Download App

हिंडोला : भाग 3

अनुभा भी भारत वापस आना चाहती थी. सो आ गई. बस तब से वह मुंबई में काम कर रही थी. उस पर नवीन की योग्यताओं की प्रमाणपट्टी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. जो व्यक्ति अनेक डिगरियां हासिल कर ले, जो करोड़ों रुपयों का ढेर लगाता हो, परंतु जिस का कोई नैतिक चरित्र न हो, जो धड़ल्ले से बातबात पर झूठ बोलता हो, जो अपनी पत्नी का फोन देख कर काट देता हो, जो मीटिंग व क्लायंट का भूत अपनी घरगृहस्थी पर लादे रहता हो, जो पति, पिता व पुरुष की मर्यादा न पहचानता हो, उसे अनुभा न तो आदर दे सकती थी न अपनी मित्रता. अनुभा के पिता अकसर अंगरेजी की एक कहावत कहा करते थे, जिस का सारांश था, ‘मैं कालेज तो गया, परंतु शिक्षित नहीं हुआ.’

बस यों समझ लीजिए कि नवीन खन्ना उस कहावत का साक्षात प्रमाण था.

एक बार एक बेहद खूबसूरत किंतु 55 वर्षीय महिला क्लायंट ने अनुभा से कहा था, ‘तेरा बौस तो मुझ जैसी बुढि़या पर भी लाइन मार रहा था.’

अनुभा कर भी क्या सकती थी. चारों तरफ यही सब तो बिखरा पड़ा था. आज के जमाने में दो ही तो पूजे जा रहे हैं, लाभ और पैसा.

कभी वह सोचती थी, क्या इन पुरुषों की पत्नियों को इन के चक्करों का पता नहीं चलता? क्या औफिस में काम कर रही विवाहित स्त्रियों के पतियों को पता नहीं चलता या फिर पता होते हुए भी वे खुली आंखों सोते रहते हैं या फिर पैसे की हायहाय ने प्यार व वफा का कोई मतलब नहीं रहने दिया है?

जो भी हो जीजीशा की नियुक्ति के बाद जीजीशा और नवीन को अकसर  औफिस के बाद इकट्ठे बाहर निकलते देखा जाता था. जीजीशा अभी तक स्वतंत्र थी और उसी तरह स्वच्छंद भी. पता नहीं आलोक को और आलोक की तरह कितनों को कब और कहां छोड़ आई थी?

अनुभा का रिश्ता शुद्ध कामकाज से था. रात को सोते समय कभीकभी पापा की सुनाई हुई लाइनें ‘किसकिस को याद कीजिए, किसकिस को रोइए, आराम बड़ी चीज है, मुंह ढक के सोइए’ मजे के लिए दोहराती थी.

परंतु वह आराम की नींद कब सो पाई थी. अभी जीजीशा को आए 4-5 महीने ही हुए थे कि वह अचानक एक हफ्ते तक औफिस नहीं आई और जब आई तो बेहद दुबली लग रही थी. मेकअप के भीतर भी उस के गालों का पीलापन छिप नहीं पा रहा था. एक भयावह डर उस की आंखों में तैर रहा था. पता चला कि जीजीशा बीमार है, बहुत बीमार.

‘क्या हुआ है उसे?’ सब की जबान पर यही प्रश्न था.

15 दिन औफिस आने के बाद वह फिर गैरहाजिर हो गई थी. वह अस्पताल में भरती थी. उस के रोग का निदान नहीं हो पा रहा था. अनुभा फूलों का गुलदस्ता ले कर उस से मिलने गई थी और ‘शीघ्र स्वस्थ हो जाओ’ भी कह आई थी.

फिर एक दिन औफिस में उस खबर का बर्फीला तूफान आया. जीजीशा के रोग की पहचान की खबर. जिस रोग के लक्षण उसे क्षीण कर रहे थे उस ने उस के अंतरंग मित्रों के होश उड़ा दिए थे. नवीन खन्ना का औफिस व घर मानो 8 फुट मोटी बर्फ से ढक गया था. सब के दिमाग में अफरातफरी मची थी. जिस बीमारी का नाम लेने की हिम्मत न होती हो, उस एचआईवी के लक्षण जीजीशा की रक्त धमनियों में बह रहे थे. कितने ही लोग अपनेअपने रक्त का निरीक्षण करा रहे थे. अनुभा भयभीत हो उठी. आज पहली बार अनुभा इतनी बेचैन हुई. वह उस कड़ी को देख कर कातर हो रही थी जो यामिनी दीदी, आन्या और आलोक को जोड़ रही थी. आलोक और जीजीशा के रिश्ते की कड़ी. घबरा कर उस ने पहली फ्लाइट पकड़ी और मुंबई से अपने घर इलाहाबाद आ गई.

‘अनुभा मैडम को क्या हुआ?’ उस के औफिस में एक प्रश्नवाचक मूक जिज्ञासा तैर गई. इलाहाबाद पहुंच कर बगैर किसी से कुछ कहेसुने, उस ने यामिनी दीदी और आन्या के तमाम टैस्ट करवाए और जब दोनों के निरीक्षण से डाक्टर संतुष्ट हो गए, तब जा कर वह इत्मीनान से पैर पसार कर लेट गई. मां ने उस का सिर अपनी गोद में ले लिया और स्नेहपूर्वक उस के माथे का पसीना पोंछने लगीं, ‘‘एसी चल रहा है और तू है कि पसीने में तरबतर, जैसे किसी रेस में दौड़ कर आई हो.’’

‘‘रेस में ही नहीं मम्मा, मैं तो महारेस में दौड़ कर आई हूं. ट्राईथालौन समझती हो, बस उसी में दौड़ कर लौटी हूं.’’

हक्कीबक्की मां उस का मुंह ताकती रह गईं. मन ही मन अनुभा मां से जाने क्याक्या कहे जा रही थी. एक ही जीवन में कई तरह की दौड़ हो गई. सब से पहले मालरोड पर साइकिल चलाई, फिर पढ़ाई कैरियर और यामिनी दीदी की बिखरी हुई जिंदगी के दलदल में फंसी और दौड़ का अंतिम चरण? वह तो मुंबई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से अस्पताल, अस्पताल के गलियारों की दौड़. उफ, यह अंतिम दौर उस का कठिनतम दौर था. उसे लगा जैसे दीदी और आन्या किसी सुनामी से बच कर किनारे पर सुरक्षित पड़ी हों.

निश्ंिचतता और मां की गोद उसे धीरेधीरे नींद की दुनिया में ले जाने लगी, वह सपनों के हिंडोले में झूलने लगी. अचानक उसे लगा कि अगर आलोक उसे मिल गए होते तो…तो…हिंडोला टूट गया. यह क्या? फिर भी वह हंस रही है. खुशी की हंसी, राहत की हंसी. अच्छा हुआ, आलोक की वह नहीं हुई.

फैसला हमारा है : भाग 3

‘‘मेरी मां से आप की कब बात हुई, सर?’’ प्रिया ने चौंक कर प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारे घर से निकलने के बाद उन्होंने मु झे फोन किया था.’’

‘‘आई एम सौरी, सर. मैं ने उन्हें आप को कभी भी फोन करने से मना कर रखा है, फिर भी क्या कहा उन्होंने…?’’ प्रिया अपने गुस्से को मुश्किल से नियंत्रण में रख पा रही थी.

‘‘तुम्हारे जीजा का दोस्त रवि 10 दिनों बाद मुंबई से आ रहा है. अब रेलें चलने लगी हैं न. वे चाहती हैं कि इस बार तुम दोनों के बीच शादी की बात आगे बढ़े. कम से कम रोका हो जाए, ऐसी उन की इच्छा है.’’

‘‘और क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘मैं तुम से दूर हो जाऊं, ऐसी प्रार्थना करते हुए बद्दुआएं भी दे रही थीं. प्रिया, क्या मैं ने तुम्हें अपनी दौलत, अपनी अमीरी, अपने रुतबे और ओहदे के बल पर अपने साथ जोड़ रखा है? क्या मैं तुम्हारे साथ खिलवाड़ कर रहा हूं?’’ ये सवाल पूछते हुए मल्होत्रा साहब की आवाज में पीड़ा के भाव पैदा हुए.

‘‘ऐसे आरोप मां ने लगाए आप पर?’’

‘‘हां. उन के मन की चिंता मु झे गलत भी नहीं लगी, प्रिया. हमारा रिश्ता रवि के साथ तुम्हारी शादी होने की राह में बिलकुल रुकावट बन सकता है.’’

