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लोकसभा : राहुल गांधी के सवालों का अनुत्तरित जवाब

नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ प्रस्तुत अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए राहुल गांधी ने जो मार्मिक सवाल उठाए, उन के जवाब अनुत्तरित ही रह गए. ऐसा प्रतीत होता है मानो हिंसा से जल रहे मणिपुर के मसले पर भाजपा के बहुचर्चित नेता हाईकमान के निर्देश पर मौन रहना चाहते हैं और इस मसले पर इधरउधर की बातें कर के गंभीर सवालों से बचना चाहते हैं.

दुनियाभर में जब मणिपुर के वीडियो और यह मसला चर्चा का विषय बना हुआ है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते तो इस पर एक संवेदनशील अपील कर सकते थे. और उस से आगे जा कर मणिपुर का दौरा कर सकते थे, जब चुनाव के दरमियान 1 दिन में हजारों किलोमीटर की यात्रा की जा सकती है, अनेक राज्यों में जा कर लोगों से वोट मांगा जा सकता है, तो फिर मणिपुर जैसे एक छोटे से राज्य में जा कर वहां की समस्या को क्यों नहीं नजदीक से देखा जा सकता और सुलझाया जा सकता?

दरअसल, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने मणिपुर की स्थिति को ले कर 9 अगस्त को मोदी सरकार पर तीखा प्रहार किया. उन्होंने कहा, ‘इन की राजनीति ने मणिपुर को नहीं हिंदुस्तान को मणिपुर में मारा है.’

सत्ता पक्ष की उग्रता के बीच राहुल गांधी ने अपनी मणिपुर यात्रा के दौरान महिलाओं के दर्दनाक मंजर को सदन में विस्तार से बताया.

राहुल गांधी ने लोकसभा में सरकार के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में भाग लेते हुए केंद्र सरकार पर गंभीर सवाल उठाए कि वह इस राज्य को हिंदुस्तान का हिस्सा नहीं मानती.

उन्होंने आगे कहा कि भारत एक आवाज है और अगर इस आवाज को सुनना है, तो अहंकार और नफरत को त्यागना होगा.

राहुल गांधी ने जो सवाल उठाए, उन का जवाब सत्ता पक्ष की ओर से आना चाहिए था, मगर सत्ता पक्ष कुछ इस तरह व्यवहार करते हुए दिखाई दिया जैसे मणिपुर पर बात करना ही नहीं चाहता.

अविश्वास प्रस्ताव लाने की महत्वपूर्ण वजह मणिपुर राज्य, जहां आज हिंसा अपने उफान पर है और सौ दिनों से ज्यादा हो गए, यह थमने का नाम नहीं ले रही है. ऐसे में राहुल गांधी ने अपने मणिपुर दौरे के अनुभव का उल्लेख किया.

उन्होंने बताया कि 2 महिलाओं ने उन्हें आपबीती बताई थी. एक कैंप में एक महिला ने कहा कि उस की आंखों के सामने उस के बेटे को गोली मार दी गई. वह एक रात अपने बेटे के साथ रही और जब उस महिला को डर लगा तो अपने कुछ कपड़ों और एक फोटो को ले कर अपना घर छोड़ दिया.

राहुल गांधी ने बताया कि किस तरह बातचीत के दौरान महिला बुरी तरह से डर से कांप रही थी और फिर बेहोश हो गई.

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि यह आज की सचाई है कि मणिपुर को आप ने बांट दिया है, तोड़ दिया है.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि इस सरकार ने हरियाणा और देश के कई अन्य हिस्सों में ‘केरोसिन’ छिड़क दिया है.

राहुल गांधी ने सदन में कहा, ‘हिंदुस्तान की सेना एक दिन में शांति ला सकती है, लेकिन आप (सरकार) हिंदुस्तान की सेना का उपयोग नहीं कर रहे हैं.’

स्मृति ईरानी की कमजोरी बयानी

राहुल गांधी ने अपने प्रभावशाली भाषण में लोकसभा में कहा, ‘रावण दो लोगों मेघनाथ और कुंभकर्ण की सुनता था, उसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिर्फ अमित शाह और अडाणी की सुनते हैं.’

राहुल गांधी ने यह भी कहा कि लंका को हनुमान ने नहीं जलाया था, रावण के अहंकार ने जलाया था. रावण को राम ने नहीं मारा था, रावण के अहंकार ने ही उसे मारा था.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के संदर्भ में कहा कि पिछले साल 130 दिन तक मैं ने भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक पैदल यात्रा की. मैं समुद्र के तट से कश्मीर की कीली पहाड़ी तक चला.

उन्होंने यात्रा के दौरान के कुछ अनुभवों का उल्लेख करते हुए कहा, ‘जब मैं यात्रा कर रहा था, तो मुझे भीड़ की आवाज सुनाई नहीं देती थी. जिस से बात करता था, उसका दुख और दर्द सुनाई देता था.’

राहुल गांधी ने कहा कि लोग कहते हैं कि ये देश है, कोई कहता है कि अलगअलग भाषाएं हैं, कोई जमीन, कोई धर्म तो कोई सोना और चांदी की बात करता है. लेकिन सच तो यह है कि यह देश एक आवाज है. इस देश के लोगों की आवाज है. इस देश के लोगों का दर्द है, दुख है, कठिनाइयां हैं. इस आवाज को सुनने के लिए हमें अपने अहंकार को खत्म करना पड़ेगा, तभी हमें इस हिंदुस्तान की आवाज सुनाई देगी.

राहुल गांधी ने अपने भाषण में कहा कि एक मां मेरी यहां बैठी हैं, एक भारत मां को मणिपुर में मारा जा रहा है…

नरेंद्र मोदी सरकार की मंत्री एक तरह से प्रवक्ता स्मृति ईरानी ने इस पर जोरदार प्रतिकार करते हुए कहा कि भारत माता को मारने की बात पर विपक्ष के लोग तालियां बजाते हैं, यह शर्मनाक है. मगर स्मृति ईरानी यह भूल गईं कि उन्होंने स्वीकार कर लिया कि मणिपुर में भारत माता को नरेंद्र मोदी की सरकार मार रही है.

बड़ी उम्र के पुरुषों की तरफ आकर्षित होती युवतियां

कार्यालय में चर्चा का बाजार कुछ ज्यादा ही गरम था. पता चला कि नेहा ने अपने से उम्र में 15 साल बड़े अधिकारी प्रतीक से विवाह रचा लिया है. एक हफ्ते बाद जब नेहा से मुलाकात हुई तो वह बेहद खुश नजर आ रही थी. अपने से ज्यादा उम्र के व्यक्ति से विवाह करने की कोई लाचारी या बेचारगी का भाव उस के चेहरे पर नहीं था. चूंकि उन के बीच चल रहे संबंधों की चर्चा पहले से होती थी, सो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ.

ऐसे एक नहीं अनेक किस्सों को हम हकीकत में बदलते देखते हैं. विशेषकर कार्यक्षेत्र में तो यह स्थिति अधिक देखने को मिलती है कि लड़कियां अपने

से बड़ी उम्र के पुरुषों के प्रति अधिक आकर्षित हो रही हैं. आजकल यह आश्चर्यजनक नहीं, बल्कि सामान्य बात हो गई है.

अकसर नौकरीपेशा लड़कियां या महिलाएं अपने दफ्तर के वरिष्ठ अधिकारी के प्रेमजाल में फंस जाती हैं और जरूरी नहीं कि वे उन के साथ कोई लंबा या स्थायी रिश्ता ही बनाना चाहें, लेकिन कई बार लड़कियां इस चक्कर में अपना जीवन बरबाद भी कर लेती हैं. ऐसे रिश्ते रेत के महल की तरह जल्द ही ढह जाते हैं.

बात जब विवाह की हो तो ऐसे रिश्तों की बुनियाद कमजोर होती है. पर मन की गति ही कुछ ऐसी है, जिस किसी पर यह मन आ गया, तो बस आ गया. फिर उम्र की सीमा और जन्म का बंधन कोई माने नहीं रखता. हालांकि यह स्थिति बहुत अच्छी तो नहीं है, फिर भी कई बार कुछ परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि मन बस वहीं ठहर जाता है.

सुरक्षा का भाव

कई बार कम उम्र की लड़कियां अपने से काफी अधिक उम्र के व्यक्ति के साथ अपनेआप को सुरक्षित महसूस करती हैं. ऐसा अकसर तब होता है जब कोई लड़की बचपन से अकेली रही हो. परिवार में पिता या भाई जैसे किसी पुरुष का संरक्षण न मिलने के कारण उसे अपमान या छेड़खानी का सामना करना पड़ा हो तो ऐसी लड़कियां सहज ही अपने से अधिक उम्र के व्यक्ति के साथ अपनेआप को सुरक्षित महसूस करती हैं. कई बार लड़कियों के इस रुझान का फायदा पुरुष भी उठाते दिख जाते हैं.

परिस्थितियां

कार्यक्षेत्र की परिस्थितियां कई बार ऐसा संपर्क बनाने में अहम भूमिका निभाती हैं. कई दफ्तरों में फील्डवर्क होता है. काम सीखनेसमझने के मद्देनजर लड़कियों को सीनियर्स के साथ दफ्तर से बाहर जाना पड़ता है. गैरअनुभवी लड़कियों को इस का फायदा मिलता है. धीरेधीरे लड़कियां पुरुष सहयोगियों के करीब आ जाती हैं. काम के सिलसिले में लगातार साथ रहतेरहते कई बार दिल भी मिल जाते हैं.

स्वार्थी वृत्ति

पुरुषों की स्वार्थी वृत्ति भी कई बार कम उम्र की लड़कियों को अपने मोहजाल में फंसा लेती है. लड़कियां यदि केवल सहकर्मी होने के नाते पुरुषों के साथ वार्त्तालाप कर लेती हैं, काम में कुछ मदद मांग लेती हैं तो स्वार्थी प्रवृत्ति के पुरुष इस का गलत फायदा उठाने की कोशिश करते हैं और लड़कियां उन के झांसे में आ जाती हैं.

मजबूरियां

कई बार मजबूरियां साथ काम करने वाले अधिक उम्र के सहकर्मी के करीब ले आती हैं. तब मुख्य वजह मजबूरी होती है, संबंधित पुरुष की उम्र नहीं. आजकल कार्यस्थलों पर काम की अधिकता हो गई है, जबकि समय कम होता है. कम समय में अधिक कार्य का लक्ष्य पूरा करने के लिए लड़कियां अपने सहकर्मी पुरुषों का सहयोग लेने में नहीं हिचकतीं, यह जरूरी भी है. किंतु मन का क्या? सहयोग लेतेदेते मन भी जब एकदूसरे के करीब आ जाता है तब उम्र का बंधन कोई माने नहीं रखता.

प्रलोभन

प्रलोभन या लालचवश भी कमसिन लड़कियां उम्रदराज पुरुषों के चंगुल में फंस जाती हैं. कई लड़कियां बहुत शौकीन और फैशनेबल होती हैं. उन की जरूरतें बहुत ज्यादा होती हैं, पर जरूरतों को पूरा करने के साधन उन के पास सीमित होते हैं. ऐसी स्थिति में यदि कोई अधिक उम्र का व्यक्ति, जो साधनसंपन्न है, पैसों की कोई कमी नहीं है, समाज में रुतबा है तो लड़कियां उस की ओर आकर्षित हो जाती हैं. उस समय उन्हें दूरगामी परिणाम नहीं दिखते, तात्कालिक लाभ ही उन के लिए सर्पोपरि होता है.

कई लड़कियां कैरियर के मामले में शौर्टकट अपनाना चाहती हैं और ऊंची छलांग लगा कर  पदोन्नति प्राप्त कर लेना चाहती हैं. यह लालच अधिकारी की अधिक उम्र को नजरअंदाज कर देता है.

किसी भी अधिक उम्र के व्यक्ति का अपना प्रभाव, व्यक्तित्व, रुतबा या रहनसहन भी लड़कियों को प्रभावित करने का माद्दा रखता है. राजनीति और कारोबार जगत से जुड़ी कई हस्तियों के साथ कम उम्र की लड़कियों को उन के मोहपाश में बंधते देखा गया है.

बहरहाल, जरूरी नहीं कि ऐसे संबंध हमेशा बरबाद ही करते हों. कई बार ऐसे संबंध सफल होते भी देखे गए हैं. बात आपसी संबंध और परिपक्वता की है जहां सूझबूझ, विवेक और धैर्य की आवश्यकता होती है. फिर असंभव तो कुछ भी नहीं होता.

यह भी एक तथ्य है कि आकर्षण तो महज आकर्षण ही होते हैं और ज्यादातर आकर्षण क्षणिक भी होते हैं. दूर से तो हर वस्तु आकर्षक दिख सकती है. उस की सचाई तो करीब आने पर ही पता चलती है, कई बार यही आर्कषण आसमान से सीधे धरातल पर ले आता है. आकर्षण, प्यार, चाहत और जीवनभर का साथ ये सब अलगअलग तथ्य होते हैं. इन्हें एक ही समझना गलत है. किसी अच्छी वस्तु को देख कर आकर्षित हो जाना एक सामान्य बात है. पर इस आकर्षण को जीवनभर का बोझ बनाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा हो सकता है, क्योंकि हर चमकती चीज सोना नहीं होती.

फिर भी बदलते वक्त की जरूरत कहें या बढ़ती हुई जरूरतों को जल्दी से जल्दी बिना मेहनत किए पूरा करने की होड़, अधिक उम्र के पुरुष?ों की तरफ लड़कियों का आकर्षित होना एक अच्छी शुरुआत तो नहीं कही जा सकती. इस नादानी में उन का भविष्य जरूर दावं पर लग सकता है.

मेरो मदन गोपाल

रामपुरा गांव में बैरागिन माताश्री के सत्संग का काफी प्रचार हो रहा था. इस से पहले शहर में 7 दिन तक उन्होंने भागवत कथा की धूम मचा रखी थी. माताश्री से दीक्षा लेने के लिए लोगों की कतारें लग गई थीं. ईर्ष्यावश कृष्ण मंदिर के पुजारी के मुंह से निकल ही गया, ‘‘घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध…माताश्री ने 7 दिन में ही लगभग 2 लाख रुपए बटोर लिए हैं. हमें कोई ससुरा 21 या 51 रुपए से ज्यादा दक्षिणा नहीं देता.’’

