story in hindi
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‘‘करीब 25 साल पहले की बात है. मेरे गांव में हिंदू और मुसलिम के साथ ही साथ पिछड़ी और दलित जाति के लोग रहते थे. मेरा गांव राजधानी लखनऊ से 40 किलोमीटर दूर है. नंदौली गांव की होली मशहूर है. जब होली, दीवाली होती थीं तो मुसलिम बिरादरी के लोग इन त्योहारों में खुल कर हिस्सा लेते थे. गांव में कोई बड़ा मंदिर नहीं था. एक छोटा मंदिर उपेक्षित सा था. वहां गांव के एकदो लोग छोड़ कोई पूजापाठ करने नहीं जाता था. कोई मसजिद नहीं थी.
‘‘गांव के देवीदेवताओं के पूजा जुलूस में सभी हिस्सा लेते थे. होली में घरघर जा कर होली मिलने का रिवाज था. उस दिन घर के लोग भी तैयार रहते थे कि उन के यहां होली मिलने लोग आते थे. इसलिए तैयारी में कुछ नाश्ता, मिठाई, पान जैसी चीजें स्वागत में रखते थे. किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं था. इसी तरह से ईद में भी होती थी. गांव के ज्यादातर लोग शाकाहारी थे तो बकरीद बहुत हर्ष के साथ नहीं मनाई जाती थी.
‘‘मुसलिम बिरादरी के लोग भी इस बात का ध्यान रखते थे कि कोई गड़बड़ न हो. एक त्योहार था जिस में गन्ने की पूजा की जाती थी. गन्ने की खेती दोचार परिवारों के किसान ही करते थे. ऐेसे में जिस घर में गन्ना नहीं होता था उस के घर गन्ने मुफ्त में भेजे जाते थे. इसी तरह त्योहार में किसी के घर खाने की दिक्कत न हो, इस का खयाल रखा जाता था. जातीय या धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता था.
‘‘शहर और दूसरी जगहों की हवा से यह गांव भी अछूता नहीं रहा. 15 से 20 साल के बदलते माहौल ने यहां की हवा को भी बदल दिया है. तनाव नहीं होता पर अब पहले जैसी भावना नहीं रही. गांव में मसजिद और मंदिर दोनों हो गए हैं. राजनीति भी गांव के माहौल का हिस्सा बन गई है. इस के बाद भी हालात बहुत नहीं बिगडे़ हैं. लोग एकदूसरे की मदद करते है,’’ शिक्षक? और समाजसेवा में सक्रिय आई पी सिंह आगे कहते हैं, ‘‘त्योहार की खुशियां तभी हैं जब हर जाति और धर्म के लोग मिल कर मनाएं. त्योहार एकदूसरे को जोड़ने का काम करते हैं. आने वाले त्योहारों में हम सब को यही प्रयास करना चाहिए.’’
कानून व्यवस्था के लिए खतरा बनते त्योहार
त्योहारों का मतलब होता है कि एकदूसरे के साथ मिलजुल कर खुशियां बांटें. हमारे देश में इस का उलटा होता है. जब भी कोई त्योहार आता है तो कानून व्यवस्था को बनाए रखने की चुनौती सामने होती है. पुलिस और सुरक्षा में लगे जवानों की छुटिट्यां रद्द कर दी जाती हैं जैसे युद्ध के समय सेना के जवानों के साथ होता है. पुलिस और सुरक्षा में लगे जवान शायद ही कभी इन त्योहारों में अपने घर वालों के साथ रह पाते हों.
यह चुनौती तब और बढ़ जाती है जब 2 धार्मिक त्योहार एकसाथ पड़ जाते हैं. इन अवसरों पर कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जो बंदिशें पुलिस लगाती है उन में त्योहार की खुशियां तनाव देने का काम करती हैं. इस का उपाय जनता के पास है. वह अपने त्योहार में अलग जाति, रंग और धर्म के लोगों के बीच खुशियां बांटने का काम करे, जिस से त्योहार त्योहार लगे, कोई बंदिश न महसूस हो.
बंदिशें लगने की अपनी वजहें हैं. त्योहारों में धार्मिक जूलूसों के कारण सब से अधिक सांप्रदायिक ?ागड़े, दंगे, अक्षम्य हिंसा, आगजनी, संपत्ति का विनाश और दंगा प्रभावित क्षेत्रों के निर्दोष निवासियों की मौतें इतिहास के पन्नों पर दर्ज हैं. इसी के बीच ही बहुत सारे लोग गंगाजमुनी सभ्यता की बात करते हैं. जिस से बहुत सी बंदिशों और दंगों के बाद भी त्योहार साथसाथ मनाए जा रहे हैं. त्योहारों में दंगों का इतिहास बहुत पुराना है. यही वजह है कि अंगरेजी शासनकाल में जब देश का कानून बन रहा था तो दंगों से निबटने के लिए भी कानून बना.
सांप्रदायिक तनाव से खराब होता माहौल
1860 में थौमस मैकाले ने भारतीय दंड संहिता लागू की तो धारा 153 में दंगा भड़काने के इरादे से जानबू?ा कर उकसाने के लिए 65 महीने की कैद की सजा का प्रावधान रखा गया. इस में आगे कहा गया कि अगर उकसावे के परिणामस्वरूप दंगा हुआ तो एक साल की सजा का प्रावधान है. यह देखा गया कि त्योहारों में धार्मिक जुलूस निकाले जाते है.
हर बार इन का नया मार्ग बनाया जाता है. जुलूस निकालने वाले कोशिश करते हैं कि विवादित मार्ग से धार्मिक जुलूस निकाला जाए. प्रशासन का नियम है कि जुलूस निकालने के पहले उस के मार्ग की जानकारी और इजाजत लेनी चाहिए. कई बार धार्मिक प्रभाव में इस कानून का पालन नहीं होता है. इस तरह दंगे का खतरा पैदा होता है. एक तरह से देखें तो त्योहारों में दंगे फैलाने वाले कम लोग ही होते हैं पर जागरूकता की कमी के कारण ही ये लोग बहुतों पर भारी पड़ते हैं.
भरा पड़ा है इतिहास
त्योहारों मेें निकलने वाले जुलूस के कारण दंगे होते हैं जो त्योहारों के मकसद को पूरा नहीं होने देते. इन के कारण ही त्योहार कानून व्यवस्था के लिए चुनौती बन जाते हैं. 1927 में ‘रथ जुलूस’ के अवसर पर सांप्रदायिक दंगे हुए. 1927 और 1966 में गणपति विसर्जन जुलूस में आपत्तिजनक नारे लगाए जाने के कारण चाकू मारने की 18 घटनाएं हुईं. 1967 में शोलापुर में बड़ा दंगा हुआ. मुंबई के पास स्थित भिवंडी में 1970 में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए जिन में 78 लोगों की जानें चली गईं. 1979 में जमशेदपुर में इसी तरह के दंगे हुए जिन में 15,000 जुलूसियों ने दंगा और आगजनी की. इस से पूरे जमशेदपुर में आग लग गई. परिणामस्वरूप 108 लोगों की मौत हो गई.
1989 में कोटा शहर में ऐसा ही दंगा हुआ. गणेश प्रतिमा विर्सजन को ले कर जुलूस निकालने का काम उस रास्ते से किया गया जहां विरोध हो रहा था. जुलूस केवल निकाला ही नहीं गया उसे वहां ही सब से बड़ी मसजिद के सामने रोका गया, जिस से जुलूस में शामिल लोग सांप्रदायिक नारे लगा सकें. इस के बाद जवाबी नारे भी लगे. पहले टकराव, फिर पत्थरबाजी और बाद में घातक हथियारों से हमले हुए. भारत में दंगों की बात हो और भागलपुर का नाम न आए, ऐसा हो नहीं सकता.
1989 में ही यहां भी दंगा हुआ. इस का कारण रामशिला जुलूस था. इस को तय मार्ग से हटा कर तातारपुर नामक भीड़भाड़ वाले मुसलिम क्षेत्र से हो कर ले जाया गया. रामशिला जुलूस में लगने वाले नारों के कारण ?ागड़ा हो गया. इतिहास में इस तरह के बहुत सारे दंगे हैं. हनुमान जयंती जुलूसों में हथियार ले जाने की अनुमति है. कई बार इस की वजह से तनाव बढ़ता है जो सांप्रदायिक दंगों में बदल जाता है. इस जुलूस में डीजे पर इस तरह के गाने बजाए जाते हैं जो परेशानी का सबब बनते हैं.
मिलजुल कर मनाएं त्योहार
त्योहार की खुशियां तभी हैं जब ये आपस में मिलजुल कर मनाए जाएं. आपसी प्रेमभाव रहेगा तो त्योहार में तनाव नहीं होगा. जिस से घर, परिवार और समाज की सेहत अच्छी रहेगी. असल में नेताओं और राजनीति ने कुछ सालों में समाज के इस माहौल को खराब करने का काम किया है. वोटबैंक की राजनीति इस का सब से बड़ा कारण है. नेता समाज में फूट डाल कर कुरसी बचाने का काम करते हैं. दूरियां बढ़ाने के लिए धर्म और सांप्रदायिक तनाव का सहारा लेते हैं. जुलूस निकालना इस का सब से बड़ा कारण है. इस से तनाव भड़कने का खतरा रहता है. अब जनता को सचेत होने की जरूरत है जिस से नेता फूट डालो और राज करो वाला काम न कर सकें.
त्योहार आपसी प्रेमभाव बढ़ाने का सब से बड़ा जरिया है. इस दिन अपने बीच के मित्रों के साथ ही साथ गैरजाति और धर्म के लोगों से भी मिलें. उन के घर जाएं या उन को अपने घर बुलाएं. छोटी पार्टी दें. इस के बाद उपहार दे कर उन को हंसीखुशी विदा करें. तभी त्योहार का असली मजा है, भले ही कम बजट में यह काम हो. घर की बनी गु?िया, पापड़ और मिठाई भी दे सकते हैं. इस के अलावा उन के बच्चों को छोटेबड़े उपहार दे सकते हैं.
