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उम्मीदों के प्रदेश में फंसी भाजपा

6 प्रदेशों की 7 विधानसभा सीटों के चुनावों में सबसे चौंकाने वाला फेरबदल उत्तर प्रदेश की घोसी विधानसभा सीट का रहा है. जहां भाजपा की जबरदस्त हार हुई. घोसी उपचुनाव में जीत हासिल करने के लिए भाजपा ने अपने पूरे घोड़े खोल दिए थे. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक, केशव प्रसाद मौर्य से लेकर एक दर्जन कैबिनेट मंत्री यहां डेरा ड़ाले रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री एके शर्मा कई अफसर और दलबदल कर भाजपा में आए ओम प्रकाश राजभर घोसी सीट पर चुनावप्रचार कर रहे थे.

भाजपा को इस हार की उम्मीद न थी. अभी 2022 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं दारा सिंह चौहान को घोसी की जनता ने चुन कर विधानसभा भेजा था. उपचुनाव में दारा सिंह के साथ भाजपा का भारीभरकम संगठन, मंत्री और हाईकमान का चाणक्य जैसा दिमाग भी साथ था. कोढ़ में खाज यह कि सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का हिंदूविरोधी बयान भी था. इन सब के बाद भी भाजपा की हार हुई. समाजवादी पार्टी के नेता सुधाकर सिंह चुनाव जीत गए.

क्यों हुआ घोसी उपचुनाव

समाजवादी पार्टी के विधायक दारा सिंह चौहान के इस्तीफा देने के कारण घोसी में उपचुनाव हुआ. उपचुनाव के बोझ के लिए जनता दारा सिंह चौहान को ही जिम्मेदार मान रही थी. दारा सिंह चौहान की पहचान एक दबंग नेता की है. वे नौनिया चौहान नामक पिछड़ी जाति से आते हैं. करीब साढ़े 4 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक दारा सिंह चौहान पर कई आपराधिक मुकदमे लंबित हैं. उन पर चोरी, डकैती से जुड़े भी आरोप हैं. वैसे दारा सिंह चौहान का राजनीतिक कैरियर कांग्रेस से शुरू हुआ था.

2009 में दारा सिंह बसपा से चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे. 2014 में बसपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव हार गए. इसके बाद दारा सिंह चौहान2015 में भाजपा शामिल हो गए. 2017 के चुनाव में भाजपा ने मधुबन विधानसभा से दारा सिंह को टिकट दिया. चुनाव जीत कर वे विधायक ही नहीं, मंत्री भी बने. योगी सरकार में उनके पास वन एवं पर्यावरण जैसा महतत्वोंपूर्ण विभाग था. 2022 में विधानसभा चुनाव के पहले वे भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी में शामिल हुए. सपा के टिकट पर वे घोसी सीट से चुनाव भी जीतकर विधायक बन गए.

मंत्री की तो छोड़ो, विधायक भी नहीं रह गए

सत्ता में रहने के शौकीन दारा सिंह चौहान और ओम प्रकाश राजभर भाजपा नेता और गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर भाजपा में आ गए. दारा सिंह चौहान और ओम प्रकाश राजभर को उम्मीद थी कि भाजपा उनको उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री बना देगी. दारा सिंह चौहान ने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया. जिसके बाद घोसी सीट खाली हो गई. भाजपा ने मंत्री तो नहीं बनाया बल्कि उनको फिर से घोसी उपचुनाव में प्रत्याशी बना दिया. उम्मीद थी कि जब वे उपचुनाव जीत जाएंगे तो उनको मंत्री बना दिया जाएगा. उपचुनाव में जनता ने सबक सिखा दिया. मंत्री तो क्या, अब वे विधायक भी नहीं रह गए.

घोसी उपचुनाव में दलबदल सबसे बड़ा मुददा बन गया था. वहां की जनता ने तय कर लिया था कि दलबदल करके बारबार चुनाव लड़ने वालों को सबक सिखाना जरूरी है. समाजवादी पार्टी के सुधाकर सिंह चुनाव मैदान में थे. दारा सिंह चौहान ने दलबदल के सारे रिकौर्ड तोड़ दिए थे. कांग्रेस से सपा, सपा से बसपा, बसपा से भाजपा, भाजपा से दूसरी बार सपा और अब एक बार फिर भाजपा में वापस लौटने के बाद दारा सिंह चौहान पर दलबदल की राजनीति भारी पड़ी.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक और नेता हैं ओम प्रकाश राजभर.वे भीदलबदल के माहिर हैं. वे भी भाजपा के साथ थे और दारा सिंह चौहान का प्रचार कर रहे थे. इनको दलबदल का मास्टर कहा जाता है. जनता को लगा कि एक हार से दोनों दलबदल करने वाले नेता सुधर जाएंगे. घोसी की हार ने दलबदल करने वाले नेताओं के साथ भाजपा को भी सबक सिखाने का काम किया है. दलबदल को जिस तरह से भाजपा बढ़ावा दे रही थी, जनता ने उसको भी चेतावनी दे दी है.

सपा ने बनाया दलबदल को मुद्दा

समाजवादी पार्टी ने जैसे ही देखा कि घोसी की जनता दलबदल को लेकर गुस्से में है, अखिलेश यादव ने चुनावी प्रचार में इस बात को ही मुददा बना लिया. अखिलेश ने कहा,‘घोसी के मतदाताओं ने मन बना लिया है, जो पलायन करने वाले हैं, जिन्होंने पलायन किया है, जिन्होंने लोकतंत्र में मत का विश्वास तोड़ा है, इस बार घोसी की जनता उन्हें सबक सिखाएगी.’

सपा के प्रत्याशी सुधाकर सिंह और दारा सिंह चौहान दोनों का राजनीतिक कैरियर लगभग 40 साल पुराना है. दारा सिंह चौहान ने मौके देख कर बारबार पार्टी बदली और सपा के सुधाकर सिंह हमेशा पार्टी के प्रति वफादार रहे.

सुधाकर सिंह की जीत ने एक और बात पर मोहर लगा दी है कि प्रदेश का ठाकुर योगी और भाजपा के साथ नहीं है. मैनपुरी के बाद घोसी में भी ठाकुरों ने सपा को वोट दिया है. घोसी चुनावप्रचार में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इस उपचुनाव को ‘इंडिया’ गठबंधन का पहला चुनाव बताते हुए कहा था कि ‘घोसी विधानसभा का संदेश केवल उत्तर प्रदेश में नहीं है, घोसी विधानसभा के एकएक वोट का संदेश पूरे देश में जाने वाला है. जब से समाजवादी और देश के दल एक हो गए, जब से इंडिया गठबंधन बना है, लोग घबराए हुए हैं कि इंडिया गठबंधन कैसे बन गया.’ घोसी के चुनाव में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने भी सपा को समर्थन देने का ऐलान कर दिया.

काम नहीं आई चाणक्य नीति

घोसी क्षेत्र में करीब 1 लाख मुसलिम मतदाता, 90 हजार से अधिक दलित मतदाता, 50 हजार राजभर, 50 हजार चौहान, 20 हजार निषाद, 15 हजार ठाकुर, 15 हजार भूमिहार, 8 हजार ब्राह्मण और 30 हजार वैश्य वोटर हैं. दारा सिंह चौहान पिछड़ी जाति से आते हैं. समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी सुधाकर सिंह क्षत्रिय हैं. दलबदल के मुददे में सारा वोट का गणित बिगड़ गया. बहुजन समाज पार्टी ने कोई अपना उम्मीदवार नहीं उतारा. इसके बाद भी लगभग एक लाख दलित वोटों का साथ भाजपा को नहीं मिला.

घोसी में लगभग 50 हजार राजभर वोटर भी हैं. पिछले चुनाव में उन्होंने दारा सिंह चौहान  के लिए इसलिए वोट दिया था क्योंकि वे सपा के उम्मीदवार थे और सुहेलदेव भारतीय समाज समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर भी सपा गठबंधन के साथ थे. लेकिन अब दोनों भाजपा के साथ हो गए हैं. जनता दोनों के दलबदल से नाराज हो गई. ओम प्रकाश राजभर ने यादवों और योगीमोदी के खिलाफ जिस तरह के बयान दिए, उनको लोगों ने दिल में बिठा लिया.

घोसी की हार ने भाजपा के भीतर चल रही गुटबाजी को भी सामने लाने का काम किया.  केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा नेता अमित शाह को चाणक्य कहा जाता है. उत्तर प्रदेश में वे अपनी समानांतर सरकार और संगठन चलाने का काम कर रहे हैं. दारा सिंह चौहान और ओमप्रकाश राजभर जैसे कई बाहरी नेताओं को वे ज्यादा महत्त्व देते हैं जिससे भाजपा के मूल नेताओं में विरोध बढ़ने लगा है जिसका परिणाम घोसी में देखने को मिला है.

एक नजर में चुनाव परिणाम

विधानसभा क्षेत्र – प्रदेश  – पार्टी – विजेता

घोसी – उत्तर प्रदेश  – समाजवादी पार्टी -सुधाकर सिंह

डुमरी – झारखंड – जेएमएम – बेबी देवी

धनपुर – त्रिपुरा – भाजपा -बिदूं देबनाथ

बक्सनगर – त्रिपुरा – भाजपा –तफज्जुल हुसैन

बागेश्वर – उत्तराखंड – भाजपा – पार्वती दास

पुथिपल्ली – केरल – यूडीएफ – चांडी उम्मेन

धूपगुडी – पश्चिम  बंगाल – टीएससी – निर्मल चंद्र राय

घर से काम करना बेहतर या औफिस में ?