‘‘मेरी और रवि की शादी होगी, ऐसा फैसला अभी किसी ने नहीं किया है, सर. फिलहाल उस की बात जीजा ने चलाई है. मां ने आप से अपने मन का डर बताया है.’’

‘‘लेकिन, कल को तुम दोनों शादी करने का फैसला कर सकते हो, प्रिया. और तब हमारे बीच का संबंध तुम दोनों के बीच मनमुटाव व अलगाव पैदा करने का कारण बन सकता है. मैं यह कभी नहीं चाहूंगा कि वह मु झ से कभी आ कर  झगड़ा करे.’’

‘‘सर, आप पहले मेरी बात सुनिए,’’ प्रिया ने टोक कर अपने मन की बात कहनी शुरू कर दी, ‘‘जिस दिन रवि और मैं शादी करने का फैसला करेंगे, उस दिन से या उस से पहले ही हमारे बीच सैक्स संबंध समाप्त हो जाएंगे, क्योंकि तब न आप का और न मेरा दिल और बदन ऐसा करने की इजाजत हमें देंगे.’’

‘‘यह सच है कि पापा की कोविड में मौत के बाद हमें माली संकट से उबारने में आप ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अब फ्लैट की किस्तें मु झे नहीं देनी पड़तीं. कार की किस्त अटके या किसी अन्य खर्च के अचानक सिर पर आ पड़ने की स्थिति में आप मेरी हैल्प करते हो. हम साथ घूमते हैं तो भी आप का बहुत खर्चा होता है. हमारे लोगों में यह सुख भी थोड़ों को ही मिला है.

‘‘लेकिन, मेरे देखे यह सब खर्चा तो आप खुशीखुशी करते आए हैं. मु झे कहने की जरूरत नहीं पड़ती और आप पहले से ही मेरी जरूरत सम झ जाते हैं. आप की दौलत नहीं, बल्कि प्रेम ने मु झे आप के साथ जोड़ा हुआ है. मेरी सोच किसी वेश्या की सोच नहीं है.’’

‘‘बेकार की ऐसी बातें सोच कर परेशान मत हो, प्रिया,’’ उसे यों सम झाते हुए मल्होत्रा साहब खुद परेशान नजर आ रहे थे.

‘‘सर, मेरी कोशिश तो आज हम दोनों को बेकार के अपराधबोध की पकड़ से मुक्त करने की है,’’ खुद को शांत करते हुए प्रिया ने आगे बोलना जारी रखा, ‘‘आप अपनी दौलत के मालिक हैं और मैं अपने शरीर की. इन का हम क्यों अपनी मनमरजी से उपयोग नहीं कर सकते?’’

‘‘प्रिया, समाज कुछ रिश्तों को गलत मानता है.’’

‘‘सर, किसी पंडितपुजारी ने फेरे नहीं कराए हैं तो क्या हमारे बीच सैक्स संबंध नाजायज और अनैतिक बन जाएगा? क्या वारिस पैदा करने के लिए ही स्त्रीपुरुष के बीच सैक्स संबंध बने? सारे पांडव भी अपने बाप की औलादें नहीं थीं.’’

मल्होत्रा साहब की सम झ में नहीं आया कि वे प्रिया को क्या जवाब दें तो उस ने अपना तर्क आगे बढ़ाया, ‘‘आज की तारीख में आप की पत्नी नहीं, बल्कि मैं आप की सुखदुख की साथिन हूं. आप अगर मेरा ध्यान रखते हैं और  झुक कर अपनी कमाई खर्च करते हैं तो इस में क्या बुराई है, क्या गलत है?

‘‘रही बात हमारे बीच उम्र के बड़े अंतर की तो प्रेम संबंध की मजबूती आपसी सम झ, तालमेल व चाहत के भावों पर निर्भर करती है, न कि प्रेमियों की उम्र पर. हर उम्र के इंसान का दिल प्रेम देना और पाना चाहता है और इस के लिए उचित प्रेम पात्र का मिलना सब से महत्त्वपूर्ण है. पंडित, पुजारी और समाज में नैतिकता को ले कर शोर मचाने वाले ठेकेदार 2 इंसानों के बीच मजबूत प्रेम संबंध पैदा कराने की गारंटी कभी नहीं दे सकते. हमारे गांव का पंडित ऊंचीनीची जाति की हर लड़की पर हाथ मारने की कोशिश करता रहता है. कभी बात बनती है, कभी नहीं.’’

‘‘हम दोनों एकदूसरे के साथ बहुत खुश और सुखी हैं. मैं जानती हूं कि वक्त के साथ हमारा यह रिश्ता भी रूप बदलेगा और मैं उस के लिए तैयार हूं.

‘‘अब सवाल यह है कि क्या लोगों की बातों पर ध्यान दे कर आप मु झे व अपनेआप को व्यर्थ के तनाव, उल झन और अपराधबोध का शिकार बना कर अभी इस रिश्ते को समाप्त करना चाहोगे?’’

मल्होत्रा साहब ने बेहिचक गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘प्रिया, तुम अगर आज मेरी जिंदगी से चली जाओ तो मेरी जिंदगी बेहद नीरस हो जाएगी. बु झेबु झे अंदाज में अकेले जीवन बड़ा बो िझल साबित होगा.’’

‘‘तब व्यर्थ की बातें सोचना और कहनासुनना बंद कर दीजिए,’’ प्रिया उन की छाती से लग गई, ‘‘एकदूसरे का सुखदुख बांटते हुए हम खुश हैं और यही बात सिद्ध करती है कि हम जीने के व्यावहारिक तल पर सही और सफल हैं.’’

‘‘तुम उम्र में छोटी होते हुए भी मुझ से ज्यादा समझदार हो, कहीं ज्यादा प्रैक्टिकल हो,’’ मल्होत्रा साहब पहली बार सहज ढंग से मुसकरा उठे थे.

‘‘थैंक यू सर,’’ प्रिया ने उन के गाल पर प्यारभरा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘तुम्हें भूख नहीं लग रही है क्या?’’

‘‘बहुत जोर से लग रही है.’’

‘‘बोलो, कहां चलें?’’

‘‘वहां,’’ प्रिया ने मल्होत्रा साहब का हाथ थामा और शरारती अंदाज में हंसतीमुसकराती बैडरूम की तरफ

भाग चली. उस के साथ भागते हुए मल्होत्रा साहब अपनी सारी परेशानी व अपराधबोध को भुला कर, स्वयं को जोश व ताजगी से भरे नौजवान सा फिट महसूस कर रहे थे.

डर : भाग 3

रात को उस का फोन आया, ‘‘फूफाजी, सब ठीक हो गया है. एक अलग से मैडिकल प्रमाणपत्र दिया है जो सेना मुख्यालय के अनुसार है. पूरा दिन लग गया. शाम को 6 बजे तक सारा चैकअप पूरा हुआ. फिर कहीं जा कर उन्होंने प्रमाणपत्र दिया. मैं ने सब की फोटोकौपी ले कर फाइल बना ली है. केवल बीकौम के प्रमाणपत्र अटैस्ट होने बाकी हैं. पर फूफाजी, एक दिक्कत आ रही है. सारे प्रमाणपत्र सर्विंग मिलिटरी अफसर से अटैस्ट होने हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कैसे होगा?’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘तुम्हारे कालेज में एनसीसी है?’’

‘‘है, फूफाजी.’’

‘‘फिर क्या दिक्कत है. अपने कालेज जाओ. एनसीसी के प्रोफैसर को पकड़ो, साथ लो और एनसीसी मुख्यालय पहुंच जाओ. वहां सारे सेना के सर्विंग अफसर मिल जाएंगे. अपने साथ सारी फाइल ले जाना. तुम्हारा काम एक मिनट में हो जाएगा.’’

‘‘यह सही कहा आप ने, एनसीसी के प्रोफैसर रमाकांतजी मेरे अच्छे जानकार भी हैं.’’

‘‘ठीक है फिर, शुभकामनाएं.’’

सुरेश ने फोन बंद कर दिया. 2 दिन बाद फोन आया, ‘‘फूफाजी, सारे प्रमाणपत्र अटैस्ट हो गए हैं. अब सेना मुख्यालय में डौक्युमैंट्स भेजने हैं.’’