त्योहार की याद बनी रहे, इस के लिए उपहार जरूर दें. लोगों को परिवार सहित बुलाएं. इस से सामंजस्य बढ़ता है. केवल आदमी आपस में मिलते हैं तो बात उतनी प्रगाढ़ नहीं होती है. हो सकता है साधारण तरह से बुलाने पर लोग न आएं तो उन से मिलें और मिल कर बुलाएं. उन की पसंद का खाना बनवाएं. जब कोई आप को अपने त्योहार में बुलाए तो खुले दिल से जाएं. त्योहार आपसी दूरियों को कम करने का काम करते हैं तो इस फैस्टिव सीजन में यह काम आप भी करें. डिफरैंट कास्ट, रंग, रिलीजन को भूल कर मिलजुल कर खुशियां मनाएं, तभी त्योहार का असली मकसद हासिल होगा.
तर्क, तथ्य और सत्य जीवन के वे बिल्डिंग ब्लौक हैं, वे नींवें हैं जिन पर पक्के, ऊंचे, सुरक्षित मकान बन सकते हैं, जो एक पीढ़ी के लिए नहीं बल्कि कई पीढि़यों के काम आ सकते हैं. इस तरह के पक्के निर्माण की जरूरत हर घर और हर परिवार को होती
है. लेकिन, अब ऊंची शिक्षा और इन्फौर्मेशन रिवोल्यूशन के बावजूद भारत के लोग कुछ ज्यादा ही, बाकी दुनिया के लोग भी, अब भ्रम से निर्मित दीवारों में कैद होने लगे हैं और खुद ही उन दीवारों की खिड़कियोंदरवाजों पर ताले लगा रहे हैं.
भारत के न्यूज चैनल देखें. ये कितना भ्रम फैलाते हैं, इस का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. जिस एंकर ने 2016 में बड़ी विश्वसनीयता से कहा था कि 2,000 रुपए के नए नोट में एक चिप लगी है जो कालेधन को ढूंढ़ सकती है, वह अब भी किसी न किसी चैनल पर मौजूद है, जबकि 2,000 रुपए के तथाकथित चिप लगे सारे नोट सरकार द्वारा वापस लिए जा रहे हैं और 95-96 फीसदी नोट तो वापस पहुंच भी चुके हैं.
इस एंकर का बने रहना आम आदमी का अपने भ्रम की दुनिया में जिंदा रहने और उस पर खुद का ताला लगा रखने का सुबूत है. हर वह दर्शक जो इस एंकर का प्रोग्राम आज भी देख रहा है, अपने से बेईमानी कर रहा है, खुद को कैदखाने में धकेल रहा है.
अच्छे दिनों के वादे वाले नेताओं, रेप करने वाले लड़कों से गलतियां हो जाती हैं कहने वाले शासकों, बुलडोजरों को न्याय की सही प्रक्रिया कहने वालों को सही मान लेना या चुपचाप सह लेना तर्क, तथ्य और सत्य को नकारना है. ये वे लोग हैं जो लोगों की इच्छा पर हर रोज ताला लगाते हैं. जो उसे सहते हैं वे सदा ही असत्य और ?ाठ के साम्राज्य में रहेंगे.
चुनावों में तर्क, तथ्य और सत्य पर सब से ज्यादा बड़ा ताला लगाया जाता रहा है- भारत में ही नहीं सारी दुनिया में. सरकारें हमेशा ?ाठ बोल कर बनाई जाती हैं. हिटलर ने तकरीबन 12 साल राज किया और 5 करोड़़ लोग मरवा दिए जरमन लोगों से ?ाठ बोल कर कि वे खास आर्यन खून के लोग हैं. पूरा जरमनी उस समय हिटलर के साथ उठ खड़ा हुआ. वर्ष 1917 में पहले विश्व युद्ध में हारने के बाद जरमन लोगों की जो बुरी गत हुई उस ने उन की तर्क करने और सत्य ढूंढ़ने की शक्ति पर ताला लगा दिया. उन्होंने फ्रैंच, इंग्लिश, अमेरिकी, रूसी सब को अपना दुश्मन मान लिया. अपने बीच सदियों से रह रहे यहूदियों को जरमनी के सारे दुखों की जड़ मान लिया.
जो राजनीति में तर्क और तथ्य को नकारना सहते हैं, वे अपने घरों में भी ऐसा ही करते हैं. बच्चों को शुरू से ही चमत्कारों की कहानियां सुनाई जाती हैं जिन में न तर्क होता, न तथ्य और न ही सत्य. फिर भी कहा यह जाता है कि ये कहानियां सिर्फ सांस्कृतिक धरोहर नहीं हैं, सिर्फ प्रतीक नहीं हैं, असल दुनिया का इतिहास हैं ये. वे कहते हैं कि ये चमत्कार वास्तव में हुए थे, ये ?ाठी कहानियां नहीं हैं. इस ज्ञान को ले कर बड़ा हुआ युवा कभी तर्क को नहीं खोजता. वह बड़ा हो कर असल में तर्क का मुकाबला कुतर्क से करता है.
फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम, यूट्यूब की सफलता बताती है कि भारत में ही नहीं, दुनियाभर में तर्क को लोगों द्वारा खुद तालों से बंद कर दिया गया है. एक कौम का धर्म प्रचारक कहता है-‘गौड विल नौट अलाऊ इविल पीपल टू डैस्ट्रौय हिज ओन चिल्ड्रन.’ इस में सत्य कहां है. इस प्रचारक को कैसे पता चला कि उस का गौड बुरे व्यक्ति को अपनी संतानें नष्ट करने से रोकेगा? क्या गौड केवल उसी प्रचारक से बात करता है, उस के सामने बैठे सैकड़ों अंधभक्तों से नहीं? इस प्रचारक का कहना कि शैतान किस्म के लोग आम निहत्थे, निर्दोषों को नष्ट नहीं करते.
यह कितना गलत है, यह साफ है क्योंकि सैकड़ों सालों से, जब से मेनलाइन धर्म हिंदू, ईसाई, इसलाम, बौद्ध, सिख धर्म पनपे हैं, गांवों के गांव, शहर के शहर जला दिए गए हैं इसलिए कि वे विधर्मी थे. हजारों मामलों में तो स्वधर्मी को भी नहीं बख्शा गया.
भारत में ईशनिंदा, भावनाओं को ठेस पहुंचाते तार्किक बात करने वालों को जेलों में बंद करने की मांग की जाती है और सैकड़ों ऐसे लोग जो तर्क, तथ्य की बात करते हैं, भारत सरकार की जेलों में सड़ रहे हैं.
एक धार्मिक चैनल में कहा गया, ‘गौघृत से करें वातावरण शुद्ध व पवित्र. अग्नि में गाय के घी से आहुति देने से उस का धुआं जहां तक फैलता है, वहां तक का सारा वातावरण प्रदूषण और आणविक विकिरण (रेडिएशन ऐक्टिव रेंज) से पहले वाली स्थिति में आ जाता है. एक चम्मच गौमूत्र की आहुति देने से एक टन प्राणवायु (औक्सीजन) बनती है, जो अन्य किसी उपाय से नहीं बनती.’
इस तरह के मैसेज फौरवर्ड किए जाते हैं, सैकड़ों द्वारा. इस पर विश्वास किया जाता है जबकि यह जानना कठिन नहीं कि और्गेनिक घी को जलाओगे तो कार्बन डाइऔक्साइड ही पैदा होगी. इस तर्कहीनता, इस असत्य को मान कर लोग खुद के विवेक को हर रोज ताला लगा रहे हैं. वे कितने ही मामलों में इस प्रकार के ऊटपटांग तरीके जीवन में लागू करना शुरू कर देते हैं.
नई गाड़ी आती है तो उस की पूजाअर्चना की जाती है. विदेशी कंपनी से नया लड़ाकू जहाज खरीदा जाता है तो उस पर सतिया बनाया जाता है.
हर देश में जब भी बड़े से बड़े शिप को यार्ड से समुद्र में उतारा जाता है, धर्म के पादरी को बुलाया जाता है कि वे समुद्र देवता के प्रकोप से शिप को बचाने के लिए ईश्वर से कहें, प्रार्थना करें. यह सब क्या है : यह ताला ही है.
ये बीच वाले सब अपनी कीमत लेते हैं. पुजारियों के मंदिर बन रहे हैं. सुदूर अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य में पहला हिंदू मंदिर 1906 में बना. आज वहां 500 से ज्यादा मंदिर हैं. हर शहर में गुरुद्वारे बन रहे हैं जिन में, भारत सरकार के अनुसार, खालिस्तानी भी छिप कर पनाह ले लेते है. मसजिदें काफिरों के देशों में भी बन रही हैं जहां से हर तरह के इविल, बुरे लोग भी अपनी करतूतों को अंजाम देते हैं.
लोग मरीजों को डाक्टरों के पास छोड़ने के बाद अपने ईष्ट के दरवाजे पर भागते हैं. आज देश के अस्पतालों में पूजाघर बन गए हैं. बड़े अस्पतालों ने भी हर धर्म के देवीदेवताओं के प्रतीकों के लिए जगह बना रखी है. मरीज को उस वैज्ञानिक इलाज की जरूरत होती है जो सिर्फ तर्क, तथ्य और सत्य पर आधारित होता है पर उसे ठीक करने के लिए पूजापाठ, दान शुरू हो जाता है. क्या यह सब तार्किक है?
पतिपत्नी के बीच भी असत्य घुस जाता है. अगर आप ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार चलें तो रविवार को सहवास नहीं करना चाहिए. जब उस पुराण को रचा गया था उस समय रविवार की अवधारणा भी नहीं थी पर आज के धर्म प्रचारक इसे कहने से डरते नहीं हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि लोगों ने अपनी तर्क, तथ्य और सत्य को ढूंढ़ने की शक्ति पर भी ताला लगा रखा है. वे बिना जाने, परखे, जांचें, इसे सही मान लेंगे.
यही ताला अब भी गैरधार्मिकों, चोरउचक्कों के लिए लाभदायक होता है जब कंप्यूटर फ्रौड होते हैं. सितंबर में ही पुणे में एक डिलीवरी एजेंट, जो ग्लोबल आईटी कंपनी में काम करता था, ‘हाई पेइंग पार्टटाइम जौब’ के स्कैंडल का शिकार हो गया और 35 लाख रुपए खो बैठा.