रामपुरा गांव के पहले के जमींदार और अब के सरपंच स्वरूप सिंह ने भी माताश्री की कथा को सुना था. उन के मन में भक्ति रस की लहरों ने जोर मारा तो अपने गांव में भी कथा करवाने की जिद सी ठान ली. उन के छोटे भाई योगेश और बेटे मनोज ने बहुत समझाया कि इन ढकोसलों में कुछ नहीं रखा. पर स्वरूप सिंह ने किसी की एक न मानी. माताश्री बड़ी मुश्किल से 21 हजार रुपए दक्षिणा पाने के प्रस्ताव पर 3 दिन तक सत्संग करने को राजी हुईं.

कथास्थल को काफी भव्य रूप प्रदान किया गया था. सुसज्जित मंच की शोभा देखने लायक थी. आसपास के 5-6 गांवों की भीड़ जमा हो गई थी. सुनने वालों के लिए रंगबिरंगे शामियाने तान दिए गए थे. रोशनी की जगमगाहट में पूरा माहौल भक्ति रस में डूबने को तैयार था. 7 बजे के लगभग भजनकीर्तन आरंभ हुआ. उस के बाद माताश्री के प्रवचन ने भक्तों को काफी प्रभावित किया. इस के बाद कीर्तन मंडली ने फिर से अपना रंग जमाया.

अलगअलग साजों के संग नईनई फिल्मी तर्जों पर तैयार किए गए भजनों को सुन कर पंडाल में बैठे ग्रामीण झूमझूम कर तालियां बजाने लगे. ‘धूम मचा दे…धूम मचा दे…’ गीत की तर्ज पर गाए भजन पर तो आगे बैठे 7-8 युवक मस्ती में ठुमके लगाने लगे. कार्यक्रम समाप्त होने से पहले माताश्री ने एक भजन गाया…

‘मेरो मदन गोपाल…मेरो मदन गोपाल…

सोनाचांदी मैं ना चाहूं ना चाहूं धनमाल…

मेरो मदन गोपाल…’

माताश्री के सुरीले कंठ से गाए गए इस भजन ने श्रोताओं को पूरी तरह सम्मोहित कर दिया. कथा की समाप्ति पर एक वृद्धा बोल उठी, ‘‘माताश्री कितना त्यागमय जीवन जी रही हैं. कोई लोभलालच नहीं, कोई ऐशोआराम नहीं…किसी तरह की सुखसुविधा की इच्छा नहीं…’’

माताश्री के रात्रि विश्राम के लिए सरपंच के सड़क किनारे बने नए दो- मंजिला मकान में शानदार प्रबंध था. भोजन में पुलाव, 3 सब्जियां, दाल, पूरी व खीर आदि का इंतजाम था.

दूसरे दिन भी रात में सत्संग का वैसा ही कार्यक्रम था, पर तीसरे दिन गड़बड़ हो गई. लगभग 70 किलोमीटर दूर के कसबे से फोन आया कि सरपंचजी के ससुर इस दुनिया से कूच कर गए हैं. अत: वे पत्नी के संग ससुराल जाने की तैयारी करने लगे. जातेजाते सरपंच अपने छोटे भाई और बेटे को समझा गए कि सत्संग में विघ्न नहीं पड़ना चाहिए. उन्हें डर था कि भाई और बेटा कोई चाल न चल जाएं, अत: भेंटपूजा के रूप में वस्त्र, मिठाई, फलों की 2 टोकरियां और 21 हजार रुपए माताश्री को उसी समय देते गए.

तीसरे दिन ठीक समय पर माताश्री का प्रवचन शुरू हुआ. फिर लगभग 1 घंटे तक श्रोताओं ने भजनों का आनंद लिया. कथा समाप्ति पर श्रोता घरों को लौटने लगे. अचानक सभी लोग पंडाल में प्रवेश करती बैलगाड़ी को कौतुक से देखने लगे. सरपंच के बेटे मनोज ने माताश्री के समक्ष जा कर हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘हमारे पापों को क्षमा करें…आप को विश्रामस्थल तक पहुंचाने के लिए हम ने नाहक ही कार का इस्तेमाल किया. आप के त्यागमयी शरीर को इस से कितना कष्ट हुआ होगा. चलिए, अब बैलगाड़ी में सवार हो जाइए, मौसम भी खराब है…किसी समय भी बरसात हो सकती है.’’

माताश्री और उन की मुख्य शिष्या क्रोध में भुनभुनाती हुई बैलगाड़ी पर सवार हो गईं. भजनमंडली पैदल चलने लगी.

माताश्री अभी पहले सदमे से उबरी भी नहीं थीं कि एक दूसरा हृदय विदारक दृश्य उन की आंखों के सामने साकार हो उठा. बैलगाड़ी खेत के किनारे बनी एक झोंपड़ी के सामने जा कर रुक गई. अब तो माताश्री से रहा न गया, गुस्से में उबलती हुई तीखी आवाज में बोलीं, ‘‘तुम्हारे पिता के आग्रह को हम ठुकरा न सके. अगर मालूम होता कि ऐसे भक्त के घर में कंस जैसा बेटा और रावण जैसा भाई मौजूद हैं तो 21 क्या, हम 51 हजार रुपए में भी इस ओर न झांकते. बच्चे, तुम अभी हमारी हस्ती से परिचित नहीं हो.’’

‘‘शांत, माताश्री, शांत…आप स्वयं ही भजन गा रही थीं कि ‘नहीं चाहिए महल चौबारे, रहूं झोंपड़ी में खुशहाल…’ अत: हम ने सोचा, चौबारे में पलंग पर बिछे मखमली गद्दे पर लेटने से आप की आत्मा को कितना कष्ट झेलना पड़ा होगा. अब आप स्वयं सोचिए, हम भला यह पाप क्योंकर करते?’’ सरपंच के भाई योगेश की व्यंग्य भरी वाणी सुन कर साथ खड़े युवक अपनी हंसी न रोक सके.

तभी 2 सूखी रोटियों और मूंग की दाल से सजी थाली को माताश्री के सामने रखते हुए मनोज ने धीरे से कहा, ‘‘क्षमा करें, हम ने 2 दिन तक हलवा, पूरी, पनीर और खीर खिला कर आप के साथ घोर अन्याय किया है. जैसा कि आप भजन गा रही थीं कि ‘खाने को न चाहिए हलवा पूरी, दो रोटी व मूंग की दाल…’ अत: आप की उसी फरमाइश को ध्यान में रखते हुए हम ने यह सादा व पवित्र भोजन तैयार करवाया है. धन्य हैं आप और धन्य हैं आप का त्यागमय जीवन…आप वास्तव में महान हैं…’’

‘‘शंभू,’’ माताश्री ने अपने ड्राइवर की ओर क्रोध से देखा, ‘‘तुम भी इन पापियों की बातें सुन कर दांत फाड़ रहे हो…जल्दी से अपनी गाड़ी ले कर आओ.’’

तभी एक देहाती ने ऊंचे स्वर में गाया, ‘‘अब तो हो गया बुरा हाल, टूट गई जोग की तलवार और बैराग की ढाल, मेरो तो मदन गोपाल…मेरो तो मदन गोपाल.’’

इन पंक्तियों को सुन कर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया.

माताश्री शीघ्र ही अपनी मंडली के संग गांव से ही विदा नहीं हुईं, शहर के मंदिर में रखा बोरियाबिस्तर समेट कर रातोंरात वहां से भी नौ दो ग्यारह हो गईं. वह जानती थीं कि गांव की घटना तरहतरह के मिर्चमसालों के संग सुबह होतेहोते पूरे शहर में फैल चुकी होगी. अत: ऐसी स्थिति में भय, लज्जा और अपमान से बचने के लिए वे जल्द से जल्द वहां से बहुत दूर निकल जाना चाहती थीं.

कुछ दिनों बाद पता लगा, माताश्री की शादी उन के ड्राइवर शंभू से हो गई. दोबारा बैलगाड़ी पर न चढ़ना पड़े, लगता है माताश्री ने इस का पूरा इंतजाम कर लिया था.

सफेद क्रास

‘‘सुनिए,’’ घबराई हुई शिवरानी ने अपने पति सिरीकंठ को ? झोड़ कर कहा, ‘‘कब तक सोते रहेंगे. अब उठिए भी, बाहर की कुछ खबर भी है आप को?’’ गुलाब की पंखडि़यों जैसे उस के होंठ कांप रहे थे.

‘‘कहो, क्या बात है? तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?’’ सिरीकंठ ने आंखें मलते हुए अपना लिहाफ एक तरफ हटा दिया.

‘‘मैं अभीअभी बाहर गई थी…’’ शिवरानी के होंठ पहले की भांति कांप रहे थे.

‘‘इस में घबराने वाली कौन सी

बात है,’’ सिरीकंठ ने अपने चेहरे पर अनभिज्ञता का मुखौटा चढ़ाते हुए कहा. यद्यपि वह पत्नी का चेहरा देखते ही शंकाओं में घिर गया था फिर भी उस ने अपने डर को जाहिर करना उचित नहीं सम?ा.

‘‘बाहर गेट पर…’’ शिवरानी आगे कुछ भी नहीं बोल पाई. उस की आंखों में आंसू उमड़ पड़े. संभवत: वह बेहोश हो जाती मगर सिरीकंठ ने उसे अपनी छाती से लगा कर शांत करने की कोशिश की.

कुछ सोच कर वह बाहर जाने के लिए उठने लगा परंतु शिवरानी ने उसे रोक लिया, ‘‘नहीं…नहीं, आप बाहर नहीं जाएंगे. आप को कुछ हो गया तो हम कहीं के न रहेंगे.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. जरा देख तो लूं. गेट पर आखिर ऐसी क्या बात है जिस से तुम इतनी घबराई हुई हो.’’

‘‘रहने दीजिए, आप मत जाइए. आप कमरे के बाहर कदम भी नहीं रखेंगे. आप को मेरी कसम है.’’

‘‘फिर तुम ही बताओ आखिर बात क्या है?’’

‘‘वहां…वहां गेट पर किसी ने चाक से सफेद क्रास बना दिया है.’’

सिरीकंठ के पांव तले की जमीन खिसक गई. उन दिनों शहर में यह अफवाह गरम थी कि आतंकवादी जिस मकान पर सफेद क्रास लगाते हैं उस मकान के किसी सदस्य की मृत्यु निश्चित है.

धरती ने आतंक और भय के वातावरण की काली चादर ओढ़ रखी थी. किस बात पर भरोसा किया जाए और किस बात पर नहीं, यह निर्णय कर पाना कठिन हो रहा था.

‘‘बच्चे कहां हैं?’’ हड़बड़ाहट में सिरीकंठ अपने बच्चों को ढूंढ़ने लगा.

2 मासूम बच्चियां थीं. काकी और बबली. उन्होंने अभी जिंदगी की कुछेक बहारें ही देखी थीं. बड़ी 12 वर्ष की थी और छोटी 9 वर्ष की.

मनुष्य का स्वभाव भी विचित्र है. जब जान के लाले पड़ते हैं तो सब से पहले वह आने वाली पीढ़ी की सुरक्षा के लिए चिंता करता है. अपने जीवन से ज्यादा बच्चों की जिंदगी को महत्त्व देता है क्योंकि वे उस के भविष्य के जामिन होते हैं.

‘‘आज के बाद बच्चों को हरगिज बाहर नहीं जाने देना,’’ सिरीकंठ ने पत्नी को सतर्क किया और स्वयं इसी उधेड़बुन में कमरे के चक्कर लगाता रहा कि न जाने आगे क्या होने वाला है.

‘मुझे मालूम था कि ऐसा ही होगा मगर विशंभर ने मु?ो रोक लिया. मैं तो कब का यहां से चला गया होता,’ वह बड़बड़ाने लगा. फिर पत्नी की तरफ संबोधित हुआ, ‘‘विशंभर को खबर कर दें. अब तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘किस विशंभर को?’’ विशंभर का नाम सुनते ही शिवरानी के तनबदन में आग लग गई, ‘‘कितने भोले हैं आप. विशंभर…हुं…’’

‘‘क्या हुआ विशंभर को?’’

‘‘होना क्या था. वे लोग तो अंधेरा छटने से पहले ही घर छोड़ कर जा चुके हैं.’’

‘‘सच कहती हो?’’ उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उस का सगा भाई ऐसा कर सकता है. वह कई दिनों से विशंभर को यह सम?ाने की कोशिश कर रहा था कि अब हम यहां सुरक्षित नहीं हैं. सभी लोग घाटी छोड़ कर जा रहे हैं. हमें भी जितनी जल्दी हो सके चले जाना चाहिए. उस ने अपनी आंखों से हजारों आतंक पीडि़त लोगों को अपने घर छोड़ कर पलायन करते हुए देखा था.

बड़े भाई से हमेशा टका सा जवाब मिलता, ‘‘सिरी, तुम डरपोक हो. ऐसी घटनाएं तो होती ही रहती हैं. आजादी से पहले भी हुई थीं और आजादी के बाद भी हुईं. 10-15 दिन में सब ठीक हो जाएगा.’’

भाई का जवाब सुन कर सिरीकंठ को अपनी कायरता पर शर्म आ जाती. सिरीकंठ सूचना विभाग में हेडक्लर्क था इसलिए ताजा खबरें गरम हवा की तरह देरसवेर उस के कानों तक पहुंच ही जातीं. इस में अब कोई संदेह नहीं था कि इस बार उस की पूरी जातबिरादरी को घाटी से पलायन करना ही पड़ेगा. इतिहास साक्षी है कि जालिमों से बचने के लिए पहले भी कई बार कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया फिर भी कश्मीर इन लोगों से पूरी तरह खाली नहीं हुआ, लेकिन अब आतंक के तेवर ही बदले हुए थे. यही कारण था कि वह बारबार अपने भाई से परामर्श करता.

