यों तो पूरे देश में जातिवाद और सवर्णशूद्रवाद का बोलबाला है, लेकिन बिहार के नेता और राजनीति मुफ्त में बदनाम नहीं हैं. बिहार के सवर्ण तो सवर्ण दलित नेताओं तक का हाजमा खराब हो जाता है, अगर किसी दिन जाति पर बवाल न हो.

ताजा विवाद संसद से शुरू हुआ था, जो अब चौपालों तक पसर गया है. हुक्का गुड़गुड़ाते ब्राह्मण और ठाकुर एकदूसरे को पानी पीपी कर कोस रहे हैं, एकदूसरे को भस्म कर देने वाला सनातनी श्राप दे रहे हैं और एकदूसरे की जीभ तक खींचने की धौंस दे रहे हैं. अब इस में कुछ पिछड़ों की भी एंट्री हो गई है. किस्सा दिलचस्प होता जा रहा है, जिस का श्रीगणेश 21 सितंबर, 2023 को राज्यसभा से महिला आरक्षण बिल पर बहस के दौरान आरजेडी सांसद मनोज झा ने किया था. उन्होंने एक कवि ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता पढ़ी थी, जिस में ठाकुरों की दबंगई का वर्णन था.

कविता ज्यादा बड़ी नहीं है, लेकिन उस की आखिरी लाइनों से समझ आता है कि ठाकुर उर्फ राजपूत उर्फ क्षत्रिय उर्फ दबंग उर्फ हुजूर उर्फ मालिक उर्फ सरपंच साहब या सरकार कितने क्रूर और अय्याश हुआ करते थे. प्राचीन भारत के गांवों में सबकुछ उन्हीं की मिल्कियत हुआ करता था. ठाकुर लोग ठीक वैसे ही होते थे, जैसे हिंदी फिल्मों में दिखाए जाते थे. वे अपनी लंबी घनी मूंछों को उमेठते अपनी हवेली के बड़े से कमरे में छक कर दारू पीते थे. ढलती रात में इसी हाल में कोई रधिया या रजिया नाम की अर्धनग्न कमसिन तवायफ कमर और छातियां मटकाते इन शूरवीरों का नशा और बढ़ा रही होती थीं. वह बड़ी अदाओं से इन ठाकुरों की पास जाम से भरा गिलास ले कर आती थी, उन्हें तरसाती थी और फिर उन के होंठों में दबा सौ का नोट अपने होंठों में दबा कर ले जाती थी.

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