story in hindi
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कायरा लखनऊ के हजरतगंज में अपने पुश्तैनी मकान में रहती थी. संयुक्त परिवार था उस का. दादादादी, चाचाचाची, चचेरे भाईबहन सभी साथ में रहते थे. भीड़भाड़ वाले इलाके में था उस का घर.
ठंड का मौसम था, इसलिए छत पर सुबह से ही धूप में बैठी थी कायरा, लेकिन उस की निगाहें अखबार की दुकान पर जमी हुई थीं, क्योंकि आज एक सरकारी बैंक में परिवीक्षाधीन अधिकारी पद के लिए दिए गए साक्षात्कार का परिणाम आने वाला था. अखबार बेचने वाले की दुकान घर के ठीक सामने थी. रोजगार समाचार अमूमन दोपहर में आता था, लेकिन वह सुबह से ही बेचैन थी. उसे लग रहा था कि आज जल्दी रोजगार समाचार आ जाएगा. बैंक के मानव संसाधन विभाग (एचआर) वालों ने कहा था कि आज के रोजगार समाचार में रिजल्ट जरूर आ जाएगा.
तकरीबन एक बजे अखबार वाले भैया को रोजगार समाचार ले कर आते हुए देख कर वह भागते हुए नीचे पहुंची और बिना पैसे दिए ही रोजगार समाचार के पन्ने पलटने लगी. उस के चेहरे पर तनाव साफतौर पर दृष्टिगोचर हो रहा था. पहली बार में उसे अपना रोल नंबर नहीं दिखा तो वह घबरा गई, लेकिन दोबारा हिम्मत कर के उस ने रोल नंबर देखना शुरू किया. इस बार उसे अपना रोल नंबर दिख गया. उस ने दसियों बार रोल नंबर मिलाया, तब उसे तसल्ली हुई. वह खुशी से पागल हो गई. खुश होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि विगत 2 सालों में कई परीक्षाओं के साक्षात्कारों में वह असफल हो चुकी थी.
कायरा पूरे महल्ले में घूमघूम कर अपनी सफलता के बारे में बता रही थी. घर में पार्टी का माहौल बन गया था. छोटा भाई दौड़ कर चौक से मिठाई ले आया और कायरा ने खुद महल्ले में मिठाई बांटी.
चौथे दिन नियुक्तिपत्र भी आ गया. उसे भोपाल के होशंगाबाद रोड स्थित स्थानीय प्रधान कार्यालय में योगदान देना था. सही समय पर कायरा कार्यालय पहुंच गई. वहां पहले से एक और उम्मीदवार बैंक में योगदान देने के लिए बैठा था. बातचीत के क्रम में पता चला कि उस का नाम कपिल है. वह भोपाल के ईदगाह हिल्स का रहने वाला है. चूंकि, कपिल लोकल था, इसलिए कायरा कपिल से रहने व खाने की व्यवस्था के बारे में बात करने लगी.
कपिल ने कहा, “उस के चाचाजी का “हिल्सव्यू” नाम से एक होटल महाराणा प्रताप नगर, जिसे एमपी नगर के नाम से भी जाना जाता है, में है और मेरे पिताजी का “गिपीज” नाम से एक रेस्टोरेंट चाचाजी के होटल से सटे हुए हैं, तुम आज ही से वहां रह सकती हो, डिनर और ब्रेकफास्ट होटल में भी कर सकती हो या फिर मेरे पिताजी के रेस्टोरेंट में, जो भी तुम्हें सुविधाजनक लगे.”
एचआर के प्रमुख रमेश रामनानी सर थे, जो कपिल के दूर के रिश्तेदार थे. कपिल के आग्रह पर उन्होंने सामान्य बैंकिंग के प्रशिक्षण हेतु दोनों की पोस्टिंग ईदगाह हिल्स शाखा में कर दी. चूंकि, ईदगाह हिल्स छोटी शाखा थी, इसलिए वहां सीखने की ज्यादा गुंजाइश थी. पोस्टिंग 6 महीनों के लिए की गई थी. शाखा प्रबंधक जगदीश राय सर थे. उन का स्वभाव बहुत ही अच्छा था. वे कायरा और कपिल को पूरे शिद्दत से काम सिखाते थे और वे भी मनोयोग से काम सीखने की कोशिश करते थे.
कपिल ने कायरा के रहने का इंतजाम ईदगाह हिल्स में अपने घर में कर दिया. उस का घर ईदगाह हिल्स में अवस्थित गुरुद्वारा के पास था. शानदार तीनमंजिला मकान था कपिल का. घर की छत से बड़ी झील दिखाई देती थी. ऊंचाई से देखने की वजह से कायरा को झील के ऊपर कोहरा होने का भ्रम हो रहा था.
कपिल के पिता ने कायरा से कहा, “तुम रहने का किराया नहीं दोगी, तभी तुम हमारे साथ रह सकती हो.”
कायरा ने कहा, “ठीक है अंकल.”
अमूमन शाम के 7 से साढ़े 7 बजे तक कपिल और कायरा शाखा के काम से फारिग हो जाते थे. उस के बाद अकसर वे बड़ी झील चले जाते थे. कायरा को नाटक देखने का शौक था. वह हर रविवार भारत भवन नाटक देखने जाती थी और कभीकभी जिद कर के अपने साथ कपिल को भी ले जाती थी. कपिल को नाटकों में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन वह बेमन से ही सही, लेकिन कायरा के साथ चला जाता था. हर छुट्टी में वे भोपाल के आसपास के पर्यटन स्थलों में घूमने चले जाते थे. कम समय में वे भोजपुर, सांची, भीम बेटका, पंचमढ़ी, होशंगाबाद आदि घूम चुके थे. कभीकभी तो वे 40 किलोमीटर की दूरी सिर्फ भुट्टे खाने के लिए तय कर लेते थे. सीहोर का भुट्टा भोपाल में काफी फेमस था.
एक दिन कपिल ने कायरा से कहा, “अभिजीत इडली, मेंदुबड़ा, दालबड़ा, सांभर और चटनी बहुत ही स्वादिष्ठ बनाता है.“
कायरा ने पूछा, “कौन है अभिजीत?”
कपिल ने कहा, “अभिजीत शाहपुरा में हर रोज सुबह में एक ठेले पर अपनी दुकान लगाता है. वह पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर का रहने वाला है, लेकिन भोपाल में वह एक लंबे समय से रह रहा है. पहले वह भेल में नौकरी करता था, लेकिन बाद में किसी कारणवश उस की नौकरी छूट गई.”
कपिल ने पुनः कहा, “कितना भी आग्रह करो. वह अपनी रेसेपी किसी के साथ शेयर नहीं करता है.”
अभिजीत की तारीफ सुन कर कायरा से रहा नहीं गया. वह बोली,“इस रविवार को हम अभिजीत के बनाए व्यंजनों का लुत्फ उठाएंगे.”
पहली बार में ही कायरा अभिजीत के व्यंजनों की फैन बन गई. उस के बाद तो हर रविवार को वे नाश्ता करने के लिए अभिजीत के पास जाने लगे. रात में अकसर न्यू मार्केट के कौफीहाउस में वे सिर्फ कौफी पीने के लिए जाते थे. कायरा को शाहजहानाबाद स्थित करीम होटल की चिकनबिरयानी का जायका भी बहुत भाता था.
दोनों खुशगवार माहौल में जीवन व्यतीत कर रहे थे. धीरेधीरे कपिल और कायरा दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे, लेकिन जब दोनों ने अपने घर वालों को अपने प्यार के बारे में बताया और शादी करने की बात कही, तो दोनों के घर वाले इस के लिए तैयार नहीं हुए.
दोनों ने अपने घर वालों को मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी. अंत में दोनों ने भोपाल में कोर्ट मैरिज कर ली.
शादी के बाद दोनों नए भोपाल के शाहपुरा में शिफ्ट हो गए. छोटी झील के सामने उन्होंने एक शानदार विला किराए पर लिया. बालकनी से छोटी झील का शानदार नजारा दिखता था. कायरा रात को बालकनी में घंटों बैठ कर झील को निहारती रहती थी और अवकाश के दिन पास के बृजवासी स्वीट से लड्डू मंगवा कर खाती थी. क्योंकि उसे लड्डू बहुत पसंद थे. लखनऊ में भी वह खूब लड्डू खाती थी, लेकिन यहां के लड्डू ज्यादा स्वादिष्ठ थे.
दिल्ली की आउटररिंग रोड पर भागते आटो में बैठा पदम उतावला हो रहा था, घर कब आएगा? कब सब से मिलूंगा. आटो से बाहर झांका, सुबह का झुटपुटा निखरने लगा था.
एअरपोर्ट से उस का घर 18 किलोमीटर होगा. यहां से उस के घर की दूरी एक घंटे में पूरी हो जाएगी और फिर वह अपने घर पर होगा. पूरे 22 बरस बाद लौटा है पदम. उसे मलकागंज का भैरोंगली चौराहा, घर के पास बना पार्क और उस के पास बरगद का मोटा पेड़ सब याद है. इन सब के सामने वह अचानक खड़ा होगा, कितना रोमांचक होगा. नहीं जानता, वक्त के साथ सबकुछ बदल गया हो. हो सकता है मम्मीपापा, भैया कहीं और शिफ्ट हो गए हों. उस ने 2 दशक से उन की खोजखबर नहीं ली. आंखें बंद कर के वह घर आने का इंतजार करने लगा.
