क्या मां बच्चों की सच्चाई जान सकी?

कलकत्ता के लिए प्रस्थान करने में केवल 2 दिन शेष रह गए थे. जाती बार सुदर्शन हिदायत दे गए थे कि सांझ तक अपना पूरा काम निबटा लूं. सारे फर्नीचर को ठिकाने से व्यवस्थित कर दूं. बारबार के तबादलों ने दुखी कर रखा था. कितने परिश्रम और चाव से एक अरसे बाद घर बन कर पूरा हुआ था. अब सब छोड़छाड़ कर कलकत्ता चलो. अचानक घंटी ने ध्यान अपनी ओर खींच लिया. भाग कर किवाड़ खोला तो बबल को सामने खड़ा मुसकराता पाया. उस के हाथ में खूबसूरत सा काला और सफेद पिल्ला था.

‘‘कहां से लाए? बड़ा प्यारा है,’’ मैं ने उस के नन्हे मुख को हाथ में ले कर पुचकारा.

‘‘मां, यह बी ब्लाक वाली चाचीजी का है. पूरे साढ़े 700 रुपए का है,’’ उस ने उत्साह से भर कर उस के कीमती होने का  बखान किया.

‘‘हां, बहुत प्यारा है,’’ मैं ने पिल्ले को हाथ में ले कर कहा.

‘‘गोद में ले लो. देखो, कैसे रेशम जैसे बाल हैं इस के,’’ उस ने पिल्ले के चमकते हुए बालों को हाथ से सहलाया.

गोद में ले कर मैं ने उसे 3-4 बिस्कुट खिलाए तो वह गपागप चट कर गया और जब उस की आंखें डब्बे में बंद शेष बिस्कुटों की तरफ भी लोलुपता से निहारने लगीं तो मैं ने उसे डांट दिया, ‘‘बस, चलो भागो यहां से. बहुत हो गया लाड़प्यार.’’

फिर मैं ने बबल से कहा, ‘‘बबल, देखो अब ज्यादा समय नष्ट मत करो. इस पिल्ले को इस के घर छोड़ आओ और वापस आ कर अपना सामान बांधो. विकी से भी कहना कि जल्दी घर लौटे. अपने- अपने कमरों का जिम्मा तुम्हारा है, मैं कुछ नहीं करूंगी.’’

‘‘चलो भई, मां तुम्हारे साथ खेलने नहीं देंगी,’’ उस ने पिल्ले का मुख चूम लिया और बी ब्लाक की तरफ भाग गया.

आधे घंटे बाद जब वह पुन: लौटा तो विकी उस के साथ था. दोनों अपने- अपने कमरों में जा कर सामान समेटने लगे परंतु बीचबीच में कुछ खुसुरफुसुर की आवाजों से मैं शंकित हो उठी. मैं ने आवाज दे कर पूछा, ‘‘क्या बात है. आज तो दोनों भाइयों में बड़े प्रेम से बातचीत हो रही है.’’

जब भी मेरे दोनों बेटे आपस में घुलमिल कर एक हो जाते हैं तो मुझे भ्रम होता है कि जरूर मेरे खिलाफ कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है. जैसे वे घर में देवरानी और जेठानी हों और मैं उन की कठोर सास. एक बार हंस कर मेरे पति ने पूछा भी था, ‘‘तुम इन्हें देवरानीजेठानी क्यों कहती हो?’’

‘‘इसलिए कि वैसे तो दोनों में पटती नहीं, परंतु जब भी मेरे खिलाफ होते हैं तो आपस में मिल कर एक हो जाते हैं. आप ने देखा होगा, अकसर देवरानीजेठानी के रिश्तों में ऐसा ही होता है,’’ मेरी इस बात पर घर में सब बहुत हंसे थे.

‘‘मेरी प्यारीप्यारी मां,’’ पीठ के पीछे से आ कर बबल ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया.

‘‘जरूर कोई बात है, तभी मस्का लगा रहे हो?’’

‘‘फ्लौपी है न सुंदर.’’

‘‘कौन फ्लौपी?’’

‘‘वही पिल्ला, जिसे मैं घर लाया था.’’

‘‘उस का नाम फ्लौपी है, बड़ा अजीब सा नाम है,’’ मैं ने व्यंग्य से मुंह बिचकाया.

‘‘वह गिरता बहुत है न, इसलिए चाचीजी ने उस का नाम फ्लौपी रख दिया है.’’

‘‘हमारे पामेरियन माशा के साथ उस की कोई तुलना नहीं. जैसी शक्ल वैसी ही अक्ल पाई थी उस ने. कितनी मेहनत की थी मैं ने उस पर. हमारे दिल्ली आने से पहले ही बेचारा मर गया,’’ मैं ने एक ठंडी आह भरी, ‘‘कोई भी घर आता तो कैसे 2 पांवों पर खड़ा हो कर हाथ जोड़ कर नमस्ते करता. मैं उसे कभी भूल नहीं सकती.’’

‘‘वैसे तो मां अपना ब्ंिलकर भी किसी से कम न था, जिसे आप की एक सहेली ने भेंट किया था,’’ उस ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘पर उस के बाल बड़े लंबे थे. बेचारा ठीक से देख भी नहीं सकता था. हर समय अपनी आंखें ही झपकता रहता था. तभी तो पिताजी ने उस का नाम ब्ंिलकर रख छोड़ा था.’’

बबल की बातें सुन कर मैं कुछ देर के लिए खो सी गई और एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘1 साल बाद ब्ंिलकर चोरी हो गया और माशा को किसी ने मार डाला.’’

‘‘कई लोग बड़े निर्दयी होते हैं,’’ बबल ने मेरी दुखती रग पकड़ी.

‘‘तुम्हें याद है, जिस दिन मैं एक पत्रिका के लिए साक्षात्कार कर के लौटी तो कितनी देर तक मेरे हाथपांव चाटता रहा. जहां भी जा कर लेटती वहीं भाग आता. मैं सुबह से गायब रही, शायद इसलिए उदास हो गया था. उस रात हम किसी के घर आमंत्रित थे. चुपके से कमरे से बाहर निकल गया और लगा कार के पीछे भागने. मैं कार से उतर कर पुन: उसे घर छोड़ आई. पर वह था बड़ा बदमाश. हमारे जाते ही गेट से निकल कर फिर कहीं मटरगश्ती करने निकल पड़ा.’’

‘‘मां, उस रात आप ने बड़ी गलती की. वह आप के साथ कार में जाना चाहता था. आप उसे साथ ले जातीं तो वह बच जाता.’’

‘‘बच्चे, अगर उसे बचना होता तो उसे एक जगह टिक कर बंधे रहने की समझ अपनेआप आ जाती. उस का सब से बड़ा दोष था कि वह एक जगह बंध कर नहीं रहना चाहता था. जब भी बांधने का नाम लो, आगे से गुर्राना शुरू कर देता. उस रात भी तो उस ने ऐसा ही किया था.’’

‘‘मां, आप मेरी बात मानो, वह किसी की कार के नीचे आ कर नहीं मरा. उस के शरीर पर एक भी जख्म नहीं था. ऐसे लगता था जैसे सो रहा हो. जरूर उस निकम्मे नौकर ने ही उसे मार डाला था. माशा उसे पसंद नहीं करता था. नौकर ने ही तो आ कर खबर दी थी कि माशा मर गया है,’’ बबल ने क्रोध में अपने दांत पीसे.

‘‘हम कुत्ता पालते तो हैं लेकिन उस का सुख नहीं भोग सकते,’’ मैं ने उदास हो कर कहा.

‘‘मां, अगर आप को फ्लौपी जैसा पिल्ला मिल जाए तो आप ले लेंगी?’’ विनम्रता से चहक कर उस ने मतलब की बात कही.

‘‘मैं साढ़े 700 रुपए खर्च करने वाली नहीं. कोई मजाक है क्या? मुझे नहीं चाहिए फ्लौपी,’’ मैं ने गुस्से में अपने तेवर बदले.

‘‘कौन कहता है आप को रुपए खर्च करने को. चाचीजी तो उसे मुफ्त में दे रही हैं.’’

‘‘क्यों? तो फिर जरूर उस में कोई खोट होगी. वरना कौन अपना कुत्ता किसी को देता है?’’

‘‘खोटवोट कुछ नहीं. उन का बच्चा छोटा है, इसलिए उसे समय नहीं दे पातीं. आप तो बस हर बात पर शक करती हैं.’’

हम दोनों की बहस सुन कर मेरा बड़ा बेटा विकी भी उस की तरफदारी करने अपने कमरे से निकल आया, ‘‘मां, बबल बिलकुल ठीक कह रहा है. चाचीजी पिल्ले के लिए कोई अच्छा सा परिवार ढूंढ़ रही हैं. आप को शक हो तो स्वयं उन से मिल लो.’’

‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से. माशा के बाद अब मुझे कोई कुत्ता नहीं पालना. सुना तुम ने,’’ मैं पांव पटकती पुन: सामान समेटने लगी, ‘‘कलकत्ता के 8वें तल्ले पर है हमारा फ्लैट. उसे पालना कोई मजाक नहीं. तुम्हारे पिता भी नहीं मानेंगे,’’ मैं ने कड़ा विरोध किया. परंतु उन दोनों में से मेरी बात मानने वाला वहां था कौन?

‘‘हम तो फ्लौपी को जरूर पालेंगे,’’ दोनों भाई जोरदार शब्दों में घोषणा कर के अपनेअपने कमरों में चले गए.