कोरोना के बाद से भारत समेत पूरी दुनिया में लोगों के काम करने के तौरतरीके में बदलाव आया है. आज यह सुविधा है कि आप रिमोट वर्क कर सकते हैं यानी औफिस जाने की जरूरत नहीं, बस घर पर अपने सिस्टम को लौगइन करो और सारा काम घर बैठेबैठे.

नोएडा, गुरुग्राम, बेंगलुरु, हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई, चैन्नई जैसे बड़े शहरों के कौर्पाेरेट इसी तरह अपने कर्मचारियों से काम करवा रहे हैं. आजकल की युवा पीढ़ी इसे सहूलियत मान रही है क्योंकि इस में फौरमैलिटी है. आप चाहे अपने नोटिस एरिया में हैं, परिवार के साथ गपशप कर रहे हैं, जब चाहे उठ कर चाय पी रहे हैं पर साथ में काम भी कर रहे हैं.

वर्क फ्रौम होम में किसी तरह की फौरमैलिटी नहीं है कि आप को कैसे रहना है. आप बस काम कर रहे हैं, कंपनी को यह मैटर करता है.

लेकिन जहां यह सहूलियत देता है वहीं इसे ले कर कुछ समस्याएं भी हैं जैसे सोशल रिलेशन खत्म होना, पूरे दिन घर में बंधे रहना, काम के घंटे फिक्स न होना और सब से बड़ी बात वर्क एथिक का खत्म होना. ऐसे में युवाओं में असमंजस है कि उन के लिए घर में काम करना बेहतर है या औफिस में.

हम चाहे जितनी दुहाई दें कि यह कंप्यूटर और इंटरनैट का युग है, लेकिन समाज में हमारे दकियानूसी होने के चिह्न अब भी हर तरफ बिखरे हैं.

भले हम अपनी जीवनशैली में फायदे के लिए आधुनिक तकनीक का भी खूब इस्तेमाल करते हैं, लेकिन हम सोच और सम झ के मामले में आधुनिकता को कहीं जगह नहीं देते. यही कारण है कि आज जबकि सेवा क्षेत्र का 90 फीसदी से ज्यादा काम औनलाइन हो चुका है और 80 फीसदी सेवा क्षेत्र के प्रोफैशनलों के लिए लैपटौप ही उन का दफ्तर बन चुका है, हिंदुस्तान में जो पुरुष सुबह घर से निकल कर एक तयशुदा जगह काम करने नहीं जाता, उसे इज्जत की निगाह से नहीं देखा जाता.

वैसे एक सच यह भी है कि भारत दुनिया के उन गिनेचुने देशों में से एक है जहां यूरोप और अमेरिका का सब से ज्यादा काम आउटसोर्स के जरिए किया जाता है. इस आउटसोर्सिंग में पूरे सौ फीसदी सेवा क्षेत्र का ही काम होता है. लेकिन जहां यूरोप के तमाम देशों में 45 फीसदी से ज्यादा कामगार, चाहे वे किसी भी जैंडर से हों, घर से काम करना पसंद करते हैं, वहीं हिंदुस्तान में चाह कर भी लड़के घर से काम करने को अपनी कामकाज की शैली का हिस्सा नहीं बना पाते या बनाना चाहते. इस की सब से बड़ी वजह है भारत का सांस्कृतिक समाज जो आज भी पुरुषों को मर्दानगी के खास आईने में देखता है.

अगर लड़का घर से काम करता है और भले सामान्य लोगों से ज्यादा कमाता है तो भी गलीमहल्ले से ले कर यारदोस्तों और रिश्तेदारों तक में उस का जिक्र बड़ी बेचारगी से होता है, ‘औरतों की तरह घर में पड़ा रहता है’, ‘जब भी घर जाओ, दरवाजा खोलते वही मिलता है. पूरा औरत बन चुका है’, ‘अरे, उसे कौन सी परेशानी है. वह तो दिनभर घर में ही रहता है. कपड़े धोने से ले कर घर की सफाई तक कर देता है…’ और फिर जोर का ठहाका.

घर से काम करने वाले युवकों के लिए आज भी इस तरह के व्यंग्य खूब सुनने को मिलते हैं. कुछ साल पहले इसी सामाजिक मनोस्थिति पर एक टैलीविजन शो ओपेरा भी बना था, ‘मिसेज तेंदुलकर’. दरअसल, हिंदुस्तानी समाज भले ही टैक हो चुका हो, हर हाथ में स्मार्टफोन आ गया हो. लेकिन सोचने और देखने वाली बात यही है कि हिंदुस्तान की सामाजिक सोच अभी भी धुर खेतीबाड़ी के दौर की ही है.
यही कारण है कि हर वह काम जो परंपरा से थोड़ा हट कर है, उसे बड़ी मुश्किल से स्वीकार करने की मनोस्थिति में आ पाता है हमारा समाज.

सामाजिक व सांस्कृतिक अड़चन

हालांकि तमाम मल्टीनैशनल कंपनियों ने इस सदी के शुरू में घर से काम करने की छूट दिए जाने की शुरुआत की थी लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक अड़चनों के चलते अंतत: उन्हें भी अपने कदम वापस खींचने पड़े हैं. लेकिन कोरोना के बाद रियलिटी बदली है. आज एम्पलौई और एम्पलौयर दोनों वर्क फ्रौम होम को तरजीह दे रहे हैं.

नाजिश परवेज मुंबई में एक एमएनसी में काम करती हैं. वे घर पर रहते हुए ही अपने दफ्तर का काम करती हैं. इस तरह उन्हें अपनी एक साल की बेटी आलिया को संभालने का मौका भी मिल जाता है और बिना रोजाना दफ्तर गए अपने काम का टारगेट भी सहजता से पूरा कर लेती हैं.

गौरतलब है कि दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में अगर किसी एम्पलौई को दफ्तर आनाजाना न पड़े तो उस के कम से कम 3 घंटे रोजाना सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट में खर्च होने से बच जाते हैं. इस तरह वह अपने हिस्से का काम घर से करने पर 3 घंटे पहले ही खत्म कर लेता है और इस तरह ये 3 घंटे उसे अपने निजी कामों के लिए मिल जाते हैं.

नाजिश आगे कहती हैं, ‘‘मैं दफ्तर जाने की कोई जरूरत महसूस नहीं करती हूं, सिवा तब के जब कभीकभार बहुत जरूरी होता है. मैं सारा काम घर पर बैठ कर ही अपनी सुविधानुसार पूरा कर लेती हूं. वैसे भी मेरे बौस अपने दफ्तर में 3 माह में एक बार ही आते हैं. मेरे दफ्तर में हौट डैस्किंग सिस्टम है, इसलिए मेरे बैठने के लिए वहां कोई स्थायी स्थान भी नहीं है.’’

गौरतलब है कि हौट डैस्किंग सिस्टम दफ्तरों में एक ऐसी व्यवस्था को कहते हैं जिस में अनेक कर्मचारी एक ही वर्क स्टेशन या स्थल को अलगअलग समयावधि के दौरान इस्तेमाल करते हैं.

समय की बचत

घर पर रहते हुए दफ्तर का काम करने से कर्मचारियों खासकर महिला कर्मचारियों को काफी सुविधा होती है. जैसाकि हम सब जानते हैं हिंदुस्तान में आज भी कामकाजी महिलाएं अपने घर की जिम्मेदारियों का बो झ ढोते हुए ही अतिरिक्त कमाने के लिए घर से बाहर जाती हैं. ऐसे में जब उन का आनेजाने का समय बचता है तो यह कीमती समय न सिर्फ उन के कामकाज की गुणवत्ता को सुधारता है, बल्कि उन्हें दफ्तर में जाने के तनाव और उस दौरान खर्च होने वाले समय को बचा कर उन के घर के किए जाने वाले काम की भी भरपाई कर देता है, जिस से वे कामकाजी होते हुए भी शारीरिक और मानसिक रूप से ज्यादा नहीं थकतीं.
लेकिन यह भी सच है कि इस तरह के काम महज बैंकिंग या वित्त अथवा दूसरे सेवा क्षेत्र के कामों तक ही सीमित हैं. इन कामों के तहत ऐसा कोई काम संभव नहीं है जिस में टीम वर्क की जरूरत हो, जिस में कई लोगों द्वारा एक काम को परख कर आखिरी शक्ल देनी हो या जिस का उत्पादन से सीधा संबंध हो. ऐसे कामों को घरों से करना संभव नहीं है. यही कारण है कि चाह कर भी सभी कामों को आउटसोर्स नहीं किया जा सकता.

बावजूद इस के, इस कार्यशैली से बहुत लोगों को काफी फायदा होता है. महिलाओं को ही नहीं, पुरुषों को भी इस से फायदा होता है. वे अपने काम में सही तरह से फोकस कर पाते हैं. वे अपने काम की मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही सुधार पाते हैं. लेकिन आजकल की लड़कियों को तो इस से भी आगे बढ़ कर अपने दैनिक जीवन को सही ढंग से पटरी पर बनाए रखने के लिए भी कामकाज की यह शैली मददगार साबित होती है. इसलिए अनेक वीमेन और्गेनाइजेशंस लंबे अरसे से इस बात के लिए संघर्ष कर रहे हैं कि ज्यादातर महिलाओं को फ्लैक्सिबल (लचीली) कार्यावधि प्रदान की जाए ताकि वे कार्य व व्यक्तिगत जीवन में संतुलन स्थापित कर सकें. आज 2023 के युग में यह संभव है कि लड़कियां बाहर जा काम कर सकें.

