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दो खजूर : क्या आसिफ मुस्तफा काजी के पद के योग्य था ?

बगदाद के बादशाह मीर काफूर ने अपने विश्वासी सलाहकार आसिफ मुस्तफा को बगदाद का नया काजी नियुक्त किया, क्योंकि निवर्तमान काजी रमीज अबेदिन अब बूढ़े हो चले थे और उन्होंने बादशाह से गुजारिश की थी कि अब उन का शरीर साथ नहीं दे रहा है इसलिए उन्हें राज्य के काजी पद की खिदमत से मुक्त कर दें. बगदाद राज्य का काजी पद बहुत महत्त्वपूर्ण और जिम्मेदारी भरा होता था. बगदाद के काजी पद पर नियुक्ति की खुशी में आसिफ मुस्तफा ने एक जोरदार दावत दी. उस दावत में उस के मातहत राज्य के सभी न्यायिक दंडाधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी आमंत्रित थे. राज्य के लगभग सभी सम्मानित व्यक्ति भी दावत में उपस्थित थे.

सब लोग दावत की खूब तारीफ कर रहे थे, क्योंकि वहां हर चीज मजेदार बनी थी. आसिफ मुस्तफा सारा इंतजाम खुद देख रहा था. सुरीले संगीत की धुनें वातावरण को और भी रसमय बना रही थीं. अचानक आसिफ मुस्तफा को ध्यान आया कि उस ने एक चीज तो मंगवाईर् ही नहीं. आजकल खजूर का मौसम चल रहा है. अत: उस फल का दावत में होना जरूरी है. बगदाद में पाया जाने वाला अरबी खजूर बहुत स्वादिष्ठ होता है. दावतों में भी उसे चाव से खाया जाता है.

आसिफ ने अपने सब से विश्वसनीय सेवक करीम को बुलाया और उसे सोने का एक सिक्का देते हुए कहा, ‘‘जल्दी से बाजार से 500 अच्छे खजूर ले आओ.’’ बगदाद में खजूर वजन के हिसाब से नहीं बल्कि संख्या के हिसाब से मिलते थे. सेवक फौरन रवाना हो गया. थोड़ी देर बाद लौटा तो उस के पास खजूरों से भरा हुआ एक बड़ा थैला था.

आसिफ मुस्तफा ने कहा, ‘‘थैला जमीन पर उलटो और मेरे सामने सब खजूर गिनो.’’

करीम अपने मालिक के इस आदेश पर दंग रह गया. वह सोच भी नहीं सकता था कि उस का मालिक उस जैसे पुराने विश्वसनीय सेवक पर इस तरह शक करेगा. सब मेहमान भी हैरत से आसिफ की तरफ देखने लगे.

करीम ने फल गिनने शुरू किए. जब गिनती पूरी हुई तो वह थरथर कांपने लगा. खजूर 498 ही थे. आसिफ बिगड़ कर बोला, ‘‘तुम ने बेईमानी की है. तुम ने 2 खजूर रास्ते में खा लिए हैं. तुम्हें इस जुर्म की सजा अवश्य मिलेगी.’’

करीम ‘रहमरहम…’ चिल्लाता रहा, लेकिन आसिफ मुस्तफा जरा भी नहीं पसीजा. उस ने सिपाहियों को आदेश दिया कि करीम को फौरन गिरफ्तार कर लिया जाए. आसिफ के इस बरताव से सारे मेहमान हक्केबक्के थे कि इतनी सी बात पर एक पुराने वफादार सेवक को सजा देना कहां का इंसाफ है.

आसिफ ने आदेश दिया, ‘‘करीम की पीठ पर तब तक कोड़े बरसाए जाएं, जब तक वह अपना अपराध कबूल न कर ले.’’ उस के आदेश का पालन किया जाने लगा. करीम की चीखें शामियाने में गूंजने लगीं. जब पिटतेपिटते करीम लहूलुहान हो गया तो उस ने चिल्ला कर कहा, ‘‘हां, मैं ने 2 खजूर चुरा लिए, 2 खजूर चुरा लिए. मीठेमीठे खजूर देख कर मेरा जी ललचा गया था. मैं अपराध कबूल करता हूं. मुझे छोड़ दो.’’

उस की इस बात पर मेहमानों में खुसुरफुसुर होने लगी कि अब ईमानदारी का जमाना नहीं रहा. जिसे देखो, वही बेईमानी करता है. किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता, वफादार सेवक पर भी नहीं. सभी करीम को कोस रहे थे, जिस की वजह से दावत का मजा किरकिरा हो गया था. तभी आसिफ मुस्तफा ने कहा, ‘‘सिपाहियो, खोल दो इस की जंजीरें.’’

जंजीरें खोल दी गईं. करीम को आसिफ के सामने पेश किया गया. सारे मेहमान चुपचाप देख रहे थे कि अब आसिफ मुस्तफा उस के साथ क्या व्यवहार करता है. सब का विचार था कि करीम ने अपराध स्वीकार कर लिया है इसलिए इसे बंदीगृह में भेज दिया जाएगा या नौकरी से निकाल दिया जाएगा. लेकिन इस के बाद आसिफ मुस्तफा अपनी जगह से उठ कर करीम के पास आया. उस के शरीर से रिसते खून को अपने रूमाल से साफ किया. उस की मरहमपट्टी की और दूसरे साफ कपड़े पहनाए. सभी आश्चर्य करने लगे कि यह क्या तमाशा है. जब करीम रहम की भीख मांग रहा था, तब तो उस की पुरानी वफादारी का लिहाज नहीं किया और अब कबूल चुका है तो उस की मरहमपट्टी हो रही है.

आसिफ मुस्तफा ने करीम से माफी मांगी. फिर मेहमानों से कहने लगा, ‘‘मैं जानता हूं करीम बेकुसूर है. इस ने कोई अपराध नहीं किया. यह देखिए,’’ उस ने अपने कुरते की आस्तीन में से 2 खजूर निकाल कर कहा, ‘‘ये हैं वे 2 खजूर जिन्हें मैं ने पहले ही फुरती से निकाल लिया था. ऐसा मैं ने इसलिए किया था कि आप को बता सकूं कि लोगों को कठोर दंड दे कर जुर्म कबूल करवाना कितनी बड़ी बेइंसाफी है, लेकिन ऐसा हो रहा है. हमारा काम अपराधियों का पता लगाना और उन के अपराध के लिए उन्हें सजा देना है न कि किसी भी निर्दोष को मार कर उसे चोर साबित करना.’’ सभी आसिफ मुस्तफा की इस सच्ची बात पर वाहवाह कर उठे. उन्हें विश्वास हो गया कि आसिफ वाकई काजी के पद के योग्य है. उस के कार्यकाल में किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलेगी और कुसूरवार बच नहीं पाएगा.

वजन कम करने में मददगार हैं ये 5 फल

जंक फूड और फास्ट फूड के इस दौर में मोटापा और वजन का बढ़ना लोगों की आम समस्या बन गई है. इसके लिए लोग एक्सरसाइज से लिए डाइटिंग करते हैं. डाइटिंग के चक्कर में लोग जरूरी सब्जियों और फलों को अपनी डाइट से दूर रखते हैं. फलों को लेकर लोगों का मानना है कि उसमें शुगर की मात्रा अधिक होती है जो शरीर में कार्बोहाइड्रेट काउंट बढ़ाता है, जिसके कारण वजन बढ़ता है. पर इस चक्कर में लोग भूल जाते हैं कि फल ना खाकर वे कितने पोषक तत्वों के लाभ से खुद को दूर कर दे रहे हैं. आपको बता दें कि फल फाइबर रिच होने के साथ साथ कई विटामिन्स से भरपूर होते हैं.

इस खबर में हम आपको उन फलों के बारे में बताएंगे जिन्हें उचित मात्रा में खाने से वजन को घटाने में काफी मदद मिलती है.

स्ट्रौबेरी

वजन घटाने वाले जरूरी फलों में स्ट्रौबेरी को सबसे अच्छे फलों में गिना जाता है. इसमें कार्बोहाइड्रेट बेहद कम मात्रा में होता है. इसके अलावा एंटीऔक्सिडेंट की मात्रा भी प्रचूर होती है. जानकारों की माने तो 100 ग्राम स्ट्रौबेरी में केवल 8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होती है.

 ब्लैकबेरी

बिना किसी चीज से मिला कर खाने से ब्लैकबेरी बेहद फायदेमंद होता है. इसके 100 ग्राम में 10 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होती है. यानि कि लो कार्बोहाइड्रेट डाइट में इसे शामिल किया जा सकता है.

खरबूज

इस फल में भी कार्बोहाइड्रेट की मात्रा अधिक नहीं होती है. इसलिए वजन कम करने के लिहाज से ये बेहद प्रभावशाली होता है. 100 ग्राम खरबूज में 8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट मौजूद होती है.

तरबूज

वजन घटाने के लिए तरबूज एक महत्वपूर्ण फल है. इसमें कैलोरी की मात्रा कम होती है. 100 ग्राम तरबूज में 8 ग्राम ही कार्बोहाइड्रेट होती है.

पीच

वेट लूज करने में पीच एक कारगर फल है. 100 ग्राम पीच में केवल 10 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होती है. इसके अलावा पीच में कैटेचिन्स भी होता है और इसका ग्लाइकेमिक इंडेक्स भी कम होता है.

शरीफ गवाह : अदालत की पेशियों के चक्कर में फंसे व्यक्ति की कहानी

‘जमालपुर जाने वाली 2746 डाउन रेलगाड़ी प्लेटफार्म नंबर 1 के बजाय प्लेटफार्म नंबर 3 पर आएगी.’ लाउडस्पीकर से जब यह आवाज आई, तो प्लेटफार्म नंबर 1 पर रेलगाड़ी का इंतजार कर रहे मुसाफिरों में अफरातफरी मच गई. सब पुल की सीढि़यां चढ़ कर प्लेटफार्म नंबर 3 पर पहुंचे.

अवतार शरण भी अपना ब्रीफकेस थामे हांफतेहांफते सीढि़यां चढ़ रहे थे. उन की उम्र 50 साल थी. शरीर थोड़ा सा भारी था. किसी नौजवान के समान सीढि़यां चढ़नाउतरना उन की उम्र के माफिक नहीं था, मगर मजबूरी थी. सफर के दौरान ऐसी बातें होना आम है.अवतार शरण का मोटर के कलपुरजों और स्पेयर पार्ट्स का थोक का कारोबार था. हफ्ते के आखिर में और्डर लेने और पिछली उगाही के लिए वे आसपास के कसबों और शहरों के लिए निकलते थे. घर लौटते समय कभी शाम हो जाती, कभी आधी रात भी. जब से मोबाइल फोन का चलन हुआ था, एक फायदा यह हुआ था कि वे घर पर देर से लौटने की खबर कर देते थे.