जब दूसरे दिन इस विषय पर कोई चर्चा न हुई तो मैं ने चैन की सांस ली. परंतु तीसरे दिन सवेरा होते ही पुन: वही रट शुरू हो गई, ‘‘मां, कृपया फ्लौपी को ले लो न. हम वादा करते हैं, उस की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी. आप को कुछ भी नहीं करना होगा,’’ दोनों भाई एकसाथ बोल पड़े.

इस तरह मेरे कड़े विरोध के बावजूद उस रोज 1 घंटे के अंदर ही नन्हा फ्लौपी हमारे परिवार का सदस्य हो गया. शाम को जब यह दफ्तर से घर आए तो फ्लौपी को देख कर बोले, ‘‘तो इन दोनों ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया. बड़ा मुश्किल काम है इसे पालना.’’

इस बार मेरे साहित्यप्रेमी पति को पिल्ले का नाम सोचने के सुख से हमें वंचित ही रखा, क्योंकि गिरतालुढ़कता फ्लौपी अपना नामकरण तो पहले परिवार से ही करवा कर आया था. दूसरे दिन लाख कोशिशों के बावजूद राजधानी एक्सप्रेस से जब फ्लौपी की बुकिंग न हो सकी तो मैं ने पुन: खैर मनाई. सोचा, चलो सिर से बला टली. पर बबल की आंखों से बहती आंसुओं की अविरल धारा ने मेरे पति के कोमल हृदय को छू लिया और बाध्य हो कर उन्होंने वादा किया कि किसी भी हालत में वे फ्लौपी को कलकत्ता जरूर पहुंचा देंगे.

लगभग 20 रोज पश्चात जब यह दिल्ली दौरे पर गए तो फ्लौपी को लिवा लेने के लिए बच्चों ने फिर जिद की. फिर एक रात सचमुच मैं ने फ्लौपी को सुदर्शन के साथ मुख्यद्वार पर खड़ा पाया.

दोनों बच्चों के मुख पर खुशी का वेग उमड़ आया, ‘‘अरे, तू तो कितना मोटू हो गया है,’’ दोनों उसे बारीबारी सहलाने लगे और बदले में फ्लौपी उन का मुख चाटचाट कर दुम हिलाता रहा.

सवेरा होते ही सारे मिंटो पार्क में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई. बारीबारी सब बच्चे उसे देखने आए, मानो घर में कोई नववधू विराजी हो. पड़ोस की लाहसा ऐप्सो टापिसी तो अपनी मालकिन को हमारे घर ऐसे खींच ले आई मानो फ्लौपी उस का भावी दूल्हा हो और सब बच्चों में धाक अलग से जमी कि बबल का कुत्ता हवाई जहाज से आया है.

कलकत्ता में मिंटो पार्क के मैदान और बगीचे की कोई सानी नहीं. हरी मखमली घास पर जब हमारा फ्लौपी चिडि़यों के पीछे भागता तो बच्चे भी उस के साथ भागते. अच्छाखासा बच्चों का जमघट कहकहों और किलकारियों से गूंजता रहता.

एक रोज हमें कहीं बाहर जाना पड़ा तो हम फ्लौपी को एक कमरे में बंद कर के खुला छोड़ गए. सोचा, आखिर कुत्ते को घर में रह कर मकान की रखवाली करनी चाहिए. लौट कर आसपड़ोस से पता चला कि पीछे से भौंकभौंक कर उस ने सारा मिंटो पार्क सिर पर उठा लिया था. अपने प्रति अन्याय का ढोल पीटपीट कर सब को खूब परेशान किया. अब एक ही चारा था कि या तो कोई घर में सदा उस के पास रहे या फिर वह कार में हमारे साथ चले.

बहुत सोचविचार करने पर दूसरा उपाय ही सब को ठीक लगा. एक रविवार हम टालीगंज क्लब गए तो उसे भी अपने साथ ले गए. मैं ने तरणताल के साथ रखी एक बेंच से उसे बांध दिया और स्वयं तैरने चली गई. तैरते हुए हंसतेखेलते बच्चों व अन्य लोगों को देख कर फ्लौपी ऐसा अभिभूत हुआ कि वहां पर आतीजाती सभी सुंदरियां उसी की हो गईं. जो भी लड़की वहां से गुजरती हम से हैलो पीछे करती, पहले फ्लौपी का मुख चूमती. क्लब का बैरा उस के लिए मीट की हड्डी ले आया. अब हम जहां भी जाते, उसे साथ ले जाते.

फिर बारी आई डाक्टर और दवाइयों के खर्चों की. परंतु जब विटामिन की ताकत उच्छृंखलता में परिवर्तित होने लगी तो मैं सकते में आ गई. अब उसे बांधा जाने लगा. परंतु जैसे ही उस नटखट पिल्ले को मौका मिलता, वह चीजों को मटियामेट करने से न चूकता. कभी जुराब तो कभी बनियान तो कभी परदा यानी जो भी उस के हाथ लगता, हम से नजर चुरा कर उस का कचूमर निकाल डालता.

एक रोज एक कीमती ब्लाउज इस्तरी करने लगी. उसे खोल कर मेज पर बिछाया तो उस की हालत देख कर दंग रह गई, ‘‘ओ मंगला, यह देख इस की हालत, क्या इसे किसी काकरोच ने काट डाला?’’ मैं ने हैरानगी जाहिर की.

मंगला बेचारी सारा काम छोड़ कर भागी आई, ‘‘मेमसाहब, इसे तो फ्लौपी ने काटा है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? देखो, गले के पीछे से और बाजुओं पर से ही तो काटा गया है.’’

‘‘हां, जहांजहां पसीने के दाग थे, वह हिस्सा चबा गया.’’

‘‘इस मुसीबत ने तो जीना मुश्किल कर दिया है,’’ मैं ने फ्लौपी को जंजीर समेत घसीट कर अपना ब्लाउज दिखाया.

मेरी कठोर आवाज सुन कर वह सहम गया और उस ने अपना मुख दूसरी तरफ फेर लिया. मेरी गुस्से भरी आवाज सुन कर बबल भी अपने कमरे से भाग आया और गुस्से से बोला, ‘‘हमें जीने नहीं देगा. अब तू क्या चाहता है?’’ उस ने उस रात उसे पलंग के पाए से कस कर बांध दिया, ‘‘बच्चू, तेरी यही सजा है. अपनी हरकतों से बाज आ जा वरना मार डालूंगा,’’ बबल ने उंगली दिखा कर उसे कड़ा आदेश दिया.

फ्लौपी दुम दबा कर पलंग के नीचे दुबक गया.

‘‘मां, आप मेरी बात मानो. इस बेवकूफ को मीट की हड्डी ला दो, सारा दिन बैठा चबाता रहेगा. याद है, माशा हड्डी से कितना खुश रहता था,’’ रात को मेरे बड़े बेटे ने खाने की मेज पर हिदायत दी.

‘‘पर माशा ने हमारी एक भी चीज खराब नहीं की थी. बड़ा ही समझदार कुत्ता था.’’

‘‘हां मां, पर वह बंगले के बाहर के बरामदे में बंधा रहता था और रात को अपना चौकीदार उस की देखभाल करता था. आप उस को घर के अंदर कहां आने देती थीं.’’

‘‘बेटे, यही तरीका है कुत्ता पालने का और यहां इस 8वें तल्ले पर हम इस बेजबान के साथ सरासर अन्याय कर रहे हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘मेमसाहब. कितनी बार हम इस के साथ नीचे जाएंगे,’’ मंगला ने गुस्से में मेरी बात का समर्थन किया.

अगले दिन खरीदारी करने जब मैं बाजार गई तो 4-5 मोटीमोटी मीट की हड्डियां खरीद लाई. रोज उसे एक पकड़ा देती. हड्डी देख कर वह नाच उठता. दिन के समय वह कुरसी के पाए से बंधा रहता और रात को पलंग के पाए से. हड्डी उस के पास धरी रहती. जब उस का जी करता, चबा लेता. 5-6 रोज तक फिर उस ने कोई चीज न फाड़ी. एक सुबह सो कर उठी तो यह सोच कर बहुत प्रसन्न थी कि फ्लौपी की आदतों में सुधार हो रहा है. मैं ने उसे प्यार से सहलाया और फिर रसोई में नाश्ता बनाने चली गई.

इस बीच बच्चे अपना कमरा बंद कर के पढ़ने का नाटक रचते रहे और फ्लौपी को बड़ी मेज की कुरसी के पाए से बांध गए. जब खापी कर नाश्ता खत्म हो गया तो मैं ने आमलेट का एक टुकड़ा दे कर फ्लौपी को पुचकारा, ‘‘अब तो मेरा फ्लौपी बहुत सयाना हो गया है.’’

मेरी बात सुन कर बबल सहम गया. पर उस के सहज होने के नाटक से मैं ताड़ गई कि कोई न कोई बात जरूर है जो मुझ से छिपाई जा रही है. चुपके से जा कर मैं ने विकी के कमरे का दरवाजा सरकाया तो दंग रह गई. हाल ही में खरीदे गए गद्दे पर विकी सफाई से पैबंद लगा रहा था.

‘‘तो यह बात है. 400 रुपए का नया गद्दा है मेरा. इस मुसीबत के कारण तो सारे घर की शांति भंग हो गई है,’’ मैं ने दोचार करारे थप्पड़ उस बेजबान के मुख पर जड़ दिए, ‘‘तू है ही नालायक.’’