रिमोट वर्किंग कल्चर

कर्मचारियों को दफ्तर के छोटे से क्यूबिकल (पिंजरे) में काम करने से मुक्ति मिल रही है. कंपनियों को भी कई तरह का फायदा हो रहा है. उन्हें दफ्तर बनाने के लिए बड़ी जगह की जरूरत नहीं पड़ रही. कर्मचारियों को कार्य आवंटित कर दिया जाता है कि निर्धारित समय में वे अपना काम पूरा कर के दे दें. इस तरह कंपनियों का काम भी हो जाता है या वे अपनी सहूलियत से कर देते हैं.

आज नई पीढ़ी को उम्मीद है कि यह कार्य संस्कृति आने वाले दिनों में और मजबूत होगी और अपना विस्तार हासिल करेगी. आज लड़केलड़कियां कौर्पोरेट में काम कर रहे हैं. उन के पास असीम मौके हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की देखादेखी देशी कंपनियां भी कदम बढ़ाने की शुरुआत कर चुकी हैं और उम्मीद है कि आने वाले दिनों में यह संस्कृति और तेजी से आगे बढ़ेगी. कोरोना खत्म हो चुका है. ऐसे में कंपनियों ने भले ही वर्कर्स को काम पर वापस बुलाना शुरू कर दिया है लेकिन यह सहूलियत भी रही हैं कि वे रोटेशनल घर से काम कर सकते हैं.

गौरतलब है कि पहले यहां एक महीने बाद फेस टू फेस मीटिंग का रिवाज था. हाल के दिनों में तमाम बीपीओ कंपनियां जो अपने कर्मचारियों को प्रैसक्रिप्शिंग का काम घर से करने के लिए देती थीं अब उन्हें दफ्तर में बुला कर काम करने के लिए कह रही हैं और केपीओ (नौलेट प्रोसैस आउटसोर्स) ऐसेसमैंट और सैटलमैंट का समय जहां पहले एक हफ्ता हुआ करता था, वहीं अब हर वर्किंग डे की शाम को होने लगा है.

डैस्कटौप शेयरिंग

ऐसे में सवाल है क्या भविष्य में रिमोर्ट वर्किंग कल्चर समाप्त हो जाएगा? क्या हिंदुस्तान जैसे देश में यह सही तरीके से अपनी जगह बनाने के पहले ही गायब हो जाएगा? ये सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि फ्लैक्सिबल कार्यावधि के संदर्भ में ज्यादातर भारतीय कंपनियों के पास अभी तक स्पष्ट नजरिया नहीं है. ऐसे में जबकि भारत स्थित तमाम कंपनियां चाहे वे यहां की हों या किसी विदेशी बड़ी कंपनी का हिस्सा हों, विदेशी चलन के आधार पर ही अपना रुख तय करती हैं.

हिंदुस्तानी बौस ज्यादातर यही चाहते हैं कि उन की टीम उन की सीधी निगरानी में काम करे. हालांकि लगभग सभी मानव संसाधन (एचआर) प्रमुख इस बात पर सहमत हैं कि जिन महिलाओं के बहुत छोटे बच्चे हैं उन को फ्लैक्सिबल कार्यावधि की आवश्यकता है, लेकिन वे साथ ही यह भी कहते हैं कि अगर महिला कर्मचारी बहुत रियायतों की मांग करेंगी तो वे अपने कैरियर में प्रगति नहीं कर पाएंगी और न ही टौप पर पहुंच पाएंगी.

फ्लैक्सिबल कार्यावधि या घर पर रह कर काम करने की शैली का मतलब है, अपने सहकर्मियों के साथ स्टेट औफ द आर्ट कम्युनिकेशन सिस्टम के तहत सहयोग करना. साधारण शब्दों में इस का अर्थ यह है कि इंटरनैट के जरिए सभी से संपर्क में बना रहा जाए और इस तरह अपने हिस्से का जरूरी काम आदानप्रदान के जरिए संभव बनाया जाए. इसे डैस्कटौप शेयरिंग भी कहते हैं.

फ्लैक्सिबल वर्क कल्चर के तहत काम करने वालों को अपने बहुत से सहयोगियों, चाहे वे बराबर के हों या वरिष्ठ हों, के साथ नियमित रूप से टच में भी रहना पड़ता है और कई बार वर्चुअल तकनीक के जरिए फेस टू फेस भी मीटिंग करनी होती है. इस के बावजूद अगर बात बिना आमनेसामने बैठने के संभव नहीं होती तो तय समय के पहले भी बौस के साथ या दूसरे जरूरी सहयोगी के साथ मीटिंग करने के लिए दफ्तर जाना पड़ता है, जो जरूरत के हिसाब से तय होता है, नियम से नहीं.

मरजी से कार्य

कहने का अर्थ यह है कि फ्लैक्सिबल कार्यावधि वास्तव में टैलीकम्युनिकेटिंग कार्यशैली है, जिस में कर्मचारी कार्य के लिए किसी केंद्रीय स्थान पर नहीं जाता है, बल्कि अपने घर, कौफी शौप या किसी अन्य स्थान से टैलीकम्युनिकेशन की मदद से कार्य करता है. किसी महिला कर्मचारी के घर और दफ्तर के बीच संतुलन साधने का आधार भर हो. इस के साथ और भी बड़ी और अहम बातें जुड़ी हुई हैं, जिन में एक बात कम्युनिकेबल टैक्नोलौजी की सीमा भी है. जाहिर है हर काम महज संचार तकनीक से संभव नहीं बनाया जा सकता.

इस बहस में एक हिस्सा यह भी है क्या अकेले काम करते हुए भी कोई कर्मचारी अपना निरंतर विकास कर पाता है, जैसाकि साथ में काम करने से संभव होता है? यह सवाल युवाओं के दिमाग को कचोट रहा है.

शायद यही वजह है कि जब याहू की सीईओ मारिसा मेयर ने कहा कि उन्हें प्रत्येक कर्मचारी रोजाना दफ्तर में दिखाई देना चाहिए तो वे केवल महिलाओं के खिलाफ आक्रामक नहीं हो रही थीं. वे एक ऐसी बुनियादी बहस को आधार दे रही थीं जिस से व्यक्तिगत हितों के साथसाथ नियोक्ता के हितों और कामकाज की गुणवत्ता पर भी बहस संभव हो सके, क्योंकि पुरुष कर्मचारियों पर यह आरोप भी है कि वे अकसर फ्लैक्सिबल समयावधि के तहत अपनी मरजी से कार्य करते हैं, जबकि महिलाएं मजबूरन ऐसा करती हैं. इसलिए अगर कार्यस्थल पर फिर से फ्लैक्सिबल कार्यावधि की जगह 9 से 5 शैली लौट आती है तो अधिकतर पुरुष थोड़ी नानुकुर के बाद भी बदली स्थिति को स्वीकार कर लेंगे, लेकिन ज्यादातर महिलाएं असहाय हो जाएंगी और उन्हें अपना कार्य भी छोड़ना पड़ सकता है.

इस में शक नहीं है कि लड़कियों को विशेष जरूरतों का सामना करना पड़ता है और इसलिए वर्क प्लेस को एक ऐसी व्यवस्था तो अपनानी ही पड़ेगी ताकि महिलाएं कार्य व घर को संतुलित कर सकें. यह सिर्फ समाज की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि कार्यबल में अधिक महिलाओं का होना अच्छा अर्थशास्त्र है. साथ ही, कंपनियों के लिए भी यह अच्छी बात है कि उन्हें प्रतिभा के विस्तृत पूल में से चयन का अवसर मिलता है.

लगभग एक दशक पहले घर से काम करने का विचार, फ्लैक्सिबल कार्यावधि और कार्य व जीवन में संतुलन का विचार एकदम नया था. लेकिन जब एमएनसी की भारतीय इकाइयां नए युग की टैक्नोलौजी के चलते इस कार्यशैली को अपनाने लगीं तो भारत के कौर्पोरेट जगत में बहुत से बदलाव आने लगे. लेकिन इस बदलाव को बरकरार रखने यानी फ्लैक्सिबल कार्यशैली को बढ़ावा देने के मामले में एक सब से बड़ी चुनौती यह आड़े आई कि कर्मचारी कार्य में अधिक लचीलेपन की मांग करने लगे.

कंपनी पर निर्भर

विदेशी कंपनियों के लिए तो इस मांग को स्वीकार करना आसान था, क्योंकि वे विकसित संसार की नीतियों का पालन कर रही थीं, लेकिन भारतीय कंपनियां इस मामले में अधिक सावधान रहीं और उन्होंने केवल व्यक्तिगत आधार पर ही इस शैली को अपनाया. इसलिए भारतीय संदर्भ में फ्लैक्सिबल कार्यावधि उसी कर्मचारी को मिलती है, जो कंपनी से इस बारे में सम झौता कर सके.

एक सर्वे के अनुसार, जिन भारतीय कंपनियों में कर्मचारियों को फ्लैक्सिबल कार्यशैली के तहत कार्य करने का अवसर मिला, उन में से 75 फीसदी पर यह मेहरबानी उन के बौस की बदौलत हुई थी. इस में कंपनी की नीति का कोई दखल नहीं था. दूसरे शब्दों में भारतीय कंपनियों ने फ्लैक्सिबल कार्यशैली को नीति के तौर पर कभी अपनाया ही नहीं. इसलिए यदि कंपनियां 9 से 5 की पुरानी कार्यशैली पर लौटने लगती हैं तो इस का भारतीय कंपनियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा.