सिरीकंठ को इस बात का तनिक भी दुख नहीं हुआ कि उस के बड़े भाई ने जाने से पहले उसे बताया तक नहीं. वे भाइयों की तरह रहे ही कब थे. देखा जाए तो उस की जाति वालों की यह विशेषता है कि जियो तो अकेले जियो, मरो तो अकेले मरो. वह जाति का ब्रह्मण था. ब्राह्मणों में राजपूतों की तरह भाईचारा नहीं होता. हर व्यक्ति अपने को तीसमार खां सम?ाता है. अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के सामने समुदाय का कोई महत्त्व नहीं होता. सिरीकंठ और विशंभर के परिवारों का मेलमिलाप केवल पूजा तक ही सीमित था और वह भी मजबूरी में.

सिरीकंठ अपराधियों की तरह अपनी पत्नी के सामने खड़ा रहा. उसे कुछ सूझा ही नहीं रहा था. टेलीफोन करना चाहा, लाइन खराब थी. बाहर जाना खतरे से खाली न था. करता भी तो क्या?

जिंदगी में पहली बार वह अपने को असहाय महसूस करने लगा. उस की पत्नी भी परेशान और बेबस थी. कभी पति के कमरे में दाखिल होती तो कभी बच्चों के कमरे में जाती.

गोलियों की आवाजें लगातार आ रही थीं. स्टेनगन की निरंतर फायरिंग से कान ?ान?ानाने लगे थे. उन्हें पता नहीं था कि गोलियां कौन चला रहा है. आतंकवादी या सुरक्षाबल. दूर से गोलियां चलने की आवाजें कई बार आईं और फिर कहीं नजदीक ही राकेट के फटने की आवाज आई. धमाके से सारा मकान हिल गया.

सहमी हुई शिवरानी ने मकान की सारी खिड़कियां और दरवाजे बंद कर दिए. हर खिड़की पर परदा डाल दिया ताकि मकान के अंदर रोशनी की किरण भी प्र?वेश न कर सके. मियांबीवी दोनों चटाई पर निस्तब्ध दुबके बैठे रहे.

बाहर की हलचल के बारे में केवल टीवी या रेडियो पर कोई सूचना मिल सकती थी मगर उस का स्विच औन करने का किस में साहस था. आशंका इस बात की थी कि कहीं कोई आवाज बाहर गई तो न जाने क्या प्रलय आ जाए.

शिवरानी को न जाने क्या सूझा. वह उठी और अपने गहने और नकदी पोटली में समेट कर ले आई. ऐसी स्थिति में औरत स्त्री धन को ही अपना आखिरी सहारा मान लेती है. कुछ देर बाद वह फिर दबे कदमों से अंदर जा कर थोड़े कपड़े उठा लाई और उस की गठरी बांधने लगी. सिरीकंठ को उस की इन हरकतों पर हैरानी हो रही थी, लेकिन वह चुपचाप देखता रहा.

ऐसी परिस्थितियों में समय काटे नहीं कटता. जब मौत सिर पर मंडराती है तो जीवन बो?ा सा लगता है. हर सांस चुभने लगती है. आंखों का झपकना भी सहन नहीं होता.

इस बीच बच्चे भी जाग गए. घर की खामोशी देख कर उन्होंने वस्तुस्थिति का स्वयं ही अनुमान लगा लिया. बबली को दोचार दिन पहले ही स्कूल में किसी सहेली ने सचेत किया था, ‘‘बबली, तुम लोगों को यहां से जाना पड़ेगा. मेरे भैया कहते थे कि जैसे अफगानिस्तान से रूसी फौजों को खदेड़ दिया गया वैसे ही हिंदुस्तानी फौज को भी कश्मीर से जाना पड़ेगा. वादी में बहुत सारे अफगानी मुजाहिद घुस आए हैं. वे हमें आजाद करवाएंगे.’’

बबली ने जैसे ही यह खबर अपनी मां को सुनाई, वे भी चौकन्ना हो गईं. मगर बच्चों की खातिर मां ने बातों को न ज्यादा तूल दिया और न ही कोई महत्त्व.

बाहर फिर जोरदार धमाका हुआ. बच्चे आ कर मांबाप की बगल में दुबक गए. वे अपनी सांसों के उतारचढ़ाव को रोकने का प्रयास कर रहे थे ताकि कोई आवाज बाहर न निकले.

जैसेतैसे दिन चढ़ आया. बाहर सड़क पर फौजी गाडि़यों के आनेजाने की आवाजें आने लगीं. सिरीकंठ ने साहस बटोर कर खिड़की का परदा जरा सा हटाया और नीचे सड़क पर नजर दौड़ाई. सूनी सड़क पर दूरदूर तक कहीं कोई मुसाफिर भी नजर नहीं आ रहा था. परंतु भीड़ ने कल रात पुलिस पर जो पथराव किया था उस कारण रास्ते पर पत्थर और टूटीफूटी ईंटें इधरउधर बिखरी पड़ी थीं. सामने से पुलिस की एक गश्ती जीप गुजरी. उस के अंदर से कोई आदमी गला फाड़फाड़ कर यह घोषणा कर रहा था कि शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है.

दोनों ने राहत की सांस ली. उन्हें ऐसा लगा जैसे मौत कुछ देर के लिए टल गई हो. इस प्रकार जीवन और मृत्यु के बीच पूरे परिवार ने 3 दिन और 3 रातें गुजारीं. तीनों दिन कर्फ्यू लगातार 24 घंटे जारी रहा. कर्फ्यू के दौरान सुरक्षाकर्मी सड़कों पर गश्त लगाते रहे. आवश्यक वस्तुएं लाने के लिए भी ढील नहीं दी गई. सभी लोग अपनेअपने मकानों में कैद थे.

सिरीकंठ चाहता था कि कर्फ्यू इसी तरह लगा रहे और अंत तक जारी रहे. उसे भूख से तड़पतड़प कर मरना स्वीकार था पर अपनी मासूम बच्चियों की दुर्दशा देखना मंजूर न था.

3 दिन के बाद 1 घंटे की ढील दी गई. लोग बाजारों में ऐसे निकल आए जैसे कैदी जेल से छूटे हों. समय कम था. इसलिए सभी दौड़तेभागते नजर आ रहे थे.

इस अवसर का लाभ उठा कर शिवरानी ने साहस बटोरा और मकान के मुख्यद्वार तक पहुंच गई. वहां सुरक्षाकर्मी सावधानीपूर्वक अपने हाथों में राइफल लिए हुए खड़े थे. उस ने विनम्रतापूर्वक एक सिपाही को आवाज दी :

‘‘सुनो भैया, कर्फ्यू में यह छूट कब तक रहेगी?’’

‘‘बस, 1 घंटा,’’ काले भुजंग गठीले सिपाही ने अपनी मूंछों को ताव देते हुए कर्कश स्वर में उत्तर दिया.

‘‘भैया, आप हमारी सहायता कर सकेंगे. हम 3 दिन से परेशान हो रहे हैं?’’ शिवरानी विनम्रता से फिर बोली.

सिपाही ने इस सुंदर औरत की विवशता को देख कर अपने स्वर में थोड़ी नरमी लाते हुए कहा, ‘‘हां, क्यों नहीं. कहो, क्या बात है?’’ उस की नजर शिवरानी के गदराए बदन पर फिसल रही थी.

‘‘भैया, हमें जम्मू जाना है. अगर किसी ट्रक या गाड़ी का प्रबंध करवा दें तो हम आजीवन आप के आभारी रहेंगे. 2 छोटेछोटे बच्चे हैं नहीं तो वे मर जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं देखता हूं,’’ सैकड़ों ट्रक और गाडि़यां भागते लोगों को ढो रही थीं. हर जगह पलायन करने वालों का तांता लगा हुआ था. टिकट या रेट के बारे में कभी किसी ने कोई प्रश्न न पूछा. जिस को जो वाहन मिल जाता उसी में कूद पड़ता. किसी ने भी मुड़ कर उस वादी को न देखा जहां उस ने जिंदगी की हर धूपछांव देखी थी.

सिपाही ने वायरलैस पर न जाने किस से बात की. मुड़ कर देखा औरत गायब थी. वह अपना सामान और परिवार लाने के लिए भीतर जा चुकी थी.

15 मिनट के बाद मुख्यद्वार के सामने एक ट्रक रुका जिस में पहले ही से लोग खचाखच भरे हुए थे.

सिरीकंठ और उस के बालबच्चे 3 दिन की कैद के बाद बाहर निकल आए और सीधे ट्रक की ओर दौड़ते चले गए. शिवरानी ने जल्दी से मुख्यद्वार पर ताला लगाया और वह भी ट्रक की ओर दौड़ती चली गई.

ट्रक पर चढ़ने से पहले उस के दिल में सहसा ही एक विचार उठा. वह उस सफेद क्रास को फिर से देखना चाहती थी, जो आतंकवादियों ने मुख्यद्वार पर बनाया था. वह मुड़ी और मुख्यद्वार की ओर लपकी. उस ने सफेद निशान को ढूंढ़ने का बहुत प्रयास किया. 3 दिन के बाद अब उसे यह भी याद नहीं था कि वह निशान दरवाजे के किस ओर बना हुआ था. वह अपने दिमाग पर जोर डालने लगी पर कुछ भी याद न आ रहा था.

शिवरानी को कहीं कोई निशान नजर नहीं आया. उस ने एक बार फिर दरवाजे पर ऊपर से नीचे तक निगाह दौड़ाई. मगर वहां कुछ भी न था. न सफेद क्रास और न ही उस का कोई निशान. शिवरानी हैरान थी कि वह क्रास जो उस ने 3 दिन पहले अपनी आंखों से देखा था, कहां चला गया. क्या वह निशान उस के मन का भ्रम था या कोई सपना? उस की सम?ा में कुछ भी न आ रहा था.

पलट कर बोझल कदमों से वह ट्रक की तरफ बढ़ती चली गई. उस के पति ने उस का हाथ थाम कर उसे ट्रक पर चढ़ा लिया और फिर ट्रक डीजल का काला धुआं छोड़ता हुआ आगे बढ़ने लगा.

लंबीलंबी मूंछों वाला काला भुजंग सिपाही खूबसूरत शिवरानी को एकटक देखता रहा. उस की नजरें लगातार भागते हुए ट्रक का पीछा कर रही थीं.

हनी ट्रैप से बुझी बदले की आग

पश्चिमी दिल्ली के मादीपुर इलाके में रहने वाला 28 वर्षीय मेहताब प्रौपर्टी डीलिंग का काम करता था. वह रात 9-10 बजे तक अकसर घर आ जाता था. 3 अगस्त, 2014 को नियत समय पर न तो वह घर आया और न ही उस का फोन मिल रहा था. इस से घर वाले बहुत परेशान हो गए. बड़े भाई मेहराज खान ने मेहताब के जानने वाले कई लोगों को फोन किया लेकिन किसी से भी उस के बारे में जानकारी नहीं मिली.

उस समय आधी रात बीत चुकी थी. इतनी रात में उसे कहां ढूंढा जाए, यह बात वह समझ नहीं पा रहे थे. मेहताब की चिंता में घर वालों को रात भर नींद नहीं आई. अगले दिन 4 अगस्त को मेहराज खान पुलिस चौकी मादीपुर पहुंच गया. चौकी इंचार्ज पवन कुमार दहिया को छोटे भाई के गायब होने की बात बता कर उस की गुमशुदगी लिखा दी.

मेहताब की गुमशुदगी दर्ज कराने के बाद चौकी इंचार्ज पवन कुमार दहिया ने इस की जांच हेडकांस्टेबल सतीश कुमार को करने के निर्देश दिए. सतीश कुमार ने सब से पहले मेहताब का हुलिया बताते हुए गुमशुदगी की सूचना दिल्ली के समस्त थानों में वायरलैस द्वारा प्रसारित करा दी. इस के बाद उन्होंने आसपास के अस्पतालों में भी संपर्क कर यह जानने की कोशिश की कि करीब 28 साल का कोई दुर्घटना का शिकार व्यक्ति दाखिल तो नहीं हुआ है.

उन्होंने मेहताब के घर वालों से भी बात की और पूछा कि मेहताब का किसी से कोई लड़ाईझगड़ा तो नहीं चल रहा. घर वालों ने पुलिस को बता दिया कि उस की किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी.

पुलिस अपने तरीके से मेहताब को तलाशती रही. उसे गायब हुए महीना से ज्यादा बीत चुका था, लेकिन उस का कहीं पता नहीं चला. मेहताब के घर वाले पुलिस पर अंगुली उठाने लगे.

उन्होंने पंजाबी बाग इलाके के एसीपी हरचरण वर्मा से मुलाकात कर मेहताब खान के गायब होने और जांच अधिकारी की निष्क्रियता की बात बताई. मादीपुर पुलिस चौकी थाना पंजाबी बाग के अंतर्गत आती है. इसलिए एसीपी हरचरण वर्मा ने इस मामले में अज्ञात लोगों के खिलाफ अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करने के निर्देश पंजाबी बाग के थानाप्रभारी ईश्वर सिंह को दिए.

मेहराज की शिकायत पर 12 सितंबर, 2014 को पंजाबी बाग थाने में अज्ञात लोगों के खिलाफ भादंवि की धारा 365 (अपहरण) के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया गया और जांच एसआई अनूप कुमार को सौंप दी गई.

मेहताब के महीने भर से गायब होने की जानकारी पश्चिमी दिल्ली के अतिरिक्त आयुक्त रणवीर सिंह को मिली तो उन्होंने एसीपी हरचरण वर्मा के नेतृत्व में एक पुलिस टीम बनाई जिस में इंसपेक्टर राजीव विमल, एसआई पवन कुमार दहिया, अनूप कुमार, हेडकांस्टेबल सतीश कुमार, सुजीत, कुलदीप, महिला कांस्टेबल अंजूबाला आदि को शामिल किया गया.

रिपोर्ट दर्ज होते ही पुलिस सक्रिय हो गई. पुलिस ने मेहताब के फोन की कालडिटेल्स निकलवाई. कालडिटेल्स का अध्ययन करने पर पता चला कि जिस दिन मेहताब गायब हुआ था, उसी दिन उस के मोबाइल पर आइडिया कंपनी के एक नंबर से सुबह साढ़े 10 बजे काल आई थी.