रोजरोज घर की शांति भंग होने लगी. शेष बची चीजों को मैं संभालती ताकि कंबल, साडि़यां आदि पर वह अपने दांत न आजमाए. अब उस ने हमारे एक कीमती गलीचे को अपना शिकार बनाया और हमारे बारबार मना करने पर भी वह नजर चुरा कर उसे पेशाब और मल से गंदा कर देता. दिल चाहा कि फ्लौपी के टुकड़े कर दिए जाएं और बच्चों की भी जम कर पिटाई की जाए, जो उसे घर में लाने के जिम्मेदार थे.

एक रात को तो हद हो गई. रात के 3 बजे थे. यह दौरे पर थे. मेरी तबीयत खराब थी. फ्लौपी ने मुझे पांव मार कर जगाया कि उसे नीचे जाना है. मैं ने बबल को आवाज दी, ‘‘रात का समय है, मेरे साथ नीचे चलो.’’

बेचारा झट उठ खड़ा हुआ. बाहर बरामदे में जा कर देखा तो लिफ्ट काम नहीं कर रही थी. अब एक ही चारा था कि सीढि़यों से नीचे उतरा जाए. बेचारा जानवर अपनेआप को कब तक रोकता. उस ने सीढि़यों में ही ‘गंदा’ कर दिया.

मिंटो पार्क कलकत्ता की एक बेहद आधुनिक जगह है. कागज का एक टुकड़ा भी सारे अहाते में दिखाई दे जाए तो बहुत बड़ी बात है.

सवेरा होते मैं डर ही रही थी कि यहां के प्रभारी आ धमके, ‘‘सुनिए, या तो आप अपने कुत्ते को पैंट पहनाइए या फिर किसी नीचे रहने वाले निवासी को सौंप दीजिए. यही मेरी राय है.’’

उस दिन से हम एक ऐसे अदद परिवार की तलाश करने लगे जो फ्लौपी को उस की शैतानियों के साथ स्वीकार कर सके.

हमारे घर विधान नामक एक युवक दूध देने आता था. वह फ्लौपी को बहुत प्यार करता था. हमारी समस्या से वह कुछकुछ वाकिफ हो गया. एक रोज साहस कर के बोला, ‘‘मेमसाहब, नीचे वाला दरबान बोल रहा है कि आप फ्लौपी किसी को दे रहे हैं.’’

‘‘हां, हमारा ऊपर का फ्लैट है न, इसलिए कुछ मुश्किल हो रही है.’’

‘‘मेमसाहब, हमारा घर तो नीचे का है. हमें दे दीजिए न फ्लौपी को.’’

‘‘पूरे 800 रुपए का कुत्ता है, भैया,’’ पास खड़ी मंगला ने रोबदार आवाज में कहा.

‘‘नहींनहीं, हमें इसे बेचना नहीं है. देंगे तो वैसे ही. जो भी इसे प्यार से, ठीक से रख सके.’’

‘‘हम तो इसे बहुत प्यार से रखेंगे,’’ विधान बोला.

‘‘पर तुम तो काम करते हो. घर पर इस की देखभाल कौन करेगा,’’ मैं ने पूछा.

‘‘घर में मां, बहन और एक छोटा भाई है.’’

‘‘इस का खर्चा बहुत है, कर सकोगे?’’

‘‘दूध तो अपने पास बहुत है और मीट भी हम खाते ही हैं.’’

‘‘इस की दवाइयों और डाक्टर का खर्चा?’’

‘‘आप चिंता न करें,’’ विधान ने मुसकराते हुए कहा.

हम दोनों की बातें सुन कर विकी अपने कमरे से भागा आया, ‘‘मां, वह प्यार से फ्लौपी को मांग रहा है. मेरी बात मानो, दे दो इसे. मुझे घर की शांति ज्यादा प्यारी है.’’

सचमुच उस ने फ्लौपी को दोनों हाथों से उठा कर विधान के हाथों में दे दिया.

मैं हतप्रभ सी खड़ी बबल के चेहरे पर उतरतेचढ़ते भावों को पढ़ कर बोली, ‘‘विधान, तुम इसे कुछ रोज अपने पास रखो, फिर मैं सोचूंगी.’’

फ्लौपी चला गया तो ऐसा लगा कि घर में कुछ विशेष काम ही नहीं. ‘चलो मुसीबत टली,’ मैं ने सोचा. पर 2 दिन पश्चात ही महसूस होने लगा कि घर का सारा माहौल ही कसैला हो गया है. बच्चे स्कूल से लौटते तो चुपचाप अपनेअपने कमरों में दुबक जाते. न कोई हंसी न खेल. 2 रोज पहले तो फ्लौपी था. बच्चों की आहट पाते ही भौंभौं कर के झूमझूम जाता था और बदले में विकी और बबल के प्रेमरस से सराबोर फिकरे सुनने को मिलते.

उल्लासरहित वातावरण मन को अखरने लगा. जब खाने की मेज पर बच्चे बैठते तो बारबार उस कोने को देख कर ठंडी आहें भरते जहां वह बंधा रहता था. मन एक तीव्र उदासी से लबालब हो उठा. अगली सुबह जब विधान दूध देने आया तो मैं ने फ्लौपी के बारे में पूछताछ की.

‘‘बहुत खुश है, मेमसाहब. मेरी बहन उसे बहुत प्यार करती है,’’ विधान ने बताया.

‘‘कल शाम को उसे मिलाने के लिए जरूर लाना. बच्चे उसे बहुत याद करते हैं.’’

‘‘अच्छा मेमसाहब, कल शाम 4 बजे उसे जरूर लाऊंगा,’’ वह कुछ सोच कर बोला.

दूसरे दिन 3 बजते ही बच्चे फ्लौपी का बेसब्री से इंतजार करने लगे थे. इतने उत्साहित थे कि अपने मित्रों के साथ नीचे खेलने भी न गए. जरा सी आहट पाते ही मंगला बारबार दरवाजा खोल कर देखती. पहले 4 बजे, फिर 5 बज गए, पर फ्लौपी न आया और न विधान ही दिखाई दिया. हम सब का धैर्य जवाब देने लगा. बबल उदास स्वर में बोला, ‘‘अब वह लड़का फ्लौपी को कभी नहीं लाएगा.’’

‘‘क्यों?’’ मैं हैरान हो कर बोली.

‘‘उस ने उस पर अपना हक जमा लिया है.’’

‘‘तो क्या, 2 रोज में ही फ्लौपी विधान का हो गया. मैं कल ही उस से बात करूंगा,’’ विकी क्रोध में बोला.

‘‘कितना महंगा कुत्ता है. कहीं उस ने बेच न दिया हो, मेमसाहब,’’ मंगला ने अपनी शंका व्यक्त की.

‘‘बेच कर तो देखे. हम उस की पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे,’’ विकी ने ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘ऐसा करो बबल, जा कर देख आओ कि सब ठीक है न,’’ इन्हीं बातों में शाम बीत गई पर विधान न आया.

‘‘मां, एक बात कहूं पर डर लगता है,’’ विकी बोला.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं फ्लौपी का एक्सीडेंट तो नहीं हो गया,’’ उस की बात सुन कर मेरा कलेजा धक से रह गया कि कहीं माशा वाले अंत की पुनरावृत्ति न हो जाए. मुझे तो विधान से यह भी पूछना याद नहीं रहा कि कहीं उस का घर सड़क के किनारे तो नहीं.

अज्ञात आशंका के कारण सारा उत्साह भय में तबदील हो गया. मन एक तीव्र अपराधबोध से भर उठा. एक घुटन सी मेरे भीतर गूंजने लगी. सोचा, जल्दबाजी में सब गड़बड़ हो गया. कुछ दिनों में फ्लौपी अपनेआप ठीक हो जाता.

सवेरा होते ही मैं दरवाजे पर टकटकी लगाए विधान की राह देखने लगी. जैसे ही लिफ्ट की आहट हुई, मैं ने झट से किवाड़ खोला, उसे अकेला आया देख कर एक बार तो संशय तनमन को झकझोरने लगा.

‘‘फ्लौपी को क्यों नहीं लाए? सब ठीक तो है न?’’ मैं एकसाथ कई प्रश्न कर उठी.

‘‘कल कुछ मेहमान आ गए थे, मेमसाहब. इसलिए नहीं आ सका. वैसे वह ठीक है.’’

विधान की बात सुन कर मैं एक सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो कर बोली, ‘‘देखो, आज शाम को फ्लौपी को जरूर लाना वरना बच्चे बहुत नाराज होंगे.’’

शाम को 3 बजे जैसे ही बाहर की घंटी बजी, बच्चों ने लपक कर दरवाजा खोला. फ्लौपी हम सब को देखते ही विधान की बांहों से छूट कर मेरी गोद में आ गया.

मुख चाटचाट कर, दुम हिलाहिला कर और झूमझूम कर वह अपनी खुशी प्रकट करने लगा. बच्चों का उत्साह से नाचना और खिलखिलाना मुझे बड़ा भला लगा. एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि दीर्घकाल से बिछुड़ा मेरा तीसरा बच्चा मिल गया हो और हमारी ममता भरी छाया में पहुंच गया हो. आधे घंटे बाद जब विधान पुन: फ्लौपी को लेने के लिए आया तो मेरे मुख से बस इतना ही निकला, ‘‘विधान, अब फ्लौपी को यहीं रहने दो, हमारा मन नहीं मानता.’’

नींव के पत्थर : भाग 1

कई सालों के बाद मैं अपने जन्मस्थान कलानौर आया हूं. कलानौर गुरदासपुर जिले में एक छोटा सा कसबा है, जिस का ऐतिहासिक महत्व है. मुगल बादशाह अकबर को राजा यहीं घोषित किया गया था, जिस के अवशेष अभी भी यहां सुरक्षित हैं.