दरअसल पश्चिम में फ्लैक्सिबल कार्यशैली को इसलिए तेजी से अपनाया गया क्योंकि वहां महिलाएं बड़ी संख्या में कार्यबल का हिस्सा हैं और अब चूंकि भारत में भी कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है, इसलिए यह अनुमान लगाना गलत न होगा कि यहां भी कंपनियों को फ्लैक्सिबल कार्यशैली अपनानी पड़ेगी ताकि कार्य व घर को संतुलित किया जा सके, भले ही याहू या कुछ अन्य अमेरिकी कंपनियों ने इस सिलसिले में 9 से 5 की पुरानी कार्यशैली को अपना लिया हो.

कहने का मतलब यह है कि भविष्य में भारत में यह मुद्दा कहीं ज्यादा तीखा हो सकता है बजाय उन पश्चिमी देशों के जहां व्यावहारिक रूप में आज यह कार्यशैली कहीं ज्यादा चलन में है. आज भी घर और मौलिक दोनों जगह काम करने की मनोदशा है कि क्या सही है.

ऐसा भी प्रतीत होता है कि इन दोनों शैलियों को ही अपनाया जाएगा, किसी पर विराम नहीं लगेगा, क्योंकि कार्यशैली इस बात पर अधिक निर्भर करती है कि कंपनी में किस किस्म का काम होता है व उसे किस किस्म के कर्मचारियों की जरूरत है.

सनातन पर तनातनी

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के पुत्र उदयनिधि ने लेखकों के सम्मेलन में कह डाला है कि सनातन धर्म सामाजिक न्याय के विचार के विरुद्ध है और उसे डेंगू व मलेरिया की तरह समाप्त करना चाहिए. अपने राज्य के विचारक, समाज सुधारक पेरियार व भीमराव अंबेडकर का संदर्र्भ देते हुए उन्होंने कहा कि इस का, बस, विरोध काफी नहीं है. जैसा कि स्वाभाविक है, यह बयान आते ही ब्राह्मणवादी और उन के भक्तों की टोली सक्रिय हो गई और एक्स (पहले ट्विटर) पर बाढ़ आ गई कि यह देशद्रोही, धर्मद्रोही बयान देने की हिम्मत कैसे हुई.

आजकल सनातन धर्म की तूती ज्यादा ही जोर से मचाई जा रही है क्योंकि मोहन भागवत जैसे संघ प्रमुख ने कहना शुरू कर दिया कि हर भारतवासी हिंदू है. अगर मुसलिम, ईसाई, नास्तिक भी हिंदू हो गए तो उन्हें शुद्ध हिंदू धर्म चाहिए, इसलिए देशभर के मठों में वहां के महंत अब सनातन धर्म की बात करने लगे हैं जो सीधे पुराणों से लिया जाता है.

करुणानिधि के पौत्र एम के स्टालिन के पुत्र उदयनिधि ने सनातन धर्म के बारे में कुछ कहा है तो भाजपाभक्तों की टोली को बजाय गुस्सा होने के सनातन धर्म के गुण गिनाने चाहिए और बताना चाहिए कि कैसे यह ही सर्वश्रेष्ठ है. वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि सिवा संतों, देवीदेवताओं के नाम लेने के, सनातन धर्म, जैसे आज हमें विरासत में मिला है या जैसा हम पुराणों में पढ़ते हैं, में हमें कुछ खास नहीं मिलता. सनातन धर्म के लिए भक्त ब्रह्मा, विष्णु, शिव व उन के अवतारों और सैकड़ों ऋषियोंमुनियों के नाम ले सकते हैं पर उन्होंने सनातन धर्म की रक्षा के अलावा आम जनता के लिए क्या किया, शायद न बता पाए.

हर देवीदेवता का आचरण विवादास्पद रहा है. किसी ने अपनी स्त्री को छोड़ा, किसी ने भाईयों से युद्ध किया, किसी ने गुस्से में आ कर श्राप दिया, किसी ने जातिव्यवस्था की व्याख्या की. ये सब बातें आज नैतिकता और मानवता के तर्क की कसौटी पर दोषरहित साबित नहीं की जा सकतीं.

आजकल सनातन धर्म के इतिहास के बारे में कम सुनने को मिलता है क्योंकि जैसे ही पुराणों का संदर्भ देते हुए कोई बात कहता है, उस पर बीसियों मुकदमे ठोक दिए जाते हैं जिस से वह अदालतों के चक्कर लगातेलगाते परेशान हो जाए. सनातन धर्म की सत्यता की जांच करना आज जोखिम का काम है क्योंकि उदयनिधि रटालिन मुख्यमंत्री के पुत्र हैं, उन्हें पुलिस बेमतलब के मुकदमों में घसीट नहीं सकती.

अच्छा है, भक्त मंडली बजाय गिरफ्तारी की मांग करने के सनातन धर्म के 10-20 गुणों को बता कर देखे और निमंत्रित कर उन गुणों पर हर तरह की प्रतिक्रिया स्वीकारे. शास्त्रार्थ की परंपरा तो इस देश में पुरानी है. इसे अपनाने में क्या हर्ज है बजाय आईपीसी की धारा के 295ए के अंतर्गत मुकदमा दर्ज कराने के.

पोस्ट वर्कआउट ग्रूमिंग

युवकों को सिक्स पैक बनाने के लिए या फिर जिम जौइन करने के लिए सब से ज्यादा किसी ने प्रेरित किया है, तो वे हैं सलमान खान. आज यह नाम युवाओं में जनून बन चुका है. युवा अपने बिजी शैड्यूल में से वक्त निकाल कर जिम जाते हैं. यहां तक कि वे जबरदस्त ठंड में भी जिम जाना नहीं छोड़ते, जिस का नतीजा उन्हें कूल बौडी व यंग लुक के रूप में मिलता है. लेकिन जब ये युवा जिम से बाहर निकलते हैं तो इन का पूरा शरीर पसीने से तर होता है, जिस कारण इन से पसीने की बदबू आती है और बाल भी चिपचिपेनजर आते हैं.

नो मैटर, आप का फिजिक कितना ही अच्छा हो, लेकिन इस हालत में जब आप जिम से बाहर आते हैं तो पसीने से तरबतर नजर आते हैं, जिस से आप का पूरा व्यक्तित्व जीरो नजर आता है. ऐसे में कोई भी लड़की आप से इंप्रैस होना तो दूर, आप की तरफ देखना भी पसंद नहीं करेगी. आप टैंशन न लें, क्योंकि जब प्रौब्लम आती है तो उस का सौल्यूशन भी अवश्य होता है. ऐसे में हम आप को बताते हैं कि कैसे आप हौट बौडी के साथ हौट लुक को भी मैंटेन रख सकते हैं वह भी पोस्ट वर्कआउट से. बस, इस के लिए आप को कुछ गू्रमिंग प्रोडक्ट औैर केयर की जरूरत है.

पसीना

जब भी हम शारीरिक श्रम करते हैं तो उस से हमारी बौडी गरम हो जाती है. ऐसे में बौडी के तापमान को मैंटेन करने के लिए हमारे शरीर से पसीना निकलना शुरू होता है, जिस से शरीर धीरेधीरे ठंडा होने लगता है, लेकिन पोस्ट वर्कआउट स्टेज में भी आप की बौडी पसीना प्रोड्यूस करना जारी रखती है, अगर आप ने कोई भी कूलिंग एजैंट नहीं अपनाया तो यह प्रक्रिया जारी रहती है औैर इसीलिए वर्कआउट के बाद कोल्ड शावर लेने की सलाह दी जाती है, लेकिन वर्कआउट के दौरान उत्पन्न हुई गंदगी, पसीना, धूल, कीटाणु को पूर्णतया शरीर से हटाने के लिए सिर्फ कोल्ड शावर, सोप का इस्तेमाल ही काफी नहीं होता, बल्कि आप को पोस्ट वर्कआउट शावर लेते वक्त शावर जैल यूज करने की आवश्यकता होती है. ये न सिर्फ अच्छे क्लींजिंग एजैंट  हैं बल्कि ये आप की बौडी के मौइश्चर लैवल को भी बनाए रखते हैं. इन से आप खुद को फ्रैश और ऊर्जावान भी महसूस करते हैं.

हेयर नोवोशन

वर्कआउट के तुरंत बाद ऐनर्जी लैवल हाई होता है, ब्लड सर्कुलेशन बढ़ जाता है, जिस की वजह से आप का चेहरा, बौडी, स्किन तुरंत लाल पड़ जाती है. बिलकुल ऐसा ही असर आप की स्कैल्प पर भी होता है, लेकिन बौडी स्किन की तरह स्कैल्प विजिबल नहीं होती और आप को स्कैल्प पर हुआ इफैक्ट नजर नहीं आता. यही कारण है कि जिम जाने वालों में यह कौमन हैबिट नजर आती है कि वे अपनी स्कैल्प को नजरअंदाज कर देते हैं, जिस कारण बालों का वौल्यूम, क्वालिटी, टैक्स्चर खराब होता जाता है, जो थोड़ी केयर करते भी हैं वे अपने पसीने, गंदगी में डूबे बालों को धोने के लिए रैगुलर फोम शैंपू ही यूज करते हैं.

लेकिन अगर आप को अपने बालों की हैल्थ अच्छी रखनी है तो फोम बैस्ड शैंपू, ऐंटी डैंड्र्रफ शैंपू या हेयर लौस शैंपू को पूरी तरह अवौइड करें, क्योंकि ये धूलमिट्टी हटाने के साथ ही बालों का नैचुरल औयल भी हटा देते हैं. इसलिए उपरोक्त शैंपू की जगह क्रीम बैस्ड शैंपू को अपनी जिम किट में जगह दें. यह आप के बालों के नैचुरल औयल और मौइश्चर को बालों में लौक कर देता है. यह न सिर्फ आप के बालों और स्कैल्प को हाइड्रैट रखता है बल्कि रफनैस और ड्राइनैस को दूर कर बालों को सिल्की ऐेंड सौफ्ट टच भी देता है, क्योंकि यह शैंपू के साथ कंडीशनर का काम भी करता है.