‘‘सारे इंस्ट्रक्शन ध्यान से पढ़ना. जिस प्रकार उन्होंने कहा है या लिखा है, उसी के अनुसार भेजना. कोई डौक्युमैंट छूटना नहीं चाहिए और सब की फोटोकौपी लेना न भूलना. वहां स्पीडपोस्ट या कूरियर से आप डौक्युमैंट्स नहीं भेज सकते हैं. आप को रजिस्टर्ड डाक से ही भेजने होंगे और एक कौपी ईमेल से. आप सेना मुख्यालय के इंस्ट्रक्शन फौलो करना.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

एक महीने बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘मुझे ट्रेनिंग के लिए आईएमए देहरादून में 5 मार्च को रिपोर्ट करनी है. लिफाफे में मेरा मूवमैंट और्डर और द्वितीय श्रेणी का रेलवे वारंट है और साथ में सामान की लिस्ट है जो साथ ले कर जाना है.’’

‘‘मुबारक हो. तुम्हारी जिंदगी बन गई. सेना में अफसर बनना गर्व की बात है.’’ थोड़ा रुक कर मैं ने कहा, ‘‘रेलवे वारंट और मूवमैंट और्डर के साथ रेलवे स्टेशन पर एमसीओ, मिलिटरी मूवमैंट कंट्रोल औफिस चले जाना. एक नंबर प्लेटफौर्म पर यह औफिस है, वह मिलिटरी कोटे से तुम्हारे रिजर्वेशन का प्रबंध करेगा. बाकी रही तुम्हारी सामान साथ ले जाने वाली बात, अमृतसर कैंट में मस्कटरी की दुकानें हैं. वहां तुम्हें सारा सामान मिल जाएगा. अगर कुछ रह भी जाता है तो वह आईएमए से मिल जाएगा.’’

‘‘जी, फूफाजी. लेकिन देहरादून पहुंच कर आईएमए तक कैसे पहुंचा जाएगा?’’

‘‘सेना का कोई काम पैंडिंग नहीं होता. उन को पहले ही इस की सूचना होगी. वे सुबह शनिवार से रेलवे स्टेशन पर एमसीओ के बाहर टेबलकुरसी ले कर बैठे होंगे और साथ में लिखा होगा कि इस कोर्स के कैंडिडेट यहां रिपोर्ट करें. और यह सिलसिला रविवार शाम तक चलता रहेगा.

‘‘गाडि़यां बाहर खड़ी रहेंगी जिन में बैठा कर वह सब को आईएमए पहुंचाती रहेगी. वहां सिर्फ तुम्हारा कोर्स ही नहीं चल रहा होगा, सभी के लिए अलगअलग टेबल लगी होंगी. तुम्हें अपने मूवमैंट और्डर लिखे कोर्स नंबर की टेबल पर रिपोर्ट करनी है. फिर उन का काम है कि कैसे करना है. तुम्हें उन के अनुसार करते रहना है.’’

4 मार्च की शाम को सुरेश का फोन आया. ‘‘आज रात मैं ट्रेन से आईएमए देहरादून जा रहा हूं. एमसीओ अमृतसर ने इस का रिजर्वेशन किया था. सुबह 10 बजे तक मैं वहां पहुंच जाऊंगा. शाम को 6 बजे तक वहां रिपोर्ट करनी है. मैं तो वहां 10 बजे ही पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. वहां आप को सैटल होने का समय मिल जाएगा. जिस में हेयरकट से ले कर वरदी लेने तक और सोमवार को शुरू होने वाली टे्रनिंग की तैयारी में सुविधा रहेगी. ट्रेनिंग काफी सख्त रहेगी.

‘‘आईएमए विश्व का सर्वश्रेष्ठ ट्रेनिंग संस्थान है. अन्य देशों से भी अफसर यहां टे्रनिंग लेने आते हैं. सबकुछ व्यवस्थित ढंग से चलेगा. जब तुम वहां से पासआउट हो कर निकलोगे तो तुम भारतीय सशस्त्र सेना के अफसर होगे.

‘‘प्रथम श्रेणी के अफसर, जैसे आईएएस, आईपीएस अफसर होते हैं. तुम्हें लगेगा कि तुम औरों से बिलकुल अलग हो. तुम्हारे शरीर पर सेना की सुंदर वरदी होगी. दोनों कंधों पर 2-2 चमकते स्टार होंगे. हवाईजहाज या ट्रेन में प्रथम श्रेणी में सफर करोगे. तुम्हारे नाम के साथ लैफ्टिनैंट जुड़ जाएगा. तुम अपना परिचय लैफ्टिनैंट सुरेश कुमार के रूप में दोगे. उस समय जो तुम्हें गर्व महसूस होगा वह अनुभव जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव होगा. मेरी शुभकामनाएं हैं तुम्हें.’’

दो चेहरे वाले लोग : भाग 3

जीजी बोलीं, ‘आजकल लोग लड़कालड़की की परवरिश में फर्क नहीं करते. उन्हें भी अपनी अपेक्षाएं बताने का हक है.’

‘अरे भई, शिक्षादीक्षा, खानापीना, लाड़प्यार सभी में लड़कालड़की बराबर होंगे तब भी फर्क तो रहेगा न.’ जीजाजी बोले, ‘बहू इस घर में आएगी, अविनाश उस घर को नहीं जाने वाला.’ बातों से लगा कि जीजाजी अब चिढ़ गए हैं.
‘लेकिन जीजाजी, आजकल दोनों की कमाई में फर्क नहीं है. समान अधिकार हैं स्त्रीपुरुष के.’

‘देखो रश्मि, हम लोगों को बहू चाहिए, नौकरी नहीं. इस घर को एक कुशल गृहिणी की जरूरत है, अफसर की नहीं. अगर लड़की होशियार है, कोई काम कर रही है तो इस घर से उसे पूरा सहयोग मिलेगा, लेकिन अगर वह घर से ज्यादा महत्त्व अपने कैरियर को देना चाहती है तो उसे शादी नहीं करनी चाहिए.’

‘जीजाजी, आप ने मेरे सामने यह अभिप्राय बता दिया तो ठीक है, लेकिन किसी आधुनिक विचारों वाली लड़की के सामने मत बोलिएगा. झगड़ा हो जाएगा.’

‘होने दो, लेकिन अपने अनुभव की बातें बताने से मुझे कोई नहीं रोक पाएगा,’ जीजाजी की आवाज कुछ ऊंची उठ गई, ‘उस दिन एक महाशय पत्नी के साथ आए थे. कहने लगे कि उन की बेटी को विदेश जाने का मौका मिलने वाला है. तो क्या अविनाश उस के साथ अपने खर्च से जा पाएगा?’

‘फिर…’

‘मैं ने कह दिया कि महाशय, मेरे बेटे को विदेश जाने का मौका मिलता तो पत्नी का खर्चा वह खुद देता और उसे साथ ले जाता. उन की बेटी भी तो मेरे बेटे का टिकट खरीद सकती है. दोनों की कमाई मेंं फर्क नहीं. अधिकार समान है, फिर यह दोहरा मानदंड क्यों?’

मैं चुप्पी लगा गई. अगर कहती कि जीजाजी, दोहरा मानदंड वाले तो आप हैं. शिवानी की शादी के समय आप के विचार कुछ अलग थे और आज बेटे की शादी के समय में कुछ अलग हैं. शिवानी की बेटे जैसी परवरिश पर फख्र था जिन्हें आज वही दूसरों के उस तरह के विधानों को काटते नजर आ रहे थे.

जीजी ने कितना कुछ खो कर घरपरिवार को, संस्कृति के मूल्यों को बरकरार रखा था. जीजाजी समझदार होते तो जीजी अपने व्यक्तित्व को गरिमामय रख कर भी वह सबकुछ कर सकती थीं. कोई काम भी कर सकती थीं. जीजी को खरोंचने का काम अकेले जीजाजी करते थे. बेटी और बहू में फर्क करने वाली सास पर अनेक धारावाहिक देखने और दिखाने वाले समाज मे जीजाजी जैसे कई पुरुष भी हैं जो पत्नी और बेटी के सम्मान में जमीनआसमान का अंतर रखते हैं.

मैं जब सीधीसादी, पर समझदार नंदिनी का रिश्ता ले कर गई, तब मुझे जीजाजी की पसंद पर कोई खास भरोसा नहीं था. मेरे मन में जीजी के लिए एक अच्छी, प्यार और सम्मान देने वाली बहू लाने की इच्छा इतनी प्रबल न होती, तो मैं जीजाजी के सामने इतने सारे प्रस्ताव न रखती.