बस से उतरा तो सामने चिरपरिचित मंदिर दिखाई दिया. कलानौर का सारा बसअड्डा सिमट आया था. 12वीं के बाद जब मैं ने इस कसबे को छोड़ा था, तब बसअड्डा यहां बनाने की योजना चल रही थी. पुराना बसअड्डा थाने के पास था.

मैं ने एक रिकशे वाले से किसी होटल में ले चलने को कहा. मैं अपनी पहचान करवाए बिना उन सब को समीप से देखना चाहता था, जिन के संग मेरी बचपन की यादें जुड़ी हुई थीं. मैं वे स्थान चुपचाप देखना चाहता था, जिन को मैं जीवन से कभी भुला न पाया. मैं नहीं चाहता था कि लोग मुझे पुलिस के एक बड़े अधिकारी के रूप में पहचानें. इसीलिए मैं ने अपनी दाढ़ी खोल रखी थी. पगड़ी के स्थान पर सिर पर पटका बांध रखा था. कधे पर छोटा सा बैग था और कपड़े ऐसे थे, जैसे कोई लंबा सफर कर के आया हो. थाने के पास कमरा इसलिए लेना चाहता था कि थाने वाले भी अपने अधिकारी को पहचान पाते हैं अथवा नहीं? मन के भीतर यह देखने का मोह था.

‘‘लो बादशाहो तुहाडा होटल आ गया,’’ रिकशे वाले ने पंजाबी में कहा. उस के स्वर से मेरी तंद्रा टूटी. थाने केे बिलकुल सामने वाली जो सड़क बटाला को जाती है, उस पर यह होटल बना है… होटल कारवां.

रिकशे वाले को पैसे दे कर मैं होटल के स्वागत कक्ष की ओर बढ़ गया.

‘‘आओजी, जी आयां नू,’’ कह कर एक अधेड़ उम्र केे सरदारजी ने मेरा स्वागत किया.

‘‘एक कमरा मिलेगा…?’’ मैं ने हिंदी में अपनी बातचीत को आगे बढ़ाया, परंतु सरदारजी ने मुझे पंजाबी में उत्तर दिया, ‘‘जी मालको, एसी वाला चाईदा, ऐ जां नौन एसी.’’

‘‘एसी वाला.’’

‘‘ऐदे ते सारी डिटेल भर देओ,’’ कहते हुए एक रजिस्टर मेरी ओर बढ़ाया. मैं ने रजिस्टर में असली नाम तो लिखा, परंतु पता अमृतसर का दिया. मुझे इस बात की हैरानी हुई कि बिना पहचान पूछे उन्होंने मुझे कमरे की चाबी दे दी. मैं चाबी ले कर अपने कमरे में आया. कमरा सुंदर और सभी आधुनिक सुविधाओं वाला था. मुझे प्रसन्नता थी कि मेरा जन्मस्थान उन्नति कर रहा है. मैं ने बैग एक ओर रखा और फ्रेश होने के लिए वाशरूम में जा घुसा. थोड़ी देर बाद जब बाहर निकला तो बिलकुल तरोताजा था.

मैं ने नाश्ते के लिए कह दिया. जब नाश्ता आया तो मैं बिलकुल तैयार था. खुली हुई दाढ़ी, बड़ी मेहनत से बांधी गई सफेद पगड़ी, सफेद कुरतापजामा, चेहरे पर काला चश्मा लगा कर जब मैं ने स्वयं को आईने में देखा तो एकबारगी तो मैं खुद को ही पहचान न पाया कि मैं वही हूं, जिस के अधिकार क्षेत्र में पूरे जिले की पुलिस है. मैं किसी संभ्रांत नेता से कम नहीं लग रहा था. नेता होने के आभास से मैं स्वयं ही मुसकराया.

नाश्ता कर के मैं होटल से निकला तो पांव स्वतः ही कभी अपने रहे खेतों की ओर निकल पड़े. थाने के समक्ष हमारा खेत हुआ करता था, जिसे ‘थाने वाला खत्ता’ कहते थे, केवल बीच की सड़क दोनों को अलग किए थी. वहां हमेशा दादू मौसमी सब्जियां लगाया करते थे. मैं ने देखा, वहां अब कोई खेत नहीं है. किसी की कोठी बनी हुई है. मन के कोने में तीखी अनुभूति हुई, कैसे कोई खेत उजाड़ कर घर बना लेता है? मैं घर बनाने वालों से प्रश्न करना चाहता था, परंतु मैं ऐसा कर नहीं पाया. यदि करता तो हिमाकत होती. खेत थाने से आधा किलोमीटर बाद शुरू होते थे.

धीरेधीरे मैं आगे बढ़ने लगा. दूर से मुझे वह बड़ का पेड़ दिखाई देने लगा, जिस के नीचे से गुजरते हुए बचपन में मैं हमेशा डरा करता था. उस के बारे में कहा जाता था कि उस पर चुड़ैल रहती है. दोपहर खेतों में दादू के लिए रोटी ले जाते समय मैं इस पेड़ को हमेशा दौड़ कर पार करता और पीछे मुड़ कर देखने की हिम्मत नहीं करता था. यह भय काफी बड़ा होने तक बना रहा. इसी पेड़ को पार करने पर हमारे खेत शुरू हो जाते हैं. दूरदूर तक गेहूं के खेत फैले पड़े हैं. अभी फसल पकने में समय है. चारों ओर हरियाली है. ताजी हवा और मिट्टी की भीनीभीनी खुशबू मन को मोह रही थी. दादू को यह खुशबू बड़ी प्रिय थी. वह हमेशा जब तक जिए, इस खुशबू में रचेबसे रहे और इसी मिट्टी में समा गए.

मैं थोड़ा और आगे बढ़ा तो किरण, (वहां की जीवनरेखा, एक नहर) के किनारे, जहां चलार (रैहट) हुआ करती थी, वहीं से कोई ‘हीर’ बड़े मीठे स्वर में गा रहा था. थोड़ा और समीप गया, तो… ‘यह तो गिरधारी है, हमारा नौकर…’ संभवतः आज किसी और का नौकर है… उस की दिनचर्या में कोई अंतर नहीं पड़ा था. वह आज भी चलार की गद्दी पर बैठा उसी तल्लीनता से मीठे स्वर में ‘हीर’ गा रहा है. दादू को गिरधारी का ‘हीर’ गाना बहुत प्रिय था. वह प्रायः रोज सोने से पूर्व उस से ‘हीर’ सुना करते थे. उस की मीठी स्वरलहरी हम बच्चों को भी मीठी नींद सुला दिया करती थी. हम उस स्वर के इतने अभ्यस्त हो गए थे कि इस के बिना नींद ही नहीं आती थी. इतने सालों के बाद मैं पुनः उस मीठी स्वरलहरी को सुन कर रोमांचित हो उठा. मन के भीतर यह बात हिलोरे मारने लगी कि अब गिरधारी दिखने में कैसा है? चाहे, उस के स्वर की मिठास में अल्प सा भी अंतर नहीं आया है. सालों तक वह हमारे परिवार के उत्थान और अवसान का साक्षी रहा है. मन के भीतर यह मोह भी था कि समय के अंतराल के बाद और इस वेष में वह मुझे पहचान भी पाता है अथवा नहीं? पांव स्वतः ही उस स्वर की ओर तेजी से बढ़ने लगे. वहां पहुंचा तो चलार चल रही थी. बैल भी अपनेआप चक्कर काट रहे थे, परंतु गिरधारी अपनी ही मस्ती में, आंखें बंद किए, चलार की गद्दी पर बैठा ‘हीर’ गा रहा था.

मैं ने उसे गौर से देखा. आंखों पर लगे चश्मे और कुरतेपजामे पर लगे पैबंद से  मैं ने अनुमान लगा लिया कि उस की नजरें कमजोर हो गई हैं और आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं है. वह शरीर से कमजोर हो गया है. दादू उसे अपने सा रखते थे. कुछ देर बाद जब उसे मेरे आने का आभास हुआ, तो उस ने एकदम गाना बंद कर दिया और चलार की गद्दी पर से उठ खड़ा हुआ. कुछ देर तक वह मुझे देखता रहा, फिर कहा, ‘‘तुस्सी कौन…?’’

मैं आश्वस्त हुए बिना नहीं रह पाया कि वह मुझे पहचान पाने असमर्थ रहा है. मैं समझता हूं, मैं आऊंगा, उसे इस बात की उम्मीद भी नहीं थी. वह तो कब का परिवार की स्मृतियों को दफन कर चुका था.

‘‘इस जमीन के मालिक कहां हैं?’’

‘‘दूसरे खेत में काम कर रहे हैं… बुलाऊं…?’’

‘‘जी.’’

‘‘क्या कहूं कि तुस्सी कौन हो…?’’ गिरधारी बिहार से था, जो पंजाब की इस मिट्टी का हो कर रह गया. वह पंजाबी तो बोलता, परंतु उस में बिहारी पुट हमेशा रहता.

‘‘कहना, अमृतसर से एक सरदारजी मिलने आए हैं.’’

“जी,” कह कर वह चला गया.

