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मेरी बेटी का अरेंज मैरिज पर विश्वास नहीं है, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी 32 वर्षीया बेटी है. अब तक उस ने शादी नहीं की. वजह साफ है कि उसे कभी किसी से प्यार नहीं हुआ और अरैंज मैरिज में वह विश्वास नहीं करती. मैंने कितनी ही बार उसे समझाने की कोशिश की कि अरैंज मैरिज इतनी बुरी नहीं है जितनी वह समझती है, लेकिन वह टस से मस नहीं होती. आखिर, मैं उसे समझाऊं तो समझाऊं कैसे?

जवाब

आप की बेटी का शादी से इस तरह इनकार करने का कोई न कोई कारण तो अवश्य ही है. उस के अरेंज मैरिज के विषय में इस तरह के विचार सुन कर तो यही लगता है कि शायद उस ने ऐसी अरेंज मैरिज देखी हैं जिन में उसे कुछ त्रुटि दिखाई दी. खैर, आप उसे समझाने के साथसाथ कुछ ऐसे लोगों से मिलवा सकती हैं जो अपनी अरेंज मैरिज से बहुत खुश हों. या आप उस का किसी मैरिज ब्यूरो जैसी वैबसाइट पर रजिस्टरर्ड भी करा सकती हैं. हो सकता है वहां उसे कोई पसंद आ जाए और उस के मन में शादी की इच्छा पनप उठे.

पांच रोटियां, पंद्रह दिन

धनबाद के पास एक कोयले की खान में सैकड़ों मजदूर काम करते थे. मंगल सिंह उन में से एक था. उसे हाल ही में नौकरी पर रखा गया था. उस के पिता भी इसी खान में नौकरी करते थे, लेकिन एक दुर्घटना में उन की मौत हो गई थी. खान के मालिक ने मंगल सिंह को उस के पिता की जगह पर रख लिया था. मंगल सिंह 18 वर्ष का एक हंसमुख और फुरतीला जवान था. सुबहसुबह नाश्ता कर के वह ठीक समय पर खान के अंदर काम पर चला जाता था. उस की मां उस को रोज एक डब्बे में खाना साथ में दे दिया करती थीं. अपने कठिन परिश्रम औैर नम्र स्वभाव केकारण वह सब का प्यारा बन गया था.

बरसात का मौसम था. सप्ताह भर से जोरों की वर्षा हो रही थी. खान के ऊपर चारों तरफ पानी ही पानी नजर आता था.

एक दिन दोपहर के समय खान में मजदूरों ने पानी गिरने की आवाज सुनी तो वे चौकन्ने हो गए. चारों तरफ खलबली मच गई. खान में पानी भर जाने के डर से मजदूर अपनीअपनी जान बचाने के लिए लिफ्ट की ओर भागे. लिफ्ट से एक बार में कुछ ही मजदूर ऊपर जा सकते थे. कुछ लोग ऊपर गए भी, लेकिन पानी भरने की रफ्तार बड़ी तेज थी. तुरंत ही खान पानी से भर गई और लिफ्ट के पास खड़े कई मजदूर घुटघुट कर मर गए. मंगल सिंह की मां को इस घटना का पता चला तो वे परेशान हो गईं. मंगल सिंह के पिता की मौत का दुख वह अभी भूल भी न पाई थीं, अब अपने एकमात्र बेटे के दुख को कैसे बरदाश्त कर पातीं.

खान के एक भाग में मंगल सिंह अपने 9 साथियों के साथ काम में लगा था. खान में पानी गिरने के साथ ही उस ने अपने साथियों को सावधान कर दिया था. उस ने उन्हें लिफ्ट की ओर भागने के बजाय खान के ऊपरी हिस्से में चले जाने की सलाह दी. मंगल सिंह के कहने पर सभी ऊपरी हिस्से में चले आए. वहां से भी लिफ्ट तक पहुंचने के रास्ते थे. मंगल सिंह ने सोचा था कि अगर लिफ्ट चालू रही तो वहां से भी वे लोग खान के बाहर जा सकते हैं. पानी बड़ी तेजी से बढ़ रहा था. अब तो ऊपरी हिस्से में भी पानी भरना शुरू हो गया था, जहां मंगल सिंह औैर उस के साथियों ने शरण ले रखी थी. तब तक लिफ्ट भी बंद हो चुकी थी. मजदूर निराश हो गए.

खान के इस ऊपरी हिस्से में भी कोयले की कटाई होती थी. दिन भर का कटा कोयला कई ट्रौलियों में भरा हुआ था. पानी जब कमर तक आ गया तो मंगल सिंह ने किसी गंध का अनुभव किया.

‘यह पानी खान के अंदर का नहीं बल्कि ऊपर के किसी तालाब का है,’ मंगल सिंह ने अंदाजा लगाया. उसे मालूम था कि खान के आसपास कई छोटेबड़े तालाब हैं. अगर किसी एक तालाब का पानी खान में घुसा है तो उस से पूरी खान नहीं भर सकती. उसे आशा की एक किरण नजर आई. उस ने सोचा, ‘क्यों न बचने का कोई प्रयत्न किया जाए.’ उस ने अपने साथियों से कहा, ‘‘बिखरे हुए कोयले को हम लोग मिल कर ट्रौलियों में भर कर एक जगह जमा कर दें. जगह ऊंची हो जाने पर हम वहां शरण ले सकते हैं.’’

लेकिन मजदूरों में इतनी घबराहट थी कि मंगल सिंह की बात किसी ने नहीं सुनी. मौत का खौफ उन पर इस तरह छा गया था कि उन में कुछ सोचने की शक्ति ही नहीं रह गई थी. मंगल सिंह ने सोचा कि स्थिति बहुत खराब है, दुख में अगर आदमी घबरा जाए तो वह मुसीबत का सामना करने लायक नहीं रह जाता. मंगल सिंह ने हिम्मत नहीं हारी. उस ने देखा, पानी में कुछ स्थिरता आई है. उस ने अनुभव किया कि उस के कपड़ों में कोई चीज चल रही है. अपने हाथ से पकड़ कर उस ने उसे बाहर निकाला. वह एक छोटी सी मछली थी. मंगल सिंह को विश्वास हो गया कि पानी किसी तालाब से ही खान में घुसा है. उस ने आशा जताई कि अगर और वर्षा न हुई तो खान में पानी अब औैर नहीं बढ़ेगा.

मजदूरों को कुछ कहे बिना उस ने खुद कई ट्रौलियों को एक जगह इकट्ठा कर लिया. कोयला उठाने के फावड़े वहां मौजूद थे. उस ने एक फावड़ा उठाया और ट्रौलियों में कोयला भरना शुरू किया. 2-3 मजदूरों ने भी उस का साथ दिया. कुछ ही देर में वहां कोयले का एक टीला खड़ा हो गया. मंगल सिंह सहित मजदूरों की संख्या 10 थी. खान में हवा आने के रास्ते मौजूद थे. पानी 3 फुट और बढ़ जाने पर भी इन के बचने की आशा अभी खत्म नहीं हुई थी.

खान में बाढ़ आने से पहले ही मजदूरों ने अपनाअपना खाना खा लिया था. लेकिन मंगल सिंह ने अभी तक खाना नहीं खाया था. एक बार उस की इच्छा हुई कि वह भी अपना खाना खा ले, लेकिन फिर उस ने सोचा, ‘पता नहीं खान के अंदर कितने दिन तक फंसे रहना पड़े. उसे बड़े जोर की भूख लगी थी, लेकिन अब चिंता केवल खुद की ही नहीं बल्कि साथ में फंसे अन्य मजदूरों की भी थी. पानी लगभग 2 फुट और बढ़ा. मंगल सिंह ने अपनी 5 रोटियों के बहुत सारे टुकड़े कर दिए. हर मजदूर हर रोज

1-1 टुकड़ा रोटी खा कर किसी तरह जीने लगा. रोटियों के टुकड़े खत्म होते जा रहे थे, लेकिन पानी नहीं घट रहा था. वे लोग निराश हो गए. उन्हें अब बचने की उम्मीद नहीं थी. भूख औैर प्यास के मारे उन में बोलने और उठनेबैठने की ताकत भी नहीं रह गई थी. पानी के साथ तालाब की मछलियां भी खान के अंदर आ गई थीं. कई मजदूरों ने मछलियों को पकड़ कर उन्हें कच्चा ही खाना शुरू कर दिया, लेकिन वे उन्हें पचा न पाए, उन्हें उलटियां होने लगीं. इस तरह 5 दिन बीत गए. छठे दिन 5 मजदूर बेहोश हो गए.