22 बरस पहले की यादों की पोटली खुली और एक ढीठ बच्चा ‘छोटा पदम’ सामने खड़ा हुआ. हाथ में बैटबौल और खेल का मैदान, यही थी उस छोटे पदम की पहचान. कुशाग्रबुद्धि का था पदम. सारा महल्ला उसे ‘मलकागंज का गावस्कर’ के नाम से जानता था.
एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाला यह बच्चा टीचर्स का भी लाड़ला था. किंतु वह अपनी मां को ले कर हैरान था. जहां जाता, मां साथ जाती. 9 बरस के पदम को मम्मी स्कूल के गेट तक छोड़ कर आती और वापसी में उसे वहीं खड़ी मिलती. यहां तक कि पार्क में जितनी देर वह बैटिंग करता, वहीं बैंच पर बैठ कर खेल खत्म होने का इंतजार करती.
मां के इस व्यवहार से वह कई बार खीझ जाता, ‘मम्मी, मैं कोई बच्चा हूं जो खो जाऊंगा? आप हर समय मेरे पीछे घूमती रहती हो. मेरे सारे दोस्त पूरे महल्ले में अकेले घूमते हैं, उन की मांएं तो उन के साथ नहीं आतीं. फिर मेरे साथ यह तुम्हारा पीछेपीछे आना क्यों?’
मम्मी आंखों में आंसू भर कर कहती, ‘बस, कुछ साल बाद तू अकेला ही घूमेगा, मेरी जरूरत नहीं होगी.’
मां की यह बात उस की समझ से परे थी. ‘‘बाबूजी, आप तो दिल्ली निवासी हो?’’ आटो वाले सरदारजी ने उस की सोच पर शब्दकंकरी फेंकी.
उस ने चौंक कर वर्तमान को पकड़ा, ‘‘हां, नहीं, मुझे दिल्ली छोड़े बहुत बरस हो गए.’’
‘‘बाबूजी, आप विदेश में रहते हो?’’
हां, यहां बस किसी से मिलने आया हूं.’’
‘‘अच्छा,’’ कह कर सरदारजी ने आटो की स्पीड बढ़ा दी.
सच ही तो है…वह तो परदेसी बन गया था. याद आया 22 बरस पहले का वह मनहूस दिन. उस दिन क्रिकेट का मैच था. पार्क में सारे बच्चों को इकट्ठा होना था.
पदम को घर में छोड़ कर मम्मी बाजार चली गई थी. बाहर से ताला लगा था. पदम पार्क में जाने के लिए छटपटा रहा था कि तभी उस के दोस्त अनिल ने खिड़की से आवाज दी, ‘यार, तू यहां घर में बैठा है और हम सब तेरा पार्क में इंतजार कर रहे हैं.’
‘कैसे आऊं, मम्मी बाहर से ताला लगा गई हैं.’
‘छत से कूद कर आ जा.’
‘ठीक है.’
पड़ोस की छतों को पार करता पदम पहुंच गया पार्क में. उसे देखते ही सारे दोस्त खुशी से चिल्लाए, ‘आ गया, हमारा गावस्कर, आ गया. अब आएगा मैच का मजा.’
बस, फिर क्या था, जम गया मैदान में. बल्ला घूमा और 30 रन बटोर कर आ गया. आउट हो कर वह बैंच पर आ कर बैठा ही था कि अचानक पता नहीं कहां से एक व्यक्ति उस के पास आ बैठा. उस ने बड़ी आत्मीयता से उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘बेटा, क्रिकेट बहुत बढि़या खेलते हो. लो, इसी खुशी में चौकलेट खाओ. और उस ने हथेली फैला दी. पदम ने चौकलेट उठा कर मुंह में डाल ली. उस के बाद पता नहीं क्या हुआ?
होश आया तो महसूस हुआ कि वह अपनों के बीच नहीं है. जगह और आसपास बैठे लोग सब अनजाने हैं. वह किसी बदबूदार कमरे में गंदी सी जगह पर था. सड़ांध से उस का जी मिचला गया था. कुशाग्रबुद्धि का पदम समझ गया था उसे अगवा कर लिया गया है.
लेकिन क्यों? उस ने सुना था कि पैसे वालों के बच्चों को अगवा किया जाता है. बदले में पैसा मांगा जाता है. सब जानते हैं कि उस के पिता एक साधारण से टीचर हैं. वे भला इन लोगों को पैसा कहां से देंगे? वह भी जानता है कि घर में बमुश्किल रोटीदाल चल पाती है. फिर उसे उठा कर इन लोगों को क्या मिलेगा? उस की समझ से परे था. वह घबरा कर रोने लगा था. 2 गुंडा टाइप मुश्टडों ने उसे घूरा, ‘चौप्प, साला भूखा है, तभी रो रहा है. वहीं बैठा रह.’
‘मुझे पापा के पास जाना है.’
‘खबरदार, जो उस मास्टर का नाम लिया. बैठा रह यहीं पर.’
पदम वहीं बैठा रहा बदबूदार दरी पर. उसे उबकाई आ गई, सारी दरी उलटी से भर गई. सिर भन्ना गया उस का. शाम होतेहोते उसे कहीं और शिफ्ट कर दिया गया. फिर तो हर 10-12 दिनों बाद उसे किसी और जगह भेज दिया जाता.
4 महीने में 10 जगहें बदली गईं. वह अकेला नहीं था, 3 बच्चे और थे उस के साथ. इस बीच न जाने कितनी ही रातें उस ने आंखों में बिताई थीं और कितनी बार वह मम्मीपापा को याद कर के रोया था. यहां उसे अपनों का चेहरा तो दिखा ही नहीं, सारे बेगाने थे.
इंदौर, उदयपुर, जयपुर, शेखावटी न जाने कहांकहां उस को रखा गया. इन शहरों के गांवों में उसे रखा जाता जहां सिर्फ तकलीफ, बेज्जती और नफरत ही मिलती थी जिसे उस का बालमन स्वीकार नहीं करता था. इन सब से वह थक चुका था.
तीव्रबुद्धि का पदम जानता था कि यह भागमभाग, पुलिस से बचने के लिए है. गंदे काम कराए जाते. गलती करने पर लातघूंसे, गाली और उत्पीड़न किया जाता था. रोटी की जगह यही सब मिलता था.
जब टोले वालों को ज्यादा गुस्सा आता तो उसे शौचालय में बंद कर दिया जाता. टोले के मुखिया की उसे सख्त हिदायत थी कि अपना असली नाम व शहर किसी को मत बताना और नाम तो हरगिज नहीं.
टोले वालों ने उस को नया नाम दिया था पम्मी. उदयपुर के गांव में उसे ट्रेनिंग दी गई. चोरी करना, जेब काटना, उठाईगीरी और लोगों को झांसा दे कर उन की कीमती चीजों को साफ करना. ये सब काम करने का उस का मन न करता, किंतु इसे न करने का विकल्प न था.
सुबहसवेरे होटल से लाई पावभाजी खा कर उसे व उस के साथियों को रेलवेस्टेशन भीड़भाड़ वाले बजारों या रेडलाइट पर छोड़ दिया जाता. शाम को टोले का एक आदमी उन्हें इकट्ठा करता और पैदल वापस ले आता.
याद है उसे, एक रोज उस ने अपने एक दोस्त से पूछा, ‘ये हम से गलत काम क्यों कराते हैं?’
‘अबे साले, हिज्जू से और क्या कराएंगे. हम हिजड़ों को यही सब करना पड़ता है.’
‘ये हिज्जूहिजड़ा क्या होता है?’
‘तुझे नहीं पता, हम सब हिजड़े ही तो हैं. तू, मैं, कमल, दीपू सब हिजड़े हैं.’
‘मतलब.’
‘हम सब न लड़का हैं न लड़की, हम तो बीच के हैं.’
वह बच्चा बड़ी देर तक विद्रूप हंसी हंसता रहा था, साथ में गंदे इशारे भी करता रहा था.
पदम को आज भी याद है, ये सब देख कर उसे भरी सर्दी में पसीना आ गया था. तनबदन में आग सी लग गई थी. यह क्या है? ऐसा क्यों हो रहा है? जिन लोगों के बीच वह पल रहा है वह हिजड़ों की मंडली है?
कुशाग्रबुद्धि के पदम को काफीकुछ समझ में आ गया था. समझ गया था कि वह ऐसे चक्रवात में फंस गया है जहां से निकलना आसान नहीं है. उस रात उसे बड़े डरावने सपने आते रहे. अब तक तो आंखें बंद करता था तो मम्मी, पापा, राम भैया और मुन्ना अंकल सपनों में रहते थे पर उस दिन के बाद उसे डरावने सपने ही आते. वह चौंक कर आंखें खोल देता था.
बस, इस सब के साथ एक आस थी, हो सकता है पापा या भैया उसे ढूंढ़ते हुए कहीं स्टेशन या शहर की रेडलाइट पर मिल जाएं. पर ऐसा कभी नहीं हुआ. वह यह सब सहतेसहते पत्थर हो गया था. दुख, घुटन, बेजारी, गाली, तिरस्कार, उस के जीवन के पर्याय हो गए थे. कई बार दुख की पराकाष्ठा होती तो जी करता रेल की पटरी पर लेट कर अपने जीवन का अंत कर ले. दूसरे ही पल सोचता, नहीं, मेरा जीवन इतना सस्ता नहीं है.