तुनिषा की मौत से बदल गई थी sheezan khan की जिंदगी, एक्टर ने बयां किया दर्द

Sheezan khan : टीवी सीरियल ‘अली बाबा: दास्तान-ए-काबुल’ फेम एक्टर शीजान खान लंबे समय से सुर्खियों में बने हुए हैं. दरअसल टीवी एक्ट्रेस तुनिषा शर्मा की मौत में उनका नाम जोड़ा जा रहा है, जिसके चलते वह 70 दिनों तक जेल में भी रहे थे. हालांकि अभी वह शो ‘खतरों के खिलाड़ी’ के 13वें सीजन में नजर आ रहे हैं. लेकिन आए दिन वह तुनिषा (tunisha Sharma death case) की हुई मौत पर अपनी बात रखते रहते हैं. वहीं अब एक बार फिर एक्टर ने तुनिषा शर्मा केस में जेल से रिहा होने के बाद के दिनों को याद किया है.

शीजान- परिवार को विवाद में गलत तरीके से घसीटा गया

आपको बता दें कि मीडिया से बात करते हुए ‘शीजान खान’ ने कहा कि जेल (tunisha Sharma death case) में जाने के बाद उनके कई अच्चे दोस्तों ने उनसे मुंह तक मोड़ लिया था. साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि, ‘जहां कई लोगों ने सच्चाई जाने बगैर मेरे बारे में गलत धारणा बना ली थी, तो वहीं इस मुश्किल समय में कई लोगों ने मेरे परिवार के सदस्यों को इस विवाद में गलत तरीके से भी घसीटा था’.

70 दिनों तक सो नहीं पाए थे शीजान

एक्टर (sheezan khan) ने कहा कि, ‘बिना किसी गलती के मेरे परिवार वालों को लोगों की नफरत मिली. यह मेरे लिए बहुत ज्यादा डार्क मोमेंट था.’ इसके अलावा उन्होंने ये भी बताया कि, उन्हें अपने परिवार, वकील और ज्यूडिशियरी पर पूरा भरोसा था और है. लेकिन इस घटना ने उनकी पूरी जिंदगी को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया है. जेल से बाहर आने के बाद करीब 70 दिनों तक उन्हें अपने ही घर में बिल्कुल अजनबी जैसा महसूस होता था. वो सो नहीं पाते थे और फिर बाद में उन्हें पता चला कि उन्हें पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) हो गया था.

इसी के साथ ‘शीजान खान’ ने भी कहा कि, तुनिषा उनके लिए उनकी दुनिया थी. अचानक से हुई तुनिषा की मौत से उनकी लाइफ में एक खालीपन सा आ गया है, जिसे कभी भी भरा नहीं जा सकता. लेकिन अगर वो आज यहां होती, तो वो मेरी अटूट ढाल होती. वो हमेशा मेरी टुन्नी ही रहेगी, जिसकी मैं बहुत परवाह करता हूं. लेकिन अब उनका एक हिस्सा उसके साथ चला गया है.’

सेट पर मृत पाई गई थी एक्ट्रेस

आपको बताते चलें कि टीवी एक्ट्रेस तुनिषा, बीते साल 24 दिसंबर को पालघर जिले के वसई में एक सीरियल के सेट पर मृत पाई गई थी. बेटी (tunisha Sharma death case) की मौत के बाद एक्ट्रेस की मां ने पुलिस थाने में शीजान के खिलाफ केस दर्ज करवाया था, जिसके बाद एक्टर (sheezan khan) को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था. उन पर तुनिषा को आत्महत्या करने  के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया था.

Elvish Yadav ने फैंस को कराया अपने 8 करोड़ वाले घर का टूर, देखें वीडियो

Elvish Yadav New House : सोशल मीडिया सेंसेशन और बिग बॉस ओटीटी 2 के विनर ”एल्विश यादव” लंबे समय से सुर्खियों में बने हुए हैं. बिग बॉस ओटीटी 2 जीतने के बाद तो उनकी फैन फॉलोइंग और ज्यादा बढ़ गई है. वो आए दिन अपने फैंस के साथ अपनी जिंदगी से जुड़ी छोटी-बड़ी अपडेट शेयर करते है. हाल ही में उन्होंने अपने फैंस को बताया था कि उन्होंने एक नया घर खरीदा है, जिसकी फोटो और वीडियो भी उन्होंने अपने फैंस के साथ साझा की थी.

वहीं अब आज यूट्यूबर एल्विश (Elvish Yadav Birthday) अपना 26वां बर्थडे सेलिब्रेट कर रहे हैं, जिसकी तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. यह बर्थडे एल्विश के लिए बेहद खास है, क्योंकि अपने जन्मदिन के खास मौके पर उन्होंने फैंस के साथ दुबई स्थित अपने नए घर की खूबसूरत झलकियां साझा की है. एल्विश के इस नए घर की कीमत लगभग 8 करोड़ रुपए है.

जानें क्या-क्या खास है एल्विश के नए ड्यूप्लेक्स में ?

आपको बता दें कि एल्विश (Elvish Yadav New House) ने अपने यूट्यूब अकाउंट पर व्लॉग शेयर कर इस बात की जानकारी दी है. व्लॉग में उन्होंने दुबई में खरीदे अपने नए घर का कोना-कोना दिखाया है. एल्विश ने बताया कि उनके इस घर में अनलिमिटेड बेडरूम से लेकर शानदार वॉशरूम, डाइनिंग एरिया, स्विमिंग पूल, लिविंग एरिया सबकुछ है. इसके अलावा उनकी छत से दुबई का खूबसूरत नजारा भी दिखाई देता है.

उर्वशी के साथ रोमांस करते दिखाई देंगे एल्विश

आपको बताते चलें कि आज यानी 14 सितम्बर को एल्विश (Elvish Yadav New Song) के 26वें बर्थडे पर उनका नया गाना ‘हम तो दीवाना’ भी रिलीज हो रहा है. इस गाने में वह बॉलीवुड एक्ट्रेस उर्वशी रौतेला के साथ रोमांस करते दिखाई देंगे.

जो बोएंगे वही काटेंगे : क्रिकेट की रोशनी में ओलिंपिक की आंखें क्यों चुंधिया रही हैं?

कुछ समय पहले की ही तो बात है जब हमारा देश रियो ओलिंपिक से मात्र 2 पदक ले कर आया तब हमारे देश तथा देश के लोग प्रसन्न हो गए. आकाश में कालेकाले मेघ छाने लगे, कुछ देर के बाद चमचमा कर बिजली भी कौंधने लगी. भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बादल गरजने लगे और बिन मौसम बरसात भी होने लगी. इसी को कहते हैं बिन बादल बरसात होना.

बरसात साधारण नहीं थी. यह तो अलौकिक थी. ऊपर से आशीर्वाद बरस रहा था. वह भी रुपयों के रूप में. आशीर्वाद कुछ इस कदर था कि अथाह धन के मालिक, धन्नासेठ तथा बड़ेबड़े धनकुबेर भी उस के आगे नतमस्तक हो गए. यह खेल, कोई खेल नहीं था.

कहीं से रुपए बरस रहे थे तो कहीं से ईनाम, कहीं पुरस्कारों की गड़गड़ाहटी घोषणा हो रही थी और कहीं से सम्मान. रुपए ये नरम फुहारें (हजारों) नहीं थे, ये तो मूसलाधार (लाखों) भी नहीं थे, ये तो भयंकर (करोड़ों) थे. कहीं से तो बीएमडब्लू कार भी बरसी थी जैसे रूसी खिलाडि़यों पर बरसी थी.

जरा सोचिए कि अगर चांदी (सिल्वर मैडल) और तांबा (ब्रौंज मैडल) पर यह हाल है (यानी देश इतना प्रसन्न हो रहा है) तो सोने (गोल्ड मैडल) पर क्या होता, इस का अनुमान खेल टिप्पणीकार के भी बस में न होगा.

हमारे देश की जनता को सोना चाहिए, वह भी पहनने के लिए, क्योंकि सोने की चिडि़या वाले देश में सोना पहनने की आदत अति प्राचीन है. इस से कुछ फर्क नहीं पड़ता कि सोना जीता हुआ हो या खरीदा हुआ, उसे तो आम खाने से मतलब है, पेड़ थोड़े ही गिनने हैं.

पर क्या किया जाए, गरीबी से तंग आ कर प्रेमी अपनी प्रेमिका को रि?ाने के लिए किसी फिल्म की कुछ लाइनें गाता है, ‘मेरा तोहफा तू कर ले कुबूल माफ करना हुई मु?ा से भूल, क्योंकि सोने में छाई महंगाई, मैं चांदी ले आया…’ सोने के हजारोंहजार सपने देखने वाली प्रेमिका का मुंह एकदम से लाल है चांदी देख कर, क्योंकि उस के तो अभी खेलने के दिन हैं.

हर 4 साल बाद लीप ईयर आता है और फरवरी का महीना 29 दिन का हो जाता है यानी 4 वर्ष में एक दिन और बढ़ जाता है. उसी तरह 4 वर्ष बाद ओलिंपिक भी आता है. यह निश्चित तो नहीं, पर भरपूर संभावना रहती है कि एक मैडल जरूर बढ़ जाएगा.

4 वर्ष तक क्रिकेटक्रिकेट करने वाली जनता अब सोनासोना करने लगती है. आप ने अकसर देखा होगा कि बरसात आने पर पीलेपीले मेंढक धरती फाड़ कर बाहर निकल आते हैं और बरसात खत्म होते ही फिर वे शीतनिंद्रा में चले जाते हैं. अब टी-ट्वैंटी करने वाले लोग मैडलमैडल खेलने लगते हैं और भारत के प्रति उम्मीद कुछ ज्यादा होने लगती है और खेल को खेल सम?ाते हैं.