10वें दिन 2 अन्य मजदूरों की भी वही हालत हुई. 15वें दिन तो मंगल सिंह को छोड़ कर सभी मजदूर बेहोशी की हालत में आ गए. रोटी का अंतिम टुकड़ा भी खत्म हो चुका था. मंगल सिंह अपने साथियों की हालत देख कर व्याकुल हो उठा. अब उस से भी हिलाडुला नहीं जा रहा था. बोलने की भी ताकत नहीं रह गई थी, लेकिन फिर भी उस में जीने की हिम्मत बची थी. तभी उस ने देखा कि खान का पानी तेजी से घट रहा है. मंगल सिंह की खुशी का ठिकाना न रहा.

वह हर मजदूर को उस का नाम ले कर पुकारने लगा, लेकिन वे बेजान पड़े थे. कुछ घंटे के अंदर खान से पूरा पानी निकल गया. मंगल कोयले के टीले पर से किसी तरह नीचे उतरा. दीवार का सहारा ले कर धीरधीरे वह लिफ्ट की तरफ बढ़ा, लेकिन अधिक दूर न जा पाया और गिर पड़ा. फिर वहीं से सहायता के लिए चिल्लाने लगा.

ऊपर से लोगों का आनाजाना शुरू हो चुका था. मंगल सिंह की आवाज सुन कर वे उस के पास दौड़े आए. मंगल सिंह सहित सभी बेहोश मजदूरों को खान के बाहर लाया गया. मामूली उपचार के बाद सब की हालत ठीक हो गई. मंगल सिंह की हिम्मत और मदद से ही उन की जानें बची थीं. मजदूरों के परिवार खुशी से पागल हो गए. मंगल सिंह की मां की खुशी की सीमा ही न थी. मंगल सिंह को सरकार की तरफ से पुरस्कार भी मिला और नौकरी में पदोन्नति हुई.

कैक्टस के फूल : क्यों ममता का मन पश्चात्ताप से भरा था?

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Priyanka से लेकर Alia तक, इन अभिनेत्रियों ने क्यों चुनी हॉलीवुड की राह ?

Bollywood Actress in Hollywood : भारत में रहकर और यहां आकर कई कलाकारों ने अपनी एक्टिंग और कला से लोहा मनवाया है. यहां तक की उनकी उम्दा आदाकारी के प्रशंसक केवल भारत में ही नहीं इसके बाहर भी है. इसके अलावा भारतीय कलाकारों को विदेश में आयोजित समारोह में भी बड़े ही सम्मान के साथ बुलाया जाता है. यहीं नहीं हॉलीवुड में तो बॉलीवुड की अभिनेत्रियां व अभिनेता अपना दबदबा कायम कर रहे हैं.

आज से करीब चार दशक पहले भारतीय अभिनेत्री ”पर्सिस खंबाटा” ने हॉलीवुड में अपने अभिनय से लोगों को अपना दीवाना बनाया था, जिसके बाद से अब तक कई एक्टर और एक्टसेस ने अपने टैलेंट व एक्टिंग के दम पर हॉलीवुड में अपनी धाक जमाई है. इसके अलावा उनकी ग्लोबल फैन फॉलोविंग भी बड़ी है. तो आइए अब जानते हैं उन अभिनेत्रियों (Bollywood Actress in Hollywood) के बारे में जिन्होंने बॉलीवुड को छोड़ हॉलीवुड का रास्ता अपनाया है.

प्रियंका चोपड़ा

बॉलीवुड में अपनी एक्टिंग और अपने लुक से लोगों को दीवाना बनाने वाली एक्ट्रेस ”प्रियंका चोपड़ा” (priyanka chopra) आज हॉलीवुड का एक बड़ा नाम है. उन्होंने कुछ ही समय में हॉलीवुड में अपनी धाक जमाई है. प्रियंका ने ‘क्वांटिको’ सीरीज से लेकर ‘द व्हाइट टाइगर’, ‘बे वॉच’ और ‘पिंक पैंथर’ जैसी कई बड़ी फिल्मों में काम किया हैं. इसी के साथ हॉलीवुड में उनके कई शोज भी आते हैं.

दीपिका पादुकोण

प्रियंका चोपड़ा के अलावा हिंदी सिनेमा की जानी-मानी अभिनेत्री ”दीपिका पादुकोण” (deepika padukone) ने भी हॉलीवुड में काम किया है. उन्होंने एक्शन थ्रिलर फिल्म ‘XXX: रिटर्न ऑफ जेंडर केज’ में अहम रोल निभाया था. एक इंटरव्यू में ‘दीपिका’ ने बताया था कि, ‘वो किसी भी फिल्म का आकलन इस तरह से नहीं करती है कि वो भारतीय है या फिर विदेशी. उनका मानना है कि वो फिल्मों को केवल अपनी कला प्रस्तुत करने के तौर पर ही देखती हैं.’

आलिया भट्ट

प्रियंका, दीपिका के बाद अब एक्ट्रेस ”आलिया भट्ट” भी हॉलीवुड की राह पकड़ रही हैं. आलिया (alia bhatt) ने फिल्म ‘हार्ट ऑफ स्टोन’ से हॉलीवुड में कदम रखा है. जो 11 अगस्त 2023 को ‘नेटफ्लिक्स’ पर रिलीज हुई थी.

जैकलीन फर्नांडीज

आपको बता दें कि बहुत ही कम समय में बॉलीवुड में अपनी एक्टिंग से लोगों को अपना दीवाना बनाने वाली एक्ट्रेस ”जैकलीन फर्नांडीज” (jacqueline fernandez) भी हॉलीवुड में कदम रखने को तैयार है. हाल ही में अपने सोशल मीडिया अकाउंट इंस्टाग्राम पर उन्होंने बताया था कि वो हॉलीवुड में डेब्यू करने जा रही है. उन्होंने पोस्ट जारी कर अपने फैंस को बताया था कि वो फिल्म ‘टेल इट लाइक अ वुमन’ से अपने हॉलीवुड करियर की शुरुआत कर रही हैं.

गौरतलब है कि विदेशी फिल्मों में भारतीय कलाकारों के काम करने का सिलसिला वैसे तो 30 के दशक में ही शुरू हो गया था, लेकिन अब  हॉलीवुड में बॉलीवुड अभिनेत्रियों का दबदबा लगातार बढ़ रहा है.

क्या नरेंद्र मोदी विधानसभा चुनाव लड़ेंगे

जिस तरह नरेंद्र मोदी और अमित शाह आगामी 5 राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में केंद्रीय मंत्री और सांसदों को ताश के पत्तों की तरह फेंट रहे हैं, उस से ये चेहरे मजाक का विषय बन गए हैं. सवाल यह है कि क्या नरेंद्र मोदी और अमित शाह स्वयं किसी राज्य से किसी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का साहस दिखाएंगे?

यह सवाल इसलिए भी है कि चाहे मध्य प्रदेश हो, छत्तीसगढ़ या फिर राजस्थान, तीनों ही राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति गङबङ है और अगर ये महानुभाव चुनाव लड़ते हैं तो कथित रूप से उन की सोच के मुताबिक यहां भाजपा की सरकार बन जाएगी।

मोदी और शाह को डर क्यों ?

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व जब से नरेंद्र दामोदरदास मोदी और अमित शाह के कंधे पर आया है, भाजपा में रोज नएनए प्रयोग हो रहे हैं, जिस में आज सब से अधिक चर्चा में है आगामी 5 विधानसभा चुनाव में भाजपा के सांसदों और सत्ता में मंत्री पद पर बैठे शख्सियतों को विधानसभा चुनाव में उतारना.

नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी जब सारी नैतिकता को उतार कर फेंक चुकी है, तब ऐसे में विधानसभा चुनाव में राज्यों में किसी भी तरह सत्ता बनी रहे के फार्मूले के तहत केंद्र में बैठे मंत्रियों को विधानसभा चुनाव में उतारा जा रहा है.

मजाक नहीं तो और क्या ?

इतना ही नहीं, सांसदों को भी विधानसभा के टिकट दिए जा रहे हैं. इस में कैलाश विजयवर्गीय का नाम तो एक मजाक बना कर देश की राजनीति में चर्चा का विषय बना हुआ है. उन्होंने साफसाफ कह दिया कि उन का मन 1 फीसदी भी चुनाव लड़ने का नहीं है।

इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि भाजपा के केंद्र में बैठे नरेंद्र मोदी और अमित शाह किस तरह आने वाले चुनाव में मंत्रियों और सांसदों को प्यादे की तरह इस्तेमाल करेंगे. इस में चाहे उन मंत्रियों व सांसदों की सहमति हो या न हो या फिर वे चुनाव लड़ कर हार जाएं और मजाक का विषय बन जाएं.