वह 12 बरस का हो गया था. अब उसे अपने शरीर में कसाव और बेचैनी महसूस होती थी. लेकिन कौन उसे बताता कि यह सब उस के साथ क्यों हो रहा है? खुले आसमान के नीचे बैठ कर अपनी बेनामी मजबूरी पर उसे आंसू बहाना अच्छा नहीं लगता था.
वहां उस का अपना कोई भी तो न था जिस के साथ वह सब साझा करता.
लेदे कर बड़ी बूआ (केयरटेकर) थी. उस के आगे वह अकसर दिल खोलता था तो वह समझती, ‘बेटा यह नरक है, यहां सब चलतेफिरते मुरदे हैं. नरक ऐसा ही होता है. इस नरक में कोई नहीं, जिस से तू अपना दर्द बांट सके. मैं तेरी छटपटाहट को समझती हूं. तू यहां से निकलभागने को बेताब है. पर ध्यान रहे टोले वाले बड़े निर्दयी होते हैं. पकड़ा गया तो हाथपैर काट कर सड़क पर छोड़ देंगे भीख मांगने को. तब तेरी हालत बद से बदतर हो जाएगी.’
उस दिन सुबह से ही आसमान पर बादल छाए हुए थे और सदा की भांति मुझे उदास कर गए थे, न जाने क्यों ये बादल मेरे मन के अंधेरों को और भी अधिक गहन कर देते हैं और तब आरंभ हो जाता है मेरे भीतर का द्वंद्व. इस अंतर्द्वंद्व में मैं कभी विजयी हुआ हूं तो कभी बुरी तरह पराजित भी हुआ हूं.
मैं आत्मविश्लेषण करते हुए कभी तो स्वयं को दोषी पाता हूं तो कभी बिलकुल निर्दोष. सोचता हूं, दुनिया में और भी तो लोग हैं. सब के सब बड़े संतुष्ट प्रतीत होते हैं या फिर यह मेरा भ्रम मात्र है अर्थात सब मेरी ही तरह सुखी होने का ढोंग रचाते होंगे. खैर, जो भी हो, मैं उस दिन उदास था. उस उदासी के दौर में मुझे अपनी ममताभरी मां बहुत याद आईं.
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में मेरे घर में सभी सुखसुविधाएं मौजूद थीं. पिता अच्छे पद पर कार्यरत थे. मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान था. न जाने क्यों, कब और कैसे विदेश देखने तथा वहीं बसने की इच्छा मन में उत्पन्न हो गई. मित्रों के मुख से जब कभी अमेरिका, इंगलैंड में बसे हुए उन के संबंधियों के बारे में सुनता तो मेरी यह इच्छा प्रबल हो उठती थी. मां तो कभी भी नहीं चाहती थीं कि मैं विदेश जाऊं क्योंकि लेदे कर उन का एकमात्र चिराग मैं ही तो था.
एक दिन कालेज में मेरे साथ बी.एससी. में पढ़ने वाले मित्र सुरेश ने मुझे बताया कि उस के इंगलैंड में बसे हुए मौसाजी का पत्र आया है. वे अपनी एकमात्र पुत्री सुकेशनी के लिए भारत के किसी पढ़ेलिखे लड़के को इंगलैंड बुलाना चाहते हैं. वहां और मित्र भी बैठे हुए थे. मैं ने बात ही बात में पूछ लिया, ‘‘सुरेश, तुम्हारी बहन सुकेशनी है कैसी?’’
सुनते ही सुरेश ठहाका लगाते हुए बोला, ‘‘क्यों, तू शादी करेगा उस से?’’
उस का यह कहना था कि सभी मित्र खिलखिला कर हंस पड़े. मैं झेंप कर पुस्तकालय की ओर बढ़ गया. उन सब के ठहाके वहां तक भी मेरा पीछा करते रहे.
उस के कुछ दिन पश्चात मैं किसी आवश्यक काम से सुरेश के घर गया हुआ था. उस के मातापिता भी घर पर थे. हम सभी ने एकसाथ चाय पी. तभी सुरेश के पिता ने पूछा, ‘‘विशेष, तुम बी.एससी. के बाद क्या करोगे?’’
‘‘जी, चाचाजी, मैं एम.एससी. में प्रवेश लूंगा. मेरे मातापिता भी यही चाहते हैं.’’
तभी सुरेश की मां ने मुसकराते हुए पूछ लिया, ‘‘सुरेश कह रहा था कि तुम विदेश जाने के बड़े इच्छुक हो. अपनी बहन की लड़की के लिए हमें अच्छा पढ़ालिखा लड़का चाहिए. तुम्हें व तुम्हारे परिवार को हम लोग भलीभांति जानते हैं, कहो तो तुम्हारे लिए बात चलाएं?’’
मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘जी, आप मेरे मातापिता से बात कर लें,’’ मैं उन्हें नमस्ते कह कर बाहर निकल गया
अगले रविवार को सुरेश के माता- पिता हमारे घर आए. मैं ने मां को पहले ही सब बता दिया था. मां तो वैसे भी मेरी इस इच्छा को मेरा पागलपन ही समझती थीं लेकिन इस रिश्ते की बात सुन कर वे बौखला सी गईं जबकि पिताजी तटस्थ थे. न जाने क्यों? यह मुझे ज्ञात नहीं था. परंतु मां पर तो मानो वज्र ही गिर पड़ा. हम सभी ने एकसाथ नाश्ता किया. उन लोगों ने अपना प्रस्ताव रख दिया था.
सुन कर मां बोलीं, ‘‘बहनजी, एक ही तो बेटा है हमारा, वह भी हम से दूर चला जाएगा तो यह हम कैसे सह पाएंगे?’’
सुरेश की मां बोलीं, ‘‘बहनजी, सहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. भाई साहब की अवकाशप्राप्ति के पश्चात आप लोग भी वहीं बस जाइएगा.’’
मैं ने पिताजी के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुसकराहट सहज ही देख ली थी. वे बोले, ‘‘बहनजी, आप हमारी चिंता छोड़ दीजिए. आप बात चलाइए, मैं विशेष की एक फोटो आप को दे रहा हूं.’’
फोटो की बात चलने पर सुरेश की मां ने भी सुकेशनी की एक रंगीन फोटो हमारे सामने रख दी. लड़की बहुत सुंदर तो नहीं थी पर ऐसी अनाकर्षक भी नहीं थी. फिर मैं ने भला कब अपने लिए अद्वितीय सुंदरी की कामना की थी. मेरे लिए तो यह साधारण सी लड़की ही विश्वसुंदरी से कम न थी क्योंकि इसी की बदौलत तो मेरी वर्षों से सहेजी मनोकामना पूर्ण होने जा रही थी.
बात चलाई गई और सुरेश के मौसामौसी अपनी पुत्री सहित एक माह के उपरांत ही भारत आ गए. मुझे तो उन लोगों ने फोटो देख कर ही पसंद कर लिया था.
बड़ी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. सुकेशनी फोटो की अपेक्षा कुछ अच्छी थी, पर रिश्तेदार दबी जबान से कहते सुने गए कि राजकुमार जैसा सुंदर लड़का अपने जोड़ की पत्नी न पा सका.
पिताजी ने मेरा पारपत्र दौड़धूप कर के बनवा लिया था व वीजा के लिए प्रयत्न सुकेशनी के पिता अर्थात मेरे ससुर कर रहे थे. चूंकि सुकेशनी इंगलैंड में ही जन्मी थी, अत: वीजा मिलने में भी अधिक परेशानी नहीं हुई. शादी के 1 माह पश्चात ही मुझे सदा के लिए अपनी पत्नी के घर जाने हेतु विदा हो जाना था. लोग तो बेटी की विदाई पर आंसू बहाए जा रहे थे. मां बराबर रोए जा रही थीं परंतु अपनी जननी के आंसू भी मुझे विचलित न कर सके. निश्चित दिन मैं भारत से इंगलैंड के लिए रवाना हुआ.
हवाई जहाज में मेरे समीप बैठी मेरी पत्नी शरमाईसकुचाई ही रही परंतु जब हम लंदन स्थित अपने घर पहुंचे तो सुकेशनी ने साड़ी ऐसे उतार फेंकी, जैसे लोग केले का छिलका फेंकते हैं. मैं क्षण भर के लिए हतप्रभ रह गया. उस ने चिपकी हुई जींस व बिना बांहों वाला ब्लाउज पहना तो ऐसा लगा कि अब वह अपने वास्तविक रूप में वापस आई है, मानो अभी तक तो वह अभिनय ही कर रही थी. एक क्षण के लिए मेरे मन के अंदर यह विचार कौंध गया कि कहीं इस ने शादी को भी अभिनय ही तो नहीं समझ लिया है. पर बाद में लगा कि 22 वर्षीय युवती शादी को मजाक तो कदापि न समझेगी.
कान्वेंट स्कूल में आरंभ से ही पढ़े होने के कारण भाषा की समस्या तो मेरे लिए बिलकुल ही न थी. भारत में अटकअटक कर हिंदी बोलने वाली सुकेशनी, जिसे मैं प्यार से सुकू कहने लगा था, केवल अंगरेजी ही बोलती थी. यहां पर आधुनिक सुखसुविधाओं से संपन्न घर मुझे कुछ दिनों तक तो असीम सुख का एहसास दिलाता रहा. सुकु जब फर्राटेदार अंगरेजी बोलती हुई मेरे कंधों पर हाथ मारते हुए बेशरमी से हंसती तो मेरे सासससुर मानो निहाल हो जाते. परंतु मैं आखिरकार था तो भारतीय सभ्यता व संस्कृति की मिट्टी में ही उपजा पौधा, इसलिए मुझे यह सब बड़ा अजीब सा लगता था, पर विदेश में बसने की इच्छा के समक्ष मैं ने इन बातों को अधिक महत्त्व देना उचित न समझा.
