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कृष्णिमा : बाबूजी को किस बात का संदेह था ?

‘‘आखिर इस में बुराई क्या है बाबूजी?’’ केदार ने विनीत भाव से बात को आगे बढ़ाया.

‘‘पूछते हो बुराई क्या है? अरे, तुम्हारा तो यह फैसला ही बेहूदा है. अस्पतालों के दरवाजे क्या बंद हो गए हैं जो तुम ने अनाथालय का रुख कर लिया? और मैं तो कहता हूं कि यदि इलाज करने से डाक्टर हार जाएं तब भी अनाथालय से बच्चा गोद लेना किसी भी नजरिए से जायज नहीं है. न जाने किसकिस के पापों के नतीजे पलते हैं वहां पर जिन की न जाति का पता न कुल का…’’

‘‘बाबूजी, यह आप कह रहे हैं. आप ने तो हमेशा मुझे दया का पाठ पढ़ाया, परोपकार की सीख दी और फिर बच्चे किसी के पाप में भागीदार भी तो नहीं होते…इस संसार में जन्म लेना किसी जीव के हाथों में है? आप ही तो कहते हैं कि जीवनमरण सब विधि के हाथों होता है, यह इनसान के वश की बात नहीं तो फिर वह मासूम किस दशा में पापी हुए? इस संसार में आना तो उन का दोष नहीं?’’

‘‘अब नीति की बातें तुम मुझे सिखाओगे?’’ सोमेश्वर ने माथे पर बल डाल कर प्रश्न किया, ‘‘माना वे बच्चे निष्पाप हैं पर उन के वंश और कुल के बारे में तुम क्या जानते हो? जवानी में जब बच्चे के खून का रंग सिर चढ़ कर बोलेगा तब क्या करोगे? रक्त में बसे गुणसूत्र क्या अपना असर नहीं दिखाएंगे? बच्चे का अनाथालय में पहुंचना ही उन के मांबाप की अनैतिक करतूतों का सुबूत है. ऐसी संतान से तुम किस भविष्य की कामना कर रहे हो?’’

‘‘बाबूजी, आप का भय व संदेह जायज है पर बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में केवल खून के गुण ही नहीं बल्कि पारिवारिक संस्कार ज्यादा महत्त्वपूर्ण होते हैं,’’ केदार बाबूजी को समझाने का भरसक प्रयास कर रहा था और बगल में खामोश बैठी केतकी निराशा के गर्त में डूबती जा रही थी.

केतकी को संतान होने के बारे में डाक्टरों को उम्मीद थी कि वह आधुनिक तकनीक से बच्चा प्राप्त कर सकती है और केदार काफी सोचविचार के बाद इस नतीजे पर पहुंचा था कि लाखों रुपए क्या केवल इसलिए खर्च किए जाएं कि हम अपने जने बच्चे के मांबाप कहला सकें. यह तो केवल आत्मसंतुष्टि तक सोचने वाली बात होगी. इस से बेहतर है कि किसी अनाथ बच्चे को अपना कर यह पैसा उस के भविष्य पर लगा दें. इस से मांबाप बनने का गौरव भी प्राप्त होगा व रुपए का सार्थक प्रयोग भी होगा.

‘केतकी, बस जरूरत केवल बच्चे को पूरे मन से अपनाने की है. फर्क वास्तव में खून का नहीं बल्कि अपनी नजरों का होता है,’ केदार ने जिस दिन यह कह कर केतकी को अपने मन के भावों से परिचित कराया था वह बेहद खुश हुई थी और खुशी के मारे उस की आंखों से आंसू बह निकले थे पर अगले ही क्षण मां और बाबूजी का खयाल आते ही वह चुप हो गई थी.

केदार का अनाथालय से बच्चा गोद लेने का फैसला उसे बारबार आशंकित कर रहा था क्योंकि मांबाबूजी की सहमति की उसे उम्मीद नहीं थी और उन्हें नाराज कर के वह कोई कार्य करना नहीं चाहती थी. केतकी ने केदार से कहा था, ‘बाबूजी से पहले सलाह कर लो उस के बाद ही हम इस कार्य को करेंगे.’

लेकिन केदार नहीं माना और कहने लगा, ‘अभी तो अनाथालय की कई औपचारिकताएं पूरी करनी होंगी, अभी से बात क्यों छेड़ी जाए. उचित समय आने पर मांबाबूजी को बता देंगे.’

केदार और केतकी ने आखिर अनाथालय जा कर बच्चे के लिए आवेदनपत्र भर दिया था.

लगभग 2 माह के बाद आज केदार ने शाम को आफिस से लौट कर केतकी को यह खुशखबरी दी कि अनाथालय से बच्चे के मिलने की पूर्ण सहमति प्राप्त हो चुकी है. अब कभी भी जा कर हम अपना बच्चा अपने साथ घर ला सकते हैं.

भावविभोर केतकी की आंखें मारे खुशी के बारबार डबडबाती और वह आंचल से उन्हें पोंछ लेती. उसे लगा कि लंबी प्रतीक्षा के बाद उस के ममत्व की धारा में एक नन्ही जान की नौका प्रवाहित हुई है जिसे तूफान के हर थपेडे़ से बचा कर पार लगाएगी. उस नन्ही जान को अपने स्नेह और वात्सल्य की छांव में सहेजेगी….संवारेगी.

केदार की धड़कनें भी तो यही कह रही हैं कि इस सुकोमल कोंपल को फूलनेफलने में वह तनिक भी कमी नहीं आने देगा. आने वाली सुखद घड़ी की कल्पना में खोए केतकी व केदार ने सुनहरे सपनों के अनेक तानेबाने बुन लिए थे.

आज बाबूजी के हाथ से एक तार खिंचते ही सपनों का वह तानाबाना कितना उलझ गया.

केतकी अनिश्चितता के भंवर में उलझी यही सोच रही थी कि मांजी को मुझ से कितना स्नेह है. क्या वह नहीं समझ सकतीं मेरे हृदय की पीड़ा? आज बाबूजी की बातों पर मां का इस तरह से चुप्पी साधे रहना केतकी के दिल को तीर की तरह बेध रहा था.

केदार लगातार बाबूजी से जिरह कर रहा था, ‘‘बाबूजी, क्या आप भूल गए, जब मैं बचपन में निमोनिया होने से बहुत बीमार पड़ा था और मेरी जान पर बन आई थी, डाक्टरों ने तुरंत खून चढ़ाने के लिए कहा था पर मेरा खून न आप के खून से मेल खा रहा था न मां से, ऐसे में मुझे बचाने के लिए आप को ब्लड बैंक से खून लेना पड़ा था. यह सब आप ने ही तो मुझे बताया था. यदि आप तब भी अपनी इस जातिवंश की जिद पर अड़ जाते तो मुझे खो देते न?

‘‘शायद मेरे प्रति आप के पुत्रवत प्रेम ने आप को तब तर्कवितर्क का मौका ही नहीं दिया होगा. तभी तो आप ने हर शर्त पर मुझे बचा लिया.’’

‘‘केदार, जिरह करना और बात है और हकीकत की कठोर धरा पर कदम जमा कर चलना और बात. ज्यादा दूर की बात नहीं, केवल 4 मकान पार की ही बात है जिसे तुम भी जानते हो. त्रिवेदी साहब का क्या हश्र हुआ? बेटा लिया था न गोद. पालापोसा, बड़ा किया और 20 साल बाद बेटे को अपने असली मांबाप पर प्यार उमड़ आया तो चला गया न. बेचारा, त्रिवेदी. वह तो कहीं का नहीं रहा.’’

केदार बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘बाबूजी, हम सब यही तो गलती करते हैं, गोद ही लेना है तो उन्हें क्यों न लिया जाए जिन के सिर पर मांबाप का साया नहीं है कुलवंश, जातबिरादरी के चक्कर में हम इतने संकुचित हो जाते हैं कि अपने सीमित दायरे में ही सबकुछ पा लेना चाहते हैं. संसार में ऐसे बहुत कम त्यागी हैं जो कुछ दे कर भूल जाएं. अकसर लोग कुछ देने पर कुछ प्रतिदान पा लेने की अपेक्षाएं भी मन में पाल लेते हैं फिर चाहे उपहार की बात हो या दान की और फिर बच्चा तो बहुत बड़ी बात होती है. कोई किसी को अपना जाया बच्चा देदे और भूल जाए, ऐसा संभव ही नहीं है.

‘‘माना अनाथालय में पल रहे बच्चों के कुल व जात का हमें पता नहीं पर सब से पहले तो हम इनसान हैं न बाबूजी. यह बात तो आप ही ने हमें बचपन में सिखाई थी कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है. अब आप जैसी सोच के लोग ही अपनी बात भुला बैठेंगे तब इस समाज का क्या होगा?

‘‘आज मैं अमेरिका की आकर्षक नौकरी और वहां की लकदक करती जिंदगी छोड़ कर यहां आप के पास रहना चाहता हूं और आप दोनों की सेवा करना चाहता हूं तो यह क्या केवल मेरे रक्त के गुण हैं? नहीं बाबूजी, यह तो आप की सीख और संस्कार हैं. मैं ने बचपन में आप को व मांजी को जो करते देखा है वही आत्मसात किया है. आप ने दादादादी की अंतिम क्षणों तक सेवा की है. आप के सेवाभाव स्वत: मेरे अंदर रचबस गए, इस में रक्त की कोई भूमिका नहीं है और ऐसे उदाहरणों की क्या कमी है जहां अटूट रक्त संबंधों में पनपी कड़वाहट आखिर में इतनी विषाक्त हो गई कि भाई भाई की जान के दुश्मन बन गए.’’

‘‘देखो, मुझे तुम्हारे तर्कों में कोई दिलचस्पी नहीं है,’’ सोमेश्वर बोले, ‘‘मैं ने एक बार जो कह दिया सो कह दिया, बेवजह बहस से क्या लाभ? और हां, एक बात और कान खोल कर सुन लो, यदि तुम्हें अपनी अमेरिका की नौकरी पर लात मारने का अफसोस है तो आज भी तुम जा सकते हो. मैं ने तुम्हें न तब रोका था न अब रोक रहा हूं, समझे? पर अपने इस त्याग के एहसान को भुनाने की फिराक में हो तो तुम बहुत बड़ी भूल कर रहे हो.’’

इतना कह कर सोमेश्वर अपनी धोती संभालते हुए तेज कदमों से अपने कमरे में चले गए. मांजी भी चुपचाप आदर्श भारतीय पत्नी की तरह मुंह पर ताला लगाए बाबूजी के पीछेपीछे कमरे में चली गईं.

थकेहारे केदार व केतकी अपने कमरे में बिस्तर पर निढाल पड़ गए.

‘‘अब क्या होगा?’’ केतकी ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘होगा क्या, जो तय है वही होगा. सुबह हमें अपने बच्चे को लेने जाना है, और मैं नहीं चाहता कि इस तरह दुखी और उदास मन से हम उसे लेने जाएं,’’ अपने निश्चय पर अटल केदार ने कहा.

‘‘पर मांबाबूजी की इच्छा के खिलाफ हम बच्चे को घर लाएंगे तो क्या उन की उपेक्षा बच्चे को प्रभावित नहीं करेगी? कल को जब वह बड़ा व समझदार होगा तब क्या घर का माहौल सामान्य रह पाएगा?’’

अपने मन में उठ रही इन आशंकाओं को केतकी ने केदार के सामने रखा तो वह बोला, ‘‘सुनो, हमें जो कल करना है फिलहाल तुम केवल उस के बारे में ही सोचो.’’

सुबह केतकी की आंख जल्दी खुल गई और चाय बनाने के बाद ट्रे में रख कर मांबाबूजी को देने के लिए बाहर लौन में गई, मगर दोनों ही वहां रोज की तरह बैठे नहीं मिले. खाली कुरसियां देख केतकी ने सोचा शायद कल रात की बहसबाजी के बाद मां और बाबूजी आज सैर पर न गए हों लेकिन उन का कमरा भी खाली था. हो सकता है आज लंबी सैर पर निकल गए हों तभी देर हो गई. मन में यह सोचते हुए केतकी नहाने चली गई.

घंटे भर में दोनों तैयार हो गए पर अब तक मांबाबूजी का पता नहीं था. केदार और केतकी दोनों चिंतित थे कि आखिर वे बिना बताए गए तो कहां गए?