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी समझ चुकी है कि बड़ेबड़े चेहरों को चुनाव लड़ाने से पार्टी को राजनीतिक अनुभव और लोकप्रियता का लाभ मिला है. इन बड़े शहरों के पास चुनाव जीतने का बेहतर मौका होता है और वे पार्टी के लिए वोट जुटाने में भी मदद करते हैं. इसी फार्मूले के तहत मध्य प्रदेश में जहां एक सर्वे रिपोर्ट यह बता रही है कि भाजपा की उलटी गिनती चल रही है, वहीं बीजेपी ने 2 केंद्रीय मंत्रियों- नरेंद्र सिंह तोमर और फग्गन सिंह कुलस्ते के साथसाथ 4 अन्य सांसदों को भी टिकट दिया है.

उलटा न पड़ जाए दांव

भाजपा ने लंबे समय के विश्लेषण के बाद यह पाया है कि विपक्ष को कमजोर करने के लिए बड़ेबड़े चेहरों को चुनाव लड़ाने से विपक्ष को कमजोर करने में मदद मिल सकती है. इन नेताओं के सामने खड़े होने से विपक्ष के उम्मीदवारों के लिए चुनाव जीतना कठिन हो जाता है. जैसे, राजस्थान में 3 केंद्रीय मंत्रियों- गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी और अर्जुन राम मेघवाल के साथसाथ और 4 सांसदों को टिकट दिए जाने की संभावना है.

इन चेहरों के मैदान में आने की अटकलों के बाद जहां भाजपा यह मान रही है कि राजस्थान में सरकार बना लेना आसान होगा, वहीं कांग्रेस और आम जनमानस यह मान रहा है कि अगर ये जो चेहरे चुनाव हार जाते हैं तो भाजपा का क्या होगा.

खतरे में भविष्य

भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व अपने उन चेहरों को परेशानियों में डाल रहा है जो बड़ा नाम बन चुके हैं. अब अगर ये चेहरे चुनाव हार जाते हैं तो इन का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा. जैसे मध्य प्रदेश में राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को इंदौर 1 विधानसभा सीट से टिकट दिया गया है, जिस का जमीनी असर देखने को यह मिल सकता है कि अगर विजयवर्गीय चुनाव हार जाते हैं तो उन की राजनीति चौपट हो जाएगी.

ऐसे में यह चर्चा है कि अपने केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को विधानसभा चुनाव की आग में झोंकने वाले अमित शाह और नरेंद्र मोदी क्या किसी राज्य की किसी विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ कर उसे राज्य में जीत और सत्ता वापसी का कारनामा कर सकते हैं?

देखने वाली बात

बहरहाल, बीजेपी राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में भी वहां से चुन कर दिल्ली पहुंचे नेताओं को वापस उन के प्रदेशों में भेज सकती है. तेलंगाना से बीजेपी के 4 सांसद हैं. पार्टी ने उन में से एक जी. किशन रेड्डी को केंद्रीय मंत्री और तेलंगाना प्रदेश का अध्यक्ष बना रखा है. बीजेपी के तेलंगाना से 3 अन्य सांसद संजय बांदी, अरविंद धर्मपुरिया और सोयम बाबू राव हैं.

संभव है कि सभी चारों सांसदों को बीजेपी विधानसभा चुनाव लड़वा सकती है क्योंकि पार्टी इस बार तेलंगाना में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) की सरकार को पलटने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती. खासकर, कर्नाटक के हाथ से निकल जाने के बाद सत्ता के नजरिए से बीजेपी का दक्षिणी राज्यों से सफाया हो गया, इसलिए वह तेलंगाना के जरिए देश के दक्षिणी हिस्से में सत्ता पर दखल बनाए रखना चाहती है.

देखना यह होगा कि आने वाले समय में भाजपा का यह प्रयोग कितना सफल होता है या फिर भाजपा के गले का कांटा बन जाता है.

कैंसर : इन लक्षणों को कभी न करें नजरअंदाज

शरीर के किसी भी भाग में कैंसर पनपता है तो उस के कुछ लक्षण दिखाई देते हैं. ये लक्षण इस पर निर्भर करते हैं कि कैंसर कहां है, किस आकार का है और इस के कारण उस अंग को कितना नुकसान पहुंचा है.

कैंसर के 15 लक्षण

कई अनुसंधानों में यह बात सामने आई है कि कई सामान्य स्वास्थ्य समस्याएं भी कैंसर होने का संकेत हो सकती हैं. लेकिन याद रखें कि इन लक्षणों के दिखाई देने का अर्थ यह नहीं है कि आप को कैंसर ही है. कई अन्य कारणों से भी ये लक्षण दिखाई दे सकते हैं. किसी भी लक्षण, जो लंबे समय तक रहे और समय के साथ गंभीर हो जाए, को नजरअंदाज न करें.

अधिकतर महिलाएं सोचती हैं कि ये लक्षण मामूली हैं, इसलिए वे उन्हें गंभीरता से नहीं लेतीं और डाक्टर के पास नहीं जातीं. इस से उन की बीमारी और गंभीर हो जाती है. जितनी जल्दी कैंसर का उपचार प्रारंभ कर दिया जाएगा, उतना उस के ठीक होने की संभावना बढ़ जाएगी.

आप को अपने शरीर में निम्न लक्षणों में से कोई लक्षण दिखाई दे तो उस की अनदेखी न करें, तुरंत किसी फिजिशियन से संपर्क करें.

उभार या गुमड़

शरीर में कहीं भी उभार या गुमड़ दिखाई दे तो उसे नजरअंदाज न करें. यह कैंसर की गठान हो सकती है. स्तन कैंसर का सब से शुरुआती लक्षण स्तनों में गठान के रूप में दिखाई देता है. इसे दबा कर देखें, अगर इस में तेज दर्द हो तो तुरंत डाक्टर से संपर्क करें.

खांसी और गले की खराश

खांसी और गले की खराश को मामूली समस्याएं माना जाता है, लेकिन अगर ये समस्याएं बिना किसी स्पष्ट कारण के लगातार बनी रहें तो इन्हें गंभीरता से लें. ये लैरिंक्स, फेफड़ों या थायराइड कैंसर के लक्षण हो सकते हैं. खांसी और गले की खराश 3 सप्ताह से अधिक रहे तो तुरंत डाक्टर से संपर्क करें.

मल त्यागने की आदतों में बदलाव

एक अध्ययन से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार कैंसर से पीडि़त 18 प्रतिशत लोगों में मल त्यागने की आदतों में बदलाव आ जाता है. इन बदलावों में सम्मिलित है मल त्यागने के समय, मात्रा या रंगरूप में असामान्यता, जैसे कब्ज, लूज मोशन, अपच आदि. कई बार कुछ निश्चित खा- पदार्थों या दवाइयों का सेवन मल त्यागने की आदतों में बदलाव ला देता है, लेकिन यह अस्थायी होता है. अगर यह समस्या लंबे समय तक बनी रहे तो नजरअंदाज न करें. यह कोलन कैंसर का संकेत हो सकता है.

मूत्रमार्ग से संबंधित समस्याएं

चूंकि यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फैक्शन यानी यूटीआई महिलाओं में बहुत आम है, इसलिए महिलाएं मूत्रमार्ग से संबंधित समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेती हैं. लेकिन अगर आप को यूरिन में रक्त दिखाई दे, यूरिन पास करने पर नियंत्रण न रहे या यूरिन पास करते समय दर्द हो तो इन लक्षणों को गंभीरता से लें. डाक्टर से संपर्क करें क्योंकि ये ब्लैडर या किडनी कैंसर के कारण हो सकते हैं.

शरीर में तेज दर्द

शरीर में लगातार तेज दर्द बना रहना बोन कैंसर या ओवेरियन कैंसर के कारण हो सकता है. अमेरिकन कैंसर सोसायटी के अनुसार, अगर दर्द शरीर के किसी एक भाग तक सीमित न रह कर शरीर के अलगअलग हिस्सों में फैले तो इस का कारण कैंसर हो सकता है.

ऐसा सिरदर्द जो उपचार कराने के बाद भी ठीक न हो, ब्रेन ट्यूमर का लक्षण हो सकता है. कमरदर्द आंत, मलाशय या अंडाशय के कैंसर का लक्षण हो सकता है. दर्द इस बात का संकेत भी है कि कैंसर जहां शुरू हुआ है वहां से शरीर के दूसरे भागों में फैलने लगा है.

वजन तेजी से कम होना

बिना किसी कारण के आप का वजन तेजी से कम होने लगे तो सतर्क हो जाएं. यह अग्नाशय, पेट, फेफड़े या आहारनाल के कैंसर का संकेत हो सकता है. अगर एक महीने में आप का 4-5 किलो वजन कम जो जाए तो यह कैंसर का प्रारंभिक लक्षण हो सकता है.