मुझे पता था कि अविनाश को नंदिनी पसंद आएगी, क्योंकि वह मां के संस्कारों के सांचे में ढला था. मैं यह भी जानती थी कि शिवानी की मुुंहफट बातों को स्मार्टनेस समझने वाले जीजाजी को कम बोलने वाली नंदिनी कैसे पसंद आएगी. घर संभाल कर अनुवाद और लेखन करने वाली लड़की किसी डाक्टर या इंजीनियर लड़की जितनी ‘बोल्ड’ कैसे हो सकती है. शिवानी बिजली है. उस के सामने नंदिनी एक दीपक की छोटी सी लौ की तरह मंद, आलोकहीन लगेगी.

लेकिन, मेरी सोच गलत साबित हुई. अपनी मधुरता से नंदिनी ने सब को मोह लिया. विवाह हो गया. बहुत खुश है अविनाश. जीजी को मेरी तरह एक शीतल छाया मिल गई है, पर…

जब मैं जीजाजी को बड़े शौक से खाना खाते और नंदिनी को कोई खास बनाई गई चीज परोसते हुए देखती हूं, तब मेरे मन में संदेह जागता है कि मैं ने नंदिनी के साथ अन्याय तो नहीं किया.

शायद जीजाजी को जीजी जैसी मार्दवभरी, स्नेहिल, घर को प्यार करने वाली ही बहू चाहिए थी, ताकि उन का, उन के बेटे का घर अक्षुण्ण रहे. उन के चैन और आराम बने रहें.
लेकिन, मेरा मन खुद से प्रश्न करता है, दो चेहरे वाले इनसानों की असलियत कौन जान सकता है. क्या पता अविनाश भी कुछ सालों बाद जीजाजी की तरह…

मैं राह देख रही हूं जीजी के पोतेपोतियों की. पोती आएगी तभी पता चलेगा कि जीजाजी का दूसरा चेहरा सचमुच उतर चुका है या मौका मिलते ही वह फिर उन के आजकल के चेहरे को ढंकने आ पहुंचेगा.
मेरा आशावादी मन… कल्पना में देख रहा है, उस उतरे हुए चेहरे की धज्जियां और अब चढ़े हुए चेहरे पर झलकती तंदुरुस्ती की गुलाबी चमक.

ये कैसी बेबसी : भाग 2

आंख खुली तो मैं एकबारगी ही घबरा कर उठ बैठी. अरे, यह मैं कहां और कैसे आ गई. अरुण कहां, किस हालत में है, मन में सैकड़ों सवाल कुलबुलाने लगे थे. विपत्ति के वक्त व्यक्ति ऐसी ही अनेक आशंकाओं से घिर जाता है.

ठीक पहाड़ की चोटी पर बसा कोई गांव था, जहां वे लोग हमें उठा लाए थे. सामने ही सूर्य के तीखे प्रकाश से एक भव्य चर्च का क्रौस चमक रहा था. मैं एक झोपड़ी में एक चारपाई पर पड़ी थी. मगर अरुण कहां है? गांव के अनेक लोग मुझे घेरे आओ भाषा में जाने क्या बातें कर रहे थे और जैसी की इधर आदत है, बीचबीच में उन के ठहाके भी गूंज जाते थे. अधिसंख्य बुजुर्ग नागा स्त्री-पुरुष ही थे. उन में से एक नागा बुजुर्ग आगे बढ़ कर टूटीफूटी हिंदी में बोला, ‘‘अब कैसा है, बेटी?’’

‘‘मेरे पति कहां हैं,’’ मैं चीखी. अचानक मुझे एहसास हुआ कि शायद ये हिंदी न समझे. सो, इंग्लिश में बोली, ‘‘व्हेयर इज माई हसबैंड?’’

‘‘हम थोड़ी हिंदी जानता है,’’ वही बुढ़ा स्नेहसिक्त आवाज में बोला, ‘‘तुम्हारा आदमी घर के अंदर है. उसे बहुत चोट लगा. बहुत खून बहा. तुम लोग कहां से आता था. कहां रहता है?’’

‘‘हम मोकोकचुंग में रहते हैं. मेरे पति चुचुइमलांग के अपने एक मित्र से मिलने के लिए निकले थे. मगर गाड़ी का ब्रेक खराब हो गया और ऐक्सिडैंट हो गया,’’ घबराए स्वर में मैं बोली, ‘‘अभी वे कहां हैं. मैं उन्हें देखना चाहती हूं.’’

बुजुर्ग ने अपनी आओ भाषा में बुढि़या से कुछ कहा. बुढ़ी महिला

मुझ से आओ भाषा में ही कुछ कहते हुए अंदर ले गई. काफी पुरानी और गंदी सी झांपड़ी थी यह. बांस की चटाई बुन कर इस झपंड़ी की दीवारें तैयार की गई थीं. ताड़ के पत्तों सरीखे बड़ेबड़े पत्तों से ऊपर छत का छप्पर डाला गया था. फर्श मजबूत लकडि़यों का था और यह झांपड़ी जमीन से लगभग हाथभर ऊपर मजबूत लकड़ी के खंभों पर टिकी थी. नागालैंड की ग्रामीण रिहाइश आमतौर पर ऐसी ही होती है.

कहने को यह झांपड़ी थी मगर थी बहुत बड़ी. बांस की चटाइयों का घेरा दे कर 2 कमरे बने हुए थे. उसी में से एक कमरे में एक चौकी पर अरुण लेटा था. उस का चेहरा एकदम निस्तेज हो गया था. सांस धौंकनी की तरह चल रही थी.

मैं उसे देख कर फूट कर रो पड़ी. हमारे पीछे कुछ और लोग चले आए थे. वे आगे बढ़ आए और मुझे हिंदी, इंग्लिश और आओ भाषा में कुछकुछ कह कर दिलासा देने लगे. बूढ़ी महिला ने फिर आओ भाषा में मुझे से कुछ कहा. छाती पर क्रौस का निशान बनाया और मुझे वापस बाहर ले आई.

‘‘यहां से चुचुइमलांग कितनी दूर है? न हो तो इन के मित्र हुमसेन आओ को बुला दें.’’ मैं सुबकते हुए बोली, ‘‘वे शायद कुछ मदद कर पाएं.’’

वे बोले, ‘‘तुम चिंता मत करो. चुचुइमलांग यहां से दसेक मील दूर है. तुम्हारे उस परिचित फ्रैंड को भी हम खबर कर देगा. तुम्हारा हसबैंड को बहुत चोट लगा. मगर डाक्टर ने बताया कि वह खतरे से बाहर है. वह अच्छा

हो जाएगा.’’

‘‘मगर यहां क्या व्यवस्था हो सकती है?’’ मैं बोली, ‘‘उन्हें अस्पताल पहुंचाना बहुत जरूरी है. अगर आप उस की व्यवस्था कर देते तो…’’

‘‘चर्च के पास ही तो एक हौस्पिटल है,’’ बुजुर्ग मेरी बात काटते हुए बोले, ‘‘वहीं तो हम सब से पहले तुम्हारे हसबैंड को ले गया था. डाक्टर ने चैक किया और दवाएं लिखीं. कंपाउंडर ने फर्स्ट एड दिया. लेकिन वह बोल रहा था कि हालत ठीक नहीं. बौडी से खून ज्यादा निकल गया है. खून चढ़ाना होगा. हम उसी की व्यवस्था में लगा है.’’

बूढ़े ने बुढि़या से कुछ कहा. वह अंदर चली गई थी. मैं अब कुछ

सहज होने लगी थी. फिर भी मन में कुछ आशंका थी. अपरिचित लोग, अनजान जगह. हालांकि बातव्यवहार से कहींकुछ अजीब नहीं लग रहा था. मगर ये अभावग्रस्त लोग हमारी क्या मदद कर पाएंगे, यही विचार मन में घुमड़ रहा था. यह भी कि ये लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे. इतने में बुढि़या आई और जाने क्या कहा कि बूढ़ा उठते हुए बोला, ‘‘चलो बेटा, चाय पीते हैं.’’

मेरा मन बिलकुल नहीं था. मन तो अरुण में टंगा था. फिर भी अनिच्छापूर्वक उठना पड़ा. ?ांपड़ी के एक किनारे ही रसोई थी. एल्यूमिनियम, स्टील, तामचीनी और लकड़ी के भी ढेर सारे बरतन करीने से रखे हुए थे. एक तरफ 2 बड़े ड्रम थे, जिन में पीने का पानी था. सरकारी कृपा से नागालैंड के हर गांव में और कुछ पहुंचे, न पहुंचे, बिजली और पानी की सप्लाई ठीकठाक है. कुछ छोटे पीपों में कुचले हुए बांस के कोंपल भरे थे. उन के उपर करीने से बोतलें सजी थीं, जिन में बांस की कोंपलों का ही रस निकाल कर रखा हुआ था.