इस के अलावा इसी नंबर पर मेहताब की 10-15 बार रोजाना बात होती थी. इस से यह लगा कि मेहताब के उस व्यक्ति से नजदीकी संबंध रहे होंगे तभी तो उस से इतनी बात होती थी.

पुलिस अब उस शख्स से मिलना चाहती थी. पुलिस ने उस फोन नंबर को मिलाया तो वह भी स्विच्ड औफ मिला. संबंधित फोन कंपनी से फोनधारक का पता निकलवाया तो पता चला कि वह नंबर बिहार के तौहीर नाम के व्यक्ति की आईडी पर लिया गया था और यह नंबर 28 जून को एक्टिवेट हुआ था. पुलिस ने जब जांच की तो बिहार का यह पता फरजी पाया गया.

इस जांच में पुलिस टीम को यह भी जानकारी मिली कि उक्त फोन नंबर 867505014919160 आईएमईआई नंबर के फोन में चल रहा था. पुलिस टीम ने अब यह जानने की कोशिश की कि इस आईएमईआई नंबर के फोन में 28 जून, 2014 से पहले किस नंबर का सिम एक्टिव था.

पुलिस टीम इस काम में दिनरात एक करते हुए जुटी हुई थी. टीम को जांच में यह पता लग गया कि 28 जून से पहले उस फोन में किस नंबर का सिम काम कर रहा था. जांच में पता चला कि वह नंबर दिल्ली के वजीराबाद गांव के रहने वाले आसिफ खान पुत्र ईनाम खान के नाम से लिया गया था.

आसिफ खान से पूछताछ करने के बाद पुलिस उस शख्स तक पहुंच सकती थी जिस की मेहताब खान से रोजाना 10-15 बार बातें होती थीं. आसिफ के पास जाने से पहले इंसपेक्टर राजीव विमल ने मेहताब के भाई मेहराज से पूछा कि क्या वह वजीराबाद गांव में रहने वाले किसी आसिफ खान नाम के व्यक्ति को जानता है?

आसिफ का नाम सुनते ही मेहराज चौंक गया. आसिफ को भला वह कैसे भूल सकता था. उस ने आसिफ की पूरी कहानी इंसपेक्टर राजीव विमल को सुना दी. उस से पता चला कि मेहताब आसिफ खान का दूर के रिश्ते का चचेरा भाई है. आसिफ पहले मादीपुर में ही रहता था.

करीब 3 साल पहले की बात है. मेहताब के चचेरे भाई शाने आलम की बहन मुमताज का आसिफ के भतीजे रवीश खान से चक्कर चल गया था. कुछ दिनों बाद वह मुमताज को ले कर भाग गया. यह बात मेहताब और उस के भाइयों को पता चली तो वे सब शिकायत करने आसिफ खान के घर पहुंचे. शाने आलम और मेहताब गुस्से में थे. शिकायत के दौरान ही दोनों ओर से गरमागरमी हो गई. तब उन लोगों ने आसिफ खान की जम कर पिटाई की.

जिस तरह मोहल्ले में आसिफ की बेइज्जती हुई उसे देखते हुए उस ने वहां रहने का विचार ही छोड़ दिया. उस ने अपना मादीपुर का मकान बेच दिया और दिल्ली के ही वजीराबाद गांव में मकान खरीद कर रहने लगा. वहीं पर वह प्रौपर्टी डीलिंग का धंधा करने लगा. तब से वह वजीराबाद में ही रह रहा है. उधर मुमताज और रवीश खान ने भी निकाह कर लिया.

मेहराज से बात करने के बाद इंसपेक्टर राजीव विमल को लगा कि कहीं अपमान का बदला लेने के लिए आसिफ ने मेहताब के साथ कोई साजिश तो नहीं रची.

मादीपुर के चौकी इंचार्ज पवन कुमार दहिया के नेतृत्व में 13 सितंबर को एक पुलिस टीम आसिफ खान के वजीराबाद गांव स्थित घर रवाना कर दी. आसिफ खान घर पर ही मिल गया. उसे हिरासत में ले लिया. थाने पहुंच कर पुलिस ने मेहताब खान की गुमशुदगी के बारे में उस से पूछताछ की.

आसिफ खान पहले तो मेहताब के बारे में अनभिज्ञता जताते हुए पुलिस को गुमराह करता रहा लेकिन पुलिस ने जब उस से सख्ती से पूछताछ की तो उसे सच्चाई बताने के लिए मजबूर होना पड़ा. उस ने बताया कि उस ने अपने साथियों के साथ मिल कर उस की हत्या कर के लाश गंगनहर में फेंक दी थी.

उस ने अपने चचेरे भाई की हतया क्यों की? पूछने पर आसिफ ने पुलिस को मेहताब की हत्या करने की जो कहानी बताई, वह इस प्रकार निकली.

सन 2011 में आसिफ का भतीजा रवीश खान जब मेहताब की चचेरी बहन मुमताज को भगा कर ले गया तो मेहताब और उस के भाइयों ने आसिफ खान की जम कर पिटाई की थी. उस समय मोहल्ले के ही तमाम तमाशबीन उस के घर के सामने खड़े थे.

आसिफ खान भी प्रौपर्टी डीलर था. उस की भी क्षेत्र में अच्छी जानपहचान और इज्जत थी. मोहल्ले वालों के सामने पिटाई होने पर वह खुद को अपमानित महसूस कर रहा था.

इस बेइज्जती के तीर ने आसिफ के दिल को इतना जख्मी कर दिया कि उस ने उसी समय तय कर लिया कि वह मेहताब से इस का बदला जरूर लेगा. इस घटना के 15-20 दिनों बाद आसिफ ने मादीपुर वाला मकान बेच कर दिल्ली के वजीराबाद गांव में एक मकान खरीद लिया और वहीं पर प्रौपर्टी डीलिंग का काम करने लगा.

वजीराबाद गांव में आसिफ के घर के पास ही जाहिद उर्फ सलमान रहता था. पड़ोस में रहने की वजह से आसिफ की जाहिद से दोस्ती हो गई. बाद में वह आसिफ के साथ ही प्रौपर्टी डीलिंग का काम करने लगा. मादीपुर छोड़ने के बाद भी आसिफ मेहराज से मिले अपमान को नहीं भूला था. उसी दौरान जाहिद की मार्फत आसिफ की शाहरुख से मुलाकात हुई.

शाहरुख दिल्ली के शास्त्री पार्क इलाके का रहने वाला था. उस की ताले बेचने की दुकान थी. शाहरुख जाहिद का दोस्त था. तीनों साथसाथ खातेपीते थे. खातेपीते समय आसिफ अपने मन की टीस दोस्तों से जाहिर कर देता था.

एक बार की बात है. आसिफ खजूरी खास से कार द्वारा अपने घर लौट रहा था. उस ने वजीराबाद पुल के पास यमुना घाट पर एक महिला बैठी देखी. 28-30 साल की वह महिला बहुत खूबसूरत थी. वह महिला एकदम अकेली थी. उसे देख कर आसिफ अचानक रुक गया और कार को सड़क किनारे खड़ी कर के उसे निहारने लगा. वहां खड़ेखड़े यह सोचने लगा कि आखिर यह महिला नदी के घाट पर अकेली क्यों बैठी है?

कुछ देर बाद आसिफ खुद ही उस के पास पहुंच गया. उसे देख कर वह महिला घबराई नहीं बल्कि वह पानी की ओर टकटकी लगाए बैठी रही. आसिफ ने उस से पूछा, ‘‘मैडम, मैं काफी देर से देख रहा हूं कि आप इस सुनसान जगह पर अकेली बैठी हैं. वैसे तो मुझे पूछने का कोई हक नहीं, फिर भी मैं जानना चाहता हूं कि आप यहां किसलिए बैठी हैं?’’

‘‘मैं बहुत दुखी और परेशान हूं. इस दुनियादारी से ऊब चुकी हूं इसलिए अपनी जीवनलीला खत्म करने के लिए यहां आई हूं.’’ वह महिला बोली.

आसिफ खान समझ गया कि यह महिला खुदकुशी करने आई है. वह उसे समझाते हुए बोला, ‘‘मैडम, खुदकुशी किसी समस्या का समाधान नहीं है. जिंदगी में तमाम तरह की समस्याएं आती हैं तो ऐसा नहीं कि हम समस्याओं का हल ढूंढने के बजाय आत्महत्या का रास्ता अपनाएं. यदि आप मुझे अपनी समस्या बताएंगी तो हो सकता है कि मैं आप की कोई हेल्प कर सकूं.’’

आसिफ के पूछने पर उस महिला ने अपना नाम परवीन जहां बताया. उस ने बताया कि करीब 3 साल पहले उस के पति की मौत हो गई. उस के पास एक बेटा और एक बेटी है जिन्हें वह भजनपुरा में अपनी एक जानकार के पास छोड़ आई है. पति के मरने के बाद जैसेतैसे कर के वह अपना और बच्चों का पेट भर रही थी. लेकिन अब उस के सामने भूखों मरने की हालत हो गई है.

आसिफ ने परवीन को समझाबुझा करकार में बिठाया और अपने घर ले गया. पति के साथ एक अनजान महिला को देख कर आसिफ की पत्नी चौंक गई. उस ने पति से पूछा तो आसिफ ने उसे परवीन की सच्चाई बता दी.

सब से पहले आसिफ ने परवीन को खाना खिलाया और बाद में उसे भजनपुरा छोड़ आया. उस समय उस ने परवीन को खर्चे आदि के लिए एक हजार रुपए भी दे दिए थे.

परवीन तो अपनी जीवनलीला समाप्त करने जा रही थी. एक अनजान आदमी ने उसे बचा कर एक नई जिंदगी दी. आसिफ की इस दरियादिली की वह तहेदिल से शुक्रगुजार थी. आसिफ की परवीन जहां से हमदर्दी तो थी ही, इस के अलावा वह उस की खूबसूरती पर फिदा भी हो गया था. इसलिए वह उस से नजदीकी बनाना चाहता था.

आसिफ को परवीन के ठिकाने का पता लग चुका था, इसलिए वह समय निकाल कर उस से मुलाकात करने लगा. उधर परवीन भी बेसहारा थी. उस का झुकाव भी आसिफ की तरफ बढ़ता गया. नतीजतन दोनों के बीच शारीरिक संबंध बन गए. वह परवीन को आर्थिक सहयोग करता रहा. भजनपुरा वाले कमरे पर आसिफ परवीन से चोरीछिपे ही मिल पाता था. वह अब ऐसा ठिकाना ढूंढने लगा जहां उसे उस से मिलने में असुविधा न हो.

यही सोच कर आसिफ ने परवीन को शास्त्री पार्क की गली नंबर-2 में एक कमरा किराए पर दिलवा दिया, जहां पर वह अपने दोनों बच्चों के साथ रहने लगी. कमरे का किराया और परवीन के घर का खर्चा आसिफ ही उठाता था. शास्त्री पार्क के कमरे में आसिफ और परवीन की रासलीला बिना किसी डर के चलती रही.

आसिफ खान को मादीपुर से वजीराबाद आए हुए 3 साल बीत चुके थे लेकिन मेहताब और उस के भाइयों द्वारा की गई पिटाई को वह भुला नहीं सका था. जब भी वह उस घटना को याद करता, अपमान का जख्म फिर से ताजा हो जाता था.

मादीपुर उस के यहां से काफी दूर था. वह अब कोई ऐसा जरिया ढूंढने लगा जिस से मेहताब उस की मनमुताबिक जगह पर आ जाए, जहां वह उसे अच्छी तरह से सबक सिखा सके.

इस काम के लिए उसे परवीन जहां ही सही लगी. उसे विश्वास था कि परवीन उस के बताए किसी काम को करने से मना नहीं करेगी. इस साल जुलाई के महीने में उस ने मेहताब से बदला लेने की बात परवीन जहां को बताई. तब परवीन ने उसे भरोसा दिया कि वह हर तरह से उस की सहायता करने को तैयार है. परवीन की बात सुन कर आसिफ ने एक योजना बनाई.

योजना के अनुसार उस ने बिहार के तौहीर नाम के व्यक्ति के नाम से बने फरजी वोटर आईडी से आइडिया कंपनी का सिमकार्ड ले लिया. वह कार्ड अपने मोबाइल फोन में डाल कर परवीन को दे दिया. इस के अलावा उस ने अपने दुश्मन मेहताब का फोन नंबर उसे देते हुए कहा कि वह किसी भी तरह से मेहताब को अपने रूपजाल में फांस ले. इस के लिए उस ने परवीन को 5 हजार रुपए भी दिए.

परवीन के लिए यह काम बहुत आसान था. उस ने अगले दिन दोपहर के समय मेहताब को मिस काल की. मेहताब उस समय खाली था. बात शुरू हुई तो मेहताब को भी परवीन की बातों में दिलच्सपी आने लगी. उसे उस की बातें अच्छी लगने लगीं.

अगले दिन रात के समय परवीन जहां ने मेहताब को फिर फोन किया. चूंकि दोनों का परिचय हो चुका था इसलिए इधरउधर की बातें करते हुए परवीन बातों का दायरा बढ़ाने लगी. मेहताब भी अविवाहित था. वह उस की बातों के आधार पर ही उस के रूपसौंदर्य की कल्पना करने लगा. इस तरह दोनों के बीच अब रोजाना बातें होने लगीं.

परवीन उस से जल्द मुलाकात कर अपने हुस्न का दीदार करा देना चाहती थी. इसलिए एक दिन उन्होंने पंजाबी बाग मेट्रो स्टेशन के गेट नंबर-1 पर मुलाकात करने की योजना बना ली.

मेहताब मादीपुर से पंजाबी बाग मेट्रो स्टेशन के गेट नंबर एक पर पहुंच चुका था. वहां पहुंचने पर उसे कोई महिला दिखाई नहीं दी. वह इधरउधर देखने लगा कि कहीं परवीन आड़ में तो नहीं खड़ी है. इधरउधर नजर दौड़ाने के बाद वह नहीं दिखी तो उस ने परवीन को फोन किया. परवीन ने बताया कि वह अभी रास्ते में है. 5 मिनट में पंजाबी बाग पहुंच जाएगी. मेहताब वहीं पर खड़ा परवीन का बड़ी बेसब्री से इंतजार करने लगा.