स्टाइल करैक्टली

वर्कआउट के बाद प्रौपर शावर लेने के बाद भी आप की बौडी का तापमान नौर्मल होने की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है यानी शावर के बाद भी तापमान नौर्मल से थोड़ा ऊपर ही रहता है. इस दौरान अगर आप ने अपने बालों की स्टाइलिंग के लिए गलत जैल जैसे हैवी ड्यूटी जैल या क्रीम इस्तेमाल की तो आप बिलकुल भी स्टाइलिश नजर नहीं आएंगे, क्योंकि ये आप के बालों को फ्लैट कर देंगे. इसलिए शैंपू के बाद कूल मोड पर रख कर हेयर ड्रायर का इस्तेमाल करें. लेकिन अगर यह सुविधा उपलब्ध नहीं है तो आप ऐसे स्टाइलिंग प्रोडक्ट अपने जिम किट में रखें जो क्ले या वैक्स बेस्ड हों. नौर्मल हेयर जैल से ये बेहतर हैं. जैल गरमी से बह जाता है. इस के विपरीत क्ले आप के बालों को मजबूत पकड़ देता है, साथ ही आप के स्कैल्प की स्किन ब्रीद भी कर सकती है.

स्किन डीप नरिशमैंट

पोस्ट वर्कआउट शावरके बाद आप अपनी स्किन पर क्या औैर किस तरह के प्रोडक्ट अप्लाई करते हैं, इस पर ही आप का लुक निर्भर करता है कि आप कूल डूड नजर आते हैं या नहीं. यह तो आप ने जाना कि शावर के बाद भी आप की बौडी का तापमान थोड़ा बढ़ा हुआ रहता है. ऐसे में अगर आप हैवी, क्रीमी, मौइश्चराइजर अप्लाई करेंगे तो आप की बौडी हीट होने की वजह से आप को बेहिसाब पसीना आएगा. ऐसा लगेगा जैसे सूरज की तपन से आप रोस्ट हो रहे हैं और थिक बौडी लोशन यूज करेंगे तो शरीर पिघलता महसूस होगा. दोनों स्थितियों में आप लूजर नजर आएंगे. ऐसे में आप अपनी जिम किट में औयलफ्री, लाइट वेट मौइश्चराइजर व लोशन रखिए. इन को लगाने से स्किन पोर बंद नहीं होंगे और त्वचा आसानी से सांस ले सकेगी तथा ये लोशन आसानी से स्किन में अंदर तक समा जाएंगे.

मुझे एक लड़की पसंद है, लेकिन उसका पहले से बॉयफ्रेंड है, बताएं मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 31 वर्षीय युवक हूं. कालेज टाइम में अफेयर हुआ जो 5 साल तक चला. फिर ब्रेकअप हो गया. जौब लगी तो वहां औफिस में साथ काम करने वाली लड़की से प्यार करने लगा लेकिन उस का पहले से बौयफ्रैंड था, इसलिए बात नहीं बनी.

जवाब

घरवाले शादी के लिए जोर देने लगे तो कई लड़कियां देखने के बाद एक लड़की पसंद आ गई. हमारा रोका भी हो गया. लेकिन 2 दिनों बाद फोन पर उस ने मुझे बताया कि उसे ड्रग्स लेने की आदत है. और इतनी ज्यादा ऐडिक्ट कि अब छोड़ना भी चाहे तो छोड़ नहीं सकती. घरवालों को भी पता चल गया. रिश्ता टूट गया. मुझे अब ऐसा लग रहा है कि मेरी जिंदगी में किसी का प्यार है ही नहीं. दिल टूट गया है. लगता है सब खत्म हो गया. समझ नहीं आ रहा कैसे उबारूं अपनेआप को इस स्थिति से? अफसोस है कि आप के प्यार को कभी मंजिल नहीं मिल पाई और अब शादी होने से पहले रिश्ता टूटने से आप खुद को संभाल नहीं पा रहे, जबकि ऐसी परिस्थिति में खुद को पौजिटिव रखने की जरूरत है.जो कुछ हुआ उसे अल्पकालिक मान कर चलें. कोई मेरा नहीं हो सकता. बस, यही मेरे लिए लास्ट लड़की थी, इस तरह की बातों को बिलकुल भी अपने मन के अंदर हावी न होने दें.

किसी और की गलती के कारण खुद को तकलीफ न दें. अगर आप अपने को प्यार करना छोड़ देंगे, तो भला दूसरा आप से प्यार कैसे करेगा.किसी के साथ जीवनभर का सपना देखना और फिर उस को एक ही पल में खो देना दुखदायी होता है. ऐसे में तनहाई में हरगिज न रहें. अपनेआप को व्यस्त रखने के लिए दोस्तों से बात करें, अपनी रुचि की ऐक्टिविटी करें, अच्छी किताबें पढ़ें. दोस्तों के साथ ट्रिप प्लान करें.अपने अंदर का आत्मविश्वास खोने न दें, सो, अपने यकीन को कायम रखें. जो हुआ सो हुआ, यह मान कर खुद को नकारात्मक होने से बचाएं. इस बात को सहजता से स्वीकार कर लें, वरना यह बात आप को दर्द देती रहेगी.

पान खाए सैयां हमारो : शादी के लिए न करती युवती की कहानी

शाम के 6 बजे जब सब 1-1 कर घर जाने के लिए अपनाअपना बैग समेटने लगे तो सिया ने चोरी से एक नजर अनिल पर डाली. औफिस में नया आया सब से हैंडसम, स्मार्ट, खुशमिजाज अनिल उसे देखते ही पसंद आ गया था. वह मन ही मन उस के प्रति आकर्षित थी.

अनिल ने भी एक नजर उस पर डाली तो वह मुसकरा दी. दोनों अपनीअपनी चेयर से लगभग साथ ही उठे. लिफ्ट तक भी साथ ही गए. 2-3 लोग और भी उन के साथ बातें करते लिफ्ट में आए. आम सी बातों के दौरान सिया ने भी नोट किया कि अनिल भी उस पर चोरीचोरी नजर डाल रहा है.

बाहर निकल कर सिया रिकशे की तरफ जाने लगी तो अनिल ने कहा, ‘‘सिया, कहां जाना है आप को मैं छोड़ दूं?’’‘‘नो थैंक्स, मैं रिकशा ले लूंगी.’’‘‘अरे, आओ न, साथ चलते हैं.’’‘‘अच्छा, ठीक है.’’

अनिल ने अपनी बाइक स्टार्ट की, तो सिया उस के पीछे बैठ गई. अनिल से आती परफ्यूम की खुशबू सिया को भा रही थी. दोनों को एकदूसरे का स्पर्श रोमांचित कर गया. बनारस में इस औफिस में दोनों ही नए थे. सिया की नियुक्ति पहले हुई थी.

अचानक सड़क के किनारे होते हुए अनिल ने ब्रेक लगाए तो सिया चौंकी, ‘‘क्या हुआ?’’‘‘कुछ नहीं,’’ कहते हुए अनिल ने अपनी पैंट की जेब से गुटका निकाला और बड़े स्टाइल से मुंह में डालते हुए मुसकराया.‘‘यह क्या?’’ सिया को एक झटका सा लगा.‘‘मेरा फैवरिट पानमसाला.’’‘‘तुम्हें इस की आदत है?’’

‘‘हां, और यह मेरी स्टाइलिश आदत है, है न?’’ फिर सिया के माथे पर शिकन देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’‘‘तुम्हें इन सब चीजों का शौक है?’’‘‘हां, पर क्या हुआ?’’‘‘नहीं, कुछ नहीं,’’ कह कर वह चुप रही तो अनिल ने फिर बाइक स्टार्ट कर ली.धीरेधीरे यह रोज का क्रम बन गया. घर से आते हुए सिया रिकशे में आती, औफिस से वापस जाते समय अनिल उसे उस के घर से थोड़ी दूर उतार देता. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे से खुलते गए.

अनिल का सिया के प्रति आकर्षण बढ़ता गया. मौडर्न, सुंदर, स्मार्ट सिया को वह अपने भावी जीवनसाथी के रूप में देखने लगा था. कुछ ऐसा ही सिया भी सोचने लगी थी. दोनों को विश्वास था कि उन के घर वाले उन की पसंद को पसंद करेंगे.

अनिल तो सिया के साथ अपना जीवन आगे बढ़ाने के लिए शतप्रतिशत तय कर चुका था पर सिया एक पौइंट पर आ कर रुक जाती थी. अनिल की लगातार मुंह में गुटका दबाए रखने की आदत पर वह जलभुन जाती थी. कई बार उस ने इस से होने वाली बीमारियों के बारे में चेतावनी भी दी तो अनिल ने बात हंसी में उड़ा दी, ‘‘यह क्या तुम बुजुर्गों की तरह उपदेश देने लगती हो. अरे, मेरे घर में सब खाते हैं, मेरे मम्मीपापा को भी आदत है, तुम खाती नहीं न, इसलिए डरती हो. 2-3 बार खाओगी तो स्वाद अपनेआप अच्छा लगने लगेगा. पहले मेरी मम्मी भी पापा को मना करती थीं. फिर धीरेधीरे वे गुस्से में खुद खाने लगीं और अब तो उन्हें भी मजा आने लगा है, इसलिए अब कोई किसी को नहीं टोकता.’’