निगलने में समस्या होना

गले के आंतरिक संकुचन से निगलने में रुकावट आ सकती है. यह समस्या तंत्रिका या रोग प्रतिरोधक तंत्र की गड़बड़ी के कारण हो सकती है या इस का कारण आहारनाल, गले या पेट का कैंसर भी हो सकता है.

ब्लीडिंग या डिस्चार्ज

अगर खांसने पर खून आए तो फेफड़ों के कैंसर, मल के साथ खून आए तो बड़ी आंत या मलाशय का कैंसर, यूरिन के साथ रक्त आए तो यह मूत्राशय या किडनी के कैंसर का संकेत हो सकता है. वेजाइना से आसामान्य ब्लीडिंग सर्विकल या एंडोमैट्रियल कैंसर (गर्भाशय की आंतरिक परत का कैंसर) के कारण हो सकता है. निपलों से ब्लडी डिस्चार्ज स्तन कैंसर का एक प्रमुख लक्षण है. असामान्य रक्त स्राव कैंसर के किसी भी चरण में हो सकता है. इसलिए शरीर के किसी भी भाग से असामान्य ब्लीडिंग हो तो उसे गंभीरता से लें और डाक्टर को दिखाने में देरी न करें.

त्वचा में बदलाव

त्वचा में कैंसर के साथ ही दूसरे प्रकार के कैंसरों में भी त्वचा में परिवर्तन आ सकता है. त्वचा के रंग में बदलाव, खुजली या अत्यधिक बाल उग आना, त्वचा पर तिल और मस्से हो जाना कैंसर के संकेत हो सकते हैं.

बुखार

बुखार कैंसर का एक बहुत सामान्य लक्षण है, लेकिन यह लक्षण तब दिखाई देता है जब कैंसर जहां प्रारंभ हुआ है, वहां से शरीर के बाकी भागों में भी फैलने लगता है. लगभग सभी लोगों, जो कैंसर से पीडि़त होते हैं, को इस के किसी चरण में बुखार का सामना करना पड़ता है, विशेषरूप से तब जब कैंसर इम्यून तंत्र को प्रभावित करता है. ऐसी स्थिति में शरीर के लिए संक्रमण से लड़ना कठिन हो जाता है. वैसे, बुखार आना ब्लड कैंसर का प्रारंभिक संकेत हो सकता है.

थकान

अत्यधिक थकान, जो आराम करने के बाद भी दूर न हो, कैंसर के विकसित होने का प्रमुख संकेत है. लेकिन कई कैंसरों, जैसे ब्लड कैंसर की शुरुआत में ही थकान हो सकती है. आंतों या पेट के कैंसर के कारण होने वाले ब्लड लौस के कारण भी थकान हो सकती है.

स्तनों में असामान्य बदलाव

स्तनों में गठानें हो जाना, स्तनों का आकार, रूप बदल जाना, निपलों का अंदर की ओर मुड़ जाना, स्तनों की त्वचा का टैक्सचर बदल जाना, स्तनों में दर्द होना, निपलों से ब्लडी डिस्चार्ज निकलना स्तन कैंसर के प्रमुख लक्षण हैं. यह भी ध्यान रखें कि स्तन कैंसर में गठान के बजाय स्तनों की त्वचा जगहजगह से लाल या मोटी भी हो सकती है.

सांस फूलना

सांस लेने में परेशानी होना या सांस फूलना जैसे संकेतों को गंभीरता से लें क्योंकि इन का कारण फेफड़ों का कैंसर हो सकता है.

पीरियड्स के बीच में ब्लीडिंग

ब्लीडिंग, जो मासिकचक्र का भाग नहीं है, मेनोपौज के बाद होने वाली ब्लीडिंग कभी भी सामान्य नहीं है. वेजाइना से असामान्य ब्लीडिंग सर्विकल या एंडोमैट्रियल कैंसर यानी गर्भाशय की आंतरिक परत का कैंसर के कारण हो सकती है.

पेट फूलना

महिलाओं में हार्मोन परिवर्तनों और मासिकचक्र के दौरान शारीरिक बदलाव के कारण अकसर पेट फूलने की समस्या हो जाती है. लेकिन अगर यह समस्या लगातार बनी रहे तो इस का कारण स्तन, आंतों, अग्नाशय, अंडाशय या गर्भाशय का कैंसर हो सकता है.

(लेखक बीएल कपूर सुपरस्पैशियलिटी अस्पताल, नई दिल्ली में औंकोलौजिस्ट हैं.)

मेरे बाल बेजान व दोमुंहे हो गए हैं, इन्हें मुलायम व चमकदार बनाने के लिए उपाय बताइएं ?

सवाल

मैं 35 वर्षीय महिला हूं. पिछले कुछ दिनों से मेरे बाल बेजान व दोमुंहे हो रहे हैं. मैं बालों को कलर करने के लिए मेहंदी लगाती हूं. मेहंदी लगाने के बाद जब मैं शैंपू करती हूं तो मेरे बाल और रूखे व बेजान हो जाते हैं. बालों को मुलायम व चमकदार बनाने के लिए कोई कारगर उपाय बताएं?

जवाब

आप के बालों के रूखे और बेजान होने का कारण मेहंदी ही है. दरअसल, मेहंदी में आयरन होता है, जो बालों की कोटिंग करता है, जिस से वे रूखे व बेजान हो जाते हैं. अगर आप बालों को कलर करने के लिए मेहंदी ही लगाना चाहती हैं, तो सब से पहले मेहंदी को सारे बालों पर लगाने के बजाय सिर्फ रूट टचिंग करें. दूसरा, मेहंदी के घोल में थोड़ा सा कोई भी औयल अवश्य मिला लें, साथ ही मेहंदी लगाने के बाद बालों को शैंपू न करें सिर्फ पानी से मेहंदी निकालें. फिर बालों के सूखने पर खोपड़ी में अच्छी तरह औयलिंग कर शैंपू करें. इस के अलावा बालों में मेथी का पैक व दही आदि लगाएं. इस से बालों की रफनैस दूर होगी और वे चमकदार व मुलायम भी बनेंगे.

बिन घुंघरू की पायल : कौन कर रहा था पायल का इंतजार ?

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आंधी से बवंडर की ओर : क्या सोनिया अपनी बेटी को मशीनी सिस्टम से निजात दिला पाई ?

फन मौल से निकलतेनिकलते, थके स्वर में मैं ने अपनी बेटी अर्पिता से पूछा, ‘‘हो गया न अप्पी, अब तो कुछ नहीं लेना?’’

‘‘कहां, अभी तो ‘टी शर्ट’ रह गई.’’

‘‘रह गई? मैं तो सोच रही थी…’’

मेरी बात बीच में काट कर वह बोली, ‘‘हां, मम्मा, आप को तो लगता है, बस थोडे़ में ही निबट जाए. मेरी सारी टी शर्ट्स आउटडेटेड हैं. कैसे काम चला रही हूं, मैं ही जानती हूं…’’

सुन कर मैं निशब्द रह गई. आज की पीढ़ी कभी संतुष्ट दिखती ही नहीं. एक हमारा जमाना था कि नया कपड़ा शादीब्याह या किसी तीजत्योहार पर ही मिलता था और तब उस की खुशी में जैसे सारा जहां सुंदर लगने लगता.

मुझे अभी भी याद है कि शादी की खरीदारी में जब सभी लड़कियों के फ्राक व सलवारसूट के लिए एक थान कपड़ा आ जाता और लड़कों की पतलून भी एक ही थान से बनती तो इस ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि लोग सब को एक ही तरह के कपड़ों में देख कर मजाक तो नहीं बनाएंगे…बस, सब नए कपड़े की खुशी में खोए रहते और कुछ दिन तक उन कपड़ों का ‘खास’ ध्यान रखा जाता, बाकी सामान्य दिन तो विरासत में मिले कपड़े, जो बड़े भाईबहनों की पायदान से उतरते हुए हम तक पहुंचते, पहनने पड़ते थे. फिर भी कोई दुख नहीं होता था. अब तो ब्रांडेड कपड़ों का ढेर और बदलता फैशन…सोचतेसोचते मैं अपनी बेटी के साथ गाड़ी में बैठ गई और जब मेरी दृष्टि अपनी बेटी के चेहरे पर पड़ी तो वहां मुझे खुशी नहीं दिखाई पड़ी. वह अपने विचारों में खोईखोई सी बोली, ‘‘गाड़ी जरा बुकशौप पर ले लीजिए, पिछले साल के पेपर्स खरीदने हैं.’’