‘खेद से सूचित किया जाता है कि जमालपुर वाली रेललाइन की फिश प्लटें निकल गई हैं, इसलिए आज जमालपुर वाली 2746 डाउन रेलगाड़ी रद्द की जाती है,’ लाउडस्पीकर पर यह सुन कर सब के चेहरे लटक गए.

अब क्या करें? रेलगाड़ी रद्द हो गई थी. बस से जाने का समय भी नहीं था. यह कसबा छोटा सा था. रेलवे स्टेशन का वेटिंग रूम ठीकठाक था, मगर कोई इंतजार नहीं कर सकता था.

‘‘चौक से शायद मैक्सी कैब मिल जाएगी,’’ एक मुसाफिर ने कहा. सब फिर से पुल की सीढि़यां चढ़ कर रेलवे स्टेशन के मेन गेट की ओर लपके.

अवतार शरण भी धीमी चाल से चल रहे थे. रेलवे स्टेशन से कसबे के चौक का 5 मिनट का पैदल रास्ता था. स्टेशन के बाहर एक कतार में कई रिकशे वाले सवारी की आस में खड़े थे. रिकशे वालों ने उम्मीद भरी नजरों से मुसाफिरों की तरफ देखा.

‘‘पैदल चलो जी. 5 मिनट की तो बात है. ये रिकशे वाले भी जरा से रास्ते के लिए 10-20 रुपए मांग लेते हैं,’’ एक मुसाफिर के कहने पर रिकशा करने की तैयारी कर रहे लोग भी पीछे हट गए.

मगर अवतार शरण के लिए पैदल चलना मुश्किल था. उन्होंने एक रिकशे वाले से पूछा, ‘‘चौक का क्या लोगे?’’

‘‘10 रुपए,’’ रिकशे वाले ने कहा.

‘‘10 रुपए…’’ वह कुछ सोचते हुए रिकशे में बैठ गए.

‘‘चौक में कहां जी?’’ रिकशे वाले ने पूछा.

‘‘जमालपुर के लिए मैक्सी कैब पकड़नी है.’’

‘‘मिल जाएगी जी. चौक में हर तरफ की कैब तैयार मिलती हैं,’’ रिकशे वाले ने कहा.

2 मिनट बाद चौक की तरफ कतार में खड़ी कई मैक्सी कैब के पास रिकशा रोक कर रिकशे वाले ने एक कैब की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘लालाजी, वह कैब जमालपुर जाएगी.’’

कैब के समीप पहुंचते ही एक नौजवान बोला, ‘‘आइएआइए सेठजी, सिर्फ 2 सवारियों की जगह बाकी है.’’

अवतार शरण ने पिछले दरवाजे से मैक्सी कैब के अंदर झांका. ठसाठस सवारियां भर रखी थीं, मानो सब भेड़बकरियां हों, मगर किसी सवारी को एतराज नहीं था.

अवतार शरण कैब के भीतर दाखिल हुए. एक सीट अभी भी खाली थी. उन के बैठते ही एक आदमी और आया. उस के बैठते ही एक नौजवान ने दरवाजा अच्छी तरह बंद किया और पायदान पर पैर टिका कर छत का सिरा पकड़ कर खड़ा हो गया और छत थपथपाई. कैब का इंजन एक झटके से चल पड़ा. कसबे के बाजारों से निकल कर कैब शहर के बाहर जाती डाबर की पक्की सड़क पर आई और सरपट दौड़ने लगी.

‘‘जमालपुर कितनी देर में आ जाएगा?’’ एक मुसाफिर ने अवतार शरण से पूछा.

‘‘गाड़ी तो पौना घंटा लेती है.’’

‘‘इस में भी पौन घंटा ही लगता है,’’ दरवाजे से लटका वह नौजवान बोला.

अभी 15-20 मिनट का ही सफर हुआ था कि एकाएक कैब धीमी होती थम गई. सड़क के बीचोंबीच एक पुलिस की जिप्सी खड़ी थी. तीनसितारा वरदी पहने एक पुलिस इंस्पैक्टर जिप्सी से टेक लगाए खड़ा था. 3 सिपाही हाथ में ‘ठहरें’ का सिगनल थामे थे. कैब के रुकते ही सिपाहियों ने कैब को घेर लिया. अवतार शरण के सामने बैठे अधेड़ उम्र के एक आदमी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

‘‘सब उतर कर एक तरफ खड़े हो जाओ. तलाशी होगी,’’ पुलिस इंस्पैक्टर की रोबदार आवाज गूंजी. सब धीरेधीरे उतर कर एक तरफ खड़े हो गए.

औरतों की तरफ एक सरसरी नजर डाल कर उन को कैब में बैठने का इशारा किया. फिर सब मर्दों की तलाशी शुरू हुई. अवतार शरण गंभीर हो गए. हाथ में थामे ब्रीफकेस में उगाही से आई अच्छी रकम थी.

एक सिपाही ने अवतार शरण को ब्रीफकेस खोलने का इशारा किया और ब्रीफकेस में रखी रकम देख कर चौंका.

‘‘कहां से आए हैं आप?’’

‘‘जी, मैं जमालपुर का हूं?’’

‘‘क्या काम करते हैं?’’

‘‘स्पेयर पार्ट्स का कारोबारी हूं.’’

‘‘ठीक है, बंद कीजिए.’’

इस के बाद साथ खड़े मुसाफिर के हाथ में पकड़ा एयर बैग खोलने का इशारा किया. वह हिचकिचाया और बोला, ‘‘इस में कुछ नहीं है.’’

‘‘कोई बात नहीं, आप खोल कर तो दिखाइए.’’

उस एयर बैग से पौलिथिन की थैलियों में बंद अफीम मिली. उस को हिरासत में ले कर हथकडि़यां डाल दी गईं. पुलिस को किसी मुखबिर ने खबर दी थी, इसलिए पुलिस की चैकिंग चल रही थी. अफीम तस्कर पकड़ा गया था. साथ में दूसरे मर्द मुसाफिरों के लिए परेशानी हो गई थी. औरतों को जाने दिया गया. मर्द मुसाफिरों को बतौर गवाह अपना नामपता, मोबाइल नंबर दर्ज कराने के लिए कहा गया. एक डायरी में एक सिपाही सब के नामपते दर्ज करता गया और मुसाफिर कैब में बैठते गए. अफीम तस्कर को ले कर पुलिस की जिप्सी चली गई.

कैब भी अपनी मंजिल की ओर चल पड़ी. अपने घर जमालपुर पहुंच कर इस घटना को एक मामूली सा वाकिआ समझ कर अवतार शरण भूल गए. मगर क्या यह वाकिआ सचमुच मामूली था? एक दोपहर स्थानीय अदालत से एक चपरासी एक समन ले आया.

‘‘अवतार शरण आप ही हैं न?’’

‘‘जी हां, क्या बात है?’’ अवतार शरण ने चौंक कर पूछा.

‘‘आप के नाम समन है.’’

‘‘समन…?’’ चौंक कर अवतार शरण ने पूछा.

‘‘जी हां, चमनगढ़ की फौजदारी अदालत से है.’’

‘‘फौजदारी अदालत, चमनगढ़…’’

‘‘मेरा मतलब मजिस्ट्रेट के कोर्ट से,’’ चपरासी ने कहा.

‘‘क्यों? मैं ने क्या किया? मैं तो कभी चमनगढ़ नहीं गया.’’

‘‘कियाधरा का मामला नहीं है. आप को शिनाख्त करनी है और गवाही देनी है,’’ चपरासी बोला.

‘‘किस की शिनाख्त? किस की गवाही?’’

‘‘यह आप कोर्ट जा कर पता करना,’’ चपरासी ने समन थमाया और डायरी खोल कर सामने रख दी.

अवतार शरण ने बेमन से दस्तखत किए और समन ले लिया. अवतार शरण का वास्ता कभी किसी अदालत और मुकदमे से नहीं पड़ा था, इसलिए वे उलझन में थे. पास के दुकानदार उम्रदराज थे, अनुभवी थे. वे समन ले कर उन के पास गए.

‘‘अवतार शरण, यह मामला शिनाख्त और गवाही का है. धाराएं नहीं लिखी हैं. सिर्फ मुकदमा नंबर, तारीख और मुलजिम का नाम है,’’ पड़ोसी दुकानदार नारायण दास ने समन पढ़ कर कहा.

‘‘चमनगढ़ की अदालत से समन आया है. मैं वहां कभी नहीं गया. अब मैं क्या करूं.’’

‘‘समन तुम्हें मिल गया है. तारीख पर कोर्ट में जा कर शिनाख्त कर आना और गवाही दे आना.’’

‘‘मैं मुलजिम को जानतापहचानता नहीं. मुझे इस मामले का कुछ भी नहीं पता.’’

‘‘पुलिस अदालत के बाहर आवाज पड़ने से पहले शिनाख्त करवा देगी और गवाही जैसे पुलिस कहे वैसे ही दे देना.’’

‘‘और अगर मैं नहीं गया तो…?’’

‘‘तब तो कोर्ट से तेरे नाम जमानती वारंट आएगा.’’

‘‘जमानती वारंट?’’ यह सुन कर अवतार शरण घबरा गए.

‘‘हां, पहले जमानती वारंट, फिर भी नहीं गए, तो गैरजमानती वारंट. तुम्हें गिरफ्तार कर के अदालत में पेश करेंगे,’’ नारायण दास उस के मुश्किल हालात के मजे ले रहे थे.

उतरा हुआ चेहरा लिए अवतार शरण अपनी दुकान पर जा बैठे. थोड़ी देर बाद उन का बेटा टिफिन ले कर आया और अपने पापा का उतरा हुआ चेहरा देख कर चौंका.

‘‘पापाजी, क्या हुआ? क्या तबीयत खराब है?’’ बेटे ने पूछा.

‘‘नहीं, यह कोर्ट का समन चपरासी दे गया है,’’ अवतार शरण ने कहा.

बेटे ने उस समन को लिया और पढ़ने लगा. उस की भी समझ में कुछ नहीं आया. बेटा बोला, ‘‘पापाजी, किसी वकील से सलाह करते हैं.’’

‘‘वकील से सलाह? कौन से वकील से? इस में तो काफी खर्चा होगा.’’

‘‘सलाह की क्या फीस? ऐसा तो बड़े शहरों के बड़े वकील करते हैं.’’