आज रमण प्रसाद का मन खिन्न था. वे जब सुबह उठे तब तो मन अच्छाभला था. बहू ने चाय भी अच्छी ही बनाई थी. अखबार में भी कोई बुरी दिल दहला देने वाली खबर न थी. नहाधो कर भी समय पर तैयार हो गए थे लेकिन फिर जब बहू ने कुश को स्कूल आनेजाने के लिए स्कूल वैन लगवा लेने की बात छेड़ी तो उन का मन खिन्न हो गया.
सुबह रमण प्रसाद का नित्यक्रम था अपने 7 वर्षीय पोते को एक्टिवा पर बैठा कर स्कूल छोड़ आने और फिर दोपहर होने तक वापस ले आने का. सुबह साथसाथ पार्क पर जाने का नित्यक्रम तो 2 साल पहले जीवनसंगिनी रमा के गुजर जाने के बाद से ही बंद हो गया था. उन का बेटा शेखर भी अकसर औफिस के काम से दौरे पर घर से बाहर रहता और घर पर होने पर भी उन से कम ही बात करता था. घर में अकेले उदास से बैठ हुए ससुरजी के चेहरे पर खुशी की दो लकीरें चितरने के उद्देश्य से बहू ने ही अपने बेटे कुश को स्कूल छोड़ आने और ले आने की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी. रमण प्रसाद का उदास मन पोते के साथ फिर से चहकने लगा. पिछले कई महीनों से एक्टिवा पर पोते को ले जाते हुए कभी भी छोटा सा भी एक्सिडैंट न हुआ पर कल स्कूल से आते हुए न जाने कैसे सामने से आती कार के नजदीक से निकलते हुए हाथ कांपा पर गिरतेगिरते बच गए. बातूनी पोते ने जब यह बात घर पर बताई तो आज बहू का फरमान आ गया.
“बहू, कुश के पीछे मेरा मन भी लगा रहता है. कल वाली घटना तो बस एक हादसा थी. तूने देखा न, मैं ने अपने पोते को खरोंच तक नहीं आने दी,” रमण प्रसाद ने अपने मन की बात की.
“पिताजी, आप की उम्र हो चली है. अब आप का इस तरह छोटे बच्चे को बैठा कर टूव्हीलर चलाना ठीक नहीं है. दुर्घटना कह कर थोड़े आती है.”
“अरे, अभी 64 ही तो पूरे हुए है. उम्र तो तब होती है जब बिस्तर से उठा ही न जाए. अच्छाभला, चलताफिरता हूं. तुम नाहक ही चिंता कर रही हो. कुछ नहीं होगा मेरे कुश को. इसे मैं ही स्कूल छोडऩे और लेने जाया करूंगा,” रमण प्रसाद ने बहू को विश्वास दिलाते हुए कहा.
“नहीं पिताजी, मेरा मन नहीं मानता. आप टूव्हीलर ले कर जाएंगे तो आप के न लौटने तक मेरा मन उस ओर ही लगा रहेगा. बेहतर यही होगा कि कुश स्कूलवैन से जाए. बात हो गई है. सोमवार से वह स्कूलवैन में ही जाएगा. आज आप छोड़ आइए. कल तो वैसे भी रविवार की छुट्टी है.”
बहू की बात सुन कर उदास मन से रमण प्रसाद ने चाबी फ्रिज के ऊपर से उठाई और बुझे मन से कुश को ले कर घर से बाहर निकल गए.
स्कूल प्रांगण के बाहर कुश को छोड़ कर रमण प्रसाद पास ही बने सार्वजनिक बगीचे के पास आ गए और टूव्हीलर वहीं नजदीक में पार्क कर बगीचे के गेट के पास खड़े हो गए. अपनी कलाई में बंधी घड़ी पर उन्होंने नजर डाली. पूरे 8 बज चुके थे. उन्होंने बगीचे के अंदर दूर तक नजर दौड़ाई. जौगिंग करने वालों के बीच उन्हें वह आज कहीं नजर न आ रही थी. उसे आज वहां न पा कर उन के चेहरे पर उदासी घिर आई. तभी पीछे से आ कर किसी ने हलके से उन की पीठ पर एक धौल जमाई. उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा.
“क्यों प्रसाद, इस उम्र में किस पर नजर बिगाड़ रहे थे.” सामने वह खड़ी थी जिसे रमण प्रसाद की नजरें खोज रही थीं. आज वह गुलाबी रंग की सलवारकमीज पहने हुए थी. उस पर उस ने कंधे पर काले रंग का दुपट्टा डाले हुए था. उसे देख कर रमण प्रसाद की आंखों में फिर चमक आ गई.
“अब इस उम्र में नजरें उतनी तेज कहां रहीं जो तुम्हारे अलावा किसी और पर नजर बिगाडूँ,” रमण प्रसाद ने उस के ही अंदाज में उसे जवाब दिया.
“ओह हो, जवानी के दिनों में तो भीगी बिल्ली बन कर रहते थे. बुढ़ापे में शेर कब से बनने लगे,” उस ने मुसकराते हुए रमण प्रसाद को चिढ़ाते कहा.
“छोड़ो वे सब बीती हुई बातें. आज तुम जौगिंग करने नहीं गईं. इधर कहां से आ रही हो?” रमण प्रसाद ने बात का रुख पलटते हुए कहा.
“बस, ऐसे ही मन न किया. पर फिर सोचा, तुम मेरा इंतजार करते बेवजह खड़े रहोगे, तो चली आई इस ओर तुम से मिलने. चलो, वहां गुमटी पर जा कर चाय पीते हैं.”
“हां, चलो, फिर पता नहीं अब कब मिलना हो,” उस की बात का जवाब देते हुए रमण प्रसाद ने साथ चलते हुए ठंडी आह भर कर कहा.
“क्यों, क्या हुआ? घर में बहू ने कुछ कह दिया क्या?” उस ने पूछा.
“नहीं, कुछ खास नहीं. पर अब से कुश स्कूलवैन में आयाजाया करेगा तो मेरा इस ओर आना लगभग बंद सा ही हो जाएगा,” रमण प्रसाद ने जवाब दिया.
“ओह,” उस ने अफसोस व्यक्त किया. फिर चाय की गुमटी तक पहुंचने तक दोनों के बीच चुप्पी छाई रही.
“वाक करने के बहाने तो कभीकभी इस ओर निकल सकते हो न तुम? वैसे भी कोई ज्यादा दूर तो है नहीं तुम्हारा घर यहां से?” उस ने गुमटी के पास लगी बैंच पर उन के साथ बैठते हुए पूछा.
“सुनंदा, मेरी फिटनैस तुम्हारी तरह नहीं है जो घर से दूर 4 किलोमीटर चल कर आ सकूं. तुम ठहरी पहले से ही खेलकूद वाली, सो, इस उम्र में आ कर भी तंदुरुस्त हो,” रमण प्रसाद ने चाय का कप अपने हाथ में लेते हुए उस की बात का जवाब दिया.
“मैं कहां तुम्हें चल कर आने को कह रही हूं. अपना टूव्हीलर ले कर आना न,” सुनंदा ने चाय का एक घूंट गले से नीचे उतारा.
“उसी की तो सब रामायण है. कल कुश को स्कूल से ले जाते वक्त थोड़ा सा बैलेंस बिगड़ गया था. हुआ कुछ न पर कुश ने सारी बात बहू और बेटे से कह दी. बस, तब से टूव्हीलर न चलाने का फरमान आ गया,” रमण प्रसाद ने चाय का खाली कप एक तरफ रखते हुए कहा, “अब इस उम्र में मुझ से कार खरीद कर चलाना सीखना न हो पाएगा. बेटे ने तो होंडा सिटी खरीद रखी है पर वह मैं ने कभी नहीं चलाई,’’ रमण प्रसाद ने कहा.
वह सुनीता ही थी पक्का. उस ने एक बार फिर देखा. हालांकि बीच बाजार में किसी महिला को यों घूरघूर कर देखना अशोभनीय लग रहा था. वैसे भी कानपुर का बाजार तो रौनक से भरपूर ही रहता है, दिन से ले कर देर रात तक यहां रौनक बनी रहती है. उस के परिचित भी तो बहुत हैं यहां… कोई देखेगा तो क्या सोचेगा… अभी तो वह नमाज पढ़ कर निकला है और यों बाजार में खड़े हो कर वह एक हिंदू औरत को घूरघूर कर देख रहा है. पर यदि वह देखेगा नहीं तो कैसे पहचान पाएगा कि वह सुनीता ही है. उसे यह पक्का कर लेना जरूरी था कि वह सुनीता है कि नहीं.
उस की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी इसलिए उस ने सारा कुछ अनदेखा करते हुए सुनीता को घूरना शुरू कर दिया था. सुनीता अनजान थी उस के घूरने से. वह बेफिक्र हो कर दुकान से सामान खरीद रही थी.