सिया के दिल में क्रोध की एक लहर सी उठी पर अपने भावों को नियंत्रण में रखते हुए बोली, ‘‘पर अनिल, तुम इतने पढ़ेलिखे हो, तुम्हें खुद भी यह बुरी आदत छोड़नी चाहिए और अपने मम्मीपापा को भी समझाना चाहिए.’’

‘‘उफ सिया. छोड़ो यार, आजकल तुम घूमफिर कर इसी बात पर आ जाती हो. हमारे मिलने का आधा समय तो तुम इसी बात पर बिता देती हो. अरे, तुम ने वह गाना नहीं सुना, ‘पान खाए सैयां हमारो…’ फिर हंसा, ‘‘तुम्हें तो यह गाना गाना चाहिए, देखा नहीं कभी क्या कि वहीदा रहमान यह गाना गाते हुए कितनी खुश होती हैं.’’‘‘वे फिल्मों की बातें हैं. उन्हें रहने दो.’’

अनिल उसे फिर हंसाता रहा पर वह उस की इस आदत पर काफी चिंतित थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अनिल की इस आदत को कैसे छुड़ाए.एक दिन सिया अपने मम्मीपापा और बड़े भाई राहुल से मिलवाने अनिल को घर ले गई. अनिल का व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि देखने वाला तुरंत प्रभावित होता था. सब अनिल के साथ घुलमिल गए. बातें करतेकरते जब ऐक्सक्यूज मी कह कर अनिल ने अपनी जेब से पानमसाला निकाल कर अपने मुंह में डाला, तो सब उस की इस आदत पर हैरान से चुप बैठे रह गए.

अनिल के जाने के बाद वही हुआ जिस की उसे आशा थी. सिया की मम्मी सुधा ने कहा, ‘‘अनिल अच्छा लगा पर उस की यह आदत …’’ सिया ने बीच में ही कहा, ‘‘हां मम्मी, मुझे भी उस की यह आदत बिलकुल पसंद नहीं है. क्या करूं समझ नहीं आ रहा है.’’

थोड़े दिन बाद ही अनिल सिया को अपने परिवार से मिलवाने ले गया. अनिल के पापा श्याम और मम्मी मंजू अनिल की छोटी बहन मिनी सब सिया से बहुत प्यार से पेश आए. सिया को भी सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा. मंजू ने तो उसे डिनर के लिए ही रोक लिया. सिया भी सब से घुलमिल गई. फिर वह किचन में ही मंजू का हाथ बंटाने आ गई. सिया ने देखा, फ्रिज में एक शैल्फ पान के बीड़ों से भरी हुई थी.

‘‘आंटी, इतने पान?’’ वह हैरान हुई.‘‘अरे हां,’’ मंजू मुसकराईं, ‘‘हम सब को आदत है न. तुम तो जानती ही हो, बनारस के पान तो मशहूर हैं.’’‘‘पर आंटी, हैल्थ के लिए…’’‘‘अरे छोड़ो, देखा जाएगा,’’ सिया के अपनी बात पूरी करने से पहले ही मंजू बोलीं.किचन में ही एक तरफ शराब की बोतलों का ढेर था. वह वौशरूम में गई तो वहां उसे जैसे उलटी आने को हो गई. बाहर से घर इतना सुंदर और वौशरूम में खाली गुटके यहांवहां पड़े थे. टाइल्स पर पड़े पान के छींटों के निशान देखते ही उसे उलटी आ गई. सभ्य, सुसंस्कृत दिखने वाले परिवार की असलियत घर के कोनेकोने में दिखाई दे रही थी. ‘अगर वह इस घर में बहू बन कर आ गई तो उस का बाकी जीवन तो इन गुटकों, इन बदरंग निशानों को साफ करते ही बीत जाएगा,’ उस ने इन विचारों में डूबेडूबे ही सब के साथ डिनर किया.

डिनर के बाद अनिल सिया को घर छोड़ आया. घर आने के बाद सिया के मन में कई विचार आ जा रहे थे. अनिल एक अच्छा जीवनसाथी सिद्ध हो सकता है, उस के घर वाले भी उस से प्यार से पेश आए पर सब की ये बुरी आदतें पानमसाला, शराब, सिगरेट के ढेर वह अपनी आंखों से देख आई थी. घर आ कर उस ने अपने मन की बात किसी को नहीं बताई पर बहुत कुछ सोचती रही. 2-3 दिन उस ने अनिल से एक दूरी बनाए रखी. सिया के इस रवैए से परेशान अनिल बहुत कुछ सोचने लगा कि क्या हुआ होगा पर उसे जरा भी अंदाजा नहीं हुआ तो शाम को घर जाने के समय वह सिया का हाथ पकड़ कर जबरदस्ती कैंटीन में ले गया, वहां बैठ कर उदास स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ है, बताओ तो मुझे?’’

सिया को जैसे इसी पल का इंतजार था. अत: उस ने गंभीर, संयत स्वर में कहना शुरू किया, ‘‘अनिल, मैं तुम्हें बहुत पसंद करती हूं, पर हम इस रिश्ते को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे.’’अनिल हैरानी से चीख ही पड़ा, ‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे परिवार को जो ये कुछ बुरी आदतें हैं, मुझ से सहन नहीं होंगी, तुम एजुकेटेड हो, तुम्हें इन आदतों का भविष्य तो पता ही होगा. भले ही तुम इन आदतों के परिणामों को नजरअंदाज करते रहो पर जानते तो हो ही न? मैं ऐसे परिवार की बहू कैसे बनूं जो इन बुरी आदतों से घिरा है? आई एम सौरी, अनिल, मैं सब जानतेसमझते ऐसे परिवार का हिस्सा नहीं बनना चाहूंगी.’’

अनिल का चेहरा मुरझा चुका था. बड़ी मुश्किल से उस की आवाज निकली, ‘‘सिया, मैं तो तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’‘‘हां अनिल, मैं भी तुम से दूर नहीं होना चाहती पर क्या करूं, इन व्यसनों का हश्र जानती हूं मैं. सौरी अनिल,’’ कह उठ खड़ी हुई.अनिल ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘अगर मैं यह सब छोड़ने की कोशिश करूं तो? अपने मम्मीपापा को भी समझांऊ तो?’’

‘‘तो फिर मैं इस कोशिश में तुम्हारे साथ हूं,’’ मुसकराते हुए सिया ने कहा, ‘‘पर इस में काफी समय लगेगा,’’ कह सिया चल दी.आत्मविश्वास से सधे सिया के कदमों को देखता अनिल बैठा रह गया.आदतन हाथ जेब तक पहुंचा, फिर सिर पकड़ कर बैठा रह गया.

जन्मकुंडली का चक्कर : ग्रहों के फेर में फंसी लड़की की दास्तां

उस दिन सुबह ही मेरे घनिष्ठ मित्र प्रशांत का फोन आया और दोपहर को डाकिया उस के द्वारा भेजा गया वैवाहिक निमंत्रणपत्र दे गया. प्रशांत की बड़ी बेटी पल्लवी की शादी तय हो गई थी. इस समाचार से मुझे बेहद प्रसन्नता हुई और मैं ने प्रशांत को आश्वस्त कर दिया कि 15 दिन बाद होने वाली पल्लवी की शादी में हम पतिपत्नी अवश्य शरीक होेंगे.

बचपन से ही प्रशांत मेरा जिगरी दोस्त रहा है. हम ने साथसाथ पढ़ाई पूरी की और लगभग एक ही समय हम दोनों अलगअलग बैंकों में नौकरी में लग गए. हम अलगअलग जगहों पर कार्य करते रहे लेकिन विशेष त्योहारों के मौके पर हमारी मुलाकातें होती रहतीं.

हमारे 2-3 दूसरे मित्र भी थे जिन के साथ छुट्टियों में रोज हमारी बैठकें जमतीं. हम विभिन्न विषयों पर बातें करते और फिर अंत में पारिवारिक समस्याओं पर विचारविमर्श करने लगते. बढ़ती उम्र के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और बच्चों की शादी जैसे विषयों पर हमारी बातचीत ज्यादा होती रहती.

प्रशांत की दोनों बेटियां एम.ए. तक की शिक्षा पूरी कर नौकरी करने लगी थीं जबकि मेरे दोनों बेटे अभी पढ़ रहे थे. हमारे कई सहकर्मी अपनी बेटियों की शादी कर के निश्ंिचत हो गए थे. प्रशांत की बेटियों की उम्र बढ़ती जा रही थी और उस के रिटायर होेने का समय नजदीक आ रहा था. उस की बड़ी बेटी पल्लवी की जन्मकुंडली कुछ ऐसी थी कि जिस के कारण उस के लायक सुयोग्य वर नहीं मिल पा रहा था.

हमारे खानदान में जन्मकुंडली को कभी महत्त्व नहीं दिया गया, इसलिए मुझे इस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. एक बार कुछ खास दोस्तों की बैठक में प्रशांत ने बताया था कि पल्लवी मांगलिक है और उस का गण राक्षस है. मेरी जिज्ञासा पर वह बोला, ‘‘कुंडली के 1, 4, 7, 8 और 12वें स्थान पर मंगल ग्रह रहने पर व्यक्ति मंगली या मांगलिक कहलाता है और कुंडली के आधार पर लोग देव, मनुष्य या राक्षस गण वाले हो जाते हैं. कुछ अन्य बातों के साथ वरवधू के न्यूनतम 18 गुण या अंक मिलने चाहिए. जो व्यक्ति मांगलिक नहीं है, उस की शादी यदि मांगलिक से हो जाए तो उसे कष्ट होगा.’’