पड़ोसी दुकानदार नारायण दास के एक परिचित वकील ने यही कहा. समन मिलने पर अवतार शरण को कोर्ट जाना ही पड़ेगा. तय तारीख पर अवतार शरण अपने बड़े बेटे के साथ पड़ोस के कसबे चमनगढ़ की अदालत में पहुंचे. कसबा एक तहसील था, इसलिए वहां एक फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट ही बैठते थे. अदालत परिसर पुराने जमाने का साफसुथरा था. अवतार शरण को देखते ही एक दोसितारा वरदीधारी सबइंस्पैक्टर उन के पास आया.

‘‘अवतार शरण जमालपुर वाले?’’

‘‘जी हां,’’ उन्होंने समन दिखाते हुए कहा.

‘‘आप को अफीम के तस्कर शमशेर सिंह की शिनाख्त करनी है.’’

‘‘अफीम का तस्कर? ओह वही, जो  मैक्सी कैब में पकड़ा गया था?’’

‘‘जी हां, वही.’’

‘‘मगर मैं उस को अब कैसे पहचानूंगा. 3 महीने पहले मैं ने उसे थोड़ी देर ही देखा था.’’

‘‘हम यहां हवालात में उसे आप को दिखा देते हैं. आप अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने शिनाख्त कर देना.’’

अदालत परिसर की हवालात में कई मुलजिम बंद थे. एक को इशारा कर के थानेदार ने सीखचों के नजदीक बुलाया. दाढ़ी वाला अधेड़ उम्र का आदमी सीखचों के पास आ कर खड़ा हुआ.

अवतार शरण ने उस को पहचान लिया. वह वही था, जो मैक्सी कैब में उन के सामने बैठा था. उस के बैग में से अफीम बरामद हुई थी. उस आदमी ने मायूसी से उन की तरफ देखा. उस की आंखों में उदासी का भाव था. अवतार शरण ने उसे गौर से देखा और फिर मुड़ आए. अदालत का समय होने में अभी देर थी. दरवाजे के ऊपर मजिस्ट्रेट के नाम व पद की नेमप्लेट लगी थी. पुलिस इंस्पैक्टर थोड़ी दूर ही खड़ा था. पेशी के लिए आसामी इधरउधर बैठे गपशप कर रहे थे.

‘‘इस मुकदमे में क्या मैं अकेला गवाह हूं?’’ इधरउधर देखते हुए अवतार शरण ने पूछा.

‘‘जी नहीं, 3 गवाह और हैं.’’

‘‘सिर्फ 4 गवाह. मैक्सी कैब में तो 15-20 आदमी थे,’’ तनिक हैरानी से उन्होंने कहा.

‘‘कुल 6 गवाह नामजद थे, मगर 12 के नामपते फर्जी निकले थे.’’

इंस्पैक्टर के इस जवाब से अवतार शरण और उन के साथ खड़ा बड़ा बेटा और दूसरे लोग हैरान हो गए. अवतार शरण खामोश हो गए. यह पूछने का फायदा नहीं था कि उन सब ने अपना नामपता क्यों फर्जी बताया था. वे सब समझदार थे. दुनियादार थे. भला कौन कोर्टकचहरी के पचड़े में फंसना चाहता है.अवतार शरण सोच रहे थे कि उन्होंने भी क्यों नहीं दुनियादारी दिखाते हुए अपना नामपता फर्जी लिखवा दिया, वरना वे भी इस कोर्टकचहरी और गवाही के चक्कर में फंसने से बच जाते. तभी अदालत का समय हो गया. चपरासी कमरे से बाहर आया. मुकदमों से संबंधित लोगों के नाम ले कर आवाज देने लगा.

अफीम के तस्कर के नाम से आवाज पड़ी. 2 सिपाही उसे ले कर आगे बढ़े. एक कठघरे में अवतार शरण खड़े हो गए. सामने वाले कठघरे में मुलजिम शमशेर सिंह था.

नौजवान मजिस्ट्रेट ने गवाह और मुलजिम की तरफ देखा. सरकारी वकील आगे बढ़ा और बोला, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘अवतार शरण.’’

‘‘कहां रहते हैं आप?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘काम क्या करते हैं?’’

‘‘मेरा स्पेयर पार्ट्स का थोक का कारोबार है.’’

‘‘मुलजिम को पहचानते हैं?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘एक महीने पहले जमालपुर जाने वाली मैक्सी कैब में मेरे साथ था.’’

‘‘पहले से जानते थे?’’

‘‘नहीं.’’

इस के बाद सवालों का सिलसिला चला. सब सवालजवाब एक तरफ बैठा रीडर सादा कागज पर लिखता जा रहा था. शिनाख्त और गवाही पूरी हुई. अवतार शरण ने सांस भरी कि चलो, मामला निबटा. मगर मामला कहां निबटा था. रीडर ने अगली तारीख डालते हुए कहा, ‘‘आप अगली पेशी पर आइए.’’

‘‘अगली पेशी पर क्यों?’’ अवतार शरण ने पूछा.

‘‘आप से बचाव पक्ष का वकील जिरह करेगा.’’

अवतार शरण का चेहरा फिर से गंभीर हो चला. वे बेटे के साथ बाहर चले आए. अगली पेशी पर मजिस्टे्रट छुट्टी पर था. नई तारीख पड़ गई. नई तारीख पर बचाव पक्ष का वकील बीमार था. फिर तारीख पड़ गई. फिर यह सिलसिला बन गया. तकरीबन 3 साल तक अदालत जाना पड़ा. उस के बाद उन का यह पचड़ा निबट गया. अपने कारोबार के सिलसिले में अवतार शरण पहले की तरह कभी बस से, कभी रेलगाड़ी से और कभी मैक्सी कैब से भी आतेजाते रहे. इस दौरान उन की मुलाकात मैक्सी कैब में अफीम तस्कर के खिलाफ गवाह बनाए आदमियों से भी हुई. वे सब कम पढ़ेलिखे और देहाती थे. मगर अवतार शरण जैसे काफी पढ़ेलिखे और शहरी के मुकाबले में ज्यादा दुनियादार थे.

इस मामले पर पूछने पर उन में से एक ने कहा, ‘‘पुलिस और थाना कचहरी के चक्कर में कौन पड़ता है जी. हम ने अपना नामपता फर्जी दे दिया. हमारा पिंड छूट गया. जिन का नामपता असली था, वे भी थाने के मुंशी को 2-4 सौ रुपए टिका कर अपना नाम कटवा आए थे. कोर्ट की पेशी को कौन भुगते?’’ अवतार शरण एकटक उन समझदार देहातियों को देख रहे थे.

अब हम खुश हैं : क्या जाति भेद दो दिलों को अलग कर पाया ?

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सूफियों को सियासत में क्यों घसीट रहे हैं सनातनी

सूफियों के बारे में यह आम राय गलत नहीं है कि वे आमतौर पर धार्मिक हिंसा से परहेज करते हैं, इस नातेवे कतई नुकसानदेह नहीं हैं. लेकिन सूफियों के बारे में पसरी यह धारणा बिलकुल गलत है कि वे कोई ऊंचे पहुंचे सिद्ध या चमत्कारी होते हैं और सभी धर्मों को मानते हैं. सूफी खालिस मुसलमान ही होते हैं जिनका कोई स्पष्ट मकसद नहीं है. वे दिनरात ऊपर वाले की आराधना किया करते हैं.

सूफीवाद को समझने के लिए इतना ही काफी नहीं है कि सूफी खुद को आशिक और ऊपरवाले को माशूक और भक्ति को इश्क करार देते हैं. सूफीवाद कहता यह है कि भक्ति में इतने लीन हो जाओ कि सुधबुध खो बैठो. यही मोक्ष है, जोजिंदगी का असल लुत्फ और मकसद है. कर्मकांडों को ईश्वर तकपहुंचने का जरिया न मानने वाले सूफीवाद के पास मेहनत कर खाने और जीने का भी उपदेश नहीं है. वे मानते हैं कि जिस भगवान ने पेट दिया है वही उसे भरने का इंतजाम भी करेगा. यह तो वे भी आज तक नहीं बता पाए कि यह ऊपरवाला आखिर कहीं है भी किनहीं, और अगर है तो उस तक पहुंचने और उस को पाने के लिए इतने सारे रास्ते, धर्म, संप्रदाय व दार्शनिक विचारधाराओं की जरूरत क्यों आन पड़ी.

सूफियों की उत्पत्ति और विकास को लेकर कोई प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है लेकिन आम सहमति इस बात पर इतिहासकारों में है कि उनकी उत्पत्ति फारस यानी वर्तमान ईरान में हुई थी और 11वीं शताब्दी में सूफी भारत आए थे. हालांकि, इराक के शहर बसरा को भी सूफीवाद की जन्मस्थली माना जाता है. मंसूर हल्लाज,राबिया और अल अदहम जैसे लोकप्रिय कवियों को इनका जनक माना जाता है.

शुरुआती दौर में सूफियों का एक मकसद इसलाम में सुधार का भी था जो कट्टरवादियों को रास नहीं आता था. इसलिए सूफीवाद की अनदेखी भी हुई और इसे स्वीकार्यता नहीं मिली. साल 1100 में अल गजाली के वक्त में सूफियों को मान्यता मिलना शुरू हुई जो अपने दौर के प्रमुख फारसी शिक्षाविद और तर्कशास्त्री थे.कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सूफीवाद की उत्पत्ति हजरत मोहम्मद की मौत के बाद 632 के लगभग हुई. सूफियों की शिक्षाएं, जिन्हें आदेश कहा जाता है, 12वीं शताब्दी में चलन में आई मानी जाती हैं.

इतिहास का यह कालखंड यानी मौजूदा दौर दुश्वारियों से भरा पड़ा है. दुनियाभर में कट्टरवाद चरम पर है.इसलाम के पहले ईरान में जरदोष्ट धर्म के अनुयायी रहते थे जिन्होंने जबरिया इसलाम कुबूल करना गवारा नहीं किया. उन्हें यातनाएं दी गईं तो कुछ लोग भारत के गुजरात के तटों पर आ बसे. इन्हें पारसी कहा जाता है जो अब बहुत कम बचे हैं. पारसी सूफी नहीं थे लेकिन सूफीवाद का खासा प्रभाव उन पर था.

तो फिर सूफी कौन थे और भारत कैसे आए, इन में से पहले सवाल का जवाव तो बेहद साफ है कि सूफी वे लोग थे जो कट्टर इसलाम का शिकार थे और सरल जीवन जीना चाहते थे. सूफीवाद जिन नामी कवियों के जरिए परवान चढ़ा उन में एक लोकप्रिय नाम रुबाइयों के लिए मशहूर उमर खैयाम का भी है जो प्रतिभाशाली गणितज्ञ भी थे.इस श्रृंखला में अगले नाम फिरदौसी, रूदाकी, रूमी और नासिर ए खुसरो के हैं.