‘‘देखो, वह मोलभाव कर रही है. पक्का सुनीता ही होगी, वह ही तो ऐसा करती थी. 2 रुपए का सामान भी खरीदो तो उस का भी मोलभाव करती थी, ‘‘2 रुपए में इतना मंहगा… एक रुपए में दो.’’
दुकान वाला उसे अवाक सा देखते हुए बोला, ‘‘ले लो मैडम. जितने पैसे देने हों दे देना और न देना हो तो मत देना…’’
वह दूसरे ग्राहकों को सामान देने लगता है.
‘‘अरे, ऐसे कैसे… कोई फ्री में ले जाएंगे क्या… समझ क्या रखा है मुझे…’’ सुुनीता गुस्से से तुनक कर बोली.
‘‘2 रुपए की चीज में झंझट कर रही होे मैडम… आप तो ऐसे ही ले जाओ…’’ दुकानदार झुंझला पड़ता है.
यदि मैं सुनीता के साथ होता तो उसे चुप करा देता, ‘‘क्या यार, एक रुपए के लिए बीच बाजार में बखेड़ा कर रही हो… मैं दे देता हूं…’’
वह चुप तो हो जाती, पर उस के चेहरे पर गुस्सा साफ दिखाई देता रहता. पर यह तो बहुत पुरानी बात है, जब हम कालेज में साथ पढ़ते थे. हो सकता है कि अब वह बदल गई हो. उस ने फिर एक बार उस महिला की ओर देखा, जिसे वह सुनीता समझ रहा था. चेहरे पर झुर्रियां तो नहीं थीं, पर बुजुर्ग हो जाने की स्थिति स्पष्ट दिखाई दे रही थी. सफेद साड़ी पहने थी और बालों का जूड़ा बनाए हुए थी. बालों से भी सफेदी झांक रही थी.
पहले सुनीता के बाल इतने लंबे होते थे कि वे कमर तक लटक जाया करते थे. दूर से ऐसे लगते, मानो उस ने किसी सांप को ही अपने बालों में बांध कर रखा हो और वह उस की पीठ पर लहरा रहा हो. पर जब वह अपने बालों को यों ही खुला छोड़ देती तो बाल बिखर कर सारी पीठ को ढक लेते.
वह अकसर पिंक कलर का सूट पहनती थी, जो उस पर खूब फबता था. गोरी तो थी ही दूध जैसी सफेदी और सम्मोहन वाला चेहरा. जो भी उसे देखता बस देखता ही रह जाता. वैसे, वह बहुत शालीन थी. किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती थी और हमेशा नजरें झुकाए ही चलती थी. पर अब शायद बुजर्ग हो गई है वह, पर उस के सम्मोहन में कोई फर्क नहीं पड़ा है.
चेहरे का गोरापन तो आज भी वैसा ही है, पक्का यह सुनीता ही है. रहीम को यकीन होता जा रहा था कि सामने वाली महिला सुनीता ही है, पर फिर भी वह उसे देखने में हिचकिचाहट महसूस कर रहा था.
‘‘कहां बीच में खड़े हो दद्दा…’’ किसी ने उस से ही बोला था. दद्दा… हां, वह भी तो बूढ़ा हो गया है. बालों को काला करा लेने के बाद भी बुजुर्गियत कहां छिपती है. उस के चेहरे पर भी झांइयां दिखाई देने लगी हैं.
सुनीता उसे ऐसे देखेगी तो क्या समझेगी. उस के चेहरे पर उदासी छा गई. वह कितना हैंडसम दिखता था. लंबी कदकाठी, घुंघराले बाल और गोरा चेहरा, आंखों पर चश्मा.
‘‘वाह क्या बात है जितेंद्र कुमार…’’ सुनीता उसे उस समय जरूर टोकती, जब वह सफेद कपड़े पहने होता. कहां ‘‘धाक धिना, धिन करने जा रहे हो…’’ उस के चेहरे पर झेड़ने वाली मुसकान होती. वह शरमा जाता. सुनीता खिलखिला कर हंस पड़ती.
उसे अच्छे से बनठन कर रहने का शौक था. धुलेधुलाए प्रैस किए हुए कपड़े पहनता और क्रीम लगा कर ही घर से बाहर निकलता था. उस की पर्सनैलटी थी भी आकर्षित करने वाली. पर, सुनीता कहां आकर्षित हुई थी. उसे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी उस के लिए.
कालेज में दोनों साथ पढ़ते थे. वैसे तो वह सुनीता को पहले से भी जानता था. वह कन्या नवीन में पढ़ती थी. कानपुर शहर तो बहुत बड़ा शहर था और वह रहता था मुसलिम आबादी वाले क्षेत्र में, पर सुनीता रहती थी उत्तरी कानपुर में. पर, वे छोटे थे तो उन के सामने जातपांत की कोई दीवार नहीं थी और न ही संप्रदाय का अवरोध. वे तो यह जानते ही नहीं थे कि जाति अलग होने से दोस्ती अलग कैसे हो सकती है. बचपना था तो एकदूसरे से मिल लेने में कोई समस्या भी नहीं आई.
समस्या तो और बड़ा हो जाने के बाद ही आई. 11वीं की परीक्षा बोर्ड परीक्षा होती थी. सौभाग्य से वह मेरे ही कमरे में परीक्षा दे रही थी.
‘‘कैसा रहा पेपर…’’ औपचारिकता में पूछ लिया.
‘‘ठीक रहा… थैंक्यू…’’ उस ने इस से ज्यादा बात नहीं की थी.
शहर मे कालेज एक ही था, तो हम दोनों एक ही क्लास के स्टूडैंट बन गए. पहले दिन उस ने सरसरी निगाह से देखा और बगैर कुछ कहे चली गई. मैं समझ गया था कि ये नखरे वाली लड़की है. इस से दोस्ती बनाने का कोई मतलब नहीं है. मैं ने भी उसे अनदेखा करना शुरू कर दिया. हम दोनों एक ही क्लास में होने के बाद भी अपरिचित से रहे आते.
शकीना से मेरी अच्छी दोस्ती थी. शकीना का स्वभाव हंसमुख और मिलनसार था. वह सभी से अच्छे से बात करती और हंसती रहती. सुनीता और शकीना 8वीं से साथ पढ़ रहे थे, इसलिए उन की भी गहरी दोस्ती थी. मैं जब भी शकीना से बात कर रहा होता तो सुनीता चुपचाप खड़ी रहती.
‘‘क्या यार शकीना… कम से कम अपनी सहेली को इतना ज्ञान तो सिखाओ कि वह दूसरों का भी मान रखे… वैसे भी नखरे वाले इनसान हमेशा एकाकी ही रहे आते हैं.’’
सुनीता समझ गई थी कि यह उस के लिए ही बोला गया है, पर उस ने कोई जवाब नहीं दिया.
‘‘शकीना, तुम इन लोगों से बातें करो, मैं क्लास में जाती हूं,’’ कहते हुए वह चली गई. मुझ वाकई अच्छा नहीं लगा. शकीना को भी अच्छा नहीं लगा.
शकीना के घर उस के जन्मदिन की पार्टी थी. पार्टी बहुत बड़ी नहीं थी. कुछ थोड़ेबहुत मित्र और घर के लोग शामिल थे. सुनीता भी आई हुई थी. वह पिंक कलर का सूट पहने थी और बालों का ढीला सा जूड़ा बनाए हुए थी. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. मैं ने उसे एक नजर देखा और फिर अपनी नजरें नहीं हटा पाया.
आज फिर अलमारी खोलते ही पूर्णिमा की नजर जब बनारसी साड़ी पर पड़ी तो वह उदास हो उठी. साड़ी को हाथ में उठा कर उसे सहलाते हुए वह सोचने लगी कि आज भी इस की सुंदरता में कोई फर्क नहीं पड़ा है और इस का रंग तो आज भी वैसे ही चटक है जैसे सालों पहले था.
याद है उसे, अपने ‘बहू भात’ रिसैप्शन पर जब उस ने यह साड़ी पहनी थी तब जाने कितनों की नजरें इस बनारसी साड़ी पर अटक गई थीं. अटकें भी क्यों न, यह बनारसी साड़ी थी ही इतनी खूबसूरत. केवल खास अवसरों पर ही पूर्णिमा इस बनारसी साड़ी को पहनती और फिर तुरंत उसे ड्रायवाश करवा कर अलमारी में रख दिया करती थी. अपनी शादी की सालगिरह पर भी जब वह इस बनारसी साड़ी को पहनती तो रजत, उस के पति, उसे अपलक देखते रह जाते थे, जैसे वह आज भी कोई नईनवेली दुलहन हो. लालहरे रंग की इस बनारसी साड़ी में पूर्णिमा का गोरा रंग और दमक उठता था.