एक रिटायर्ड कर्नल मुंबई में ढाई करोड़ रुपए गंवा बैठा क्योंकि वह कंप्यूटर पर लिखे शब्दों को तर्क, तथ्य और सत्य से तोलने की जहमत नहीं कर रहा था. इन पर तो उस ने बचपन से ताला लगा रखा है जब उस से कहा गया था कि पूजा करो, पैसा आएगा, सफलता मिलेगी, लड़की मिलेगी, बच्चे होंगे.
पुणे की पुलिस ने एक औरत और उस की 9 साथिनों को पकड़ा जो शादी के इच्छुकों को लड़की दिलातीं, शादी करतीं और अगले दिन वह लड़की मालमत्ता ले कर भाग जाती. ये पुरुष जरा सी लच्छेदार बात पर हां बोल देते क्योंकि इन्हें तर्क, तथ्य और सत्य जानने की इच्छा ही नहीं होती. किसी भी बिचौलिए और होने वाली पत्नी की बैक चैक करना आज के तार्किक कंप्यूटर के कारण कठिन नहीं है, पर इन्हें तो उस ऊपर वाले की शक्ति पर भरोसा है जो सब सही करता है,
जो भक्तों के साथ कभी छल नहीं होने देता.
आज व्हाट्सऐप, फेसबुक, इंस्टाग्राम इस तरह के संदेशों से भरे हैं. भक्ति रसायन इंस्टाग्राम हैंडल पर एक संदेश है- ‘विश्वास सच्चा है तो इंतजार अच्छा है.’ यह विश्वास, जिसे अंधविश्वास कहें, ही वह ताला है जो लोग तर्क, तथ्य व सत्य जानने की शक्ति पर लगाते हैं.
अगर आप को असल में आजादी चाहिए तो तर्क को पहचानो, सत्य को ढूंढ़ो, तथ्य और झठ का फर्क समझ.
यह सब को मिल कर करना होता है. फिलौसफर अल्बर्ट कैमस ने कहा था-‘स्वतंत्रता किसी सरकार या नेता का दिया गया उपहार नहीं है. यह वह संपत्ति है जिस के लिए हरेक को हर रोज सब के साथ मिल कर, सब को जोड़ कर लड़ना पड़ता है.’
तर्क, तथ्य और सत्य स्वतंत्रता की लड़ाई के सब से बड़े हथियार हैं. पर अफसोस है कि दुनियाभर में स्वतंत्रता के लिए छटपटाने वाले भी तर्क, तथ्य और सत्य पर नहीं बल्कि अंधविश्वास, आस्था, धर्म, रीतिरिवाजों पर धन, बल और समय न्योछावर करते रहते हैं.
आप आस्था पर विश्वास करते हैं भ्रम पर या तथ्य, तर्क व सत्य जानने की शक्ति पर विश्वास करते हैं?
महान दार्शनिक फ्रैडरिक नीत्शे ने कहा था, ‘कई बार लोग सत्य सुनना ही नहीं चाहते क्योंकि वे अपने भ्रम तोड़ना नहीं चाहते.’
दुनियाभर के दार्शनिक और अर्थशास्त्री आमतौर पर इस बात से सहमत हैं कि पैसे से आप काफीकुछ खरीद सकते हैं लेकिन समय नहीं खरीद सकते. मगर इस वक्त दिल्ली एयरपोर्ट पर खड़ा अभिषेक अपनी अलग ही थ्योरी गढ़ रहा था कि पैसे से समय नहीं खरीद सकते, यह मान लिया, लेकिन पैसे से समय बचा तो सकते हैं, कैसे, यह खुद अभिषेक की जबानी सुनें जिस में पीढ़ी संघर्ष की भी झलक है.
‘‘मैं बेंगलुरु की एक नामी सौफ्टवेयर कंपनी में बतौर इंजीनियर काम करता हूं. पैकेज है 30 लाख रुपए सालाना. ज्यादा नहीं, 3 महीने पहले तक मैं दूसरी कंपनी में महज 9 लाख रुपए के सालाना पैकेज पर काम करता था. फिर मैं ने जौब स्विच कर लिया. हर साल त्योहारों के इन दिनों में मैं अपने घर भोपाल जरूर जाता हूं लेकिन इस बार प्लेन से जा रहा हूं क्योंकि अब मैं दोनों तरफ का किराया, जो लगभग 12 हजार रुपए होता है, आसानी से अफोर्ड कर सकता हूं.
‘‘त्योहार न केवल मेरे बल्कि मेरे पूरे घर वालों के लिए खास होते हैं क्योंकि हम पांचों यानी बड़ा भाई और कालेजगोइंग छोटी बहन कम से कम 3 दिन साथसाथ इकट्ठा गुजारते हैं. पिछली बार तक मैं आमतौर से ट्रेन से आयाजाया करता था क्योंकि मेरे पास पैसे कम होते थे. नतीजतन, मुझे एक तरफ की जर्नी में ही 28 से 36 घंटे लग जाते थे और लगातार बैठे रहने से थकान होती थी सो अलग. इस से 3 छुट्टियों का नुकसान होता था.
‘‘यह ठीक है कि इस बार फ्लाइट में एक तरफ के ही पैसे ट्रेन के मुकाबले 3 गुना ज्यादा लग रहे हैं लेकिन मु?ो उस का कोई मलाल नहीं क्योंकि मैं ने 8 हजार रुपए ज्यादा खर्च कर लगभग 60 घंटे बचा लिए हैं पर मैं खुश हूं, बहुत खुश हूं क्योंकि अब मैं मम्मी, पापा, भैया और छोटी शरारती बहन के साथ ज्यादा टाइम गुजार पाऊंगा.
‘‘पापा ने जरूर फोन पर उम्मीद के मुताबिक हलका सा एतराज जताया था कि हवाई जहाज के किराए में इतने पैसे फूंकना फुजूल की बात है. इतने में तो ये आ जाता वो आ जाता, हम ये कर लेते वो कर लेते और कुछ न करते तो तेरी शादी के काम में ही आ जाता. ज्यादा कमाने लगा है, अच्छी बात है पर पैसे बचाना सीख क्योंकि वही असली कमाई होती है.
वक्तवक्त की बात है
‘‘मुझे उन की इस सीख पर अब कोई एतराज या कोफ्त नहीं होती. उन्होंने जिंदगी सरकारी क्लर्की में गुजार दी और घरेलू जिम्मेदारियों तले दबे रहे. हम तीनों को पढ़ाने के लिए अपना खुद का मकान तक नहीं बना पाए. दादाजी का छोटा सा मकान चाचा ने हथिया लिया था लेकिन अब हम दोनों भाई अच्छा कमाने लगे हैं तो वे बेफिक्र हैं. सालदोसाल में हमारा खुद का मकान होगा. इस बार इकट्ठे हो कर घर के बजट और फंड पर भी चर्चा होगी और भैया की शादी पर भी कोई फैसला होगा. एजेंडा यह है कि शादी से पहले मकान ले लिया जाए.
‘‘मकान ही क्यों, बहुत सी खुशियां भी हमारी होंगी. मैं ही सभी के लिए नए कपड़े ले जा रहा हूं. इस बार की नियमित बचत से घर में एक बड़ा सा एलईडी भी भोपाल से ही खरीद कर ला दूंगा. बचपन और पढ़ाई के दिनों में हम बहुत सी चीजों के लिए तरसे हैं, एक तयशुदा बजट जो बहुत कम होता था. उसी छोटे बजट में हमें त्योहार मनाना होता था. एक बार का वाकेआ तो मैं जिंदगीभर नहीं भूल सकता. मम्मी ने शायद पहली बार पापा से कुछ मांगा था, वह थी 4 हजार रुपए की एक सोने की अंगूठी, लेकिन पापा का जमा पैसा भैया की कालेज की फीस में चला गया था.
‘‘तब पापा ने बहुत कोशिश की, अपने स्वाभिमानी स्वभाव को किनारे करते कुछ लोगों से उधार भी मांगा लेकिन कोई भी 500 रुपए से ज्यादा देने को तैयार नहीं हुआ. उस दिन हमारे यहां हिंदी फिल्मों सा ड्रामा हुआ. पापा ने शायद पहली और आखिरी बार शराब पी थी. घर आ कर चुपचाप बिना कुछ खाए सो गए. मम्मी अपनी मांग पर रातभर जागते रोती रहीं. अच्छाखासा त्योहार मातम में बदल गया. खैर, वक्त बुरा था, गुजर गया. तब हमारे पास पैसे भले ही कम होते थे लेकिन वक्त बहुत होता था.’’
अब हालात उलट हैं. पैसा तो ठीकठाक है लेकिन साथ गुजारने के लिए वक्त का टोटा है. उस वजह से त्योहार में पहले सा मजा नहीं रहा. अभिषेक तो खैर बेंगलुरु से भोपाल आ रहा था लेकिन उन लोगों का क्या जो एक ही शहर और एक ही घर में रहते हैं पर उन के पास भी समय होते हुए भी समय नहीं रहता. जबकि इन लोगों को तो साथ त्योहार मनाने के लिए अलग से पैसा भी खर्च नहीं करना. जिन्हें वक्त और पैसा दोनों खर्च करने पड़ते हैं उन में से एक सुरभि की दास्तां सुन लगता है कि रिश्तों में त्याग और समर्पण ही उन की बौंडिंग ज्यादा मजबूत करते हैं.