वह मन ही मन सोच रहा था कि पता नहीं परवीन कैसी शक्लोसूरत की होगी. कुछ देर बाद उसे मेट्रो स्टेशन से उतर कर एक महिला आती दिखाई दी जो गेट नंबर-1 की सीढि़यों के पास आ कर रुक गई. कढ़ाईदार जामुनी रंग का सूट पहने वह महिला बहुत सुंदर थी. अब मेहताब सोचने लगा कि पता नहीं यह परवीन है या कोई और.

पुष्टि करने के लिए उस ने उसी समय अपने फोन से परवीन का नंबर मिलाया. घंटी बजने के बाद उस महिला ने अपने हाथ में थामे छोटे पर्स से मोबाइल निकाला और बात करने लगी.

यह देख कर मेहताब खुश हो गया क्योंकि परवीन की जैसी कल्पना उस ने अपने दिमाग में की थी, वह उस से कहीं ज्यादा खूबसूरत निकली. दोनों एकदूसरे को देख कर मुसकरा पड़े.

वहां कुछ देर बात करने के बाद मेहताब उसे पंजाबी बाग के एक रेस्टोरेंट में ले गया. वहां उस ने उस की खूब खातिरदारी की. पहली मुलाकात से दोनों ही खुश थे. दोनों ने वहां खूब बातें कीं. इस के बाद परवीन वहां से मेट्रो द्वारा घर लौट गई.

मेहताब से मिलने के बाद परवीन को विश्वास हो गया कि वह अपने मकसद में सफल हो जाएगी. घर लौटने के बाद उस ने आसिफ को सारी बातें बता दीं.

परवीन जहां से मिलने के बाद मेहताब के दिल की धड़कनें और तेज हो गईं. अब तो जब भी उसे फुरसत होती वह परवीन जहां का नंबर मिला देता. फिर उन की काफी देर तक बातें होती रहतीं. इस तरह दिन में कईकई बार वह फोन पर बतियाते.

उन के बीच बातों का दायरा बढ़ता गया. वे एकांत में भी मिलने लगे जिस से उन के बीच की दूरियां भी मिट गईं. यानी उन के बीच शारीरिक संबंध भी बन गए. इस के बाद उन के बीच यह सिलसिला चलता रहा.

परवीन ने अपने हुस्न के जाल में मेहताब को पूरी तरह काबू कर लिया था. मेहताब को यह बात पता नहीं थी कि परवीन का असली मकसद क्या है. वह उसे अपनी प्रेमिका समझता था.

जुलाई, 2014 के अंतिम सप्ताह में परवीन ने आसिफ से कहा, ‘‘मछली जाल में फंस गई है. अब यह बताओ उस का शिकार कब और कहां करना है?’’

‘‘परवीन, अभी 29 जुलाई को ईद है. ऐसा करते हैं ईद के बाद तुम उसे शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन ले आना. वहां से हम उसे कहीं और ले जाएंगे.’’ आसिफ ने उसे बताया.

आसिफ खान ने मेहताब से बदला लेने की पूरी योजना बना ली. योजना में उस ने अपने दोस्त जाहिद उर्फ सलमान और शाहरुख को भी शामिल कर लिया.

3 अगस्त, 2014 को योजना के अनुसार परवीन जहां ने मेहताब को सुबह 10 बजे फोन कर के शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन पर मिलने के लिए बुलाया. मेहताब उस से मिलने के लिए तैयार हो गया. उस ने कहा कि वह एकडेढ़ बजे तक शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन पहुंच जाएगा. परवीन ने यह बात आसिफ खान को बता दी.

आसिफ ने योजना के अनुसार, अपनी सैंट्रो कार नंबर डीएल3सीएबी-7021 में एक रस्सी का टुकड़ा और जूट की बोरी रख ली. इस के बाद उस ने शाहरुख को अपने घर बुलाया. शाहरुख उस के पास पहुंच गया तो उसे कार में बिठा कर वह जाहिद के घर की तरफ चल दिया. जाहिद को उस के घर से बुला कर उसे भी कार में बिठा लिया. दोनों दोस्तों को ले कर वह दोपहर साढ़े 12 बजे शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन पहुंच गया.

परवीन जहां शास्त्री पार्क में रहती ही थी. वह भी उधर से मेट्रो स्टेशन पहुंच गई. वह मेहताब से फोन द्वारा संपर्क बनाए हुए थी. करीब डेढ़ बजे मेहताब शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन पहुंचा. परवीन भी मेट्रो स्टेशन पहुंच गई. वह मेहताब से बातें करते हुए उसे स्टेशन से नीचे उतार कर आसिफ की कार के पास ले आई. जैसे ही मेहताब कार के नजदीक पहुंचा जाहिद और शाहरुख ने उसे कार में खींच कर उस का मुंह दबोच लिया. फिर तमंचा दिखा कर उसे चुप रहने को कहा.

आसिफ ने तुरंत कार चला दी. इस से पहले उस ने परवीन का मोबाइल अपने पास रख लिया था. वह तेज गति से कार चलाता हुआ मेरठ की तरफ निकल गया. रास्ते में शाहरुख और जाहिद ने मेहताब की बहुत पिटाई की. मेरठ से निकलते ही आसिफ पिछली सीट पर आ गया और जाहिद कार चलाने लगा.

आसिफ के दिल में बदले की चिंगारी सुलग रही थी. उस ने अपने हाथों से मेहताब की पिटाई करनी शुरू कर दी. मेहताब के शरीर पर तमाम गंभीर चोटें आई थीं जिस से उसे बहुत दर्द हो रहा था. दर्द उस की सहनशक्ति से बाहर हो गया तो उस ने चिल्लाना शुरू कर दिया. उसी दौरान आसिफ ने कार में रखे रस्सी के टुकड़े से उस का गला घोंट दिया.

मेहताब की हत्या करने के बाद उन्होंने उस की लाश कार में पहले से रखी जूट की बोरी में डाल दी और जिस रस्सी से गला घोंटा था, उस से बोरी का मुंह बांध दिया. उन्होंने खतौली के पास से गुजर रही गंगनहर में वह बोरी डाल दी. वहीं पर उन्होंने मेहताब और परवीन के मोबाइल फोन भी फेंक दिए. लाश ठिकाने लगा कर वे सभी अपने घर लौट आए.

मेहताब से पूछताछ करने के बाद पुलिस ने 13 सितंबर को ही उस के साथियों जाहिद उर्फ सलमान, शाहरुख और परवीन जहां को भी गिरफ्तार कर लिया. सभी अभियुक्तों से पूछताछ करने के बाद पुलिस ने 14 सितंबर को उन्हें तीसहजारी न्यायालय में पेश कर उन का 3 दिनों का पुलिस रिमांड लिया.

रिमांड अवधि में पुलिस उन्हें खतौली ले गई और गोताखोरों के माध्यम से मेहताब की लाश ढूंढनी शुरू कर दी. कई किलोमीटर तक गोताखोर उस की लाश ढूंढते रहे लेकिन लाश नहीं मिली.

16 सितंबर को सभी आरोपियों को फिर से न्यायालय में पेश किया जहां से आसिफ को एक दिन के पुलिस रिमांड पर दे कर अन्य अभियुक्तों को न्यायिक हिरासत में भेज दिया. पुलिस ने आसिफ की निशानदेही पर उस की सैंट्रो कार भी बरामद कर ली.

आसिफ से विस्तार से पूछताछ करने के बाद न्यायालय में पेश कर उसे भी जेल भेज दिया. कथा लिखने तक सभी अभियुक्त जेल में बंद थे. मामले की विवेचना इंसपेक्टर राजीव विमल कर रहे हैं.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित. (मुमताज परिवर्तित नाम है)

बचपन से ही बौलीवुड फिल्मों का हिस्सा बनने की तमन्ना थी- एलनाज नौरोजी

ईरान की राजधानी तेहरान में जन्मी और जरमनी में पलीबढ़ीं एलनाज नौरोजी बहुमुखी प्रतिभा की धनी कलाकार हैं. मशहूर अंतर्राष्ट्रीय मौडल, डांसर, गायक, अभिनेत्री व निर्माता भी हैं वे. उन्होंने स्कूली शिक्षा के साथसाथ 14 साल की उम्र में अपना मौडलिंग का कैरियर शुरू कर दिया था. बचपन से ही बौलीवुड फिल्मों का हिस्सा बनने की तमन्ना उन्हें भारत खींच लाई.

उन का मानना है कि उन के पूर्वज भारतीय थे. उन्होंने न्यूयौर्क फिल्म अकादमी से अभिनय का कोर्स भी किया है. वे बर्लिन और लंदन मर्सिडीज बेंज फैशन वीक में ह्यूगो बौस के लिए रैंप वाक करने के साथ ही डायर और लैकोस्टे जैसे तकरीबन 100 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय ब्रैंडों के लिए मौडलिंग कर चुकी हैं.

यों तो बतौर अभिनेत्री उन की पहली फिल्म 2017 में प्रदर्शित पाकिस्तानी फिल्म ‘मान जाओ ना’ थी. उस के बाद पंजाबी फिल्म ‘खिदो खुंडी‘ में उन्होंने अभिनय किया. ‘हैलो चार्ली’ व ‘जुग जुग जियो’ के अलावा गुरु रंधावा के साथ ‘मेड इन इंडिया‘ और टोनी कक्कड़ के साथ ‘नागिन जैसे कमर हिला’ जैसे म्यूजिक वीडियो भी किए.

2018 में नैटफ्लिक्स इंडिया की वैब सीरीज ‘सैक्रेड गेम्स’ में नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ काम कर वे चर्चा में आईं. इस के बाद वे कुणाल खेमू के साथ जी5 की वैब सीरीज ‘अभय’ में नजर आईं तो वहीं वे हौलीवुड फिल्म ‘कंधार’ में गेरार्ड बटलर के साथ काम कर चुकी हैं. बहुप्रतिभा की धनी एलनाज नौरोजी ने मुक्ता पत्रिका के साथ बातचीत की.

आप डांसर, निर्देशक, निर्माता और अभिनेत्री हैं. आप आगे चल कर किस क्षेत्र में खुद को स्थापित करना चाहती हैं?

सच कहूं तो मुझे भी यकीन नहीं होता कि मैं इतना सबकुछ कर सकती हूं. वैसे, मु?ो खुद को किसी एक क्षेत्र में बांध कर रखना पसंद नहीं. मेरी इच्छा अभिनेत्री बनना था. 14 वर्ष की उम्र से मैं ने मौडलिंग करनी शुरू की. इंटरनैशनल मौडल के रूप में मैं ने कई देशों की यात्रा की. मैं हर काम को पूरी ईमानदारी, लगन व मेहनत के साथ करती हूं. मुझे पता है कि मैं अच्छी नृत्य निर्देशक नहीं हूं, इसलिए ‘लाला लव’ के म्यूजिक वीडियो के लिए नृत्य निर्देशक प्रिंस गुप्ता की सेवाएं लीं. प्रिंस ने ‘काला शा काला…’ को भी कोरियोग्राफ किया है, इसलिए मुझे उन के साथ काम करना अच्छा लगा.

आप बचपन से ही अभिनय को कैरियर बनाना चाहती थीं?

जी हां, मुझे बचपन से ही ऐक्टर बनना था. मैं बौलीवुड फिल्में देखते हुए बड़ी हुई हूं, इसीलिए मैं ने बौलीवुड में अपना कैरियर बनाना चाहा.

आप ने ईरानी फिल्मों में अभिनय करने के बजाय बौलीवुड का रुख क्यों किया?

बौलीवुड से जुड़ना तो मेरा बचपन से सपना रहा है. मेरे मातापिता ‘शोले’ जैसी फिल्मों के शौकीन रहे हैं.
आप गैरबौलीवुड पृष्ठभूमि से हैं,

इस वजह से क्या आप को ज्यादा संघर्ष करना पड़ा?

आप भी इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि अगर आप बौलीवुड से नहीं हैं तो आप के लिए कितनी मुश्किल होती है. मुझे भी तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा. हमें तो फिल्म के लिए औडिशन देने का अवसर भी नहीं मिलता. फिल्म सीधे स्टारपुत्रों के पास पहुंच जाती है पर मु?ो कभी भी संघर्ष करने से परहेज नहीं रहा. मेरी पहचान वैब सीरीज ‘सैक्रेड गेम्स’ से बनी, जिसे काफी लोग बौलीवुड का हिस्सा नहीं मानते हैं. मैं ने हिंदी फिल्म ‘हैलो चार्ली’ व ‘जुग जुग जियो’ के अलावा गुरु रंधावा के साथ म्यूजिक वीडियो

‘मेड इन इंडिया‘ भी किया है. आप ने अंतर्राष्ट्रीय फिल्म ‘कंधार‘ में अली जफर व स्कौटिश अभिनेता व फिल्म निर्माता गेरार्ड बटलर के साथ भी काम किया. इस फिल्म में गेरार्ड ने टौम हैरिस की भूमिका निभाई है, क्या कहना चाहेंगी?

फिल्म ‘कंधार’ में मैं ने शीना असादी का किरदार निभाया है. इस से अधिक नहीं बता सकती. इस फिल्म में गेरार्ड बटलर के साथ काम करना जादुई अनुभव रहा. वे निर्माता व सहकलाकार के रूप में भी बहुत मजेदार हैं. ‘कंधार‘ में अभिनय करना मेरे लिए एक ऐसा अनुभव है जिसे मैं कभी नहीं भूल सकती.
वैसे भी मुझे गेरार्ड की फिल्में देखना पसंद हैं. मु?ो उन की ‘टुमारो नेवर डाइज‘, ‘टेल औफ द ममी‘, ‘टाइमलाइन’ फिल्में बहुत पसंद हैं. मैं एक किशोरी के रूप में उन पर क्रश करती थी. कंधार के सैट पर वे किसी भी चीज का मजाक उड़ाने में सक्षम थे. वे अपनी कला के अलावा जीवन को ले कर ज्यादा गंभीर नहीं हैं.