‘‘मम्मा, पापा कब से आप को आवाज दे रहे हैं,’’ पीछे से जब अलीमा बोली तो पूर्णिमा ने वह बनारसी साड़ी ?ाट से अलमारी के एक कोने में लगभग ठूंस दी और कुछ यों ही ढूंढ़ने का नाटक करने लगी. ‘‘आप अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही हो, मम्मा?’’ अलीमा ने पूछा तो पूर्णिमा बोली कि नहीं तो, कुछ भी तो नहीं. लेकिन उसे लगा कि पूर्णिमा हाथ में कुछ पकड़े अपनेआप में बुदबुदा रही थी और जैसे ही उस की आवाज सुनाई पड़ी, ?ाट से उस ने वह चीज अलमारी में रख दी. लेकिन पता नहीं वह ?ाठ क्यों बोल रही है कि अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही थी पर मिल नहीं रहा है. ‘‘आप बताओ, मैं ढूंढ़ देती हूं न,’’ अलीमा बोली तो अलमारी बंद कर पूर्णिमा कहने लगी कि नहींनहीं, कुछ खास जरूरी नहीं था. तुम रहने दो. ‘‘ठीक है मम्मा, लेकिन वो पापा आप को बुला रहे हैं, जल्दी आ जाओ.’’
‘‘हांहां, मैं आती हूं, तुम जाओ,’’ बोल कर पूर्णिमा ने फिर एक बार अलमारी खोल कर उस चीज को देखा और भरे मन से अलमारी बंद कर दी. ‘‘बोलो, कुछ कहना चाह रहे थे तुम?’’ सोफे पर रजत के बगल में बैठती हुई पूर्णिमा बोली तो रजत कहने लगा कि उन की शादी की 25वीं सालगिरह पर अमेरिका से पल्लवी दीदी अपने पति के साथ आ रही हैं तो सोच रहा हूं कि ऊपर का कमरा ठीकठाक करवा कर पूरे घर को पेंट करवा दिया जाए. थोड़ा अच्छा लगेगा.
‘‘अरे, तो मु?ा से क्यों पूछ रहे हो. जो करना है, करो न,’’ जरा ?ां?ालाती हुई पूर्णिमा बोली, ‘‘ऐसे लगता है कि हर काम तुम मु?ा से पूछ कर ही करते हो.’’ अलीमा ने महसूस किया कि जब से वह अपने कमरे से बाहर आई है, थोड़ा बेचैन नजर आ रही है. कारण क्या है, नहीं पता उसे पर जानना चाहती थी.
‘‘अरे, पूछ इसलिए रहा हूं कि तुम कहो तो…’’ आधी बात बोल कर रजत चुप हो गए. फिर बोले, ‘‘अच्छा, आलोक को वौक पर से आ जाने दो, फिर बात करते हैं. यह लो, आलोक भी आ ही गया. मैं कह रहा था कि ऊपर का कमरा ठीकठाक करवा कर पूरे घर में पेंट करवा दिया जाए तो कैसा रहेगा? दीवाली भी आ रही है. हां, थोड़ा खर्चा तो आएगा लेकिन घर की लाइफ बढ़ जाएगी. बोलो, तुम क्या कहते हो?’’ बेटे आलोक की तरह मुखातिब हो कर रजत बोले तो वह कहने लगा कि यह तो बहुत ही अच्छा आइडिया है.
‘‘तो फिर ठीक है, मैं बात कर लेता हूं,’’ पूर्णिमा की तरफ देखते हुए रजत बोले और फिर उठ कर औफिस जाने के लिए तैयार होने लगे.
पूर्णिमा ने उन की बातों पर ‘हां, न’ कुछ भी नहीं कहा और वह भी उठ कर किचन में चली आई. किचन में भले ही वह अलीमा का हाथ बंटा रही थी पर उस का दिलदिमाग अब भी उसी साड़ी पर अटक हुआ था कि काश, काश वैसा न हुआ होता तो कितना अच्छा होता. पूर्णिमा को गुमसुम, उदास देख कर अलीमा ने कई बार हिम्मत जुटाई पूछने की कि क्या बात है? क्यों वह इतनी चुपचुप है. लेकिन पूछ न पाई.
खैर, खापी कर आलोक और रजत दोनों औफिस के लिए निकल गए और कुछ देर बाद अलीमा भी यह कह कर अपने औफिस के लिए निकल गई कि आज वह जल्दी घर आ जाएगी. कहीं न कहीं उसे पूर्णिमा की उदासी बेचैन कर रही थी. सम?ा नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें हुआ क्या है? भले ही रजत और आलोक ने मार्क न किया हो पर अलीमा इंसान का चेहरा अच्छे से पढ़ना जानती है. अपनी सोच में डूबी अलीमा औफिस तो पहुंच गई लेकिन इधर सब के औफिस जाने के बाद पूर्णिमा अपने कमरे में आ कर सिसकसिसक कर रोने लगी.
दरअसल, आज ही के दिन पूर्णिमा की मां का देहांत हुआ था और यह बनारसी साड़ी उस की मां की आखिरी निशानी थी उस के पास. वह इस दुख से मरी जा रही है कि अपनी मां की आखिरी निशानी भी वह संभाल कर रख नहीं पाई ठीक से. उस ने तो मना किया था पर रजत ने ही जिद कर के उसे दीवाली पर वह बनारसी साड़ी पहनने को मजबूर कर दिया था कि वह इस साड़ी में बहुत ही सुंदर लगती है.
रजत का मन रखने के लिए जब वह उस साड़ी को पहन कर छत पर दीवाली मनाने गई तो जलती हुई एक फूलचकरी उस के आंचल में लग गई और देखते ही देखते उस का आंचल जलने लगा. वह तो रजत ने देख लिया वरना उस साड़ी के साथ पूर्णिमा भी जल कर खाक हो जाती उस दिन.
दोष तो इस में किसी का भी नहीं था. एक होनी थी जो हो गई. लेकिन पूर्णिमा आज भी उस बात के लिए रजत को ही दोषी मानती है कि उस की ही जिद के कारण उस की मां की आखिरी निशानी आग में जल गई. पहन तो नहीं सकती अब वह उस साड़ी को पर उस की मां की आखिरी निशानी है, इसलिए संभाल कर अलमारी में रख दिया. लेकिन जब कभी भी उस की नजर उस साड़ी पर पड़ती है तो दिल में मां की याद हुक मारने लगती है.
पूर्णिमा की मां ने अपनी एकलौती बेटी की शादी को ले कर हजारों सपने देख रखे थे. बचपन से ही वह उस के लिए गहनेकपड़े जोड़जोड़ कर रखती आई थी. रजत से जब उस की शादी तय हुई तो कितना रोई थी वह यह सोच कर की नाजों से पली गुडि़या बेटी अब पराई हो जाएगी. फिर कैसे जिएगी वह उस के बिना. लेकिन फिर उस ने खुद को ही सम?ाया था कि बेटियां पराई थोड़े ही होती हैं, बल्कि शादी के बाद तो वे और अपने मांबाप के करीब आ जाती हैं और फिर कौन सा उस की ससुराल बहुत दूर है. जब मन होगा, चले जाएंगे मिलने. बिटिया भी आती ही रहेगी.
सगाई के एक महीने बाद ही शादी की डेट थी. शादी की लगभग सारी तैयारियां हो चुकी थीं. लेकिन यहां होनी को कुछ और ही मंजूर था. पूर्णिमा की शादी की खरीदारी कर के जब उस के मांबाबूजी वापस घर लौट रहे थे तब एक ट्रक के टक्कर से उन की गाड़ी खाई में जा गिरी, जिस से पूर्णिमा की मां की मौके पर ही मौत हो गई. मगर उस के बाबूजी बच गए थे.
चूंकि शादी की सारी तैयारियां हो चुकी थीं, इसलिए सब के विचारविमर्श से यह तय हुआ कि पूर्णिमा की शादी हो जानी चाहिए, क्योंकि लड़के वाले शायद न रुकें और अगर उन्होंने अपने बेटे का रिश्ता कहीं और तय कर लिया तो फिर क्या करेंगे हम? दिल पर पत्थर रख कर पूर्णिमा के बाबूजी ने कलपते हृदय से बेटी को विदा किया था.
सुबह का समय था. चारु जल्दीजल्दी अपना काम समेट रही थी. उसे आज एक नई जगह नौकरी जौइन करनी थी. इस कारण उस के मन में थोड़ी घबराहट थी. उस ने कई बार अपनेआप को शीशे में देखा. दुबली, पतली, लंबे कद की स्वामिनी चारु बड़ी स्मार्ट लग रही थी। आंखों पर काला चश्मा, सिर पर स्कार्फ और बैग लटका कर वह घर से निकल पड़ी. कुछ ही देर में वह वक्त से पहले औफिस पहुंच गई थी. वह सीधे बौस के केबिन में गई। बौस भी आज जल्दी औफिस आ कर उस का इंतजार कर रहे थे।
चारु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ उन से हाथ मिलाया और अपना परिचय दिया,”सर, मैं चारु कुमार। इस कंपनी की नई मैनेजर.”
“मैं आप का ही इंतजार कर रहा था. मुझे अपनी कंपनी के लिए आप जैसी होनहार और काम के प्रति समर्पित मैनेजर की जरूरत थी.”
“थैंक यू सर. मैं पूरी कोशिश करूंगी कि आप की अपेक्षाओं पर खरी उतरूं. आप ने मेरा बायोडाटा और वर्क ऐक्सपीरियंस देख लिया होगा.”
“आप इतनी अच्छी कंपनी छोड़ कर यह छोटी कंपनी जौइन कर रही हैं, मेरे लिए इस से बढ़ कर अच्छी बात क्या होगी? आप का साथ मिलेगा तो यह कंपनी भी कुछ समय में बुलंदियों पर होगी.”
“मैं कंपनी की रेटिंग बढ़ाने की पूरी कोशिश करूंगी.”