आज की तरह तब भी दुनियाभर के सारे झगड़ेफसाद धर्म को लेकर ही होते थे. हालिया इजराइल और हमास जंग इसकी ताजी मिसाल है जिसमें हजारों बंदे बेमौत मारे गए. यह एक धर्मयुद्ध ही है जिसमें और भी न जाने कितने मारे जाएंगे, इसका इल्म खुदा के किसी बंदे को नहीं.धर्मांध यहूदी और मुसलमान, बस, जंगली बिल्लियों की तरह लड़े जा रहे हैं.

शांति औरअहिंसा के धार्मिक उपदेशों व सिद्धांतों को तो छोड़िए, कोई सूफी चिंतन का जिक्र तकनहीं कर रहा.तय है, इसीलिए कि वह भी एक धर्म की तरह ही है. फर्क इतना है कि उसकी राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता न के बराबर है. इसलाम की उदारवादी शाखा कहे जाने वाले सूफिज्म का फसाना बड़ा चालाकीभरा है कि ‘कटोरा लेकर खड़े रहो, नाचतेगाते रहो,मन लागा यारफकीरी में’वाली थ्योरी तुम्हें भूखा नहीं रहने देगी.अभिजात्य संगठित तरीके से भिक्षा मांगने का एक और नाम सूफीवाद है.

सनातनियों को याद आए सूफी

समाज के इस अनुपयोगी और अनुत्पादक वर्ग को अब हैरत की बात है कि भाजपा घेर रही है. सूफी संवाद महाभियान श्रृंखला में बीते दिनों फिर एक आयोजन हुआ. आयोजक था भाजपा का अल्पसंख्यक मोरचा, तारीख थी 12 अक्तूबर 2023,जगह थी भाजपा कार्यालय, लखनऊ. एजेंडा था-‘मिशन 75’ जिसके तहत भाजपा ने उत्तरप्रदेश की 80 में से 75 लोकसभा सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया हुआ है.

मेजबान अल्पसंख्यक मोरचा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जमाल सिद्दीकी ने मेहमान सूफियों से अपील की कि वे मोदी सरकार की योजनाओं और नीतियों को आम मुसलमान तक पहुंचाएं. इस बाबत भाजपा मुसलिम बाहुल्य इलाकों में मुशायरों, कव्वालियों और कौमी चौपालों का आयोजन करेगी. मुसलमानों में मोदी की इमेज चमकाने का ठेका इकट्ठा हुए कोई 200 मजारों से तशरीफ लाए सूफियों ने लिया या नहीं, यह तो उनका ऊपरवाला जाने लेकिन दाद देनी होगी भगवा गैंग के आशावादी नजरिए की जो अनहोनी को होनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा.

बोहरा समाज और पसमांदा मुसलमानों पर भी भाजपा ने डोरे डालने की कोशिश की है लेकिन ये मुहिमें परवान चढ़ने के पहले ही फुस्स हो चुकी हैं क्योंकि ये खुद बेदम थीं.यह बात कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही कि नरेंद्र मोदी और भाजपा हिंदू राष्ट्र के अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं और इसमें वे कुछ मुसलमानों को भी सहमत करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है क्योंकि आम मुसलमान मोदी राज में डर और दहशत के साए में जी रहा है. पसमांदा मुसलमान,बोहरा और सूफी इसके अपवाद नहीं हैं.चूंकि वे कट्टर हिंदूवाद का खुला विरोध नहीं करते, इसलिए सनातनियों ने उन्हें तटस्थ रखने की चाल चली है. एक दूसरा मकसद, बेवजह का रायता लुढ़काते रहने के लाभ उठाने की भी है.‘हल्ला मचता रहे इसमें हर्ज क्या है’ की मानसिकता के अलावा तीसरा मकसद मुसलमानों में फूट डालने का भी हो सकता है. ठीक वैसी ही फूट जैसी उदारवादी और कट्टर हिंदुओं के बीच है.

चादर और फादर शिर्डी और मोदी

जिन कुछ मामलों में नरेंद्र मोदी को अपनी भूमिका तय करने की छूट नहीं, उनमें से एक मामला उनकी इमेज का भी है.चंद दिनों पहले ही मोदी शिर्डी में थे जहां उन्होंने भक्तों की लाइन लगने वाली जगह का उद्घाटन किया. सनातनी अब बेहिचक कहने लगे हैं कि साईं बाबा एक वेश्यापुत्र था और उसका नाम चांद मियां था. हिंदुओं को शिर्डी जाकर साईं बाबा का पूजापाठ नहीं करना चाहिए क्योंकि वह सनातनी देवता नहीं, बल्कि पीरफकीर है. इस मसले, जिस पर कई दफा बबाल मच चुका है, को तूलघोषित तौर पर एक शंकराचार्य स्वरूपानंद ने दिया था. अब उनकी टीम इस मुहिम को अंजाम देती रहती है.

जब साईं बाबा मुसलमान थे तो फिर मोदीजी क्यों वहां पूजापाठ करने गए थे. यह कोई औपचारिक राजनीतिक शिष्टाचार जैसा कदम भले ही भक्त लोग अपनी खिसियाहट दूर करने को मानते रहें पर हकीकत में यह उदारवादी हिंदुओं और मुसलमान दोनों को घेरने वाली बात थी.  मजार पर जाकर सिर झुकाने और बिरियानी खाने वाले प्रसंग अब हवा हो चुके हैं,जिनका अब कोई जिक्र भी नहीं करता.नरेंद्र मोदी की इमेज सैक्युलर दिखे,यह मंशा भी भगवा गैंग की नहीं दिखती बल्कि यह उदारवाद के प्रति उपेक्षा और उसका उपहास उड़ाने जैसी बात थी जिसकी स्क्रिप्ट आरएसएस लिखता है.

जैसे, जब कभी संघ प्रमुख मोहन भागवत यह कहते हैं कि मुसलमान कोई गैर नहीं, बल्कि हिंदुओं के ही भटके हुए वंशज हैं और मुसलमान जितना सुरक्षित भारत में हैं उतना दुनिया के किसी देश में नहींहैं तो आम मुसलमान घबरा उठता है कि अब न जाने क्या होने वाला है. इन्हीं दिनों के आगेपीछे सूफियों या शिर्डी के साईं बाबा के दर्शन जैसा कोई ड्रामा संपन्न हो जाता है.

अब यह और बात है कि ऐसे वक्त में चादर और फादर को कोसते रहने वाले कट्टर सनातनी हिंदुओं को समझा और संभाल पाना मुश्किल हो जाता है जो इस गफलत में पड़ा रहता है कि हमें तो मैसेज दिया जाता है कि अड़े रहो और यहां वे खुद सजदा सा कर रहे हैं, वरना तो अजमेर शरीफ चादर भेजे जाने की तुक भी समझ नहीं आती. यह लीला या कूटनीति अवैतनिक प्रचारकों को समझ नहीं आती.

शिर्डी में साईं बाबा के पूजापाठ के वक्त नरेंद्र मोदी श्रद्धा भक्ति में डुबकी लगातेनहीं दिखते, ऐसे मौकों पर उनका चेहरा स्लेट की तरह सपाट दिखता है. जबकि, काशी या उज्जैन में शिवलिंग का अभिषेक और पूजा करते उनका चेहरा चमक रहा होता है और वे पूरे मनोयोग से धार्मिक अनुष्ठान करते अकसर साष्टांग हो जाया करते हैं.

कुछ लोग साईं बाबा को भी सूफी ही मानते हैं और यही लोग वे सनातनी हिंदू हैं जो हिंदू राष्ट्र के एजेंडे पर उग्र नहीं होते. इन हिंदुओं को जहां चमत्कार दिखता है वे वहीं अपना बटुआ खोलकर नमस्कार करने बैठ जाते हैं फिर चाहे वह मंदिर हो या मजार, इससे उनकी आस्था या मन के डर पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

शिर्डी में नरेंद्र मोदी ने साईं बाबा की शान में कोई कसीदा नहीं गढ़ा, न उन्होंने यह कहा कि महान साईं बाबा ठीक कहते थे कि सबका मालिक एक है औरहमें श्रद्धा व सबूरीवाली शिक्षा में भरोसा करना चाहिए. मोदी किसी मजबूरी के तहत भी शिर्डी जैसी जगह नहीं जाते बल्कि यह उनके हिंदू राष्ट्र के एजेंडे का एक हिस्सा है जिसके तहत कट्टरवाद पर अस्थाई नकाब ओढ़ ली जाती है जिससे विदेशों में यह मैसेज जाए कि मोदी जी सबके हैं और उनके राज में धार्मिक असहिष्णुता व संकीर्णता नहीं पनप रही. बावजूद इस सच के कि वह दिन दोगुनी रात चौगुनी फैल रही है.

यों पनपे सूफी और मजारें

यह बहुत दिलचस्प इत्तफाक है कि जहांजहां मुगल गए, उनके पीछेपीछे सूफी भी अपनी आध्यात्म की दुकान लेकरपहुंचते गए. भारत में सूफीवाद ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती लाए थे जो अफगान सेनापति शिहाबुद्दीन गौरी के साथ 1192 में भारत आए थे. ख्वाजा ने चिश्ती तरीके से भारत में सूफीवाद का प्रचारप्रसार किया.

चिश्ती कोई पद्धति नहीं है बल्कि चश्त ईरान के एक शहर का नाम है जहां अबू इसहाक शामी ने सूफी दर्शन के काव्यात्मक प्रचारप्रसार का सिलेबस तैयार किया था. इसी से चिश्ती शब्द वजूद में आया जिसके तहत शांतिपूर्ण तरीके से गीत और संगीत के जरिए आध्यात्म की आड़ में इसलाम का प्रचार किया जाता था.

भारतीय यानी हिंदुओं ने सूफियों का विरोध नहीं किया क्योंकि वे खुद भजन और आरतियों के जरिएईश्वर की आराधना करते थे. दूसरे, सूफी सनातन के लिए खतरा महसूस नहीं हुए थे. मोईनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में डेरा डाला और अपनी दुकान शुरू कर दी जिसे भारी रिस्पौंस मिला. लोगों को शांतिपूर्ण तरीके से भगवान को पूजने व मानने का आइडिया कुछ ज्यादा ही पसंद आया.

हैरत की बात यह भी रही कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के अनुयायियों में हिंदुओं की संख्या ज्यादा थी जो आज तक बरकरार है. तत्कालीन कुछ शासकों की झड़पें और विवाद सूफियों से होते रहते थे लेकिन जल्द ही उन्होंने सूफियों और मजारों के सामने घुटने टेक दिए जो आज तक टिके हुए हैं.आमतौर पर मजार और दरगाह में हिंदू कोई फर्क नहीं करते हैं. दरगाह वहीं बनाई जाती है जो मरने वाले की वास्तविक जगह होती है जबकि मजार कहीं भी बनाई जा सकती है और हर कहीं बनाई भी गईं.

कांग्रेस के शासनकाल में भी अजमेर की दरगाह पर चादर प्रधानमंत्री की तरफ से भेजी जाती थी. यह रिवाज भाजपा के वक्त तक कायम है. इसी साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 811वें उर्स के मौके पर अजमेर 9वीं बार चादर भेजते ख्वाजा की शान में कसीदे गढ़े थे. इस साल चादर उन्हीं जमाल सिद्दीकी के हाथों भेजी जो उत्तरप्रदेश में सूफियों को इकट्ठा कर रहे हैं. उनके पहले अजमेर शरीफ चादर ले जाने का नेक काममुसलिम होने के नाते पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी से करवाया जाता था.

साफ दिख रहा है कि खुद भगवा गैंग ही चादर-फादर की राजनीति को गरमाता रहता है जिससे धर्म की राजनीति परवान चढ़ती रहे. यह बात सनातनी शायद ही कभी समझ पाएं कि हर कभी सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस को तुष्टिकरण की राजनीति का जिम्मेदार ठहराने वाले नरेंद्र मोदी किस मजबूरी, जो दरअसल खुदगर्जी है, के तहत खुद तुष्टिकरण की राजनीति करते हैं.

इसी तुष्टिकरण के चलते देश में मजारें भी इफरात से बढ़ीं जिन में नाजायज तरीके से बनी मजारों की संख्या ज्यादा है. ऐसी मजारों को अब दिल्ली में भी खूब तोड़ा जा रहा है और उत्तराखंड में भी. लेकिन अब इन पर हल्ला कम मचता है और ऐसी खबरों से सबसे ज्यादा खुश कट्टर हिंदू ही होते हैं.

इसी साल अप्रैल में दिल्ली के मंडी हाउस स्थित हजरत नन्हे मियां चिश्ती की मजार को रातोंरात प्रशासन ने हटा दिया था तो किसी ने विरोध नहीं किया था लेकिन साल 2002 में अहमदाबाद में वली दखानी की मजार को तोड़े जाने पर खासा हल्ला मचा था. वली दखानी 17वीं सदी के पहले उर्दू गजलकार थे जिनका नाम हिंदी और उर्दू साहित्य में इज्जत से लिया जाता है. इस मजार को तोड़े जाने का जिक्र गोधरा दंगों की जांच करने वाले आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया तो था लेकिन इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया था.

मजारों को तोड़े जाने पर उदारवादी हिंदू अमूमन खामोश ही रहता है जबकि मजारों और दरगाहों पर चादर चढ़ाने में वह मुसलमानों से आगे रहता है. यह आस्था की नहीं, बल्कि चमत्कारों की महिमा है क्योंकि दरगाहें और मजारें भी हिंदूमंदिरों की तरह लोगों को औलादें देती हैं, रोजगार दिलाती हैं, असाध्य बीमारियों से छुटकारा दिलाती हैं, शादी करवाती हैं, पतिपत्नी की अनबन दूर कराती हैं और शादी व जरूरत पड़ने पर तलाक भी करवाती हैं.

शर्त बस पैसा चढ़ाने की है जिसमें आम भारतीय उन्नीस नहीं.अजमेर की दरगाह में तमाम क्षेत्रों की हस्तियां जाती हैं. चढ़ावे और कमाई के मामले में दूसरा नंबर दिल्ली की हजरत निजामुद्दीन दरगाह का आता है. हजरत निजामुद्दीन चिश्ती घराने के चौथे संत थे जिन्होंने दक्षिणी दिल्ली का इलाका दुकान चलाने को चुना था.

सनातनी, जाहिर है जिनमें पंडेपुजारी ज्यादा हैं, मजारों और दरगाहों की फलतीफूलती दुकानों पर एतराज जताते रहते हैं. वे इस मानसिकता को भूल जाते हैं कि वह धर्म ही है जो लोगों को चमत्कारों और मोक्ष की घुट्टी पिलाता है और यह ठेका सभी धर्मों में लिया व दिया जाता है. अब अगर आपका ग्राहक इधरउधर भागता है तो उसे आप ब्रैंड के रस्से से बांधनहीं सकते. यह तो नशा है जो जहां सस्ता और सहूलियत से मिलेगा, लोग खूंटा तोड़ कर उधर भागेंगे ही. इसलिए बात करना है तो नशामुक्ति की जाए न कि इस बात की कि जब अपने यहां नशा मौजूद है तो वहां जाकर क्यों पैसा और वक्त बरबाद कर रहे हो. यह तो लोगों की अपनी मरजी पर निर्भर करता है कि वे कहां जाकर लुटना पसंद करते हैं.

अंधविश्वासों की खान हैं मजारें

मजारों से जुड़े चमत्कारों के किस्से भी कम दिलचस्प नहीं हैं. भोपाल के 1250 इलाके की सड़क के बीचोंबीच बनी एक मजार पर गुरुवार और शुक्रवार को भारी भीड़ रहती है. यहां मन्नत मांगने के लिए झुग्गीझोंपड़ी के लोग ज्यादा आते हैं जिनकी मन्नत भी छोटी ही रहती है. किसी को सट्टे कीनंबर खुलने की मुराद रहती है तो कोई पत्नी के प्रेमप्रसंग से परेशान है. कोई रोजगार में बरकत के लिए फूल और चादर चढ़ाता है तो किसी को पेट में अल्सर की समस्या से मुक्ति चाहिए रहती है.

यानी, अंधविश्वासों और पाखंडों का बाजार गरमाने में मजारों का योगदान भी कमतर नहीं है जहां के मुजाविर रोज हजारों की नजर उतारकर दक्षिणा बटोरते हैं. लेकिन ज्यादा पैसा बड़े चमत्कारों से आता है. जानकर हैरानी होती है कि बाराबंकी की एक मजार दीवान साहब में हाजिरी लगाने भर से चोरी गए सामान की जानकारी मिल जाती है.इसके लिए फरियादी को वहां की एक ईंट पलटानी पड़ती है.

गाजियाबाद के बसस्टैंड स्थित गाजीउद्दीन बाबा की मजार पर हर गुरुवार भारी भीड़ उमड़ती है क्योंकि यहां के सिद्ध बाबा भक्तों की हर तकलीफ दूर करते हैं. इसके लिए फरियादी को अपनी रिपोर्ट मजार पर दर्ज करानी होती है. रिपोर्ट लिखाने के तीनतीन दिनों के अंदर ही समस्या का समाधान हो जाता है. एवज में फरियादी को गाजीउद्दीन बाबा को चादर भेंट करने के आलावा3 सप्ताह तक मजार पर आमद दर्ज करानीपड़ती है.

अजमेर की ही एक और दरगाह मीरा सैयद हुसैन खिंग्सवार की एक दरगाह के बारे में तो चर्चित है कि यहां लाल बूंदी का करिश्माई पेड़ है जिसके फल खाने से कोई बेऔलाद नहीं रहता. एक बार एक किन्नर ने फल खा लिया था जिससे वह प्रैग्नैंट हो गया या हो गई थी और एक सुंदर कन्या को जन्म दिया था.

बेसिरपैर के इन चमत्कारी किस्सेकहानियों को सुन लगता है कि मैडिकल साइंस एक फुजूल की चीज है और निसंतानों को बजाय फर्टिलिटी वगैरह के ऐसे फल खाना चाहिए जो गुलाब के कुछ फूलों, रेवड़ियों, बताशों एक हरी चादर और चुटकीभर लोबान के एवज में गोद हरी होने की गारंटी हैं. लेकिन चूंकिसच में ऐसा है नहीं, इसलिए लोग सहारा तो विज्ञान का ही लेते हैं.

मोक्षनगरी गया में हिंदू केवल पूर्वजों की मुक्ति के लिए ही नहीं जाते बल्कि यहां भी बाई वन गेट वन फ्री की स्कीम चलती है. यहां की बिधोशरीफ दरगाह के बाबा हजरत मखदूम के दरबार  में हाजिरी लगाने भर से साध्य और असाध्य बीमारियां ठीक होती हैं. इस दरगाह पर अब विदेशी भी आने लगे हैं.

बाराबंकी की ही एक और मजार, जो गुलाम शाह की है, की होली की आग तापने से कैंसर और सफेद दाग जैसी लाइलाज बीमारियां ठीक होती हैं.देशभर में ऐसी कोई 2 लाख मजारों पर हजारों तरह के चमत्कार के नाम पर लोग मूर्ख बनते हैं. इन मजारों के बाबाओं को पीर साहब, शाह आदि कहा जाता है जो अलौकिक शक्तियों के स्वामी के रूप में प्रचारित किए जा चुके हैं.इनकी शान में गुस्ताखी हो तो ये दुर्वासा जैसे क्रोधित होकर श्राप भी दे देते हैं.

दुख की बात यह है कि कभी भी सूफियों ने इन चमत्कारों का खंडनमंडन नहीं किया और यह उम्मीद भी उनसे करना बेकार की बात है क्योंकि यही चमत्कार उन्हें रोजीरोटी देते हैं. सार यह कि सूफी और सूफीवाद कोई रहस्य नहीं है, वे भी दुकानदार ही हैं और लोगों को बेवकूफ बनाते हैं. अब इनको भाजपा प्रचारप्रसार में झोंक रही है तो यह उसकी मार्केटिंग का पुराना और परंपरागत तरीका है. हिंदू पंडेपुजारी भी उसके लिए वोट ही कबाड़ते हैं.अब मजारों की खिदमत और देखभाल करने की खा रहे मुजाविर भी यही करेंगे.

सूफियों को भी झांसा

सूफी संवाद और शिर्डी दर्शन लगभग एक ही वक्त यानी `कालखंड` में हुए,सो, सियासी तौर पर इसे 2024 की तैयारियां कहा जा सकता है जो भाजपा केहिंदुओं के प्रति या हिंदुओं के भाजपा के प्रति कम होते विश्वास व भय को ही दिखाते हैं. तमाम अंदरूनी और बाहरी सर्वेक्षणों से यह उजागर हो चुका है कि चाहे कुछ भी हो जाए, मुसलमान भाजपा को 5 फीसदी से ज्यादा वोट कभीनहीं देता.