सुन कर मेरा दिल पसीजने लगा. सच तो यह है कि खुशी महसूस करने का समय ही कहां है इन बच्चों के पास. ये तो बस, एक मशीनी जिंदगी का हिस्सा बन जी रहे हैं. कपड़े खरीदना और पहनना भी उसी जिंदगी का एक हिस्सा है, जो क्षणिक खुशी तो दे सकता है पर खुशी से सराबोर नहीं कर पाता क्योंकि अगले ही पल इन्हें अपना कैरियर याद आने लगता है.

इसी सोच में डूबे हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. मैं सारे पैकेट ले कर उन्हें अप्पी के कमरे में रखने के लिए गई. पूरे पलंग पर अप्पी की किताबें, कंप्यूटर आदि फैले थे…उन्हीं पर जगह बना कर मैं ने पैकेट रखे और पलंग के एक किनारे पर निढाल सी लेट गई. आज अपनी बेटी का खोयाखोया सा चेहरा देख मुझे अपना समय याद आने लगा…कितना अंतर है दोनों के समय में…

मेरा भाई गिल्लीडंडा खेलते समय जोर की आवाज लगाता और हम सभी 10-12 बच्चे हाथ ऊपर कर के हल्ला मचाते. अगले ही पल वह हवा में गिल्ली उछालता और बच्चों का पूरा झुंड गिल्ली को पकड़ने के लिए पीछेपीछे…उस झुंड में 5-6 तो हम चचेरे भाईबहन थे, बाकी पासपड़ोस के बच्चे. हम में स्टेटस का कोई टेंशन नहीं था.

देवीलाल पान वाले का बेटा, चरणदास सब्जी वाले की बेटी और ऐसे ही हर तरह के परिवार के सब बच्चे एकसाथ…एक सोच…निश्ंिचत…स्वतंत्र गिल्ली के पीछेपीछे, और यह कैच… परंतु शाम होतेहोते अचानक ही जब मेरे पिता की रौबदार आवाज सुनाई पड़ती, चलो घर, कब तक खेलते रहोगे…तो भगदड़ मच जाती…

धूल से सने पांव रास्ते में पानी की टंकी से धोए जाते. जल्दी में पैरों के पिछले हिस्से में धूल लगी रह जाती…पर कोई चिंता नहीं. घर जा कर सभी अपनीअपनी किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाते. रोज का पाठ दोहराना होता था…बस, उस के साथसाथ मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई अलग से थोड़ी करनी होती थी, अत: 9 बजे तक पाठ पूरा कर के निश्ंिचतता की नींद के आगोश में सो जाते पर आज…

रात को देर तक जागना और पढ़ना…ढेर सारे तनाव के साथ कि पता नहीं क्या होगा. कहीं चयन न हुआ तो? एक ही कमरे में बंद, यह तक पता नहीं कि पड़ोस में क्या हो रहा है. इन का दायरा तो फेसबुक व इंटरनेट के अनजान चेहरे से दोस्ती कर परीलोक की सैर करने तक सीमित है, एक हम थे…पूरे पड़ोस बल्कि दूरदूर के पड़ोसियों के बच्चों से मेलजोल…कोई रोकटोक नहीं. पर अब ऐसा कहां, क्योंकि मुझे याद है कि कुछ साल पहले मैं जब एक दिन अपनी बेटी को ले कर पड़ोस के जोशीजी के घर गई तो संयोगवश जोशी दंपती घर पर नहीं थे. वहीं पर जोशीजी की माताजी से मुलाकात हुई जोकि अपनी पोती के पास बैठी बुनाई कर रही थीं. पोती एक स्वचालित खिलौना कार में बैठ कर आंगन में गोलगोल चक्कर लगा रही थी, कार देख कर मैं अपने को न रोक सकी और बोल पड़ी…

‘आंटी, आजकल कितनी अच्छी- अच्छी चीजें चल गई हैं, कितने भाग्यशाली हैं आज के बच्चे, वे जो मांगते हैं, मिल जाता है और एक हमारा बचपन…ऐसी कार का तो सपना भी नहीं देखा, हमारे समय में तो लकड़ी की पेटी से ही यह शौक पूरा होता था, उसी में रस्सी बांध कर एक बच्चा खींचता था, बाकी धक्का देते थे और बारीबारी से सभी उस पेटी में बैठ कर सैर करते थे. काश, ऐसा ही हमारा भी बचपन होता, हमें भी इतनी सुंदरसुंदर चीजें मिलतीं.’

‘अरे सोनिया, सोने के पिंजरे में कभी कोई पक्षी खुश रह सका है भला. तुम गलत सोचती हो…इन खिलौनों के बदले में इन के मातापिता ने इन की सब से अमूल्य चीज छीन ली है और जो कभी इन्हें वापस नहीं मिलेगी, वह है इन की आजादी. हम ने तो कभी यह नहीं सोचा कि फलां बच्चा अच्छा है या बुरा. अरे, बच्चा तो बच्चा है, बुरा कैसे हो सकता है, यही सोच कर अपने बच्चों को सब के साथ खेलने की आजादी दी. फिर उसी में उन्होंने प्यार से लड़ कर, रूठ कर, मना कर जिंदगी के पाठ सीखे, धैर्य रखना सीखा. पर आज इसी को देखो…पोती की ओर इशारा कर वे बोलीं, ‘घर में बंद है और मुझे पहरेदार की तरह बैठना है कि कहीं पड़ोस के गुलाटीजी का लड़का न आ जाए. उसे मैनर्स नहीं हैं. इसे भी बिगाड़ देगा. मेरी मजबूरी है इस का साथ देना, पर जब मुझे इतनी घुटन है तो बेचारी बच्ची की सोचो.’

मैं उन के उस तर्क का जवाब न दे सकी, क्योंकि वे शतप्रतिशत सही थीं.

हमारे जमाने में तो मनोरंजन के साधन भी अपने इर्दगिर्द ही मिल जाते थे. पड़ोस में रहने वाले पांडेजी भी किसी विदूषक से कम न थे, ‘क्वैक- क्वैक’ की आवाज निकालते तो थोड़ी दूर पर स्थित एक अंडे वाले की दुकान में पल रही बत्तखें दौड़ कर पांडेजी के पास आ कर उन के हाथ से दाना  खातीं और हम बच्चे फ्री का शो पूरी तन्मयता व प्रसन्न मन से देखते. कोई डिस्कवरी चैनल नहीं, सब प्रत्यक्ष दर्शन. कभी पांडेजी बोट हाउस क्लब से पुराना रिकार्ड प्लेयर ले आते और उस पर घिसा रिकार्ड लगा कर अपने जोड़ीदार को वैजयंती माला बना कर खुद दिलीप कुमार का रोल निभाते हुए जब थिरकथिरक कर नाचते तो देखने वाले अपनी सारी चिंता, थकान, तनाव भूल कर मुसकरा देते. ढपली का स्थान टिन का डब्बा पूरा कर देता. कितना स्वाभाविक, सरल तथा निष्कपट था सबकुछ…

सब को हंसाने वाले पांडेजी दुनिया से गए भी एक निराले अंदाज में. हुआ यह कि पहली अप्रैल को हमारे महल्ले के इस विदूषक की निष्प्राण देह उन के कमरे में जब उन की पत्नी ने देखी तो उन की चीख सुन पूरा महल्ला उमड़ पड़ा, सभी की आंखों में आंसू थे…सब रो रहे थे क्योंकि सभी का कोई अपना चला गया था अनंत यात्रा पर, ऐसा लग रहा था कि मानो अभी पांडेजी उठ कर जोर से चिल्लाएंगे और कहेंगे कि अरे, मैं तो अप्रैल फूल बना रहा था.

कहां गया वह उन्मुक्त वातावरण, वह खुला आसमान, अब सबकुछ इतना बंद व कांटों की बाड़ से घिरा क्यों लगता है? अभी कुछ सालों पहले जब मैं अपने मायके गई थी तो वहां पर पांडेजी की छत पर बैठे 14-15 वर्ष के लड़के को देख समझ गई कि ये छोटे पांडेजी हमारे पांडेजी का पोता ही है…परंतु उस बेचारे को भी आज की हवा लग चुकी थी. चेहरा तो पांडेजी का था किंतु उस चिरपरिचित मुसकान के स्थान पर नितांत उदासी व अकेलेपन तथा बेगानेपन का भाव…बदलते समय व सोच को परिलक्षित कर रहा था. देख कर मन में गहरी टीस उठी…कितना कुछ गंवा रहे हैं हम. फिर भी भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं, आंखें बंद कर के.

अभी मैं अपनी पुरानी यादों में खोई, अपने व अपनी बेटी के समय की तुलना कर ही रही थी कि मेरी बेटी ने आवाज लगाई, ‘‘मम्मा, मैं कोचिंग क्लास में जा रही हूं…दरवाजा बंद कर लीजिए…’’

मैं उठी और दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में ही बैठ गई. मन में अनेक प्रकार की उलझनें थीं… लाख बुराइयां दिखने के बाद भी मैं ने भी तो अपनी बेटी को उसी सिस्टम का हिस्सा बना दिया है जो मुझे आज गलत नजर आ रहा था.