थोड़ी देर वह बौस के साथ कंपनी के बारे में बात करने लगी। तब तक औफिस का समय भी हो गया था। कर्मचारी औफिस पहुंचने लगे. सुभाष बोले,”आइए, मैं आप का परिचय अपने स्टाफ से करा दूं.”
चारु उन के साथ कौन्फ्रैंस रूम में आ गई। पूरा स्टाफ वहां पर पहले से ही जमा हो गया था. मिस्टर सुभाष ने चारु की योग्यता का सब को परिचय दिया. कौन्फ्रैंस रूम में उस ने धीरे से स्कार्फ खोला और चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया। सब की निगाहें उसी के चेहरे पर लगी थीं। स्कार्फ और चश्मे के पीछे उस के चेहरे का बड़ा राज छिपा हुआ था जो उन के हटते ही बेपरदा हो गया.
उस का चेहरा एक तरफ ऐसिड अटैक से बुरी तरह झुलसा हुआ था। स्मार्ट देह की स्वामिनी के चेहरे को देख कर अधिकांश कर्मचारी चौंक गए थे। चारु ने इस की परवाह नहीं की। वह जानती थी कि एक न एक दिन यह सचाई सब को पता लगनी ही है तो क्यों न पहले परिचय के साथ ही उसे सब के सामने उजागर कर दिया जाए। चारु ने अपना परिचय दिया लेकिन उस ने इस बात का जिक्र नहीं किया कि उस का एक तरफ का चेहरा किस ने बिगाड़ा। उस ने स्टाफ में सब का परिचय लिया और बहुत कम बोली।
असिस्टैंट मैनेजर सुमित उन से मिल कर बहुत अपसेट हो गया था. कहां तो वह एक सुंदर महिला सहकर्मी के साथ काम करने की कल्पना कर रहा था और हकीकत में उसे क्या देखने को मिला। उस का मन उस के चेहरे की तरफ देखने तक का नहीं कर रहा था। मजबूरी थी कि जितनी देर वह बोल रही थी उस की ओर देखना जरूरी था.
कुछ देर बाद सब अपनेअपने काम पर लग गए। सुमित अपनेआप को संतुलित नहीं कर पा रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था वह इतना समय ऐसी मैनेजर के साथ औफिस में कैसे गुजरेगा? चारु का पहला प्रभाव उस पर बहुत बुरा पड़ा था. वह उस से मिलने में कतरा रहा था. किसी तरह 5 बजे औफिस का काम खत्म हुआ। वह जल्दी से वहां से निकल कर घर की ओर चल पड़ा. ढेर सारे प्रश्न उस के जेहन में उभर रहे थे. पता नहीं किस कारण अच्छीखासी इंटैलिजेंट लड़की का यह हाल हो गया था. युवा कर्मचारियों की उस से बात करने की इच्छा तक नहीं हो रही थी. वह उस घड़ी को कोस रहा था जब सुभाष सर ने चारु को अपनी कंपनी में लेने का मन बनाया था. अपने आसपास अच्छीखासी ताजा चेहरे दिखाई देते रहे तो काम में मन लगा रहता है. चारु को देख कर उस का मन खिन्न हो गया था.
थोड़ी देर आराम कर वह लैपटौप पर बैठ गया. इन दिनों उस की एक औनलाइन फ्रैंड वाणी से अकसर चैटिंग हो जाती थी. घर पर उस का अधिकांश समय उसी के साथ चैटिंग करने में बीतता था. लैपटौप खोलते ही वाणी औनलाइन आ गई.
“कैसे हो?”
“मत पूछो. आज का दिन बहुत भारी बीता।”
“ऐसी क्या बात हो गई?”
“हमारे औफिस में नई मैनेजर आई है. दिमाग से बहुत तेज है लेकिन…”
“ऐसा क्या हुआ?”
“उस के चेहरे पर किसी ने ऐसिड अटैक किया है, जिस की वजह से एक तरफ का चेहरा बुरी तरह झुलस गया है. देखने में बड़ी अजीब लगती है। समझ नहीं आता उस के साथ काम कैसे करूंगा?”
“तुम्हें उस के चेहरे से क्या लेना? अपना ध्यान काम पर रखना. औफिस में शक्ल से ज्यादा अक्ल को अहमियत दी जाती है.”
“तुम ठीक कहती हो. तभी बौस ने उसे अपने यहां रख लिया। सुना है, काम के मामले में बहुत माहिर है. बौस सोच रहा है उस की मेहनत की बदौलत उन की कंपनी जल्दी बहुत ऊपर आ जाएगी.”
“इस में बुराई क्या है, अगर बौस उस के अक्ल का इस्तेमाल अपनी कंपनी की भलाई के लिए करना चाहते हैं?”
“बौस की बौस जानें. मुझे अपनी चिंता है. आसपास अच्छे चेहरे हों तो काम में मन लगता है। उसे देखते ही मेरा काम से मन उचट गया.”
“एक दिन में यह हाल है. आगे क्या करोगे?”
“अभी कुछ सोच नहीं पा रहा हूं. अगर ऐडजस्ट कर सका तो ठीक वरना किसी और जगह नौकरी ढूंढ़ लूंगा.”
“परिस्थिति से भागना कोई बुद्धिमानी नहीं है.”
“न चाहते हुए भी ऐसी जगह पर रुकना कहां की अक्लमंदी है?”
वे दोनों चैट करते हुए अपनी बात एकदूसरे तक पहुंचा रहे थे.
“अच्छा बताओ कब मिलोगी?”
“बहुत जल्दी.”
“मैं तुम्हें देखना चाहता हूं। तुम्हारी आवाज सुनना चाहता हूं। न तुम फोन नंबर देती हो और न बात करती हो. बस, तुम्हारेहमारे बीच में एक यही पुल है जिस से हम अपनी बात करते हैं.”
“इतने उतावले क्यों हो रहे हो सुमित? थोड़ा सब्र रखो सब ठीक हो जाएगा. अच्छा बाय,” कह कर उस ने चैट डिस्कनैक्ट कर दी थी.
उस ने एक नजर अपने फ्लैट को निहारा. छोटा है तो क्या हुआ, अपना तो है. यहां किसी तरह की बंदिश नहीं, न कोई वादविवाद. और यही तो वह चाहती थी. राकेश ने पूरे मन से इस घर को सजाया है. अब चिंता की कोई बात नहीं.
“अब तुम खुश हो न रश्मि. देखो, मैं ने अपना वादा पूरा किया. अब राकेश अपने स्वतंत्र व्यापार में है. और यह तुम्हारा नया किराए का घर है,” राकेश की बड़ी बहन उषा उस से कह रही थी, “अब तुम अपना घर संभालो. बस हमें चिंता है तो बस यही कि तुम अपनी नौकरी और राकेश के बिजनैस के साथ इस घर को कैसे संभाल पाओगी. यह तुम्हारी बड़ी चुनौती है.”
“दीदी, आप ने मुझ पर उपकार नहीं, अहसान किया है,” वह भावुक हो कर बोली, “दरअसल, मैं ने काफी कटाक्ष सहा है. और शादी के बाद मैं और कुछ नकारात्मक सुनना नहीं चाहती थी. इसलिए मैं ने यह कड़ा फैसला लिया.
“मुझे दुख तो हो रहा है कि हम मम्मीपापा के साथ नहीं हैं. फिर भी उन के प्रति मेरे मन में पूरा सम्मान है. आप मेरी स्थिति को समझने की कोशिश करें.”
“मैं सबकुछ समझ रही हूं. तुम चिंता मत करो. कल को उस घर में कुछ बात होती और तब घर छूटता तो ज्यादा बातें बनाई जातीं,” उषा अपनी कार में बैठते हुए बोली, “मैं तुम्हारे विचारों से सहमत हूं. इसलिए तो सदैव तुम्हारे फैसले के साथ रही. बस राकेश को भी खुश रखना.”
“इस के लिए आप निश्चिंत रहें. अब तो वही मेरे लिए सबकुछ हैं.”
उषा दीदी के जाने के बाद वह वापस लौटी. राकेश थका हुआ था शायद, इसलिए सो चुका था.
आज रश्मि दीदी ने उसे ढेर सारी बातें बताई हैं. वह उस के अतीत को नहीं जानती. मगर विगत 2 सालों से तो वह उस के अतीत को जाननेसमझने ही लगी थी, तभी तो वह उस के निर्णय के साथ हमेशा खड़ी रही.
जब राकेश के पापा को कोरोना हुआ था. उन्हीं दिनों वह अपने ही घर में अछूतों की तरह रहने को विवश हुए थे और तभी शायद उन्हें अहसास हुआ था कि अपमान और उपेक्षा क्या और कैसी होती है. बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ अपनी ससुराल चला गया कि छूत का रोग है, कहीं उसे भी न हो जाए. वह तो खुद सब से दूरी बनाए हुए थे. मगर बेटेबहू की व्यंग्योक्ति जैसे उन का पीछा करती थी. एक तो वृद्ध शरीर, जिस में ब्लड शुगर और ब्लड प्रेशर की बीमारी थी, तिस पर इस कोरोना ने और कहर ढा दिया. वह तो गनीमत थी कि मम्मी संक्रमित नहीं थीं. मगर वे अपने गठिया रोग से परेशान थीं. सारा कामधाम बंद था. इसलिए राकेश दौड़भाग कर उन की तीमारदारी में लगा था. इसी दौरान उस का परिचय रश्मि से हुआ था, जब वह पैसे निकालने बैंक गया था.