वैसे इस फिल्म में गेरार्ड बटलर के साथ ही नवीद नेगहबान, अली फजल, बहादोर फौलादी, ट्रैविस फीमेल भी हैं. ‘कंधार’ अति रोमांचक फिल्म है. यह अमेरिका में प्रदर्शित हो चुकी है, जहां इसे काफी अच्छा रिस्पौंस मिला. कुछ दिनों पहले मुंबई में भी इस फिल्म को कुछ लोगों ने देखा और अली के साथ ही मेरे काम की भी तारीफ की. मेरा मानना है कि सही समय पर सही जगह पर होना हम कलाकारों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है.

बौलीवुड व हौलीवुड में काम करने में क्या अंतर महसूस किया?

हौलीवुड की कार्यशैली सब से जुदा है. यह एक पुराना, व्यावसायिक उद्योग है. मैं ने एक ईरानी निर्देशक, एक बौलीवुड निर्देशक और एक जरमन निर्देशक के साथ भी काम किया है. लेकिन हौलीवुड के निर्देशक रोमन वाग इन सभी से बेहद अलग लगे.

आप का गाना ‘ला ला लव…’ 10 मिलियन से अधिक बार देखा गया. इस पर क्या कहना चाहेंगी?

हम ने इस गाने को कोविड से पहले रिकौर्ड किया था पर कोविड के वक्त हम ने इसे रिलीज करने के बजाय रोक कर रखा. मैं ने सही समय का इंतजार किया. आखिरकार कुछ समय पहले हम ने इसे बिना किसी लेबल के स्वतंत्र रूप से जारी किया है. इसलिए यह मेरे लिए बहुत खास है. मैं ने इसे अपने दम पर रिलीज किया है. इसे अपनी आवाज में गाने के साथ ही मैं ने इस का निर्माण भी किया.

‘ला ला लव…’ गाने का विचार कैसे आया?

मैं एक बहुत जोशीला गाना चाहती थी. मसलन, क्लब सौंग या ग्रीष्मकालीन सौंग, जिसे सुन कर लोग नाचने पर मजबूर हो कर आनंद लें. वैसे तो आप भी जानते हैं कि मैं ने फिल्मों में कुछ गीत गाए और उन पर डांस भी किया है. फिल्म के सैट पर हमें नृत्य निर्देशक के आदेश का पालन करना होता है पर इस गाने के लिए मैं ने खुद ही सबकुछ किया है.

पिछले दिनों ईरान में जो कुछ घटा और जिस तरह से एक महिला महसा अमीनी की मौत हुई. उस पर क्या कहना चाहेंगी?

मैं पुलिसिया नैतिकता के खिलाफ हूं. पुलिस ने नैतिकता के बल पर उसे पीटपीट कर मार डाला. इस खबर से मेरे अंदर गुस्सा आया. ईरान में जुल्म का कोई अंत नहीं है. एलन मस्क ने हमारे लिए कुछ मदद की व्यवस्था की और कुछ मशहूर हस्तियों को हमारे लिए आवाज उठाते देखा, लेकिन यह पर्याप्त नहीं था.

जब मेरे देश के राष्ट्रपति को संयुक्त राष्ट्र में आमंत्रित किया गया तो मैं आश्चर्यचकित रह गई. संयुक्त राष्ट्र ने एक हत्यारे को क्यों आमंत्रित किया? उस वक्त मैं न्यूयौर्क जा कर उस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का हिस्सा बनना चाहती थी लेकिन शूटिंग में व्यस्त होने के चलते मैं ऐसा न कर सकी.

आप किस तरह के किरदार निभाना चाहती हैं?

मैं चुनौतीपूर्ण और कई लेअर वाला किरदार निभाना चाहती हूं. एक ऐसा किरदार जो मधुर व्यक्ति के रूप में सामने आता है लेकिन फिर अचानक पता चलता है कि वह दोहरे व्यक्तित्व का है या वह कोई मानसिक रोगी है, एक ऐसा चरित्र जो आप के अंदर के अभिनेता को बाहर लाए.

नाइट शिफ्ट में काम रहें अलर्ट

आजकल औफिस में पुरुषों के साथसाथ महिलाओं को भी नाइट शिफ्ट में काम करना पड़ता है. हालांकि कई औफिसेज में महिलाओं की सेफ्टी को ध्यान में रखते हुए उन्हें दिन की शिफ्ट में ही काम करने को कहा जाता है लेकिन जिन्हें लेट नाइट रुक कर काम करना पड़ता है, उन के मन में भय बना रहता है.

कई बार ऐसा होता है कि औफिस से घर लौटने में कैब द्वारा 12-1 बज जाता है. बेशक कैब की सुविधा औफिस की तरफ से हो लेकिन रात में सुनसान सड़क से जाते हुए या कैब ड्राइवर के प्रति मन में डर रहता है. ऐसी परिस्थितियों में आप को डरने के बजाय सावधानी बरतने की आवश्यकता है. यदि आप को भी औफिस से घर लौटते समय अकसर रात हो जाती है तो कुछ बातों का ध्यान रखें.

लेट नाइट शिफ्ट में काम करने वाली महिलाओं को अपने साथ सभी इमरजैंसी नंबर रखने चाहिए. इस के अलावा देर से काम करने वाली प्रत्येक प्रोफैशनल महिला को अपने घर के कम से कम 3 व्यक्तियों के कौन्टैक्ट नंबर स्पीड डायल पर लगा कर रखना चाहिए, जिस से कोई अनहोनी होने पर कौन्टैक्ट लिस्ट सर्च करने, नंबर सर्च करने में समय व्यर्थ न हो.

आप को हर समय अलर्ट रहना होगा. औफिस से लौटते समय चाहे आप कितनी भी थकी हुई हों लेकिन कैब में सोने की गलती भूल कर भी न करें. अलर्ट हो कर रूट पर नजर रखें. औफिस से कैब की सुविधा न मिलने पर कोशिश करें कि घर से किसी को बुला लें और उस के साथ ही घर जाएं.

औफिस मैनेजमैंट को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि महिला कर्मचारी को निशुल्क पिक और ड्रौप की सुविधा ही काफी नहीं है, कैब ड्राइवरों के बैकग्राउंड की पूरी जांच करनी चाहिए.

आप की सुरक्षा का खयाल आप की खुद की भी जिम्मेदारी है. अपने पर्स में छोटा चाकू, पेपर स्प्रे रखें. अपने घर वालों के कौन्टैक्ट में रहें. आप किस जगह पर हैं, कब तक लौटेंगी, इस बात की पूरी जानकारी घरवालों को देती रहें.

नाइट शिफ्ट आप नहीं करना चाहती हैं तो अपने सीनियर्स से बात करें. नाइट शिफ्ट करना सेहत के लिए भी ठीक नहीं है और इस से घरपरिवार संभालना भी मुश्किल हो जाता है.

अगर औफिस के किसी पुरुष सहकर्मी की हरकतें आप को असामान्य नजर आती हैं तो इस को नजरअंदाज न करें. इस से पहले कि देर हो जाए, अपने घर या औफिस में सीनियर से इस संबंध में बात करें. नाइट शिफ्ट में पर्सनल कार, स्कूटी का प्रयोग भूल कर भी न करें.

कैब ड्राइवर शौर्टकट लेना चाहे तो सख्ती से मना कर दें चाहे घर पहुंचने में आप को कितनी भी देर हो जाए.

मेरी 16 साल की बेटी को उसके ट्यूटर से प्यार हो गया है, अब मैं क्या करूं?

सवाल

मेरी 16 साल की बेटी है जो 12वीं क्लास में पढ़ती है. उसे ट्यूशन पढ़ाने 30 वर्षीय एक ट्यूटर आता है. कुछ दिनों से बेटी को कुछ खोईखोई सी देख रही थी तो मैं ने उस से जब बहुत खोदखोद कर पूछा तो कहने लगी कि उसे ट्यूटर से प्यार हो गया है. वह बोली कि वह जानती है कि यह सब ठीक नहीं है लेकिन दिल मानता नहीं है.

जवाब

जल्दी ही वह ट्यूटर से अपने दिल की बात बोल देगीक्योंकि ट्यूटर उस की इस हरकत से अंजान है. फिलहाल मैं ने बेटी को ट्यूटर से कुछ भी कहने से मना कर दिया है कि दोतीन दिन रुक जा और उसी दिन मैं ने ट्यूटर को रात में फोन कर के सारी बात बताई और हमारे घर आने से मना कर दिया. यह भी कहा कि वह अपने मोबाइल से मेरी बेटी का नंबर ब्लौक कर दे.

अगले दिन बेटी के मोबाइल पर मेरे कहे अनुसार ट्यूटर का मैसेज आ गया कि वह अर्जेंटली उत्तराखंड अपने गांव जा रहा हैउस के पिताजी बहुत बीमार हैं. कब वापसी होगीकह नहीं सकता.

बेटी तब से न ठीक से पढ़ रही हैन खाती है और न हम से बात करती है. कभी रोती हैकभी सो जाती है या फिर चुपचाप अपने कमरे में गुमसुम बैठी रहती है. मैं समझाती हूंलेकिन कुछ समझाने को तैयार नहीं वह. क्या करें?

रोजगार के क्षेत्र में लड़कियों का दबदबा

साल 2016 में ‘दंगल’ फिल्म आई थी. इस में एक डायलौग था, ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम है के…’ यह डायलौग सिर्फ डायलौग नहीं था बल्कि आज के भारत का आईना था जहां लड़कियां बहुत से मामलों में आगे निकल रही हैं.

इस साल जून में नीट का रिजल्ट घोषित हुआ. नैशनल टैस्ंिटग एजेंसी ने जो रिजल्ट पेश किया उस ने यह तो साबित कर दिया कि लड़कियां आज न सिर्फ लड़कों के कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही हैं बल्कि अगर उन्हें बेहतर माहौल और मौका मिले तो वे बहुत जगहों पर आगे भी निकल सकती हैं क्योंकि जो रिजल्ट सामने आया उस में पश्चिम बंगाल की कौस्तव बाउरी व पंजाब की प्रांजल अग्रवाल ने टौप 10 रैंकिंग में अपनी जगह बनाई.

हाल ही में यूपीएससी का रिजल्ट घोषित हुआ जिस में इषिता किशोर ने पहली रैंकिंग हासिल की. वहीं दूसरे व तीसरे स्थान पर गरिमा लोहिया व उमा हरि थीं जिन्होंने दूसरी व तीसरी रैंक हासिल की.

यही कारण भी है कि उच्च पदों के अलावा लड़कियां अब पढ़ाई से ले कर जौब तक हर क्षेत्र में अपनी पहुंच बढ़ा रही हैं. एक जमाना था जब रोजगार की दुनिया में पूरी तरह से पुरुषों का कब्जा था. अगर किसी क्षेत्र में गिनीचुनी महिलाएं होती भी थीं तो वे पुरुषों के दबदबे वाली इस दुनिया में अजीब सी लगती थीं. लेकिन आज यह तसवीर पूरी तरह से बदल चुकी है. आज किसी भी क्षेत्र में लड़कियों की मौजूदगी अजूबा नहीं है. आज लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. यही नहीं, कुछ क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां लड़कियों की उपस्थिति तेजी से बढ़ी है.

कुछ जगह ऐसी हैं जो मेल फ्री जोंस में खास हैं- नर्सिंग, पीआर, कौल सैंटर, इंटीरियर डिजाइनिंग तथा नर्सरी टीचिंग. दरअसल, रोजगार और अर्थव्यवस्था की दुनिया में जैसेजैसे सेवा क्षेत्र का दबदबा बढ़ा है, वैसेवैसे लड़कियों का दबदबा भी बढ़ा है क्योंकि सेवा क्षेत्र में लड़कियां लड़कों के मुकाबले ज्यादा सफल हैं.

कुछ साल पहले सिडनी रिक्रूटमैंट फर्म द्वारा किए गए एक ताजा सर्वेक्षण ने इस बात

का खुलासा किया है कि महिलाओं की कई क्षेत्रों में बढ़ती एकल मौजूदगी कई तरह से नुकसानदायक भी है. यही नहीं, व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो पुरुषों की मौजूदगी भी उतनी ही जरूरी है जितनी कि महिलाओं की. इसलिए सिर्फ मेल जोन या सिर्फ फीमेल जोन दोनों ही किसी भी क्षेत्र के लिए नुकसानदायक होते हैं. लेकिन पहले के समय लड़कियों को बाहर काम करने देने की तो छोड़ो बाहर निकलने की भी मनाही थी. उन्हें बस साजोसामान समझने लायक पढ़ालिखा कर शादी करा दी जाती थी.

विशेषज्ञों के मुताबिक लिंग असंतुलन कंपनी के लिए किसी भी माने में फायदेमंद नहीं हो सकता. यह वास्तव में एक खराब स्थिति होती है.

कंपनी की सोच

हालांकि जिन क्षेत्रों में लड़कियों की प्रधानता हो जाती है, उन का मैनेजमैंट लड़कों को कम महत्त्व देता है, जोकि कंपनी के विकास के लिए सही नहीं है. बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. दरअसल लड़कियां हर जगह और हर समय फैसला लेने वाले के रूप में उभर कर सामने नहीं आ पातीं. कई जगह आक्रामक होना पड़ता है तो कई जगहों पर तुरंत फैसले लेने पड़ते हैं. ऐसे मामलों और जगहों में लड़कियां अभी भी काफी पीछे हैं.

उन का आत्मविश्वास अब तक कमजोर ही साबित हुआ है. हालांकि भविष्य में क्या होगा, यह कहना मुश्किल है, लेकिन फिलहाल बाजार की स्थिति को देखते हुए फीमेल की अकेली प्रधानता किसी भी कंपनी के लिए अच्छी बात नहीं है.

इस के अलावा भी कई और नुकसान हैं जो फीमेल डोमिनैंस कंपनी को ?ोलने पड़ सकते हैं. हर महिला सही समय पर मां बनना चाहती है. इस में कोई बुराई भी नहीं है. अगर व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो फीमेल प्रैग्नैंसी कंपनी की प्रगति में कई बार बाधक बन जाती है, क्योंकि इस के चलते कई महीनों तक न चाहते हुए भी लड़की को कामकाज की सक्रिय भागीदारी से अपनेआप को अलग करना पड़ता है. ऐसी स्थिति में किसी भी कंपनी का मैनेजमैंट गड़बड़ा सकता है.