नागा समाज अपनी रसोई में तेलमसालों की जगह इन्हीं बांस के कोंपलों के खट्टे रसों का उपयोग करता है, यह बात अरुण ने एक दिन बताई थी. एक तरफ चूल्हे में आग जल रही थी, जिस पर बड़ी सी केतली में पानी खदक रहा था. बुढि़या ने एक अलग बरतन में कप से पानी नाप कर डाला और चूल्हे के दूसरी तरफ चढ़ा दिया. अब मैं ने ध्यान दिया. चूल्हे के ऊपर मचान बना कर लकडि़यां रखी थीं और इन दोनों के बीच लोहे के तारों में गूंथे गए मांस के टुकड़े रखे थे. मेरा मन अजीब सा होने लगा था.

बुढि़या सब को चाय देने लगी थी. वह एक प्लेट में बिस्कुट भी निकाल लाई थी और खाने के लिए बारबार आग्रह कर रही थी. उस का वात्सल्य देख मेरा मन भर आया और प्लेट पकड़ ली. बुजुर्ग अब खुद ही अपने बारे में बताने लगे थे, ‘‘मैं यहां का गांव का बूढ़ा (मुखिया) हूं. 3 बेटे और एक बेटी है. बेटी की शादी हो गई. एक बेटा गोहाटी में टीचर है और दूसरा दीमापुर में एक औफिस में क्लर्क है. तीसरा मोकोकचुंग के एक कालेज में पढ़ाई करता है. आज ही वह आया है. मगर अभी जंगल गया हुआ है. आता ही होगा अब. अच्छा, तुम्हारा आदमी क्या करता है?’’

‘‘वे मोकोकचुंग कालेज में प्रोफैसर हैं.’’

‘‘अच्छा, तो वह टीचर है,’’ बुढ़ा बुदबुदाया, ‘‘और तुम क्या करता है?’’

‘‘मैं,’’ मैं इस तनाव में भी हंस पड़ी, ‘‘मैं तो घर पर रहती हूं.’’

तब तक डाक्टर आ गया था. हम सभी उठ खड़े हुए. अरुण की जांच करने के बाद वह अरुण को एक इंजैक्शन लगाने की तैयारी करने लगा. इंजैक्शन लगते ही अरुण कुनमुनाया. चेहरे पर बेचैनी के कुछ लक्षण उभरे. फिर वह शांत दिखने लगा था. डाक्टर बंगाली था. फिर भी धाराप्रवाह एओ भाषा बोल रहा था. सारी बात उसी में हो रही थी. इसलिए मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था. बस, यही आभास हुआ कि अरुण की दशा देख सभी चिंतित हैं. अरुण को चारपाई समेत बाहर निकाल अस्पताल पहुंचा दिया गया.

अस्पताल क्या था, बस, एक साफसुथरी झांपड़ी थी, जिस में दवाएं रखी थीं. सफेद परदे का पार्टीशन दे कर चारेक चारपाइयां बिछी थीं. उसी में से एक पर अरुण को लिटा दिया गया. अरुण की बेहोशी पूरे ढाई घंटे बाद टूटी थी. बड़ी तकलीफ के साथ उस ने आंखें खोलीं. मैं उस पर झाक आई.

बाहर खुसरपुसर चल रही थी. अचानक बूढ़ा हिंदी में बोला, ‘‘डाक्टर, मेरा खून चढ़ा दो.’’

‘‘नहीं जी,’’ डाक्टर ने जवाब दिया, ‘‘बुढ़े का रक्त नहीं चढ़ाया जा सकता. इस के लिए तो किसी जवान का ही खून चाहिए होता है.’’

अब वह मुझ से अरुण का ब्लड ग्रुप पूछने लगा. मैं ने उसे बताया. उस ने अरुण का रक्त चैक करने के बाद कहा, ‘‘यू आर राइट, मैडम.’’

‘‘आप मेरा खून इन्हें चढ़ा दीजिए, सर,’’ मैं बोली, ‘‘शायद यह मैच कर जाए.’’

‘‘हम लोग के रहते तुम यह काम कैसे कर सकता है. बस्ती में इतना सारा लोग है. किसी न किसी का जरूर मैच कर जाएगा.’’

भीड़ में से कई युवक आगे बढ़ आए थे. डाक्टर एकएक कर उन का ब्लड चैक कर नकारता जा रहा था. मेरी बेचैनी बढ़ती जाती थी. अचानक वहां एक युवक प्रकट हुआ. बुजुर्ग दंपती से जाने क्या उस की बात हुई और अब उस ने अपना हाथ बढ़ा दिया था.

यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है : भाग 2

ओनीर फिर चिढ़ा, “मैं गलत बात को गलत कह रहा हूं. मैम से मेरी कोई पर्सनल प्रौब्लम थोड़े ही है.”

“आप को पता है कि आप मैम से गलत तरह से बात कर रहे थे, इस तरह की जातिगत बहस हमारी क्लासरूम तक न ही पहुंचे तो अच्छा रहेगा. मैम, अब आप बताएं कि अगले प्रोजैक्ट के लिए क्या करना है, काफी टाइम वेस्ट हो गया है.”

ओनीर ने सहर को देखा, वाइट कुरते, जीन्स में पतली, लंबी सी सुंदर सहर, हमेशा की तरह उस के दिल में उतर गई, फिर सोचा, काश…

सहर को बहुत सारे शेर, ग़ज़लें, गीत, याद रहते थे. वह बहुत अच्छा गाती भी थी. जब भी कोई शेर कहती, उस की जादुई आवाज़ में सामने वाले जैसे खुद को भूल जाते. वह अपनी इस शायरी के लिए पूरे कालेज में मशहूर थी. कोई भी फंक्शन होता, कुछ न कुछ ज़रूर गाती. इस समय भी उस ने चैताली को देख कर कहा, “मैम, यह आप के लिए- “ज़हर मीठा हो तो पीने में मजा आता है, बात सच कहिए मगर यूँ कि हकीकत न लगे.”

सब हंस पड़े. पढाई शुरू हुई. उस के बाद सहर के चेहरे से ओनीर नज़रें हटा न पाया.

चैताली ने आज क्लास को फिर गंभीर मुद्रा में ही नोट्स दिए. थोड़ी देर बाद सब अपनेअपने दोस्तों के साथ कौफीहाउस की तरफ चल दिए. वहां का स्टाफ सब को पहचानता ही था, सहर अपनी फ्रैंड्स नितारा और मिराया के साथ नींबू पानी का और्डर दे कर बैठ गई. बराबर में ही लड़के अपना और्डर दे कर बैठ गए. नितारा ने ओनीर को छेड़ दिया, “तुम आज कुछ कोल्डड्रिंक ले लो, दिमाग बहुत गरम है तुम्हारा.”

“बात ही ऐसी करती हैं मैम. आ जाएंगी अपनी दलित बस्ती को बीच में ले कर. कोईं खबर आई नहीं कि उन्हें दुख होना शुरू हो जाता है.”

सहर ने कहा, “तुम अपनी जाति को ले कर नहीं आते? कभी सोचा है कि इतनी बड़ी डिग्री लेने जाने वाला इंसान हिंदू राष्ट्र की बात करते हुए कैसा लगता होगा?” सहर के आगे तो ओनीर वैसे ही हारने लगता था, फिर भी बोला, “काफी दिनों से सोच रहा हूं कि तुम, सहर नौटियाल. यह सरनेम कम ही सुना है. मुंबई के तो नहीं हो तुम लोग?”

“तुम सचमुच जाति से बढ़ कर नहीं सोच सकते?”

“मुझे भविष्य में एक इतिहासकार बनना है, राजनीति में जाना है.”

“उस के लिए इतना पढ़ने की क्या ज़रूरत है?” सहर के इतना कहते ही सब हंस पड़े. सब के और्डर सर्व हो चुके थे, सब खानेपीने लगे. सब जानते थे कि ओनीर को सहर पसंद है पर सहर के पेरैंट्स में से कोई तो मुसलिम है, ओनीर इसलिए कुछ आगे नहीं बढ़ता है. बस, इतना ही पता था सब को. और यही सच भी था.

सहर ने नींबूपानी का एक घूंट भरते हुए कहा, “कोई हिन्दू, कोई मुसलिम,कोई ईसाई है, सब ने इंसान न बनने की कसम खाई है.” सहर की गंभीर आवाज़ पर कुछ सैकंड्स के लिए सन्नाटा हो गया.

ओनीर ने जलीकटी टोन में कहा, “बस, इसी से सब चुप हो जाते हैं, तुम्हें पता है.”