कोरोना काल होने के कारण बैंकों से पैसे निकालने में भी मुसीबत थी. गोलगोल घेरे में घंटों खड़े रहो, तब कहीं बात बनती थी. ऐसे में रश्मि ने उस की मदद की और कैश काउंटर से पैसे निकालने में सहयोग किया तो उसे बहुत अच्छा लगा. बाद में फिर एक शौपिंग मौल में उस की मुलाकात राकेश से हुई, तो वह उस से कौफी पीने का आग्रह करने लगा, जिसे वह टाल नहीं सकी थी.
बातों के दौरान ही रश्मि पता चला कि उस के पिता की हार्डवेयर की दुकान है, जिस में वह अपने पिता और भाई के साथ बैठता है. वैसे, वह अपनी एक अलग कंप्यूटर की दुकान करने को सोच रहा है.
राकेश का व्यवहार उसे पसंद आया था. और अब यह जान कर कि वह कंप्यूटर की दुकान खोलने वाला है, उस की भी उस में दिलचस्पी बढ़ गई थी. वह उसे अपने दफ्तर का पता देते हुए बोली, “कभी और जानकारी चाहिए तो बताना. तुम्हें सहयोग कर के खुशी होगी.”
और इस प्रकार वह कभीकभार उस के औफिस में चला आता था. वह उसे कंप्यूटरों की बारीकियों की जानकारी देती थी. उधर वह मार्केट में कंप्यूटर की दुकान खोलने की संभावना तलाश रहा था.
दरअसल, राजधानी कौम्पलैक्स में उस के पापा ने एक दुकान खरीद रखी थी, जो अभी किराए पर थी. वह देरसवेर उसी में अपनी दुकान जमाने की फिराक में था. मगर इस के लिए पूंजी की भी तो जरूरत थी. वह इस पर अकसर उस से चर्चा किया करता था. वह उस के लिए उसे बैंक से कर्ज देने की सलाह देती थी, तो वह हंस कर कहता, “पापा चाहें तो मदद कर सकते हैं. मगर भैया इस के विरोध में हैं. कहते हैं कि मैं पहले ही विभिन्न प्रतियोगिता की परीक्षाओं में लाखों उड़ा चुका हूं. अब और नहीं.
“अरे, मेरे घर वाले किसी मोटी मुरगी की तलाश में हैं, जिस से मुझे दहेज मिले, तो मेरी यह समस्या हल हो जाए.”
“ठीक ही तो है. अब देखो कि शायद कोई मिल ही जाए.”
एक दिन अचानक उस का फोन आया, “रश्मि, आज शाम को मेरे घर में मेरे जन्मदिन की पार्टी है. तुम्हें भी आना है.”
“मगर, लड़कों की पार्टी में मैं क्या करूंगी. यह कुछ अजीब नहीं लगेगा,” वह हंस कर बोली, “तुम्हारे घर वाले और मम्मीपापा भी क्या सोचेंगे, यह भी विचार करो.”
“तब तो तुम मेरी दीदी से बात करो. तब तुम्हें आने में कोई संकोच नहीं होगा.”
और उस ने अपनी बहन उषा को फोन पकड़ा दिया था.
“हैलो रश्मि, मैं राकेश की बड़ी बहन उषा बोल रही हूं,” उधर से एक मीठी आवाज आई, “अब आ जाना भई मेरे प्यारे भाई की बर्थडे में. इतनी तो प्रशंसा करता है तेरी. जरा मैं भी तो देखूं कि उस की दोस्त कैसी है. अब जब मैं रांची से यहां आ सकती हूं, तो तुम इस शहर में रह कर यहां क्यों नहीं आ सकती? बोलो, आओगी न.”
“अब जब आप इतना कह रही हैं तो आ ही जाऊंगी. वैसे, आप को मालूम ही है कि छोटे शहरों में बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती. इसलिए सतर्क रहती हूं.”
“सतर्क रहना ही चाहिए. समय जो ठीक नहीं है, मगर अब यह छोटा शहर रहा कहां, महानगर हो गया है.”
उन की इस बात पर उस की हंसी छूट पड़ी थी. वह कहना चाहती थी कि भले ही यह महानगर हो जाए, मानसिकता तो नहीं बदली ना.
शाम को वह कार्यालय से लौट कर घर आई. फिर तैयार हो कर स्कूटी से उस के घर चली आई थी. वहां आते ही उसे पता चला कि मेहमान तो ढेर सारे हैं. मगर घर का नौकर ही नहीं आया था.
राकेश की दीदी उषा ने उस का स्वागत किया. उषा को मां से खुसुरफुसुर करते देख वह बोली, “क्या कोई प्रोब्लम है. मैं कुछ हेल्प करूं.”
“अरे क्या कहें रश्मि. राकेश ने अपने ढेर सारे फ्रेंड बुला लिए हैं. और यहां घर का नौकर ही नहीं आया है. सो, थोड़ी परेशानी हो रही है.”
“तो क्या हुआ, हम मिलजुल कर काम संभाल लेंगे,” वह बोली, “आप बिलकुल चिंता न करें. मैं सब संभाल लूंगी. आखिर औफिस की मीटिंगों का अनुभव है मेरे पास.”
और फिर वही हुआ. उस ने सहज भाव से नाश्ते की प्लेट लगाने से ले कर चायकौफी सर्व करने के काम को बखूबी अंजाम दिया था. राकेश के पापा बोले, “ऐसी बहू हमें मिलती तो कितना अच्छा रहता.”
स्विमिंग पूल के किनारे एक तरफ जा कर विमल ने हाथ में लिए होटल के गिलास से ही सूर्य को जल चढ़ाया, सुबह की हलकीहलकी खुशनुमा सी ताजगी हर तरफ फैली थी, जल चढ़ाते हुए उस ने कितने ही शब्द होठों में बुदबुदाते हुए कनखियों से पूल के किनारे चेयर पर बैठी महिला को देखा, आज फिर वह अपनी बुक में खोई थी.
कुछ पल वहीं खड़े हो कर वह उसे फिर ध्यान से देखने लगा, सुंदर, बहुत स्मार्ट, टीशर्ट, ट्रैक पैंट में, शोल्डर कट बाल, बहुत आकर्षक, सुगठित देहयष्टि.
विमल को लगा कि वह उस से उम्र में कुछ बड़ी ही होगी, करीब चालीस की तो होगी ही, वह उसे निहार ही रहा था कि उस स्त्री ने उस की तरफ देख कर कहा, ‘‘इतनी दूर से कब तक देखते रहेंगे, आप की पूजाअर्चना हो गई हो और अगर आप चाहें तो यहां आ कर बैठ सकते हैं.‘‘
विमल बहुत बुरी तरह झेंप गया. उसे कुछ सूझा ही नहीं कि चोरी पकडे जाने पर अब क्या कहे, चुपचाप चलता हुआ उस स्त्री से कुछ दूर रखी चेयर पर जा कर बैठ गया.
स्त्री ने ही बात शुरू की, ‘‘आप भी मेरी तरह लौकडाउन में इस होटल में फंस गए हैं न? आप को रोज देख रही हूं पूजापाठ करते. और आप भी मुझे देख ही रहे हैं, यह भी जानती हूं.‘‘
विमल झेंप रहा था, बोला, ‘‘हां, यहां देहरादून में औफिस के टूर पर आया था, अचानक लौकडाउन में फंस गया, मैं लखनऊ में रहता हूं और आप…?‘‘
‘‘मैं देहरादून घूमने आई थी. मैं बैंगलोर में रहती हूं, वहीं जौब भी करती हूं.‘‘
‘‘अकेले आई थीं घूमने?‘‘ विमल हैरान हुआ.
‘‘जी, मगर आप इतने हैरान क्यों हुए?‘‘
विमल चुप रहा, महिला उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं, मेरा एक्सरसाइज का टाइम हो गया. थोड़ी रीडिंग के बाद ही मेरा दिन शुरू होता है.‘‘
विमल ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘आप का शुभ नाम?‘‘
‘‘जोया.‘‘
‘‘आगे?‘‘
‘‘आगे क्या?‘‘
‘‘मतलब, सरनेम?‘‘
‘‘मुझे बस अपना नाम अच्छा लगता है, मैं सरनेम लगा कर किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधना चाहती, सरनेम के बिना भी मेरा एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हो सकता है. आप भी मुझे अपना नाम ही बताइए, मुझे किसी के सरनेम में कभी कोई दिलचस्पी नहीं होती.‘‘
विमल का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘यह औरत है, क्या है,’’ धीरे से बोला विमल.
‘‘ओके, बाय,‘‘ कह कर जोया चली गई. विमल जैसे एक जादू के असर में बैठा रह गया.
लौकडाउन के शुरू होने पर रूड़की के इस होटल में 8-10 लोग फंस गए थे, कुछ यंग जोड़े थे जो कभीकभी दिख जाते थे, कुछ ऐसे ही टूर पर आए लोग थे, दिनभर तो विमल लैपटौप पर औफिस के काम में बिजी रहता. वह बहुत ही धर्मभीरु, दब्बू किस्म का इनसान था, उस की पत्नी और दो बच्चे लखनऊ में रहते थे, जिन से वह लगातार टच में था, जोया को वह अकसर ऐसे ही स्विमिंग पूल के आसपास खूब देखता. अकसर वह इसी तरह बुक में ही खोई रहती.