किसी को मांगलिक बनाने का आधार मुझे विचित्र लगा और लोगों को 3 श्रेणियों में बांटना तो वैसे ही हुआ जैसे हिंदू समाज को 4 प्रमुख जातियों में विभाजित करना. फिर जो मांगलिक नहीं है, उसे अमांगलिक क्यों नहीं कहा जाता? यहां मंगल ही अमंगलकारी हो जाता है और कुंडली के अनुसार दुश्चरित्र व्यक्ति देवता और सुसंस्कारित, मृदुभाषी कन्या राक्षस हो सकती है. मुझे यह सब बड़ा अटपटा सा लग रहा था.

प्रशांत की बेटी पल्लवी ने एम.एससी. करने के बाद बी.एड. किया और एक बड़े स्कूल में शिक्षिका बन गई. उस का रंगरूप अच्छा है. सीधी, सरल स्वभाव की है और गृहकार्य में भी उस की रुचि रहती है. ऐसी सुयोग्य कन्या का पिता समाज के अंधविश्वासों की वजह से पिछले 2-3 वर्ष से परेशान रह रहा था. जन्मकुंडली उस के गले का फंदा बन गई थी. मुझे लगा, जिस तरह जातिप्रथा को बहुत से लोग नकारने लगे हैं, उसी प्रकार इस अकल्याणकारी जन्मकुंडली को भी निरर्थक और अनावश्यक बना देना चाहिए.

प्रशांत फिर कहने लगा, ‘‘हमारे समाज मेें पढ़ेलिखे लोग भी इतने रूढि़वादी हैं कि बायोडाटा और फोटो बाद में देखते हैं, पहले कुंडली का मिलान करते हैं. कभी मंगली लड़का मिलता है तो दोनों के 18 से कम गुण मिलते हैं. जहां 25-30 गुण मिलते हैं वहां गण नहीं मिलते या लड़का मंगली नहीं होता. मैं अब तक 100 से ज्यादा जगह संपर्क कर चुका हूं किंतु कहीं कोई बात नहीं बनी.’’

मैं, अमित और विवेक, तीनों उस के हितैषी थे और हमेशा उस के भले की सोचते थे. उस दिन अमित ने उसे सुझाव दिया कि किसी साइबर कैफे में पल्लवी की जन्मतिथि थोड़ा आगेपीछे कर के एक अच्छी सी कुंडली बनवा लेने से शायद उस का रिश्ता जल्दी तय हो जाए.

प्रशांत तुरंत बोल उठा, ‘‘मैं ने अभी तक कोई गलत काम नहीं किया है. किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी मैं नहीं कर सकता.’’

‘‘मैं किसी को धोखा देने की बात नहीं कर रहा,’’ अमित ने उसे समझाना चाहा, ‘‘किसी का अंधविश्वास दूर करने के लिए अगर एक झूठ का सहारा लेना पड़े तो इस में बुराई क्या है. क्या कोई पंडित या ज्योतिषी इस बात की गारंटी दे सकता है कि वर और कन्या की कुंडलियां अच्छी मिलने पर उन का दांपत्य जीवन सफल और सदा सुखमय रहेगा?

‘‘हमारे पंडितजी, जो दूसरों की कुंडली बनाते और भविष्य बतलाते हैं, स्वयं 45 वर्ष की आयु में विधुर हो गए. एक दूसरे नामी पंडित का भतीजा शादी के महज  5 साल बाद ही एक दुर्घटना का शिकार हो गया. उस के बाद उन्होंने जन्मकुंडली और भविष्यवाणियों से तौबा ही कर ली,’’ वह फिर बोला, ‘‘मेरे मातापिता 80-85 वर्ष की उम्र में भी बिलकुल स्वस्थ हैं जबकि कुंडलियों के अनुसार उन के सिर्फ 8 ही गुण मिलते हैं.’’

प्रशांत सब सुनता रहा किंतु वह पल्लवी की कुंडली में कुछ हेरफेर करने के अमित के सुझाव से सहमत नहीं था.

कुछ महीने बाद हम फिर मिले. इस बार प्रशांत कुछ ज्यादा ही उदास नजर आ रहा था. कुछ लोग अपनी परेशानियों के बारे में अपने निकट संबंधियों या दोस्तों को भी कुछ बताना नहीं चाहते. आज के जमाने में लोग इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि बस, थोड़ी सी हमदर्दी दिखा कर चल देंगे. उन से निबटना तो खुद ही होगा. हमारे छेड़ने पर वह कहने लगा कि पंडितों के चक्कर में उसे काफी शारीरिक कष्ट तथा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा और कोई लाभ नहीं हुआ.

2 वर्ष पहले किसी ने कालसर्प दोष बता कर उसे महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध स्थान पर सोने के सर्प की पूजा और पिंडदान करने का सुझाव दिया था. उतनी दूर सपरिवार जानेआने, होटल में 3 दिन ठहरने और सोने के सर्प सहित दानदक्षिणा में उस के लगभग 20 हजार रुपए खर्च हो गए. उस के कुछ महीने बाद एक दूसरे पंडित ने महामृत्युंजय जाप और पूजाहवन की सलाह दी थी. इस में फिर 10 हजार से ज्यादा खर्च हुए. उन पंडितों के अनुसार पल्लवी का रिश्ता पिछले साल ही तय होना निश्चित था. अब एकडेढ़ साल बाद भी कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी.

मैं ने उसे समझाने के इरादे से कहा, ‘‘तुम जन्मकुंडली और ऐसे पंडितों को कुछ समय के लिए भूल जाओ. यजमान का भला हो, न हो, इन की कमाई अच्छी होनी चाहिए. जो कहते हैं कि अलगअलग राशि वाले लोगों पर ग्रहों के असर पड़ते हैं, इस का कोई वैज्ञानिक आधार है क्या?

‘‘भिन्न राशि वाले एकसाथ धूप में बैठें तो क्या सब को सूर्य की किरणों से विटामिन ‘डी’ नहीं मिलेगा. मेरे दोस्त, तुम अपनी जाति के दायरे से बाहर निकल कर ऐसी जगह बात चलाओ जहां जन्मकुंडली को महत्त्व नहीं दिया जाता.’’

मेरी बातों का समर्थन करते हुए अमित बोला, ‘‘कुंडली मिला कर जितनी शादियां होती हैं उन में बहुएं जलाने या मारने, असमय विधुर या विधवा होने, आत्महत्या करने, तलाकशुदा या विकलांग अथवा असाध्य रोगों से ग्रसित होने के कितने प्रतिशत मामले होते हैं. ऐसा कोई सर्वे किया जाए तो एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आ जाएगा. इस पर कितने लोग ध्यान देते हैं? मुझे तो लगता है, इस कुंडली ने लोगों की मानसिकता को संकीर्ण एवं सशंकित कर दिया है. सब बकवास है.’’

उस दिन मुझे लगा कि प्रशांत की सोच में कुछ बदलाव आ गया था. उस ने निश्चय कर लिया था कि अब वह ऐसे पंडितों और ज्योतिषियों के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

खैर, अंत भला तो सब भला. हम तो उस की बेटियों की जल्दी शादी तय होने की कामना ही करते रहे और अब एक खुशखबरी तो आ ही गई.

हम पतिपत्नी ठीक शादी के दिन ही रांची पहुंच सके. प्रशांत इतना व्यस्त था कि 2 दिन तक उस से कुछ खास बातें नहीं हो पाईं. उस ने दबाव डाल कर हमें 2 दिन और रोक लिया था. तीसरे दिन जब ज्यादातर मेहमान विदा हो चुके थे, हम इत्मीनान से बैठ कर गपशप करने लगे. उस वक्त प्रशांत का साला भी वहां मौजूद था. वही हमें बताने लगा कि किस तरह अचानक रिश्ता तय हुआ. उस ने कहा, ‘‘आज के जमाने में कामकाजी लड़कियां स्वयं जल्दी विवाह करना नहीं चाहतीं. उन में आत्मसम्मान, स्वाभिमान की भावना होती है और वे आर्थिक रूप से अपना एक ठोस आधार बनाना चाहती हैं, जिस से उन्हें अपनी हर छोटीमोटी जरूरत के लिए अपने पति के आगे हाथ न फैलाना पड़े. पल्लवी को अभी 2 ही साल तो हुए थे नौकरी करते हुए लेकिन मेरे जीजाजी को ऐसी जल्दी पड़ी थी कि उन्होंने दूसरी जाति के एक विधुर से उस का संबंध तय कर दिया.

वैसे मेरे लिए यह बिलकुल नई खबर थी. किंतु मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा. पल्लवी का पति 30-32 वर्ष का नवयुवक था और देखनेसुनने में ठीक लग रहा था. हम लोगोें का मित्र विवेक, प्रशांत की बिरादरी से ही था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर प्रशांत ने ऐसा निर्णय क्यों लिया. उस ने उस से पूछा, ‘‘पल्लवी जैसी कन्या के लिए अपने समाज में ही अच्छे कुंआरे लड़के मिल सकते थे. तुम थोड़ा और इंतजार कर सकते थे. आखिर क्या मजबूरी थी कि उस की शादी तुम ने एक ऐसे विधुर से कर दी जिस की पत्नी की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत हो गई थी.’’

‘‘यह सिर्फ मेरा निर्णय नहीं था. पल्लवी की इस में पूरी सहमति थी. जब हम अलगअलग जातियों के लोग आपस में इतने अच्छे दोस्त बन सकते हैं, साथ खापी और रह सकते हैं, तो फिर अंतर्जातीय विवाह क्यों नहीं कर सकते?’’