जरूरी है संतुलन

कुछ ऐसी भी समस्याएं हैं, जिन पर महिलाओं का कोई वश नहीं चलता और उन की वजह से कंपनी को घाटा उठाना पड़ता है. मसलन, कोई भी कंपनी अगर किसी अविवाहित लड़की पर काफी हद तक निर्भर हो जाती है और अचानक उस की शादी हो जाती है तो हो सकता है कि उसे नौकरी छोड़नी पड़ जाए या शहर छोड़ना पड़ जाए. ऐसा होने पर कंपनी के लिए अचानक परेशानी की स्थिति आ जाती है.

पुरुषों के साथ आमतौर पर ऐसा नहीं होता. शादी करने के बाद कम से कम भारत में पुरुषों को बहुत दुर्लभ मौकों पर ही अपना घर या शहर बदलना पड़ता है. यही नहीं, एक तरफ जहां शादी के बाद महिलाओं पर किसी कंपनी की निर्भरता खतरनाक हो सकती है, वहीं पुरुष कंपनी के मामले में ज्यादा जिम्मेदार हो जाता है.

कुल मिला कर किसी भी कंपनी या किसी भी रोजगार क्षेत्र का पूरी तरह से महिलाओं पर निर्भर हो जाना जहां कामकाज के लिहाज से जोखिम भरा हो जाता है, वहीं वर्क कल्चर और वर्किंग माहौल की नजर से भी उबाऊ हो जाता है.

एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत 39 वर्षीय पूर्णिमा का कहना है, ‘‘कंपनी में सिर्फ महिलाओं का काम करना या फिर सिर्फ पुरुषों का होना, दोनों ही अपनीअपनी जगह गलत हैं. पुरुषप्रधानता भी खराब है और महिलाप्रधानता भी. दोनों में संतुलन बना रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि कंपनी का माहौल भी उस के विकास के लिए एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है.

जहां सिर्फ महिलाएं होती हैं या सिर्फ पुरुष, वहां कामकाज का माहौल रुचिकर नहीं रह जाता. यही नहीं, ऐसी जगहों में काम बो?ा में तबदील हो जाता है. इसलिए दोनों का ही कंपनी में होना बहुत जरूरी है.’’

कामकाज में फर्क

जहां कई फैसले सिर्फ पुरुष ही कर सकते हैं तो कई काम सिर्फ महिलाओं के जिम्मे ही छोड़े जा सकते हैं. वहीं महिला और पुरुष दोनों मिल कर ज्यादा काम भी कर सकते हैं और वह भी बिना बोर हुए.

मजे की बात यह है कि जिस औफिस में पुरुषमहिला दोनों होते हैं, वहां कर्मचारियों को अगले दिन औफिस पहुंचने का बेसब्री से इंतजार रहता है, जबकि सिर्फ पुरुष या महिलाप्रधानता वाले क्षेत्र में ऐसा देखने को नहीं मिलता.

विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि महिलाप्रधान होने से कंपनी में ठहराव आ सकता है और पुरुषप्रधान होने पर भी ऐसी आशंका बनी रहती है. इसलिए कामकाज में मैच्योर कंपनियां दोनों का संतुलन चाहती हैं. वर्कप्लेस पर दोनों की मौजूदगी वास्तव में व्यावहारिक है.

30 वर्षीय अजीत का कहना है, ‘‘कंपनी में सिर्फ पुरुषों का होना या फिर महिलाओं का होना बिलकुल गर्ल्स स्कूल या बौयज स्कूल की तरह होना है. जिस तरह बौयज अकसर छुट्टी के बाद गर्ल्स स्कूल के बाहर पहरा देते नजर आते हैं, उसी प्रकार दफ्तरों में भी देखने को मिल सकता है. हालांकि कर्मचारी बचकानी हरकतें नहीं करेंगे. लेकिन गौर करने की बात यह है कि दफ्तर में आने की उन की ललक खत्म हो जाएगी. इतना ही नहीं, महिलाएं और पुरुष मिल कर नएनए आइडिया विकसित कर सकते हैं, नएनए प्रयोग कर सकते हैं.’’

कुल मिला कर उचित यही है कि वर्कप्लेस पर लड़केलड़कियों दोनों का होना जरूरी है. दोनों में से किसी एक की भी प्रधानता कामकाज का माहौल बिगाड़ती है और कामकाज की मात्रा व गुणवत्ता में भी फर्क लाती है.

रोजगार की दुनिया में महिलाओं का महत्त्व

हालांकि रोजगार के क्षेत्र में लड़कियों का होना देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छा संकेत है. विभिन्न रोजगार स्थितियों का पता देने वाली एजेंसियों के आंकड़ों पर भरोसा करें तो आने वाले सालों में रोजगार की दुनिया में महिलाओं का महत्त्व पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा होगा. यह बात सिर्फ हिंदुस्तान या चीन जैसे देशों में लागू नहीं होती, बल्कि विकास के मामले में सैच्युरेटिंग पौइंट पर पहुंच चुके यूरोप और अमेरिका में भी महिलाओं के रोजगार का भविष्य पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा उज्ज्वल नजर आता है. भारत में तो खासतौर पर महिलाओं के लिए अगले एक दशक में तमाम क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर नौकरियों की बाढ़ आने वाली है.

भारतीय नर्सों की मांग : ऐसे क्षेत्रों में सब से पहला और विशेष क्षेत्र है नर्सिंग का. हालांकि मैडिकल साइंस का कोई भी क्षेत्र यह नहीं कहता कि नर्सिंग यानी तीमारदारी महज लड़कियों के लिए है, लेकिन यह भी सच है कि सालों से बल्कि आधुनिक मैडिकल व्यवस्था के अस्तित्व में आने के बाद से ही सब से ज्यादा महिलाएं नर्सें ही देखने को मिलती हैं.

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यूरोप में जरूर बड़े पैमाने पर पुरुष नर्सों का चलन शुरू हुआ था, लेकिन जब तक युद्ध में घायल लोगों की बड़ी तादाद रही थी तब तक ही पुरुष बतौर नर्स कामयाब रहे. जैसे ही स्थितियां सामान्य हो गईं, नर्स बने पुरुषों के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा, क्योंकि महिला नर्स पुरुष नर्स से बेहतर तीमारदारी कर सकती है.

महिलाएं न सिर्फ स्वाभाविक रूप से कोमल हृदय होती हैं, अपितु उन का स्पर्श भी कहीं ज्यादा सांत्वना भरा होता है. इस वजह से मैडिकल साइंस भी परोक्ष रूप से तीमारदारी का काम पुरुषों के बजाय महिला नर्सों को देने के पक्ष में रहता है. भारतीय महिला नर्सें तो वैसे भी पूरी दुनिया में अपने सेवाभाव के लिए जानी जाती हैं. यही कारण है कि पूरी दुनिया में भारतीय नर्सों की जबरदस्त मांग है. जो अमेरिका, जो किसी भी क्षेत्र के प्रोफैशनल तक को इन दिनों ग्रीन कार्ड देने से बचने की कोशिश कर रहा है, भारतीय महिला नर्सों के लिए पलकपांवड़े बिछाए रहता है.

पिछले साल आई ‘इंटरनैशनल काउंसिल औफ नर्सेज’ की माने तो दुनियाभर में 1.30 करोड़ नर्सों की जरूरत है. अभी भारत समेत दुनियाभर के देश नर्सों की कमी से जूझ रहे हैं. ग्रैंड प्यू रिसर्च कहती है कि वैश्विक स्वास्थ्य देखभाल स्टाफिंग क्षेत्र सालाना 6.9 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है.

कोरोना जैसी चुनौतियों को देखते हुए देश स्वास्थ्य व्यवस्थाएं मजबूत बनाने पर जोर दे रहे हैं. माना जा रहा है कि 2030 तक इस क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए 5.17 लाख करोड़ रुपए तक खर्च किए जाएंगे.

2021 में राज्यसभा में पेश की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल 37 लाख पंजीकृत नर्सें हैं यानी 1,000 लोगों पर नर्सों की संख्या 1.7 के लगभग है जबकि 1,000 के मुताबिक होनी जरूरी है. इस माने इस क्षेत्र में महिलाओं के पास काफी स्कोप है.

आंकड़े कहते हैं अमेरिका में 5 लाख से ज्यादा नर्सों की जरूरत है, जिस में 90 प्रतिशत तक की आपूर्ति दूसरे देशों की नर्सों से होती है. इस माने में भारतीय नर्सों का पूरी दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है, क्योंकि भारतीय नर्सें स्वाभाविक रूप से अपनी तीमारदारी की कला में निपुण होती हैं.

यही हाल यूरोप का भी है. यूरोप में भी बड़े पैमाने पर भारतीय नर्सों की मांग है. ऐसोचेम के एक अध्ययन के मुताबिक, 2020 तक यूरोप में 7 लाख से ज्यादा भारतीय नर्सों की मांग हो सकती है. लेकिन रोजगार के लिए भारतीय नर्सें विदेश न जाना चाहें तो भी उन के लिए हिंदुस्तान में रोजगार की कोई कमी नहीं है.

  1. मैडिकल उद्योग : जिस तरह से भारत में मध्यवर्ग की स्वास्थ्य संबंधी सम?ा में दिनोंदिन  इजाफा हो रहा है और स्वास्थ्य के लिए सजगता बढ़ रही है, उस को देखते हुए भारत में भी मैडिकल उद्योग आने वाले सालों में फलेफूलेगा. फिलहाल मैडिकल उद्योग 20 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा है, जो खतरनाक ढंग से डराने वाली औद्योगिक विकास दर और मंदी के भंवर में फंस रही अर्थव्यवस्था के लिए एक खुशखबरी है. विभिन्न उद्योग संगठनों के सा?ो अध्ययनों को अगर एकसाथ मिला दें तो 2020 तक भारत में 17 लाख से ज्यादा नर्सों की जरूरत पड़ेगी. इस तरह देखा जाए तो नर्सिंग के क्षेत्र में आने वाले सालों में रोजगार ही रोजगार हैं. नर्सिंग की ही तरह नर्सरी टीचिंग के क्षेत्र में भी भारतीय महिलाओं के लिए रोजगार की जबरदस्त संभावनाएं बन गई हैं.
  2. मीडिया जगत : मीडिया वह क्षेत्र है जिस में एक जमाने में पुरुषों का वर्चस्व हुआ करता था. लेकिन 90 के दशक में लड़कियों ने धीरेधीरे इस क्षेत्र में अपने कदम बढ़ा दिए. आज मीडिया के क्षेत्र में लड़कियों की अच्छीखासी तादाद है. कुछ क्षेत्र तो खासतौर पर महिलाओं के वर्चस्व वाले हो गए हैं. उन में समाचारों की दुनिया की बात करें तो विजुअल मीडिया लड़कियों के लिए रोजगार के बड़े क्षेत्र के रूप में उभरा है. लेकिन अगर हम कहें कि मीडिया का एक क्षेत्र ऐसा है जो, मीडिया कम, व्यवसाय ज्यादा है, जिस में लड़कियों की मौजूदगी लड़कों के मुकाबले कहीं ज्यादा दिख रही है तो वह क्षेत्र है पीआरओ. पब्लिक रिलेशन औफिसर ऐसी पोस्ट है, जिस में 90 प्रतिशत लड़कियां हैं. पीआरओ का क्षेत्र मीडिया का ऐसा क्षेत्र है जहां लड़कियों का पूर्ण वर्चस्व है.
  3. ज्वैलरी डिजाइनिंग : वैसे तो डिजाइनिंग एक जमाने तक विशुद्ध रूप से पुरुषों का क्षेत्र था, लेकिन हाल के सालों में इस क्षेत्र में महिलाओं ने बहुत व्यवस्थित ढंग से अपने कदम जमाए हैं. डिजाइनिंग में खासतौर पर ज्वैलरी डिजाइनिंग और इंटीरियर डैकोरेशन में महिलाओं ने पुरुषों से बाजी मार ली है. ऐसे ही 2 दर्जन से ज्यादा और ऐसे क्षेत्र हैं जहां महिलाएं नियोजक की पहली प्राथमिकता बन गई हैं. नतीजतन, यह कहने में किसी को जरा भी गुरेज नहीं होना चाहिए कि आने वाले सालों में म?िहलाएं नौकरी के लिए पहली पसंद होंगी.
  4. सेना में दमखम : भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों में भी अब महिलाओं का बोलबाला है. बीएसएफ ने तो बंगलादेशभारत सीमा पर महिलाओं की एक बटालियन तैनात की है.
  5. टीचर के रूप में रोजगार : जब से 14 साल तक के हर बच्चे के लिए सरकार की तरफ से अनिवार्य व मुफ्त पढ़ाई की सुविधा का कानूनी प्रावधान हुआ है, तब से महिलाओं की अध्यापिका के रूप में रोजगार की जबरदस्त संभावनाएं पैदा हो गई हैं. वैसे भी आने वाले 7-8 सालों में भारत को 40 लाख से ज्यादा नए शिक्षकों की जरूरत पड़ेगी और वह भी छोटी कक्षाओं को पढ़ाने के लिए. पूरी दुनिया में छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए महिलाएं सब से उपयुक्त मानी जाती हैं.

भारत में जिस तरह से लोगों की खासकर मध्यवर्ग की क्रय शक्ति में इस महंगाई के बावजूद 7 प्रतिशत का सालाना इजाफा हो रहा है, उस से आने वाले सालों में पढ़ाई के लिए चाहत और कोशिशें और बढ़ेंगी. इस से पढ़ने वालों की संख्या बढ़ेगी तो रोजगार भी बढ़ेगा और चूंकि महिलाएं बच्चों को पढ़ाने में विशेषज्ञ मानी जाती हैं तो उन के लिए शिक्षा के क्षेत्र में रोजगार की सब से ज्यादा संभावनाएं हैं.