सूफियों के प्रचारप्रसार करने से यह बढ़ेगा, ऐसा कहने व सोचने की भी कोई वजह नहीं. धारा 370 और तीन तलाक जैसे मुद्दे अब राममंदिर की तरह बासी हो चुके हैं. इनका ढोल सूफी पीटेंगे तो आम मुसलमान को यह रास नहीं आएगा और यही भाजपा की मंशा भी है कि हिंदुओं की तरह मुसलमानों में भी फूट पड़े और उनका एक, छोटा ही सही, तबका उसकी और झुके.

सूफी क्या करेंगे और क्या नहीं, यह वक्त बताएगा कि वे अपने हाथ के चिमटे को बजाते ‘भर दे झोली या मोदी की…’ गाते हैं या नहीं या मोहम्मद तक ही सिमटे रहना पसंद करेंगे. लेकिन यह इन सूफियों को ही समझना होगा कि उन्हें मोहरा बनाया जा रहा है.

लिहाजा, वे भक्ति यानी आशिकी में ही लीन रहें, इसमें ही उनकी भलाई है. अगर सियासत में आए तो न वे हिंदुओं के रहेंगे और न ही मुसलमानों के. एक वक्त में उन पर आरोप लगा था कि वे उदारता की आड़ लेकर हिंदुओं को बहलाफुसलाकर उनका धर्मांतरण कराते हैं. तब दौर मुगलों का था, अब सनातनियों का है.

खतरा दोनों ही तरफ बराबर का है. लिहाजा, मजारें ही उनके लिए मुफीद हैं. चौराहों पर वे आए तो भीख मिलना भी कम हो जाएगी. लोग उन्हें समाज से दूर रहने के लिए ही दक्षिणा देते हैं, समाज में घुलनेमिलने और सियासत के लिए नहीं. इसके लिए तो पहले से ही दुकानें खुली हुई हैं.

कंगना रनौत : फिल्में असफल लेकिन अंधभक्ति जारी, आगे क्या ?

यह महज संयोग है कि दर्शकों ने सत्ता के चाटुकार बौलीवुड के 2 कलाकारों को सिरे से खारिज कर दिया है.इनमें से एक हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू करने वाले अभिनेता अक्षय कुमार व दूसरी हैं देश को 2014 में असली आजादी मिलने की बात करने वाली कंगना रनौत.

बौलीवुड की ये दोनों हस्तियां हिंदुत्व व राष्ट्रवाद को प्रचारित करती रहती हैं.उनके इस कृत्य ने उन्हें देश के शासकों, भाजपा व आरएसएस के करीब जरूर पहुंचा दिया हैमगर दर्शकों ने उन्हें ठुकरा दिया है. परिणामतया इन दोनों कलाकारों की कई फिल्में बौक्सऔफिस पर लगातार मुंह के बल गिर रही हैं.इनकी फिल्मों की दुर्गति की वजह यह है कि इन्होंनेएजेंडे के तहत फिल्में बनाते व अभिनय करते हुए ‘कला’ के साथ न्याय नहीं किया.इनकी फिल्में मनोरंजनविहीन होती हैं.कहानी का कोई सिरपैर नहीं होता.

ऐसे में दर्शक इनकी फिल्मों को देखने के लिए अपनी गाढ़ी कमाई बरबाद नहीं करना चाहता. मजेदार बात यह है कि ‘सम्राट पृथ्वीराज’ के असफल होने के बाद अक्षय कुमार ने बाकायदा अपने दर्शकों और प्रशंसकों से माफी मांगते हुए अपनी गलती कुबूल करते हुए कहा था कि अब वे राष्ट्रवाद व हिंदुत्व की बात करने वाली ऊलजलूल कहानी की फिल्में नहीं करेंगे. अब वे अच्छी कहानी व पटकथा वाली फिल्मों पर जोर देंगे.

अक्षय ने यह भी कहा था कि उन्होंने कमजोर पटकथा के चलते कौन सी फिल्में छोड़ दी हैं.मगर वे आज भी अपने पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं जिसका सुबूत उनकी नई फिल्म ‘मिशन रानीगंज‘है, जिसे दर्शकों ने पूरी तरह से खारिज कर दिया.

अक्षय कुमार की ही तरह कंगना रनौत ने भी अब एक वीडियो जारी कर लगभग माफी मांगते हुए दर्शकों और अपने प्रशंसकों से अपनी फिल्म ‘तेजस’ को देखने का आह्वान किया हैपर कंगना के इस वीडियो का दर्शकों पर कोई असर नहीं हुआ.लगभग 100करोड़ रुपए की लागत से बनी फिल्म ‘तेजस’ बामुश्किल3 दिन में साढ़े 3 करोड़ का ही व्यापार कर सकी.इसमें से निर्माता के हाथ में बामुश्किल45 लाख रुपए ही आए.

हिमाचल में जन्मी,36 वर्षीया कंगना रनौतशुरू से ही नारीवाद की वकालत करने वाली अतिविद्रोही स्वभाव की रही हैं.फिल्मों से जुड़ने के लिए वे अपने मातापिता का विद्रोह करके मुंबई आईथीं. 18साल के अपने अभिनय कैरियर में अपनी दबंग ईमेज के बावजूद उत्कृष्ट अभिनय प्रतिभा के चलते उन्होंने अपनी झोली में सर्वश्रेष्ठ अदाकारा के 4राष्ट्रीय पुरस्कार, 5 फिल्मफेयर अवार्ड सहित कई दूसरे अवार्ड भी डाल लिए.

2020 में उन्हें वर्तमान सरकार ने ‘पद्मश्री’ से भी नवाज दिया.शुरुआती दौर में एक तरफ वे अध्ययन सुमन,रितिक रोशन के साथ अपने रिश्तों को लेकर चर्चा में बनी रहींतो वहीं दूसरी तरफ वे अपनी अभिनय क्षमता को निखारने पर ध्यान देती रहीं.निजी जीवन के कटु अनुभवों व उन से पैदा हुए क्रोध को दबाकर उन्होंने अपने को अभिनय के माध्यम से बाहर निकाला.

यहां तक कि फिल्म ‘क्वीन’ में अभिनय करने से पहले कंगना ने लंदन जाकर पटकथा व संवाद लेखन का कोर्स भी किया.अपने ज्ञान व प्रतिभा को उन्होंने2013 में प्रदर्शित फिल्म ‘क्वीन’ के वक्त भरपूर उपयोग किया था.कंगना रनौत ने फिल्म ‘क्वीन’ के संवाद भी लिखे थे.परिणामतया इस फिल्म को जबरदस्त सफलता मिली और वे स्टार बन गईं.

उन्हें इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार सहित करीबन एक दर्जन अवार्ड मिले.यों तो पहली फिल्म ‘गैंगस्टर’ के लिए भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार मिल गया था.‘वो लमहे’ तथा ‘लाइफ इन मैट्रो’ में भावनात्मक रूप से गहन किरदारों को चित्रित करने के लिए उन्हें प्रशंसा मिली थी.

‘फैशन’के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था. मगर 2010 तक उनका कैरियर महज घिसट रहा था. 2010 में आनंद एल राय निर्देशितफिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ से उन्हें अच्छी सफलता नसीब हुई थी.फिल्म ‘क्वीन’ के बाद प्रदर्शित फिल्म ‘रिवौल्वर रानी’ अपनी लागत वसूल नहीं कर पाई थी लेकिन 22 मई, 2015 को प्रदर्शित फिल्म ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’ ने अपनी लागत से 6 गुना अधिक कमा कर हंगामा बरपा दिया था.इस फिल्म को मिली बंपर सफलता के साथ ही कंगना रनौत के कैरियर का पतन शुरू हो गया.

पतन की वजहें

2005 में मुंबई पहुंचने के बाद से कंगना रनौत अपने कैरियर को संवारने के लिए काफी मेहनत कर रही थीं. चालाक लोमड़ी की तरह अपना उल्लू साधने के लिए वे अपने मित्रों, खासकर पुरुष कलाकारों का भरपूर उपयोग कर रही थीं. उनके अफेयर के किस्से अध्ययन सुमन तक फ़ैल चुके चुके थे. 2010 में जब कंगना रनौत ने रितिक रोशन के साथ फिल्म ‘काइट्स’ की तो उन्हेंएहसास हुआ कि स्टार कलाकार रितिक रोशन से उनकी नजदीकी उन्हें फायदा पहुंचा सकती है.मगर उस वक्त रितिक रोशन फिल्म ‘काइट्स’ की नायिका बारबरा मोरी की तरफ आकर्षित थे, इसलिए उनकी दाल नहीं गली.

वहीं ‘काइट्स’ असफल हो गई और कंगना रनौत की फिल्म ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’ ने सफलता के झंडे गाड़ दिए थे. सो, एक बार फिर कंगना ने अपने अभिनय पर ध्यान देना शुरू कियामगर ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’ को मिली सफलता के चलते निर्मातानिर्देशक राकेश रोशन ने फिल्म ‘क्रिश 3’ में रितिक रोशन के साथ कंगना रनौत को हीरोइन बना दिया.

इस फिल्म की शूटिंग के ही दौरान कंगना व रितिक के बीच रोमांस की पतंग ने उड़ान भरनी शुरू कर दी. 2013 में प्रदर्शित ‘कृश3’ ने लागत से चारगुना कमाई कर ली,तो चर्चा शुरू हो गई कि ‘क्रिश 4’ में भी रितिक रोशन के साथ कंगना ही होंगी.

उधर, कंगना और रितिक के बीच प्यार परवान चढ़ चुका था.कंगना ने भी मान लिया था कि अब रितिक रोशन की हर फिल्म में वही होंगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.इधर 2014 में दो बातें हो गईं.एक तरफ 7 मार्च,2014 को कंगना की फिल्म ‘क्वीन’ ने अचानक उन्हें स्टार बना दिया.लोग उनके अभिनय के साथ ही उनके लेखन की भी तारीफ करने लगे.दूसरी तरफ मई 2014 में देश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन गई.

फिल्म ‘क्वीन’ में नारी स्वतंत्रता व नारीवाद की बातें थीं.नई सरकार भी इन मुद्दों पर बात कर रही थी, जिसके चलते कंगना रनौत धीरेधीरे सरकार व भाजपा नेताओं से नजदीकियां बढ़ाने लगीं.इसका असर उनकी कला पर पड़ने लगा. तो वहीं 2017 आतेआते कंगना और रितिक रोशन के बीच अलगाव के साथ ही एकदूसरे के खिलाफ जबरदस्त बयानबाजी शुरू हो गई.कंगना रनौत ने अपने विवेक से या अपने पीआर के कहने पर,पता नहीं,रितिक रोशन के साथ ईमेल पर बातचीत को भी सार्वजनिक करना शुरू किया.