सोचतेसोचते मेरे हाथ में रिमोट आ गया और मैंने टेलीविजन औन किया… ब्रेकिंग न्यूज…बनारस में बी.टेक. की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कामर्स पढ़ना चाहती थी…लड़की ने मातापिता द्वारा जोर देने पर इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया था. मुझे याद आया कि बी.ए. में मैं ने अपने पिता से कुछ ऐसी ही जिद की थी… ‘पापा, मुझे भूगोल की कक्षा में अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि मेरी सारी दोस्त अर्थशास्त्र में हैं. मैं भूगोल छोड़ रही हूं…’

‘ठीक है, पर मन लगा कर पढ़ना,’ कहते हुए मेरे पिता अखबार पढ़ने में लीन हो गए थे और मैं ने विषय बदल लिया था. परंतु अब हम अपने बच्चों को ‘विशेष कुछ’ बनाने की दौड़ में शामिल हो कर क्या अपने मातापिता से श्रेष्ठ, मातापिता साबित हो रहे हैं, यह तो वक्त बताएगा. पर यह तो तय है कि फिलहाल इन का आने वाला कल बनाने की हवस में हम ने इन का आज तो छीन ही लिया है.

सोचतेसोचते मेरा मन भारी होने लगा…मुझे अपनी ‘अप्पी’ पर बेहद तरस आने लगा. दौड़तेदौड़ते जब यह ‘कुछ’ हासिल भी कर लेगी तो क्या वैसी ही निश्ंिचत जिंदगी पा सकेगी जो हमारी थी… कितना कुछ गंवा बैठी है आज की युवा पीढ़ी. यह क्या जाने कि शाम को घर के अहाते में ‘छिप्पीछिपाई’, ‘इजोदूजो’, ‘राजा की बरात’, ‘गिल्लीडंडा’ आदि खेल खेलने में कितनी खुशी महसूस की जा सकती थी…रक्त संचार तो ऐसा होता था कि उस के लिए किसी योग गुरु के पास जा कर ‘प्राणायाम’ करने की आवश्यकता ही न थी. तनाव शब्द तो तब केवल शब्दकोश की शोभा बढ़ाता था… हमारी बोलचाल या समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की खबरों की नहीं.

अचानक मैं उठी और मैं ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि मैं अपनी ‘अप्पी’ को इस ‘रैट रेस’ का हिस्सा नहीं बनने दूंगी. आज जब वह कोचिंग से लौटेगी तो उस को पूरा विश्वास दिला दूंगी कि वह जो करना चाहती है करे, हम बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे. मेरा मन थोड़ा हलका हुआ और मैं एक कप चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी…तभी टेलीफोन की घंटी बजी…मेरी ननद का फोन था…

‘‘भाभीजी, क्या बताऊं, नेहा का रिश्ता होतेहोते रह गया, लड़का वर्किंग लड़की चाह रहा है. वह भी एम.बी.ए. हो. नहीं तो दहेज में मोटी रकम चाहिए. डर लगता है कि एक बार दहेज दे दिया तो क्या रोजरोज मांग नहीं करेगा?’’

उस के आगे जैसे मेरे कानों में केवल शब्दों की सनसनाहट सुनाई देने लगी, ऐसा लगने लगा मानो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई हो…अभी मैं अपनी अप्पी को आजाद करने की सोच रही थी और अब ऐसा समाचार.

क्या हो गया है हम सब को? किस मृगतृष्णा के शिकार हो कर हम सबकुछ जानते हुए भी अनजान बने अपने बच्चों को उस मशीनी सिस्टम की आग में धकेल रहे हैं…मैं ने चुपचाप फोन रख दिया और धम्म से सोफे पर बैठ गई. मुझे अपनी भतीजी अनुभा याद आने लगी, जिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहे अपने एक सहकर्मी से इसलिए शादी की क्योंकि आज की भाषा में उन दोनों की ‘वेवलैंथ’ मिलती थी. पर उस का परिणाम क्या हुआ? 10 महीने बाद अलगाव और डेढ़ साल बाद तलाक.

मुझे याद है कि मेरी मां हमेशा कहती थीं कि पति के दिल तक पेट के रास्ते से जाया जाता है. समय बदला, मूल्य बदले और दिल तक जाने का रास्ता भी बदल गया. अब वह पेट जेब का रास्ता बन चुका था…जितना मोटा वेतन, उतना ही दिल के करीब…पर पुरुष की मूल प्रकृति, समय के साथ कहां बदली…आफिस से घर पहुंचने पर भूख तो भोजन ही मिटा सकता है और उस को बनाने का दायित्व निभाने वाली आफिस से लौटी ही न हो तो पुरुष का प्रकृति प्रदत्त अहं उभर कर आएगा ही. वही हुआ भी. रोजरोज की चिकचिक, बरतनों की उठापटक से ऊब कर दोनों ने अलगाव का रास्ता चुन लिया…ये कौन सा चक्रव्यूह है जिस के अंदर हम सब फंस चुके हैं और उसे ‘सिस्टम’ का नाम दे दिया…

मेरा सिर चकराने लगा. दूर से आवाज आ रही थी, ‘दीदी, भागो, अंधड़ आ रहा है…बवंडर न बन जाए, हम फंस जाएंगे तो निकल नहीं पाएंगे.’ बचपन में आंधी आने पर मेरा भाई मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूर तक भगाता ले जाता था. काश, आज मुझे भी कोई ऐसा रास्ता नजर आ जाए जिस पर मैं अपनी ‘अप्पी’ का हाथ पकड़ कर ऐसे भागूं कि इस सिस्टम के बवंडर बनने से पहले अपनी अप्पी को उस में फंसने से बचा सकूं, क्योंकि यह तो तय है कि इस बवंडर रूपी चक्रव्यूह को निर्मित करने वाले भी हम हैं…तो निकलने का रास्ता ढूंढ़ने का दायित्व भी हमारा ही है…वरना हमारे न जाने कितने ‘अभिमन्यु’ इस चक्रव्यूह के शिकार बन जाएंगे.

किसे स्वीकारे स्मिता

‘‘यह क्या रिपोर्ट है? क्या तुम्हें नौकरी नहीं करनी,’’ रिपोर्ट समरी देखते ही सुपरवाइजर चीख उठीं.

‘‘मैम, रिपोर्ट तथ्यों पर आधारित है और इस में कुछ भी गलत नहीं है.’’

‘‘क्या तुम्हें अधिकारियों के आदेश का पता नहीं कि हमें शतप्रतिशत बच्चों को साक्षर दिखाना है,’’ सुपरवाइजर ने मेज पर रखी रिपोर्ट को स्मिता की तरफ सरकाते हुए कहा, ‘‘इसे ठीक करो.’’

‘मैम, फिर सर्वे की जरूरत ही क्यों?’ स्मिता ने कहना चाहा किंतु सर्वे के दौरान होने वाले अनुभवों की कड़वाहट मुंह में घुल गई.

चिलचिलाती धूप, उस पर कहर बरपाते लू के थपेडे़, हाथ में एक रजिस्टर लिए स्मिता बालगणना के राष्ट्रीय कार्य में जुटी थी. शारीरिक पीड़ा के साथ ही उस का चित्त भी अशांत था. मन का मंथन जारी था, ‘बालगणना करूं या स्कूल की ड्यूटी दूं. घर का काम करूं या 139 बच्चों का रिजल्ट बनाऊं?’ अधिकारी तो सिर्फ निर्देश देना जानते हैं, कभी यह नहीं सोचते कि कर्मचारी के लिए इतना सबकुछ कर पाना संभव भी है या नहीं.

स्कूटर की आवाज से स्मिता की तंद्रा भंग हुई. सड़क के किनारे बहते नल से उस ने चुल्लू में पानी ले कर गले को तर किया. उस के मुरझाए होंठों पर ताजगी लौटने लगी. नल को बंद किया तो खराब टोंटी से निकली पानी की बूंदें उस के चेहरे और कपड़ों पर जा पड़ीं. उस ने कलाई पर बंधी घड़ी पर अपनी नजरें घुमा दीं.

‘एक बज गया,’ वह बुदबुदाती हुई एक मकान की ओर बढ़ गई. घंटी बजाने पर दरवाजा खुलने में देर नहीं लगी थी.

एक सांवली सी औरत गरजी, ‘‘तुम्हारी अजीब दादागिरी है. अरे, जब मैं ने कह दिया कि मेरे बच्चे पोलियो की दवा नहीं पिएंगे, तो क्यों बारबार आ जाती हो? जाइए यहां से.’’