अपने मम्मीपापा की इकलौती बेटी 26 वर्षीय सुरभि भी भोपाल की रहने वाली है और भुवनेश्वर के एक प्राइवेट इंजीनयरिंग कालेज में लैक्चरर है. सैलरी महज 35 हजार रुपए महीना है जिस में से खींचतान कर वह 10 हजार रुपए बचा पाती है. 3 साल पहले वह एमटैक कर भुवनेश्वर गई थी, सो, भोपाल साल में एकाधदो बार ही आ पाती थी क्योंकि ट्रेन का रास्ता ही 30-32 घंटे का है. अगर फ्लाइट से आनेजाने का सोचती तो सालभर की सेविंग ठिकाने लग जाती. लेकिन दीवाली पर आना वह नहीं भूलती थी. 3 साल से लगातार दीवाली पर वह आ रही थी तो इस बार कैसे चूकती. सुरभि फ्लाइट अफोर्ड नहीं कर सकती, सो, दीवाली के 2 दिनों पहले भुवनेश्वर में ट्रेन में बैठती थी और इंदौर में सीधे चाचा के घर पहुंचती थी. अकेले रह रहे चाचाचाची दोनों उस के पहुंचने पर ?ाम उठते थे.
पिछली दीवाली भी ऐसा ही हुआ था. सुबह 7 बजे दरवाजा खोलते ही चाचा ने उसे गोद में उठा लिया और चिल्लाए- ‘सुनो, अपनी परी आई है. जल्दीजल्दी कुछ बनाओ. मैं बाजार से जलेबी ले कर आता हूं.’ फिर शुरू होता था खानेपीने और बातों का सिलसिला, जिस पर चंद घंटों बाद विराम लग जाता था क्योंकि सुरभि को वापस भोपाल जाना रहता था मम्मीपापा के पास. वे भी बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे होते थे. सुरभि चाहती तो भोपाल उतर सकती थी लेकिन चाचा से लगाव ही ऐसा था कि वह पहले इंदौर जाती थी, फिर वापस भोपाल जाती थी जिस से दोनों घरों का त्योहार हो जाए.
इतने लंबे सफर में हालांकि वह बहुत थक जाती थी लेकिन चाचा की खुशी देख सारी थकान उड़ जाती थी. छुट्टियां और पैसा वह इन्हीं दिनों के लिए बचा कर रखती थी. इन चंद घंटों में उसे जो खुशी मिलती थी उतनी भुवनेश्वर में सालभर नहीं मिलती थी. मम्मीपापा भी खुश रहते थे कि वह पहले अपने लाड़ले चाचा के यहां हो आई.
वक्त को वक्त से चुराएं
वक्त की छद्म कमी का आलम तो यह है कि हर कोई यह कहता नजर आता है कि काम इतना है कि मरने की भी फुरसत नहीं. क्या करें, कहां से लाएं वक्त. अब काम तो छोड़ नहीं सकते. ऐसे लोगों की व्यस्तता, दरअसल तथाकथित होती है. एक घर में अगर 4 लोग रहते हैं तो अगर उन में से एक सोफे पर पसरा मोबाइल से खेल रहा है, दूसरा टीवी देखने में व्यस्त है तीसरा दोस्तों के साथ गप्पें लड़ाने गया है और चौथा, जिसे चौथी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा, किचन में खानापकवान बनाने में व्यस्त है तो यकीन मानें एक हद तक आखिरी मैंबर को छोड़ कर सभी सिरे से वक्त काट नहीं रहे बल्कि उसे वक्त की कमी की आड़ ले कर पूरी बेरहमी से बरबाद कर रहे हैं.
त्योहारों में किसी भी घर की यह सिचुएशन या दृश्य बेहद आम और तकलीफदेह होता है. त्योहार नीरस होते जा रहे हैं क्योंकि किसी के पास अपने वालों के लिए भी वक्त नहीं. वे लोग कैसे त्योहार का आनंद और उल्लास महसूस कर सकते हैं जो त्योहारों पर भी एकसाथ बैठ कर खाना भी नहीं खाते. देररात तक लैपटौप पर फिल्में देख कर सोने वाले युवा त्योहार के दिन भी अपने रूटीन से सम?ाता नहीं करते कि आज अगर मोबाइल या लैपटौप न चलाएं तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा या कयामत आ जाएगी.
वक्त तो मुकम्मल है और सभी के पास है क्योंकि हम में से कोई भी सरहद पर ड्यूटी नहीं दे रहा और न ही ट्रेन या प्लेन चला रहा. जो लोग वक्त न होने का रोना रोते रहते हैं, वे नौकरीपेशा लोग हैं, व्यापारी हैं, युवा हैं और महिलाएं हैं. त्योहारों पर सभी ठान लें कि नहीं ये दिन तो हम पूरी शिद्दत से अपने वालों के साथ ही गुजारेंगे और मनाएंगे तो थोड़ी सी चोरी या त्याग से काम चल जाएगा.
ऐसा अगर हो पाए तो वाकई में त्योहारों का मजा बढ़ जाएगा और तभी घर के सभी लोगों को समझ आएगा कि उन के पास वक्त तो था लेकिन वह फालतू के कामों में जाया हो रहा था. त्योहारों का माहौल उल्लास से भरा हो, इस के लिए घर के सभी लोगों को साथ तो आना पड़ेगा. केवल पूजापाठ वगैरह के लिए बेमन से इकट्ठे होने से तो बेहतर है कि सभी ड्राइंगरूम में हंसनेगाने और मस्ती करने को इकट्ठे हों. त्योहार इवैंट जैसा लगे तो महसूस होगा कि इस के माने क्या होते हैं और क्या होने चाहिए.
त्योहारों पर सभी की मानसिकता एक खास तरह की हो जाती है जिस में मन तो करता है कि आज के दिन सबकुछ भूलभाल कर कुछ नया किया जाए लेकिन यह नया अपने कमरे में जा कर टीवी देखने, मोबाइल चलाने या लैपटौप पर मूवी देखने से नहीं हो सकता. यह तो सभी के साथ बैठ कर ही होना संभव है वरना तो वक्त बरबाद ही होता है.
परिवार, पैसा और त्योहार
परिवार के साथ त्योहार मनाने के लिए अभिषेक क्याकुछ नहीं कर रहा. ऐसा देश के लाखों वे युवा करते हैं जो बाहर रह कर नौकरी या फिर पढ़ाई कर रहे हैं. त्योहार के दिनों में फ्लाइट तो क्या, ट्रेन में भी रिजर्वेशन नहीं मिलता. जो लोग घर नहीं जा पाते वे त्योहार कैसे भी मना लें, घर को बहुत मिस करते हैं. ऐसे में घर जा कर भी उन्हें वही अकेलापन मिले या त्योहारी उमंगउल्लास न मिले तो वे यह सोचने को मजबूर होंगे ही कि आखिर हम घर आए ही क्यों थे और क्यों हम ने इतना महंगा टिकट फ्लाइट या ट्रेन का लिया था.
त्योहार तो सभी को अपनों के संग ही अच्छे लगते हैं. इसलिए इस सीजन में फ्लाइट फुल रहती हैं, ट्रेन रिजर्वेशन नो रूम हो जाते हैं और प्राइवेट बसों का किराया चारगुना तक बढ़ जाता है. इस के बाद भी लोग घर जाते हैं. लेकिन कई रह भी जाते हैं क्योंकि जाने को कोई साधन ही नहीं मिलता या होता, इसलिए सम?ादार और भुक्तभोगी काफी पहले से रिजर्वेशन करा लेते हैं, जैसे नेहा, जो नोएडा में रहती है, अपने घर नासिक जाने में बस और ट्रेन में धक्के खाती है क्योंकि उस की सैलरी भी इतनी नहीं है कि हवाई जहाज तो दूर की बात है, ट्रेन के एसी में सफर कर पाए.
चूंकि त्योहारों में दिल्ली से नासिक का रिजर्वेशन आसानी से नहीं मिलता, इसलिए वह दिल्ली से भोपाल ट्रेन से आती है, फिर बस से इंदौर जाती है और फिर इंदौर से नासिक बस में ही सफर करती है. काश कि बहुत से पैसे होते या सैलरी ज्यादा होती तो मैं भी दिल्ली से नासिक फ्लाइट में जाती जिस से ट्रेन और बसों की यह थकान वाली बोरिंग जर्नी से तो नजात मिलती. लेकिन कुछ भी घर से ज्यादा अहम नहीं है, इसलिए सफर अखरता नहीं. ‘कभी तो अपना टाइम आएगा’ नेहा जैसे यह सोचने वाले युवाओं की तादाद भी खासी है जिन से त्योहारों में ट्रेन और बसें आबाद रहती हैं.
सरकार का एयरलाइंस और नई आधुनिक सुखसुविधाओं वाली बसों के संचालकों पर कोई जोर नहीं चलता. चलेगा भी कैसे, खुद रेलों के टिकट के दाम उस ने प्रीमियम और तत्काल के नाम पर अनापशनाप बढ़ा रखे हैं. सार यह है कि अभिषेक जैसे लोग ही घर जा सकते हैं क्योंकि उन्हें परिवार के संग त्योहार मनाना है वह भी इसलिए कि जेब में पैसा होने के साथसाथ उन की फीलिंग्स और यादें घर व परिवार के लोगों से जुड़ी हैं और यह जुड़ाव ही भारतीय समाज व परिवारों की खासीयत और ताकत है.
अभिषेक को वे दिन याद आते हैं जब पैसा कम और वक्त ज्यादा था. वह समय भी अच्छा था क्योंकि अभाव खलते नहीं थे. हम ने उन से समझता तो कर लिया था लेकिन उन्हें एक चुनौती के रूप में भी लिया था कि एक दिन इन अभावों से छुटकारा पा कर रहेंगे. दिल्ली एयरपोर्ट पर खड़े अभिषेक ने बताया, ‘‘भोपाल उतर कर मैं सब से पहले वहां के मशहूर रैस्टोरैंट मनोहर डेयरी से एक किलो काजू कतली और एक किलो रसमलाई खरीदूंगा. पापा को काजू कतली बेहद पसंद है लेकिन वे कभी इसे पावभर से ज्यादा नहीं खरीद पाए. मम्मी को रसमलाई भाती है, वह भी कभीकभार ही आ पाती थी. अब कोई कमी नहीं है.’’
जब इस प्रतिनिधि ने बताया कि उस से की गई बातचीत का कुछ हिस्सा ‘सरिता’ में छपेगा तो वह फोन पर ही चहकते बोला, ‘‘सरिता पत्रिका सालोंसाल से हमारे घर में पढ़ी जा रही है. उस जमाने से जब यह 12-15 रुपए में आती थी. पापा नियमित इसे खरीद नहीं पाते थे तो महल्ले की लाइब्रेरी से किराए पर लाते थे. तब इस का किराया 25 पैसे प्रतिदिन हुआ करता था. मम्मीपापा इसे तेज स्पीड में 2 दिनों में ही पढ़ डालते थे.
‘‘जब नौकरी लग गई तो मैं ने मम्मी के नाम इस का सब्सक्रिप्शन करवा दिया था तब पापा भोपाल औफिस से ले आते थे. कुछ महीने पहले ही उन्होंने पोस्ट औफिस वाली स्कीम मैगजीन पोस्ट ली है जिस से उन की फैवरेट मैगजीन उन्हें वक्त पर मिल रही है. मैं ने नाम छिपाने का आग्रह इसलिए किया कि अंगूठी वाली बात अगर मम्मी ने पढ़ ली तो उन्हें कड़वा अतीत याद आ जाएगा, इसलिए उस आइटम का नाम मैं ने बदल दिया है.’’
अभिषेक आगे कहता है, ‘‘मैं भी ‘सरिता’ पढ़ने का कोई मौका नहीं छोड़ता. मोबाइल फोन पर इस का डिजिटल संस्करण तो हर कभी खोल लेता हूं लेकिन जो मजा प्रिंट में है वह इस में नहीं है. बचपन से ही यह मैगजीन हमें रास्ता दिखाती आई है, त्योहारी फुजूलखर्ची और पाखंडों से आगाह करती आई है. अब उम्मीद है त्योहार और फिर उस के बाद दीवाली विशेषांकों में भी पठनीय सामग्री मिलेगी. रही बात परिवार के साथ त्योहारों पर ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की, तो हर किसी को समय बचाना आना चाहिए और उस का इकलौता तरीका यह है कि हम फुजूल, अनुपयोगी और अनुत्पादक कामों में समय नष्ट न करें.’’
सवाल
मेरी बेटी 10 साल की है. उसे अकसर पेटदर्द की शिकायत रहती है. डाक्टर ने जो दवाई दी है, हम उसे दे देते हैं तो दर्द ठीक हो जाता है. ऐसा बार-बार क्यों होता है और मुझे क्या करना चाहिए जिस से उस के पेटदर्द को रोकने में मदद हो सके ?
जवाब
पेटदर्द कई चीजों के कारण हो सकता है. गैस या कब्ज से ले कर तनाव, अधिक खाना या पेट में संक्रामक कीड़े तक. कभीकभी पेटदर्द की शिकायत का पेट से कोई लेनादेना नहीं होता. दर्द शरीर के किसी अन्य हिस्से से भी आ सकता है. वैसे, आप अपनी बेटी को प्रोत्साहित करें कि सोने से पहले यानी डिनर में ज्यादा खाना न खाए. जिन बरतनों में वह खाएपिए, वे अच्छी तरह साफ हों. खूब सारे तरल पदार्थ और फाइबर युक्त खाद्य पदार्थ, जैसे फल और सब्जियां उसे खाने में दें. क्राइज और वसायुक्त, चिकना भोजन कम करें. हाथ अच्छे से और बारबार धोएं खासकर खाने से पहले और बाथरूम जाने के बाद. उसे किसी तरह का कोई तनाव तो नहीं, इस बात का खयाल रखें.
“गुड्डन आज तुम फिर देर से आई हो, आठ बज गए हैं. तुम्हारे लिए सवेरेसवेरे सजनासंवरना ज्यादा जरूरी है. अपने काम की फिक्र बिलकुल नहीं है. तुम ने तो हद कर दी है. इतनी सुबहसुबह कोई लिपस्टिक लगाता है क्या? मैं तो तुम्हारी हरकतों से आजिज आ चुकी हूं.’’
गुड्डन लगभग 18-19 साल की लड़की है. वह उन की सोसाइटी के पीछे वाली खोली में रहती है.
जब वह 11-12 साल की थी तब वह मुड़ीतुड़ी फ्रौक पहन कर और उलझेबिखरे बालों के साथ मुंह
अंधेरे काम करने आ खड़ी होती थी. पर जैसे ही उस ने जवानी की दहलीज पर पैर रखा, उसे दूसरी लड़कियों की तरह खुद को सजनेसंवरने का शौक हो गया था.
अब वह साफसुथरे कपड़े पहनती, सलीके से तरहतरह के स्टाइलिश हेयरस्टाइल रखती, नाखूनों में नेलपौलिश तो होंठ लिपस्टिक से रंगे होते. बालों में रंगबिरंगी सस्ती वाली बैकक्लिप लगा कर आती. अब वह पहले वाली सीधीसादी टाइप की नहीं वरन तेजतर्रार छम्मकछल्लो बन गई थी.
खोली के कई लड़कों के साथ उस के चक्कर चलने की बातें, उस खोली में रहने वाली दूसरी कामवालियां चटपटी खबरों की तरह एकदूसरे से कहतीसुनती रहती थीं.
निशा की बड़बड़ करने की आदत से वह अच्छी तरह परिचित थी. सुबहसुबह डांट सुन कर उस ने मुंह फुला लिया था. लेकिन उन के घर से मिलने वाले बढ़िया कौस्मेटिक की लालच में वह चुपचाप उन की बकबक को नजरअंदाज कर चुपचाप सुन लिया करती थी. दूसरे अंकलजी भी तो जब तब ₹100- 200 की नोट चुपके से उसे पकड़ा कर कहते कि गुड्डन काम मत छोड़ना, नहीं तो तेरी आंटी परेशान हो जाएंगी.
वह अपनी नाराजगी दिखाने के लिए जोरजोर से बरतन पटक रही थी. निशा समझ गई थीं कि आज गुड्डन उन की बात का बुरा मान गई है. वह उस के पास आईं और प्यार से उस के कंधे पर हाथ रख कर बोलीं,”क्यों रोजरोज देर से आती हो? अंकलजी को औफिस जाने में देर होने लगती है न…”
“आओ, नाश्ता कर लो.”
“आंटीजी, मुझे आज पहले ही देर हो गई है. अभी यही सारी बातें 502 वाली दीदी से सुननी पड़ेगी.‘’
निशा उस की मनुहार करतीं, उस से पहले ही गुड्डन जोर से गेट बंद कर के जा चुकी थी.
उन्हें गुड्डन का यह व्यवहार जरा भी अच्छा नहीं लगा,“जरा सी छोकरी और दिमाग तो देखो… यहांवहां लड़कों के संग मुंह मारती रहती है जैसे मैं कुछ जानती ही नहीं.’’
“निशा बस भी करो. तुम्हें अपने काम से मतलब है कि उस की इन बातों से…’’
पति की नाराजगी से बचने के लिए वे चुपचाप अपना काम करने लगी थीं पर उन के चेहरे पर नाराजगी के भाव साफ थे.
निशा 46 वर्षीय स्मार्ट शिक्षित घरेलू महिला थीं. उन के पति रवि बैंक में मैनेजर थे. उन के पास घरेलू कामों के लिये 3 कामवालियां थीं. उन्हीं में एक गुड्डन भी थी.
पत्रिका पढ़ने के बाद उन का सब से पसंदीदा काम था अपनी कामवाली से दूसरे घरों की महिलाओं की रिपोर्ट लेना. उस के बाद फिर थोड़ा नमकमसाला लगा कर फोन घुमा कर उन्हीं बातों की चटपटी गौसिप करना.
गुड्डन उन की सब से चहेती और मुंहलगी कामवाली थी. वह सुबह बरतन धो कर चली जाती फिर दोपहर तक सब का काम निबटा कर आती तो बैठ कर आराम से सब के घरों में क्या चल रहा है, बताती और कभी खाना खाती तो कभी चाय बना कर खुद पीती और उन्हें भी पिलाया करती, फिर अपने घर चली जाया करती.
निशा का यह मनपसंद टाइमपास था. दूसरों के घरों के अंदर की खबरें सुनने में उन्हें बहुत मजा आता था. गुड्डन भी तेज थी, सुनीसुनाई बातों में कुछ अपनी तरफ से जोड़ कर इस कदर चटपटी खबर में तबदील कर देती मानो सच उस ने अपनी आंखों से देखा हो. लेकिन इधर कुछ दिनों से उस का रवैआ बदल गया था.
मोबाइल फोन की आवाज से उन का ध्यान टूटा. उधर महिमा थी,”हैलो आंटी, आज गुड्डन आप के यहां आई है क्या? बहुत नालायक है. कभी फोन बंद आता है तो कभी बिजी आता है. मैं तो इस की हरकतों से आजिज आ गई हूं. वाचमैन से मैं ने कह दिया है कि देख कर के मेरे लिए कोई ढंग की अच्छी सी कामवाली भेजो. गुड्डन आई कि नहीं?”
“तुम ने मुझे बोलने का मौका ही कहां दिया,” निशा हंस कर बोली थीं.
“आंटी आप ने इस के करम सुने. कई लड़कों के साथ इस का चक्कर चल रहा है…’’
यह उन का मन पसंद टौपिक था, वे भला कैसे चुप रहतीं,”अरे वह जो सोसाइटी के बाहर राजेंद्र प्रैस का ठेला लगाता है न दिनभर उसी के घर में घुसी रहती है यह तो… मेरे घर से काम कर के गई और यहां तो तुम्हारे घर पर ही जाने को बोल कर गई थी. आज तो उस ने चाय भी नहीं पी और ऐसे बरतन पटकपटक कर अपना गुस्सा दिखा रही थी कि कुछ पूछो मत…”
“आज सुबह आप सैर पर नहीं आई थीं. तबियत तो ठीक है न?”
“हां, आज उठने में देर हो गई…”
“ओके बाय आंटी, दरवाजे पर देखती हूं शायद गुड्डन आ गई है.‘’
गुड्डन का काम करने का अंदाज सोसाइटी की महिलाओं का पसंद था. एक तो वह चोरी नहीं करती थी, दूसरा घर में झाङूपोंछा अच्छी तरह करती. वह कई सालों से इन उच्च और मध्यवर्ग परिवारों की महिलाओं के घरों में काम करती आ रही थी. इसलिए वह इन लोगों के स्वभाव और कार्यकलापों से खूब अच्छी तरह परिचित हो चुकी थी. वह इन लोगों की आपसी बातों पर अपना कान लगाए रहती थी और सब सुनने के बाद मौका मिलते ही इन लोगों को अच्छी तरह से सुना भी दिया करती थी.
इन दिनों राजेंद्र के साथ उस की दोस्ती के चर्चे सब की जबान पर चढ़े हुए थे. वह जिस के घर में भी काम करने जाती, वहां व्यंगात्मक लहजे में कुछ न कुछ सुन ही लेती,”तुम्हें यहांवहां घूमने से फुरसत मिल गई तो काम कर लो अब…”
राजेंद्र जिस की उम्र लगभग 40 साल थी, उस की बीबी उस को छोड़ कर किसी दूसरे के साथ चली गई थी.
वह और उस का बूढा बाप दोनों ही खोली में अकेले ही रहते थे. कुछ दिनों पहले उस ने अपनी खेती की जमीन बेची थी. उस के एवज में उसे लाखों रुपए मिले थे. वह गेट के बाहर ठेले पर प्रैस किया करता था. उस से भी उसे अच्छी आमदनी हो जाती थी. वह राजेंद्र के पिता को कभी चाय दे जाती तो कभी खाना खिला देती.
इस तरह से कालीचरण पर उस ने अपना फंदा फेंक दिया था. अब कालीचरण उसे बिटियाबिटिया कह कर उस पर लाड़ दिखाता और उस को अपने साथ बाजार ले जाता और कभी चाट खिलाता तो कभी मिठाई.
तेज दिमाग गुड्डन ने राजेंद्र को अपने प्यार के जाल में फंसा कर उस से दोस्ती कर ली. वह उस के घर में उस के लिए रोटी बना देती फिर दोनों मिल कर साथ में खाना खाते. दोनों साथ में कभी घूमने जाते तो कभी मूवी देखने, तो कभी मौल घूमते. राजेंद्र छेड़ता तो वह खिलखिलाती. उन दोनों की दोस्ती पर यदि कोई कुछ उलटासीधा बोलता तो वह पलट कर उस से लड़ने पर उतारू हो जाती,”तुम्हें क्या परेशानी है? राजेंद्र हमारा दोस्त है, खसम है. हम तो खुल्लमखुल्ला कह रहे हैं. जो करना है कर लो. जो
समझना है समझ लो मेरी बला से…”
उस के दोनों मतलब सिद्ध हो रहे थे. मालकिन की तरह उस के घर में मनचाहा खाना बनाती, खुद भी खाती और राजेंद्र को भी खिलाती. दोनों की जिंदगी में रंग भर गए थे. राजेंद्र भी रोज उस के लिए मिठाई वगैरह कुछ न कुछ ले कर आता. वह उसे अपने साथ बाजार भी ले कर जाता. कभी सलवारसूट तो कभी लिपिस्टिक, तो कभी चूड़ियां या इसी तरह अन्य सजनेसंवरने का सामान दिलवाता रहता.
इसलिए स्वाभाविक था कि वह उसे खुश रखता है तो उस का भी तो फर्ज बनता था कि वह भी उसे खुश रखे. बस इस तरह दोनों के बीच अनाम सा रिश्ता बन गया था.
उस की लालची अम्मां को खानेपीने को मिल रहा था. वह भी खुश थी.
उस के दोनों हाथों में लड्डू थे. जब जिस से मौका लगता उस से पैसा ऐंठती. बापबेटा दोनों उस की मुट्ठी में थे…
इसी रिश्ते की खबर सोसाइटी की तथाकथित उच्चवर्गीय महिलाओं को मिल गई थी, क्योंकि खोली की दूसरी कामवालियां आपस में बैठ कर ऐसी बातें चटखारे लेले कर के अपने मन की भड़ास निकाला करती थीं और इसीलिए सोसाइटी की महिलाओं के पास भी गुड्डन के कारनामों की खबर नमकमिर्च के साथ पहुंचती रहती थी.
घरेलू महिलाओं की चर्चा जानेअनजाने इन घरेलू कामवालियों पर आ कर टिक जाती थीं क्योंकि उन्हें इन के साथ रोज ही दोचार होना पड़ता था.
गुड्डन सोसाइटी में कई घरों में झाड़ूपोंछा करती थी और वर्मा अंकल के यहां तो खाना भी बनाती थी. चूंकि वह बिलकुल अकेले रहते हैं इसलिए उन के घर की तो सर्वेसर्वा वही है.
दोपहर में खाली होते ही महिमा निशा के घर आ गई थी,”क्या हो रहा है आंटी?”
“कुछ खास नहीं. आओ बैठो…”
ऐसा लग रहा था कि मानो कोई राज बताने जा रही है,”कुछ सुना है आप ने? इस गुड्डन के तो बड़े चर्चे हैं.चारों तरफ इस की बदनामी हो रही है. अपने बगल में ही दरवाजे के अंदर वर्मा अंकल के साथ जाने क्या गुल खिला रही है. रीना बता रही थी कि कोई रंजीत औटो चलाता है,
उस के साथ भी यह प्यार का नाटक कर के पैसा ऐंठ रही थी. अब तो वह राजेंद्र के साथ खुलेआम मटरगश्ती करती फिर रही है.”
“अच्छा… आज उसे आने दो, ऐसी झाड़ लगाऊंगी कि वह भी याद रखेगी.”
फिर उन्हें उस का सुबह का बरतन पटकना याद आ गया तो बोलीं,”छोड़ो महिमा, हमें उस के काम से मतलब है. छोटी सी थी तब से मेरे घर पर काम कर रही है. एक भी चम्मच इधर से उधर नहीं हुई. घर को चमका कर जाया करती है.
“हम लोगों को क्या करना है. जो जैसा करेगा वह भरेगा… उस की अम्मां ने तो इसी तरह से अपनी जिंदगी ही बिता दी.‘’
महिमा ने अपनी दाल गलती हुई न देख कर बोली,”आंटी, अब चलूंगी, आरव स्कूल से आता होगा.”
निशि के पेट में खलबली मची थी,’गुड्डन को आने दो आज उस की क्लास ले कर रहूंगी… 40- 45 साल के राजेंद्र जैसे मालदार पर अपना हाथ मारा है. कहीं मेरे सीधेसादे रवि पर भी अपना जादू न चला दे. ऐसी छोरियां पैसे के लिए कुछ भी कर सकती हैं…‘
नाथू जी ने ध्यान दिया कि जो बालकनियां वीरान थीं वहां लोग आ कर उन्हें ही घूरने लगे. थोड़ी ही देर में जो दोचार बालकनियां खाली थीं वहां भी लोग आ गए थे और सभी की निगाहें उन्हीं की तरफ थीं. नाथू ने साची से कहा, “चलो, अंदर चलते हैं.” “पर क्यों? अभी तो बाहर आप ने ही बुलाया था, फिर अचानक अंदर क्यों?”
“दरअसल, धूप थोड़ी ज़्यादा तेज़ है न.”“कोई धूप तेज़ नहीं है, मैं सब समझती हूं. हम ने कोई गुनाह नहीं किया. अपनी सारी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाने के बाद यदि अपने लिए, अपनी खुशी के लिए जीने की कोशिश की तो क्या गुनाह किया? लोगों के बारे में सोचना छोड़ दीजिए.”
“अच्छा, अभी घर में चलो, इस विषय में बाद में सोचते हैं,” ऐसा कह कर नाथू ने पत्नी का हाथ पकड़ कर घर में चलने का इशारा किया तो साची ने उन के कंधे पर सिर टिका दिया. नाथू को अच्छा तो लगा पर वे जिस दुनियादारी से डर कर उसे घर में बुला रहे थे, उसी का तमाशा बन गया. वे चाह कर भी साची से कुछ कह नहीं पाए.
साची के इज़हार में यही बेबाकीपन, खुलापन, नाथू जी को भा गया था. उन्हें याद आया कि पहली बार जब साची उन के औफिस में आई थी, उस का बातोंबातों में कहकहे लगाना, हंसते हुए बालों को पीछे फेंकने का अंदाज़ उन के वर्षों से संन्यासी मन को आसक्त कर गया पर दुनियादारी को देखते हुए उन्होंने अपने मन को समझा लिया था. वे इंश्योरैंस कंपनी में ऊंचे पद पर काम करते थे. वहीं उन की मुलाकात साची से हुई. साची अपनी सभी जमापूंजी इकट्ठा कर के अपनी बेटियों के पास अमेरिका जाना चाहती थी. काम के सिलसिले में कई बार मुलाकात हुई तो नाथू जी का मन किया कि एक बार ही सही वे साची से कहें अवश्य कि इस प्रकार सबकुछ समेट कर बेटियों के पास जाना ठीक नहीं. अपना देश, अपना घर अपना ही होता है पर न जाने क्यों कह नहीं पाए.
एक दिन सुबह से नाथू जी का मन बहुत खुश था. सफेद वाली शर्ट पहनी. फिर न जाने क्या सोच कर उसे उतार कर हलके नीले रंग की शर्ट पहन ली. परफ्यूम लगाया. फिर लगा कि कुछ कम है, सो दोबारा छिड़का और गुनगुनाते हुए चल दिए. आज साची को आना था. हर आहट पर उन का दिल धड़क उठता था. कई बार उन्हें अपनी बेचैनी पर गुस्सा भी आता कि आखिर इस उम्र में यह उतावलापन, लोग क्या सोचेंगे? सुप्रभा की मृत्यु के बाद मां ने न जाने कितनी बार जिद किया कि वे दूसरी शादी कर लें, बच्चे अभी छोटे हैं, कौन इन की देखभाल करेगा, कैसे अकेले जिंदगी कटेगी वगैरहवगैरह. हर बार नाथू हंस कर टाल जाते. जिस सुप्रभा से उन्होंने टूट कर प्यार किया था, उस की जगह किसी और स्त्री के बारे में कभी सोच ही नहीं पाए. बस, बच्चों को सुप्रभा की अमानत मान उन पर अपना सारा प्यार लुटाते रहे. माताजी के रहने के कारण कभी कोई चिंता ही नहीं हुई. माताजी भी बच्चों के साथसाथ नाथू का पहले से ज़्यादा खयाल करने लगीं.