प्रशांत कहने लगा, ‘‘एक विधुर जो नौजवान है, रेलवे में इंजीनियर है और जिसे कार्यस्थल भोपाल में अच्छा सा फ्लैट मिला हुआ है, उस में क्या बुराई है? फिर यहां जन्मकुंडली मिलाने का कोई चक्कर नहीं था.’’

‘‘और उस की पहली पत्नी की मौत?’’ विवेक शायद प्रशांत के उत्तर से संतुष्ट नहीं था.

प्रशांत ने कहा, ‘‘अखबारों में प्राय: रोज ही दहेज के लोभी ससुराल वालों द्वारा बहुओं को प्रताडि़त करने अथवा मार डालने की खबरें छपती रहती हैं. हमें भी डर होता था किंतु एक विधुर से बेटी का ब्याह कर के मैं चिंतामुक्त हो गया हूं. मुझे पूरा यकीन है, पल्लवी वहां सुखी रहेगी. आखिर, ससुराल वाले कितनी बहुओं की जान लेंगे? वैसे उन की बहू की मौत महज एक हादसा थी.’’

‘‘तुम्हारा निर्णय गलत नहीं रहा,’’ विवेक मुसकरा कर बोला.

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जी-20 : नाम बड़े और दर्शन छोटे

दिल्ली में हुए जी-20 सम्मेलन में 20 देशों के मुखिया यानी देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति शामिल हुए लेकिन उस से कुछ ठोस निकला हो, इस में संदेह है. संयुक्त बयान जारी किया गया पर इस में दुनिया का सब से बड़ा हौटस्पौट यूक्रेन को अनदेखा करना पड़ा क्योंकि रूस और चीन इस बारे में कतई सुनने को तैयार नहीं थे.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग तो आए ही नहीं और उन्होंने अनजाने से प्रधानमंत्री ली कियांग को भेज दिया जबकि रूस के विदेश मंत्री और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन केवल स्क्रीन के जरिए टैलीलिंक से आए. इस तरह के सम्मेलनों में जब सब देशों के मुखिया और उन के बड़े मंत्री/अधिकारी एक हौल में बैठे हों, उम्मीद की जाती है कि वे आपस में कुछ नए नायाब फैसले लेंगे जो दुनिया में शांति पैदा करेंगे, रिफ्यूजियों की समस्या को हल करेंगे, देशों की सरकारों को अपने ही नागरिकों के साथ कुव्यवहार को रोकेंगे, बढ़ते क्लाइमेट चेंज की चुनौती से निबटेंगे, युद्धों और गृहयुद्धों को रोकेंगे आदिआदि.

अफसोस पिछले सम्मेलनों की तरह यह सम्मेलन भी ऐसा कुछ नहीं कर पाया और सब खा/पी कर दिल्ली की जमीन को छू कर चले गए. विश्वगुरु बनने का सपना नरेंद्र मोदी जो पाले हुए हैं, कोई काम नहीं आया और जैसे पिछले शिखर सम्मेलन, जो छोटे देश इंडोनेशिया के पर्यटन स्थल बाली में हुआ था, की तरह एक बिना धारदार वक्तव्य के साथ समाप्त हो गया.

भारतीय जनता पार्टी ने बहुत कोशिश की थी कि वह इस सम्मेलन को 2024 के चुनावों के लिए भुनाए पर धर्मोर्दी (धर्म+मोदी) मीडिया के लगातार गुणगान के बावजूद नए भक्त बने हों, इस में शक है. यह सारा तमाशा दिल्ली तक सिमट कर रह गया. दिल्ली में भी थोड़ी लिपाईपुताई हुई और होर्डिंग लगे, देशों के झंडे लगे वरना ऐसा कुछ नहीं हुआ कि दिल्ली वाले फूल कर कुप्पा हुए हों कि मोदीजी की अध्यक्षता के कारण अब वे वर्षों साफसुथरी दिल्ली का आनंद ले सकेंगे.

आजकल दुनिया के नेता आपस में मिलने तो बहुत लगे हैं और जी-20, जी-7, ब्रिक्स, असियान, नाटो जैसे शिखर सम्मेलन होते रहते हैं जिन में काफी नेता मिलते रहते हैं पर इस से दुनिया एक नहीं हो पा रही जबकि दुनिया की सीमाओं पर कंटीले तारों की लाइनें ऊंची और चौड़ी होती जा रही हैं. हर देश अपनी अंदरूनी नीति में दखल को नापसंद करने लगा है.

पश्चिमी देशों को जो बढ़त पहले अपनी अमीरी, अपने बलबूते मिली थी उस से वे देशों को अब खरीद नहीं पा रहे क्योंकि शिक्षा व तकनीक ने नाइजीरिया जैसे गरीब देश में अफ्रीकी अरबपति पैदा कर लिए हैं और कोई देश निल तो कोई खनिजों के कारण मालामाल हो रहा है और उसे दूसरे देश की सुनने की जरूरत नहीं है.

जी-20 की मेजबानी व अध्यक्षता अब बेमतलब की रह गई है क्योंकि भारत में आए सब देशों के नेताओं और उन के अधिकारियों की निगाहें तो मणिपुर व नूंह जैसे मामलों, परदों को लगा कर ढकी गई गंदगी व गरीबी पर थीं.

अफसोस यह है कि जी-20 के मेहमानों के आगमन के समय भी नरेंद्र मोदी अपनी कट्टर हिंदूवादी सोच को छोड़ नहीं पाए और उन्होंने राष्ट्रपति द्वारा जो खाने का निमंत्रण सभी को भिजवाया उस में इंग्लिश में भी प्रैसिडैंट औफ रिपब्लिक औफ भारत लिखवाया. जी-20 के मौके पर दुनिया को एक करने की बात करने वाले मौन रह गए जबकि इस मौके पर इंडिया और भारत का भेद सिखाने बैठ गए. जी-20 बिना किसी विवाद के समाप्त हो, उस का मौका उन्होंने आने ही नहीं दिया और खुद ही ने राजा व प्रजा के बीच एक और झड़प की शुरुआत कर दी.

ऐसे में देशों के आपसी झंझटों को वे सुलझाने में सफल होंगे, इस में संदेह है क्योंकि वे तो देश में निरर्थक झंझट पैदा कर के वोट पाने की कोशिश में लगे रहते हैं और जी-20 में भी उन्होंने यह मौका नहीं छोड़ा. उन्होंने जी-20 को केवल अपना कार्यक्रम बना डाला जिस में विपक्षी दलों को तो छोड़िए, उन के अपने दल के लोग भी सक्रिय नहीं थे. कुछ को चुप रह कर बैठने के निमंत्रण मिले, बस.

World Suicide Prevention Day पर आमिर खान की बेटी ने दी सलाह, देखें वीडियो

Ira khan Viral Video : हर साल 10 सितंबर को ‘वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे’ यानी ‘आत्महत्या रोकथाम दिवस’ मनाया जाता है. इस दिन लोगों को आत्महत्या के प्रति जागरुक किया जाता है, जिस कारण वह आत्महत्या जैसा कोई गंभीर कदम नहीं उठाए. हालांकि बावजूद इसके देश में आत्महत्या करने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. आम जनता से लेकर बॉलीवुड सेलेब्स और कई बार तो उनके बच्चे भी इतना परेशान हो जाते हैं कि मौत को गले लगा लेते हैं.

बॉलीवुड एक्टर आमिर खान की बेटी ”आइरा खान” भी डिप्रेशन जैसे खतरनाक मेंटल स्टेटस से गुजरी थी. हालांकि अब वह इससे बाहर आ चुकी है और अब वो इस तरह की परेशानियों से जूझ रहे लोगों की मदद करती हैं. इसके लिए उन्होंने (Ira khan Viral Video) एक फाउंडेशन का भी गठन किया है.

जानें क्या कहा आइरा ने?

बीते दिन ‘विश्व आत्यहत्या रोकथाम दिवस’ (World Suicide Prevention Day) के मौके पर ”आइरा” को एक बार फिर लोगों को जागरूक करते देखा गया. इस बार उनका एक वीडियो भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है. वीडियो में देखा जा सकता है कि वो आत्महत्या के रोकथाम के उपायों के बारें में बता रही हैं.

सबसे पहले आइरा (Ira khan Viral Video) कहती हैं, ‘जिन लोगों को आत्महत्या का विचार आता है उनको सबसे पहले बहुत डर लगता है. उनको लगता है कि वो अपनी बात किसी को बता नहीं सकते हैं.’ इसी के आगे उन्होंने कहा, ‘लेकिन अगर आप इस बारे में उनसे पूछोगे तो उनको एहसास होता है कि कोई है जो डरेगा नहीं. अगर मैं कहूं कि यह विचार मेरे मन में है. बहुत सारे लोगों को लगता है कि अगर मैं बोलूंगा या बोलूंगी तो यह विचार उनके मन में आ जाएगा, पर ऐसा नहीं होता है. किसी को भी इस बारे में बात करने से डरने की जरूरत नहीं है.’

2021 में आयरा ने बनाया था फाउंडेशन

आपको बताते चलें कि जब से आइरा खान, डिप्रेशन (World Suicide Prevention Day) से बाहर निकली है तभी से वह मेंटल हेल्थ को लेकर लोगों के बीच जागरुकता फैलाने का काम कर रही हैं. इसके लिए उन्होंने साल 2021 में अगस्तू फाउंडेशन का भी गठन किया था, जिसके जरिए वह औपचारिक तौर पर डिप्रेशन में जूझ रहे लोगों की मदद करती हैं.

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