4 वर्ष तक शायद ही किसी को पता होता हो कि भारत जैसे देश में क्रिकेट के अलावा दूसरा खेल भी खेला जाता है. भारत और पाकिस्तान का जब क्रिकेट मैच हो तब आप देख लीजिए पूरे देश का उफान, इस खेल भावना (देशभावना) में ओलिंपिक का तो काफी दूरदूर तक नामोनिशान नहीं होगा.

हमारा राष्ट्रीय खेल हौकी है पर देश में क्रिकेट के प्रति इस कदर दीवानगी है कि आप भ्रमित हो जाएंगे, कहीं आप यह न सोच लें कि भारत का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट है. मेरे अनुसार क्रिकेट को ओलिंपिक में शामिल कर देना चाहिए और भारत का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट घोषित कर देना चाहिए अगर आप के मन में थोड़ा भी देशप्रेम हो तो.

यहां जब बच्चा पैदा होता है तो क्रिकेट का बल्ला ले कर ही पैदा होता है और जिंदगीभर चौकेछक्के लगाता रहता है. अगर खेल नहीं खेल रहा है तो टीवी, रेडियो में मैच देख कर, सुन कर अपनी मन की भड़ास निकालता रहता है. यदि भारत जीत गया तो पटाखे फोड़ता है, यदि हारा, तो टीवी.

मेरे देश के मीडिया का हाल अब क्या बताऊं, नैशनल चैनल से ले कर प्राइवेट तक और अखबारों से ले कर रेडियो तक सभी केवल एक ही राग अलापते हैं. आप सोच रहे हैं कि संगीत में ही केवल राग होता है तो आप गलत हैं. मेरे देश में तो क्रिकेट नामक राग भी है जो तानसेन के राग दीपक से भी हजार गुना तेज है. तानसेन ने तो राग दीपक को राग मेघ गा कर राग दीपक के तेज को बु?ा दिया पर इस राग

का अभी तक कोई भी तोड़ पैदा नहीं हुआ है.

मेरे देश में क्रिकेट को छोड़ कर अन्य खेलों के प्रति सौतेला व्यवहार क्यों, शायद इस का जवाब ढूंढ़ने में वर्षों का समय लग जाए पर सच बात यही है कि जो अफीम (क्रिकेट) लोगों की रगों में प्रवेश कर गया है, उसे सही करना नशामुक्ति केंद्र के डाक्टर के भी वश में न होगा.

हमारे देश का युवा जब 18 साल का होता है तब उस के मन में बस एक ही उद्देश्य रहता है या तो इंजीनियर बनेगा या डाक्टर, कुछ के मन में एयर फोर्स या आर्मी. लेकिन खेल शायद ही किसी के दिमाग में आता होगा, क्योंकि वह जानता है कि डाक्टर, इंजीनियर बनने से रोजगार मिलेगा पर वह यह जानता ही नहीं कि खेलेगा तो भी उस को रोजगार मिल सकता है मतलब जागरूकता का अभाव क्योंकि यहां तो बातबात में लोग बोलते हैं कि खेलोगे कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब.

हमें मैडल चाहिए तो अभी से नर्सरी लगानी होगी, निचले पायदान से काम करना होगा, भरपूर रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे, जागरूकता पैदा करनी होगी तथा मीडिया को भी सब खेलों पर बराबर ध्यान देना होगा.

यह आशीर्वाद इस नर्सरी पर नरम फुहारें बन कर भी बरस जाए तो काफी होगा, तब हमें शायद ही सोने की कमी हो, तब हम सोना खरीद कर नहीं, जीत कर पहनेंगे और एक बार फिर हमारा देश सोने की चिडि़या बन जाएगा.

खेल हमारे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण है इस से हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहता है. खेल हमारे मनोरंजन का साधन भी है जोकि जीवन का अभिन्न अंग है.

यदि हम खेल पर ध्यान देंगे तो कोई दुश्मन भी हम से खेल खेलने की नहीं सोच सकता और फिर कोई भी हमारा खेल बिगाड़ नहीं सकता. तब खेल मात्र हमारा मनबहलाव का साधन ही नहीं, बल्कि देशगौरव की बात भी होगी.

और तब शायद ही कोई कह पाए, ‘ओलिंपिक जाओ, सैल्फी लो और वापस आ जाओ.’

इन सब बातों से तो एक ही निष्कर्ष निकलता है, ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाए,’ मतलब साफ है कि जो बोएंगे वही तो काटेंगे.

छायांकन : बहन के दामन पर खून के छींटे

नीलम की शादी को अभी 3 महीने ही हुए थे. तब से वह सावन के महीने में अपने मायके आई थी. रक्षाबंधन पर अपने 2 छोटे भाइयों

को राखी बांधने के बाद उसे अपनी ससुराल लौट जाना था. रक्षाबंधन 10 अगस्त को था. 3 अगस्त को जब वह घर में मां के साथ कामकाज में हाथ बंटा रही थी, तभी उस के मोबाइल की घंटी बजी. वह काम छोड़ कर कमरे में गई और मेज पर रखे मोबाइल को उठा कर देखा. फोन उस के पति बाबूराम का था. उस ने तुरंत काल रिसीव की.

उस के हैलो कहते ही बाबूराम की आवाज सुनाई दी, ‘‘नीलम, तुम दातागंज आ जाओ, मैं तुम्हें गोपालसिद्ध का मेला दिखा कर लाऊंगा.’’

नीलम ने बहाना बना कर उसे टालना चाहा तो बाबूराम बोला, ‘‘देखो नीलम, ऐसा मौका बारबार नहीं आएगा, इसलिए आ जाओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’ बाबूराम ने अधिकार भरे शब्दों में अपनी बात कह कर जगह बता दी और फोन काट दिया.

नीलम को बाबूराम पर बिलकुल भरोसा नहीं था. 3 महीने में वह उसे जितना जान पाई थी, उस से उसे लगता था कि बाबूराम उसे पसंद नहीं करता. लेकिन वह उस का पति था और जिद कर रहा था, इसलिए जाना उस की मजबूरी थी.

उस ने अपनी मां को बताया और फिर अपनी छोटी बहन संगीता को साइकिल पर बैठा कर दातागंज चली गई.

जब देर शाम होने पर भी नीलम संगीता के साथ वापस नहीं लौटी तो उस की मां को चिंता हुई. मां ने यह बात अपने पति हरभजन को बताई तो उन्होंने नीलम और संगीता की खोजबीन शुरू की. नीलम की ससुराल में फोन कर के पता किया तो वे दोनों वहां भी नहीं गई थीं. बाबूराम भी घर पर नहीं था.

हरभजन का परिवार बदायूं जिले के थाना दातागंज क्षेत्र के गांव केशोपुर में रहता था. उस की 2 बेटियां थीं और 2 बेटे. जब दो दिनों तक खोजबीन करने के बाद भी बेटियों का कोई सुराग नहीं मिला तो उस ने थाना दातागंज में बाबूराम के विरुद्ध भादंवि की धारा 364 के तहत अपहरण का मुकदमा दर्ज करा दिया. बाबूराम के खिलाफ रिपोर्ट इसलिए लिखाई, क्योंकि उसी ने फोन कर के नीलम को दातागंज बुलाया था.

दातागंज के थानाप्रभारी विपिन कुमार ने बाबूराम के बरेली के थाना कैंट क्षेत्र के गांव भऊवापुर स्थित घर पर दबिश दी तो वह घर पर नहीं मिला. इस पर विपिन कुमार ने बाबूराम के मोबाइल नंबर को सर्विलांस पर लगवा दिया.

9 अगस्त को विपिन कुमार को बाबूराम के धौलाघाट पुल पर होने की सूचना मिली तो वह पुलिस टीम के साथ वहां जा पहुंचे. बाबूराम वहां मिल गया. पुलिस उसे गिरफ्तार कर के थाने ले आई. थाने में जब उस से पूछताछ की गई तो उस ने बताया कि उस ने अपनी पत्नी नीलम और साली की उन के ही दुपट्टे से गला घोंट कर हत्या कर दी थी और दोनों की लाशें ढका गांव में उस के मामा के गन्ने के खेत में पड़ी हैं.

ढका गांव दातागंज से 40 किलोमीटर की दूरी पर था और जिला बरेली के थाना विशारतगंज क्षेत्र में आता था. थानाप्रभारी विपिन कुमार अपनी टीम के साथ उसे ले कर विशारतगंज गए. वहां से वह स्थानीय पुलिस के साथ ढका गांव पहुंचे.

बाबूराम के मामा के खेत में खोजबीन की गई तो नीलम और संगीता की सड़ीगली लाशें कंकालनुमा हालत में मिलीं. पुलिस ने प्राथमिक काररवाई कर के दोनों लाशों को पोस्टमार्टम के लिए मोर्चरी भेज दिया.

इस के बाद दातागंज पुलिस बाबूराम को ले कर थाने आ गई. थाने में पूछताछ के दौरान बाबूराम ने हत्या के पीछे की जो कहानी बताई, वह नाजायज रिश्ते को अपनी जिंदगी समझने वाले एक शख्स के खूनी खेल की कहानी थी, जिस में उस का शिकार बनीं उस की जीवनसंगिनी और निर्दोष साली.

महानगर बरेली के थाना के क्षेत्र के गांव भऊवापुर निवासी खंजनलाल किसान का सब से छोटा बेटा था बाबूराम. पेशे से किसान हरभजन के पास सात बीघा जमीन थी. उसी से उस के पूरे परिवार का भरणपोषण होता था.