स्मिता को लगा जैसे किसी ने उस के मुंह पर जोर का तमाचा मारा हो. उस ने विनम्र स्वर में कहा, ‘‘बहनजी, एक मिनट सुनिए तो, लगता है आप को कोई गलतफहमी हुई है. मैं पोलियो के लिए नहीं, बालगणना के लिए यहां आई हूं.’

‘‘फिर आइएगा, अभी मुझे बहुत काम है,’’ उस ने दरवाजा बंद कर लिया.

वह हताशा में यह सोचती हुई पलटी कि इस तरह तो कोई जानवर को भी नहीं भगाता.

स्मिता को लगा कि कई जोड़ी आंखें उस के शरीर का भौगोलिक परिमाप कर रही हैं मगर वह उन लोगों से नजरें चुराती हुई झोपड़ी की तरफ चली गई. वहां नीम के पेड़ की घनी छाया थी. एक औरत दरवाजे पर बैठी अपने बच्चे को दूध पिला रही थी. दाईं ओर 3 अधनंगे बच्चे बैठे थाली में सत्तू खा रहे थे. सामने की दीवार चींटियों की कतारों से भरी थी.

स्मिता उस औरत के करीब जा कर बोली, ‘‘हम बालगणना कर रहे हैं। कृपया बताइए कि आप के यहां कितने बच्चे हैं और उन में कितने पढ़ते हैं?’’

‘‘बहनजी, मेरी 6 लड़कियां और 3 लड़के हैं लेकिन पढ़ता कोई नहीं है.’’

‘‘9 बच्चे,’’ वह चौंकी और सोचने लगी कि यहां तो एक बच्चा संभालना भी मुश्किल हो रहा है लेकिन यह कैसे 9 बच्चों को संभालती होगी?

‘‘अम्मां, कलुवा सत्तू नहीं दे रहा है.’’

‘‘कलुवा, सीधी तरह से इसे सत्तू देता है या नहीं कि उठाऊं डंडा,’’ औरत चीख कर बोली.

‘‘ले खा,’’ और इस के साथ लड़के के मुंह से एक भद्दी सी गाली निकली.

‘‘नहीं बेटा, गाली देना गंदी बात है,’’ कहती हुई स्मिता उस औरत से मुखातिब हुई, ‘‘आप ने अभी तक अपने बच्चों का नाम स्कूल में क्यों नहीं लिखवाया?’’

‘‘अरे, बहनजी, चौकी वाले स्कूल में गई थी मगर मास्टर ने यह कह कर मुझे भगा दिया कि यहां दूसरे महल्ले के बच्चों का नाम नहीं लिखा जाता है. अब आप ही बताइए, जब मास्टर नाम नहीं लिखेेंगे तो हमारे बच्चे कहां पढ़ेंगे? रही बात इस महल्ले की तो यहां सरकारी स्कूल है नहीं, और जो स्कूल है भी वह हमारी चादर से बाहर है.’’

एकएक कर के कई वृद्ध, लड़के, लड़कियां और औरतें वहां जमा हो गए. कुछ औरतें अपनेअपने घर की खिड़कियों से झांक रही थीं. स्मिता ने रजिस्टर बंद करते हुए कहा, ‘‘कल आप फिर स्कूल जाइए, अगर तब भी वह नाम लिखने से मना करें तो उन से कहिए कि कारण लिख कर दें.’’

‘‘ठीक है.’’

एकाएक धूल का तेज झोंका स्मिता से टकराया तो उस ने अपनेआप को संभाला. फिर एकएक कर के सभी बच्चों का नाम, जाति, उम्र, पिता का नाम, स्कूल आदि अपने रजिस्टर में लिख लिया.

बगल के खंडहरनुमा मकान में उसे जो औरत मिली वह उम्र में 35-40 के बीच की थी. चेहरा एनेमिक था. स्मिता ने उस से सवाल किया, ‘‘आप के कितने बच्चे हैं?’’

अपने आंचल को मुंह में दबाए औरत 11 बोल कर हंस पड़ी.

स्मिता ने मन ही मन सोचा, बाप रे, 11 बच्चे, वह भी इस महंगाई के जमाने में. क्या होगा इस देश का? पर प्रत्यक्ष में फिर पूछा, ‘‘पढ़ते कितने हैं?’’

‘‘एक भी नहीं, क्या करेंगे पढ़ कर? आखिर करनी तो इन्हें मजदूरी ही है.’’

‘‘बहनजी, आप ऐसा क्यों सोचती हैं? पढ़ाई भी उतनी ही जरूरी है जितना कि कामधंधा. आखिर बच्चों को स्कूल भेजने में आप को नुकसान ही क्या है? उलटे बच्चों को स्कूल भेजेंगी तो हर महीने उन्हें खाने को चावल और साल में 300 रुपए भी मिलेंगे.’’

चेचक के दाग वाली एक अन्य औरत तमतमाए स्वर में बोली, ‘‘यह सब कहने की बात है कि हर महीने चावल मिलेगा. अरे, मेरे लड़के को न तो कभी चावल मिला और न ही 300 रुपए.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? आप का लड़का पढ़ता किस स्कूल में है?’’

‘‘अरी, ओ रिहाना… कहां मर गई रे?’’

‘‘आई, अम्मी.’’

‘‘बता, उस पीपल वाले स्कूल का क्या नाम है?’’

वह सोचती हुई बोली, ‘‘कन्या माध्यमिक विद्यालय.’’

स्मिता ने अपने रजिस्टर में कुछ लिखते हुए पूछा, ‘‘आप ने कभी उस स्कूल के प्रिंसिपल से शिकायत की?’’

‘‘तुम पूछती हो शिकायत की. अरे, एक बार नहीं, मैं ने कई बार की, फिर भी कोई सुनवाई नहीं हुई. इसीलिए मैं ने उस की पढ़ाई ही बंद करवा दी.’’

‘‘इस से क्या होगा, बहनजी.’’

स्मिता के इस प्रश्न पर उस ने उसे हिकारत भरी नजरों से देखा और बोली, ‘‘कुछ भी हो अब मुझे पढ़ाई करानी ही नहीं, वैसे भी पढ़ाई में रखा ही क्या है? आज मेरे लड़के को देखो, 20 रुपए रोज कमाता है.’’

स्मिता उन की बातों को रजिस्टर में उतार कर आगे बढ़ गई. अचानक तीखी बदबू उस की नाक में उतर आई. चेहरे पर कई रेखाएं उभर आई थीं. एक अधनंगा लड़का मरे हुए कुत्ते को रस्सी के सहारे खींचे लिए जा रहा था और पीछेपीछे कुछ अधनंगे बच्चे शोर मचाते हुए चले जा रहे थे. उस ने मुंह को रूमाल से ढंक लिया.

मकान का दरवाजा खुला था. चारपाई पर एक दुबलपतला वृद्ध लेटा था. सिरहाने ही एक वृद्धा बैठी पंखा झल रही थी. स्मिता ने दरवाजे के पास जा कर पूछा, ‘‘मांजी, आप के यहां परिवार में कितने लोग हैं.’’

‘‘इस घर में हम दोनों के अलावा कोई नहीं है,’’ उस वृद्धा का स्वर नम था.

‘‘क्यों, आप के लड़के वगैरह?’’

‘‘वह अब यहां नहीं रहते और क्या करेंगे रह कर भी, न तो अब हमारे पास कोई दौलत है न ही पहले जैसी शक्ति.’’

‘‘मांजी, बाबा का नाम क्या है?’’

उस वृद्धा ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया. स्मिता की निगाहें उस गुदे हुए नाम पर जा टिकीं, ‘‘कृष्ण चंदर वर्मा,’’ उस के मुंह से शब्द निकले तो वृद्धा ने अपना सिर हिला दिया.

‘‘अच्छा, मांजी,’’ कहती हुई स्मिता सामने की गली की ओर मुड़ गई. वह बारबार अपने चेहरे पर फैली पसीने की बूंदों को रूमाल से पोंछती. शरीर पसीने से तरबतर था. उस की चेतना में एकसाथ कई सवाल उठे कि क्या हो गया है आज के इनसान को, जो अपने ही मांबाप को बोझ समझने लगा है, जबकि मांबाप कभी भी अपने बच्चों को बोझ नहीं समझते?’’

स्मिता सोचती हुई चली जा रही थी. कुछ आवाजें उस के कानों में खनकने लगीं, ‘अरे, सुना, चुरचुर की अम्मां, खिलावन बंगाल से कोई औरत लाया है और उसे 7 हजार रुपए में बेच रहा है.’