‘‘मैं क्या कोई भी कलाकार अमरीश पुरी को छू तक नहीं सकता…’’-मनीष वाधवा

टैलीविजन सीरियल ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ में चाणक्य का किरदार निभा कर शोहरत बटोरने वाले अभिनेता मनीष वाधवा वर्ष 1999 से अभिनय जगत में सक्रिय हैं. मूलतः अंबाला, हरियाणा के बाशिंदे मनीष वाधवा को कला का माहौल घर में ही मिला. उन की मां गायिका थीं.

मनीष वाधवा ने दर्जनभर से अधिक टैलीविजन सीरियलों के अलावा ‘शबरी’, ‘राहुल’, पठान’ सहित कई फिल्मों में अपने अभिनय का जलवा दिखाया है.

इन दिनों मनीष वाधवा 11 अगस्त को रिलीज हो रही फिल्म ‘गदर 2’ को ले कर काफी चर्चा में हैं. वे।इस फिल्म में मुख्य खलनायक हैं. फिल्म ‘गदर 2’ में मनीष वाधवा को लोग पाकिस्तानी आर्मी जनरल हामिद इकबाल के किरदार में देखेंगे.

कुछ लोग उन्हें इस फिल्म में अमरीष पुरी का रिप्लेसमैंट भी बता रहे हैं, पर मनीष वाधवा खुद ऐसा नहीं मानते हैं.

पेश हैं, मनीष वाधवा से हुई बातचीत के खास अंश :

  • आज आप अभिनेता बन कर कैसा महसूस करते हैं?

मैं अभिनय में विशेषज्ञ होने का दावा नहीं करता. लेकिन हां, मुझे इस बात पर गर्व जरूर है कि मैं इस खूबसूरत कला की मदद से अपना जीवनयापन करता हूं.

मेरा मानना है कि यदि आप अपने जीवन की सभी समस्याओं और दुखों को भूलना चाहते हैं, तो हर दिन सुबह उठें और कोई और बन जाएं. मैं कालेज के समय से ही थिएटर कर रहा हूं. हालांकि थिएटर मेरे दिल के करीब है, पर मैं यह कहूंगा कि अभिनय मेरा पहला प्यार है. मैं ने अब तक थिएटर, टैलीविजन सीरियल और फिल्में की हैं. मैं ने टीवी सीरियलों में कई तरह के किरदार निभाए हैं. किरदारों के भीतर की विविधता ही मुझे सब से ज्यादा आकर्षित करती है. मुझे गजल के साथसाथ रोमांटिक गानों को भी गाने का शौक है.

  • अपनी अब तक की यात्रा पर रोशनी डालेंगे?

वर्ष 1999 में मेरी अभिनय यात्रा शुरू हुई. यह यात्रा काफी दिलचस्प है. मेरा जन्म 1972 में हरियाणा के अंबाला जिले में हुआ था. फिर मेरा परिवार 1983 में मुंबई चला आया. अभिनय का जुनून तो बचपन से ही था. मुंबई में मैं ने सब से पहले अपने पिता की ही फिल्म में बाल कलाकार के रूप में अभिनय किया था. पर यह फिल्म बीच में ही बंद हो गई थी. उस के बाद मैं थिएटर करता रहा. थिएटर से ही टीवी सीरियल व फिल्में मिलती गईं और आज यहां तक पहुंच गया.

पहले फिल्मों में प्रवेश पाने के इच्छुक लोग थिएटर को एक सीढ़ी के तौर पर मान कर थिएटर से शुरुआत किया करते थे. क्या आप भी इसी वजह से थिएटर कर रहे थे?

जी नहीं. मेरी थिएटर से जुड़ने की वजह यह कदापि नहीं थी. मैं अपनेआप को ‘पौलिश’ करने के लिए थिएटर से जुड़ा हुआ था. मैं एक नाटक कर घर की तरफ जा रहा था, तो मेरे कालेज के प्रोफैसर रास्ते में मिल गए. उन्होंने पूछ लिया कि बेटे क्या कर रहे हो? तो मैं ने कह दिया कि एक नाटक कर के आ रहा हूं. तो उन्होंने कहा कि हमारे कालेज में 3 दिन बाद एक समारोह होने वाला है, उस में एक नाटक कर के हमें भी दिखाना.

मैं ने कालेज में नाटक किया, तो प्रोफैसर साहब को अहसास हुआ कि इस बच्चे में कुछ तो प्रतिभा है. तब उन्होंने बाहर से एक निर्देशक की नियुक्ति की, जो हमें नाटक के लिए ट्रेनिंग देते थे. हर साल मुझे उस में काम करने व नाटक करने का अवसर मिलता गया.

मुझे कालेज के दिनों में ही कई सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के अवार्ड मिल गए. बलराज साहनी ट्राफी मिली. इस तरह धीरेधीरे अभिनय की गाड़ी आगे बढ़ती रही.

  • वर्ष 1999 से अब 2023 तक के अपने कैरियर को आप किस तरह से देखते हैं?

धीरेधीरे ही सही, पर मेरा कैरियर निरंतर ग्रो हुआ है.
हर बार नए पड़ाव आते गए. मसलन, वर्ष 2005 में जब मैं ने मैगा सीरियल ‘कोहिनूर’ किया. इस सीरियल के ही चलते मुझे राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘शबरी’ मिली. अफसोस की बात यह रही कि इस फिल्म की शूटिंग वर्ष 2005 में हुई थी, मगर यह फिल्म 2012 में सिनेमाघरों में पहुंची थी. इस से पहले वर्ष 2001 में मैं प्रकाश झा के साथ फिल्म ‘राहुल’ कर चुका था.

मुझे यह फिल्म डाक्टर मुक्ता देखने के बाद मिली थी. ‘शबरी’ के प्रदर्शन में देरी के चलते ही मुझे पुनः टीवी सीरियलों की तरफ मुड़ना पड़ा. आप भी जानते हैं कि बौलीवुड में सबकुछ फिल्म की सफलता के इर्दगिर्द ही
घूमता है. इसी कारण हर शुक्रवार कलाकार, निर्देशक सभी की जिंदगी बदल जाती है. यह अजीब सी विडंबना है. आप ने फिल्म में खराब अभिनय किया है अथवा उत्कृष्ट अभिनय किया है, इस पर ध्यान फिल्म की सफलता के बाद ही दिया जाता है.

फिल्म की सफलता का मतलब कलाकार का अभिनय सही नहीं है. जब फिल्म चलती है, तभी कलाकार चलता है. फिर टीवी सीरियल ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ में मुझे चाणक्य का किरदार निभाने का अवसर मिला, जिस से मेरे कैरियर को अचानक बहुत बड़ा बूस्टअप मिल गया. यहीं से मेरा कैरियर एकदम से बदल गया. इस किरदार को निभाने के लिए मैं ने अपने सिर के बाल मुंडा कर टकला हुआ था. आज 12 वर्ष हो गए, मुझे खुद को गंजा ही रखना पड़ रहा है, क्योंकि तब से मुझे लगातार ऐसे ही किरदार मिल रहे हैं.

मुझे कई सीरियलों में उत्कृष्ट कलाकार के पुरस्कार भी मिले. मैं ने सीरियल ‘परमावतार श्रीकृष्ण’ में नैगेटिव किरदार यानी कृष्ण के मामा कंस का किरदार निभाया. बीच में ‘देवों के देव महादेव’ में रावण का किरदार निभाया. इसे बीच में बीमारी की वजह से छोड़ना पड़ा था, तो इस तरह बीचबीच में मैं ने काफी अच्छे किरदार निभाए.

  • सीरियल हो या फिल्म, आप ने पीरियोडिक या हिस्टोरिकल किरदार ही ज्यादा निभाए. इस की कोई खास वजह?

ऐसा सभी को लगता है. अगर आप मेरे सीरियलों पर नजर दौड़ाएंगे, तो मैं ने अब तक बमुश्किल 10 या 11 सीरियल ही किए हैं. लेकिन वह सीरियल और उन के किरदार इतने सराहे गए कि क्या कहें. देखिए, मैं ने ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ या ‘पेशवा’ जैसे सीरियल किए. मैं ने वहीं पर ‘इसे क्या नाम दूं’ जैसा सामाजिक सीरियल भी किया. इस में भी मुझे बहुत प्यार मिला. लोग इस सीरियल के मेरे किरदार निरंजन को अभी भी याद करते हैं. टीवी श्रृंखला ‘मानो या ना मानो’ में विक्रम भार्गव और विनीत भार्गव के रूप में भी अभिनय किया है. ‘टाइम मशीन’ में मैं ने मुख्य हीरो का किरदार निभाया, जो कि वैज्ञानिक है. फिर ‘महाकुंभ’ में भी
शोहरत मिली. तो मैं ने हर तरह के किरदार निभाए.

अब मैं ने फिल्म ‘गदर 2’ में मुख्य खलनायक हामिद इकबाल का किरदार निभाया है. मेरा मानना है कि मैं एक शिक्षार्थी हूं और सीखने की प्रक्रिया अभी भी जारी है.

  • फिल्म ‘गदर 2’ से जुड़ना कैसे हुआ?

मैं ने दक्षिण भारत में फिल्म ‘शाम सिंह रौय’ की है, जिस में मेरा विलेन का किरदार था. इस फिल्म के फाइट मास्टर ने ही फिल्म ‘गदर 2’ के निर्देशक अनिल शर्मा को मेरे बारे में बताया. उस वक्त अनिल शर्मा को एक प्रतिभाशाली कलाकार की तलाश थी. वे 10-12 कलाकारों से मिले थे, पर बात नहीं बनी थी.

बहरहाल, अनिल शर्मा ने मुझे बुलाया. मेरे कदकाठी व भाषा पसंद आई. तब वह मुझे सनी देओल से मिलाने ले गए. उन से जिम्मेदारी की बात हुई. उन्होंने मुझ से कहा कि आप ने अमरीश पुरी को पूरी तरह से देखा नहीं है. फिल्म ‘गदर’ के अलावा उन की दूसरी फिल्में भी देखे लें. हम चाहते हैं कि अमरीश पुरी की ही तरह का सशक्त विलेन नजर आए. सनी देओल मुझ से बातें कर संतुष्ट हुए और मैं ‘गदर 2’ का हिस्सा बन गया.

  • आप ने इस के लिए किस तरह की तैयारी की?

-लेखक शक्तिमान ने पटकथा लिखी थी. उसी के अनुरूप पहले कुछ लुक टैस्ट वगैरह किए गए. उस के बाद मेरी मुलाकात लेखक से हुई. उन से मुझे पूरी कहानी समझ आई और अपना किरदार समझ आया और फिर इतनी अच्छी टीम थी कि सबकुछ अपनेआप होता चला गया.

फिल्म ‘पठान’ में भी आप ने पाकिस्तानी चरित्र निभाया. अब ‘गदर 2’ में भी. यह महज इत्तिफक है या…?

मैं ने दोनों फिल्मों की शूटिंग लगभग एकसाथ ही की. वैसे, मैं ने ‘पठान’ के बाद ‘गदर 2’ साइन की थी. दोनों फिल्में कोरोना के समय की हैं. दोनों में पाकिस्तानी आर्मी जनरल का किरदार निभाना मेरे लिए एक्साइटिंग और चुनौतीपूर्ण रहा. फर्क यह है कि ‘पठान’ का आर्मी जनरल 2023
का है और ‘गदर 2’ का आर्मी जनरल 1971 का है. 1971 का जनरल देसी है.

  • क्या आप को नहीं लगता कि साल 1971 में पाकिस्तान में धर्म बहुत ज्यादा हावी नहीं था, लेकिन अब।2023 आतेआते वहां धर्म बहुत ज्यादा हावी हो गया है?

नहीं, 1947 की ‘गदर’ में भी आप देख चुके हैं कि वहां भी धर्म हावी था. मुझे ऐसा लगता है कि मजहब की दीवार होनी नहीं चाहिए. लेकिन अगर है तो या आज से नहीं शुरू से चलती आ रही है. यह बंटवारा भी अपनेआप में मजहब की दूरियां हैं.

  • आप को अमरीश पुरी का रिप्लेसमैंट कहा जा रहा है?

नहीं… नहीं, ऐसा नहीं है. पहली बात तो फिल्म में मेरा किरदार सकीना के पिता का नहीं है, जो कि अमरीश पुरी का किरदार था. यदि ऐसा होता, तब तो आप यह बात कह सकते थे अथवा तब आप अमरीश पुरी से तुलना कर सकते थे. दूसरी बात अमरीश पुरी की ऐक्टिंग का कोई सानी नहीं था. उन्हें कोई रिप्लेस नहीं कर सकता.

अभिनय में जितनी बड़ी ऊंचाई अमरीश पुरी ने छुई थी, उसे तो कोई नहीं छू सकता. मुझे तो इस फिल्म में सिर्फ एक विलेन की भूमिका करनी थी. फिल्म में हामिद इकबाल का मेरा किरदार एकदम अलग है. एक अलग विलेन से मतलब है कि अलग किरदार है.

  • आप ‘गदर 2’ के अपने किरदार पाकिस्तानी आर्मी जनरल हामिद इकबाल को ले कर क्या कहेंगे?

बहुत ही क्रूर है. निर्दयी है. वह किसी के बारे में नहीं सोचता है. उस का अपना एक गोल है. वह भारत, तारा सिंह व जीते को खत्म करना चाहता है. इन में से भी तारा सिंह तो उस का सब से बड़ा दुश्मन है.

  • एक कलाकार किसी भी किरदार को निभाने के लिए 2 चीजों का इस्तेमाल करता है. अपनी कल्पनाशक्ति और जीवन के अनुभव. आप किस का कितना उपयोग करते हैं?

दोनों का मिश्रण जरूरी है. हर कलाकार हर किरदार को निभाते समय अपने निजी अनुभव के आधार पर ही नींव रखता है. उस ने जो देखा है,एनजो सीखा है, उसी के साथसाथ वह अपनी सोच व कल्पना का उपयोग करते हुए निर्देश के वीजन को साकार करने की कोशिश करता है. यही मेरा भी तरीका है.

  • आप इतना फिट कैसे रहते हैं?

मैं सुबह व्यायाम और योग करने के लिए समय निकालता हूं और बस यह सुनिश्चित करता हूं कि रात में भारी आहार न लूं. बाकी सबकुछ अपनेआप होता है.

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