बाबूराम ने इंटर तक पढ़ाई की थी. इस के बाद वह पिता के साथ खेती के काम में हाथ बंटाने लगा था. बाबूराम की ननिहाल बरेली के ढका गांव में थी. उस के मामा की 3 बेटियां थीं. जिन में गीता (परिवर्तित नाम) सब से बड़ी थी.

18 साल की गीता का यौवन खूब दमकता था, वह थी भी खूबसूरत. बाबूराम अकसर अपने मामा के घर आता रहता था. गीता से उस की खूब पटती थी. दोनों के बीच भाईबहन का रिश्ता था. बचपन से एकदूसरे के साथ खेले थे. इसलिए एकदूसरे से काफी घुलेमिले हुए थे.

जब दोनों जवान हुए तो बाबूराम को गीता की खूबसूरती कुछ अलग ही नजरिए से सुहाने लगी. रिश्ते की याद आती तो वह गीता पर से नजरें हटाने की कोशिश करता, लेकिन उस का दिल उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं देता था. बाबूराम ने बहुत कोशिश की कि वह रिश्ते की मर्यादा बनाए रखे, लेकिन दिल के मामले में उस का वश नहीं चला. वह कोशिश कर के हार गया.

बाबूराम ने महसूस किया कि वह गीता को चाहने लगा है. उस के दीदार से उस के दिल को सुकून मिलता है और आंखों को ठंडक. गीता जब उस के साथ नहीं होती तो उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. उस के बिना जीने की कल्पना करना भी बेइमानी है. लेकिन गीता का साथ पाने की उस की इच्छा तभी पूरी हो सकती थी, जब वह भी प्यार का जवाब प्यार से देती.

काफी सोचविचार के बाद बाबूराम ने फैसला किया कि वह गीता से अपने दिल की बात  जरूर कहेगा. गीता की वजह से बाबूराम अधिकतर अपनी ननिहाल में ही पड़ा रहता था. बराबर उस के संपर्क में रहने के कारण गीता भी उस के आकर्षण में बंध सी गई थी. बाबूराम के साथ रहने पर उसे भी दुनियादारी की सुध नहीं रहती थी.

एक दिन गीता अपने कमरे में बैठी हुई थी कि तभी बाबूराम आ गया. वह मन ही मन ठान कर आया था कि गीता से अपने दिल की बात जरूर कहेगा. वह उस के पास बैठते हुए बोला, ‘‘गीतू, आज मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कहना चाहते हो, बताओ?’’ गीता ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘मुझे डर है कि तुम मेरी बात सुन कर नाराज न हो जाओ.’’

‘‘पता तो चले, ऐसी क्या बात है, जिसे कहने से तुम इतना डर रहे हो?’’

‘‘गीतू, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं, क्या तुम मेरे प्यार को स्वीकार करोगी?’’ बाबूराम ने गीता का हाथ अपने हाथ में ले कर एक ही झटके में बोल दिया.

‘‘क्या…?’’ सुन कर गीता चौंक पड़ी. उसे एकाएक अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ.

‘‘हां गीतू, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘ये कैसी बातें कर रहे हो? तुम अच्छी तरह जानते हो, हमारे बीच भाईबहन का रिश्ता है.’’

‘‘गीतू, मैं ने कभी भी तुम्हें बहन की नजर से नहीं देखा. मुझे अपने प्यार की भीख दे दो. मैं तुम्हारे लिए पूरी दुनिया से लड़ जाऊंगा.’’

‘‘हम समाज की नजर में भाईबहन हैं, जब लोगों को पता चलेगा तो वे हमें कभी एक नहीं होने देंगे. तुम किसकिस से लड़ोगे?’’

‘‘मुझे किसी की फिक्र नहीं है. बस, तुम एक बार हां कह दो.’’

‘‘ठीक है, तुम इतना कह रहे हो तो मैं इस बारे में सोचने के बाद जवाब दूंगी.’’ गीता ने उसे टालने के लिए कहा.

‘‘ठीक है, कल सुबह मुझे बरेली जाना है, शाम तक लौट आऊंगा. तब तक तुम सोच लेना और मुझे अपना जवाब बता देना. कोशिश करना तुम्हारा जवाब मेरे हक में हो.’’ कह कर बाबूराम कमरे से बाहर चला गया.

रात को खाना खाने के बाद गीता जब सोने के लिए बिस्तर पर लेटी तो नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. उस के कानों में बाबूराम के शब्द गूंज रहे थे. उस ने अपने दिल में झांकने की कोशिश की तो उसे लगा कि वह भी जानेअनजाने में बाबूराम से प्यार करती है, लेकिन भाईबहन के रिश्ते के भय से अपने प्यार का इजहार नहीं कर पा रही है.

अब जब बाबूराम प्यार की बात कर रहा है तो उसे पीछे नहीं हटना चाहिए. जिंदगी में सच्चा प्यार हर किसी को नहीं मिलता. ऐसे में वह बाबूराम के प्यार को क्यों ठुकराए? काफी सोचविचार कर उस ने फैसला कर लिया कि उसे क्या करना है.

अगले दिन की सुबह गीता के लिए कुछ अलग ही थी, बाबूराम के प्यार में डूबी हुई. वह खोईखोई सी थी, लेकिन किसी को भनक तक नहीं लगी कि उस के दिमाग में क्या चल रहा है. उधर उस दिन गीता को बेसब्री से बाबूराम के लौटने का इंतजार था.

बाबूराम रात को लगभग 9 बजे घर लौटा और घर के लोगों से मिल कर गीता के कमरे में आ गया. उस ने आते ही गीता से पूछा, ‘‘गीतू, जल्दी बताओ, तुम ने क्या फैसला लिया?’’

‘‘बाबू, मैं ने रात भर काफी सोचा और फैसला लिया कि…’’ गीता ने अपनी बात बीच में ही रोक दी.

यह देख बाबूराम के दिल की धड़कन तेज हो गई, वह उत्सुकतावश गीता का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘बोलो गीतू, मेरी जिंदगी तुम्हारे फैसले पर ही टिकी है. तुम्हारे इस तरह चुप हो जाने से मेरा दिल बैठा जा रहा है.’’

बाबूराम की हालत देख कर गीता एकाएक खिलखिला कर हंस पड़ी. उसे इस तरह हंसते देख कर बाबूराम ने उस की ओर सवालिया निगाहों से देखा तो वह बोली, ‘‘मेरा फैसला तुम्हारे हक में है.’’

यह सुन कर बाबूराम खुशी से झूम उठा और उस ने गीता को बांहों में भर लिया. गीता खुद को उस से छुड़ाते हुए बोली, ‘‘अपने ऊपर काबू रखो. अगर किसी ने हमें इस तरह देख लिया तो कयामत आ जाएगी. हमारा प्यार शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘क्या करूं गीतू, तुम्हारा फैसला सुन कर मैं पागल सा हो गया था.’’

‘‘ठीक है, लेकिन लोगों की नजर में हम भाईबहन हैं, इसलिए वे हमारी शादी नहीं होने देंगे.’’

‘‘हमारी शादी जरूर होगी और कोई भी हमें नहीं रोक पाएगा, लेकिन यह तो बाद की बात है. वैसे हमारे बीच जो भाईबहन का रिश्ता है, यह एक तरह से अच्छा ही है, इस से हम पर कोई जल्दी शक नहीं करेगा.’’

गीता भी बाबूराम की बात से सहमत हो गई. और फिर उस दिन से दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. दोनों एक साथ घूमने और फिल्में देखने जाने लगे.

बाबूराम और गीता मामाफूफा के बेटाबेटी होने की वजह से भाईबहन लगते थे. ऐसे में दोनों के बीच जो कुछ भी चल रहा था, उसे प्यार नहीं कहा जा सकता, दोनों बालिग थे, इसलिए नासमझी भी नहीं. बहरहाल उन के बीच पक रही खिचड़ी की खुशबू बाहर पहुंची तो लोग तरहतरह की बातें करने लगे.

धीरेधीरे यह खबर दोनों के घर वालों तक पहुंच गई. सच्चाई का पता लगते ही दोनों घरों में कोहराम मच गया. परिवार के लोगों ने एक साथ बैठ कर दोनों को समझाया, रिश्ते की दुहाई दी, लेकिन उन दोनों पर कोई असर नहीं हुआ. हालांकि घर वालों के सामने दोनों ने उन की हां में हां मिलाई और एकदूसरे से न मिलने का वादा किया.

उस वादे को दोनों ने कुछ दिनों के लिए निभाया भी, लेकिन कुछ दिनों बाद वे दोनों फिर मिलने लगे. ऐसे में बाबूराम के पिता ने उस की शादी करा देने का निर्णय लिया. शादी भी ऐसी कि चट मंगनी पट ब्याह. भऊवापुर गांव के ही एक परिचित ने उन्हें बदायूं जिले के गांव केशोपुर निवासी हरभजन की बेटी नीलम के बारे में बताया. यह बताने वाला परिचित हरभजन का एक रिश्तेदार था.

नीलम को घर में पूनम के नाम से बुलाते थे. वह दातागंज के चिरौंजी लाल इंटर कालेज में इंटर की छात्रा थी. नीलम बहुत ही सरल व शांत स्वभाव की युवती थी. वह बालिग हो चुकी थी. इसलिए उस के पिता को उस के विवाह की चिंता सताने लगी थी.