कंगना रनौत अभिनय पर कम, सरकार के साथ रिश्ते प्रगाढ़ करने व रितिक के साथ झगड़े में इस कदर लिप्त हुईन कि उनका अभिनय कैरियर चौपट हो गया.2018 से कंगना रनौत ने हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, नारीवाद आदि को लेकर बयानबाजी करने के साथ ही सरकार के पक्ष में बातें करने लगीं.जनवरी 2020 में उन्हें सरकार ने ‘पद्मश्री’ से नवाज दिया. फिर तो कंगना हवा में उड़ने लगीं.

कंगना रनौत ने तो सरकार की चापलूसी करते हुए यहां तक कह डाला कि देश को असली आजादी 2014 में मिली.कोविडकाल में कंगना ने केंद्र सरकार का पक्ष लेते हुए बौलीवुड व अन्य लोगों को जमकर लताड़ना शुरू कर दिया.उनके बयानों में पूर्णतया सरकार की चापलूसी करने के ही भाव नजर आते हैं.

जब कंगना की व्यस्तता राजनीति में बढ़ गई,तो अभिनय से उनका ध्यान भंग हुआ, जिसके चलते ‘क्वीन’ के बाद उन की ‘उंगली’, ‘आई लव यू न्यूयौर्क’,‘कट्टी बट्टी’,‘रंगून’,‘सिमरन’,‘मणिकर्णिकाःद क्वीन औफ झांसी’, ‘जजमैंटल है क्या’,‘पंगा’, ‘थलैवी’,‘धाकड़’, ‘टिकू वेड्स शेरू’, ‘चंद्रमुखी 2’ फिल्मों ने बौक्सऔफिस पर पानी नहीं मांगा.

फिल्म ‘जजमैंटल है क्या’ की प्रैसकौन्फ्रैंस में कंगना रनौत की मीडिया से तीखी नोकझोंक हो गई थी.उसके बाद कंगना ने मीडिया से भी दूरी बना ली.कंगना रनौत ने 2020 में अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी शुरू कर ली.

‘मणिकर्णिका: द क्वीन औफ झांसी’ का सहनिर्माण करने के साथ ही उन्होंने इसका निर्देशन भी किया था और झांसी की रानी का किरदार भी निभाया था. पर उनकी नीयत सही नहीं थी, इसलिए यह बहुत ही ज्यादा खराब बनी थी.इसके बाद कंगना ने फिल्म ‘टीकू वेड्स शेरू’ का निर्माण किया. यह ओटीटी प्लेटफौर्म अमेज़न प्राइम पर आई.मगर इसे भी दर्शकनहीं मिले.अब कंगना ने फिल्म ‘इमरजैंसी’ का निर्माण,लेखन व निर्देशन करने के साथ ही इंदिरा गांधी का किरदार भी निभाया हैजो 2024 में चुनाव होने से पहले प्रदर्शित की जाएगी.

फिल्म ‘तेजस’ : राम भक्ति भी काम न आई

अब 27 अक्टूबरको कंगना रनौत के अभिनय से सजी फिल्म ‘तेजस’ प्रदर्शित हुई है.फिल्म ‘तेजस’ एयरफोर्स अफसर तेजस गिल की काल्पनिक कहानी है.तेजस गिल के मुख्य किरदार में कंगना रनौत है.फिल्म को दर्शकों ने सिरे से नकार दिया.लगभग 70 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ‘तेजस’ ने 3 दिन के अंदर सिर्फ साढ़े 3 करोड़ रुपए ही कमाए.इतना तो शूटिंग के दौरान मेकअप मैन वगैरह का खर्च हो गया होगा.हम सभी जानते हैं कि इन दिनों हर फिल्म का असली कलैक्शनशुरुआत के 3 दिनों में ही होता है.

फिल्म ‘तेजस’ के प्रदर्शन से पहले कंगना रनौत ने पत्रकारों से दूरी बनाकर रखी.अपनी फिल्म का ट्रेलरउन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था.मगर कंगना ने फिल्म के प्रदर्शन से पहले ही ‘तेजस’ को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के अलावा कई भाजपा नेताओं को दिखाया.

24 अक्टूबर को दशहरे के मौके पर दिल्ली में रावण दहन करने पहुंचीं. इजराइली दूतावास जाकर इजराइल के राजदूत नाओर गिलौन से मिलकर फिलिस्तीन व मुसलिमों के खिलाफ बकबक की. फिर 26 अक्टूबर को अयोध्या जाकर ‘राम लला’ मंदिर के दर्शन करने के साथ ही ‘जयश्री राम’ के जमकर नारे लगाएमगर इससे उनकी फिल्म ‘तेजस’ को फायदा होने के बजाय नुकसान ही हुआ.

दर्शक अपनी मेहनत की कमाई को महज राष्ट्रवाद के नारे या ‘जयश्रीराम’ के नारे के लिए खर्च नहीं कर सकता.उसे फिल्म में अच्छी कहानी,अच्छी परफौर्मेंस,अच्छा मनोरंजन चाहिए.इस कसौटी पर फिल्म ‘तेजस’ शून्य है.‘तेजस’ में पाकिस्तान, आतंकवाद के साथ ही अयोध्या के उस राममंदिर पर ‘आतंकवादी हमले’ और उस आतंकवादी हमले से राममंदिर को सुरक्षित करने की काल्पनिक कहानी बयां की गई हैजो मंदिर अभी तक निर्माणाधीन है.फिल्म में कंगना का अभिनय भी शून्य है.

जब 2 दिनों तक ‘तेजस’ को दर्शकनहीं मिले, तब कंगना ने दर्शकों के नाम माफीनामानुमा एक वीडियो संदेश जारी कियाजिसमें उन्होंने कोविड के बाद सिनेमाघरों में कम दर्शकों की संख्या के बारे में बात करते हुए अपने दर्शकों से सिनेमाघर जाकर फिल्म ‘तेजस’ को देखने व आनंद लेने का आग्रह किया.मगर कंगना रनौत की घटिया फिल्म ‘तेजस’ देखने के लिए कोई तैयार नहीं है.

बौलीवुड में अब लोग खुलेआम कह रहे हैं कि कंगना को अब राजनीति में सक्रिय होकर मंडी,हिमाचल प्रदेश से चुनाव लड़ना चाहिए.तो वहीं कंगना अपने ऐसे विरोधियों को श्राप देने से बाज नहीं आ रही हैं.

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खाने के साथ पीते हैं पानी तो हो जाएं सावधान

आम तौर पर लोगों की आदत होती है कि वो खाने के साथ पानी पीते रहते हैं. खाने के दौरान पानी पीने से सेहत के लिए कई समस्याएं पैदा होती हैं. खाना के मुंह में आते ही शरीर की पाचन क्रिया शुरू हो जाती है. जब आप खाने के साथ तुरंत पानी पीते हैं तो आपके पाचन तंत्र की ताकत कमजोर होती है और भोजन के पचने में परेशानी होती है.

चिकित्सा विज्ञान के अनुसार पाचन के लिए पाचन प्रक्रिया में जो अग्नि जिम्मेदार होती है पानी पीने से कमजोर होती है और इसलिए पाचन प्रक्रिया से प्रभावित हो सकता है.

  • ब्लड शुगर

खाने के तुरंत बाद पानी पीने से ब्लड शुगर के बढ़ने का खतरा होता है. पेट में अपचलित भोजन की मात्रा रक्त में चीनी के स्तर को बढ़ा सकती है.

  • अपच

आंतो को अच्छे से पाचन प्रक्रिया पूरी करने के लिए भोजन का अच्छे से पचना जरूरी है. ऐसा ना होने से  भोजन पूरी तरह से पचेंगे नहीं और इससे कब्ज की परेशानी होती है.

  • ब्लोटिंग की परेशानी

खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीने से खाने के पाचन में खासा परेशानी होती है. इससे खाना पूरी तरह से पच नहीं पाता. जिसके कारण पेट में हवा बनने लगती है. इससे ब्लोटिंग की परेशानी होती है.

  • एसिडिटी

जब आप खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीते हैं तो शरीर में खाना पचाने वाले अम्ल कमजोर होता है. जिसके कारण खाना के पचने में काफी समय लगता है और ऐसिडिटी होती है.

  • कब पीए पानी?

पानी पीने का सबसे सही समय होता है भोजन से आधे घंटे पहले और आधे घंटे बाद. खाने के आधे घंटे पहले पानी पीने से पेट को पर्याप्त पानी मिल जाता है. खाने के दौरान पेट में पाचन क्रिया होती है. इस दौरान सारे अम्ल खाने को पचाने में लगे रहते हैं. करीब आधे घंटे में खाने का बड़ा हिस्सा पच जाता है. इसके बाद पानी पीने से कोई परेशानी नहीं होगी.

वह छोटा लड़का : एक गरीब बच्चे की संघर्ष भरी कहानी

एक हाथ में पर्स व टिफिन और दूसरे हाथ में गाड़ी की चाबी ले कर तेजी से मैं घर से बाहर निकल रही थी कि अचानक चाबी मेरे हाथ से छूट कर आंगन के एक तरफ जा गिरी.

‘ओफ्फो, एक तो वैसे ही आफिस के लिए देरी हो रही है दूसरे…’ कहतेकहते जैसे ही मैं चाबी उठाने के लिए झुकी तो मेरी नजर कूड़ेदान पर गई, जो ऊपर तक भरा पड़ा था. लगता है कूड़े वाला आज भी नहीं आया, यह सोच कर झल्लाती हुई मैं घर से बाहर निकल गई.

गाड़ी में बैठ कर मैं अपने आफिस की ओर चल पड़ी. जितनी तेजी से मैं सड़क पर दूरी तय कर रही थी, मेरा मन शायद उस से भी तेजी से छलांगें भर रहा था.

याद आया मुझे 15 साल पहले का वह समय जब मैं नईनई इस कालोनी में आई थी. सामान को ठीक जगह पर लगातेलगाते रात के 12 बज गए थे. थकान के मारे बदन टूट रहा था. यह सोच कर कि सुबह देर तक सोऊंगी और फिर फ्रैश हो कर सामान सैट करूंगी, मैं सो गई थी.

सुबहसुबह ही दरवाजे की घंटी बज उठी और उस गहरी नींद में मुझे वह घंटी चीत्कार करती लग रही थी.

‘अरे, इतनी सुबह कौन आ गया,’ झल्लाती हुई मैं बाहर आ गई.

‘‘अरे, बीबीजी, कूड़ा दे दो और कूड़े का डब्बा कल से रात को ही बाहर निकाल दिया करना. मेरी आदत बारबार घंटी बजाने की नहीं है.’’

वह यहां का कूड़ा उठाने वाला कर्मचारी था.

धीरेधीरे मैं नई कालोनी में रम गई. पड़ोसियों से जानपहचान हो गई. बाजार, पोस्टआफिस, डाक्टर आदि हर चीज की जानकारी हो गई. नए दफ्तर में भी सब ठीक था. काम वाली बाई भी लगभग समय पर आ जाती थी. बस, अगर समस्या रही तो कूड़े की. रात को मैं कूड़ा बाहर निकालना भूल जाती थी और सुबह कूड़ा उठाने वाला अभद्र भाषा में चिल्लाता था.

गुस्से में एक दिन मैं ने उस से कह दिया, ‘‘कल से कूड़ा उठाने मत आना. मैं कोई और कूड़े वाला लगा लूंगी.’’

‘‘कैसे लगा लेंगी आप कोई दूसरा कूड़े वाला? लगा कर तो दिखाइए, हम उस की टांगें तोड़ देंगे. यह हमारा इलाका है. इधर कोई दूसरा देख भी नहीं सकता,’’ उस की आवाज में किसी आतंकवादी सा दर्प था.

मेरा स्वाभिमान आहत हो गया. उस की ऊंची आवाज सुन कर मेरी पड़ोसिन श्रीमती शर्मा भी बाहर आ गईं. उन्होंने किसी तरह कूड़े वाले को शांत किया और उस के जाने के बाद मुझे समझाया कि इस से पंगा मत लो वरना तुम्हारे कूड़े उठवाने की समस्या खड़ी हो जाएगी. इन के इलाके बटे हुए हैं. ये किसी दूसरे को लगने नहीं देते.

श्रीमती शर्मा का कालोनी में काफी रुतबा था. उन के पति किसी अच्छी पोस्ट पर थे. उन के घर में सुखसुविधा का हर सामान था. नौकरचाकर, गाडि़यां, यहां तक कि उन के इकलौते बेटे को स्कूल लाने ले जाने के लिए भी एक गाड़ी तथा ड्राइवर अलग से था. तो अगर वह भी इस कूड़े वाले के आगे असहाय थीं तो मेरी क्या बिसात. मैं मन मार कर रह गई. पर मन में एक फांस सी चुभती रहती थी कि काश, मैं उस कूड़े वाले को हटा पाती.

एक दिन शाम को मैं किसी काम से अपनी कालोनी के सामने वाली कालोनी में गई थी. गाड़ी रोक कर मैं ने एक छोटे से लड़के से अपने गंतव्य का पता पूछा. अचानक मुझे लगा कि यह लड़का तो घरों से कूड़ा उठा रहा है.

समाज के प्रति जागरूकता के अपने स्वभाव के चलते मैं उस लड़के से पूछने ही जा रही थी कि बेटा, आप स्कूल क्यों नहीं जाते लेकिन मेरा स्वार्थ और मेरा आहत स्वाभिमान आड़े आ गया. मैं ने पूछा, ‘बेटा, मैं सामने वाली कालोनी में रहती हूं, क्या तुम मेरा कूड़ा उठाओगे?’

मेरी आशा के विपरीत उस का जवाब था, ‘उठा लेंगे.’

मैं हैरान हो गई. मैं ने उसे अपने कूड़े वाले की बात बता देना उचित समझा. मेरी बात सुन कर वह लड़का मुसकराया और बोला, ‘हम किसी से नहीं डरते, हम क्या किसी से कम हैं पर हम कूड़ा उठाने शाम को ही आ पाएंगे.’

10-12 साल के उस बच्चे की आवाज में इतना आत्मविश्वास था कि मैं ने उसे अपना पता दे दिया तथा अगले दिन से आने को कह दिया.

मुझे लगा, मेरी समस्या सुलझ गई. लड़का शाम को कूड़ा लेने आने लगा. उस के आने तक अकसर मैं अपने आफिस से वापस आ जाती थी. पुराने कूड़े वाले को मैं ने यही कहा कि मैं खुद ही अपना कूड़ा कहीं डाल आती हूं. वैसे भी वह लड़का शाम को आता था और पुराने कूड़े वाले को पता भी नहीं चलता था. पर यह नया लड़का छुट्टियां बहुत करता था. कभीकभी तो कईकई दिन. मैं मन ही मन बहुत कुढ़ती थी. बीमारी फैलने का डर बना रहता था. मैं सोचती, काश, भारत में भी विदेशों की तरह मशीन मिलने लगे, जिस में कूड़ा डालो बटन दबाओ और बस कूड़ा खत्म. कूड़े की यह परेशानी जैसे हमेशा मेरे व्यक्तित्व पर हावी रहती थी.

छुट्टी करने के बाद जब वह आता तो मैं इतनी झल्लाई हुई होती कि गुस्से से पूछती, ‘कहां मटरगश्ती करते रहे इतने दिन तक?’

उस का वही चिरपरिचित जवाब, ‘कहीं भी, हम क्या किसी से कम हैं.’

मेरा मन करता कि मैं उस की छुट्टियों के पैसे काट लूं पर कहीं वह काम न छोड़ दे यही सोच कर डर जाती और मन मसोस कर रह जाती थी. उस की छुट्टियां करने की आदत से मैं उस से इतनी नाराज रहती कि मैं ने कभी भी उस के बारे में जानने की कोशिश ही नहीं की कि उस के मांबाप क्या करते हैं, वह स्कूल क्यों नहीं जाता, आदि. हां, एकाध बार उस का नाम जरूर पूछा था पर वह भी जहन से उतर गया.

मेरी छुट्टी वाले दिन अकसर श्रीमती शर्मा मेरे पास आ कर बैठ जातीं. उन की बातों का विषय उन का बेटा ही होता. उन का बेटा शहर के सब से महंगे स्कूल में पढ़ता था. घर पर भी बहुत अच्छे ट्यूटर पढ़ाने आते थे. उन के बेटे के पास महंगा कंप्यूटर, महंगे वीडियो गेम्स तो थे ही साथ में एक अच्छा सा मोबाइल फोन भी था. वह अपने बच्चे का पालनपोषण पूरे रईसी ढंग से कर रही थीं. यहां तक कि मैं ने कभी उसे कालोनी के बच्चों के साथ खेलते भी नहीं देखा था. कभीकभी मुझे लगता था कि श्रीमती शर्मा अपने बेटे की चर्चा कम मगर बेटे की आड़ में अपनी रईसी की चर्चा ज्यादा कर रही हैं. पर फिर भी मुझे उन से बात करना अच्छा लगता क्योंकि मेरे बच्चे होस्टल में थे और उन के बेटे के बहाने मैं भी अपने बच्चों की बातें कर लेती थीं.

वक्त गुजरता रहा, जिंदगी चलती रही. श्रीमती शर्मा का लड़का जवान हो गया और कूड़े वाला भी. पर उस की आदतें नहीं बदलीं. वह अब भी बहुत छुट्टियां करता था. पर मेरे पास उसे झेलने के सिवा कोई चारा नहीं था क्योंकि मैं पुराने कूड़े वाले की सुबहसुबह की अभद्र भाषा सहन नहीं कर सकती थी. ‘इतने वर्षों में भी कोई मशीन नहीं बनी भारत में’ कुढ़तेकुढ़ते मैं ने अपने आफिस में प्रवेश किया.

रोज की तरह आफिस का दिन बहुत व्यस्त था. कूड़ा और कूड़े वाले के विचारों को मैं ने दिमाग से झटका और अपने काम में लग गई.

शाम को घर आई तो देखा कि मेरे पति अभी नहीं आए थे. मैं ने अपने लिए चाय बनाई और चाय का कप ले कर लौन में बैठ गई. अचानक मैं ने देखा कि सफेद टीशर्ट और नीली जींस पहने मिठाई का डब्बा हाथ में लिए कूड़े वाला लड़का मेरे सामने खड़ा है. उस ने पहली बार मेरे पांव छुए तथा मिठाई मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैं ने नौन मैडिकल में यूनिवर्सिटी में टौप किया है. यह सब आप लोगों की उन छुट्टियों की बदौलत है, जो मैं ने जबरदस्ती की हैं. दिन में मैं सरकारी स्कूल में पढ़ता था. इसलिए शाम को कूड़ा उठाता था लेकिन परीक्षाओं के दिनों में मैं शाम को आ नहीं पाता था. कूड़ा उठाना मेरी पढ़ाई के खर्च का जरिया था. अगर आप लोग मुझे सहयोग नहीं देते और हटा देते तो मैं यह सब नहीं कर पाता.’’

मैं हैरान रह गई. अचानक ही मुझे उस की बात ‘हम क्या किसी से कम हैं’ याद आ गई. मैं ने पूछा कि तुम ने कभी इस बारे में बताया नहीं तो वह हंस कर बोला, ‘‘आंटी, आप ने कभी पूछा ही नहीं.’’

मैं ने आशीर्वाद दिया तथा उस की लाई मिठाई भी खाई. कूड़े वाला अचानक ही मेरी नजर में ऊंचा, बहुत ऊंचा हो गया था. जिसे इतने वर्षों तक कोसती रही थी तथा हमेशा ही जिस के पैसे काटना चाहती थी आज मन ही मन मैं ने उस की आगे की पढ़ाई का खर्च उठाने का निश्चय कर लिया था.

अरे, श्रीमती शर्मा के बेटे का भी तो आज ही परीक्षाफल आया होगा. वह भी तो नौन मैडिकल की परीक्षा दे रहा था. याद आते ही मैं श्रीमती शर्मा के यहां चली गई. उन का चेहरा उतरा हुआ था.

‘‘मैं ने अपने बेटे को सभी सुविधाएं व ऐशोआराम दिए हैं फिर भी वह मुश्किल से पास भर हुआ है,’’ श्रीमती शर्मा बोलीं.

अचानक ही श्रीमती शर्मा की रईसी मुझे उस कूड़े वाले की गरीबी के आगे बहुत बौनी लगने लगी थी.

आता और कूड़ा उठा कर चला जाता. वह क्या करता है, इतनी छुट्टियां क्यों करता है, यह जानने की मैं ने कभी जरूरत नहीं समझी. और आज जब मुझे उस के बारे में पता चला तो हैरान रह गई.

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