सहर ने कहा, “ओनीर, वैसे तो तुम्हारा अपना सोचने का ढंग है पर मेरे खयाल से एक दोस्त की हैसियत से यह ज़रूर कहना चाहूंगी कि हम आज जहां बैठे हैं, हमारे और उन नफरत फ़ैलाने वाले लोगों में कुछ फर्क तो होना ही चाहिए न? तुम वही भाषा बोलते हो जो एक समझदार इंसान को नहीं बोलनी चाहिए.”

“जो दिख रहा है, वही तो बोलता हूं.”

“नहीं, जो दिख रहा है, वह ज़्यादातर मनगढ़ंत है, सही नहीं है. दूसरे स्किल की तरह हमें अब फैक्ट चैकिंग की स्किल भी डैवलप करनी चाहिए. तलाशना होगा कि क्या सच है और क्या झूठ. मैं ने तो पढ़ा है कि फ़िनलैंड और कुछ देशों में तो स्कूली कोर्स में आजकल फैक्ट चीकिंग पढ़ाई जा रही है. हमारे यहां भी यह कोर्स शुरू होना चाहिए क्योंकि अब इनफौर्मेशन कई जगहों से आ रही है और उसे बीच में कोई चैक करने वाला नहीं है. पहले मीडिया हमारे लिए यह काम करता था, पर अब तो बीच में मीडिया भी नहीं है.”

“यह सब तुम मुझे क्यों सुना रही हो?”

‘लव औल’ : राजनीतिज्ञों पर कुठाराघाट के साथ खेल, भावना की बात करती शिक्षाप्रद फिल्म

रेटिंग- पांच में से साढ़े तीन स्टार

निर्माता, लेखक व निर्देशक- सुधांशु शर्मा

कलाकार- के के मेनन, स्वास्तिका मुखर्जी, श्रीस्वरा, सुमित अरोड़ा, दीप रांभिया, मजेल व्यास, अतुल श्रीवास्तव और 200 राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय बैडमिंटन खिलाड़ी

बाल कलाकार- आर्क जैन व कबीर वर्मा

अवधि- 2 घंटे 11 मिनट

प्रदर्शन- एक सितंबर से सिनेमाघरों में

खेल, खेल के मैदान, खेल व राजनीति को ले कर कई फिल्में बन चुकी हैं. कई खिलाड़ियों पर बायोपिक फिल्में भी बन रही हैं. मगर इन में से ज्यादातर फिल्में दर्शकों के बीच अपनी जगह बनाने में बुरी तरह से असफल रही हैं. अब लेखक, निर्देशक व निर्माता सुधांशु शर्मा बैडमिंटन खेल को केंद्र में रख कर खेलभावना की बात करने वाली यथार्थपरक फिल्म ‘औल लव’ ले कर आए हैं, जिस में बाल मनोविज्ञान की समझ के साथ दृश्यों को पिरोने के अलावा राजनीतिज्ञों पर कुठाराघाट किया है.

फिल्म ‘औल लव’ एक ऐसी शिक्षाप्रद फिल्म है जिसे हर बच्चे के साथ ही हर मातापिता को देखनी चाहिए. बैडमिंटन की पृष्ठभूमि में पितापुत्र की भावुक कहानी दर्शकों के लिए जश्न ही है. यह फिल्म एक सितंबर को हिंदी के साथ ही उड़िया, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ व मलयालम भाषाओं में प्रदर्शित हुई है.

कहानी

फिल्म ‘लव औल’ की कहानी के केंद्र में भोपाल निवासी सिद्धार्थ शर्मा (के के मेनन), उन का 13 वर्षीय बेटा आदित्य शर्मा (अर्क जैन) व बैडमिंटन का खेल है. एक छोटे शहर के स्कूल में पढ़ने वाले लड़के सिद्धार्थ शर्मा (दीप रंभिया) की कहानी उस के पिता की मृत्यु के बाद रेलवे की नौकरी से जुड़े कुछ लाभों में से एक के रूप में उस की मां को दिए गए रेलवे के एक जर्जर क्वार्टर से शुरू होती है. सिद्धार्थ के पास सामान्य साधनों की कमी है. पर उसे एक होनहार बैडमिंटन खिलाड़ी बनना रोमांचकारी लगता है. बैडमिंटन खेल में उस की महारत देख शहर के सभी खेलप्रेमी उसे भविष्य के चैंपियन के रूप में देखते हैं. सिद्धार्थ की स्कूल की दोस्त व प्रेमिका सोमा (मजेल व्यास) और जिगरी दोस्त विजू (आलम खान) उस का हौसला बढ़ाते रहते हैं. मगर नियति की योजनाएं अलग थीं. खेल जगत से जुड़ी एक राजनीतिक हस्ती के गुर्गे एक रात सोमा के ही सामने सिद्धार्थ को ऐसी चोट पहुंचाते हैं कि सिद्धार्थ खेल से बाहर हो जाता है, क्योंकि उस की चोट के लिए आवश्यक औपरेशन का बिल भरने में उस की मां सक्षम नहीं होती है. एक खिलाड़ी सिद्धार्थ आखिरकार खेल की राजनीति के आगे झुक जाता है और सामान्य जीवन जीने के लिए शहर से दूर जा कर रेलवे में एक छोटी सी नौकरी कर लेता है उस खेल से बहुत दूर, जिस से वह कभी अलग नहीं हुआ करता था.

एक दिन सिद्धार्थ शर्मा (के के मेनन) माहिर मैकेनिक बन जाता है. वह जया (श्रीस्वरा) से विवाह कर लेता है और आदित्य (अर्क जैन) का पिता बन जाता हैं. जब आदित्य 13 वर्ष का होता है तब सिद्धार्थ का तबादला भोपाल हो जाता है. पता चलता है कि सोमा (स्वास्तिका मुखर्जी) ने शादी कर ली है और स्कूल में शिक्षक है. सिद्धार्थ के दोस्त विजू (सुमित अरोड़ा) ने स्पोर्टस के सामान की बिकी की दुकान ‘चैंपियन स्पोर्टस शौप’ के नाम से खोली है, जिस पर सिद्धार्थ की ही तसवीर लगा रखी है.

सिद्धार्थ एक दिन फिर से खुद को उन्हीं लोगों व उसी बैडमिंटन खेल से जुड़ा पाता है जिन से वह दूर भाग रहा था. सिद्धार्थ के न चाहते हुए भी उस का बेटा आदित्य बैडमिंटन खिलाड़ी बनता है और फिर सोमा व वीजू की सलाह पर सिद्धार्थ अपने बेटे आदित्य को बैडमिंटन की ट्रेनिंग भी देता है.

आखिरकार, अब राष्ट्रीयय जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप में आदित्य का मुकाबला उसी राजनेता के पोते शौर्य प्रताप (कबीर वर्मा) से होता है जिस की वजह से कभी सिद्धार्थ को खेल से बाहर होना पड़ा था. एक बार फिर राजनेता अपनी चाल चलता है. अब सवाल है कि जीत किस की होगी?

लेखन व निर्देशन

खेल व राजनीति का चोलीदामन का साथ है. कम से कम भारत देश में हर खेल राजनीतिज्ञों के हाथों में सिमटा हुआ है. हर खेल से जुड़े संगठनों पर सत्तापक्ष आसीन है. इसलिए भी खेल व राजनीति फिल्मकारों को अपनी तरफ आकर्षित करती रही है. मगर अब तक खेल पर बनी फ़िल्में यथार्थ यानी सच को दिखलाने में बुरी तरह से असफल रही हैं. हर फिल्म में नाटकीयता ही हावी रही है. मगर लेखक सुधांशु शर्मा ने एक बेहतरीन पटकथा वाली फिल्म बनाई है. फिल्म इमोशनल व शिक्षाप्रद होने के साथ ही राजनीतिज्ञों पर जबरदस्त तरीके से कुठाराघाट करती है. मगर इस के लिए लेखक व निर्देशक ने जबरन उत्तेजक संवाद या भाषणबाजी नहीं परोसी है.

राजनेता कभी भी आम जनता के सामने अपनी बांहें नहीं समेटता, वह तो राजनीतिक चाल चलते हुए अपने गुर्गो के माध्यम से खेल करवा कर अपनी इच्छा पूरी करता है. इसे एकदम सटीक अंदाज में सुधांशु शर्मा ने फिल्म ‘लव औल’ में चित्रित किया है.