सहसा केतकी को मांजी की बात याद आई. पिछले ही महीने महल्ले में एक बच्चे के जन्मदिन के समय अपनी हमउम्र महिलाओं के बीच मांजी ने हंसी में ही सही पर कहा जरूर था कि जिस दिन हमारा इस सांसारिक जीवन से जी उचट जाएगा तो उसी दिन हम दोनों ही किसी छोटे शहर में चले जाएंगे और वहीं बुढ़ापा काट देंगे.

सशंकित केतकी ने केदार को यह बात बताई तो वह बोला, ‘‘नहीं, नहीं, केतकी, बाबूजी को मैं अच्छी तरह से जानता हूं. वे मुझ पर क्रोधित हो सकते हैं पर इतने गैरजिम्मेदार कभी नहीं हो सकते कि बिना बताए कहीं चले जाएं. हो सकता है सैर पर कोई परिचित मिल गया हो तो बैठ गए होंगे कहीं. थोड़ी देर में आ जाएंगे. चलो, हम चलते हैं.’’

दोनों कार में बैठ कर नन्हे मेहमान को लेने चल दिए. रास्ते भर केतकी का मन बच्चा और मांबाबूजी के बीच में उलझा रहा. लेकिन केदार के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था. उमंग और उत्साह से भरपूर केदार के होंठों पर सीटी की गुनगुनाहट ही बता रही थी कि उसे अपने निर्णय पर जरा भी दुविधा नहीं है.

केतकी का उतरा हुआ चेहरा देख कर वह बोला, ‘‘यार, क्या मुंह लटकाए बैठी हो? चलो, मुसकराओ, तुम हंसोगी तभी तो तुम्हें देख कर हमारा नन्हा मेहमान भी हंसना सीखेगा.’’

नन्ही जान को आंचल में छिपाए केतकी व केदार दोनों ही कार से उतरे. घर का मुख्य दरवाजा बंद था पर बाहर ताला न देख वे समझ गए कि मां और बाबूजी घर के अंदर हैं. केदार ने ही दरवाजे की घंटी बजाई तो इसी के साथ केतकी की धड़कनें भी तेज हो गई थीं. नन्ही जान को सीने से चिपटाए वह केदार को ढाल बना कर उस के पीछे हो गई.

दरवाजा खुला तो सामने मांजी और बाबूजी खडे़ थे. पूरा घर रंगबिरंगी पताकों, गुब्बारों तथा फूलों से सजा हुआ था. यह सबकुछ देख कर केदार और केतकी दोनों विस्मित रह गए.

‘‘आओ बहू, अंदर आओ, रुक क्यों गईं?’’ कहते हुए मांजी ने बडे़ प्रेम से नन्हे मेहमान को तिलक लगाया. बाबूजी ने आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में लिया.

‘‘अब तो दादादादी का बुढ़ापा इस नन्हे सांवलेसलौने बालकृष्ण की बाल लीलाओं को देखदेख कर सुकून से कटेगा, क्यों सौदामिनी?’’ कहते हुए बाबूजी ने बच्चे के माथे पर वात्सल्य चिह्न अंकित कर दिया.

बाबूजी के मुख से ‘बालकृष्ण’ शब्द सुनते ही केदार और केतकी ने एक दूसरे को प्रश्न भरी नजरों से देखा और अगले ही पल केतकी ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘लेकिन बाबूजी, यह बेटा नहीं बेटी है.’’

‘‘तो क्या हुआ? कृष्ण न सही कृष्णिमा ही सही. बच्चे तो प्रसाद की तरह हैं फिर प्रसाद चाहे लड्डू के रूप में मिले चाहे पेडे़ के, होगा तो मीठा ही न,’’ और इसी के साथ एक जोरदार ठहाका सोमेश्वर ने लगाया.

केदार अब भी आश्चर्यचकित सा बाबूजी के इस बदलाव के बारे में सोच रहा था कि तभी वह बोले, ‘‘क्यों बेटा, क्या सोच रहे हो? यही न कि कल राह का रोड़ा बने बाबूजी आज अचानक गाड़ी का पेट्रोल कैसे बन गए?’’

‘‘हां बाबूजी, सोच तो मैं यही रहा हूं,’’ केदार ने हंसते हुए कहा.

‘‘बेटा, सच कहूं तो आज मैं ने बहुत बड़ी जीत हासिल की है. मुझे तुझ पर गर्व है. यदि आज तुम अपने निश्चय से हिल जाते तो मैं टूट जाता. मैं तुम्हारे फैसले की दृढ़ता को परखना चाहता था और ठोकपीट कर उस की अटलता को निश्चित करना चाहता था क्योंकि ऐसे फैसले लेने वालों को सामाजिक जीवन में कई अग्नि परीक्षाएं देनी पड़ती हैं.’’

‘‘समाज में तो हर प्रकार के लोग होते हैं न. यदि 4 लोग तुम्हारे कार्य को सराहेंगे तो 8 टांग खींचने वाले भी मिलेंगे. तुम्हारे फैसले की तनिक भी कमजोरी भविष्य में तुम्हें पछतावे के दलदल में पटक सकती थी और तुम्हारे कदमों का डगमगाना केवल तुम्हारे लिए ही नहीं बल्कि आने वाली नन्ही जान के लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकता था. बस, केवल इसीलिए मैं तुम्हें जांच रहा था.’’

‘‘देखा केतकी, मैं ने कहा था न तुम से कि बाबूजी ऐसे तो नहीं हैं. मेरा विश्वास गलत नहीं था,’’ केदार ने कहा.

‘‘बेटा, तुम लोगों की खुशी में ही तो हमारी खुशी है. वह तो मैं तुम्हारे बाबूजी के कहने पर चुप्पी साधे बैठी रही, इन्हें परीक्षा जो लेनी थी तुम्हारी. मैं समझ सकती हूं कि कल रात तुम लोगों ने किस तरह काटी होगी,’’ इतना कह कर सौदामिनी ने पास बैठी केतकी को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘वह तो ठीक है मांजी, पर यह तो बताइए कि सुबह आप लोग कहां चले गए थे. मैं तो डर रही थी कि कहीं आप हरिद्वार….’’

‘‘अरे, पगली, हम दोनों तो कृष्णिमा के स्वागत की तैयारी करने गए थे,’’ केतकी की बातों को बीच में काटते हुए सौदामिनी बोली, ‘‘और अब तो हमारे चारों धाम यहीं हैं कृष्णिमा के आसपास.’’

सचमुच कृष्णिमा की किलकारियों में चारों धाम सिमट आए थे, जिस की धुन में पूरा परिवार मगन हो गया था.

टिकुली : पराई बच्ची को अपनाते दंपति की दिल छूती कहानी

आदिल ने कमरे में धीरे से झांका. उस की पत्नी बुशरा 7 साल की टिकुली को सीने से लगाए आंख बंद कर लेटी थी. वह बुशरा का थका सा चेहरा देर तक खड़ा देखता रहा. रात को 2 बज रहे थे, पता नहीं बुशरा की आंख लगी है या यों ही आंख बंद कर लेटी है. वह खुद कहां सो पा रहा है.

टिकुली तो अब उस की भी जान है. पीले बल्ब की मद्धिम सी रोशनी में भी उस ने देखा, नन्हा सा चेहरा बुखार की तपिश से कैसा लाल सा हो रहा है. 2 दिन हो गए हैं, टिकुली तेज़ बुखार से तप रही है. बस्ती के एक कामचलाऊ डाक्टर ने दवाई तो दी है, कहा भी है, ‘ज़्यादा परेशानी की बात नहीं है. तीनचार दिनों में ठीक हो जाएगी.’ इतने में बुशरा ने आंखें खोलीं, देखा आदिल गुमसुम खड़ा पता नहीं क्या सोच रहा है. उस ने टिकुली को अपने सीने से धीरे से हटाया, उठ कर बाहर आई. आदिल ने पूछा, “बुखार कम लग रहा है?”

“हां, थोड़ी तपिश कम है, पर अभी भी है. पहले तो बदन जैसे जल सा रहा था. हाय, पता नहीं कब पहले की तरह चहकेगी, चहकेगी भी या नहीं, आदिल? कहीं नन्हें से दिल को सब बता कर हम से गलती तो नहीं हुई?”

“नहीं, बुशरा. कोई और बताए, इस से अच्छा था कि हम ही साफ़साफ़ बता दें. दूसरे धर्म की बच्ची को पालपोस रहे हैं, कुछ भी हो सकता था. कभी भी किसी परेशानी में पड़ सकते थे.”

टिकुली अभी तक बुशरा के सीने से लगी सोई हुई थी. बुशरा का उठ कर जाना उस ने महसूस किया, ज़रा सा हिलीडुली तो बुशरा फिर उसे अपने से लिपटा कर लेट गई. आदिल भी नीचे बिछे बिस्तर पर लेट गया.

बुशरा की आंखों में दूरदूर तक नींद नहीं थी. टिकुली के मुंह से जैसे ही निकला, ‘मां, पानी.’ बुशरा को लगा जैसे उस के बदन में किसी ने जान फूंक दी हो. ‘हांहां, मेरी बच्ची, ले,’ कह कर पास रखा गिलास उस के मुंह से लगा दिया. टिकुली ने अब भी उस की उंगली पकड़ रखी थी. 2 दिनों बाद अपनेआप पानी मांगा था. उस ने पूरा गिलास पानी पी लिया.

बुशरा ने पूछा, “ठीक लग रहा है, कुछ खाएगी?”

‘न’ में सिर हिला कर टिकुली फिर उस से चिपट गई, फिर उस के माथे पर हाथ रख कर पूछा, “मां, आप की टिकुली कहां गई?”

बुशरा मुसकरा दी, उसे सीने से भींच लिया, “यह रही मेरी टिकुली.”

“टिकुली लगाओ न, मां.”

“हां, ये ले,’ कहती हुई उस ने अपने तकिए पर लगी बिंदी उठा कर अपने माथे पर लगा ली. टिकुली ने बिंदी को सीधा किया, फिर निढाल लेट गई. अब तक आदिल भी टिकुली की आवाज़ सुन कर आ गया था, “कैसी है हमारी बिटिया?”

टिकुली कुछ बोली नहीं. बस, आंखें बंद किए लेटी रही. बुशरा ने कहा, “कमज़ोरी बहुत होगी.” फिर छू कर दोबारा देखा, “अभी तो बुखार तेज़ ही लग रहा है. सुबह तक उतरना चाहिए.”

“हां, तुम अब थोड़ा सो लो. ठीक हो जाएगी.”

आदिल फिर लेट गया. बुशरा को अभी टिकुली का बिंदी ठीक करना याद आ गया. इसे अपनी मां की याद आती होगी. 7 साल की ही है, तो क्या हुआ. कुछ तो याद होगा ही. इसे सब सच बता कर कोई गलती तो नहीं हुई? जब से सब बताया है, तभी से बुखार में पड़ी है. टिकुली को देखतेदेखते उस के सामने अर्शी का चेहरा घूम गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी सी लग गई. रोतेरोते अचानक हिचकियां बंध गईं. टिकुली की नींद खुल गई. छोटेछोटे गरम हाथ बुशरा के गाल पर रख दिए, “मां, अर्शी याद आ गई?”

बुशरा ने हां में सिर हिला दिया, तुरंत अपने आंसू पोंछे, पूछा, “थोड़ा दूध पिएगी?”

टिकुली ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो बुशरा ने तुरंत बिस्तर छोड़ा और उस के लिए दूध ले आई. फिर दोनों चुपचाप एकदूसरे से लिपटी लेट गईं.

टिकुली फिर सो गई. बुशरा को लगा, पानी भी खुद मांग कर पिया है, थोड़ा दूध भी लिया, शायद टिकुली को अब थोड़ा आराम हो रहा है. अर्शी भी जबजब बीमार हुई, ऐसे ही थोड़ाथोड़ा खानापीना शुरू करती तो बुशरा समझ जाती थी कि अर्शी ठीक हो रही है. बुशरा के कलेजे में अपनी बेटी को याद कर फिर एक हूक सी उठी. उस की आंखों के सामने 3 साल पहले का कोरोना महामारी का भयावह मंज़र घूम गया जब अपनी जान बचाना ही लोगों का एकमात्र उद्देश्य रह गया था. पता नहीं कैसे अर्शी इस की चपेट में आ गई थी.

सरकारी अस्पताल में कैसे डाक्टरों के आगे गिड़गिड़ा कर उस ने और आदिल ने अर्शी को एडमिट किया था. पूरे 4 दिन अस्पताल से दूर भूखेप्यासे खड़े रहते, बड़ी मुश्किल से एक बार अर्शी को देखने को किसी तरह घुस गए थे, तो वहीं एक कोने में फटेहाल से राधा और रमेश भी अपनी आखिरी सांसें ले रहे थे.