जब नीलम के लिए बाबूराम का रिश्ता आया तो वह मना नहीं कर सका. उस के बाद सब कुछ इतना जल्दी तय हुआ कि उसे इतना वक्त नहीं मिला कि बाबूराम और उस के परिजनों के बारे में कुछ पता लगा सके. बाबूराम के घर वाले तो कुछ जानना ही नहीं चाहते थे. वह तो जल्द से जल्द उस की शादी कर के उसे बंधन में बांधना चाहते थे, जिस से वह गीता से सारे रिश्ते तोड़ दे.

रिश्ता तय होने के बाद इसी साल 16 मई को दोनों का विवाह हो गया. नीलम मायके से विदा हो कर अपनी ससुराल आ गई. लेकिन बाबूराम ने उस में कोई रुचि नहीं दिखाई. बाबूराम पर तो गीता की दीवानगी छाई हुई थी. वह किसी हाल में उस से अलग होना नहीं चाहता था.

वह अपनी शादी होने से तो नहीं रोक पाया, लेकिन शादी के बावजूद वह नीलम को अपनी जिंदगी की जीनत नहीं बनाना चाहता था. इसीलिए वह उस के साथ बेरुखी से पेश आने लगा. वह बातबात पर उस पर चिल्ला पड़ता, उस से उलटासीधा बोलता. उस की हरकतों से नीलम समझ गई कि वह उसे पसंद नहीं करता. जरूर उस ने किसी मजबूरी के तहत उस ने विवाह किया है.

दूसरी ओर बाबूराम गीता से मिला तो उस ने नाराजगी जताई और याद दिलाया कि उस ने हमेशा उसी का रहने का वादा किया था. कोई भी उन के बीच नहीं आएगा, वह अपने वादे को कैसे भूल गया. इस पर बाबूराम ने उस से कहा कि वह अपने वादे को नहीं भूला है. उस के अलावा वह किसी और को अपनी जिंदगी नहीं बना सकता. लेकिन जब गीता ने नीलम को अपने रास्ते का रोड़ा बताया तो बाबूराम ने उस ने कहा कि वह इस रोड़े को हमेशा के लिए अपने रास्ते से हटा देगा.

इस के बाद बाबूराम ने नीलम की हत्या की साजिश रचनी शुरू कर दी. सावन में जब नीलम अपने मायके आई तो बाबूराम ने अपनी साजिश को अंजाम देने का फैसला कर लिया. इस के लिए उस ने अपनी प्रेमिका के ही गांव और उस के पिता के खेत को ही नीलम का मृत्युस्थल चुना.

3 अगस्त को बाबूराम ने नीलम को फोन कर के कहा कि वह दातागंज आ जाए. वह उस को गोपालसिद्ध का मेला दिखाने के लिए साथ ले जाएगा. नीलम ने आनाकानी की, लेकिन बाबूराम नहीं माना. नीलम को उस पर भरोसा पहले से ही नहीं था, इसलिए उस ने अपनी बहन संगीता को साथ लिया और उसे साइकिल पर बैठा कर दातागंज पहुंच गई.

वहां पहले से तय जगह पर बाबूराम उसे इंतजार करता मिला. वह दहेज में मिली बाइक से आया था. नीलम की साइकिल एक जगह खड़ी करवा कर बाबूराम दोनों बहनों को बाइक पर बैठा कर मेला दिखाने ले गया.

जब शाम होने लगी तो वह उन दोनों को बाइक पर साथ ले कर दातागंज से 40 किलोमीटर दूर ढका गांव की ओर चल दिया. नीलम ने पूछा तो उस ने कहा कि उसे जरा मामा से काम है. इस बहाने वह मामा व अन्य घर वालों से मिल लेगी. उस के इस जवाब से नीलम चुप हो गई.

बाबूराम ने अपने मामा के गन्ने के खेत पर जा कर बाइक रोकी और नीलम को खेत दिखाने के बहाने साथ ले कर खेत के अंदर चला गया. नीलम उस वक्त सलवार कुरता पहने थी. उस ने अपना दुपट्टा गले में लटका रखा था. खेत के अंदर जा कर बाबूराम ने उसी दुपट्टे से गला घोंट कर उस की हत्या कर दी. वह बेचारी चीख भी न सकी.

इस के बाद वह खेत से निकल कर बाहर आया और संगीता से कहा कि उस की बहन अंदर गिर गई है और उस के पैर में काफी चोट आई है. यह सुन कर संगीता उस के साथ खेत के अंदर चली गई. अंदर पहुंचते ही बाबूराम ने पीछे से उसी के दुपट्टे से गला घोंट कर उस की भी हत्या कर दी.

संगीता की हत्या करना बाबूराम की मजबूरी थी, क्योंकि अगर वह उसे नहीं मारता तो वह सब कुछ अपने घर वालों को बता देती. इस तरह संगीता बहन के साथ बेवजह मारी गई.

दोनों बहनों की लाशों को वहीं पड़ा छोड़ कर बाबूराम अपने मामा के घर आ गया. वहां उस ने गीता को नीलम और संगीता की हत्या कर देने की बात बता दी. देर रात वह मामा के घर से निकल कर अपने घर पहुंचा. वहां उसे पता चला कि उस के ससुर हरभजन को पता है कि नीलम और संगीता उस के साथ गई थीं और वह उन के और उस के बारे में पूछ रहे थे. यह सुन कर बाबूराम को अपने पकड़े जाने का भय सताने लगा तो वह घर से फरार हो गया.

लेकिन बाबूराम के गुनाह ने उस का पीछा नहीं छोड़ा और अंतत: वह पुलिस की गिरफ्त में आ ही गया.

थानाप्रभारी विपिन कुमार ने इस केस में भादंवि की धारा 302/201 और बढ़ा दी. प्राथमिक कानूनी  काररवाई पूरी कर के पुलिस ने बाबूराम को सीजेएम की अदालत में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

—पुलिस सूत्रों पर आधारित

मैं अपने से 8 साल छोटे लड़के से शादी करना चाहती हूं, क्या ये करना सही होगा?

सवाल

मैं 50 वर्षीय विधवा हूं और एक सरकारी विभाग में क्लर्क हूं. पति की मौत को अभी एक साल भी नहीं हुआ हेै. मैं उम्र में अपने से 8 साल छोटे अविवाहित व्यक्ति से प्यार करने लगी हूं.  हम दोनों के बीच कई बार शारीरिक संबंध भी बन चुके हैं और मैं उससे शादी भी करना चाहती हूं. ससुराल व मायके वालों से मेरे संबंध औपचारिक हैं. मेरी दो बेटियां क्रमश 21 और 19 साल की हैं बड़ी बेटी शहर में इंजीन्यंरिंग की पढ़ाई कर रही है जबकि छोटी मेरे साथ रहती है .

मेरी एक नहीं बल्कि कई समस्याएं हैं, क्या मेरी बेटियां मेरी दूसरी शादी बर्दाश्त कर सकेंगी.  मेरे अपने पति से संबंध अच्छे नहीं थे क्योंकि वह निकम्मा और शराबी था और उसे लेकर बेटियां भी मेरे पक्ष में रहती थीं. दूसरी समस्या यह है की मैं अपने प्रेमी के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती हूं  सिवाय इसके कि वह दुनिया में अकेला है और कुछ खास नहीं करता है.  वह छोटा मोटा लेखक है पत्र पत्रिकाओं में अपनी कुछ छपी रचनाएं भी उसने मुझे दिखाई हैं लेकिन छह महीनों में मैंने महसूस किया है कि वह काफी अच्छा इंसान है जो  मेरी भावनाओं की कद्र करता है और  बेटियों का पिता जैसा ही ख्याल रखेगा मुझसे भी वह बहुत प्यार करता है. जाने क्यों कभी कभी मुझे लगता है कि काफी कुछ जल्दबाज़ी मैंने कर दी है मुझे उसके बारे में और जानना चाहिए लेकिन वह कहता है कि जो है वो तुम्हें बता दिया है. अगर शादी करने में कोई हिचक हो तो मत करो मैं तो ज़िंदगी भर तुम्हें प्यार करता रहूंगा कृपया बताएं कि क्या करूं ?

जवाब

आपने वाकई में जल्दबाजी तो कर दी है. खासतौर से अपने प्रेमी के बारे में बगैर कुछ जाने समझे उससे शारीरिक संबंध बना डाले हैं. किसी के स्वभाव का आकलन इतनी जल्दबाज़ी में करना ठीक नहीं कि वह अच्छा इंसान है.  लगता ऐसा है कि आप अपने आप को तसल्ली दे रही हैं. जबकि अंदर से आप भयभीत हैं जिसकी वजह शारीरिक संबंध ही हैं निश्चित रूप से इनके न सही आपके प्यार के अंतरंग क्षणों के कुछ प्रमाण तो उसके मोबाइल में कैद होंगे.

समस्या को सिलसेवार देखें तो साफ होता है कि आपके पति के साथ आपकी पटरी नहीं बैठी इसलिए आप उसमें भावनात्मक, सामाजिक, आर्थिक या कोई दूसरा सहारा नहीं देख या ले पाई. इसलिए आप एक ऐसे आदमी की तरफ आकर्षित हो गईं.  जिसमें वे एब नहीं हैं जिनसे आप लंबे वक्त से दुखी और परेशान रहीं थीं लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आपके प्रेमी की  नजर भी आपकी मोटी पगार पर नहीं होगी. मुमकिन यह भी है कि उसने षड्यंत्रपूर्वक तरीके से आपके इर्द गिर्द एक जाल बुना और आप जाने अनजाने में उसमें फंसती चली गईं और अब आपको लग रहा है कहीं आपने गलती तो नहीं कर दी.

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