इंटरवल से पहले फिल्म की गति धीमी है. मगर इंटरवल के बाद फिल्म तेज गति से खेल के रोमांच के साथ आगे बढ़ती है. फिल्म का क्लाइमैक्स अद्भुत है. अमूमन हर फिल्मकार अपनी फिल्मों में अपने किरदारों की बेबसी या राजनीतिज्ञों के कारनामों के सामने आम जनता को बेबस अथवा आंदोलन करते हुए चित्रित करते रहे हैं मगर इस फिल्मकार ने ऐसा कुछ भी नहीं दिखाया. फिल्म में कहीं कोई भाषणबाजी या लंबेलंबे संवाद नहीं हैं. मगर फिल्म बहुतकुछ कह जाती है.

हम लगभग हर फिल्म में देखते हैं कि जब एक पुरुष देखता है कि उस की पत्नी या बेटा अच्छा या बुरा किसी भी काम को उस की इच्छा के विपरीत कर रहा है तो वह अपना आपा खो कर गुस्सा प्रकट करता है. लोगों के सामने ही बेटे की पिटाई करता है. लेकिन इस फिल्मकार ने इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं दिखाया.

फिल्म में एक दृश्य है, जब सिद्धार्थ को पता चलता है कि उस का बेटा उस की इच्छा के विपरीत बैडमिंटन खेल रहा है तो वह अपने बेटे आदित्य को पकड़ कर वहां से चुपचाप ले आता है. घर पहुंचने पर वह पत्नी जया पर भी चिल्लाता नहीं है. लेकिन इस से आदित्य व जया के अंदर जो डर पैदा होता है वह दृश्य अपनेआप में बहुतकुछ कह जाता है. वह दृश्य बहुत बड़ी सीख बच्चे से ले कर बूढ़े तक को दे जाता है.

पूरी फिल्म देख कर एहसास होता है कि फिल्मकार को बाल मनोविज्ञान की बेहतरीन समझ है, तो वहीं उस ने बैडमिंटन के खेल को भी बड़ी शिद्दत से पेश किया है.

फिल्मकार सुधांशु शर्मा राजनेता के किरदार और खेल में राजनीतिक दखलंदाजी को पेश करते समय कंजूसी बरत गए.

फिल्म के कुछ संवाद काफी अच्छे बन पड़े हैं, मसलन ‘जिंदगी के रंग अब कपड़ों में ही रह गए हैं’; ‘खेल का मैदान बच्चों को बेहतरीन इंसान बनाता है’; ‘सब से बड़ा मैच होता है एक ऐसा युद्ध, जिसे खिलाड़ी को भी अपने ही विरुद्ध लड़ कर जीतना पड़ता है’; ‘किसी को घायल कर के जीतना, उस की खुशी मनाना असली खेल नहीं होता है’ आदि. इस के अलावा फिल्मकार ने बड़ी सूझबूझ के साथ सभी गीतों को पृष्ठभूमि में रखा है.

अभिनय

युवा सिद्धार्थ शर्मा और युवा सोमा के छोटे किरदारों में क्रमशः दीप रंभिया और मजेल व्यास अपनी छाप छोड़ जाते हैं. खेल को अपनी जिंदगी के दुखों के लिए सर्वाधिक दोषी मानते हुए भी अंत तक खेलभावना का समर्थन करने वाले सिद्धार्थ के किरदार में अभिनेता के के मेनन का अभिनय शानदार है. उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि वे हर किरदार में अपने अभिनय से जान फूंक सकते हैं. वहीं, आदित्य के किरदार में अर्क जैन ने एक कुशल व अनुभवी अभिनेता के साथ ही कुशल बैडमिंटन खिलाड़ी के रूप में खुद को पेश किया है. शौर्य प्रताप के छोटे किरदार में बाल कलाकार कबीर वर्मा ने साबित किया कि उस के अंदर बेहतरीन कलाकार बनने की संभावनाएं हैं. अतुल श्रीवास्तव, स्वास्तिका मुखर्जी, श्रीस्वरा दुबे के हिस्से में करने को कुछ खास आया नही. सिद्धार्थ के दोस्त विजू के किरदार में सुमित अरोड़ा ठीकठाक ही रहे.

R Madhavan को केंद्र सरकार ने सौंपी बड़ी जिम्मेदारी, बने FTII के नए अध्यक्ष

R Madhavan FTII President : बॉलीवुड से लेकर साउथ फिल्म इंडस्ट्री तक में अपनी एक्टिंग के दम पर अपनी पहचान बनाने वाले एक्टर आर माधवन (R Madhavan) के करोड़ों चाहने वाले हैं. उन्होंने अपनी मेहनत और काम के प्रति अपने समर्पण से लोगों के दिलों में जगह बनाई हैं. अब एक्टर आर माधवन के फैंस के लिए एक बड़ी खुशखबरी है.

दरअसल आर माधवन (R Madhavan FTII President) को केंद्र सरकार ने एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है. इसकी जानकारी खुद केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने ट्वीट कर दी है. उन्होंने ट्वीट कर बताया कि, ‘आर माधवन को भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) का अध्यक्ष और गवर्निंग काउंसिल का अध्यक्ष बनाया गया है.’ आपको बता दें कि एक्टर आर माधवन से पहले एफटीआईआई के अध्यक्ष पद पर शेखर कपूर कार्यरत थे.

अनुराग ठाकुर ने एक्टर को दी बधाई

आपको बता दें कि 1 सितंबर को अपने ट्विटर हैंडल पर केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने ट्विट कर आर माधवन (R Madhavan FTII President) को बधाई दी. उन्होंने लिखा, ”आर माधवन को एफटीआईआई और गवर्निंग काउंसिल के अध्यक्ष मनोनीत होने पर हार्दिक बधाई. मुझे यकीन है कि आपका विशाल अनुभव और मजबूत नैतिकता इस संस्थान को समृद्ध करेगी, सकारात्मक बदलाव लाएगी और इसे उच्च स्तर पर लेकर जाएगी. मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.”

मंत्री अनुराग ठाकुर के इस ट्वीट के बाद लोगों ने आर माधवन को बधाई देने का सिलसिला शुरू कर दिया.

आर माधवन को लगातार मिल रही हैं खुशखबरी

आपको बताते चलें कि इससे पहले 14 जुलाई 2023 को अभिनेता आर माधवन फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान समारोह में आयोजित डिनर में भी शामिल हुए थे. वहीं बीते दिनों उनकी फिल्म ‘रॉकेट्रीः द नांबी इफेक्ट’ ने नेशनल फिल्म अवॉर्ड में बेस्ट फीचर फिल्म का पुरस्कार भी जीता था और अब उन्हें (R Madhavan FTII President) केंद्र सरकार ने एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है. इस खबर से उनके फैंस बहुत खुश हैं.

कैप्टन नीरजा गुप्ता : भाग 2

उन्होंने मुझे देखा, तो तुरंत स्वागत के लिए उठे, ‘‘मैम, मैं कैप्टन रमनीक सिंह, यहां वर्कशौप अफसर हूं.’’ ‘‘मैं कैप्टन सूरज कुमार, आर्मी और डनैंसकोर, अफसर इंचार्ज टैक्निकल स्टोर सैक्शन.’’मैं ने अपना परिचय दिया, “कैप्टन नीरजा गुप्ता.” सभीने खुशी जाहिर की. बस, इतना ही परिचय हुआ. वे व्हिस्की पीने लगे और मैं ने अपने लिए वाइन मंगवाई.

‘‘कैप्टन नीरजा, बुरा न मानें, यहां वाइन नहींचलेगी. सर्दी बहुत है. व्हिस्की पिएं या रम,’’ कैप्टन रमनीक सिंह ने कहा. मैं ने वाइन का और्डर कैंसल कर के व्हिस्की लानेके लिए कहा. धीरेधीरे कर के मैं 2 पैग गटक गई. कैप्टन नसीर एहमद साहब थोड़ी देर से आए. वे नमाज पढ़ने गए थे. उन्होंने भी 2 पैग लिए. मुझ से केवल हाथ मिलाया और यह पूछा, “आप कल के इंटरव्यू के लिए तैयार हैं?”’ मैं ने कहा, ‘‘जी, सर.” डिनर मेरे लिए कमरे में आना था. मैं सभी को गुडनाइट कर के अपने कमरे में आ गई. पहले सोचा, घरमें बात कर लेती हूं. फिर विचार त्याग दिया. जबान लड़खड़ाएगी तो अच्छा नहीं लगेगा.