राधा समझ गई थी कि अर्शी के मातापिता बाहर ही खड़े रहते हैं. बड़ी मुश्किल से उस की बुशरा से थोड़ी बातचीत भी हुई थी. यह समय ऐसा था कि अपने भी अपने नहीं रहे थे या कह सकते हैं कि रह नहीं पा रहे थे. अपनों के लिए भी कोई कुछ चाहते हुए भी नहीं कर पा रहा था. जब राधा और रमेश को समझ आ गया कि वे नहीं बचेंगे तो राधा ने अपनी उखड़ती सांसों के साथ बुशरा के सामने हाथ जोड़ दिए, ‘बहन, हम दानापुर, बिहार से यहां कामधंधे के लिए आए थे. अब सब छूट रहा है. मेरी 4 साल की टिकुली कमरे पर अकेली है, भूखीप्यासी. पता नहीं कोई उसे खाना भी दे रहा होगा या नहीं. उसे तुम अपने पास रख लोगी?’ कह कर राधा ने अपने कमरे की चाबी बुशरा को सौंप दी थी.

‘आप के कोई रिश्तेदार?’

‘नहीं, टिकुली के पिताजी अनाथालय में पले हैं. मेरे मायके में भी कोई इसे देखने वाला नहीं बचा. यह महामारी सब को ले गई.’

उसी दिन अर्शी ने भी अंतिम सांस ली. रोतेकलपते आदिल और बुशरा को अर्शी का शव भी नहीं दिया गया था. यह ऐसा भयानक समय था कि किसी को यह देखने की फुरसत नहीं थी कि कौन मर रहा है, कौन घर जा रहा है. अफरातफरी का माहौल था. अस्पतालों में डाक्टर्स को घर गए हुए कईकई दिन बीत रहे थे. रातदिन, बस, एंबुलैंस की आवाज़ सुनाई देती. सूनी सड़कें. हर तरफ मौत की चुप्पी. इंसान घर से निकलते हुए डरता था कहीं मौत घात लगाए न बैठी हो.

ऐसी बीमारी कभी किसी ने देखी नहीं थी. ऐसे में अर्शी का दिल ही दिल में मातम मनाते आदिल और बुशरा सीधे राधा के कमरे पर पहुंचे. वहां आसपास के किसी घर से कोई टिकुली को खानापीना दे जाता था. जैसे ही बुशरा ने अकेली रह रही डरीसहमी टिकुली को देखा, वह उसे सीने से लगा कर रो पड़ी. उस से कहा, ‘बेटा, तुम्हारी मां ने हमें भेजा है. तुम्हारे मां, बाबा दोनों बहुत बीमार हैं. उन्हें ठीक होने में कुछ समय लगेगा. तब तक तुम हमारे साथ रहोगी.’  यह कह कर उस ने आदिल की तरफ इशारा किया था. आदिल ने स्नेह से उस के सिर पर अपना हाथ रख दिया था, ‘अब टिकुली हमारे साथ रहेगी.’

इस समय लोगों के पास दूसरों के घरों में, जिंदगी में तांकझांक करने का समय नहीं था. बुशरा और आदिल ने चुपचाप धीरेधीरे राधा का कमरा खाली कर दिया और टिकुली को अपनी बेटी मान कर अपने घर ले आए. जब बसें चलनी शुरू हो गईं तो थोड़े दिनों बाद अपना कमरा भी खाली कर के बनारस की इस बस्ती से काफी दूर एक और जगह अपना नया ठिकाना बना लिया. टिकुली कई दिन गुमसुम रही. पर बालमन जल्दी ही नई जगह रमना जानता है.

आदिल और बुशरा उस पर अपना इतना लाड़ उड़ेलते कि वह अब जल्दी ही उन से घुलमिल गई थी. अर्शी की याद बुशरा और आदिल को तड़पाती. वे अकेले में बैठ कर रो भी लेते पर टिकुली को देख कर फिर जीने की कोशिश करने में लगे थे.

धीरेधीरे महाविनाश के बाद जद्दोजहेद के साथ जीवन पटरी पर लौट रहा था. इस महामारी में हर वर्ग पर कहर टूटा था. अमीरों का पैसा भी उन की जान नहीं बचा पाया था. गरीबों पर गरीबी और बीमारी की दोहरी मार पड़ी थी. अब आदिल ने फिर एक फैक्ट्री में काम पर जाना शुरू कर दिया था. बुशरा भी छोटेमोटे काम करने लगी थी.

अर्शी की तरह टिकुली को पढ़ानेलिखाने की जिम्मेदारी भी उठानी थी. अर्शी और टिकुली एक ही उम्र की थीं. अर्शी के कपड़े पहन कर जब टिकुली आदिल और बुशरा के सामने खड़ी हो कर हंसती, खिलखिलाती, दोनों के आंसू बहते चले जाते. टिकुली ने एक दिन खुद ही बताया था, ‘पता है, मां, मुझे टिकुली क्यों कहते हैं, मां कहती थीं कि मुझे उन के माथे की टिकुली बहुत अच्छी लगती थी, मैं वही छेड़ती रहती थी, और खुद भी लगाती थी इसलिए मेरा नाम ही टिकुली पड़ गया.’ वह अपने ही नाम पर हंसती रहती.

टिकुली कई बार सोतेसोते चौंक कर उठ बैठती. अपनी मां को ढूंढ़ती. बुशरा उसे बहला लेती. धीरेधीरे वह बुशरा और आदिल के नए ठिकाने में रमती गई. बुशरा पहले बिंदी नहीं लगाती थी पर टिकुली कहीं से भी कुछ ला कर उस के माथे पर लगा देती, कहती, ‘मेरी मां बहुत अच्छी टिकुली लगाती हैं.’

टिकुली को अपनी मां इसी बात पर अकसर याद आती. बुशरा उस की ख़ुशी के लिए अपने माथे पर एक छोटी सी बिंदी लगा लेती.

एक दिन बुशरा और आदिल टिकुली को अपनी गोद में लिटा कर आपस में बात कर रहे थे. टिकुली बहुत ध्यान से सुन रही थी, ‘हम टिकुली को न हिंदू, न मुसलमान बनाने पर ज़ोर देंगे, उसे अच्छा इंसान बनाएंगे. उसे पढ़ालिखा कर उस के पैरों पर खड़ा कर देंगे. हम उसे किसी भी धर्म की बातों में फंसने ही नहीं देंगे. इस महामारी में कौन सा धर्म किस के काम आया है? हिंदू, मुसलमान, ईसाई सब तो चले गए, किस को कौन बचा पाया? हर धर्म का इंसान तड़पता चला गया है. लाशों तक का तो कोई ठिकाना न रहा. सच पूछो, आदिल, मैं तो जैसे अब नास्तिक सी होती जा रही हूं. बस, अपनी अर्शी जैसी टिकुली को अब डाक्टर ही बनाना है चाहे इस के लिए रातदिन मेहनत करनी पड़े.’

और अब 2 दिनों पहले ही बुशरा और आदिल ने आपस में बात की थी. आदिल ने कहा था, ‘बुशरा, टिकुली को अब बता दो कि उस के मातापिता नहीं रहे. थोड़ी और बड़ी हो गई तो फिर से नई बातों से घबरा न जाए. अभी तो एडजस्ट कर भी लेगी. हम से थोड़ी मिलजुल गई है. ईमानदारी से अब उसे समझा देते हैं.’

बुशरा ने भी अपनी सहमति दे दी थी. दोनों ने उस दिन टिकुली को बता दिया था कि उस के मातापिता नहीं बचे. अब वह हमेशा उन के साथ ही रहेगी. टिकुली चुपचाप बैठी रही थी, फिर रोई और रोतेरोते ही उसे बुखार चढ़ता चला गया था. 7 साल की बच्ची के लिए अब यह सब सहना कैसा होगा, वह ठीक हो कर क्या कहेगी, उन के साथ ख़ुशीख़ुशी रह लेगी या दुखी हो कर मजबूरी में रहेगी, क्या उसे इतने दिन में हम से प्यार नहीं हो गया होगा? अर्शी और टिकुली में कोई फर्क तो हम ने कभी समझा नहीं. आदिल और बुशरा के मन में बस यही सब चलता रहता.

बुशरा ने एक ठंडी सी सांस भरी तो टिकुली जाग गई. उस की हथेलियां बुशरा के गरदन पर टिकी थीं. हथेलियां कुछ भीगी सी लगीं, तो बुशरा चौंकी, शायद टिकुली का बुखार टूटा था, पसीना आ रहा था. वह उठ कर बैठ गई. टिकुली का माथा छुआ, पसीने से तर था. उस ने फौरन आदिल को आवाज़ दी, “आदिल, देखो तो. टिकुली का बुखार उतर रहा है, शायद.”

आदिल उठ कर आया, थर्मामीटर टिकुली की बांह में रखा. बुशरा ने अपनी आंखें पोंछीं जिन में अर्शी की याद में एक बार फिर नमी उतर आई थी. ऐसे ही तो बीमारी में अर्शी उस के साथ लिपटी रहती थी. टिकुली कभी आदिल को देख रही थी, कभी बुशरा को. कुछ बोली नहीं, तो बुशरा ने पूछा, “क्या हुआ, टिकुली?”

“तो फिर मेरे मांपिताजी मर गए? अब कभी नहीं आएंगे?”

“वे नहीं आएंगें, पर हम हैं न. तू अब हमेशा मेरे पास रहेगी.”

बुशरा और आदिल का दिल ज़ोर से धड़क रहा था. अब पता नहीं टिकुली क्या सोच रही होगी, कहीं शोर सा न मचा दे. आसपास वाले तो उसे उन की बेटी ही समझते थे. कहीं वे किसी बड़ी मुसीबत में न फंस जाएं. दोनों मन ही मन बहुत डर रहे थे. टिकुली की एक हरकत उन्हें जेल भी पहुंचा सकती थी जबकि उन्होंने कोई चोरी नहीं की थी. टिकुली के मातापिता ने ही उन्हें टिकुली सौंपी थी. पर उन के पास इस बात का कोई सुबूत तो था नहीं. दोनों की निगाहें टिकुली पर टिकी थीं. कमज़ोर सी आवाज़ में टिकुली ने कहा, “पिताजी, थर्मामीटर देखो न. कितनी देर हो गई.”

“अरे, वाह, बुखार तो बहुत कम हो गया,” थर्मामीटर देखते हुए आदिल ने खुश होते हुए कहा, “चलो, अब टिकुली को कुछ खिलाओ, बुशरा. उस ने कब से कुछ नहीं खाया है.”

बुशरा ने फौरन उस के लिए पतलीपतली खिचड़ी चढ़ा दी. जब तक खिचड़ी बनी, उसे अपने हाथों से सेब काट कर खिलाती रही. फिर खिचड़ी अपने हाथों से खिलाई.

धीरेधीरे टिकुली ठीक हो रही थी. आदिल ने काम पर जाना शुरू कर दिया. बुशरा अभी टिकुली की देखरेख के लिए घर पर ही थी. वह देख रही थी कि टिकुली ठीक तो हो रही है पर थोड़ा चुप सी रहती है. अब स्कूल खुलने लगे थे. पिछले कई महीने तो बच्चे घर में बंद ही रहे थे. अब सड़कों पर स्कूलबसें एक लंबे समय बाद दिखतीं.

कोरोना महामारी बच्चों के बचपन का बहुत ज़रूरी समय खा गई थी. अभी टिकुली का एडमिशन करवाना था. उस में कोई अड़चन न आ जाए, यह चिंता भी थी. इन सब से अलग टिकुली का थोड़ा चुप रह जाना दोनों को अखर रहा था. वे दोनों अपनी तरफ से टिकुली को संभलने के लिए समय दे रहे थे.

एक दिन बुशरा ने टिकुली को अपने पास लिटा लिया, प्यार से पूछा, “टिकुली, क्या सोचती रहती है? अब तो ठीक हो गई न? अब स्कूल जाना है?” टिकुली बुशरा को देखती रही, फिर पूछा, “मां, आप लोग तो मर नहीं जाओगे न?”

“क्या?” बुशरा हैरान सी उठ कर बैठ गई.

“मां, मुझे आजकल बहुत डर लगता है.”

“ओह्ह, मेरी बच्ची. क्याक्या सोचती रहती है. अरे, हम कहीं नहीं जा रहे हैं. अभी तुझे बहुत पढ़ानालिखाना है.”

“हां, और मुझे डाक्टर भी बनाना है न,” कहते हुए टिकुली जोश से उठ कर बैठ गई, तकिए पर लगी बुशरा की बिंदी को ठीक करते हुए उस से फिर लिपट गई. कुछ दिनों से घर में पसरा सन्नाटा दुम दबा कर कहीं भाग गया था.

भारतीय संगीत भटक चुका है- बिक्रम घोष, संगीतकार व तबला वादक

‘जीमा’ और ‘ग्रेमी’ अवार्ड विजेता मशहूर तबला वादक व संगीतकार बिक्रम घोष को तबला वादन की शिक्षा उन के पिता व अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त तबला वादक शंकर घोष से मिली थी. शास्त्रीय संगीत, सूफी, पौप, रौक, फ्यूजन संगीत और फिल्म संगीत जैसी विधाओं में काम करने वाले बिक्रम घोष एकमात्र म्यूजीशियन हैं. फिल्म ‘जल’ में उन के संगीत को औस्कर में नौमीनेट किया गया था.

पंडित रविशंकर के साथ 12 साल तक तबला बजाने के अलावा फिल्म ‘ब्रेनवाश’ में जौर्ज हैरिसन, ‘पल्सेटिंग ड्रम्स’ में उस्ताद जाकिर हुसैन और तौफीक कुरैशी के साथ काम कर चुके हैं. वे अब तक 53 फिल्मों, 12 हिंदी और 41 बंगला फिल्मों को संगीत से संवार चुके हैं. उन का अपना म्यूजिक बैंड ‘रिदमस्कैप’ है, तो वहीं 2021 में उन्होंने अपने 3 दोस्तों के साथ मिल कर संगीत कंपनी ‘इंटरनल साउंड’ की शुरुआत की थी.

हाल ही में देश के 77वें स्वतंत्रता दिवस पर वे ‘यह देश’ नामक अलबम ले कर आए. प्रस्तुत हैं, बिक्रम घोष से हुई बातचीत के खास अंश :

अपने पिता मशहूर तबला वादक शंकर घोष की ही तरह तबला वादक बनने का विचार आप के दिमाग में कब आया था?

यों तो बचपन से ही मुझे अपने पिता से तबला बजाने की शिक्षा मिलती रही. मगर मेरे ननिहाल के सभी लोग शिक्षा में बहुत आगे हैं. वे मुझे हमेशा पढ़ने के लिए प्रेरित किया करते थे. वे लोग चाहते थे कि मैं अच्छी नौकरी करूं। तो मेरे सामने दोराहा यह था कि मैं अपने पिता की ही तरह तबला वादक बनूं या फिर नौकरी करूं। पर 1990 में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने के बाद एक दिन मेरे पिता ने मुझ से सवाल किया कि अब आगे क्या करना है, तो मेेरे मुंह से तुरंत निकला कि मुझे तबला बजाना है क्योंकि बचपन से मैं अपने पिताजी को तबला वादक के रूप में मिल रही शोहरत, मानसम्मान, प्रशंसकों की भीड़ आदि देखता आ रहा था, जोकि कहीं न कहीं मेरे जेहन में था.

मैं जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, वैसेवैसे मेरे मन में भी कभीकभी अपने पिताजी की तरह बनने की इच्छा होती थी. तो मैं ने उसी दिन से तबला वादन को अपना प्रोफैशन बना लिया. मगर 2 साल तक मैं ने 2 विश्वविद्यालयों में बतौर प्रोफैसर पार्टटाइम नौकरी भी की. पर 14 नवंबर, 1993 को पंडित रविशंकर ने मुझे एक छोटे से म्यूजिकल कंसर्ट में तबला बजाते देखा और मुझे वहां से उठा कर अपने साथ कर लिया और 16 नवंबर, 1993 में मुझे ब्रजैल्स में आयोजित कंसर्ट में अपने साथ तबला बजाने का अवसर दिया.

उस के बाद मैं ने नौकरी को अलविदा कह पंडित रविशंकर के साथ पूरे 12 साल तक तबला बजाया. जब तक पंडित रविशंकरजी जीवित थे, तब तक तबला वादन में उन से बेहतर साथ किसी का नहीं हो सकता था. उन के साथ मैं ने ग्रेमी अवार्ड में भी बजाया. उस के बाद मैं ने सभी इंटरनैशनल स्टार्स के साथ काम किया.

आप तबला वादक के साथ ही संगीतकार भी हैं. अब तक 53 फिल्मों व 70 संगीत अलबमों को संगीत दे चुके हैं। यहां तक का सफर कैसा रहा?

पूरी दुनिया घूमने और दुनिया का काफी संगीत सुनने के बाद मेरे अंदर एक ललक जगी, तो मैं ने शास्त्रीय संगीत से कुछ समय के लिए अवकाश ले कर बतौर संगीतकार अपना बैंड ‘रिदमस्कैप’ शुरू करने के साथ ही अपने पहले अलबम ‘रिदमस्कैप’ को संगीत से संवारा जोकि आइकौनिक अलबम साबित हुआ. इस अलबम को बहुत बड़ी सफलता मिली. अलबम की सफलता के साथ ही मेरा अपना फ्यूजन बैंड ‘रिदमस्कैप’ भी लोकप्रिय हो गया.

उस के बाद में मैं ने सूनी तारपोरवाला की फिल्म ‘लिटिल जिजुओ’ को संगीत से सजाया. उस के बाद 2013 में गिरीश मलिक की फिल्म ‘जल’ को मैं ने व सोनू निगम ने मिल कर संगीत से संवारा जिस का एक गाना औस्कर के लिए नौमीनेट हुआ था.

उस के बाद मैं ने बंगला फिल्मों में काम करना शुरू किया. बंगाल में मैं ने निर्देशक अरिंदम के साथ कई फिल्में कीं. आजकल उन के साथ हम लोग 21वीं फिल्म कर रहे हैं. अब तक मैं ने संगीतकार के रूप में 53 फिल्में की हैं, इन में से 12 हिंदी और 41 बंगला फिल्में हैं. कुछ माह पहले मेरे संगीत से संवरी फिल्म ‘तोरबाज’ आई थी. कुछ दिन पहले ही गिरीश मलिक की फिल्म ‘बैंड औफ महाराजास’ को संगीत देने का काम पूरा किया है. इस में मैं ने अभिनय भी किया है.

लेकिन आप ने फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ को संगीत देने से मना क्यों कर दिया था?

जी हां, मुझे इस बात का अफसोस भी है. वास्तव में ‘रिदमस्कैप’ को सफलता मिलने के बाद सब से पहले राजकुमार हिरानी ने मुझे फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में संगीत देने का औफर दिया था, जिसे मैं कर नहीं पाया था क्योंकि उन दिनों मैं अपने बैंड के साथ विदेश यात्राएं कर रहा था. यह 4 माह का टूर था.

आप का अपना ‘रिदमस्कैप’ बैंड होने के बावजूद आप ने अपना प्रोडक्शन हाउस ‘इंटरनल साउंड’ शुरू किया. इस के पीछे क्या सोच रही?

कोविड महामारी के दौरान मुझे एहसास हुआ कि अब वह संगीत नहीं रहा. मेरी जिस से भी चर्चाएं होती थीं, सभी एक ही रोना रोते कि 70 व 80 के दशक जैसा बेहतरीन संगीत अब नहीं बन रहा है. तो मुझे लगा कि कहीं न कहीं हम गुमराह हो रहे हैं. कुछ तो गड़बड़ हो रहा है. आज संगीत में मैलोडी क्यों नहीं है? हम हर बार क्यों सिर्फ बड़े स्तर पर प्रोडक्शन की सोचते हैं? आखिर इंसान सोचेगा कब? उस में प्यार कब होगा? आज भी हम और आप ही नहीं बल्कि बच्चे भी पुराने गीत सुनना पसंद करते हैं. मैं मैलोडियस गाना बनाना चाहता था, इसीलिए यह कंपनी शुरू की.

हम गुणवत्ता वाले और्गेनिक संगीत लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं. गाने में कम से कम सितार तो बजे, बांसुरी तो बजे, सारंगी तो बजे. आज भी हम गाना सुन कर कहते हैं कि फिल्म ‘कश्मीर की कली’ के क्या गाने थे। इस फिल्म के गानों में सारंगी रामनारायणजी ने बजाई थी. हरिप्रसाद चौरसिया ने बांसुरी बजाई थी.

फोक या क्लासिकल संगीत के साथ हमारे यहां के साज/वाद्ययंत्रों की साउंड नहीं होगी, तो फिर भारतीय व अमेरिकी संगीत में अंतर कहां रह जाएगा? उन के पास वे वाद्ययंत्र नहीं हैं, जो हमारे पास हैं. वे वायलिन व गिटार का उपयोग करते हैं, अगर हम भी वही करते हैं तो अंतर कहां रहा.

भारतीय संगीत की पहचान बरकरार रहे, इसी सोच के साथ हम ने अपनी संगीत कंपनी ‘इंटरनल साउंड’ शुरू की. साउंड पर हम ज्यादा जोर दे रहे हैं. अपनी कंपनी बनाने के लिए हम ने 3 दोस्तों से संपर्क किया, जोकि उद्योग जगत से जुड़े हुए हैं. हम ने उन से कहा कि आप क्रिकेट, फुटबाल व फिल्म में पैसा लगाते हो तो संगीत में भी लगाइए. वे तैयार हो गए. इस तरह हमारी इस कंपनी ने काम करना शुरू किया. इस कंपनी के तहत हम ऐसा संगीत बना रहे हैं जोकि आज के दौर का अलग संगीत नजर आए और लोगों की जबान पर चढ़ जाए.

हमारे पास लता, किशोर कुमार, आशा भोसले, मो. रफी आदि के गाने व संगीत हैं, पर हम चाहते हैं कि आज के दौर में भी उसी तरह का मैलोडियस संगीत बने, जो पूरी तरह से भारतीय हो.

क्या संगीत में आई गिरावट की मूल वजह ‘की बोर्ड’ पर बढ़ी निर्भरता है?

की बोर्ड तो प्रोग्रामर संचालित करते हैं. हमारे देश में जितने भी प्रोग्रामर काम कर रहे हैं, वे काफी ज्ञानी व समझदार हैं. वे बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली हैं. हम सभी संगीतकारों के पास प्रोग्रामर होता है. पर समस्या कहां है, उस पर गौर करें.

देखिए, पियानो या गिटार या इलैक्ट्रोनिक की प्रोग्रामिंग हो जाएगी. मगर आप तबला व ढोलक की प्रोग्रामिंग नहीं कर सकते. जब इन की प्रोग्रामिंग करते हैं, तब वह इतना बेकार सुनने में लगता हैै कि लोग सुन कर भागते हैं. पहले लाइव म्यूजिक रिकौर्ड होता था, जिस में 80 लोगों का आर्केस्ट्रा, 10 ढोलक, 6 गिटार सहित 100 लोग एक गाना महबूब स्टूडियो में रिकौर्ड करते थे. ऐसा करने में बहुत बड़ा धन खर्च होता है. अब लोग सोचते हैं कि हम ‘की बोर्ड’ पर कर लेते हैं, जोकि ‘शौर्टकट’ है. लोग भूल जाते हैं कि कुछ चीजों का शौर्टकट नहीं होता.

यदि आप लोगों के दिल को छूने वाला संगीत बनाना चाहते हैं, तो आप को भारतीय वाद्ययंत्रों को लाइव रख कर ही संगीत बनाना पड़ेगा. पर हम वहां से हट गए. परिणामतया हमारे भारतीय संगीत से इंसानी टच चला गया. जब वादक ढोलक या तबला बजाता है, तो वह पसीने से तरबतर हो जाता है. उस का हाथ जब लगता है, तो स्किन से स्किन टच होती है. आप जानते हैं कि तबला व ढोलक में इंसानी स्किन लगी होती है.

हम ने एक गाना बनाया तो मेरे 10 साल के बेटे ने कहा कि पापा, यह कितना पुराना गाना है, यह तो बहुत अच्छा लग रहा है. मैं ने कहा कि यह 40 साल पुराना है, तो वह और अधिक खुश हो गया.

लोगों की सोच यह हो गई है कि तबला वादक या बांसुरी वादक या सारंगी वादक सिर्फ रंगमंच तक ही सीमित हैं. ऐसा क्यों?

ऐसा पहले से ही था. मैं ने तो इसे भी तोड़ने का प्रयास किया. मैं अपने तबले के साथ बीच में बैठता हूं। आप ने देखा होगा कि तबला वादक को किनारे बैठाया जाता है. यह मेरी तरफ से एक स्टेटमैंट भी है.

आज समय आ गया है कि तबला को चांद पर ले जाना है. यह काम आज मैं कर रहा हूं। मुझ से पहले मेरे पिताजी भी कर चुके हैं. बहुत बड़ा काम जाकिर भाई ने किया. शांताप्रसाद ने भी किया. बिरजू महाराज ने किया. तो मुझे साज के लिए जो सही लगता है, मैं वह करता हूं. मेरे हर काम में तबला जरूर होता है.

आप क्लासिकल, फ्यूजन और सूफी संगीत पर काम करते हैं. इन तीनों में काम करते समय किन बातों का खास ध्यान रखते हैं?

देखिए, क्लासिकल में आप को हर वक्त 2 चीजों का खयाल रखना होता है. आप को राग में ही काम करना है. राग से बाहर आप नहीं जा सकते. दूसरा, आप ताल से बाहर नहीं जा सकते. जब सूफियाना का काम करेंगे, तब लफ्ज पर ध्यान देना होता है. तभी वह सूफी कहलाएगा. फ्यूजन में आप किसी को भी किसी चीज के साथ जोड़ सकते हो. लेकिन ध्यान यह रखना है कि उस का स्टेथिक्स कहां मेल खाता है. अब फ्यूजन के लिए आप ने बिरयानी में रसगुल्ला डलवा दिया, तब बिरयानी व रसगुल्ला दोनों खत्म हो जाएगा. यह समझने के लिए आप को 20 साल तालीम लेनी पड़ेगी. सबकुछ समझना पड़ेगा, तभी आप समझ सकते हैं कि यह जंच रहा है या नहीं. फ्यूजन की सब से बड़ी चुनौती यही है कि क्या नहीं करना चाहिए.

स्टूडियो सिस्टम का संगीत पर कितना असर हुआ है?

मैं उन के साथ काम नहीं कर सकता जिन से संबंध न हो. जिन के साथ मेरी कैमिस्ट्री हो, उन के साथ ही काम कर पाता हूं. जहां बहुत ज्यादा प्रोफैशनलिज्म होता है, वहां काम कर पाना मुश्किल होता है. जब सारा काम आर्गैनिकली हो तभी वह काम अच्छा होता है. संगीत बनाना कोई कैलकुलेशन नहीं बल्कि इमोशनल यात्रा है. पश्चिम बंगाल में मैं स्टूडियो के साथ काम करता हूं.

आप खुद को कहां संतुष्ट पाते हैं?

तबला बजाने व संगीत देने में आनंद आता है. मैं खुद को अभिनेता नहीं मानता. मेरी पत्नी अभिनेत्री हैं. मैं ने 3 फिल्मों में म्यूजीशियन के रूप में अभिनय किया है जबकि 35 फिल्मों में अभिनय करने से मना कर चुका हूं क्योंकि उन में म्यूजीशियन का किरदार नहीं था. मेरा काम संगीत है. अगर मेरा अभिनय करना संगीत को मदद करता है, तो मैं अभिनय करता हूं.

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3 Idiots के ‘दुबे जी’ यानी Akhil Mishra का हुआ निधन, 58 साल की उम्र में ली आखिरी सांस

Akhil Mishra death : हिन्दी सिनेमा के जाने माने एक्टर ‘आमिर खान’ की फिल्म ‘3 इडियट्स’ के हर एक किरदार को दर्शकों का खूब प्यार मिला था. उऩकी इस फिल्म के छोटे से छोटे रोल ने मूवी में जान ड़ाल दी थी. इसी में से एक किरदार था लाइब्रेरियन ‘दुबे जी’ का, जिसको अभिनेका ”अखिल मिश्रा” ने बखूबी निभाया था. लेकिन अब आगे से हम उन्हें किसी भी और फिल्म में नहीं देख पाएंगे.

दरअसल, 3 इडियट्स (3 Idiots) के ‘दुबे जी’ यानी ”अखिल मिश्रा” का निधन हो गया हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक्टर अखिल की मौत अपने घर की किचन में फिसलकर गिरने की वजह से हुई है. हालांकि जब उनकी मौत (Akhil Mishra death) हुई तो तब उनकी पत्नी सुजैन बर्नर्ट उऩके साथ घर पर नहीं थी. वह मंबई से बाहर हैदराबाद शूट कर रही थी. उन्हें जैसे ही यह खबर मिली वो तुरंत वापस मंबई लौट आई.

मौत की आधिकारिक वजह सामने नहीं आई

आपको बता दें कि एक्टर ”अखिल मिश्रा” (Akhil Mishra death) ने मात्र 58 साल की उम्र में अंतिम सांस ली है. जैसे ही एक्टर की मौत की पुष्टि हुई वैसे ही उनके शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया. हालांकि अभी तक उनकी मौत की आधिकारिक वजह सामने नहीं आई है. लेकिन कहा ये ही जा रहा है कि जब वो किचन में कुछ काम कर रहे थे तो उनका पैर फिसलगया और वो जमीन पर गिर गए. तभी उनकी मौत हो गई.

टीवी से लेकर फिल्मों में किया है काम

आपको बताते चलें कि एक्टर ”अखिल मिश्रा” (Akhil Mishra death) ने फिल्मों में काम करने के साथ-साथ कई टीवी शोज में भी काम किया हैं. लेकिन उन्हें पहचान ‘3 इडियट्स’ (3 Idiots) में लाइब्रेरियन दुबे जी के किरदार से ही मिली थी. इस फिल्म में उनकी, एक्टर आमिर खान से हुई नोक झोंक को खूब पसंद किया गया था.

Fukrey 3 के मेकर्स ने Choo CPT को किया लॉन्च, इस तरह कर सकेंगे ‘चूचा’ से बात

Fukrey 3 : बॉलीवुड की ‘फुकरे’ फ्रेंचाइजी को लोगों का खूब प्यार मिला है. ये फिल्म अपनी कॉमेडी से हर बार दर्शकों का दिल जीतती है. इसके पहले रिलीज हुए दोनों पार्ट्स अब तक लोगों को हंसाते हैं. इसके अलावा इस फिल्म के मजेदार कैरेक्टर भोली पंजाबन, चूचा, हनी, लाली और पंडित ने लोगों को खूब हंसाया है. लोगों से मिलते अपार प्यार को देखते हुए फुकरे के मेकर्स ने इसकी तीसरी किस्त भी बना ली है. जो रिलीज होने को पूरी तरह से तैयार हैं.

बीते दिनों ‘फुकरे 3’ (Fukrey 3) का ट्रेलर और एक गाना जारी किया गया, जिसे लोगों से पॉजिटिव रिस्पॉन्स मिला है. वहीं अब फिल्म के मेकर्स ने एक अनोखा कदम उठाते हुए लोगों के फेवरेट किरदार ‘चूचा’ पर आधारित ‘चू सीपीटी’ नाम का एक मजेदार टूल बनाया है.

Chat GPT की दुनिया में हुई ‘चूचा’ की एंट्री

आपको बता दें कि ‘फुकरे 3’ (Fukrey 3) के मेकर्स ने एआई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए ‘चू सीपीटी’ नामक एक टूल लॉन्ज किया है. यह एक ऐसा प्लेटफॉर्म है. जहां लोग फुकरा कैरेक्टर ‘चूचा’ से बात कर सकेंगे. चाहे वो कहीं भी हों. फैन्स अपना हर सवाल ‘चूचा’ से पूछ सकते हैं, जिसका उन्हें जवाब भी मिलेगा.

गौरतलब है कि फिल्म मार्केटिंग का यह एक इनोवेटिव तरीका है, जिसके बारे में आज से पहले न तो कभी सुना गया और न ही कभी कुछ ऐसा देखने को मिला.

इस दिन रिलीज होगी ‘फुकरे 3’

आपको बताते चलें कि डायरेक्टर मृगदीप सिंह के डायरेक्शन में बनी कॉमेडी फिल्म ‘फुकरे 3’ (Fukrey 3) को 6 साल के लंबे इंतजार के बाद दर्शकों के बीच लाया जा रहा हैं. ये फिल्म, निर्माता फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी के एक्सेल एंटरटेनमेंट बैनर तले बनाई गई है. जो 28 सितंबर 2023 को बड़े पर्दे पर दस्तक देगी. इसमें एक बार फिर दर्शकों को एक्टर पुलकित सम्राट, पंकज त्रिपाठी, ऋचा चड्ढ़ा, वरुण शर्मा और मनोजत सिंह की जुगलबंदी देखने को मिलेगी.

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टीकू की करनी : किसने और क्यों लगाया अपने परिवार को दांव पर ?

14 साल की बीना एक बहुत ही सुलझी और समझदार लड़की थी. उस का एक गरीब परिवार में जन्म हुआ और अपने मां, बाबा और बड़े भाई टीकू के साथ शहर के कोने में बसी एक छोटी सी झुग्गी में रहती थी.

बीना के बाबा और भाई टीकू कोई काम नहीं करते. बीना अपनी मां के साथ घरों में साफसफाई का काम कर कुछ पैसे कमा लाती और जैसेतैसे घर का गुजारा होता.

मां टीकू को काम करने के लिए बहुत समझाती, पर उस के कानों पर जूं तक न रेंगती. सारा दिन झुग्गी के आवारा लड़कों के साथ टाइमपास कर के रात को घर आ कर मां पर धौंस जमाता. बाबा का तो महीनों कुछ पता ही नहीं रहता था.

झुग्गी के पीछे की तरफ सरकारी फ्लैट्स बने थे. उन्हीं फ्लैटों में रहने वाली अनीता के यहां बीना काम करने जाती थी. काम करने के बाद बीना अनीता की छोटी बेटी नीला के साथ थोड़ीबहुत बातचीत करती और उस से नईनई बातें सीखती.

नीला को देख बीना का मन भी पढ़ने के लिए करता था. वह भी दूसरी लड़कियों की तरह हंसीखुशी रहना चाहती थी. पढ़लिख कर अपनी मां के लिए कुछ करना चाहती थी, पर घर के हालात और गरीबी इन सब के बीच में सब से बड़ा रोड़ा थी.

अनीता का घर छोटा सा ही था. घर में रसोई, बाथरूम और 2 ही कमरे थे. पूरा घर साफसुथरा और करीने से सजा था. एक बालकनी थी, जिस में अनीता ने गमले लगा रखे थे. इन गमलों में छोटेछोटे पौधे थे. दोचार कटोरों में चिड़ियों के लिए दानापानी रखा था. चिड़िया भी बड़े मजे से इन कटोरों से चुगने आतीं और पानी पीतीं. बालकनी की दीवार पर अनीता की बेटी नीला के हाथ की बनी दोचार पेंटिंग्स लगी थीं.

बीना अनीता के घर का सारा काम निबटा कर थोड़ी देर के लिए बालकनी में पड़ी कुरसी पर बैठ कुछ वक्त बिताती. यहां उसे बड़ा ही सुकून मिलता.

बालकनी में बैठ बीना भी सोचती कि काश, मेरा घर भी ऐसे ही होता और वह भी अपने घर में ये सब गमले और पौधे लगा पाती.

तभी अनीता ने बीना को आवाज लगाई और उसे एक थैला देते हुए कहा, “बीना, इस थैले में चादर, दरी, चुन्नी और कुछ घर का सामान है, तू ले जाना. कुछ काम आए तो रख लेना, नहीं तो झुग्गी में बांट देना. और हां, काम हो गया हो तो अब तुम जाओ. मुझे भी अब आराम करना है.”

“हांहां आंटी, मैं जा रही हूं. आप दरवाजा बंद कर लो,” अनीता के हाथ से सामान का थैला ले बीना घर की ओर चल दी.

घर पहुंचतेपहुंचते शाम के 5 बज गए थे. मां अभी तक घर नहीं आई थी. बीना ने मां के आने तक रात के खाने की तैयारी कर ली. मां ने आ कर रोटी बनाई.

बीना और मां ने खाना खाया और मां जल्दी ही सो गईं और बीना भी झुग्गी के बाहर लगी लाइट की रोशनी में नीला से लाई किताब के रंगीन चित्र देखते हुए जमीन पर बिछी फटीपुरानी दरी पर ही सो गई.

सुबह उठ कर बीना ने मां से कहा, “मां, आज मैं काम पर नहीं जाऊंगी. तबीयत ठीक नहीं है. आज कुछ आराम करूंगी.”

“ठीक है बीना, जैसी तेरी मरजी,” कह कर मां काम पर चली गई.

मां के जाने के बाद बीना ने अपने लिए चाय बनाई और डब्बे में पड़ी रात की बची रोटी खा कर जमीन पर बिछी दरी पर लेट गई. लेटे हुए छत तकते हुए अचानक उठी और अनीता का दिया थैला खोला और उस में से सारा सामान बाहर निकाला.

बीना ने घर पर पड़े पुराने संदूक को कमरे में एक कोने में लगाया और उस पर घर में फैले पड़े चादर, तकिए लपेट कर रखे. बीना ने अनीता की दी हुई चादर करीने से संदूक पर बिछा दी. झोले दीवार पर टांग दिए.

कमरे को अच्छे से साफ कर बीना ने अनीता की दी हुई पुरानी दरी जमीन पर बिछा दी. कोने में पड़ी पुरानी सी चौकी पर अनीता की दी हुई चुन्नी बिछाई और चौकी को संदूक के आगे टेबल की तरह दरी पर रख दिया. थैले से निकली एक पुरानी सी पेंटिंग को दीवार पर टांग दिया. कमरे में फैला सारा सामान करीने से रख दिया.

बस इतना करने से ही बीना का कमरा सुंदर लगने लगा और वह मन ही मन बहुत खुश हो गई.

तभी पड़ोस की लता आंटी बीना के कमरे में आई और चौंकती हुई बोली, “अरे बीना, यह तेरा ही कमरा है क्या? बहुत साफ और सुंदर लग रहा है.”

“हांहां, मेरा ही कमरा है. बस थोड़ा ठीकठाक किया है,” बीना ने खुशी से कहा.

शाम को मां जब काम से लौटी, तो कमरे की हालत देख खुश हो गई और बीना को आवाज लगाई, “अरे बीना, तू ने तो बहुत ही सुंदर कर दिया कमरा, बिलकुल फ्लैटों जैसा… इसीलिए आज काम से छुट्टी की थी तू ने.”

“हां मां, मेरा भी मन करता है कि मैं भी अपने घर को सुंदर रखूं. वह फ्लैट वाली नीला की मम्मी अनीता आंटी ने कुछ सामान दिया था. बस, उस से ही थोड़ा सा ठीकठाक किया है,” बीना ने मां का हाथ पकड़ते हुए कहा.

“हां, मन तो मेरा भी करता है, पर तू तो जानती ही है कि इन सब के लिए पैसा और वक्त दोनों चाहिए. वक्त तो निकाल भी लो, पर पैसे? पर जो भी है बीना, आज कमरे को देख अच्छा लग रहा है,” मां ने खुश होते हुए कहा.

रात को टीकू कमरे में आया और आंखें फाड़ कर कमरे के बदले रूप रंग को देखता रहा और बोला, “भई, यह कमरा अपना ही है? किस ने किया है यह सब?”

“मैं ने किया है. कोई दिक्कत?”बीना ने कहा.

“अरे नहीं, नहीं, एक नंबर का चकाचक लग रहा है. अमीरों वाली फीलिंग आ रही है.

“अरे हां अम्मां, मैं सुबह 10-15 दिनों के लिए अपने दोस्तों के साथ कहीं जा रहा हूं. मुझे अब नींद भी आ रही है. जल्दी से कुछ खाने को दे दे,” टीकू बोला.

टीकू सुबह दोस्तों के साथ निकल लिया और बाबा का तो कई महीनों से कुछ पता ही न था.

बीना भी मां के साथ सुबह काम पर निकल गई और अनीता के फ्लैट पर पहुंची. अनीता बालकनी में लगे पौधों की काटछांट कर रही थी और गमलों में से कई पौधों की कटिंग फेंक दी थी.

“आंटी, ये कटिंग्स मैं ले लूं?”

“तुम इन का क्या करोगी?”

“मैं भी इन्हें अपने कमरे के बाहर मिट्टी में लगा लूंगी. मेरा बहुत मन करता है पौधे लगाने का. ”

“अच्छा तो ये दोचार गमले भी ले जा. वैसे भी मुझे बदलने हैं ये.”

“ठीक है आंटी. शाम को काम से लौटते हुए मैं ले जाऊंगी,” बीना ने चहकते हुए कहा.

अनीता के घर से शाम को गमले और पौधों की कटिंग्स ले कर बीना झुग्गी पहुंची. गमलों में कटिंग्स लगा कर गमले झुग्गी के बाहर रख दिए.

पौधे गमलों में कई दिन तक यों ही मुरझाए पड़े रहे. बीना रोजाना काम पर आतेजाते गमलों को देखती और उदास हो जाती और सोचती, ‘मैं तो पानी भी डालती हूं गमलों में, फिर पौधे मर क्यों गए? क्या गरीबों के यहां पौधे भी नहीं होते?’

कई दिनों तक गमले ऐसे ही पड़े रहे. बीना भी नाउम्मीद हो चुकी थी. शाम को काम से झुग्गी पहुंची तो गमले में मनीप्लांट की छोटी सी पत्ती उगती दिखी. बीना की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था.

कुछ ही महीनों में मनीप्लांट की बेल बीना की झुग्गी के दरवाजे के ऊपर फैल गई. अब बीना की झुग्गी दूर से ही दिख जाती. पौधों और मनीप्लांट के कारण पूरी बस्ती में बीना की झुग्गी की अलग ही पहचान बन गई थी.

बीना को लगता जैसे वह भी अनीता जैसे ही फ्लैट में रह रही हो. उसे अपनी झुग्गी फ्लैटों से भी अच्छी लगने लगी. काम खत्म कर वह जल्दी ही अपने घर पहुंचने की करती और बड़े ही चाव से अपने कमरे को सजाती, पौधों में पानी डालती, कमरे की ड्योढ़ी पर बैठ पौधों से बातें करती.

बीना की खुशी उस के चेहरे से साफ झलकती थी. उस की आसपड़ोस की सहेलियां भी गमलों के पास आ बैठतीं और सब खूब बतियातीं.

शाम को काम से वापस आ कर बीना और उस की मां खाना खा रही थीं, तभी बाहर खूब शोर होने लगा. मां ने बाहर जा कर देखा तो चारों ओर पुलिस ही पुलिस थी.

पड़ोस की लता आंटी से बीना ने पूछा, “यह क्या हो रहा है?”

“कुछ लड़कों को ढूंढ़ रहे हैं ये पुलिस वाले. सामने वाले महल्ले में पत्थरबाजी की है उन लड़कों ने. अब ये हर झुग्गी की तलाशी ले रहे हैं,” लता आंटी ने कहा, “पूरी रात झुग्गी में तलाशी चलती रही.”

सुबह बीना मां के साथ काम के लिए निकल गई. दोपहर के करीब मां बीना के पास घबराती हुई अनीता के फ्लैट पर उसे लेने पहुंची.

डोर बैल बजने पर अनीता ने दरवाजा खोला. सामने बीना की मां खड़ी थी.

“क्या हुआ? इतनी घबराई हुई क्यों हो तुम?” अनीता ने बीना की मां से पूछा.

“तुम बीना को भेज दो मेरे साथ. झुग्गी में पुलिस आई हुई है और तलाशी ले रहे हैं. पड़ोसन ने मुझे बताया है कि पुलिस वाले मेरी झुग्गी की तलाशी लेने के लिए मेरा इंतजार कर रहे हैं. बस जल्दी से बीना को भेजो,” बीना की मां ने एक ही सांस में सारी बात अनीता को बताई.

“चलो, चलो मां,” बीना मां का हाथ पकड़ फ्लैट से अपनी झुग्गी की ओर दौड़ पड़ी.

बस्ती में दूर से ही पुलिस वाले नजर आ रहे थे. बस्ती के अंदर बीना की झुग्गी के आसपास लोगों की भीड़ लगी थी.

बीना और मां के पहुंचते ही एक पुलिस वाले ने बीना की मां को अपनी ओर बुलाया और पूछा, “हां अम्मां, यह फोटो देखो और बताओ कि इसे जानती हो तुम?”

“हांहां, यह तो मेरा लड़का टीकू है,” मां ने कहा.

“तुम्हारा लड़का सामने महल्ले में हुई पत्थरबाजी में शामिल था. करोड़ों का नुकसान हुआ है. हमारे पास और्डर हैं. पत्थरबाजी में शामिल सभी लड़कों की झुग्गी पर बुलडोजर चलेगा आज. अपना कोई सामान है, तो निकाल लो झुग्गी में से,” पुलिस वाले ने कड़कती आवाज में कहा.

यह सब सुनते ही बीना और उस की मां के होश उड़ गए. गलती टीकू की थी, पर आज के अन्यायी समाज ने पूरे घर को बेघरबार कर दिया और वह भी इसलिए कि पुलिस और शासन अपने हाथ में असीम ताकत रखते हैं.

बीना और उस की मां तो क्रूर शासकों के लिए चींटी जैसे हैं. बिना टीकू को अदालत द्वारा दोषी ठहराए उसे तो गिरफ्तार कर लिया, पूरे परिवार को बिना दोष के सजा दे दी. पुलिस वालों के सामने दोनों खूब गिड़गिड़ाने लगीं, पर इस से तो पुलिस की हिम्मत बढ़ती है कि वह सर्वशक्तिमान है और कोई भी चूंचपड़ करेगा, उन के बुलडोजर और सिस्टम रौंद देंगे.

भीड़ को तितरबितर कर पुलिस वाले ने बीना की झुग्गी पर बुलडोजर चलाने का हुक्म दिया. मां के कंधे पर सिर रख बीना दहाड़ें मार चीखती रही, पर किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया. बीना की आंखों के सामने मिनटों में ही उस की झुग्गी, गमले, मनीप्लांट सब मिट्टी में मिल गए. मलबे में चादर, चुन्नी दबे दिख रहे थे.

बीना यह सब देख जमीन पर बेहोश हो कर गिर पड़ी. मां बीना को गोद में लिए वहीं जमीन पर बैठ गई. बीना की फ्लैट जैसी झुग्गी का दूरदूर तक अतापता न था.

बेसिरपैर के हिंदी गाने

संडे के दिन मैं शाम को चाय की चुस्की लेतेलेते टीवी देख रही थी. टीवी पर रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण की फिल्म ‘ये जवानी है दीवानी’ आ रही थी. फिल्म की कहानी बहुत अच्छी लग रही थी. इस फिल्म को देखते हुए मुझे अपने दोस्तों की याद आने लगी. फिल्म के इंटरवल के बाद रणबीर कपूर का एक गाना आता है. जिस का शीर्षक है, ‘बदतमीज दिल…’ इस के बोल कुछ इस तरह हैं, ‘पान में पुदीना देखा, नाक का नगीना देखा, चिकनी चमेली देखी, चिकना कमीना देखा, चांद ने चीटर हो के चीट किया तो सारे तारे बोले गिल्लीगिल्ली अख्खा…’ मतलब कुछ भी.

चिकनी चमेली, चिकना कमीना तो फिर भी ठीक है लेकिन चांद ने चीटर हो के चीट किया तो सारे तारे बोले गिल्लीगिल्ली अख्खा का मतलब, भई कहना क्या चाहते हैं? चांद जिस ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि 2013 में एक गाना आएगा जो उसे चीटर कहेगा.

बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. इसी गाने के आगे के बोल हैं, ‘सारे तारे बोले गिल्लीगिल्ली अख्खा.’ अब कोई बताओ, इस का क्या ही मतलब बनता है. तारों के पास कोई काम नहीं है क्या कि वे बस यही कहें गिल्लीगिल्ली अख्खा. वैसे, इस गिल्लीगिल्ली अख्खा का मतलब क्या है, यह सम   झना भी मुश्किल है. इस बोल की यहां क्या ही जरूरत है?

हालांकि गाने का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है. गाने में रणबीर स्मार्ट के साथसाथ हौट और सैक्सी भी लग रहे हैं. यह भी सच है कि रणबीर से नजर हटाना आसान नहीं है. हर लड़की की चाहत होती है कि उस का पार्टनर रणबीर जैसा दिखता हो, ऐट लीस्ट, ऐसा लुक तो जरूर हो.

गानों में शोशाबाजी

जब यह गाना आया था तो हर लड़की अपनेआप को नैना और हर लड़का खुद को बनी इमेजिन करने लगा था. बनी और नैना इसी मूवी के दीपिका और रणबीर के कैरेक्टर्स के नाम हैं. सभी ने इस गाने को खूब एंजौय किया. लेकिन क्या किसी ने इस के बोलों पर ध्यान दिया? नहीं न.

ऐसा इसलिए क्योंकि सारा ध्यान तो गाने के फिल्मांकन, रणबीर, दीपिका की ड्रैस या कहें कि लुक पर था. जिन्होंने भी गाने को देखा उन्होंने इस की वाइब्स को एंजौय किया. गाने के बोल पर तो किसी ने गौर ही नहीं किया. फिल्म निर्माता, निर्देशक यह भलीभांति जानते हैं कि इस पीढ़ी को लिरिक्स से कोई मतलब नहीं है. ये लोग बस फैशन देखते हैं और उसे ट्रैंड बना देते हैं और वैसे भी आखिर में ये गाने इंस्टाग्राम रील और यूट्यूब शौट्स पर जो देखे जाने हैं. सो, क्या ही फर्क पड़ता है लिरिक्स से, कुछ भी लिख दो.

यह सिर्फ अकेला गाना नहीं है जिस के बोल बेसिरपैर के हैं. ऐसे गानों से बौलीवुड की फिल्में भरी पड़ी हैं लेकिन फिर भी लोग न सिर्फ इन्हें सुनते हैं बल्कि इन पर बड़ीबड़ी स्टेज परफौर्मेंस भी देते हैं. इसी साल एक और फिल्म आई थी जिसे डायरैक्ट किया था संजय लीला भंसाली ने और ऐक्टर ऐक्ट्रैस थे रणवीर सिंह व दीपिका पादुकोण. इस फिल्म का नाम था, ‘गोलियों की रासलीला : राम लीला’.

इस का एक गाना है, ‘ततड़ततड़…’ इस के बोल कुछ इस तरह हैं, ‘रामजी की चाल देखो, आंखों की मजाल देखो, करें ये धमाल देखो, अरे दिल को तुम संभाल देखो….’ यह क्या गाना हुआ ततड़ततड़ बतड़बतड़ और इस ततड़ततड़ बतड़बतड़ के पीछे हजारों की संख्या में लड़कियां नाच रही हैं. इतने से भी दिल नहीं भरा तो हीरो की शर्ट उतार दो. बाल लहरा दो. बस, हो गया काम. गाना हिट. कितना सही फार्मूला है, नहीं? असल में फिल्म निर्माता जानते हैं कि औडियंस को क्या चाहिए. वे जानते हैं कि दर्शक म्यूजिक और अच्छा फैशन सैंस चाहते हैं, अच्छे लिरिक्स नहीं.

बस, इसी बात का फायदा उठा कर वे गाने में कुछ भी भर देते हैं या कहें लिख देते हैं. औडियंस भी बस लगा रहता है उसे दिनरात सुनने में. लेकिन कोई उस के आड़ेटेढ़े बोलों पर सवाल नहीं उठाता. कोई यह नहीं पूछता कि आप ने गाने में जो लिखा है, आखिर उस का मतलब क्या है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस तरह के गाने हाल ही के कुछ सालों में बनने शुरू हुए हैं. ये बेसिरपैर के गानों की लिस्ट सालों पुरानी है.

ऊटपटांग शब्दों का प्रयोग

साल 2000 में अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, परेश रावल और तब्बू स्टारर फिल्म ‘हेरा फेरी’ आई थी. यह फिल्म दर्शकों द्वारा आज भी बेहद पसंद की जाने वाली फिल्मों में शामिल है. तभी इस का पार्ट 2 भी बना. यहां फिल्म की बात नहीं, हम बात करेंगे ‘हेरा फेरी’ पार्ट 1 के एक गाने की. इस फिल्म का एक गाना है, ‘मैं लड़का पोंपोंपों…’ इस गाने के बोल हैं,  ‘मैं लड़की पोंपोंपों तू लड़का पोंपोंपों…’ इस गाने में विरामचिह्न की जगह पोंपोंपों शब्द का इस्तेमाल किया गया है. इस गाने में तब्बू रूठे हुए सुनील शेट्टी को मनाने की कोशिश कर रही है और मनाने के लिए वह गाना गा रही है. जिस में पोंपों शब्द आ रहा है.

सोचने वाली बात तो यह है कि इस ‘पोंपोंपों’ या यह भी कह लें कि खोंखोंखों, खोंखोंखों का मतलब क्या है. कितना अजीब लग रहा है यह सुनने में. गाने में इस शब्द की जरूरत क्या ही है. यह सम   झना अपनेआप में बहुत मुश्किल है.

‘खामोश’ डायलौग से देशदुनिया में फेमस होने वाले शत्रुघ्न सिन्हा की बिटिया सोनाक्षी सिन्हा की डैब्यू फिल्म ‘राउडी राठौर’ का गाना ‘चिंता ता चिता चिता’ तो आप सभी को याद ही होगा. हालांकि सभी को यह गाना पसंद बहुत आया था. लेकिन इस गाने के बोल ‘चिंता ता चिता चिता’ ने सभी को चिंता में डाल दिया. वे इस सोच में पड़ गए कि अगर इस तरह के गाने के बोल बनने लगे तो भविष्य में बनने वाले गानों के बोल क्या होंगे.

कहने का मतलब यह है कि गाने के नाम पर कुछ भी लिख दिया जाएगा. किसी दिन किसी गाने के बोल में कुछ ऊटपटांग सुनने को मिले तो इस में हैरान होने वाली कोई बात नहीं होगी. हो सकता है कि राइटर के पास लिखने के लिए कोई शब्द ही न हों, इसलिए उस ने कुछ भी लिख दिया हो या यह भी हो सकता है कि उस वक्त जो भी उस के दिमाग में आया हो उस ने वह सब लिख कर अपना काम खत्म किया हो और सारा कार्यभार छोड़ दिया हो उस गाने के ऐक्टर ऐक्ट्रैस पर.

‘चिंता ता चिता चिता…’ गाने पर संगीत समीक्षक रोहित मेहरोत्रा का कहना है, ‘‘ऐसे बिना मतलब के बेहूदा लिरिक्स लिखना नई बात नहीं है. हो सकता है कि संगीतकार और गीतकार को एकदम से कुछ सू   झा और उस ने लिख दिया.’’ वे आगे बताते हैं, ‘‘कई गानों में लिरिक्स और वीडियो में कोई मेल नहीं होता, कोई तुक नहीं होती फिर भी वे गाने हिट हो जाते हैं.’’

सवाल यह कि ऐसे गाने आखिर क्यों बनाए जाते हैं. इस विषय पर रोहित मेहरोत्रा का कहना है, ‘‘ऐसे गाने इसलिए बनाए जाते हैं ताकि लोगों का ध्यान इन पर जाए और बाकी गानों से ये गाने कुछ अलग लगें.’’

बेसिरपैर के गानों में बौलीवुड के खान भी पीछे नहीं रहे हैं. बौलीवुड के भाईजान कहे जाने वाले सलमान खान की हालिया फिल्म ‘किसी का भाई किसी की जान’ का गाना ‘लेट्स डांस छोटू मोटू…’ चर्चा में रहा. इस गाने को सुनने के बाद यह सम   झ आएगा कि यह कोई गाना नहीं है. यह तो नर्सरी राइम्स का पुलिंदा है, जिस में ढेर सारी राइम को उठा कर गाने की शक्ल दे दी गई है. इसे सुन कर ऐसा लगता है कि जैसे राइटर साहब नर्सरी की राइम बुक पढ़ रहे हों और पढ़तेपढ़ते उन्होंने यह गाना लिख दिया हो.

जब यह गाना लौंच हुआ था तभी से इस गाने के बोल चर्चा का विषय बन गए थे. इस गाने को ले कर अलगअलग लोगों की अलगअलग राय रही. कुछ लोगों ने इसे फनी गाना कहा तो कुछ ने बेहूदा. वहीं कुछ लोगों ने इसे बचकाने बोल और क्रिंज डांस की वजह से जम कर ट्रोल किया. कुछ लोगों का तो यहां तक भी कहना है कि यह गाना नर्सरी राइम्स से भी बदतर है.

सोशल साइट पर इस गाने को जम कर ट्रोल किया गया. कुछ लोग कह रहे हैं कि यह गाना देखने के बाद उन्हें हार्पिक से अपनी आंखें और कान धोने की जरूरत है. एक यूजर ने सचमुच गाने के बोल दोबारा लिखे और फिल्म को ट्रोल किया. उन्होंने लिखा, ‘‘मु   झे अब अपने स्वयं के गीत आजमाने दीजिए : गीत की धुन के साथ पढ़ें :

‘ट्विंकलट्विंकल लिटिल स्टार, सल्लू ऐसा क्यों कर रहा यार, तुम प्यार के लिए बहुत बूढ़े हो, फिल्म पहले से ही बेकार लग रही है.’

एक अन्य यूजर ने इस गाने पर कमैंट करते हुए कहा, ‘मैं नहीं कर सकता यार.. वे इस बकवास पर कैसे नाच रहे हैं.’ लेकिन इन सब से परे कुछ अच्छे गाने भी हैं जिन की अनदेखी करना बिलकुल भी सही नहीं होगा. इन गानों को सुन कर इन की तारीफ किए बिना रहा नहीं जाएगा.

अच्छे गानों की अहमियत

इन गानों की लिस्ट में प्रसून जोशी का फेमस गाना जैसे- ‘आंखों की डिबिया में निंदिया और निंदिया में मीठा सा सपना और सपने में मिल जाए फरिश्ता सा कोई…’ बहुत अच्छे बोल वाला गाना है. यह गाना आमिर खान की फिल्म ‘तारे जमीन पर’ का है. इसी तरह ‘मणिकर्णिका’ फिल्म का एक गीत जिस के बोल कुछ इस तरह हैं, ‘मेरी नसनस तार कर दो, स्वानंद किरकिरे का…’, ‘काई पो चे’ का ‘शुभारंभ हो शुभारंभ मंगल बेला आई…’ और ‘तनु वेड्स मनु’ का ‘ऐ रंगरेज मेरे…’ जैसे अच्छे लिरिक्स हैं.

बात करें अगर हालिया रिलीज फिल्म की तो ऐसे भी कुछ गाने हैं जिन के बोल अच्छे बन पड़े हैं, जैसे ‘तू    झूठी मैं मक्कार’ का गाना ‘ओ बेदर्दिया…’, ‘जरा हटा के जरा बच के’ फिल्म का गाना ‘तू है तो फिर और मु   झे क्या चाहिए…’, ‘सत्यप्रेम की कथा’ का गाना ‘तुम मेरी रहना और नसीब से…’, ‘रौकी और रानी’ की प्रेमकहानी का गाना ‘तुम क्या मिले…’ आदि.

गाने हमारी लाइफ का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गाने एक थेरैपी का भी काम करते हैं. ये हमारे माइंड को फ्रैश रखते हैं. ये हमारा स्ट्रैस रिलीज करते हैं और हमारी फीलिंग्स को बयां करते हैं.

हमारी लाइफ में गाने क्यों जरूरी हैं, इस बारे में दिल्ली यूनिवर्सिटी के हंसराज कालेज में पढ़ने वाला 20 साल का नवीन पटनायक कहता है, ‘‘मु   झे और मेरी पार्टनर को गाने सुनना बहुत पसंद है. हम अकसर अपनी फीलिंग्स एकदूसरे को बताने के लिए गानों का इस्तेमाल करते हैं. मैं कभी रोमांटिक होता हूं तो अपनी पार्टनर के लिए प्यारभरे गाने गाता हूं, जैसे ‘जब हैरी मेट सेजल’ मूवी का गाना ‘हवाएं’ है जिस के बोल है ‘मैं जो तेरा न हुआ किसी का नहीं… किसी का नहीं,’ ये बोल सुन कर मेरी गर्लफ्रैंड मु   झे बांहों में भर लेती है और हम प्यारभरे एहसास में डूब जाते हैं.’’

वह आगे कहता है, ‘‘गानों का हमारी लाइफ में होना बहुत जरूरी है. इस के बिना हम अपनी बातों को एक्सप्रैस नहीं कर पाते. मानिए किसी को इंप्रैस करना हो तो गाने की चंद लाइनें गाई जा सकती हैं. इसे एक उदाहरण से सम   झा जा सकता है. हाल ही में विक्की कौशल और सारा अली खान की एक फिल्म का एक गाना है जो म्यूजिक लवर्स की जबान पर सिर चढ़ कर बोल रहा है. इस गाने के बोल हैं ‘तेरे वास्ते फलक से मैं चांद लाऊंगा सोलहसत्तरह सितारे संग बांध लाऊंगा….’ इस गाने से हर वह व्यक्ति खुद को रिलेट कर पाएगा जो प्यार में है.

गाने मैलोडी की तरह

28 वर्षीया आकृति मौर्या, जो एक वौइस आर्टिस्ट है, बताती है, ‘‘गाने मेरी लाइफ में रस घोलने का काम करते हैं. बिना गानों के मैं अपनी लाइफ इमेजिन भी नहीं कर सकती. आप मु   झे एक म्यूजिक लवर भी कह सकते हैं.’क्ष् वह आगे बताती है,’’ लड़के यह अच्छी तरह से जानते हैं कि लड़कियों को गाने बहुत पसंद होते हैं.

‘‘यही वजह है कि वे गानों के जरिए उन्हें इंप्रैस करने की कोशिश में लगे रहते हैं और यह काम भी करता है. मु   झे मेरे बौयफ्रैंड ने जब प्रपोज किया था तो उस ने मेरा औलटाइम फेवरेट सौंग गाया था और हम ने साथ डांस भी किया था. वह मेरे लिए यादगार पल था. आज भी जब मैं वह गाना सुनती हूं तो मु   झे अपना प्रपोजल डे याद आ जाता है.’’

गाने न सिर्फ इंप्रैस और प्यार का इजहार करने का काम करते हैं बल्कि ये हमें चीयर्स करने का काम भी करते हैं. इस का एक अच्छा उदाहरण फिल्म ‘वेक अप सिड’ का गाना ‘आजकल जिंदगी’ है जिस के बोल हैं, ‘आजकल जिंदगी मु   झ से है कह रही…’ यह गाना आप को लाइफ के लिए चीयर्स करने का काम करेगा. वहीं फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ का गाना ‘जिंदा…’ आप को एनर्जी से भर देगा. वहीं कुछ सौंग्स हमें जिंदगी के बुरे दौर से बाहर निकालने में भी हैल्प करते हैं जैसे, फिल्म ‘डियर जिंदगी’ का गाना ‘लव यू जिंदगी…’ इस के अलावा ये हमारी खुशी के साथी भी होते हैं.

अगर फिल्मी गानों की बात की जाए तो बिना गानों के फिल्में वीरान सी होती है. कभी आप बिना गाने के किसी फिल्म को देखिए, आप को फिल्म में कुछ कमी सी लगेगी या फिर मजा नहीं आएगा. गाने फिल्मों में जान डालने का काम करते हैं. वहीं कई बार फिल्मों में गाने के नाम पर कुछ भी परोस दिया जाता है. कई गाने तो ऐसे भी होते हैं जिन में शब्दों का कोई मेल नहीं होता. लेकिन फिर भी उन्हें दर्शकों के सामने परोस दिया जाता है. वैसे, फिल्ममेकर यह भलीभांति जानते हैं कि औडियंस को यह गाना जरूर पसंद आएगा और होता भी ऐसा ही है. बस, एक बार ये गाने इंस्टाग्राम रील्स में आ गए. उस के बाद तो ये फेमस हो जाते हैं.

दरअसल उन्हें यह अच्छी तरह पता है कि लोग म्यूजिक को ज्यादा एंजौय करते हैं बजाय उस के बोलों के. गाने में म्यूजिक का शोर इतना तेज कर दिया जाता है कि गाने के बोल म्यूजिक के नीचे दब जाते हैं. इस के बाद म्यूजिक की बस धकधक सी कानों में पड़ती है. यही वजह है कि राइटर गाने के नाम पर कुछ भी लिख देते हैं और औडियंस मस्त हो कर इन ऊटपटांग के बोल भरे गानों पर थिरकते रहते हैं.

आखिर क्या है मोटापे का परमानेंट इलाज ? जानें यहां

मोटापा आधुनिक सभ्यता की देन है. कुछ दशकों पूर्व तक भारतीय कुपोषण के शिकार थे, जबकि मोटापा केवल विकसित देशों में पाया जाता था. किंतु आज भारत में कुपोषण व मोटापा दोनों ही हैं. 2014 के ब्रितानी चिकित्सा जर्नल के अनुसार जहां 1975 में भारत मोटापे में 19वें स्थान पर था,

वहीं 2014 में महिलाओं के लिए तीसरे तथा पुरुषों के लिए 5वें स्थान पर पहुंच चुका था. भौतिक सुखसुविधाओं में फंस कर लोग खानपान, रहनसहन की गलत आदतों के कारण मोटापे से ग्रस्त हो रहे हैं, जिस की वजह से लाइफस्टाइल डिजीज अर्थात उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदयरोग, घुटनों की समस्या, पैरों में दर्द, महिलाओं में मासिकधर्म और बांझपन संबंधी परेशानियां हो रही हैं.

न्यूजीलैंड के औक्लैंड तकनीकी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार, दुनिया की करीब 76% आबादी मोटापे की शिकार है. केवल 14% आबादी ऐसी है जिस का वजन सामान्य है.

मोटापा कौन कम नहीं करना चाहता और कई बार लोग इसी चक्कर में कई झांसों में भी फंस जाते हैं. बसों, औटो में लगे इश्तिहार कि वजन कम करना चाहते हैं तो संपर्क करें, केवल लोगों को भ्रमित करते हैं. फिर शल्य चिकित्सा द्वारा भी वजन कम करने पर क्या गारंटी है कि वजन दोबारा नहीं बढ़ेगा.

यदि अपना खानपान, रहनसहन नहीं बदला तो अवश्य दोबारा मोटा होने में देर नहीं लगेगी. मगर घबराइए नहीं, मोटापा कम करना उतना कठिन भी नहीं है.

डा. एस के गर्ग मोटापे से बचे रहने के लिए निम्न सलाह देते हैं:

खूब पिएं पानी:

एक वैबसाइट के अनुसार जो लोग ज्यादा पानी पीते हैं वे अपना वजन दूसरों के मुकाबले जल्दी कम कर लेते हैं. इस का कारण यह है कि पानी से पेट भर जाता है, जिस से भूख कम लगती है और खाना कम खाया जाता है.

थोड़ीथोड़ी देर में खाते रहें:

एकसाथ बहुत अधिक खाने के बजाय, दिन भर थोड़ाथोड़ा खाते रहें. ऐसा करने से दिन भर शारीरिक शक्ति बनी रहती है. सीधे शब्दों में कहें तो जब भूख लगे तब खाना खाएं और जब पेट भर जाए तब रुक जाएं.

अपने शरीर की सुनें:

हम में से अधिकतर लोग बाहरी संकेतों के अनुसार खाना शुरू या पूरा करते हैं, जैसे हमारी थाली में खाना बचा तो नहीं या अन्य लोगों ने खाना खत्म किया या फिर दफ्तर में लंच टाइम हो गया. इस की जगह आंतरिक संकेतों पर ध्यान दीजिए. यह समझिए कि आप को भूख लगी है या नहीं और स्वाद में अधिक खाने से बचें. बड़ेबूढ़े स्वास्थ्य की कुंजी पेट ठूंस खाने को नहीं, अपितु थोड़ा सा भूखा रहने को बताते हैं.

भावुक खाने से बचें:

जब हम अधिक भावुक या खुश हों, परेशान हों या दुखी, तब हम आमतौर पर अधिक खाने लगते हैं. यह हमारे मन का अपनी स्थिति से आंख चुराने का एक मनोवैज्ञानिक तरीका होता है. दफ्तर में कार्यभार की डैडलाइन निकट हो या घर में बच्चों के अनुशासन को ले कर कोई समस्या, अकसर अपनी मानसिक परेशानी का हल हम खाने में ढूंढ़ने लगते हैं. भूख हो या नहीं, कुछ खाने का मन करने लगता है. इस से बचें, क्योंकि खाने से आप की समस्या का हल नहीं निकलेगा उलटा समस्या बढ़ेगी.

ट्रिगर फूड को कहें न:

कुछ खाने के पदार्थ ऐसे होते हैं जिन्हें खाते हुए हमारे हाथ रुक ही नहीं पाते हैं. चिप्स का पैकेट खोला तो जब तक वह खत्म नहीं हो जाता. हमारा मुंह चलता रहेगा. ऐसा ही हमारे साथ पेस्ट्री, पास्ता, डोनट, चौकलेट आदि खाते समय होता है. ऐसे खानों में रिफाइंड तेल, नमक और चीनी की मात्रा अधिक होने से ये हमारे शरीर में ब्लड शुगर का अनुपात बिगाड़ देते हैं. आप ऐसे खानों को जितनी जल्दी अपनी डाइट से बाहर कर दें उतना ही लाभप्रद रहेगा.

पोर्शन कंट्रोल:

सैलिब्रिटी डाइटीशियन, रुजुता दिवेकर की देखरेख में वजन कम करती अभिनेत्री करीना कपूर कहती हैं कि सब कुछ खाओ, मगर सही मात्रा में. डाक्टर गर्ग के अनुसार चाहे आम या चीकू जैसे बेहद मीठे फल खाएं, किंतु यदि अपने खाने की मात्रा को नियंत्रित रखें तो नुकसान नहीं होगा. इसलिए यदि आप अपना वजन सही रखना चाहते हैं तो अपनी थाली में खाने की मात्रा भी सही रखें. स्वादस्वाद में अत्यधिक न खा बैठें.

सफेद भोजन से तोबा:

अकसर सफेद रंग को शांति, अच्छाई से जोड़ कर देखा जाता है. किंतु भोजन में यह इस के विपरीत है. सफेद रंग के खाने को अपनी थाली से निकाल दें. मसलन, सफेद चावल की जगह भूरे चावल खाना स्वास्थ्यवर्धक है. सफेद ब्रैड, पास्ता, नूडल, मैदे से बनी चीजें और चीनी सभी हमारी सेहत को खराब करने में अहम भूमिका निभाते हैं. कारण, इन्हें प्रोसैस करते समय अधिकतर पोशक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं और बच जाती है अधिक मात्रा में कैलोरी. अत: इन की जगह चुनिए जई, साबूत अनाज, दलिया, फलियां, ब्राउन ब्रैड, ब्राउन चावल, मावा आदि.

तैलीय भोज्यपदार्थ को कहें न:

फास्ट फूड, फ्राइज, डोनट, चिप्स, आलू के चिप्स जैसे तैलीय व्यंजनों को अपने खाने से बाहर करें. 1 बड़े चम्मच तेल में 120 कैलोरी होती है. अधिक तैलीय खाने से शरीर में आलस भरता है. इस की जगह भुना, उबला, भाप में पकाया, बिना तेल के पकाया हुआ या कच्चा भोजन करना उचित है.

मीठा कम खाएं:

मिठाई, आइसक्रीम, कैंडी, चौकलेट, केक, जैली या डोनट आदि में चीनी होने के कारण ये हमारे शरीर में शुगर पैदा करते हैं, जोकि एक तरफ तो पेट भरती है और दूसरी तरफ अधिक खाने की इच्छा पैदा करती है. इस से बेहतर है कि आप मीठे में स्वस्थ विकल्प लें जैसे खरबूज, तरबूज आदि फल. इन में प्राकृतिक मीठापन होता है.

हैल्दी स्नैक्स खाएं:

जब हलकीफुलकी भूख लगे तब हैल्दी स्नैक्स खाएं जैसे फल, सलाद, मुरमुरा, घर में बनाया नमकीन, भुने चने, भुनी मूंगफली आदि. यदि आप नौकरीपेशा हैं, तो दफ्तर में ऐसा सामान अपने पास रखें ताकि भूख लगने पर आप बिस्कुट या चौकलेट आदि की ओर हाथ न बढ़ाएं.

कम खाएं

डबलरोटी, अंडे, मछली, चिकन, दालें, मावा, दूध तथा दूध से बनी चीजें.

खूब खाएं

हरी पत्तेदार सब्जियां, फल, अन्य सब्जियां, सलाद, पानी.

कभीकभार खाएं

मिठाई, अत्यधिक मीठे फल जैसे आम, चीकू, केला, हलवाई के यहां बने स्नैक्स, चीज, केक, चौकलेट, आइसक्रीम, बिस्कुट, तैलीय पकवान, मक्खन, फास्ट फूड और सौफ्ट ड्रिंक.

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