आवाज धीमी होती जा रही थी. क्योंकि कड़ी धूप की वजह से उस के कदम तेज थे. वह अपनी रफ्तार बनाए हुए थी, ‘आज औरत सिर्फ सामान बन कर रह गई है, जो चाहे मूल्य चुकाए और ले जाए,’  वह बुदबुदाती हुई सामने के दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

तभी पीछे से एक आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आप को किस से मिलना है. मम्मी तो घर पर नहीं हैं?’’

‘‘आप तो हैं. क्या नाम है आप का और किस क्लास में पढ़ते हैं?’’

‘‘मेरा नाम उदय सोनी है और मैं कक्षा 4 में पढ़ता था.’’

‘‘क्या मतलब, अब आप पढ़ते नहीं हैं?’’

‘‘नहीं, मम्मीपापा में झगड़ा होता था  और एक दिन मम्मी घर छोड़ कर यहां चली आईं,’’ उस बच्चे ने रुंधे स्वर में बताया.

‘कैसे मांबाप हैं जो यह भी नहीं सोचते कि उन के झगड़े का बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’ स्मिता ने सोचा फिर पूछा, ‘‘पर सुनो बेटा, आप के पापा का क्या नाम है?’’

उस बच्चे का स्वर ऊंचा था, ‘‘पापा का नहीं, आप मम्मी का नाम लिखिए, बीना लता,’’ इतना बता कर वह चला गया.

स्मिता के आगे अब एक नया दृश्य था. कूड़े के एक बड़े से ढेर पर 6-7 साल के कुछ लड़के झुके हुए उंगलियों से कबाड़ खोज रहे थे. दुर्गंध पूरे वातावरण में फैल रही थी. वहीं दाईं ओर की दीवार पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था, ‘यह है फील गुड.’ स्मिता के मस्तिष्क में कई प्रश्न उठे, ‘जिन बच्चों के हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं उन के हाथों में उन के मांबाप ने कबाड़ का थैला थमा दिया. कैसे मांबाप हैं? सिर्फ पैदा करना जानते है.’ किंतु वह केवल सोच सकती थी इन परिस्थितियों को सुधारने की जिन के पास शक्ति व सामर्थ्य है वह तो ऐसा सोचना भी नहीं चाहते.

हवा अब भी आग बरसा रही थी. स्मिता को रहरह कर अपने बच्चे की ंिचंता सता रही थी. मगर नौकरी के आगे वह बेबस थी. सामने से एक जनाजा आता नजर आया. वह किनारे हो गई. जनाजा भीड़ को खींचे लिए जा रहा था.

कुछ लोग सियापे कर रहे थे. नाटे कद की स्त्री कह रही थी, ‘बेचारी, आदमी का इंतजार करतेकरते मर गई, बेहतर होता कि वह विधवा ही होती.’

‘तुम ठीक बोलती हो, भूरे की अम्मां. जो आदमी महीनों अपने बीवी- बच्चों की कोई खोजखबर न ले वह कोई इनसान है? यह भी नहीं सोचता कि औरत जिंदा भी है या मर गई.’

‘अरी बूआ, तुम भी किस ऐयाश की बात करती हो. वह तो सिर्फ औरत को भोगना जानता था. 9 बच्चे क्या कम थे? अरे, औरत न हुई कुतिया हो गई. मुझे तो बेचारे इन मासूमों की चिंता हो रही है.’

‘किसी ने उस के पति को खबर की?’ एक दाढ़ी वाले ने आ कर पूछा.

‘अरे भाई, उस का कोई एक अड््डा हो तो खबर की जाए.’

एकएक कर सभी की बातें स्मिता के कानों में उतरती रहीं. वह सोचने पर मजबूर हो गई कि औरत की जिंदगी भी कोई जिंदगी है. वह तो सिर्फ मर्दों के हाथों की कठपुतली है जिस ने जब जहां चाहा खेला, जब जहां चाहा ठुकरा दिया.

प्यास के कारण स्मिता का गला सूख रहा था. उस ने सोचा कि वह अगले दरवाजे पर पानी का गिलास अवश्य मांग लेगी. उस के कदम तेजी से बढ़े जा रहे थे.

धूप दैत्य के समान उस के जिस्म को जकड़े हुए थी. उस ने एक बार फिर अपने चेहरे को रूमाल से पोंछा. उत्तर की ओर 1 वृद्धा, 2 लड़के बैठे बीड़ी का कश ले रहे थे.

‘‘अम्मां, यही आंटी मुझे पढ़ाती हैं,’’ दरवाजे से लड़के का स्वर गूंजा.

इस से पहले कि स्मिता कुछ बोलती, एक भारी शरीर की औरत नकाब ओढ़ती हुई बाहर निकली और तमतमा कर बोली, ‘‘एक तो तुम लोग पढ़ाती नहीं हो, ऊपर से मेरे लड़के को फेल करती हो?’’

उस औरत के शब्दबाणों ने स्मिता की प्यास को शून्य कर दिया.

‘‘बहनजी, जब आप का लड़का महीने में 4 दिन स्कूल जाएगा तो आप ही बताइए वह कैसे पास होगा?’’

‘‘मास्टराइन हो कर झूठ बोलती हो. अरे, मैं खुद उसे रोज स्कूल तक छोड़ कर आती थी.’’

‘‘बहनजी, आप का कहना सही है, मगर मेरे रजिस्टर पर वह गैरहाजिर है.’’

‘‘तो, गैरहाजिर होने से क्या होता है,’’ इतना कहती हुई वह बाहर चली गई.

खिन्न स्मिता के मुंह से स्वत: ही फूट पड़ा कि स्कूल भेजने का यह अर्थ तो नहीं कि सारी की सारी जिम्मेदारी अध्यापक की हो गई, मांबाप का भी तो कुछ फर्ज बनता है.

स्मिता प्यास से व्याकुल हो रही थी. उस ने चारों ओर निगाहें दौड़ाईं, तभी उस की नजर एक दोमंजिले मकान पर जा टिकी. वह उस मकान के चबूतरे पर जा चढ़ी. स्मिता ने घंटी दबा दी. कुछ पल बाद दरवाजा खुला और एक वृद्ध चश्मा चढ़ाते हुए बाहर निकले. शरीर पर बनियान और पायजामा था.

वृद्ध ने पूछा, ‘‘आप को किस से मिलना है?’’

‘‘बाबा, मैं बालगणना के लिए आई हूं. क्या मुझे एक गिलास पानी मिलेगा?’ स्मिता ने संकोचवश पूछा.

‘‘क्यों नहीं, यह भी कोई पूछने वाली बात है. आप अंदर चली आइए.’’

स्मिता अंदर आ गई. उस की निगाहें कमरे में दौड़ने लगीं. वहां एक कीमती सोफा पड़ा था. उस के सामने रखे टीवी और टेपरिकार्डर मूक थे. कमरे की दीवारें मदर टेरेसा, महात्मा गांधी, ओशो, रवींद्रनाथ टैगोर की तसवीरों से चमक रही थीं. दाईं तरफ की मेज पर कुछ साहित्यिक पुस्तकों के साथ हिंदी, उर्दू और अंगरेजी के अखबार बिखरे थे.

स्मिता ने खडे़खडे़ सोचा कि लगता है बाबा को पढ़ने का बहुत शौक है.

‘‘तुम खड़ी क्यों हो बेटी, बैठो न,’’ कह कर वृद्ध ने दरवाजे की ओर बढ़ कर उसे बंद किया और बोले, ‘‘दरअसल, यहां कुत्ते बहुत हैं, घुस आते हैं. तुम बैठो, मैं अभी पानी ले कर आता हूं. घर में और कोई है नहीं, मुझे ही लाना पड़ेगा. तुम संकोच मत करो बेटी, मैं अभी आया,’ कहते हुए वृद्ध ने स्मिता को अजब नजरों से देखा और अंदर चले गए.

उन के अंदर जाते ही टीवी चल पड़ा. स्मिता ने देखा टीवी स्क्रीन पर एक युवा जोड़ा निर्वस्त्र आलिंगनबद्ध था. स्मिता के शरीर में एक बिजली सी दौड़ गई. उस की प्यास गायब हो गई. घबरा कर उठी और दरवाजे को खोल कर बाहर की ओर भागी. वह बुरी तरह हांफ रही थी और उस का दिल तेजी से धड़क रहा था. जैसे अभी किधर से भी आ कर वह बूढ़ा उसे अपने चंगुल में दबोच लेगा और वह कहीं भाग न सकेगी.

‘‘सोच क्या रही हो? जाओ, और जा कर इस रिपोर्ट को ठीक कर के लाओ. मुझे तथ्यों पर आधारित नहीं, शासन की नीतियों पर आधारित रिपोर्र्ट चाहिए.’’

स्मिता चौंकी, ‘‘जी मैम, मैं समझ गई,’’ वह चली तो उस के कदम बोझिल थे और मन अशांत.

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