आईएएस की ट्रेनिग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग जिला नागौर के डीएम के रूप में हुई. राजस्थान कैडर की अधिकारी थी, जानती थी राजस्थान के किसी जिले की डीएम बना कर भेजी जाऊंगी. लेकिन पहली बार में मुझे होम स्टेशन मिलेगा, इस की उम्मीद नहीं थी.
मुझे जब ट्रेनिंग संस्थान के प्रिंसिपल साहब ने इस पोस्टिंग के बारे और मेरी मूवमैंट के बारे में
जिलाधिकारी को लिखे सारे पत्र सौंपे तो मेरी आंखें आश्चर्य से खुली रह गईं.
‘‘मैं आप के यहां तक पहुंचने के संघर्ष को जान गया था. मैं ने गृह मंत्रालय से कह कर आप की पोस्टिंग नागौर की करवाई है. क्यों खुश नहीं हो?’’
‘‘सर, बहुत खुश हूं. थोड़ा हैरान जरूर हूं कि इतनी जल्दी मुझे उन अपनों के चेहरों के भाव
देखने को मिलेंगे जिन्होंने पगपग पर मेरे लिए कठिनाइयां उत्पन्न कीं, विरोध किया, पढ़ाई में
अड़चनें डालीं. मैं समझती हूं, मेरा पैतृक कसबा जायल भी इसी नागौर जिले के अंतर्गत आता है.’’
‘‘जिला नागौर ही है लेकिन तहसील डीडवाना के अंतर्गत आता है. तुम्हारे अधिकार क्षेत्र में रहेगा.
जाओ, उन के चेहरों के भाव देखो और खूब काम करो. मेरी शुभकामनाएं.’’
जब मेरी ट्रेन नागौर रेलवे स्टेशन पर पहुंची तो सुबह के 8 बज चुके थे. स्टेशन पर मुझे लेने के
लिए 2 महिला इंस्पैक्टर और डीएम औफिस के इंचार्ज आए हुए थे. उन को मुझे पहचानने में कोई दिक्कत नहीं इुई. महिला इंस्पैक्टर ने मुझे सैल्यूट किया. औफिस इंचार्ज ने भी इसी तरह का सम्मान व्यक्त किया.
‘‘मैडम, जब तक आप को सरकरी क्वार्टर अलौट नहीं हो जाता तब तक आप को नागौर रैस्ट हाउस में कमरा अलौट किया गया है.’’
‘‘वहां खाने की व्यवस्था ठीक रहेगी?’’
‘‘जी, मैडम. वहां शानदार मैस है जहां नौमिनल रेट पर खाने की हर चीज उपलब्ध रहती है. ये
महिला इंस्पैक्टर आप के लिए डिटेल हैं जो बारीबारी 24 घंटे आप का खयाल रखेंगी.’’
दोनों इंस्पैक्टर ने अपना परिचय दिया. मैं ने उन से हाथ मिलाना चाहा तो उन्होंने मुझे सैल्यूट
किया लेकिन हाथ नहीं मिलाया. मैं ने इस के लिए पूछा तो इंस्पैक्टर संगीता ने कहा, ‘‘यहां किसी भी अधिकारी से हाथ मिलाने की परंपरा नहीं है. हमारे प्रोटोकौल में नहीं है.’’
रैस्ट हाऊस शानदार और आधुनिक था. चौथी मंजिल पर अलौट कमरा नं. 402 भी बहुत शानदार था. अटैच वाशरूम था जिस में हर तरह की सुविधाएं थीं.
“तुम्हारे लिए शुभ समाचार है शिप्रा पटेल,” मोहिनी बड़ी अदा से मुसकराई मानो शिप्रा पर कोई उपकार कर रही हो.
‘‘शुभ समाचार… वह भी तुम्हारे मुंह से? चलो, सुना ही डालो,’’ शिप्रा व्यंग्य भरे लहजे में बोली.
‘‘तुम्हारे प्यारे आशीष गुर्जर को मैं ने तुम्हारे लिए छोड़ दिया है. अब तुम साथ जीनेमरने के अपने वादे पूरे कर सकते हो,’’ मोहिनी पर्स से दर्पण निकाल कर अपनी छवि निहारते हुए बोली.
‘‘मेरी चिंता तुम ना ही करो तो अच्छा है. पर, बेचारे आशीष को क्यों छोड़ आई? कोई मिल गया क्या?’’
‘‘तुम्हें नहीं पता क्या? मेरा विवाह दिल्ली के प्रसिद्ध व्यावसायिक घराने में तय हो गया है. आशीष बहुत रोयागिड़गिड़ाया, कहने लगा कि मैं ने उसे छोड़ दिया तो आत्महत्या कर लेगा. उस ने क्या सोचा था? मैं उस से विवाह करूंगी? मैं ने ही उसे समझाया कि वैसे तो शिप्रा अब तक तुम्हारी बाट जोह रही है. और फिर जाति के बाहर शादी करने पर होहल्ला बेकार ही हो, इसलिए यह संबंध यहीं खत्म करना होगा. पर वह मूर्ख कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है.’’
‘‘तुम से किस ने कहा कि मैं आशीष की बाट जोह रही हूं. तुम होती कौन हो मेरे संबंध में इस तरह की बात करने वाली?” शिप्रा कोध में आ गई.
‘‘पर, यों कहो कि तुम्हारी ऊंची जाति की अकड़ अब बीच में आ गई है. हम पिछड़ी जाति वालों को तो तुम वैसे ही पीठ पीछे बुराभला कहते रहते हो.’’
‘‘लो और सुनो, मैं तुम्हारी सब से प्यारी सहेली हूं, अब क्या यह भी याद दिलाना पड़ेगा?’ क्या जाति की बात मैं ने कभी की थी?”
‘‘सहेली हो नहीं, थी कभी. तुम्हारे जैसे मित्र हों तो शत्रु की क्या आवश्यकता है? एकसाथ एक ही कक्षा में पढ़ने के कारण तुम से हंसबोल लेती हूं तो इस का यह मतलब तो नहीं कि तुम अब भी मेरी प्रिय सहेली हो. सच पूछो, तो तुम ने और आशीष ने मेरे साथ जो किया, उस के बाद से मेरा मित्रता और प्रेम जैसे शब्दों से विश्वास ही उठ गया है. हम एक समाज से आते थे, इसलिए घुलमिल रहे थेे पर तुम ने तो उसे भी खट्टा कर दिया,’’ आक्रोश से शिप्रा का स्वर भर्रा गया और आंखें ड़बड़बा गईं.
‘‘यों दिल छोटा नहीं करते. इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं होता. वैसे भी तुम मानो ना मानो मैं तो तुम्हें अब भी अपनी सब से प्रिय सहेली मानती हूं.’’
‘‘अपने विचार मुबारक हो तुम्हें, पर मैं स्थायी संबंधों की तलाश में हूं. वैसे, एक शुभ सूचना तुम्हें मैं भी दे दूं कि मैं आशीष की बाट नहीं जोह रही. मैं ने अपने मातापिता द्वारा चुने वर से विवाह करने का निर्णय किया है,’’ शिप्रा ने बात समाप्त की.
‘‘तुम तो बड़ी छुपी रुस्तम निकली? बताया तक नहीं कि विवाह कर रही हो?’’
‘‘ऐसा कुछ बताने को है भी नहीं, मैं तो अपने जैसे हमारी ही जाति के मध्यमवर्गीय परिवार के युवक से विवाह कर रही हूं. वह न तो तुम्हारे वर की भांति बड़े ऊंची जाति वाले घराने का है और ना ही लाखों में एक. वह तो मेरे जैसे साधारण रूपरंग वाला युवक है और इतना कमा लेता है कि हम दोनों आराम से रह सकें. सच पूछो तो उस के व्यवहार में बड़बोलापन कहीं नजर नहीं आया. बातबात पर हंसना और हंसाना. अब तक केवल दो बार मिली हूं उस से. पर न जाने कैसा जादू कर दिया है उस ने कि फोन पर घंटों व्हाट्सएप चैट कर के भी मन तृप्त नही.’’
‘‘यह तो बड़ा ही शुभ समाचार है. कुछ ही दिनों में परीक्षा समाप्त हो जाएंगी और हम दोनों बिछुड़ जाएंगे, पर अपने विवाह में बुलाना मत भूल जाना. आशीष को मारो गोली, उसे कोई और मिल जाएगी.’’
शिप्रा का रुख देख कर मोहिनी ने बात बदल दी थी.
शिप्रा दूर तक मोहिनी को जाते हुए देखती रही थी. दोनों की घनिष्ठ मित्रता की चर्चा कालेज भर में थी. दोनों ही एक जिस्म एक जान थीं. लोगों को आश्चर्य होता था कि अलग जातियों के होते हुए भी इन की कैसे चल रही है. पर जब मोहिनी आशीष को ही ले उड़ी थी तो शिप्रा को संभालने में लंबा समय लगा था. उसे सारा संसार स्वार्थी और अर्थहीन लगने लगा था. आज वही मोहिनी उस के लिए आकाश को छोड़ने की बात कर रही थी मानो वह कोई कठपुतली हो, जिसे मोहिनी अपनी उंगलियों पर नचा सके. फिर उस ने एक झटके से इस विचार को झटक दिया था. परीक्षा सिर पर थी और वह मोहिनीआशीष प्रकरण में उलझ कर अपना भविष्य दांव पर नहीं लगा सकती.
‘सुश्री हरिनाक्षी नारायण ने आज जिला कलक्टर व चेयरमैन, शहर विकास प्राधिकार समिति का पदभार ग्रहण किया.’
आगे पढ़ने की जरूरत नहीं थी क्योंकि लीना अपने कालिज और कक्षा की सहपाठी रह चुकी हरिनाक्षी के बारे में सबकुछ जानती थी.
यह अलग बात है कि दोनों की दोस्ती बहुत गहरी कभी नहीं रही थी. बस, एकदूसरे को वे पहचानती भर थीं और कभीकभी वे आपस में बातें कर लिया करती थीं.
मध्यवर्गीय दलित परिवार की हरिनाक्षी शुरू से ही पढ़ाई में काफी होशियार थी. उस के पिताजी डाकखाने में डाकिया के पद पर कार्यरत थे. मां एक साधारण गृहिणी थीं. एक बड़ा भाई बैंक में क्लर्क था. पिता और भाई दोनों की तमन्ना थी कि हरिनाक्षी अपने लक्ष्य को प्राप्त करे. अपनी महत्त्वाकांक्षा को प्राप्त करने के लिए वह जो भी सार्थक कदम उठाएगी, उस में वह पूरा सहयोग करेंगे. इसलिए जब भी वे दोनों बाजार में प्रतियोगिता संबंधी अच्छी पुस्तक या फिर कोई पत्रिका देखते, तुरंत खरीद लेते थे. यही वजह थी कि हरिनाक्षी का कमरा अच्छेखासे पुस्तकालय में बदल चुका था.
हरिनाक्षी भी अपने भाई और पिता को निराश नहीं करना चाहती थी. वह जीजान लगा कर अपनी पढ़ाई कर रही थी. कालिज में भी फुर्सत मिलते ही अपनी तैयारी में जुट जाती थी. लिहाजा, वह पूरे कालिज में ‘पढ़ाकू’ के नाम से मशहूर हो गई थी. उस की सहेलियां कभीकभी उस से चिढ़ जाती थीं क्योंकि हरिनाक्षी अकसर कालिज की किताबों के साथ प्रतियोगी परीक्षा संबंधी किताबें भी ले आती थी और अवकाश के क्षणों में पढ़ने बैठ जाया करती.
लीना, हरिनाक्षी से 1 साल सीनियर थी. कालिज की राजनीतिक गतिविधियों में खुल कर हिस्सा लेने के कारण वह सब से संपर्क बनाए रखती थी. वह विश्वविद्यालय छात्र संघ की सचिव थी. उस के पिता मुखराम चौधरी एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल ‘जनमत मोर्चा’ के अध्यक्ष थे. इस राजनीतिक पृष्ठभूमि का लाभ उठाने में लीना हमेशा आगे रहती थी. यही वजह थी कि कालिज में भी उस की दबंगता कायम थी.
एकमात्र हरिनाक्षी थी जो उस के राजनीतिक रसूख से जरा भी प्रभावित नहीं होती थी. लीना ने उसे कई बार छात्र संघ की राजनीति में खींचने की कोशिश की थी. किंतु हर बार हरिनाक्षी ने उस का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. उसे केवल अपनी पढ़ाई से मतलब था. जलीभुनी लीना फिर ओछी हरकतों पर उतर आई और उस के सामने जातिगत फिकरे कसने लगी.
‘अरे, यह लोग तो सरकारी कोटे के मेहमान हैं. थोड़ा भी पढ़ लेगी तो अफसर…डाक्टर…इंजीनियर बन जाएगी. बेकार में आंख फोड़ती है.’
कभी कहती, ‘सरकार तो बस, इन्हें कुरसी देने के लिए बैठी है.’
हरिनाक्षी पर उस के इन फिकरों का जरा भी असर नहीं होता था. वह बस, मुसकरा कर रह जाती थी. तब लीना और भी चिढ़ जाती थी.
लीना के व्यंग्य बाणों से हरिनाक्षी का इरादा दिनोदिन और भी पक्का होता जाता था. कुछ कर दिखाने का जज्बा और भी मजबूत हो जाता.
हरिनाक्षी ने बी.ए. आनर्स की परीक्षा में सर्वोच्च श्रेणी में स्थान प्राप्त किया तो सब ने उसे बधाई दी. एक विशेष समारोह में विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने उस का सम्मान किया.
हरिनाक्षी ने उस समारोह में शायद पहली और आखिरी बार अपने उद्गार व्यक्त करते हुए परोक्ष रूप से लीना के कटाक्षों का उत्तर देने की कोशिश की थी :
‘शुक्र है, विश्वविद्यालय में और सब मामलों में भले ही कोटे का उपयोग किया जाता हो, मगर अंक देने के मामले में किसी भी कोटे का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.’ यह कहते हुए हरिनाक्षी की आंखों में नमी आ गई थी. सभागार में सन्नाटा छा गया था. सब से आगे बैठी लीना के चेहरे का रंग उड़ गया था.
उस दिन के बाद से लीना ने हरिनाक्षी से बात करना बंद कर दिया था.
इस बीच हरिनाक्षी की एक प्यारी सहेली अनुष्का का दिन दहाडे़ एक चलती कार में बलात्कार किया गया था. बलात्कारी एक प्रतिष्ठित व्यापारी का बिगडै़ल बेटा था. पुलिस उस के खिलाफ सुबूत जुटा नहीं पाई थी. लिहाजा, उसे जमानत मिल गई थी.
क्षुब्ध हरिनाक्षी पहली बार लीना के पास मदद के लिए आई कि बलात्कारी को सजा दिलाने के लिए वह अपने पिता के रसूख का इस्तेमाल करे ताकि उस दरिंदे को उस के किए की सजा मिल सके.
लीना ने साफसाफ उसे इस झमेले में न पड़ने की हिदायत दी थी, क्योंकि वह जानती थी कि उस के पिता उस व्यापारी से मोटी थैली वसूलते थे.
अनुष्का ने आत्महत्या कर ली थी. लीना बुरी तरह निराश हुई थी.
हरिनाक्षी उस के बाद ज्यादा दिनों तक कालिज में रुकी भी नहीं थी. एम.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ते हुए ही उस ने ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ की परीक्षा दी थी और अपनी मेहनत व लगन के बल पर तमाम बाधाओं को पार करते हुए सफल प्रतियोगियों की सूची में देश भर में 7वां स्थान प्राप्त किया था. आरक्षण वृत्त की परिधि से कहीं ऊपर युवतियों के वर्ग में वह प्रथम नंबर पर थी.
उस के बाद लीना के पास हरिनाक्षी की यादों के नाम पर एक प्रतियोगिता पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी उस की मुसकराती छवि ही रह गई थी. अपनी भविष्य की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करती हुई लीना ने जाने क्या सोच कर उस पत्रिका को सहेज कर रखा था. एक भावना यह भी थी कि कभी तो यह दलित बाला उस की राजनीति की राहों में आएगी.
लीना के पिता अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में हर जगह बेटी को पेश करते थे. लीना की शादी भी उन्होंने एक व्यापारिक घराने में की थी. उस के पति का छोटा भाई वही बलात्कारी था जिस ने लीना के कालिज की लड़की अनुष्का से बलात्कार किया था और सुबूत न मिल पाने के कारण अदालत से बरी हो गया था.
लीना शुरू में इस रिश्ते को स्वीकार करने में थोड़ा हिचकिचाई थी, लेकिन पिता ने जब उसे विवाह और उस के राजनीतिक भविष्य के बारे में विस्तार से समझाया तो वह तैयार हो गई. लीना के पिता ने लड़के के पिता के सामने यह शर्त रख दी थी कि वह अपनी होने वाली बहू को राजनीति में आने से नहीं रोकेंगे.
लीना आज अपनी राष्ट्रीय पार्टी ‘जनमत मोर्चा’ की राज्य इकाई की सचिव है. पूरे शहर के लिए हरदम चर्चा में रहने वाला एक अच्छाखासा नाम है. आम जनता के साथसाथ ब्लाक स्तर से ले कर जिला स्तर तक सभी प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी उसे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं. अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल वह अपने पति के भवन निर्माण व्यवसाय की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति के लिए बखूबी कर रही थी. इन दिनों उस के पति कमलनाथ अपने एक नए प्रोजेक्ट का काम शुरू करने से पहले कई तरह की अड़चनों का सामना कर रहे थे.
लीना को पूरी उम्मीद थी कि हरिनाक्षी पुरानी सहपाठी होने के नाते उस की मदद करेगी और अगर नहीं करेगी तो फिर खमियाजा भुगतने के लिए उसे तैयार रहना होगा. ऐसे दूरदराज के इलाके में तबादला करवा देगी कि फिर कभी कोई महिला दलित अधिकारी उस से पंगा नहीं लेगी. कमलनाथ लीना को बता चुके थे कि इस प्रोजेक्ट में उन के लाखों रुपए फंस चुके थे.
दरअसल, शहर के व्यस्त इलाके में एक पुराना जर्जर मकान था. इस के आसपास काफी खाली जमीन थी. मकान मालिक शिवचरण उस मकान और जमीन को किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं हो रहे थे. अपने बापदादा की निशानी को वह खोना नहीं चाहते थे. उस मकान से उन की बेटी अनुष्का की ढेर सारी यादें जुड़ी हुई थीं.
कमलनाथ ने एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को अपने प्रोजेक्ट में यह कह कर हिस्सेदारी देने की पेशकश की थी कि वह शिवचरण को ‘येन केन प्रकारेण’ जमीन खाली करने पर या तो राजी कर लेंगे या फिर मजबूर कर देंगे.
उस पुलिस अधिकारी ने अपने रोबदाब का इस्तेमाल करना शुरू किया, लेकिन शिवचरण थे कि आसानी से हार मानने को तैयार नहीं हो रहे थे. पहले तो वह पुलिसिया रोब से भयभीत नहीं हुआ बल्कि वह अपनी शिकायत पुलिस थाने में दर्ज कराने जा पहुंचा. यहां उसे बेहद जिल्लत झेलनी पड़ी थी. भला पुलिस अपने ही किसी आला अधिकारी के खिलाफ कैसे मामला दर्ज कर सकती थी? उन्होंने लानतमलामत कर उसे भगा दिया.
शिवचरण ने भी हार नहीं मानी और उन्हें पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन उन की फरियाद जरूर सुनी जाएगी.
नई कलक्टर के कार्यभार संभालने की खबर ने उन के दिल में फिर से आस जगाई.
हर तरफ से निराश शिवचरण कलक्टर के दफ्तर पहुंचे.
आज कलक्टर साहिबा से वह मिल कर ही जाएंगे. चाहे कितना भी इंतजार क्यों न करना पडे़.