मैं ने कपड़ेबदले और बिस्तर पर लेट गई. सोचा, लेह में अपनी पुरानी यूनिट से बात करती हूं. फिर यह विचार भी छोड़ दिया.फौज की दोस्ती गेट तक होती है. यह किसी हद तक सब केलिए सत्य है. इस के कारणों का पता नहीं है. थोड़ी देरमें डिनर आया और मैं खा कर सो गई. रात को काफी देर बाद नींद आई. सुबह 6 बजे नांबियर चाय ले कर हाजिर हुआ.“जय हिंद मैम. उठिए गरमगरम चाय पिएं.”मैं उठी, मैं ने उस से पानी देने के लिए कहा.मैं ने 2 गिलास पानी पिया. फिर आराम से चाय पीने लगी. नांबियर ने गीजर औन कर दिया और चला गया. मैं फ्रैश हो कर, नहा कर बाहर आई. 8 बजे मेरे लिए नाश्ता आ गया था. डाइनिंग इन से पहले मैं मैस में बैठ कर नाश्तानहीं कर सकती थी.

नाश्ता कर के मैं यूनिफौर्म पहन कर तैयार हो गर्ह. 10 बजे बटालियन कमांडर से इंटरव्यू का समय था. मुझे 9 बजे कैप्टन नसीर साहब को रिपोर्ट करनी थी. कैप्टन नसीर साहब को ही बटालियन कमांडर साहब के पास मुझे लेकर जाना था. समय पर जीप आई और हम दोनों बटालियन के लिएचल दिए. ड्राइवर पिछली सीट पर बैठा. कैप्टन नसीर साहब मुझे गहरी नजरों से देख रहे थे. मैं ने सोचा, वेमेरी यूनिफौर्म चैक कर रहे हैं कि वह इंटरव्यू के लिए ठीक है या नहीं. फिर मुझे एहसास हुआ कि वे और कुछ देखने में लीन हैं. मेरी छठी इंद्रिय ने मुझे बता दिया था. मैं ने कहा, “कैप्टन नसीर, चलें.”उन्होंने कहा कुछ नहीं लेकिन गाड़ीस्टा र्ट की और तेजी से बटालियन की तरफ चल दिए. हमें वहां पहुंचने में आधा घंटा लग गया.

मेजर राम किशन साहब वहां के एडयूटैंट थे. उन्होंने इंटरव्यू रजिस्टर में एंट्ररी की और तुरंत बटालियन कमांडर ब्रिगेडियर चोपड़ा साहब के पास चले गए. मुझे कमरे के बाहर खड़े कर गए, कहा, “जब मैं अंदर आने के लिए कहूं, तब अंदर मार्च करना. वैसे कमांडर साहब बहुत कमबात करते हैं.” ‘‘सर.’’ मैं चुपचाप खड़ी हो गई. थोड़ीदेर में बुलावा आया. मैं तुरंत अंदर गई. स्मार्ट सैल्यूट किया. वे अपनी कुरसी से उठ कर आए, हाथ मिलाया, कहा, “हेलो, यंग लेडी. आप का इस बटालियन में स्वागत है. यहां के टेनोयर के लिए शुभकामनाएं. मेजर राम किशन साहब मार्च करें.” मैं सैल्यूट कर के बाहर आ गई. कैप्टन नसीर मेरे साथ चलने लगा. मेजर राम किशन ने कहा, “नसीर, आप गाड़ी में बैठें. मुझे नीरजा को कुछ इंस्ट्रक्शन देन है.”

मेजर साहब ने मुझे बैठाया और कहा, ‘‘पतानहीं, आप को इस गधे नसीर के साथ क्यों भेजा गया है.यह बहुत बदनाम और ऐयाश आदमी है. मैं अभी इस को आप के साथ नहीं भेजूंगा. वैसे, यह 2 दिन में पोस्टिंग चला जाएगा. आप का इंतजार हो रहा था.’’उन्होंने कैप्टन नसीर को बुलाया, कहा, “नसीर, आपयूनिट में चले जाएं, कैप्टन नीरजा दोपहर लंच के बाद आएंगी. हम गाड़ी में भेज देंगे.”‘‘ठीक है, सर.’’कैप्टन नसीर गया, तो मैं ने कहा, “मैं सुबह जबआ रही थी, मुझे लगा था कि नसीर मुझे सही नजरों से नहीं देख रहा है. मेरी छठी इंद्रिय ऐक्टिव हो गई थी. मन ने सोच लिया था कि अगर कुछ कहा तो मैं थप्पड़ मारने से पीछे नहीं हटूंगी.‘‘बिलकुल यही करना है. 2 दिनों से ज्यादा यहां नहीं रहेगा. मैं ने आप के कमांडर साहब से कह दिया है और साथ में डांटा कि नसीर के साथ नीरजा को क्यों भेजा. 2 दिन में कैप्टन नीरजा के पास यह आदमी नहीं जाना चाहिए. इस ने कमांडर साहब की वाइफ को छेड़ दिया था. अभी कमांडर साहब ने आप के साथ देखा, तो मुझे आप को लंच के बाद भेजने का इंस्ट्रक्शन दिया.’’“थैंक्स, सर,” मैं ने कहा.‘‘नो नीड टू थैंक्स. इट्स अवर डयूटी.

मैं आप को अफसर मैस में छुडवा देता हूं. आप वहां केगेस्टरूम में रैस्ट करें. मैं मैस हवलदार कोइंस्ट्रक्शन दे दूंगा.’’ उन्होंने बाहर खड़े संतरी से कह कर अपनी गाड़ी मंगवाई और अफसर मैस भेज दिया. वहां के मै सहवलदार ने गेस्टरूम खोल दिया, पूछा, “क्या पीना पसंद करेंगी, मैडम?”’‘‘मुझे अच्छी चाय चाहिए. मैं तेज गरम पीतीहूं.’’“मैं अभी भिजवाता हूं.”थोड़ी देर बाद शानदार चाय आई. मन खुशहो गया. हृदय में यह विचार प्रखर था. अगर एक बरबाद करने वाला है तो 10 बचाने वाले भी हैं. नसीर जिस जाति से है, उस की वृत्ति ही ऐजासी की है. एक नहीं, 3-3 बीवियों से भी प्यास नहीं मिटती. मैं समझती हूं, यह केवल नसीर एहमद की वृत्ति नहीं है बल्कि हर पुरुष की यहीवृत्त है कि वह नारी को एक बार अजमाने की ट्राई जरूर करता है. उस की फितरत है कि वह नारी के समक्ष एकदम नंगा होजाता है, केवल उस की आंख का इशारा चाहिए होता है. परनारी को करप्ट करना आसान नहीं होता.

इस सत्य से पग पग परउसे सामना करना पडेगा, यह मैं जानती हूं. मैं जाने कब सो गई थी. लंच के समय मैस हवल दार ने जगाया. लंच किया और मेजर राम किशन साहब ने मुझे अपनी गाड़ी दे कर कर यूनिट में छुड़वा दिया. मुझे बताया गया कि यूनिट कमांडर का कल इंटरव्यू है. आजउन्हें काम से बाहर जाना पड़ रहा है. मेरे लिए अब कोई काम नहीं था. मैं ने यूनिफौर्म उतारी और पलंग परलेट गई.

कल से घर में बात नहीं की थी. मैं ने घर में फोन लगाया. सब से बात की, बताया कि अपनी नई यूनिट में श्रीनगर पहुंच गई हूं. सब ने बधाई और शुभकामनाएं दीं. मैं ने मम्मीपापा के लिए सेना अस्पताल से इलाज करवाने के लिए अथौरिटी लैटर भिजवा दिया था. जो दवाइयां हजारों रुपया लगा कर बाजार से खरीदनी पड़ती थीं, वे फ्री मिलने लगीं. वे दोनों आशीर्वाद देते थकते नहीं थे.

कल कमांडिंग अफसर कर्नल देवव्रत का इंटरव्यू हुआ. वे जैंटल और अच्छे थे. उन्होंने न केवल अपने बारे में बताया बल्कि सब अफसरों के बारे में बताया. कैप्टन नसीर एहमद के बारे में भी बताया कि वे आप को अब कभी नहीं मिलेंगे. आप उन की जगह कंपनी कमांडर का चार्ज लेंगी. आप के पास नसीर का हैंडिंग टेकिंग ओवर सर्टिफिकेट आ जाएगा. आप को चुपचाप साइन कर देना है.

कल से आप कंपनी औफिस में बैठेंगी. मैं ने थैंकस कहा और सैल्यूट कर के बाहर आगई. शाम को डाइनिंग इन पार्टी थी. सिविल के 3 पीसड्रैस पहनना था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें